रविवार, 29 नवंबर 2009

बातचीत

वरिष्ठ कथाकार द्रोणवीर कोहली से सीमा ओझा की बातचीत

पुरस्कार मिलते नहीं , लिए या झटके जाते हैं

द्रोणवीर कोहली

द्रोणवीर कोहली लगभग 77 बरस के हो रहे हैं, लेकिन अपनी सही जन्मतिथि नहीं जानते. पैदाइश इनकी वर्तमान पाकिस्तान के कैंपबेल ज़िले के निहायत बीहड़ गांव 'थोहा मार्ह्म ख़ां' में हुई, जहां बैलगाड़ी तक नही जा सकती थी .मातृभाषा इनकी 'अवाणकी' अथवा 'अवाणकारी' है, जिसमें तत्सम-तद्भव, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश के शब्दों का बाहुल्य है. बताते हैं कि अष्टाध्यायी प्रणेता पाणिनी का जन्मस्थान 'शलातुर' उसी क्षेत्र में था.
देश-विभाजन के उपरांत एक कस्बे में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करके रोज़ी-रोटी की जुगाड़ में दिल्ली चले आए और टाइपिस्ट-क्लर्क की नौकरी पा गए. संयोग से प्रकाशन विभाग में . नौकरी के साथ-साथ सांध्यकालीन कॉलेज में दाख़िला ले कर पहले राजनीतिशास्त्र में बीए(आनर्स) किया . फिर हिंदी में एमए . संयोग ही था कि यह अपने अध्यवसाय से भारतीय सूचना सेवा में चुने गए जिसमें इन्होंने 'बाल भारती,' 'आजकल,' 'योजना,' 'सैनिक समाचार' साप्ताहिक जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया . कुछ अर्से तक आकाशवाणी के समाचार विभाग में वरिष्ठ संवाददाता तथा हिंदी समाचार एकांश के प्रभारी संपादक और पत्र सूचना कार्यालय में डेपुटी प्रिंसिपल इनफरमशन आफ़िसर भी रहे . लेकिन समय से पांच वर्प पूर्व अवकाश ग्रहण करके आजकल स्वतंत्र लेखन और भ्रमण करते हैं .

इनकी प्रकाशित रचनाओं में मुल्क अवाणों का, चौखट, काया-स्पर्श, तकसीम, वाह कैंप, नानी, ध्रुवसत्य (उपन्यास); जमा-पूंजी (कहानी-संग्रह); बुनियाद अली की बेदिल दिल्ली, राजघाट पर राजनेता, हाइड पार्क (रिपोर्ताज) सम्मिलित हैं . लघु उपन्यास अरंगेत्रम् प्रकाशनाधीन है . बच्चों के लिए रचनाओं में लोककथाएं, कंथक, मोर के पैर, डाक बाबू का पार्सल, घड़ियालों की बारात तथा किशोरों के लिए टप्परगाड़ी शामिल हैं। अनूदित रचनाओं में फ्रेंच लेखक ज़ोला का बृहद उपन्यास 'उम्मीद है, आएगा वह दिन,' ' ज़लमार साइडरबा का उपन्यास 'डॉक्टर ग्लास, ' बच्चों के लिए चांग तइन-यी के दो उपन्यास 'करामाती कद्दू तथा जंगली-मंगली, ' फ्रांसिस ब्राउन की 'नानी की अद्भुत कुर्सी, ' कैप्टन मैरियट का 'वनवासी बच्चे, ' कार्लो कोलोडी का 'पिनोकियो 'आदि कुछ रचनाएं हैं .

यह बातचीत अंशत: गुड़गांव में उनके निवास-स्थान पर और अशत: लोधी रोड स्थित 'आजकल' के कार्यालय में हुई . इसे प्रस्तुत कर रही हैं, 'आजकल' की संपादक सीमा ओझा
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सीमा ओझा - आप रचनाशील साहित्यकार हैं . आपने कहानियां-उपन्यास, रिपोर्ताज आदि लिखे हैं . अनुवाद-कार्य किया . पत्रकारिता की . संपादन-कार्य भी किया . आपका जीवन काफ़ी संघर्षशील रहा है . अपनी शिक्षा-दीक्षा और आरंभिक जीवन के बारे में कुछ बताना चाहेंगे .

द्रोणवीर कोहली - क्या बताऊं, हमारे परिवार में पीढ़ियों से ऐसा कोई व्यक्ति दिखाई नहीं देता जो लेखक तो छोड़िए, अधिक पढ़ा-लिखा ही हो . मूलत: हम लोग पश्चिमी पंजाब के जिस बीहड़ इलाके से संबंध रखते हैं, वहां आना-जाना ऊंट-घोड़ी-खच्चर पर होता था . लड़के गांव के मदरसे में उर्दू पढ़ते थे . लड़कियां गांव की 'धरमसाल' (गुरुद्वारा) में 'भाई' या ग्रंथी से थोड़ी-बहुत गुरमुखी सीख लेती थीं . वहां हिंदी पढ़ने-पढ़ाने का सवाल ही नहीं उठता था . हमारे पुरखे पढ़ने-लिखने के नाम पर मुज़ेरों को कर्ज दे कर उर्दू में 'इष्टाम' (स्टैंप पेपर) लिखते-लिखवाते थे। संयोग से हम गांव से रावलपिंडी जैसे शहर आ गए . पिता आर्यसमाज के प्रभाव में थे . एक बेटे को गांव से ही गुरुकुल भेज चुके थे . यहां आ कर छठे बेटे यानि मुझे भी गुरुकुल भिजवा दिया जो मुझे कारागार से कम नहीं लगता था . वहां से मैं भागता रहता था. बरसात के दिनों में दो रोटी मांगो, तो एक-डेढ़ मिलती थी . बड़ी कठिनाई से दो-ढाई साल वहां व्यतीत किए. लेकिन बाल्यकाल में गुरुकुल में बिताई इस छोटी अवधि में मैंने ऐसा बहुत कुछ सीखा जो बाद में मेरे बहुत काम आया . वहां पाणिनीय अष्टाध्यायी के पांच अध्याय कंठस्थ किए थे . लघुसिध्दांतकौमुदी पढ़ी थी . मूल संस्कृत में हितोपदेश -पंचतंत्र आदि की कहानियों का रस लिया था . फिर इतनी छोटी उम्र में गुरुकुल के एक कमरे के पुस्तकालय को संभालने का काम भी किया . वहीं पर दृष्टांतसागर जैसी किताबें पढ़ने की चाट लगी . फिर रावलपिंडी जैसे शहर में हिंदी का धुंआधार प्रचार होता था . मुफ्त पुस्तकें दी जाती थीं. वहीं से मैंने प्रयाग की कोविद परीक्षा पास की . डीएवी स्कूल में आठवीं-नौंवीं कक्षा में हमारे हिंदी अध्यापक कोई शास्त्री जी हुआ करते थे . एक दिन कक्षा के बाहर खड़ा करके उन्होंने मुझे तीन डिक्टेटर किताब पकड़ाई, जिसमें हिटलर, स्तालिन और मुसोलिनी की जीवनियां थीं . किताब देते हुए उन्होंने यह अद्भुत बात कही थी, ''इसे पढ़ो और संपादक बन जाओ .'' यह मेरे लिए घोर अचरज का विषय है कि तब तक न तो मैं लिखता था, न स्कूल की कोई पत्रिका निकलती थी . क्या शास्त्री जी ने मेरा मस्तक देख कर यह भविप्यवणी की थी?
सीमा ओझा - फिर आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई ?

