गुरुवार, 6 मई 2010

कविता


भगवत रावत की तीन कविताएं
(१)
नया साल
कितना अच्छा रहा कि पिछले पूरे एक वर्ष में
आपको कभी किसी बात पर क्रोध नहीं आया
कितना अच्छा हुआ कि किसी भी घटना से
आया नहीं आपके रक्त में रत्ती भर उबाल
कितना अच्छा रहा कि आप समयानुकूल
बुरी से बुरी ख़बर पर भी उत्तेजित नहीं हुए
कितना अच्छा रहा कि इस वर्ष भी आपके मन में
उठा नहीं कोई उल्टा-सीधा सवाल,
कितना अच्छा रहा कि आप कहीं फंसे नहीं
बुद्धिमानी से काटे आपने अपने सारे जाल
कितना अच्छा रहा कि सरकारी ख़र्चे पर आप भी हो आये विदेश
वेतन के अलावा भी निरन्तर बढ़ी आपकी आय
पिछले वर्ष की ही तरह आप फले-फूले इस बरस भी
इसी तरह आपको मुबारक हो नया साल
रहें सदा आप इसी तरह, झंझटों-टण्टों से दूर
दूर से ही भांपते रहें, क़रीब आने वाले की चाल
समझदारी से का़यदे-कानूनों के भीतर सब काम करें
आने नहीं दें अपने ऊपर कोई आंच, उठने नहीं दें कोई बवाल
सरकारें आयें-जायें, बवण्डर उठें, आते रहें भूचाल
आप खड़े रहें वहीं धैर्य से अविचलित
इस वर्ष भी रहें आप सदा की तरह निर्लिप्त-निर्विकार
पिछले वर्ष से भी अधिक मंगलमय हो आपका यह वर्ष.
(२)
मेधा पाटकर
करुणा और मनुष्यता की ज़मीन के
जिस टुकड़े पर तुम अपने पांव जमाये
खड़ी हुई हो अविचलित
वह तो कब का डूब में आ चुका
मेधा पाटकर
रंगे सियारों की प्रचलित पुरानी कहानी में
कभी न कभी वह पकड़ा ज़रूर जाता था
अब बदली हुई पटकथा में
उसी की होती है जीत, उसी का जय-जयकार
मेधा पाटकर
जीवन देकर भी तुम जिसे बचाना चाहती हो
तुम भी तो जानती हो कि वह न्याय
कब दोमुंही भाषा की बलि चढ़ चुका
मेधा पाटकर
हमने देखे हैं जश्न मनाते अपराधी चेहरे
देखा है उन्हें अपनी क्रूरता पर गर्व से खिलखिलाते
पर हार की कगार पर
एक और लड़ाई लड़ने की उम्मीद से
’बुद्ध’ की तरह मुस्कुरते सिर्फ़ तुम्हें देखा है
मेधा पाटकर
तुम्हारे तप का मज़ाक उड़ाने वाले
आदमखोर चेहरों से अश्लीलता की बू आती है
तुम देखना, उन्हें तो
नर्मदा भी माफ़ नहीं
मेधा पाटकर
सारी दुनिया को गांव बनाने की फ़िराक़ में
बड़ी-बड़ी कम्पनियां न जाने कब से
तुम्हें शो-केस में सजाकर रखने के लिए
मुंह बाये बैठी हैं इन्तज़ार में
कुछ उनकी भी सुनो
मेधा पाटकर
खोखले साबित हुए हमारे सारे शब्द
झूठी निकली प्रतिबद्धताएं
तमाशबीनों की तरह दूर खड़े-खड़े
गाते रहे हम दुनिया बदलने के नक़ली गीत
हम सबके
सर झुके हुए हैं
मेधा पाटकर
(३)
शायद वह एक कवि था
उस आदमी के बारे में कहीं कोई
दस्तावेज़ नहीं मिलेगा
इतिहास हमेशा की तरह चुप रहेगा
सौ साल बाद हो सकता है शायद कभी
कोई बूढ़ा खरोंचता हुआ अपना दिमाग़
बताए उस अजूबे के बारे में
किसी को
कि उसके बचपन के ज़माने में
एक अध्यापक था जो भाषा पढ़ाता था
साहित्य और समाज जैसे विषयों में
उसकी गहरी रुचि थी
इसलिए उस ज़माने में भी वह
अज्ञानी और मूर्ख
कहलाता था
उसकी कई और कठिनाइयां थीं
जैसे यही कि वह अपने समय में
हिन्दुओं में मुसलमान और मुसलमानों के बीच
हिन्दू समझा जाता था
उसकी परेशानी यह भी थी कि वह
एक ही जाति में रहने को विवश था
अपने ही देश के कुछ मुहल्लों में
सिमट कर रहने को विवश था
अपने ही देश में दब-छिपकर
