बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

वातायन-फरवरी,२०१२



हिन्दी साहित्य के आंदोलनों के बहाने

रूपसिंह चन्देल


वातायन, फरवरी, २०११ में आपने ’हम और हमारा समय’ के अंतर्गत मेरा आलेख –’हिन्दी साहित्य –बनाम प्रवासी हिन्दी साहित्य’ पढ़ा था. इस आलेख के प्रकाशन से इस गंभीर विषय पर पहली बार बहस शुरू हुई थी. देश-विदेश के अनेक हिन्दी लेखकों और पाठकों ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी. ऎसी ही एक बहस ’हिन्दी भारत’ पर भी मेरी पहल पर प्रारंभ हुई थी. इन बहसों का सुपरिणाम यह हुआ कि बहुत से प्रगतिशील लेखक ’प्रवासी साहित्य’ पर लिख और सार्वजनिक मंचों से बोलकर अपना मत व्यक्त करने लगे. यहां यह उल्लेख आवश्यक है कि सर्व प्रथम ’प्रवासी साहित्य’ का मुद्दा अमेरिका की हिन्दी कथाकार और कवयित्री इला प्रसाद ने ’शोध दिशा’ पत्रिका के अमेरिका के प्रवासी हिन्दी लेखकों के कहानी विशेषांक का अतिथि सम्पादन करते हुए उठाया था. फरवरी,२०११ का वातायन का आलेख इला प्रसाद के सम्पाकीय से प्रेरित होकर लिखा गया था. उस बहस में भाग लेने वाले बत्तीस लोगों का मत था कि दुनिया के किसी भी कोने में लिखा जाने वाला हिन्दी साहित्य –हिन्दी साहित्य ही है, उसे ’प्रवासी साहित्य’ कहना उसके साथ घोर अन्याय है. बाद में जनसत्ता में इला प्रसाद ने पुनः आलेख लिखकर इस मुद्दे को आगे बढ़ाया. २२ जनवरी, २०१२ के जनसत्ता में वरिष्ठ कवि दिविक रमेश का आलेख ’हिन्दी लेखक और बंटवारा’ इस विषय को आगे बढ़ाता है. मेरे अनुरोध पर दिविक जी ने वातायन के ’हम और हमारा समय’ स्तंभ के अंतर्गत उस आलेख के प्रकाशन की सहर्ष अनुमति मुझे दी.

वास्तव में ’प्रवासी साहित्य’ का राग या तो वे प्रवासी लेखक आलाप रहे हैं जिन्हें अपनी रचनात्मकता पर आस्था और विश्वास नहीं है और वे इसके आधार पर अपने रचनाकार होने की संतुष्टि पा रहे हैं. दूसरे कुछ लोग हिन्दी साहित्य में हुए आंदोलनों का सहारा लेते हुए ’प्रवासी साहित्य’ के तर्क को सही मान रहे हैं. वास्तव में यह गैर-प्रगतिशील सोच या कहें कि दक्षिणपंथी सोच से उपजी अवधारणा है. उन्हें शायद यह स्पष्ट नहीं है कि सभी आंदोलन अपने पूर्ववर्ती साहित्य से रचनात्मक स्तर पर आगे और अलग थे. जबकि प्रवासी लेखकों का साहित्य किसी भी रूप में भारत में लिखे जा हिन्दी साहित्य से भिन्न नहीं है. अनेक प्रेवासी लेखक भारत सहित उस देश की भावभूमि को आधार बना रहे हैं और उल्लेखनीय रचनाएं लिख रहे हैं.

’प्रवासी साहित्य’ के पक्षधर भारत के वे प्रेध्यापक भी हैं जिनकी दुकानें इसके बल पर चल रही हैं. इस बहाने सेमीनारों के लिए यू.जी.सी. और विश्वविद्यालयों से उन्हें मोटी रकमें मिल रही हैं और विदेश यात्राओं के अवसर भी. इनके अतिरिक्त वे लोग भी इसके पक्ष में हैं जो किसी न किसी रूप में प्रकाशन व्यवस्था से जुड़े हुए हैं. ’प्रवासी साहित्य’ नाम से उनके द्वारा सम्पादित पुस्तकों की खपत सहजता से हो जाती है. सभी जानते हैं कि दुनिया की किसी भाषा में कहीं भी लिखा जाने वाला साहित्य उस भाषा का होता है न कि उसे उस भाषा का प्रवासी साहित्य कहते हैं. तसलीमा नसरीन बांग्ला देश से बाहर रहकर लिख रही हैं फिरउनके साहित्य को ’प्रवासी साहित्य’ क्यों नहीं कहा जाता? जो विदेशी विद्वान अपने देशों में रहते हुए हिन्दी में लिख रहे हैं उनके साहित्य को ’प्रवासी साहित्य’ की राजनीति करने वाले लोग क्या कहेंगे! यह एक गंभीर विषय है और सभी प्रगतिशील सोच वाले प्रवासी हिन्दी लेखकों को इस पर विचार करना चाहिए.
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वातायन का यह अंक कथाकार और कवयित्री इला प्रसाद की रचनाओं पर केन्द्रित है. इसके अतिरिक्त प्रस्तुत है ’हम और हमारा समय’ के अंतर्गत वरिष्ठ कवि दिविक रमेश का आलेख, इला प्रसाद के सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह – ’उस स्त्री का नाम ’ पर वरिष्ठ कवि-कथाकार सुभाष नीरव की समीक्षा और साथ राजस्थान पत्रिका के पुरस्कार समारोह की रपट.
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4 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

AAPKE LEKHON KAA PRABHAAV HAI KI
AB KAEE SAHITYAKAR SAHITYA KE SAATH
` PRAVASI ` SHABD KE UPYOG KARNE SE HICHKICHAANE LAGE HAIN . ASHA
KARTAA HUN KI IS SHABD KE UNMOOLAN
MEIN AAPKO EK N EK DIN POOREE
SAFALTAA MILEGEE .

सुभाष नीरव ने कहा…

भाई चन्देल तुमने सही लिखा कि ’प्रवासी साहित्य’ का राग या तो वे प्रवासी लेखक आलाप रहे हैं जिन्हें अपनी रचनात्मकता पर आस्था और विश्वास नहीं है और वे इसके आधार पर अपने रचनाकार होने की संतुष्टि पा रहे हैं. तुमने एक बार फिर इसके पीछे की कटु सचाई की ओर इंगित किया है कि ’प्रवासी साहित्य’ के पक्षधर भारत के वे प्रेध्यापक भी हैं जिनकी दुकानें इसके बल पर चल रही हैं. इस बहाने सेमीनारों के लिए यू.जी.सी. और विश्वविद्यालयों से उन्हें मोटी रकमें मिल रही हैं और विदेश यात्राओं के अवसर भी. इस मसले पर मैं तुम्हारे स्टैंड और मत से बिलकुत सहमत हूँ।

ashok andrey ने कहा…

Divik ramesh jee ka yeh aalekh maine bhee Jansatta men pada thaa unhone pravasi sahitya par sateek sawal uthaen hain,jisse main sehmat hoon ptaa nahin kyon iss sawal ko bematlab bar-bar uthaa rahe hain joska koee arth nahin hai.

हास्य-व्यंग्य का रंग गोपाल तिवारी के संग ने कहा…

Ekdam sahi vishay ko uthata lekh