बुधवार, 4 अप्रैल 2012

मुलाकात



मन्नू भंडारी और सुधा अरोड़ा से एक मुलाक़ात

रूपसिंह चन्देल


१९ मार्च २०१२, रात लगभग नौ बजे का समय. फोन पर शांत-गंभीर स्वर सुनाई दिया, “चंदेल जी बोल रहे हैं ? ”
जब तक मैं कुछ कह पाता, “ मैं सुधा अरोड़ा बोल रही हूं.”
“मैंने आपकी आवाज पहचान ली थी. लातूर से मुम्बई कब लौटीं ? ” मैंने पूछा.
“मैं दिल्ली से बोल रही हूं. मन्नू जी के यहां ठहरी हूं.”
“आपने दिन में बताया होता ---मै कुछ समय पहले ही गुड़गांव से लौटा हूं---आपसे मिलता हुआ आता.” मुझे लगा कि उस दिन मुलाकात का एक अच्छा अवसर मेरे हाथ से निकल गया था.
“मैं आज शाम ही पहुंची हूं.”
“आपसे कब मुलाकात हो सकती है?”
“कल शाम चार बजे के बाद कभी भी---.”
क्षणभर सोचने के बाद मैंने कहा, “सुधा जी, इस सप्ताह शुक्रवार तक प्रतिदिन शाम मेरी व्यस्तता रहेगी---सुबह दस-ग्यारह बजे किसी भी दिन---“
“बीस-इक्कीस को मन्नू जी और मैं दिन में व्यस्त हैं.”
“राजेन्द्र जी के यहां जाना है ?”


(बांए से - मन्नू भंडारी,सुधा अरोड़ा, रूपसिंह चन्देल और बलराम अग्रवाल)

“उनसे मिलने कल सुबह ग्यारह बजे जाना है.”
लेकिन अगले दिन अर्थात २० की सुबह अकस्मात कार्यक्रम में परिवर्तन हुआ. उस दिन शाम चार बजे मैं मन्नू जी के यहां जा सकने की स्थिति में था. सुधा जी ने मुझे मन्नू जी का मोबाइल और घर का नंबर दे दिए थे और कहा था कि उन पर ही मैं संपर्क करूं. उनसे बात करने से पहले मैंने बलराम अग्रवाल से बात की. बलराम अग्रवाल साहित्य और मित्र जीवी व्यक्ति हैं और ऎसे किसी भी अवसर को छोड़ना नहीं चाहते. बलराम ने अपने दूसरे आवश्यक कार्यक्रम रद्द कर मेरे साथ जाने की सहमति दे दी. यह जानकर कि मैं उसी दिन शाम साढ़े चार बजे मिलने पहुंचना चाहता हूं, सुधा जी ने प्रसन्नता व्यक्त की. जब मैंने बताया कि मेरे साथ बलराम अग्रवाल भी होंगे, उन्होंने सुनते ही कहा, “मिलकर अच्छा लगेगा.”
वह दिन भयानक वस्तताभरा होने वाला था. दोपहर एक बजे कॉफी होम में किसी से मिलना था. उससे पहले आसफअली रोड और कनॉट प्लेस में कुछ आवश्यक कार्य थे. बलराम अग्रवाल को मैंने साढ़े तीन बजे कॉफी होम बुलाया.
जब हम मन्नू भंडारी जी के हौजखास निवास पर पहुंचे चार बजकर चालीस मिनट हुए थे. दरवाजा सुधा जी ने खोला. उनसे यह हमारी पहली मुलाकात थी. मन्नू जी से दूसरी. मन्नू जी से पहली मुलाकात वर्षों पहले एम्स में हुई थी, जब राजेन्द्र जी वहां भर्ती थे. उन दिनों वह प्रसार भारती के सदस्य थे. उनसे मिलने वालों की भीड़ थी. उनसे मिलकर मैं बाहर निकला तो मन्नू जी को कॉरीडार में अकेले टहलते हुए पाया. उस शाम राजेन्द्र जी के स्वास्थ्य को लेकर मन्नू जी के चेहरे पर चिन्ता की स्पष्ट उभरी रेखाएं मैंने देखी थीं. देर तक मैं उनके साथ बातें करता रहा था. वह राजेन्द्र जी के पीने को लेकर दुखी थीं और उनकी बीमारी के लिए उन सबको दोष दे रही थीं जो अपने स्वार्थ के चलते राजेन्द्र जी को इस सबके लिए घेर बैठते थे. उसके बाद कितनी ही बार उनसे मिलने जाने और बातचीत करने का विचार किया, लेकिन जा नहीं पाया. अपने जीवन काल में ही मिथक बन चुकी मन्नू जी के साथ न मिलने जाने के लिए मैं अपने को लानत भेजता रहा. तब से २० मार्च,२०१२ के मध्य सैकड़ों बार अरविन्दों मार्ग से गुजरना हुआ लेकिन जो वर्षों से टलता रहा था उसका सुयोग इतनी सहजता से सुधा अरोड़ा जी के कारण उस दिन मिल गया था.
मन्नू जी और सुधा जी के साथ उस दिन की हमारी वह मुलाकात इतनी यादगार होने वाली थी, यह सोच से बाहर था. औपचारिक मुलाकात सोचकर ही हम गए थे. ड्राइंगरूम में हम सोफे पर बैठने ही वाले थे कि मन्नू जी आती दिखीं. आगे बढ़कर हमने परिचय दिए. मन्नू जी हमारे सामने सोफे पर आ बैठीं. सुधा जी भी चाय की औपचारिकता निभाती हुई हमारे साथ आ जुड़ीं. बातों का सिलसिला राजेन्द्र यादव जी की बीमारी, उन लोगों के उन्हें देखने जाने से प्रारंभ हुआ. मन्नू जी ने विस्तार से बताया कि हालात अधिक बिगड़ने के बाद जब राजेन्द्र जी उनके यहां पहुंचे तब वे इस योग्य बिल्कुल नहीं थे कि स्वयं हिल-डुल भी सकते.

