गुरुवार, 8 जुलाई 2010

वातायन - जुलाई, २०१०



वातायन के इस अंक में प्रस्तुत है ’हम और हमारा समय’ के अंतर्गत मेरा आलेख - ’दलित विमर्श और हिन्दी उपन्यास’, स्व. रमाकांत की दो लघुकथाएं, और वरिष्ठ कथाकार और गज़लकार ज्ञानप्रकाश विवेक की चर्चित कहानी - ’बैण्ड मास्टर’.

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हम और हमारा समय

दलित विमर्श और हिन्दी उपन्यास

रूपसिंह चन्देल

नोट : (भोपाल से प्रकाशित पत्रिका ’अक्षरा’ के २००१ के एक अंक में प्रकाशित और किंचित संशोधन के साथ पुनर्प्रकाशित)

लगभग दो दशकों से हिन्दी दलित साहित्य चर्चा में है. १९८८ के पश्चात दलित समाज में जो सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना जागृत हुई उसकी अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से होना ही था. आज हिन्दी में अनेक रचनाकार विभिन्न विधाओं में निरन्तर सृजनरत हैं. इतने अल्प समय में दलित-साहित्य का विकास आश्वस्तिकारक है. प्रारम्भ में भले ही ’दलित-साहित्य’ और ’दलित-साहित्यकार’ की अवधारणा ने जन्म न लिया हो लेकिन गत कुछ समय से यह चर्चा का विषय बन गया है कि क्या वही साहित्य दलित-साहित्य की परिधि में आता है जो दलित-साहित्यकारों द्वारा लिखा जा रहा है या वह साहित्य भी दलित-साहित्य है जिसके लेखक गैर दलित हैं, लेकिन जिनमें दलित जीवन की सघन , विश्वसनीय और वास्तविक अभिव्यक्ति हुई है.

इस विषय में दलित आलोचक डॉ. तेज सिंह* का कथन है, "अभी पिछले दिनों दलित साहित्यकारों ने ’स्वानुभूति’ और ’सहानुभूति’ दो अनुभूतिपरक शब्दों को बहस के केन्द्र में लाकर दलित-साहित्य को गैर दलित-साहित्य से पूरी तरह अलग कर दृढ़तापूर्वक अपनी स्थापना रखी कि दलित जीवन पर गैर दलितों द्वारा लिखा गया साहित्य ’सहानुभूति’ का साहित्य है और उसे किसी अर्थ में दलित-साहित्य नहीं कहा जा सकता और न ही उसे उसमें शामिल ही किया जा सकता है." (आज का दलित-साहित्य, पृ.५९) इस तर्क से साहित्य के विषय में अब तक स्वीकृत यह मान्यता खण्डित हो जाती है, जिसमें कहा गया है कि साहित्यकार ’स्वानुभूत’ विषयों की ही भांति ’परानुभूत’ विषयों को भी उतनी ही गहनता से अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति प्रदान करता है. कितनी ही बार वह दूसरों के भोगे यथार्थ को कहीं अधिक गहराई से लिख पाता है बजाय अपने भोगे यथार्थ के. यदि अपने भोगे यथार्थ की अवधारणा के साहित्य को ही साहित्य माना जाता तो शायद ही हमें ’अन्ना कारिनिना’ जैसा विश्व प्रसिद्ध उपन्यास प्राप्त होता. प्रेम चन्द का तो यहां तक मानना था कि कहानी के ’प्लॉट’ ट्रेन में यात्रा करते हुए--अखबार पढ़ते हुए और किसी अन्य के साथ घटी घटना को देखते हुए भी ग्रहण किए जा सकते हैं. आवश्यकता होती है कि लेखक ऎसे विषयों को कितनी गहराई तक अपने अन्दर जीता है. अर्थात यथार्थ अपना भोगा हुआ हो या दूसरे का --- जब तक वह गहन मानवीय संवेदना से आवेष्टित होकर रचनाकार को उद्वेलित नहीं कर देता, वह रचनात्मक स्वरूप ग्रहण नहीं करता. एक अच्छी रचना दीर्घ अन्तर्यात्रा के पश्चात ही जन्म लेती है. अस्तु, मैं यहां उन हिन्दी उपन्यासों पर संक्षिप्त चर्पा करना चाहूंगा, जिनमें दलित जीवन की सघन अभिव्यक्ति हुई है.

