विनीता जोशी की दो कविताएँ
क्या तुम भी
भगवान
क्यों पहनते हो
ये रत्नजड़ित मुकुट, रेशमी वस्त्र
और स्वर्णाभूषण
क्यों जीमते हो
छप्पन भोग
क्यों फहराती है तुम्हारे मंदिर में
चालीस मीटर कपड़े की पताका
क्यों देखते नहीं
भूख से बिलखते नंगे-बूढ़े
बचपन को
कहाँ खो गई
तुम्हारी काली कमली
और लाठी
चढ़ावे की मन्नत
मांगे बिना
तुम भी पूरी नहीं
कर सकते
छोटी-सी मुराद
साहूकार की तरह…
अब क्यों नहीं पड़ती
तुम्हारी दिव्य-दृष्टि
किसी सुदामा की झोपड़ी पर
वृदावन में
भजन गातीं गोपियों पर
अब क्यों नहीं करते
प्रेमवर्षा…
क्षमा करना
क्या तुम भी
राजा बनकर
करना चाहते हो
शासन ?
0
सोना चाहती हूँ मैं
खिड़कियाँ खोलकर
हवाओं की थपकियाँ
महसूसते हुए
सोना चाहती हूँ मैं
जी भर
अपने घर की नींद
तुम
बड़े-बड़े काम करके
नाम कमाओ
रिश्ते-नाते निभाओ
मैं बहुत थक गई हूँ
भीड़ के साथ
यूँ ही चलते-चलते
अब तपता हुआ
तकिया
भिगोना चाहती हूँ
नकार चुकी
बहुत बार
अपनी छोटी-छोटी ज़रुरतें
अब नींद की नदी में नहाकर
तरोताज़ा होना चाहती हूँ
सोना चाहती हूँ मैं।
0
विनीता जोशी
शिक्षा : एम.ए., बी.एड(हिंदी साहित्य, अर्थशास्त्र)
प्रकाशन : कादम्बिनी, वागर्थ, पाखी, गुंजन, जनसत्ता, अमर उजाला, दैनिक जागरण, सहारा समय, शब्द सरोकार में कविताएँ, लघुकथाएँ और बाल कविताएँ प्रकाशित। अभी हाल में एक कविता संग्रह ''चिड़िया चुग लो आसमान'' पार्वती प्रकाशन, इन्दौर से प्रकाशित हुआ है जिसका पिछले दिनों भोपाल में नामवर जी ने विमोचन किया। “वाटिका” ब्लॉग के जून अंक 2011 पर दस कविताएं प्रकाशित।
सम्मान : बाल साहित्य के लिए खतीमा में सम्मानित।
सम्प्रति : अध्यापन।
सम्पर्क : तिवारी खोला, पूर्वी पोखर खाली
अल्मोड़ा-263601(उत्तराखंड)
दूरभाष : 09411096830
क्या तुम भी
भगवान
क्यों पहनते हो
ये रत्नजड़ित मुकुट, रेशमी वस्त्र
और स्वर्णाभूषण
क्यों जीमते हो
छप्पन भोग
क्यों फहराती है तुम्हारे मंदिर में
चालीस मीटर कपड़े की पताका
क्यों देखते नहीं
भूख से बिलखते नंगे-बूढ़े
बचपन को
कहाँ खो गई
तुम्हारी काली कमली
और लाठी
चढ़ावे की मन्नत
मांगे बिना
तुम भी पूरी नहीं
कर सकते
छोटी-सी मुराद
साहूकार की तरह…
अब क्यों नहीं पड़ती
तुम्हारी दिव्य-दृष्टि
किसी सुदामा की झोपड़ी पर
वृदावन में
भजन गातीं गोपियों पर
अब क्यों नहीं करते
प्रेमवर्षा…
क्षमा करना
क्या तुम भी
राजा बनकर
करना चाहते हो
शासन ?
0
सोना चाहती हूँ मैं
खिड़कियाँ खोलकर
हवाओं की थपकियाँ
महसूसते हुए
सोना चाहती हूँ मैं
जी भर
अपने घर की नींद
तुम
बड़े-बड़े काम करके
नाम कमाओ
रिश्ते-नाते निभाओ
मैं बहुत थक गई हूँ
भीड़ के साथ
यूँ ही चलते-चलते
अब तपता हुआ
तकिया
भिगोना चाहती हूँ
नकार चुकी
बहुत बार
अपनी छोटी-छोटी ज़रुरतें
अब नींद की नदी में नहाकर
तरोताज़ा होना चाहती हूँ
सोना चाहती हूँ मैं।
0
विनीता जोशी
शिक्षा : एम.ए., बी.एड(हिंदी साहित्य, अर्थशास्त्र)
प्रकाशन : कादम्बिनी, वागर्थ, पाखी, गुंजन, जनसत्ता, अमर उजाला, दैनिक जागरण, सहारा समय, शब्द सरोकार में कविताएँ, लघुकथाएँ और बाल कविताएँ प्रकाशित। अभी हाल में एक कविता संग्रह ''चिड़िया चुग लो आसमान'' पार्वती प्रकाशन, इन्दौर से प्रकाशित हुआ है जिसका पिछले दिनों भोपाल में नामवर जी ने विमोचन किया। “वाटिका” ब्लॉग के जून अंक 2011 पर दस कविताएं प्रकाशित।
सम्मान : बाल साहित्य के लिए खतीमा में सम्मानित।
सम्प्रति : अध्यापन।
सम्पर्क : तिवारी खोला, पूर्वी पोखर खाली
अल्मोड़ा-263601(उत्तराखंड)
दूरभाष : 09411096830
3 टिप्पणियां:
bahut hee sashakt kavitaen padne ko mili. unki pehli kavita kis tarah mandir men baithe bhagwan ko bhee kataksh karti hui kehti hain vinita jee,
kshama karna
kaya tum bhee
raja ban kar
karna chahte ho
shasan?
bahut hee khubsurat rachnaon ke liye badhai.
DONO KAVITAAYEN ACHCHHEE HAIN AUR
MAN KO CHHOTEE HAIN .
aapki kavitane dil ko chu gai...
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