“मैं उन्हें देखकर हत्प्रभ थी. यह क्या हुआ राजेन्द्र को..?” मन्नू जी बता रही थीं, “संतरे की एक फांक भी लेने को तैयार नहीं थे---बिल्कुल शक्तिहीन. पूरे समय खांसते रहते---पाइप-सिगरेट सब छूट गए---.” मन्नू जी आराम की मुद्रा में सोफे पर बैठी बता रही थीं.

(बांए से -मन्नू भंडारी, मनीषा पांडे,बलराम अग्रवाल, रूपसिंह चन्देल और

सुधा अरोड़ा)


“वह खांसी उसी पाइप और सिगरेट की ही देन थी---.” मैं और बलराम ने एक स्वर में कहा, “१२, मार्च को हम दोनों उनसे मिलने गए थे. उन्होंने बताया कि पैंतालीस दिन से उन्होंने पाइप को हाथ नहीं लगाया----अब उन्हें याद ही नहीं आता कि कभी उन्होंने पाइप पिया था---और उस दिन हमने उन्हें खांसते भी नहीं देखा था.”

“अब तो बहुत ठीक हैं---आज मिलकर लगा कि अब वह बीमारी पर विजय पा चुके हैं---“ मन्नू जी के चेहरे पर राजेन्द्र जी के स्वस्थ होने का सुकून स्पष्ट था.

“अब बहुत अच्छे हैं. मुझे वह अलग-अलग नामों से पुकारते हैं. “ सुधा जी मुस्कराती हुई बोलीं, “आज भी देखते ही बोले, “आ गई आफत की परकाला ! ”

हम सभी हंस पड़े. सुधा जी ने पन्द्रह दिन पहले फोन पर भी मुझे इस विषय में बताया था. उन्होंने कुछ दिन पूर्व पाखी के ’राजेन्द्र यादव’ विशेषांक में राजेन्द्र जी के बारे में बहुत ही खुलकर लिखा था. उनके लेखन की यह विशेषता है और यह विशेषता उनकी पहचान बन गई है. मेरा मानना है कि एक ईमानदार लेखक जो साहित्य को सीढ़ियों की भांति इस्तेमाल नहीं करता इस बात की चिन्ता किए बिना कि उसके लिखे से कौन प्रसन्न और कौन अप्रसन्न होता है सदैव वही लिखता है जो सच होता है. उसकी रचनाओं में भी समय के सच की ही अभिव्यक्ति होती है और इस दृष्टि से मन्नू जी और सुधा जी –दोनों ही कथाकार अतुल्य हैं. और राजेन्द्र जी भी ईमानदारी से अपने विषय में लिखे किसी भी शब्द को एजांय करते हैं.

