गुरुवार, 8 जुलाई 2010

लघुकथाएं



स्व. रमाकांत की दो लघुकथाएं

जनमत

श्री सत्तीराम अपने को सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं, लेकिन सत्ता में आए बिना असली समाजसेवा नही

हो
सकती, इसलिए वे राजनीति के भी धुरंधर खिलाड़ी हैं.

बातचीत में, व्यवहार में मृदु, पर मृदुता में चतुराई, शिष्टता से भरी चपलता और चंचलता से भरी संजीदगी. कहीं कोई खोट नहीं निकाल सकता.

मेरे सम्पर्क में जब वे आए तो चुनाव का स्मय था. मेरे जैसा आदमी इससे पहले उनसे मिलने की हिमाकत भी नहीम कर सकता. पर ज्यों ही मिले, लगा जैसे कब के मेरे लंगोटिया हों. पूछा, "कोई तकलीफ तो नहीं.""

"अहीं साहब, आप की किरपा है."


उन्होंने मेरी पीठ पर हाथ रखा. कहा, "भाई,मैं चुनाव में खड़ा हो रहा हूं, तुम्हें मेरी मदद करनी है."

"बेशक खड़े होइए, मेरा वोट पक्का समझिए."

"अरे भाई, इसमें शक क्या है, लेकिन आसपास के भी वोट दिलवाने होंगे."

"हां, हां, जरूर," कहने को मैंने कह दिया, पर उनके जाते ही सोचने लगा, मुहल्ले वालों से क्या कहकर उन्हें
वोट दिलाऊंगा. उन्हें जानता ही कितना हूं.

मुझे अधिक इंतजार नहीम करना पड़ा.

नगर में दो पार्टियां हैं--- डण्डा पार्टी और झण्डा पार्टी. सत्ताराम जी डण्डा पार्टी के नेता हैं.

तांगे पर लाउडस्पीकर बांधे डण्डा पार्टी का एक आदमी उन्हें वोट देने की अपील कर रहा था--- निःस्वार्थ सेव
, गरीबों के मसीहा सत्ताराम जी को अपना बेशकीमती वोट देना न भूलें. वे हमारे शहर ही नहीं, मुल्क और इंसानियत की शान हैं. उनके जैसा त्यागी, समाजसुधारक नहीं मिलेगा. उन्हें अपनी सेवा का मौका दें."

मेरी उधेड़बुन कुछ कम हुई. सोच लिया कि मुहल्ले वालों से सत्ताराम जी को वोट देने के लिए यही बातें कहूंगा.

लेकिन थोड़ी देर बाद दिमाग फिर उलझ गया. आगे झण्ड पार्टी का एक कार्यकर्ता उसी तरह माइक पर चिल्ला रहा था.


"भाइयो, आप लोग झण्डा पार्टी के उम्मीदवार को न भूलें. साथ ही होशियार रहें उस मक्कार और काइयां से जो जनता का सेवक और गरीबों का हमदर्द बनता है. वह शहर ही नहीं, मुल्क, इंसानियत का दुश्मन है. स्वार्थी और मुकापरस्त है, दूसरोम का हक मारकर त्यागी बना फिरता है."

जाहिर है, यह सब सत्ताराम जी को लक्ष्य कर कहा जा रहा था. मैं इतना भ्रमित और दुखी हुआ कि वोट दिलाना क्या, देना भी भूल गया.


मगर धन्य हैं सत्ताराम जी. उन्होंने इसका जरा भी बुर नहीं माना. अगले चुनाव में फिर उसी शृदयता से मिले और वोट दिलाने का वादा कराया. मैंने भी हामी भर दी. पर इस बार वे झण्डा पार्टी के उम्मीदवार थे. बीच में न जाने कब और क्यों पार्टी बदल दी थी. अतः अब उन्हें क्या कहकर वोट दिलाऊंगा, यह जानने के लिए मैं फिर बाहर निकला.

लोग उन्हें फिर वोट न देने और उनसे सावधान रहने की अपील कर रहे थे. बस एक फर्क था--- पिछली बार उनके बारे में जो डण्डा पार्टी ने कहा वह इस बार झण्डा पार्टी कह रही थी, और जो पहले झण्डा पर्टी ने कहा था, इस बार डण्डा पार्टी कह रही थी.


मैंने पूछा, "महाराज, यह क्या हुआ ? आप बदल कैसे गए ?"

वे बोले, "क्या कहते हो ! बदल गया ? अरे नादान , मैं वहीं हूं, बदला तो जनमत है. अब उसका क्या भरोसा----."

पसंद

होटल की वेटरेस उस आदमी की मन लगाकर सेवा करती, उसे अच्छी टेबिल पर बिठाती, उसके लिए अच्छा से अच्छा खाना परोसती. पर वह ऎसा खूसट था कि कभी उसे टिप भी न देता.

कुछ दोनों बाद दोनों में प्रेम हो गया और उन्होंने शादी भी कर ली.

शादी की रात पति ने पूछा--- "डार्लिंग , तुम्हें मेरे अन्दर क्या पसंद आया ?"

"तुम्हारी कभी टिप न देने की आदत"---पत्नी का जवाब था.

*****



रमाकांत
: जन्म : २ दिसम्बर, १९३१ बरौधा, मिर्जापुर (उ.प्र.)
मृत्यु : सितम्बर, १९९१.

कृतियां : ’जिन्दगी भर का झूठ, उसकी लड़ाई (कहानी संग्रह),
"छोटे-छोटे महायुद्ध’ ’तीसरा देश’, ’उपसंस्कार’ ’प्यादी-फर्ज़ी-अर्दव’, जुलूस वाला आदमी’ (उपन्यास)

3 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

दोनो लघु कथायें अच्छी हैं मगर दूसरी को एक चुटकुले के रूप मे पहले कहीं पढा है। आभार।

सुभाष नीरव ने कहा…

स्व0 रमाकांत जी की पहली लघुकथा राजनेताओं के भौंडे चरित्र और चेहरे को रेखांकित करती लघुकथा है। दूसरी लघुकथा "पसंद" बहुत सटीक लघुकथा है, कम शब्दों में बड़ी बात !

PRAN SHARMA ने कहा…

DONO LAGHU KATHAAYEN APNAA-APNAA
PRABHAAV CHHODTEE HAIN.