द्रोणवीर कोहली- मैं लेखक भी संयोग से ही बना हूं। देश-विभाजन के बाद छोटे-से कस्बे शाहाबाद मारकंडा में 1948 में मैट्रिक पास करके मैं निपट बेयारो-मददगार ('अकेला, जरीदा ओ बिलकुल अकेला, अकेला वो चौड़े समंदर के ऊपर') भटकता हुआ दिल्ली आया। कोई ठौर-ठिकाना नहीं था . चारों तरफ़ मेरे जैसे फटेहाल रिफ्यूजी ही रिफ्यूजी मंडराते दिखाई पड़ते थे। कुछ दिन सड़क पर भी सोया . यहीं पर दूर-पार का एक युवक साइकिल पर छोटा टाइपराइटर रख कर दुकान-दुकान जा कर चिट्ठियां टाइप करता था . उसी के कहने पर मैंने अंग्रेज़ी टाइप करना सीखा , और फिर यह भी संयोग कि पहली-पहली नौकरी भी मिली , तो प्रकाशन विभाग में , फरवरी 1949 में , जिसका कार्यालय उन दिनों पुराना सचिवालय में था (इससे पहले वह निकटस्थ राजपुर रोड पर हुआ करता था ) . और यह भी संयोग ही कहिए कि मुझे पहला काम दफ्तर में आने-जाने वाली डाक छांटने का मिला . मैं कुछ नहीं जानता था कि वहीं से 'आजकल ' 'बाल भारती' तथा 'विश्वदर्शन' जैसी पत्रिकाएं निकलती थीं . डाक में हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी लेखकों की रचनाएं, उनके पत्र, लेखकों के पारिश्रमिक के लिए तकाजे, संपादकों के जवाबी पत्र आदि आते-जाते थे . लेखकों के अमूमन पोस्टकार्ड ही आते थे जिनमें पारिश्रमिक न मिलने या कम मिलने की शिकायतें होती थीं . संपादकों की चिटिठयां टाइप हो कर आती थीं . लिफ़ाफ़ों पर पते लिखते-लिखते, डाक-टिकट लगाते-लगाते अनायास ही मैं उन्हें पढ़ता रहता था . फिर उत्सुकतावश डाक में आने वाली और लौटाई जाने वाली रचनाओं को भी देखने लगा . यहां पत्रों से अनोखी बात यह पता चली कि लेख-कहानी-कविता-नाटक लिखने वालों को पारिश्रमिक मिलता है. मुझमें लिख कर पैसा पाने का पहला बीज यहीं पड़ा . फिर डाक में ढेर-सारी देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाएं भी आती थीं - कई भाषाओं में, क्योंकि उन दिनों प्रकाशन विभाग में अनेक देशी -विदशी भाषाओं में सामग्री छपती थी . मैं इन पत्रिकाओं को खोल कर पढ़ता रहता था और फिर एक-आध दिन बाद उसी रैपर में यथास्थान भेज देता था . जो पत्रिका मुझे अच्छी लगती थी, उसे उड़ा भी लिया करता था, जिसके कारण शुरू-शुरू में तत्कालीन संपादकों का - चंद्रगुप्त विद्यालंकार, मन्मथनाथ गुप्त, केशवगोपाल निगम, सावित्री देवी वर्मा, जोश मलीहाबादी, अर्श मल्सियानी, जगन्नाथ आज़ाद, बलवंत सिंह, ए एस रामन (कला आलोचक और बाद में इलस्ट्र्रेटिड वीकली के संपादक) का कोपभाजन भी बनना पड़ा. (शारदा प्रसाद, शरदेंदु सान्याल, भवानी सेन गुप्त उर्फ चाणक्य सेन, प्रयाग नारायण त्रिपाठी तो बहुत बाद में आए). ये महानुभाव अपनी डाक के बारे में बड़े उतावले रहते थे. अकसर मैं डाक छांट रहा होता, तो सिर पर आ कर खड़े हो जाते थे - देवेंद्र सत्यार्थी को छोड़ कर . याद नहीं पड़ता कि सत्यार्थी जी कभी इशू एंड डिस्पैच ब्रांच में पधारे हों . (चलते-चलते बता दूं कि उन दिनों सत्यार्थी जी शोफ़र ड्रिवन गाड़ी पर आते थे, जबकि संपादक का वेतन 720 रुपए था) . यहीं मेरे हाथ लंदन से आने वाली एक साहित्यिक पत्रिका का फारसी साहित्य विशषांक लगा था जिसकी एक कहानी में और नई कहानी की बृहत्त्रयी के एक नामचीन लेखक की कहानी में मुझे काफी साम्य मिला था और इसके बारे में मेरी एक टिप्पणी से काफ़ी वावेला मचा था . इसके अलावा, डाक में प्रकाशन विभाग से छपने वाली पत्रिकाएं भी लौट कर आती रहती थीं . उन लौटी प्रतियों से पहली बार 'आजकल', 'विश्व-दर्शन' 'बाल भारती' आदि के दर्शन किए। इन्हें पढ़ता, तो कहानी-कविता लिखने की ललक होती . नजीजतन करीब अठारह साल की उम्र में मैंने नव-विवाहित जोड़े के संबंध-विच्छेद पर 'नीरा' शीर्षक से कहानी लिख मारी और गिरह से पैसा ख़र्च करके उसे टाइप भी करवाया. भाषा अत्यंत दुरूह और संस्कृतनिष्ठ थी . यह कहानी मैंने अनुनय-विनय करके 'बाल भारती' की उप-संपादिका श्रीमती सावित्री देवी वर्मा को पढ़ने को दी . पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि डाक की छंटाई करने वाला यह पंजाबी छोकरा आठ-नौ पेज की कहानी लिख सकता है. पढ़ने के बाद तो धड़धड़ाती हुई मेरे कमरे में आईं और लगीं मेरी लानत-मलामत करने - अभी तेरी मसें भी नहीं भीगीं और चला है पति-पत्नी के संबंधों पर कहानी लिखने! डांट-डपट और फिर प्यार से उन्होंने समझाया कि लेखक बनना चाहता है, तो जानी-पहचानी स्थितियों पर लिख . फिर यह उपदेश दे कर गईं कि पहले बच्चों के लिए छोटी-छोटी कहानियां लिखना सीख.
सीमा ओझा - उनकी सलाह मानी ?
द्रोणवीर कोहली- उनकी नेक सलाह हृदयंगम करते हुए मैंने बच्चों के लिए कहानी लिखी . उन्हें दिखाने की हिम्मत नहीं हुई . सीधे 'मनमोहन' में भेज दी . जब पत्रिका संपादक सत्यव्रत जी का स्वीकृतिपत्र आया, तो मैं बल्लियों उछला . मेरा पहला प्रयास ही सफल हुआ था और जब मार्च 1950 के अंक में इसके छपने की सूचना मिली, तो उस दिन सुबह-सुबह मैं लाल कुआं से दौड़ा-दौड़ा फ़तहपुरी चौक में अख़बार वाले के यहां पहुंचा . बता नहीं सकता पहली बार अपना नाम छपा हुआ देख कर मै किस तरह सातवें आसमान पर था . उस क्षण और स्थिति का आज मैं बखान करने में सक्षम नहीं हूं . कह लीजिए वैसी ही खुशी हासिल हुई थी, जैसी कि मां-बाप को पहली संतान के दर्शन मात्र से होती है . और फिर उसके लिए जब सात रुपए का मनीआर्डर आया था, जब मेरा मासिक वेतन ही करीब 115 रुपए था, तो वैसा ही आह्लाद हुआ था, जैसा कि खुल जा सिमसिम कहने पर गुफ़ा का दरवाज़ा खुलने पर हीरे-जवाहरात से भरी पेटी मिलती है . आज रायल्टी और पारिश्रमिक की हज़ारों की रकम से भी वह खुशी हासिल नहीं होती जो तब हुई थी . वैसे, लेखन से अर्जित पैसे का मूल्य कुछ और ही होता है . एक बार मैं 25 रुपए के पारिश्रमिक का चैक जेब में लिए जनपथ पर जा रहा था, तो लगता था कि इस रकम से मैं सारा बाज़ार ख़रीद सकता हूं .