मैं नहीं जानता कि मन्नू जी और सुधा जी की निकटता साहित्य आधारित है या उसमें दोनों के कोलकता से होने की भी कुछ भूमिका है. वैसे तो जड़ें कितने ही साहित्यकारों की एक स्थान से जुड़ी होती हैं लेकिन उनमें नैकट्य स्थापित नहीं हो पाता. शायद साहित्य ही वह सूत्र है जो सुधा जी को मन्नू जी तक खींच लाता है. राजेन्द्र जी के साथ मन्नू जी का जब विवाद हुआ मन्नू जी के कितने ही प्रशंसक उनसे विमुख हो गए थे. उस अनपेक्षित विचित्र स्थिति में कुछ ही लोग मन्नू जी के साथ थे और सुधा अरोड़ा जी उनमें से एक थीं .

कुछ उल्लेख्य और महत्वपूर्ण विषयों (जिनका उल्लेख यहां संभव नहीं) की चर्चा के बाद मन्नू जी ने कहा, “और यह स्त्री विमर्श---महादेवी वर्मा, कृष्णा सोबती, मैंने और बाद की पीढ़ी की लेखिकाओं ने जो लिखा क्या उसमें स्त्री विमर्श नहीं था. हम सभी ने वह जीवन जिया और लिखा -----और अचानक स्त्री विमर्श – दलित विमर्श पैदा हो गए—यह सब है क्या---?” मन्नू जी के स्वर में उत्तेजना थी. सुधा जी ने भी उनकी बात का समर्थन किया.

“मन्नू जी, यह बात मैंने अपने एक आलेख में लिखा है---बिल्कुल यही प्रश्न उठाया है. दोनों विमर्शों का उद्भव कुछ रचनाकारों को स्थापित करने के उद्देश्य से हुआ. उद्देश्य सफल रहा. आपने जगदीश चन्द्र के तीन उपन्यास----.” मेरी बात बीच में ही लपक ली मन्नू जी ने, “हां, ’धरती धन न अपना..” सुधा जी ने भी पढ़ने की बात स्वीकार की, लेकिन मैं रुका नहीं, “एक ही पात्र काली पर केन्द्रित उनके तीन उपन्यास हैं---ट्रिलॉजी---’धरती धन न अपना’, ’नरक कुंड में बास’ और ’यह जमीन तो अपनी थी.’ दलित जीवन पर ये इतने उत्कृष्ट उपन्यास हैं कि मेरा दावा है कि किसी दलित लेखक द्वारा दशकों तक ऎसे उपन्यस लिखे जाने की संभावना नहीं है.”

“क्योंकि इनमें जो आगे बढ़ जाता है वह अपने को सवर्ण मानने लगता है.” मन्नू जी ने कहा.

लेखिकाओं से होती हुई बात बांग्ला साहित्य पर आ टिकी. मन्नू जी बोलीं, “बांग्ला की पुस्तकों का मूल्य इतना कम होता है कि पाठक खरीदते हैं. वहां जिस पुस्तक का मूल्य चालीस रुपए होता है, हिन्दी में उतनी ही बड़ी पुस्तक का मूल्य दो सौ रुपए---कौन खरीदे पुस्तकें---. आम पाठक की पहुंच से बाहर हैं हिन्दी पुस्तकें…”

“यदि हिन्दी में सरकारी खरीद बंद कर दी जाए तो रिश्वखोरी बंद हो जाएगी और तब जो कूड़ा-कचरा छपकर सरकारी गोदामों में जमा हो रहा है वह बंद हो जाएगा. खरीद में बैठे अधिकारियों की स्तरहीन पुस्तकें छपनी बंद हो जाएंगी और खरीद कमीटियों में बैठे साहित्यकार-पत्रकारों की दुकानें भी बंद हो जाएंगी और तब शायद प्रकाशक पाठकों को ध्यान में रखकर पुस्तकें प्रकाशित करने लगें.” बलराम अग्रवाल ने कहा.