यद्यपि हिन्दी कथा साहित्य के उद्भव से आज तक सैकड़ों रचनाएं हैं, जिनमें किसी न-किसी रूप में दलितों के जीवन पर प्रकाश डाला गया है; किन्तु वह मूल कथा के एक अंग के रूप में ही उद्भाषित हुआ, न कि विषेष रूप से उन्हें चुना गया अर्थात वह केन्द्रीय विषय कभी नहीं रहा. लेकिन गोपाल उपाध्याय का उपन्यास ’एक टुकड़ा इतिहास’, अमृतलाल नागर का ’नाच्यो बहुत गोपाल’, जगदीश चन्द्र का ’नरक कुण्ड में बास’, (जो उनके उपन्यास-त्रयी का दूसरा भाग है) मदन दीक्षित का ’मोरी की ईंट’ तथा गिरिराज किशोर का ’परिशिष्ट’ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण उपन्यास हैं; क्योंकि उनमें केवल और केवल दलित जीवन ही विषय-वस्तु के रूप में व्याख्यायित हुआ है.

यह आश्चर्यजनक संयोग है कि उपरोक्त उप्न्यासों में पहले चार के लेखक ब्राम्हण हैं. यहां मुझे कथाकार कमलेश्वर की बात याद आती है कि इन उपन्यासों पर से यदि उनके लेखकों के नाम हटा दिए जाएं और किसी ऎसे व्यक्ति से पूछा जाये जो उनके विषय में न जानता हो कि वे किसकी कृतियां हैं तो व्ह उन्हें केवल ’दलित-साहित्य’ ही कहेगा. सच यह है कि लेखक वह प्राणी होता है जो परकाया प्रवेश करता है. अतः आवश्यक नहीं कि वह अपने भोगे यथार्थ को ही गहनता से अभिव्यक्त करे.

’मोरी की ईंट’ के विषय में कहा गया है, "नरक बटोरने वाले, अछूत जातियों के लिए भी अछूत-मेहतरों के जीवन की आन्तरिक झांकी". और मेहतरों की इस आन्तरिक झांकी को अन्दर से देखने-पाने के लिए मदन दीक्षित नाम का किशोर मेहतर बस्ती का अंग बन गया था. दीक्षित इस उपन्यास के विषय में कहते हैं, "इसी अपनेपन की पूंजी के सहारे मुझे दूसरी जगहों के मेहतर समाजों से अन्तरंगता कायम करने में कभी कोई कठिनाई सामने नहीं आई और उनकी परम्पराएं, मर्यादाएं, व्यथा-कथाएं, संघर्ष गाथाएं और ढेर सारे निर्बल-सबल चरित्रों के संस्मरण मेरे अपने ज्ञान-कोष के अभिन्न अंग बन गए. इसी बीच अन्य बहुत-सी बातों के साथ मुझे इस बात का भी खूब अच्छी तरह से अहसास हो गया कि सवर्ण और मध्यम जातियां तो क्या, अधिकांश अनुसूचित जातियां भी मेहतरों को अछूत ही समझती हैं और धर्म बदल लेने पर भी भारतीय समाज में मेहतरों की मेहतरियत में कोई अन्तर नहीं आता." (वाजिबुल अर्ज़ - भूमिका)

