गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

संस्मरण

’संवाद प्रकाशन’
मेरठ से शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक
’लियो तोल्स्तोय का अंतरंग संसार’

से उद्धृत एक संस्मरण

संस्मृतियां

अलेक्जेन्द्रा अन्द्रेयेव्ना तोल्स्तोया
(१८१७-१९०४)
(लेव तोल्स्तोय की ऑण्ट)

अनुवाद : रूपसिंह चन्देल
लियो तोल्स्तोय(१८६३)

मुझे भलीभांत याद है कि जब १८५५ में एक युवा आर्टलरी अफसर के रूप में वह (लेव तोल्स्तोय) सेबस्तोपोल से वापस लौटे तब कैसा दिख रहे थे. मुझे याद है कि उन्होंने हम सब पर कैसा मोहक प्रभाव छोड़ा था.

व्यवहार में वह अत्यंत विनयशील और अकृत्रिम थे और इतना जिन्दादिल कि उन्होंने सभी पर अपने व्यक्तित्व की सजीव छाप छोड़ी थी. वह अपने विषय में कभी ही बात करते थे, नये (परिचित)चेहरे का ध्यानपूर्वक अध्ययन करते और उसके विषय में अपनी राय विनोदशीलता, और प्रायः अतिरंजना में व्यक्त करते . उपनाम ’पतली खाल’ जिसे उनकी पत्नी ने बाद में उन्हें दिया था उन पर सटीक था. हर विचार पर, अनुकूल हो या प्रतिकूल, उनकी प्रतिक्रिया जोरदार होती थी. लोगों को वह अपनी कलापूर्ण छठी इंद्रिय से परखते थे और उनकी राय प्रायः आश्चर्यजनक-रूप से सच होती थी. बुद्दिमान , सौम्य और अर्थपूर्ण आंखोंवाले उनके सरल चेहरे की अभिव्यंजकता सुन्दर चेहरे के अभाव की क्षतिपूर्ति करते थे, और, मैं कहूंगी कि वह खूबसूरत न होते हुए भी खूबसूरत था.

हम सब उन्हें बहुत प्यार करते थे और जब भी वह आते हम उहें देखकर बहुत प्रसन्न होते थे. लेकिन उनसे मित्रता, जिसने हमें आजीवन बांधे रखा था, बहुत विलंब से प्रारंभ हुई थी. वास्तव में वह १८५७ तक, जब हम स्विट्जरलैण्ड में साथ-साथ थे, विकसित नहीं हुई थी.


पूरी सर्दियां हम जेनेवा में रहे थे और हमे बहुत आश्चर्य हुआ था जब अकस्मात लेव मार्च में वहां आ उपस्थित हुए थे (यहां मैं यह भी जोड़ दूं कि उनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति सदैव ’कूप दे थियेटर की प्रकृति की थी ).

चूंकि हमारा पत्राचार नहीं था, अतः मुझे उनके पता-ठिकाना की जानकरी नहीं होती थी, और मैं उनके रूस में होने का अनुमान करती थी.

"मैं सीधे यहां पेरिस से आ रहा हूं," उन्होंने कहा था, "पेरिस इतना घृणित है कि मैं लगभग पागल ही हो गया था. मैंने वहां क्या देखा ! वहां एक छोटे-से मकान (गार्नी) में छत्तीस जोड़े (विवाहित ) रहते थे, जहां, मैं ठहरा हुआ था. उनमें से उन्नीस के आपस में अवैध सम्बन्ध थे. यह मुझे क्रोधोन्मत्त करता था. तब मैंने स्वयं के परीक्षण का निर्णय किया और एक गिलोटन देखने गया. उसके बाद मैं सो नहीं सका और नहीं समझ पाया कि अपने साथ क्या करू ! सौभाग्य से, मुझे यह ज्ञात हुआ कि तुम जेनेवा में हो और तत्काल वहां से भाग खड़ा हुआ कि तुम मुझे बचा लोगी.