“सरकारी खरीद में इतना अधिक भ्रष्टाचार है कि लेखक रॉयल्टी के लिए तरसता रहता है जबकि अफसर और खरीद समितियों के सदस्य लाखों के वारे-न्यारे करते रहते हैं. कुछ प्रकाशकों को सत्तर से अस्सी प्रतिशत तक खर्च करना पड़ता है…. इस मामले में लेखक उसी प्रकार उदासीन हैं जिस प्रकार अन्ना हजारे के आंदोलन को लेकर थे.” मैंने कहा.

“अन्ना हजारे से मिलने मैं गयी थी.” उत्साहित स्वर में मन्नू जी ने कहा, “निर्मला (जैन) ने कहा कि हमें चलना चाहिए. मैंने कहा कि साथ में और किसी को भी ले लिया जाए ! मैंने राजी (सेठ) से चर्चा की. राजी तैयार हो गयीं. हम तीनों गए थे रामलीला मैदान .”

“हां, मुझे पता है. मैंने इस विषय में अपने ब्लॉग ’वातायन’ में लिखा था. लेकिन आपके साथ राजी जी भी गयी थीं यह जानकारी मुझे नहीं थी इसलिए उसमें उनका उल्लेख नहीं हुआ था.”

“मन्नू दी , बलराम अग्रवाल ने तो बाकायदा अपनी गिरफ्तारी दी थी.” सुधा जी मन्नू जी की ओर उन्मुख होकर बोलीं.

“जो लेखक सक्रिय थे उनमें मेरे अतिरिक्त चन्देल, रामकुमार कृषक और हरेराम समीप थे. कुछ और भी होंगे लेकिन उनकी जानकारी मुझे नहीं है.” बलराम अग्रवाल ने कहा.

“मैंने नामवर जी से इस विषय में पूछा, लेकिन मेरी बात को वे टाल गए थे.” मन्नू जी ने बताया.

“भ्रष्टाचार से सभी त्रस्त हैं. एक व्यक्ति ने उसके विरुद्ध शुरूआत की---आंदोलन सफल होता है या असफल---यह महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण है एक अच्छी शुरूआत----बीज जब पड़ा है तब पेड़ भी उगेगा ही---समय लग सकता है..” बलराम अग्रवाल ने अपना मत व्यक्त किया. सुधा जी और मन्नू जी ने अपनी सहमति दी.

“लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण सत्य यह है कि लेखक बिरादरी अन्ना आंदोलन का मखौल उड़ा रही थी.” मैंने कहा.

“यह दुखद आश्चर्य है कि छोटी-सी बात के लिए लेखक-समूहों द्वारा विरोध-समर्थन पत्र लिखे जाते हैं. अखबारों में छपते हैं. लेखक संगठन हाय-तौबा मचाते हैं---लेकिन इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर सब चुप थे.” सुधा जी ने दुखी स्वर में कहा.

“मुद्रा राक्षस थे “ मैं बोला, “वह मायावती के साथ थे---दलित लेखकों में कुछ लोग भ्रम फैला रहे थे….कह रहे थे कि अन्ना के एजेंडा में दलित कहीं नहीं हैं. क्या यह सच नहीं कि भ्रष्टाचार का सर्वाधिक शिकार दलित लोग ही हैं---- अन्ना हजारे का मुद्दा भ्रष्टाचार है…दलित–गैर दलित था ही कहां…..यह मुद्दे का राजनीतिककरण था…..बांटो और राज करो की नीति. मैंने ऎसा अनुभव किया था कि कुछ सवर्ण लेखकों को ही नहीं दलित चिन्तक और लेखकों को खरीद लिया गया था. अन्ना का विरोध करने वालों में कुछ वे लोग भी होंगे जो स्वयं नौकरियों में आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हुए होंगे या उनके घर-परिवार के लोग होंगे….जन लोकपाल बिल से उनकी मलाई पर पानी फिरने के साथ उनके जेल जाने का खतरा भी होगा----यह भी एक कारण हो सकता है.“. मैंने अपनी बात रखी.