’मोरी की ईंट’ उपन्यास मुख्य रूप से दलितों (मेहतरों) के धर्म परिवर्तन को उद्घाटित करता है और यह बताता है कि धर्मांतरण के बाद भी धर्मांतरित लोगों का दर्जा नये समाज में पूर्व जाति के आधार पर ही निर्धारित होता है. कर्नल ब्राउन का खानसामा खैराती कर्नल के प्रयास से मेहतर से क्रिस्टान हो जाता है और उसका बेटा सैम्युअल उच्च शिक्षा प्राप्त करता है, लेकिन विक्टर पन्त और एडगर जोशी , जो कभी अल्मोड़ा के नन्दलाल पन्त और मोहन चन्द्र जोशी थे, सैम्युअल को वह सामाजिक सम्मान देने को तैयार नहीं थे, नये समाज में जिसका वह हकदार था; क्योंकि उनके पूर्व ब्राम्हणवादी संस्कार धर्मांतरण के पश्चात भी उनके अन्दर मौजूद थे. ऎसे ही अनेक दलित-परिवारों के संघर्ष और मार्मिक जीवन प्रसंगों को ’मोरी की ईंट’ में प्रमाणिकता के साथ चित्रित किया गया है.

जगदीश चन्द्र का उपन्यास ’नरक कुण्ड में बास’ उनके पहले उपन्यास ’धरती धन न अपना’ का दूसरा भाग है (लेकिन स्वतंत्र उपन्यास भी--- और इसका तीसरा भाग - यह जमीन तो अपनी थी’ उनके मरणोंपरांत प्रकाशित हुआ था ) है , जिसमें चमारों की दारुण जीवन-स्थितियों का वास्तविक चित्रण किया गया है. कथानायक काली गांव के चौधरी से अपने प्राण बचाकर जालन्धर आ जाता है. बैलों के स्थान पर स्वयं जुतकर रेहड़ा खींचने से लेकर मजूरी के अन्य ढंग-कुलीगिरी के बरास्ते वह एक ऎसी कम्पनी में काम करने लगता है जहां चमड़ा तैयार करने का काम होता है. काली को मांस और खून से सनी मक्खियों के अम्बार से ढकी खालों को नमक और चूने के पानी में डूबकर दिनभर में साफ करना और सुखाना होता है. उपन्यास हमें जिस दुनिया की यात्रा करवाता है उसे यदि ’जीवित नर्क’ कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी. हिन्दी में दलित जीवन पर यह एक श्रेष्ठ उपन्यास है. संभव है कोई दलित रचनाकार जिसने काली जैसा जीवन जिया हो, काली और उस जैसे मजदूरों के जीवन की नारकीयता को और बेहतर कहने की कोशिश करता, लेकिन अब तक की दलित लेखकों की रचनाओं --- खासकर उपन्यासों -- से गुजरने के बाद ऎसी आशा करना बछड़े से दूध निकालना जैसा है. जगदीश चन्द्र से शायद ही कुछ छूटा हो. चमड़ा कारखाना के पास बहते गन्दे नाले में कारखाने का सड़ांध युक्त पानी बहकर उसे इतना अधिक बदबूदार बना देता है कि किसी भी सभ्य समाज की बस्ती उस नाले के किनारे रह नहीं सकती, लेकिन गरीब मजदूरों की झोपड़ बस्ती उस नाले के किनारे सड़ांध, मक्खियों और अनेक संक्रमक रोगों से जूझती रहने को अभिशप्त है. काली के अनेक साथी नमक युक्त पानी में दिनभर खड़े रहकर चमड़ा तैयार करने के कारण गले पंजों (पैर) और असह्य खुजली का शिकार बन कारखाने के काम के लिए अयोग्य बन मृत्यु की कामना करते हुए उसी बस्ती में रहते हैं.