सीमा ओझा - आपने जो पहली बाल-कथा लिखी, उसके बारे में कुछ बताइए .
द्रोणवीर कोहली -यह कहानी मैंने अपनी दादी के बारे में लिखी थी . और यह भी संयोग था कि वह व्यंग्य-कथा बन गई . दादी से मेरी कभी बनी नहीं . उसे अभिमान था कि वह धनाढय परिवार से आई है . मेरी मां ग़रीब परिवार से आई थी . बताते हैं कि सास-बहू में कभी बनी नहीं . मुझे जन्म देने के करीब एक साल बाद ही मां का देहांत हो गया था. सचमुच, दादी का मायका अमीर था. पार्टीशन के बाद पाकिस्तान से सूचना मिली थी कि लुटेरों ने उनकी हवेली की दीवारें और फर्श खोद कर ढेर सोना-चांदी और नकदी निकाली थी. दादी के एक भाई को अंग्रेज़ों से रायबहादुर की उपाधि मिली थी और पिंडी में मरी रोड जैसे राजमार्ग पर उसकी कोठी थी . दादी थी भी बड़ी हृष्टपुष्ट . अपनी सेहत का रहस्य यह बताती थी कि गांव में वह कच्चे बैंगन खूब खाया करती थी . कहती थी इतनी मोटी थी कि दरवाज़े में से निकल ही नहीं सकती थी . बस, दादी की खिल्ली उड़ाने की ख़ातिर ही मैंने पहली बाल-कथा लिखी . मैंने तो उसका शीर्षक रखा था 'दादी की कहानी'। छपी वह 'गांव' नाम से थी .
इसके बाद 'मनमोहन' में ही मेरी एक-दो कहानियां छपीं. उसके बाद कुछ समय तक मेरा लिखना रुक-सा गया था .सत्यव्रत जी लेखकों के प्रति बड़े स्नेहशील थे . आप चकित होंगी यह जान कर कि मुझ जैसे नौसिखिए लेखक को वयोवृध्द संपादक ऐसी चिट्ठी लिखते हैं जो किसी म्रियमाण लेखक में भी प्राण फूंक सकती है . कहानी के लिए तकाज़ा करते हुए उन्होंने पोस्टकार्ड पर यह लिख कर भेजा था: ''मेरी झोली खाली है''. ऐसे कर्तव्यनिष्ठ संपादक आजकल कहां! संपादक का रवैया, ख़ासकर उदीयमान लेखकों के प्रति, लेखक को आसमान पर उठा भी सकता है और नीचे पटक भी सकता है . 'बाल भारती' और 'आजकल' में मैंने उनके चरणचिह्नों पर चलने का थोड़ा-बहुत प्रयास किया .
सीमा ओझा - जहां तक मैं जानती हूं, 'गांव' जैसी कोई कहानी आपके किसी संग्रह में नहीं है .
द्रोणवीर कोहली - नहीं है . वास्तव में आरंभिक दौर में मैंने काफ़ी बड़ी संख्या में बच्चों के लिए कहानियां लिखी थीं . उन्हें किसी संग्रह में इसलिए नहीं दिया कि उन्हें मैं दुबारा सुधार कर लिखना चाहता हूं . कुछ अधकचरी हैं, कुछ स्वयं मुझे अच्छी नहीं लगीं. चलते-चलते आपको यह भी बता दूं कि बड़ों के लिए मैंने बीसेक कहानियां लिखी हैं . लेकिन मेरे संग्रह 'जमा-पूंजी' में कुल 12 कहानियां हैं . बाकी कहानियों को पुस्तकाकार छपवाना मैंने उचित नहीं समझा .
सीमा ओझा -यह चमत्कार नहीं था कि जिस संस्था में आपने एक छोटी-सी नौकरी से प्रवेश किया, वहीं से छपने वाली पत्रिकाओं के संपादक भी बने .
द्रोणवीर कोहली - चमत्कार नहीं, संयोग है . मैंने बताया न कि मेरे जीवन में संयोग का बड़ा हाथ रहा है . यह भी संयोग ही था कि 'बाल भारती' का संपादन करने वाली जिन श्रीमती सावित्री देवी वर्मा ने पहले मुझे लताड़ा था और मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया था, उन्हीं के हाथों से मैंने 'बाल भारती' का कार्य-भार संभाला - 1969 में . वह मार्मिक क्षण मेरे हृदय-पटल पर खुद कर रह गया है . सावित्री जी ने डबडबाई आंखों और अत्यंत वेदना-भरे स्वर में कहा था : '' जिस लड़के को मैंने कलम पकड़ना सिखाया, वह अब 'बाल भारती' निकालेगा!'' वास्तव में, हुआ यह था कि सावित्री जी की अपने सीनियर (अशोकजी) से पटरी नहीं बैठी थी और उन्हें लगभग अपमानित करते हुए उन्होंने 'बाल भारती' से हटाया था . उनका बिदाई का संदेश भी नहीं छपने दिया था . लेकिन सावित्री जी की सदाशयता देखिए कि जब मेरा पहला अंक आया, और उन्हें अच्छा लगा, तो उन्होंने मेरी पीठ ठोंकते हुए कहा था : ''ख़ूब काम संभाला है .'' उनके स्वर में वही खुशी थी जो संतान को थाती सौंपते हुए झलकती है . कभी-कभी कमंद ऐसे टूटती है .

