शनिवार, 4 जून 2011

आलेख





शिरीष, शोकग्रस्त कोयल और चैरी के बौर


मृदला गर्ग


इस बैशाख हमारे मौहल्ले के बगीचे में बेशुमार शिरीष खिला है। चारेक दिन सैर करने नहीं गई। पांचवे दिन देखा, नीचे-ऊपर हर तरफ़ बगीचा पीले-हरे फूलों से भरा था। पेड़ों पर हरे-पीले धागों से बुने फुन्दनों से फूलों का छाजन था ही, धरती को भी पके पीले फूलों ने टपक कर नरम कालीन बना रखा था। पेड़ पर पीत-हरे फूलों से, रूई के फायों में तब्दील हो चुके पीले फूल लिपटे थे। जो बीते कल ताज़ा थे और अगले कल, मिट्टी को दोरंगी छटा देने को तैयार थे। जिन मुरझाये फूलों का हरापन, पीले के आगे घुटने टेक चुका था, उन भी आम की याद दिलाती सुगन्ध बरकरार थी। नैसर्गिक इत्र की बोतल उलट गई हो जैसे। पूरा मंज़र खुशबू से लबरेज़ था। शीरीष के पेड़ के नीचे कुछ देर खड़े रहो तो बढ़िया वाईन सा सुरूर दिलोदिमाग़ पर तारी हो जाता है। नशा नहीं, मस्ती नहीं, उत्तेजना नहीं, खास किस्म की ख़ुमारी, जिसका सही अंदाज़ा सिर्फ वे लगा सकते हैं, जिन्हें अनिद्रा रोग हो। जो सोना चाहते हुए भी देर तक जगे रहें। जिन्हें सोते-सोते लगे जग रहे हैं। जगें तो लगे शायद चन्द पल सो लिये थे। नसों के तनाव को सहलाता सुकून मिले भी तो होश गाफ़िल न हों। कुछ देर के लिए ख़ुदी को भले भूल जायें पर बाक़ी अहसास बने रहें।




(शिरीष के फूल)




नगरों में ख़ासकर महानगर दिल्ली में अब शिरीष के पेड़ कम दिखते हैं। ज़्यादातर लोगों को उनका नाम तक नहीं मालूम। हमारे मौहल्ले के बगीचे का रख-रखाव ख़ास है नहीं। शुक्र है। इसीलिए उन्हें काट कर कटे-छंटे बाड़नुमा नई किस्म के पेड़ नहीं लगाये गये। लापरवाही से वे आबाद हैं। एक बुज़ुर्ग ने बतलाया, उनके ज़माने में नवजात शिशु के पालने के ऊपर शिरीष के फूलों के गुच्छे लटका दिये जाते थे। उनसे छन कर आती हवा फेंफड़ों को ताक़त देती, तन-मन को सेहतमन्द रखती थी। सुन कर ही आंखों के सामने पुरमहक नज़ारा इस कशिश के साथ उभरा कि पल भर को नींद सी आ गई। तभी देखा, महकते हरियाये पेड़ों को नज़रअंदाज़ कर, बागीचे की इकलौती कोयल, सारे पत्ते झाड़ चुके कीकर की कांटेदार टहनी पर निस्पन्द, निश्चल, बैठी थी। समाधिस्थ। किसके ध्यान में लीन थी? क्यों बैठी थी गुंजान को छोड़ वीरान पर? किसका शोक कर रही थी? मुझे लगा वह मैं हूं। एकटक उसे देखते, मैं अपने भीतर उस प्रदेश में पहुंच गई, जहां जो था वीरान था। पुष्पित शिरीष से मुंह फेर, विरान कीकर पर बैठी एकाकी कोयल मनुष्य की करतूतों का ही शोक कर रही होगी, जो आने वाले कल को बंजर बना रही थीं। प्रकृति विनाश करती है तो सृजन भी, बशर्ते हम उसकी सृजनशीलता कुण्ठित न कर दें।

शिरीष के साथ, जापानी मित्र का भेजा चैरी के फूलों का चित्र, नज़रों के सामने साकार हो गया। ख़त 5 अप्रेल 2011 को चल कर 11 अप्रेल को मेरे पास पहुंचा था। मार्च 2011 के भयानक त्सुनामी की पहली मासिक पुनर्तिथि पर। दुर्योग से फुकुशिमा के समीप उसी दिन फिर सात स्केल का भूकम्प आया था।मिवाको कोएज़ुका ने लिखा था, ”भूकम्प और त्सुनामी के लिए तो दोष हम प्रकृति पर डाल सकते हैं लेकिन परमाणु ऊर्जा वाली गम्भीर समस्या तो हम आदमियों की ग़लती है। हम प्रकृति को बहुत गंदा कर रहे हैं। हम किन शब्दों में माफ़ी मांगे दूसरे जीव जन्तुओं से। फिर भी प्रकृति के आभारी हैं कि चेरी के फूल खिलने लगे हैं और इस प्रकार का दृश्य अभी आंखों के सामने होगा जो चित्र में है। जो होना है होगा ही पर हमें भरसक कोशिश करनी होगी सब की भलाई के लिए।” मैं भी प्रकृति की आभारी हूं कि इतने शिरीष खिला दिये। पर क्या अगले बरस भी वे खिलेंगे और उसके अगले बरस? क्या हम उन्हें खिलने देंगे? शिरीष ही नहीं, नीम, जामुन, शहतूत, मौलश्री, कनक चम्पा, हमारे पर्यावरण के अनुकूल वे सब पेड़, जिन्हें हम नष्ट करने पर आमादा हैं, क्या वे खिलते रहेंगे? क्या कोयल शोक मुक्त हो पाएगी?
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परिचय