यहां यह ध्यातव्य है कि जगदीश चन्द्र पंजाब की अनेक दलित संस्थाओं से सम्बद्ध थे और दलित आन्दोलन (पंजाब) में उनकी अहम भूमिका होती थी. यह सुखद तथ्य है कि पंजाबी दलित साहित्यकारों द्वारा वे सदैव समादृत रहे और यदि यह उपन्यास पंजाबी भाषा में प्रकाशित हुआ होता तो निश्चित ही इसका उचित मूल्यांकन हुआ होता. हिन्दी की तरह उपेक्षित न रहा होता, जबकि एक सत्य यह भी है कि अन्तिम दशक का यह सर्वश्रेष्ठ उपन्यास होने का अधिकारी है.

’नाच्यो बहुत गोपाल’ और ’एक टुकड़ा इतिहास’ में ऎसी दो नारी पात्रों के माध्यम से दलित जीवन चित्रित किया गया है, जिनमें एक निर्गुणिया (नाच्यो बहुत गोपाल) ब्राम्हण पुत्री होकर एक मेहतर मोहना की पत्नी बन जाती है और दूसरी चनुली (चन्दा देवी - एक टुकड़ा इतिहास’) दलित होकर एक ब्राम्हण कान्तिमणी की पत्नी बनकर ब्राम्हणी होने का स्वप्न देखती है. दोनों पात्रों के संघर्ष भिन्न हैं. चनुली तो ब्राम्हणी नहीं बन पाती ---- प्रताड़ित होकर पुनः दलित समाज में धकेली जाने के बाद एक दुर्द्धर्ष दलित महिला के रूप में जिस प्रकार अपना विकास करती है और सवर्ण समाज के लिए चुनौती बनती है वह आश्चर्यचकित करता है. गांव की उपेक्षित-शोषित युवती जिजीविषा और संघर्ष का दामन पकड़ अपने समाज के उत्थान के लिए जिस प्रकार कटिबद्ध दिखती है, वह प्रेरणादायी है --- आज की दलित नारी के लिए. दलित चेतना तो दो दशक पूर्व जागृत हुई जबकि यह उपन्यास उन्नीस सौ पचहत्तर में प्रकाशित हो चुका था. निर्गुणिया का संघर्ष पूर्ण मेहतरानी बन जाने का है. वह बनती भी है, लेकिन उस सबके लिए उसे जैसी शारीरिक, मानसिक और सामाजिक यन्त्रणाओं से होकर गुजरना पड़ता है वही उसकी शक्ति है और वह इस उपन्यास को ’दलित साहित्य’ की परिधि में ला खड़ा करता है. गिरिराज कोशोर का उपन्यास ’परिशिष्ट’ में भी दलित जीवन को गंभीरता से चित्रित किया गया है. अपने समय का यह एक चर्चित उपन्यास है.

उपरोक्त उपन्यास इस बात को प्रमाणित करते हैं कि ईमानदार लेखक सदैव दुख-दर्द, पीड़ा-शोषण-दमन के साथ खड़ा होता है, चाहे वह दलित हो या गैर दलित. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि महिलाएं भी युगों से दलित-शोषित जीवन जीने के लिए अभिशप्त रही हैं .और आज भी हैं. भले ही वह निम्न वर्ग, निम्न मध्य वर्ग, मध्य वर्ग या फिर आभिजात्य वर्ग की ही क्यों न हों ! आज की महिला कथाकार यदि यह मांग करने लगें कि नारी जीवन की अभिव्यक्ति का अधिकार मात्र उन्हें ही है---- यह पुरुष कथाकारों का क्षेत्र नहीं है तो हमें शरत चन्द्र की कृतियों को खारिज कर देना होगा. वास्तव में बहस वही सार्थक होती है जो विकास की ओर अग्रसर करे और जब बहस अपने में ही उलझकर श्रम/प्रतिभा का क्षरण करने लगे तब वह अवरोधक हो जाती है. अतः दलित साहित्य ’क्या’ और ’किसका’ से आगे जाकर साहित्यकारों को केवल साहित्य और अच्छे साहित्य पर अपने को केन्द्रित करना चाहिए. अच्छी रचनाओं का मूल्यांकन समय स्वयं करता है. चर्चित हो जाने की हड़बड़ाहट में कभी उत्कृष्ट साहित्य नहीं रचा जा सकता . उत्कृष्ट दलित-साहित्य को भी इन्हीं शर्तों से होकर गुजरना होगा, उसे चाहे दलित रचनाकर लिखें या गैर-दलित.
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(भावना प्रकाशन, १०९ - A, पटपड़गंज, दिल्ली-९१ से प्रकाशित पुस्तक ’साहित्य, संवाद और संस्मरण’ में संग्रहीत)