सीमा ओझा -लेखन की शुरुआत आपने बाल-साहित्य से की . कहा जाता है कि शुरुआती दौर को छोड़ दें, तो बाद में आपका योगदान इस क्षेत्र में अत्यल्प रहा . ऐसा क्यों हुआ ? आपने अपने कहानी-संग्रह 'जमा-पूंजी' में लिखा है : ''बच्चों या किशोरों के लिए लिखने में तो मैं मुंह के बल गिरा हूं .'' क्षमा करें, इस कथन में घोर निराशा की झलक मिलती है . आपने 'टप्परगाड़ी' जैसा सफल किशोर उपन्यास लिखा है . 'डाक बाबू का पार्सल' रचना दी . 'देवताओं की घाटी' दिल्ली की हिंदी अकादमी ने पुरस्कृत हुई . उत्तर प्रदेश से 'कंथक' पुरस्कृत हुआ . इंडो-रशियन लिटरेरी क्लब ने बाल-साहित्य में मूल्यवान योगदान के लिए आपको सम्मानित किया . फिर भी, आपको यह बात किस कारण लिखनी पड़ी ? फिर इन दिनों आपकी कोई बाल-रचना भी सामने नहीं आई .
द्रोणवीर कोहली – बच्चों और किशोरों के लिए लिखना बड़ा दुष्कर कार्य है। एक बार मैं संघ लोक सेवा आयोग में किसी पद के लिए साक्षात्कार देने गया था . बोर्ड में हरिवंश राय बच्चन बैठे थे . उन्होंने मेरी बाल-पुस्तकें देखीं और पन्ने उलटने-पलटने के बाद गहरी सांस छोड़ते हुए भारी निराशा के स्वर में यह बात कही थी, '' बच्चों के लिए लिखना बड़ा कठिन काम है .'' स्वीकार करता हूं, इस एक वाक्य ने मेरा आत्मविश्वास डिगाया . मैं काफ़ी सेंसिटिव और कमज़ोर किस्म का आदमी हूं . फिर एक और घटना घटी . 'मनमोहन' में दो-तीन रचनाएं छपवाने के बाद 'बालसखा' में भी कहानी छपी, जिसके लिए उन्होंने पारिश्रमिक नहीं दिया . मैंने याद दिलाया, तो वहां से चार रुपए का मनीआर्डर आया, इस उपालंभ के साथ कि आपसे अनुबंध तो हुआ नहीं था, फिर भी चार रुपए भेज रहे हैं . मन इतना खट्टा हुआ कि उसके बाद आज तक मुझे किसी से पारिश्रमिक मांगने में बड़ा संकोच होता है . फिर अवचेतन में शायद शैलेष मटियानी का यह कथन भी है कि बच्चों के लिए लिख कर ''तृप्ति नहीं होती'' . समुचित धन-मान-प्रोत्साहन भी तो नहीं मिलता . इससे भी बढ़ कर अधिकतर बाल-पुस्तकों की तस्वीरें, छपाई, काग़ज़, जिल्दबंदी ऐसी होती है कि मन प्रसन्न नहीं होता . बाल-साहित्य को आज भी यथोचित महत्व नहीं दिया जाता . पांचवें-छठे दशक में मेरी जो किताबें छपीं, उनके चित्रों को देखेंगी, तो समझ जाएंगी . कलाकार को समुचित पारिश्रमिक नहीं दिया जाता . जब आप कलाकार के पेट में दाना नहीं डालेंगे, तो वह चित्रों में जान कैसे डालेगा . कलाकारों और लेखकों के हाथ में कुछ रुपल्ली उसी तरह पकड़ा दी जाती है, जिस तरह बच्चे को झुनझुना पकड़ाया जाता है . एक बार कहीं बाल पुस्तकें सबमिट की जानी थीं . आनन-फानन में किताबें मैन्यूफेक्चर की जाने लगीं . एक बड़े प्रकाशक ने एक आर्टिस्ट को बैठा कर चित्र बनवाने षुरू किए . मेरी भी एक पुस्तक थी . यह देख कर मुझे घोर निराशा हुई थी कि घंटे-भर में उस धनीधोरी ने कवर समेत भीतरी चित्र बना कर डाल दिए थे . स्थिति यह है . फिर भी, पता नहीं क्या सोच कर एक सुप्रसिध्द बाल-लेखक और संपादक ने पुस्तक लिख कर यह सिध्द करने का प्रयास किया है कि हिंदी बाल साहित्य ''स्वर्णयुग की ओर'' जा रहा है . शायद आप जानती हों, 'एलिस इन वंडरलैंड' के लेखक और कलाकार ने एक साथ बैठ कर पुस्तक की रूपरेखा बनाई थी. तभी वह कालजयी रचना कहलाई . कम से कम हिंदी में मैं ऐसी एक भी रचना का नाम नहीं ले सकता . आपने हिंदी अकादमी से पुरस्कृत जिस पुस्तक का ज़िक्र किया, वह - आप हैरान होंगी यह जान कर - पूरे दस साल बाद जा कर छपी . ऐसे में कौन स्थापित लेखक बच्चों के लिए लिखना पसंद करेगा . न पैसा मिलता है, न शोहरत मिलती है . 'बाल भारती' के संपादन-कार्य में मैंने कई बड़े लेखकों को अप्रोच किया . बड़ी कठिनाई से मन्नू भंडारी, कृश्न चंदर तथा एक-दो अन्य लेखक हाथ आए .
सीमा ओझा -अंग्रेज़ी बाल-साहित्य से आपका खासा परिचय लगता है . अंग्रेज़ी में लिखने की कभी कोशिश नहीं की ? सुना है, आप 'सैनिक समाचार' के अंग्रेज़ी संस्करण के संपादक रहे हैं .
द्रोणवीर कोहली – आरंभ में मेरी रुचि बाल-साहित्य में थी, इसलिए मैं काफ़ी बड़ी संख्या में अंग्रेज़ी बाल पुस्तकें पढ़ा करता था - यहां तक कि बाहर से भारी खर्च करके 'क्रिटिकल हिस्टरी आफ़ चिल्डे्रंस लिटरेचर' (624 पृष्ठ) मंगाई और उसका बड़े मनोयोग से अध्ययन किया . फिर प्रकाशन विभाग में अंग्रेज़ी रचनाओं को टाइप किया करता था, इसलिए अंग्रेज़ी में लिखने की लालसा हुई थी . पहले एक लंबा लेख दिल्ली पर लिखा . अजमेरी गेट पर बस न मिलने के कारण एक लड़की के साथ अगले स्टाप तक बातें करते हुए जो भावनाएं मन में आई थीं, उन्हें लिपिबध्द किया था . बाद में 'मनमोहन' में प्रकाशित रचना का अनुवाद करके दैनिक 'स्टेट्स्मैन' के बाल-स्तंभ 'प्लेटाइम' में भेजा, जो उन दिनों बड़ा लोकप्रिय था . वह छपी और पचास रुपए का चेक आया, तो अपार हर्ष के साथ यत्किंचित विषाद भी हुआ कि देखो, हिंदी और अंग्रेज़ी के लेखकों के साथ कैसा भेदभाव होता है . 'मनमोहन' से उसके लिए संभवत: आठ रुपए ही मिले थे . उसके बाद दो-तीन और बाल-रचनाएं 'स्टेट्स्मैन में छपीं . मैंने अंग्रेज़ी में लिखना इसलिए छोड़ दिया कि यह अनुभव किया कि अंग्रेज़ी मेरी अभिव्यक्ति की भाषा नहीं है .
सीमा ओझा - प्राय: नए लेखक कविता लिखने में प्रवृत्त होते हैं . आपने ........
द्रोणवीर कोहली – आज हंसी आती है, यह सोच कर कि मैंने भी उस दौर में कविता लिखने का प्रयास किया था . एक कविता लिखी और भेजी भी तो 'आजकल' में, जिसका सार यह था कि मेरी वीणा के तार टूट गए हैं, मैं गाऊं, तो कैसे गाऊं . सत्यार्थी जी ने या केशवगोपाल निगम ने झाड़ तो नहीं पिलाई, चुपचाप कविता लौटा दी . उसे फिर कहीं भेजने का साहस नहीं हुआ . एक बार बच्चों के लिए भी कविता लिखी थी . हुआ यह था कि मैं साइकिल निकाल कर दफ्तर के लिए निकल ही रहा था कि ज़ीने में खड़ी मेरी तीनेक बरस की चचेरी बहन ने तुतलाते हुए मुझसे एक पैसा मांगा और मैंने दिया नहीं था . चलते-चलते उस वक्त बच्ची की आंखों में जो विषाद देखा, और जिस तरह मेरी आत्मा को डंक लगा, उसी ने मुझसे यह कविता लिखवाई, जिसकी आरंभिक पंक्ति थी : 'भइया, कितने निष्ठुर हो तुम' . सौभाग्य से प्रयागनारायण त्रिपाठी ने कविता में यथोचित संशोधन करके उसे 'बाल भारती' में छपवा दिया . उसके बाद दो और बाल-कविताएं अप्रकाशित पड़ी हैं . एक कविता में सावित्री-सत्यवान की कथा है . सावित्री जंगल में भटकते हुए कैसे भयभीत होती है : 'पत्ता एक खटकता भी, तो, कान खड़े हो जाते थे, अंधकारमय वनाली में नेत्र लखने भिड़ जाते थे' . एक लंबी बाल-कविता बगिया लगाने वाले एक बूढ़े के बारे में है . प्रभाकर करके छंदशास्त्र की थोड़ा-बहुत जानकारी हुई थी . तुकबंदी में मन नहीं लगा और फिर आज तक कभी कविता लिखने का मन नहीं बनाया . हां, अच्छी कविताओं का अनुवाद करने का मन करता है .
सीमा ओझा -आपके किशोरोपयोगी उपन्यास 'टप्परगाड़ी' को तो काफ़ी पसंद किया गया . साप्ताहिक हिंदुस्तान में यह धारावाहिक छपा था और बताते हैं कि धर्मवीर भारती ने भी इसको सराहा था .
द्रोणवीर कोहली – संयोग से भारती जी की चिट्ठी मेरे सामने है . अचरज कि उन्होंने यह उपन्यास पढ़ा और उसके बारे में अपनी सुचिंतित राय भी दी, इस तरह: ''उस समय की संस्कृति के छोटे-छोटे विस्तारों का सजीव वर्णन, अनेक अविस्मरणीय पात्र और कहानी में बिना किसी 'गिमिक' के बांधे रखने की क्षमता, बिना पढ़े रहा ही नहीं गया . इसके दो अर्थ हो सकते हैं . या तो मूलत: यह स्टैंडर्ड पाठक का उपन्यास है, उसे किशोरों का उपन्यास कहना आपकी विनम्रता या हिचक है या फिर मैं मूलत: अभी भी कहीं किशोर अवस्था से उबरा नहीं हूं, यानि परिपक्वता पानी बाकी है .'' भारती जी के कथन से मुझे लगता रहता है कि किशोरों के लिए लिखने का गुण भी मुझमें नहीं है.
सीमा ओझा -इसकी भूमिका में आपने संकेत किया है कि सोलह साल में इसे पूरा किया है आपने .
द्रोणवीर कोहली – वास्तव में 'टप्परगाड़ी' नौसिखिए लेखक की कार्यशैली का नमूना है. तब भी और अब भी बंध कर लिखना मुझे आता नहीं . बार-बार काट-पीट कर लिखने की आदत-सी बन गई नहीं . कई बार गुड़गोबर हो जाता है. यह भी प्रकाशन विभाग में क्लर्क-जीवन की देन है . इस दफ्तर से प्रकाशित होने वाली अंग्रेज़ी पत्रिकाओं और पुस्तक-पुस्तिकाओं की संशोधित पांडुलिपियों को टाइप करने का काम करना पड़ता था . अनजाने में ही मैं सीख रहा था कि भाषा को सुधारा कैसे जाता है . अंग्रेज़ी के कई अधकचरे सहसंपादक (उन दिनों इनकी संख्या ही अधिक थी) ऐसे थे जो एक ही लेख को बार-बार सुधार कर पुन: टाइप करवाते रहते थे . एक संपादक तो ऐसे थे चिट्ठी इस तरह लिखवाते थे : ''थैंक्यू वेरी मच फ़ार योर लेटर...'' लेकिन पता नहीं इस वाक्य में उन्हें क्या खामी लगती थी कि उसे बदल कर कर देते थे : ''आइ टेक दिस अपरचुनिटि टु थैंक यू...'' आदि-आदि . फिर प्रकाशन विभाग के डायरेक्टर डॉ शषधर सिन्हा भारी कांट-छांट किए बिना जाने कोई रचना जाने नहीं देते थे . जवाहरलाल नेहरू जी के भाषणों के ग्रंथ 'इंडिपेंडेंस एंड आफ़टर' का संपादन उन्होंने और शीलाधर ने किया था और मैंने उनकी संपादित पांडुलिपि देखी है . जवाहरलाल जी तक यह माजरा पहुंचा था . सुनते थे कि उन्होंने यह कह कर अनुमोदन किया था कि जब तक डॉ सिन्हा वहां हैं, मैं निश्चिंत हूं . कहने का तात्पर्य यह कि संशोधित पांडुलिपियों को टाइप करके मैंने संपादन करना सीखा .