रहने को विवश था
वह जीवन भर किसी ऎसी जगह की
तलाश में रहा जहां वह
जैसा है वैसा ही रह सके
जैसा वह चाहे वैसा हो सके
हालांकि उसका देश आज़ाद था
और देश में लोकतन्त्र बहाल था
पर पूरे देश में उसके लिए
कहीं कोई जगह नहीं थी
उसके मां और बाप की एक जाति थी
एक धर्म था
एक भाषा थी
और उसे एक नाम दिया गया था
इन सबका होते हुए भी वह
इन सबके बाहर भी रहना चाहता था
वह इन सबसे बाहर रहते हुए भी सबके
भीतर तक जाना चाहता था
लोग कहते हैं उसकी अक़्ल मारी गयी थी
इसीलिए वह भटकता रहा दर-ब-दर जीवन भर
पर उसे कहीं रहने को जगह नहीं मिली
जहां-जहां उसने रहने की कोशिश की
वहीं-वहीं उसे बेरहमी से मारा गया
पूरे देश में कोई ऎसा शहर नहीं बचा
जहां उसकी हत्या नहीं हुई
पर किसी ने उसे शहीद नहीं कहा
किसी भी जगह उसका कोई स्मारक नहीं बना
वह हिन्दू नहीं था
लेकिन हर बार उसे हिन्दुओं की तरह जलाया गया
वह मुसलमान नहीं था लेकिन हर बार उसे
मुसलमानों की तरह दफ़नाया गया
वह ईसाई नहीं था उसे हर बार चर्च तक ले जाया गया
वह सिक्ख भी नहीं था
पर हर बार उसे गुरुद्वारा दिखाया गया
वह एक अध्यापक था
और अपनी अंतिम यात्रा में
किसी स्कूल तक जाना चाहता था
शायद वह एक कवि था
और एक कवि की तरह चुपचाप मरना चाहता था.
*****
जन्म : 13 सितम्बर 1939, जिला–टीकमगढ़, मध्यप्रदेश।
शिक्षा : एम.ए. बी.एड।1983 से 1994 तक.
* हिन्दी के रीडर पद पर कार्य के बाद दो वर्ष तक ‘मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी’ के संचालक। 1998 से 2001 तक क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, भोपाल में हिन्दी के प्रोफेसर तथा समाज विज्ञान और मानिविकी शिक्षा विभाग के अध्यक्ष।
**साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश परिषद् के निदेशक रहे एवं मासिक पत्रिका ‘साक्षात्कार’ का संपादन किया।
प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह – समुद्र के बारे में(1977), दी हुई दुनिया(1981), हुआ कुछ इस तरह(1988), सुनो हिरामन(1992), सच पूछो तो(1996), बिथ-कथा(1997), हमने उनके घर देखे(2001), ऐसी कैसी नींद(2004), निर्वाचित कविताएं(2004)। आलोचना– कविता का दूसरा पाठ(1993)। मराठी, बंगला, उडि़या, कन्नड़, मलयालम, अंग्रेजी तथा जर्मन भाषाओं में कविताएं अनूदित।
सम्मान : दुष्यंत कुमार पुरस्कार(1979), वागीश्वरी पुरस्कार(1989), शिखर सम्मान(1997–98)
सम्पर्क : 129, आराधना नगर, भोपाल–462 003
फोन : 0755–2773945
मोबाइल : ०९८२६६१४३९२

3 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

SHRI BHAGWAT RAWAT KEE SABHEE
KAVITAAYEN PADH GYAA HOO.MEDHA
PATKAR PAR LIKHEE UNKEE KAVITA
BAHUT KUCHH SOCHNE KE LIYE KAHTEE
HAI.

सुभाष नीरव ने कहा…

भाई चन्देल, भगवत रावत मेरे प्रिय कवि हैं। उनकी कविताओं में जो अपने समय और समाज से जुड़ी चिंताएं संवेदनात्मक रूप लेकर आती हैं, वे इन्हें समकालीन हिंदी कविता की भीड़ में एक अलग पहचान देती हैं।

सुरेश यादव ने कहा…

भगवत रावत जी की कवितायें पहले भी पढ़ी हैं .अपना अलग प्रभाव छोड़ती हैं.मेरी बधाई और कसे हुए चुनाव के लिए चंदेल जी को हार्दिक धन्यवाद.