(* डॉ. तेज सिंह ’अपेक्षा’ पत्रिका के सम्पादक और ’दलित साहित्य’ के स्थान ’अम्बेदकरवादी साहित्य’ की अवधारणा के प्रवर्तक हैं , जिसके कारण उन्हें हिन्दी के अनेक दलित लेखकों के विरोध का सामना भी करना पड़ रहा है)

4 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत अच्छी जानकारी है। धन्यवाद।

सुभाष नीरव ने कहा…

यार चन्देल, तुम्हारे इस आलेख को मैं तुम्हारी पुस्त्क "साहित्य, संवाद और संस्मरण' में पहले भी पढ़ चुका हूँ। इस पुस्त्क की मैंने समीक्षा भी लिखी थी। इस लेख मे रेखांकित की गई तुम्हारी बातों से मैं पहले भी पूर्णत: सहमत था, अब भी हूँ। तुमने सही लिखा है कि 'क्या' और 'किसका' से आगे जाकर साहित्यकारों को केवल साहित्य और अच्छे साहित्य पर अपने को केन्द्रित करना चाहिए।
साहित्य के प्रेमी जो तुम्हारे इस लेख को पहले नहीं पढ़ पाए होंगे, उन्हें तुमने नेट पर उपलब्ध करा कर अच्छा कार्य किया है। ऐसी रचनाओं को अधिक से अधिक विस्तार होना चाहिए, मैं ऐसा मानता हूँ।

PRAN SHARMA ने कहा…

EK VICHAARNIY AUR SANGARNIY LEKH.
AESE LEKH N KEWAL PAATHKON KEE
DRISHTI SE BALKI LEKHKON KEE DRISHTI SE BHEE GUZARNE CHAHIYE.

डा. सुभाष राय ने कहा…

प्रिय भाई रूप सिंह चन्देल जी, मेरे पास आप की पत्रिका का यह अंक बहुत पहले ही आ गया था लेकिन कई बार अच्छी चीजें भी देखने में विलम्ब हो जाता है. क्षमा चाहूंगा.
मेरा सोचना आप के निष्कर्ष से बहुत भिन्न नहीं है. साहित्य मे हाल के दिनों में जो दलित और स्त्री विमर्श के नाम पर अखाड़ेबाजी शुरू हुई है, न जाने क्यों मुझे अजीब सी लगती है. साहित्य का यह मूल धर्म ही है कि वह वंचित, पीड़ित और अन्याय से आहत लोगों के साथ खड़ा रहे. वह मुक्ति और आनन्द का झूठा गान नहीं है, वह भजन नहीं है. और अगर वह अपना धर्म नहीं निभा पा रहा है तो वह साहित्य नहीं है. ऐसे में दलित साहित्य और स्त्री साहित्य जैसी खेमेबाजी व्यर्थ के नाटक जैसी लगती है. यह साहित्य में जाति और वर्ग की दीवार अच्छे लेखन के रास्ते में बाधा बनेगी और नारेबाजी एवं सतही लेखन के लिये जमीन मुहैया करायेगी. आप ने ठीक लिखा है कि दलित साहित्य क्या और किसका से आगे जाकर साहित्यकारों को केवल साहित्य और अच्छे साहित्य पर अपने को केन्द्रित करना चाहिये. धन्यवाद.