यह एक प्रभाव था . दूसरा प्रभाव खुशवंत सिंह का था जो 'योजना' के संपादक थे. कुछ समय तक मैं उनका पीए रहा . 'योजना' का संपादकीय लिखने के लिए वह दरवाज़ा बंद करके बैठ जाते थे और आध- पौन घंटे में संपादकीय हाथ से लिख कर मुझे देते थे . आश्चर्य! न तो उनकी हस्तलिपि में, न टाइपशुदा कापी में कोई काट-छांट करते थे . अफ़सोस कि खुशवंत जी की शैली तो नहीं सीखी,शषधर सिन्हा जी की आदत अपना ली .
सीमा ओझा -'टप्परगाड़ी' जैसी रचना के लिए प्रेरणा आपको कहां से मिली? ऐसी कहानी लिखने का ख़याल कैसे आया ? आप इतिहास के विद्यार्थी तो कभी रहे नहीं .
द्रोणवीर कोहली – 'टप्परगाड़ी' की कहानी इतिहास की किसी घटना को ले कर नहीं लिखी गई है . मैं उस परिवेश का चित्रण करना चाहता था जिसमें मैं जनमा-पला . मेरा लड़कपन बीता रावलपिंडी जैसे शहर में, जहां से प्राचीन तक्षशिला के खंडहर करीब बीस मील या तीसेक किलोमीटर परे थे . स्थानीय लोग इसे टकसला या टसकला याशाह नीं ढेरी बोलते थे पता नहीं लड़कपन में ऐसा क्या आकर्षण था कि मैं घर से भाग कर तक्षशिला गया था और वहां के खंडहरों में पूरा दिन भटकता फिरा था . इधर आ कर एकाएक एक दिन ख़याल आया कि क्यों न अपने पुराने परिवेश की पृष्ठभूमि को ले कर कोई कहानी-उपन्यास लिखूं - वह भी बड़ों के लिए नहीं, बच्चों या किशोरों के लिए . पहले संस्करण में मैंने इस बारे में नौ पृष्ठ की भूमिका लिखी है . एक तो इसलिए , दूसरे, यह उपन्यास एक इतिहास-काल को उसके समूचे जनपदीय परिवश के माध्यम से उजागर करता है . एक ग्रामीण दंपती अपनी जन्मांध कन्या के उपचार के लिए टप्परगाड़ी पर बैठ कर तक्षशिला के लिए रवाना होता है . रास्ते में उसे जो मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं और तक्षशिला में उस पर जो विपदा आती है, इसकी कहानी है यह . तत्कालीन जनजीवन का माहौल पकड़ने के लिए सबसे पहले मैंने जातक कथाओं के छहों खंड आद्योपांत पढ़े . मार्शल का तक्षशिला पर लिखा ग्रथ पढ़ा, डॉ मोतीचंद्र का ग्रंथ 'प्राचीन वेषभूषा' पढ़ा और भगवतशरण उपाध्याय का 'सार्थवाह' ग्रंथ पढ़ा . बीच-बीच में महाभारत भी पढ़ता रहा . यहां तक कि ग्रीक युध्द कला की पुस्तक विशेष रूप से लंदन से मंगवाई, जिसका उपयोग मैं नहीं कर सका . सिकंदर के बारे में लिखे कुछ अंग्रेज़ी उपन्यासों का भी अवगाहन किया . इसी तुफ़ैल में 1960 में शुरू की गई कहानी काटते-पीटते, चलते-रुकते कहीं 1976 में जा कर पूरी हुई . साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक मनोहरश्याम जाशी को इतनी पसंद आई कि उन्होंने अपने मुखपृष्ठ पर इसकी घोपणा करके एक अंक में इसका संक्षिप्त रूप छापा और 1979 में यह उपन्यास पुस्तकाकार छपा . करीब ढाई सौ पृष्ठों के 'टप्परगाड़ी' के सजिल्द संस्करण की कीमत अठारह रुपए रखी गई थी . लेकिन प्रकाशक को लगा था कि इस तरह की बड़ी रचना इतने महंगे दामों में कोई नहीं खरीदेगा . उन्होंने मेरे मुंह पर यहां तक कह डाला था कि ''हमसे तो बड़ी ग़लती हो गई इसे छाप कर .'' मैं इतना हतोत्साह हुआ कि इसके आगे के खंड के लिए सामग्री एकत्र कर ली थी, उसे आज तक हाथ नहीं लगाया. जब कोई छापने वाला नहीं, तो समय क्यों बरबाद किया जाए . आप हंसेंगी . पाठक भी हंसेंगे . लेकिन यह असलियत है . अब कहीं 2009 के अंत में 'टप्परगाड़ी' का दूसरा संस्करण आ सकता है . मैं समझता हूं हिंदी में किशोर साहित्य न पनपने का एक कारण प्रोत्साहन का अभाव है . प्रकाशकों की रुचि नहीं है ऐसा साहित्य छापने में .
सीमा ओझा -बच्चों के लिए कोई नई रचना ?
द्रोणवीर कोहली – दो-ढाई साल पहले मैंने 'मटकी मटका मटकैना' नाम से एक लधु उपन्यास लिखा था . लेकिन वह अभी तक छपने की राह देख रहा है . पांडुलिपि प्रकाशक के पास पड़ी है . बस, एक बात का डर है कि उसके चित्र कोटि के नहीं बनेंगे. इसलिए प्रकाशक से निवेदन किया है कि उसे बिना चित्रों के छापा जाए, हालांकि यह अनर्गल-सी बात है कि बच्चों की किताब चित्रहीन हो, लेकिन परिस्थितिवश ऐसा मुझे कहना पड़ा . सोचता हूं, इसी बहाने जल्दी छप भी जाएगी .
सीमा ओझा -आपने मौलिक लेखन के अलावा, अनुवाद कार्य भी किया है.
द्रोणवीर कोहली – मैंने बच्चों की और बड़ों की पुस्तकों का अनुवाद किया है - रियाज़ करने की ख़ातिर . जब आप किसी अच्छी रचना का अनुवाद करते हैं, तो उससे कुछ सीखते हैं . सबसे पहले मैंने चीनी उपन्यासकार चांग तइन-यी के बाल-उपन्यास 'करामाती कद्दू' का अनुवाद किया . यह रचना मुझे इसलिए अच्छी लगी थी कि इसमें इस अद्भुत मनोरंजक शैली में शिक्षा दी गई थी कि लगता ही नहीं कि लेखक ऐसा कर रहा है . यह रचना 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में अठारह सप्ताह तक छपी . लेकिन खेद है इसकी कोई प्रति मेरे पास भी नहीं है . किसी के पास हो, तो मुझे दें . इसी लेखक की ऐसी ही एक और रचना 'जंगली-मंगली' का भी अनुवाद किया है . कार्लो कोलोदी के इटैलियन क्लासिक 'पिनोकियो' का भी अनुवाद हाल ही में पूरा किया है . वैसे तो कई लेखकों ने 'पिनोकियो' को हिंदी में प्रस्तुत किया है, लेकिन जितने पाठ मेरी नज़र से गुज़रे, वे अधूरे या संक्षिप्त हैं . मैंने इसका पूरा अनुवाद किया है . हिंदी पाठकों की सुविधा के लिए नामों का कहीं-कहीं भारतीयकरण ज़रूर कर दिया है .
इनके अतिरिक्त फ्रेंच लेखक ज़ोला की क्लासिक रचना 'जर्मिनल' का 'उम्मीद है आएगा, वह दिन' शीर्षक से अनुवाद किया है . पांच सौ पृष्टों के इस उपन्यास का अनुवाद मैंने दो-तीन प्रयोजनों से किया . एक तो फ्रांस में अठारहवीं सदी के आसपास कोयला-खानों की जो दुर्दशा थी, वैसी आज भी हमारी कुछ कोयला-खानों में पाई जाती है . यह दिखाने के लिए मैंने इस रचना को हाथ में लिया . दूसरे मैं यह दिखाना चाहता था कि इतना बड़ा लेखक, इतना बड़ा थीम हाथ में लेता है, लेकिन विचारधारा के चक्कर में पड़कर किस तरह इसके समूचे प्रभाव को नष्ट करता है . यहां मैं अशोक वाजपेयी का कथन उध्दृत करते हुए कहूंगा कि इस रचना में ''साहित्यानुराग से अधिक वैचारिक आग्रह'' है .