यह बिल्कुल सच है, कि यह बताने के बाद उन्होंने हल्का अनुभव किया था और पुनः अपनी मानसिक शांति प्राप्त कर ली थी. हम प्रतिदिन एक दूसरे से मिलने, पहाड़ों पर जाने और हर प्रकार से जीवन का आनंद प्राप्त करने लगे थे. मौसम अत्यन्त सुन्दर था, और प्राकृतिक दृश्य------ मैं क्या कहूं ? मैदान के निवासी होने के कारण हमें उसमें परम आनंद मिल रहा था, हालांकि लेव ने हमारे उत्साह को बाधित करते हुए कभी-कभी यह समझाने का प्रयास किया कि काकेशस की तुलना में यह कुछ भी न था. फिर भी, हमारे लिए वही पर्याप्त था. उन्होंने पुराने कपड़ों की भांति अपने अतीत को त्यागकर सदा के लिए पुनः नई जिन्दगी शुरू कर दी थी. तब हम दोनों कितनी सहजता से इस संभावना पर विश्वास करते थे कि एक दिन स्वयं को दूसरे की ओर मोड़ लेगें और चाहने पर स्वयं को बदल लेगें. उस आयु में, हम बेहतर समझ सकते थे, हमने इसप्रकार पूरी तरह अपने को स्व-प्रवंचना को समर्पित कर दिया था, कि आयु की अपेक्षा अपनी अतंरात्मा में हम अधिक युवा थे.

बहुत दिनों तक पहाड़ों और उपत्यकाओं में भटकने के बाद हम लूसर्न (Lucerne) गये , और दूसरी बार लेव अनपेक्षित और अकल्पनीय रूप से वहां प्रकट हुए थे. ऎसा प्रतीत हुआ मानो वह धरती फोड़कर निकल पड़े थे. लुसर्न में वह हमसे दो दिन पहले ही पहुंच गये थे और वहां के अनुभव प्राप्त कर चुके थे, जिसका चित्रण उन्होंने बाद में अपनी कहानी ," नोट्स ऑफ प्रिंस नेख्ल्यूदोव’ में किया था. हमने उन्हें रोष से उत्तेजित और आंदोलित पाया था.


उन्होंने बताया, कि वह घटना हमारे पहुंचने की पूर्व संध्या को घटित हुई थी. एक घुमन्तू संगीतकार ने स्वीजरहॉफ बाल्कनी के नीचे लंबे समय तक संगीत वादन किया था, जहां आभिजात्यवर्ग के कुछ लोग एकत्र हो गये थे. सभी ने आनन्दपूर्वक संगीत सुना, लेकिन उसने जब इनाम के लिए अपनी हैट आगे बढ़ाई तब एक भी व्यक्ति ने एक पैसा भी नहीं दिया. निश्चित ही यह बहुत भयानक था, लेकिन लेव ने इसे महापराध माना था.

उस दंभी भीड़ को प्रताड़ित करने के भाव से उन्होंने उस संगीतकार की बांह पकड़ी थी, एक रेस्तरां में उसके साथ एक मेज पर जा बैठे थे , और भोजन और शैम्पेन का आर्डर किया था. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि जिन लोगों को वह प्रताड़ित करना चाहते थे उन्होंने या उस गरीब संगीतकार ने उनके उद्देश्य को समझ प्रशंसा की थी या नहीं.

उनमें एक और विशेषता थी, जिसकी मैं चर्चा करना चाहूंगी. उन्हें झूठ से घृणा थी, चाहे वह कहा गया हो या किया गया. लेकिन कभी कभी इसके उलट भी हो जाता था.

एक बार, एक दिन सुबह के समय, जब वह मेरी बहन के यहां चाय पर आमन्त्रित थे, जहां बहुत से अतिथियों के आने की आशा थी, उन्होंने मुझे लिख भेजा कि वह नहीं आ सकते, क्योंकि उन्हें कुछ समय पहले ही अपने भाई की मृत्यु की सूचना मिली थी. (वह अपने भाइयों को बहुत प्यार करते थे). मैंने उत्तर दिया कि निश्चित ही मैं उनकी स्थिति को ठीक से समझ सकती हूं . और आप क्या कल्पना करते हैं ? वह अचानक चाय पार्टी में आ उपस्थित हुए थे मानों कुछ हुआ ही न था.

उनके आगमन ने मुझे स्तब्ध और व्यथित किया था.

"लेव, तुम क्यों आए?" मैंने उनसे फ्रेंच में पूछा.