हमारी बात यहीं तक पहुंची थी कि घंटी बजी. सुधा जी ने दरवाजा खोला और आगन्तुका को देखते ही प्रसन्नता में डूबा उनका स्वर सुनाई पड़ा, “अरे, मनीषा----“ और मनीषा पांडे सुधा जी से गले मिल रही थीं.

सुधा जी ने मनीषा का परिचय दिया. वह कभी मुम्बई में रहती थी. कुछ देर वे अपनी पुरानी यादें शेयर करती रहीं. मनीषा दिल्ली में इंडिया टुडे में काम करती हैं. मन्नू जी ने बताया कि इंडिया टुडे के ताजा अंक में राजेन्द्र जी और उनके साक्षात्कार पर आधारित मनीषा का आलेख प्रकाशित हुआ है.

हमारे रुख्सत होने का वक्त हो रहा था. बलराम अग्रवाल ने कैमरा संभाल लिया. एक के बाद एक उन्होंने लगभग अठारह चित्र खींचे---कुछ मनीषा ने भी खींचे.

जब हम मन्नू जी के घर से निकले शाम के ठीक साढ़े छः बजे थे. लगातार दो घण्टे तक मन्नू जी और सुधा जी ने हमारे साथ जो चर्चा की थी उसकी अमिट छाप मन में लिए हम सड़क पर उतर गए थे. सड़क पर लोगों की भीड़ थी और धुंधलका डी.डी.ए. के उन सेल्फ फाइनेसिंग प्लैट्स से नीचे उतरने को उद्यत था.

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4 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

ROOP JI , MANNU BHANDARI AUR SUDHA
ARORA KEE LEKHNI KAA MAIN FAN HUN.
UNSE AAP AUR BALRAM JI KEE SANWAAD
PADH KAR ACHCHHAA LAGAA HAI LEKIN
TRIPTI NAHIN HUEE HAI . DONO LEKHIKAAYEN KE BAARE MEIN BAHUT KUCHH
JIGYASA THEE . KHAIR , AB SUDHA JI
KEE RACHNAAYEN PADH KAR HEE SANTOSH
KARNA PADEGA . VAATAYAN KA AGLA ANK
MANNU BHANDARI PAR KENDRIT HO TO
SONE PAR SUHAAGAA HO JAAYEGA . MEREE JAANKAAREE KE MUTAABIK MANNU
BHANDARI AUR SUDHA ARORA ` DO JISM
AUR EK JAAN ` HAIN .
AAPKEE `MULAQAAT ` MEIN RAJI SETH
KAA ULLEKH HAI . MERE EK MITR
MAHENDRA DWESAR ( KAHANIKAR ) UNSE
DELHI MEIN UNKE DAULAT KHANE PAR
MILE THE , EK MAHEENA PAHLE . VE
RAJI SETH KEE MEHMAAN NAWAAZI KEE
PRASHANSA KARTE NAHIN THAKTE HAIN .
UPHAAR SWAROOP UNKE KAEE SANKALAN
VE UNSE LE AAYE HAIN .

सुभाष नीरव ने कहा…

इस मुलाकात को पढ़ना अच्छा लगा। हिंदी की दो प्रतिष्ठित कथा लेखिकाओं से मिलना यूँ भी महत्वपूर्ण है। इस अनौपचारिक भेंट में भी जो बातें हुईं, उसे दर्ज करके चन्देल भाई तुमने अच्छा किया…

बेनामी ने कहा…

आ० रूपसिंह जी,
मन्नू भंडारी और सुधा अरोड़ा जी के साथ आपका वार्तालाप पढ़ा तो पढ़ता ही चला गया |
आगे सुधा जी कि कहानी और लघु कथा तथा कवितायें भी पढ़ गया | खाने का बुलावा आया
तो पता लगा अरे इतनी देर हो गई समय का पता ही नहीं चला | इन सभी सुन्दर रचनाओं से
साक्षात्कार कराने हेतु आपका आभारी हूँ | धन्यवाद !
कमल

Ila ने कहा…

इस मुलाक़ात को दस्तावेज कहना उचित होगा |
इला