इसके अतिरिक्त, स्वीडिश लेखक ज़लमार साइडरबरय की सर्वश्रेप्ठ समझी जानी वाली रचना 'डॉक्टर ग्लास' प्रकाशनाधीन है . कई लेखकों की कहानियों का भी अनुवाद समय-समय पर छपता रहा है .
सीमा ओझा -सुना है आपने प्रकाशन विभाग में अपने लंबे अनुभवों का चित्रण किसी उपन्यास में किया है .
द्रोणवीर कोहली – भारतीय सूचना सेवा के अंतर्गत - 1949 से 1985 - लंबे काल तक मैंने प्रकाशन विभाग में काम किया . मैं आजकल जो कुछ भी हूं, इस अनुपम संस्था की बदौलत ही हूं . फिर यह कैसे हो सकता था कि मेरे संघर्ष और रचनात्मक जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा कहीं बीते, ख़ासकर जहां रहते हुए मैंने कलम पकड़नी सीखी, उस पर मैं कलम न चलाता . 'ध्रुवसत्य' नाम से हाल ही में प्रकाशित अपने उपन्यास में मैंने प्रकाशन विभाग में प्रवेश और उन दिनों के परिवेश का चित्रण करने का प्रयास किया है . लेकिन 1949 से डेढ़-एक बरस के अनुभव ही इसकी पृष्ठभूमि में हैं . काल ने इजाज़त दी, तो अगला खंड भी लिखूंगा .
सीमा ओझा -'बाल भारती' और 'आजकल' में अपने संपादन-काल के कुछ खट्टे-मीठे अनुभव बताएं .
द्रोणवीर कोहली – 'बाल भारती' का मेरा संपादन काल बड़ा सुखद रहा . पत्रिका का काम अचानक सौंपा गया था . रचनाएं जुटाने और चित्र आदि बनवाने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता था . अकसर चित्रकार सहयोग नहीं करते थे .हमेशा टाल-मटोल करते रहते थे . लेकिन चित्र बनाते भी चालू किस्म के थे . लेकिन मैं उनका पिंड नहीं छोड़ता था . लेकिन यह संघर्ष आनंदप्रद था . मुझे तो पत्रिका निकालने में इतना सुख मिलने लगा था कि मेरा अपना लेखन छूट गया था. अतिशयोक्ति और अपने मुंह मुंह मिट्ठू बनना न समझें, तो उठते-बैठते मैं उसके बारे में ही सोचता रहता था . बाल लेखन यदि कठिन काम है, तो बाल पत्रिका निकालना उससे भी बड़ा दायित्व है . मैं तीन-चार पत्रिकाओं के संपादन-कार्य से संबध्द रहा हूं . इनमें 'बाल भारती' का काम मुझे अधिक दायित्वपूर्ण और आनंददायक लगता था . एक उदाहरण से यह स्पष्ट करना चाहूंगा . यदि 'आजकल' जैसी साहित्यिक पत्रिका में कोई भाषा-त्रुटि रह जाती है, तो उसे लेखक की शैली मान कर नज़रअंदाज़ किया जा सकता है . लेकिन बच्चों की पत्रिका में यदि भाषा या व्याकरण की ग़लती रह जाती है, तो उसका ठीकरा संपादक के सिर फोड़ा जाता है. इस दृष्टि से यह अधिक दायित्वपूर्ण कार्य है. कभी-कभी बड़े-बड़े लेखकों का अकारण कोपभाजन बनना पड़ता था . एक बार सोहनलाल द्विवेदी ने संभवत: फ़रवरी के अंत में बसंत पर कविता भेजी थी, जो छपाई की विवशताओं को देखते हुए मई-जून के अंक से पहले छप नहीं सकती थी . मैंने विनम्र निवेदन के साथ उन्हें यह लिखा कि अभी समय है, आप इसे किसी दैनिक पत्र में छपवा लें. तत्काल उन्होंने यह लिख भेजा था : ''आज तक किसी संपादक ने मेरी रचना नहीं लौटाई .'' ऐसी दुरूह स्थितियों का भी सामना करना पड़ता था.
'आजकल' में मेरा कार्यकाल अति संक्षिप्त रहा . कुछ लेखक पत्रिका से कट गए थे - कुछ तो विचारधारा के कारण सरकारी पत्रिका में लिखने से कन्नी काटते थे . लेकिन मैं ऐसे कुछ लेखकों का भी सहयोग प्राप्त करने में सफल हुआ . मैंने उनसे मात्र यह निवेदन किया कि इसमें सरकार की नीतियों के खिलाफ़ कुछ न लिखें, न इसमें कोई अश्लील या भदेस किस्म की रचनाएं छपेंगी . मुझे खुशी है कि मुझे हर विचारधारा के लेखकों का सहयोग मिला . नामवर सिंह ने भी अपना लेख दिया था . दूसरे, मैं किसी के दबाव में झुका नहीं - न लेखकों के, न अपने सीनियर अधिकारियों के . 'आजकल' साहित्यिक पत्रिका है, यह जानते हुए भी मेरे एक सीनियर अधिकारी ने मुझे उसके मुखपृष्ठ पर दो बार सत्ताधारी नेताओं के चित्र छापने के लिए मौखिक आदेश दिए, जिनका पालन मैंने नहीं किया . शिकायत निदेशक तक पहुंची . मुझे खुशी है कि दोनों बार दोनों निदेशकों ने मेरे फैसले का समर्थन किया .