"क्यों? क्योंकि इस सुबह मैंने तुम्हें जो लिख भेजा था, वह असत्य था. यदि मैं आया, तो इसका अर्थ है कि मैं आ सकता था."

मानो, इतना ही पर्याप्त न था. कई दिनों बाद उन्होंने मुझसे स्वीकार किया कि वह थियेटर भी गये थे.

"तुम्हें यह बहुत आश्चर्यजनक अनुभव करना चाहिए." बहुत ही व्यथित-भाव से मैंने ध्यान से उनकी देखा.

"नहीं किया, ऎसा नहीं कह सकता. जब मैं थियेटर से लौटा मैं भयानक यातना से होकर गुजरा. यदि मेरे पास रिवाल्वर होता निश्चित ही मैं अपने गोली मार लेता."


"सत्य के मार्ग पर लंबी दूरी तय करने के बाद, तुमने सत्य का उपहास किया." ऎसे अवसरों पर मैं उनसे कहती और वह मुझसे सहमत होते. लेकिन फिर भी अपने पर परीक्षण करने से वह बाज नहीं आते थे.

"मुझे अपने पर कठोरतम परीक्षण करने चाहिए." वह कहते.

उन जाड़ों मे कई बार वह कहानियों की पाण्डुलिपियां पढ़ने के लिए लाते. "ए हैपी मैरीड लाइफ" और "थ्री डेथ्स" पहली बार मेरे घर ही पढ़ी गई थीं. वह बहुत खराब ढंग और शुद्ध अंतःकरण से पढ़ते थे और आलोचना को सकारात्मक भाव से ग्रहण करते थे.

उनके दिमाग में योजनाएं ऎसे उत्पन्न होती थीं जैसे वर्षा के बाद कुकरमुत्ते . हर आगमन के समय वह भविष्य के लिए नयी योजना लेकर आते और धाराप्रवाह सुनाते और प्रसन्न होते कि अंततः कोई समुचित व्यवसाय उनके पास भी था.

१८६२ में उनके विवाह के बाद कभी ही उन्होंने गांव छोड़ा था, और हम प्रायः बह्त कम एक दूसरे से मिल पाये, हालांकि मैं मिलने का हर संभव प्रयास करती थी. एक बार----- वह मेरे यहां इलिन्स्कोये आए थे. यह १८६६ की बात थी.

एक बार मधुमक्खी पालन अभियान, दूसरे ---- पूरे रूस में वनारोपण अभियान , और ऎसे ही अन्य कार्यों में वह अपने को व्यस्त रखते, लेकिन अन्य बातों की अपेक्षा उनकी दिलचस्पी अपने स्कूल में ही अधिक थी.

मुझे उस दिन की याद है, जब उन्होंने मुझे तुर्गनेव के साथ अपने झगड़े के विषय में बताया था, जो लगभग एक द्वन्द्व युद्ध में समाप्त हुआ था. झगड़े का विवरण मुझे याद नहीं (कारण बहुत सामान्य था) लेकिन मैं लेव निकोलायेविच की टिप्पणी नहीं भूली हूं.

"मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं" अपने बालों की जड़ों को स्पर्शकर लज्जारुण होते हुए उन्होंने कहा था, "उस मूर्खतापूर्ण मामले में मेरी भूमिका अनुचित न थी. किसी भी प्रकार मुझे दोष नहीं दिया जा सकता, और हालांकि मैंने निर्दोष अनुभव किया, फिर भी मैंनें तुर्गनेव को मित्रतापूर्ण और समझौताकारी पत्र लिखा था. लेकिन उन्होंने उसका उत्तर इतनी अशिष्टतापूर्वक दिया कि मुझे उनके साथ सम्बन्ध विच्छेद करना पड़ा.

बाद में सब ठीक-ठाक हो गया था, और वह प्रायः एक-दूसरे से मिलते भी रहे , लेकिन वे सच्चे मित्र कभी नही हो सके. बुनियादी तौर पर वे एक दूसरे से बहुत भिन्न थे.

2 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

बेहद खूबसूरत और परिपक्व अनुवाद है। बधाई !

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

रूप जी,
बहुत सशक्त और उत्तम अनुवाद है. बधाई.