मृदुला गर्ग का जन्म 25 अक्तूबर, 1938 को कोलकाता में हुआ। 1960 में उन्होंने दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स से अर्थशास्त्र में एम ए किया।
उनके रचना संसार में सभी गद्य विधाएं सम्मिलित है। उपन्यास, कहानी, नाटक, निबन्ध, यात्रा साहित्य, स्तम्भ लेखन, व्यंग्य, पत्रकारिता तथा अनुवाद।

उनका कथा साहित्य,कथ्य और शिल्प के अनूठे प्रयोग के लिए जाना जाता है। व्यक्ति व समाज के मूल द्वन्द्व उसमें एकमएक हो जाते हैं और अपनी विडम्बनाओं में गहराई तक परखे जाते हैं। भाषा की लय और गत्यात्मकता उन्हें पठनीय बनाती है।

अब तक सात उपन्यास प्रकशित हो चुके हैं; उसके हिस्से की धूप’, वंशज, चित्तकोबरा, अनित्य, मैं और मैं, कठगुलाब तथा मिलजुल मन । 11 संग्रहों में प्रकाशित अस्सी कहानियें कहानियाँ, ’संगति-विसंगति’ नाम से दो ख्ण्डों में संग्रहीत हैं। कुछ अटके, कुछ भटके नाम से यात्रा संस्मरण है ।
नाटक हैं एक और अजनबी, जादू का कालीन, कितनी क़ैदें तथा साम दाम दण्ड भेद(बाल नाटक)
2003 से 2010 तक इंडिया टुडे (हिन्दी) में पाक्षिक स्तम्भ ’कटाक्ष’ लिखा। ये लेख, ’कर लेंगे सब हज़म’ तथा खेद नहीं है नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित हुए हैं।


अनुवादः

चित्तकोबरा उपन्यास का जर्मन अनुवाद 1987 में व अंग्रेज़ी अनुवाद 1990 में प्रकाशित हुआ। कठगुलाब उपन्यास का अंग्रेज़ी अनुवाद ’कंट्री आफ़ गुडबाइज़’ 2003 में तथा मराठी व मलयाळम अनुवाद 2008 में प्रकाशित हुए। जापानी अनुवाद शीघ्र प्रकाश्य है। अनित्य उपन्यास का अंग्रेज़ी अनुवाद 2010 में "अनित्य हाफ़वे टु नावेह्यर’ नाम से ऑक्स्फ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित हुआ है। अनेक कहानियाँ भारतीय भाषाओं तथा चैक,जर्मन,अंग्रेज़ी,जापनी में अनुदित हैं। अंग्रेज़ी में अनुदित कहानियों के संग्रह, का नाम डैफ़ोडिल्स ऑन फ़ायर है।

सम्मानः
उसके हिस्से की धूप व जादू का कालीन मध्य प्रदेश सहित्य परिषद से पुरस्कृत हुए। 2004 का व्यास सम्मान, उपन्यास कठगुलाब को मिला।
2001 में न्यूयार्क ह्यूमन राइट्स वॉच ने उन्हें हैलमन हैमट ग्रान्ट प्रदान किया।
2009 में स्पन्दन शिखर सम्मान प्राप्त हुआ।

मृदुला गर्ग, ई 421(भूतल) जी के 2, नई दिल्ली 110048


3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

मृदुला जी का आलेख सुन्दर लगा | शिरीष के फूल मैंने भी देखे हैं किन्तु नाम नहीं जानती थी | इन फूलों से परिचय करने का मृदुला जी का शुक्रिया !

सादर
इला

ashok andrey ने कहा…

mridula jee ka aalekh padte hue lagaa ki mai ek khubsurat kavita se gujar rahaa hoon sundar.

बलराम अग्रवाल ने कहा…

बेशक अब सावन माह चल रहा है लेकिन न तो दिल्ली के आसमान में बादल हैं और न तप्त वायुमंडल और धरती की सतह को शीतल करती बौछारें। आषाढ़ माह में लिखे मृदुला जी के निबन्ध ने दिल्ली के इस उमस भरे माहौल में शिरीष के बहाने नीम, जामुन, शहतूत, मौलश्री, कनक चम्पा आदि के बीच सैर कराकर मन को इनकी गंध और सुषमा से लबालब भर दिया। प्रकृति से जुड़े विषयों से यों भी आज के साहित्यकार दुराव ही बरतते हैं। कहा जा सकता है पेड़ उनकी चेतना से भी कटते- उखड़ते जा रहे हैं। उनके पालने में मृदुला जी ने शिरीष के फूलों के गुच्छे लटकाने का सद्प्रयास किया है जिनसे छन कर आती हवा सब के न सही कुछ के फेंफड़ों को ताक़त जरूर देगी। ऐसे सद्प्रयास निष्फल कभी नहीं जाते।