मैंने सप्तकों पर एक अंक निकाला था . 'अज्ञेय' जी ने थोड़ी नाराज़गी इस लिए प्रकट की थी कि कहते थे कि मुझे उनसे पूछ लेना चाहिए था कि किन लेखकों से लिखवाना है . लेकिन उन्होंने इस बारे में कोई शिकायत नहीं की, हालांकि कर सकते थे . लेखकों को पत्रिका से जोड़ने के लिए मैं हर महीने बीस लेखकों के पास पत्रिका भिजवा कर उनसे सहयोग की प्रार्थना करता था . इसका अच्छा फल निकला . जो नहीं लिखते थे, उन्होंने भी लिखने का आश्वासन दिया . राजेंद्र यादव ने एक बार मुझसे कहा था - तुम सबको साथ ले कर चले हो . फिर इलाचंद्र जोशी जी का दो पन्नों का पत्र आया था, जिसमें 'आजकल' और मेरे जैसे अज्ञात संपादक के बारे में जिज्ञासा की गई थी . हां, नेमिचंद्र जैन ने यह ज़रूर लिख भेजा था कि 'आजकल' अभी ऐसी पत्रिका नहीं बनी कि उसे ख़रीद कर पढ़ा जाए . धर्मवीर भारती जी ने कुछ अंक देख कर यहां तक लिख भेजा था कि जी करता है कि 'आजकल' के दफतर में आ कर संपादक जी को बधाई दूं...
सीमा ओझा -यह गौरव की बात है कि 'आजकल' को सरकारी पत्रिका होते हुए भी शुरू से ही लेखकों का स्नेह मिला है .
द्रोणवीर कोहली – निस्संदेह . इसका एक प्रमुख कारण मैं यह समझता हूं कि मेरे पूर्ववर्ती और बाद के संपादकों ने जिस निष्ठा से साहित्य की सेवा की है, उसका ऐतिहासिक महत्व है . हां, बीच-बीच में इसका रूप बिगड़ा ज़रूर है, जब यह साहित्यिक पत्रिका न रह कर शुध्द रूप से ''सरकारी'' पत्रिका बन कर रह गई थी लेकिन लेखकों को यहां से हमेशा समुचित आदर-मान मिला है . फिर मुझे याद नहीं पड़ता कि 'आजकल' का प्रकाशन कभी स्थगित हुआ हो . यह बहुत बड़ी बात है . उन दिनों हिंदी पत्रिकाएं लेखकों को पारिश्रमिक नहीं देती थीं . जो देती भी थीं, तो पत्रपुष्प के रूप में . 'आजकल' ही ऐसी पत्रिका थी जिसने हर लेखक को समुचित पारिश्रमिक देना शुरू किया . मैं समझता हूं, 'आजकल' की लोकप्रियता का एक कारण यह भी था जिस कारण उसे शुरू से ही लेखकों का सहयोग मिलने लगा था . 'आजकल' की प्रतिष्ठा कितनी है, और इससे जुड़ने के लिए लोग किस तरह लालायित रहते हैं, उसक एक उदाहरण देखिए . हमारे एक सहयोगी 'आजकल' का संपादक बनने को बड़े लालायित रहते थे . कहते थे, ''अहा, 'आजकल' का संपादक होना बात ही कुछ और है .'' उनकी अंतिम इच्छा इस तरह पूरी नहीं हुई, क्योंकि उन्नति की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते संपादक के पद से भी आगे वह प्रकाशन विभाग के डायरेक्टर हो गए थे .
सीमा ओझा -सुनते हैं, भारती जी के साथ आपके मधुर संबंध थे . आपने धर्मयुग में लिखा भी काफ़ी है .
द्रोणवीर कोहली – धर्मवीर भारती में एक गुण यह था कि वह लेखकों के पीछे पड़ कर उनसे लिखवा लिया करते थे . यह मैं अपने अनुभव से जानता हूं . मुझे लगता है कि मेरी दो रचनाएं - 'टप्परगाड़ी' तथा 'चौखट' पढ़ कर ही उन्होंने मुझे धर्मयुग में नियमित रूप से लिखने के लिए कहा था . 'चौखट' उपन्यास उन्हें पसंद तो नहीं आया था, लेकिन उसकी रिपोर्ताज शैली उन्हें पसंद थी . मेरे कई लंबे-लंबे रिपोर्ताज उन्होंने 'धर्मयुग' में छापे . यही नहीं, दिल्ली की गतिविधियों पर उन्होंने मुझसे नियमित स्तंभ 'बेदिल दिल्ली' भी लिखवाया जो चिरकाल तक मेरे 'बुनियाद अली' छद्म नाम से छपता था . मुझे इस बात की खुशी है कि मैं भारती जी का विश्वासपात्र बना - यहां तक कि कुछ मनचले किस्म के लोग मुझे 'छोटे भारती' भी कहने लगे थे . मैंने जब समय से दस साल पहले सरकारी नौकरी छोड़ने की बात सोची थी, तो भारती जी ने यह कह कर मुझे रोका था : ''देखिए, ऐसी हालत में रोज़ी-रोटी के लिए आप प्रकाशकों और संपादकों की दया पर निर्भर करेंगे, सोच लें।'' बड़ी नेक सलाह थी . मैंने तत्काल अपनी आर्थिक स्थिति को थोड़ा व्यवस्थित करना शुरू किया और पांच साल बाद जा कर स्वेच्छया सेवानिवृत्ति ली . यदि मैं ऐसा न करता, तो सोचता हूं जो लिखा है - अच्छा या बुरा - वह मैं न लिख सकता .
सीमा ओझा -अभी-अभी आपने पत्रकारिता का ज़िक्र किया . अगर इसे पिटा-पिटाया सवाल न समझें, तो पत्रकारिता और साहित्यिक लेखन में परस्पर कोई विरोध है ?
द्रोणवीर कोहली – मैं तो ऐसा नहीं समझता. पत्रकारिता एक ऐसा स्कूल है जो साहित्यकार को सामग्री जुटाने और एकाग्रचित्ता हो कर लिखना सिखाता है . कुछ लोग ग़लत सोचते हैं कि पत्रकारिता साहित्यिक शैली को भ्रष्ट करती है . फणीीश्वरनाथ रेणु कल्पनाशील साहित्यकार होने के साथ-साथ कुशल पत्रकार भी थे . उनके लिखे रिपोर्ताज भाषा-शैली एवं प्रस्तुति के लिए आज भी पढ़े जा सकते हैं . अमेरिकन उपन्यासकार जाह्न स्टीनबेक एक अख़बार की तरफ़ से कैलिफोर्निया में श्रमिक असंतोष और भूमि-समस्या की रिपार्टिंग करने गए थे . वहां न जाते, तो उन्हें 'ग्रेप्स आफ़ राथ' के लिए आधारभूत सामग्री न मिलती जिस पर उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला . गैब्रियल गार्शीया मार्क्वेज़ आज भी नियमित स्तंभ लिखते हैं . उनकी नई लघु औपन्यासिक कृति 'मेमोरीज़ आफ़ माइ मेलनकली व्होर्स' का प्रमुख पात्र एक पत्रकार, यानि स्वयं मार्क्वेज़ हैं . अरविंद अडिग को 'व्हाइट टाइगर' पर मैनबूकर पुरस्कार मिला है . वह 'टाइम' पत्रिका के स्टिंगर थे . पत्रकारिता करते हुए अरविंद को बिहार और उत्तर प्रदेश के गांवों में जो अनुभव हुए, उन्हीं के आधार पर उन्होंने यह उपन्यास लिखा है . ये कुछ ही उदाहरण हैं कि पत्रकारिता साहित्यिक लेखन को भ्रष्ट नहीं करती, बल्कि उसके लिए कच्ची सामग्री उपलब्ध कराती है .
सीमा ओझा -साहित्यिक पुरस्कारों की राजनीति के बारे में हर तबके के लेखकों में असंतोष देखने को मिलता है .
द्रोणवीर कोहली – मैं बताता हूं . अमूमन लेखक पुरस्कार देने वाली अकादमियों अथवा संस्थाओं की निंदा करते हैं. वास्तव में, दोष इन अकादमियों का नहीं, पुरस्कारों की सिफारिश करने वाली समितियों का है जिनमें लेखक अपने-अपने मोहरें चलते हैं . यानि लेखक स्वयं कसूरवार हैं . कुछ लेखक ऐसे हैं जो दंद-फंद करके हर समिति में पहुंच जाते हैं . वह इसलिए कि इस स्थिति को वे प्रकाशकों के यहां भुना सकते हैं . अकादमियां तो मात्र डाकघर हैं . 'मुझे चांद चाहिए' शुध्द रूप से सिनेमाई अंदाज़ में लिखा गया उपन्यास है, जो मेरी समझ में साहित्य अकादेमी के योग्य नहीं था . फिर भी उसे यह पुरस्कार मिला . इसके लिए अकादेमी को दाष नहीं दूंगा . लेखक के मित्रों को दीजिए जिन्होंने उसकी सिफ़ारिश की . कई बार एक-आध किताब छपवाने वाले लेखक या ''हिंदी-सेवी'' पुरस्कृत होते रहते हैं . वास्तव में, पुरस्कार मिलते नहीं, लिये या झटके जाते हैं . अपनी बात बताऊं? मुझे यूपी से बाल-पुस्तक 'कंथक' पर कभी पुरस्कार मिला था . कैसे मिला ? वास्तव में, वह मिला नहीं, दिलवाया गया था . उन दिनों उत्तर प्रदेश में सुचेता कृपालानी मुख्यमंत्री थीं . उनके मुंहलगे सूचना अधिकारी और मेरे मित्र कष्प्णचंद्र मेरी बाल-पुस्तक 'कंथक' उठा कर ले गए थे और उन्होंने अपने रसूख से मुझे पुरस्कार दिलवाया था . तो पुरस्कारों की यह स्थिति है . एक बार विष्णु प्रभाकर ने भी काफ़ी हाउस में बैठे नए-नए पुरस्कृत लेखक को बधाई देने के बजाय यह कह कर लज्जित किया था कि तुमने फलां-फलां लेखक का पुरस्कार छीना है.
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जन्म १९३२ के आसपास रावलपिण्डी के निकट एक दुर्गम एवं उपेक्षित ग्रामीण क्षेत्र में हुआ. देश-विभाजन के उपरान्त दिल्ली आगमन जहां किशोरावस्था बीता और शिक्षा-दीक्षा हुई. भारतीय सूचना सेवा के दौरान विभिन्न पदों पर काम करने के अतिरिक्त, 'आजकल', 'बाल भारती', 'सैनिक समाचार' जैसी पत्रिकाओं का सम्पादन किया. कुछ समय तक आकाशवाणी में वरिष्ठ संवाददाता तथा हिन्दी समाचार विभाग के प्रभारी सम्पादक भी रहे.
आजकल स्वतन्त्र लेखन.
प्रकाशित कृतियां : *काया-स्पर्श, चौखत, तकसीम, वाह कैंप, नानी, ध्रुवसत्य, उम्मीद है (उपन्यास).*जो़ला के उपन्यास 'जर्मिनल' का अविकल हिन्दी अनुवाद - आएगा वह दिन.* जमा-पूंजी. (कहानी संग्र).*टप्पार गाड़ी, देवताओं की घाटी, डाक बाबू का पर्सल, कंथक (किशोरोपयोगी/बालोपयोगी).*मोर के पैर (लोककथाएं).
संपर्क : एस-२३/६ डी.एल.एफ. सिटी,गुणगांव- १२२००२हरियाणा.मोबाइल : ०९८१०८१५७९१

4 टिप्‍पणियां:

बलराम अग्रवाल ने कहा…

बहुत अच्छी बातचीत। अच्छा ही है कि कोहलीजी को जन्मतिथि याद नहीं है। याद रही होती तो वे साल में सिर्फ एक दिन ही अपना जन्मदिन मना सकते थे। अब हर रोज मना सकते हैं, पता नहीं कौन-सा फिट बैठ जाय। मेरी ओर से आज वाले जन्मदिन पर हार्दिक शुभकामनाएँ आदरणीय कोहलीजी।

PRAN SHARMA ने कहा…

EK ARSE KE BAAD SHREEFAANAA ANDAZ
MEIN KOHLEE SAHIB KEE BAATEN PADHEE
KUCHH KHATEE,KUCHH MEETHEE.LAGTA
HAI KI UNHONNE ZINDGEE KO BAHUT
NAZDEEK SE DEKHAA HAI.BAHUT HEE
BADHIYA SAAKSHAATKAAR.

सुभाष नीरव ने कहा…

द्रोणवीर कोहली का इंटरव्यू बहुत अच्छा है। पर, यह बाल साहित्य और सरकारी पत्रिकाओं पर अधिक केन्द्रित हो गया है। क्या ही बढ़िया बात होती अगर कोहली जी के कथा साहित्य और उपन्यासों को केन्द्र में रखकर भी बात होती। यहाँ भी तुम्हारे इस अंक के सम्पादकीय में पुरस्कारों को लेकर उठाये गए प्रश्नों पर बात हो गई है।

सुभाष नीरव ने कहा…

द्रोणवीर कोहली का इंटरव्यू बहुत अच्छा है। पर, यह बाल साहित्य और सरकारी पत्रिकाओं पर अधिक केन्द्रित हो गया है। क्या ही बढ़िया बात होती अगर कोहली जी के कथा साहित्य और उपन्यासों को केन्द्र में रखकर भी बात होती। यहाँ भी तुम्हारे इस अंक के सम्पादकीय में पुरस्कारों को लेकर उठाये गए प्रश्नों पर बात हो गई है।