बुधवार, 4 अप्रैल 2012

कहानी




कांच के इधर उधर


सुधा अरोड़ा

मैं घर के अंदर दाखिल हुई ही थी कि देखा चिल्की खिल-खिल करती कमरे में चक्कर काट रही है और उसके सिर के ऊपर एक बर्रेनुमा कुछ मंडरा रहा है । पास आई तो देखा , वह बर्रा नहीं , एक बड़ी सी मधुमक्खी थी । सामने बाल्कनी के कांच के दरवाजे़ बंद थे और वह मक्खी कांच के आर- पार दिखती रोशनी से धोखा खाकर , बाहर खुले में निकल भागने की कोशिश में बार बार कांच के दरवाज़े से टकरा जाती ।
‘‘क्या हो रहा है , चिल्की !’’ मेरे मुंह से एकदम निकला , ‘‘ काट लेगी ! हट जा ! ’’ चिल्की ने तो नहीं , मक्खी ने सुन लिया और थक-टूट कर लकड़ी के उस टुकड़े पर जा बैठी जिसे एअर कंडीशनर का खोल बंद करने के लिये लगाया गया था और उस पर करीने से वारली का डिज़ाइन आंका गया था कि वह एअरकंडीशनर का खाली खोल न लगकर चित्रकारी का नमूना दिखे ।
‘‘ दादी , सो क्यूट ना ? ’’ चिल्की उसे निहारती रही , ‘‘ कितनी देर से मेरे साथ खेल रही है ! ’’
मैंने उसके बोलते होंठों पर हथेली रख उसे चुप करवाया और सोफे पर उसे बिठाकर बहुत आहिस्ता बैठक के कोने से सरकते हुए बिना आवाज़ किए आगे बढ़ी कि दरवाजा आहिस्ता से सरका कर खोल दूं कि तभी वह मक्खी फिर उड़ी और मेरे कान के पास से भुन भुन करती हुई गुज़र गई । मैं अपना सिर बचाती झुक कर वापस सोफे पर आ बैठी । चिल्की मज़ा ले रही थी कि दादी कैसी बुद्धू हैं , एक मक्खी से हार जाती हैं । वह होंठ भींचकर फिसफिसाकर हंस रही थी । आवाज़ ज़रा सा बाहर निकलते ही उसने अपनी नन्हीं नन्हीं हथेलियों से अपने होंठों को ढक लिया । मैंने आंखें तरेर कर उसकी ओर देखा तो हंसी को दबाते हुए उसने उड़ती मक्खी की ओर अपनी हथेली को ,नर्तन की मुद्रा में ,घुमाया और बुदबुदा कर बोली -‘हुं हुं ....दादी को इस से डर लगता है !’ और फिक् से हंस दी जैसे कह रही हो - यह भी कोई डरने की चीज़ है !
तब तक मक्खी कमरे के दो तीन चक्कर लगाकर कांच के दरवाज़े से एक बार और टकरा चुकी थी । चिल्की के मुंह से तपाक से निकला - ‘‘ओह शिट! शि विल गेट हर्ट !’’ ( उसे चोट लग जाएगी ! )
एक बार फिर मक्खी दीवार के एक कोने में फड़फड़ाकर बैठ गई ।
मैंने चिल्की को कहा - ‘‘ तू बिल्कुल चुप बैठ जा। मैं दरवाज़ा खोलती हूं । ’’
चिल्की ने मुझे ढाढ़स बंधाया -‘‘ दादी , ‘उसको’ आपसे डर लगता है । आप क्यों डरते हो उससे ? ’’ और शरारती निगाह से मेरी ओर देखने लगी ।
मैंने उसे कहा -‘‘ तू अंदर जा और मैं इसे बाहर करती हूं ।’’
चिल्की ने आश्वस्त भाव से ‘ना’ में सिर हिला दिया । उसे डर थोड़े ही लगता है , क्यों जाये वह , आपको जो करना हो , करो । आखिर दोबारा मैं सिर झुका कर दबे पांव आगे बढ़ी और धीरे से एक दरवाज़ा स्लाइड कर सरकाया , फिर दूसरा और उसके जाने के लिये बाहर के खुले आसमान और दीवारों से घिरे कमरे के बीच की आड़ हटा दी और अपने इस करतब में सफल होने पर चैन की सांस ली । मक्खी तब तक शायद कई बार कांच के दरवाज़े से टकरा टकरा कर थक चुकी थी । वह उस कोने में बैठी ही रही ।
चिल्की के पास आकर जैसे ही मैं सोफे पर जाकर बैठी , वह फुसफुसाकर कहने लगी -‘‘ देखा ! उसके विंग्स कैसे गोल्डन हैं , शी इज़ सो क्यूट ! ’’
मैंने खीझकर कहा - ‘‘ अब ‘शी’ है कि ‘ही’ , क्या मालूम ! मक्खी नहीं , मक्खा है , इतना बड़ा ..... ! ’’
हम दोनों की आंखें उस पर टिकी हुई थीं । इस बार वह जो उड़ी तो कमरे के दो अंधे चक्कर लगाकर कांच के दरवाज़े से टकराने के बजाय सीधा बाहर हवा में जज़्ब हो गई । वह बाड़ हट चुकी थी जिसके धोखे में वह दरवाज़े की किसी अधखुली फांक से कमरे के अंदर घुस आई थी ।
चिल्की ने मुझे कुछ ऐसे उखड़े हुए अंदाज़ में देखा जैसे मैंने उसकी किसी बहुत प्यारी चीज़ को खिड़की से बाहर फेंक दिया हो ।
तब तक कमरे की घंटी बजी और शोभाबाई हाथ में झोला लेकर अंदर घुसी । शोभा जिसने पिछले सात सालों से इस घर को ‘घर’ बना रखा था । नौ वारी लांग वाली धोती पहने शोभा घड़ी की सुई देखकर हर काम वक्त पर निबटा देती । चिल्की उसे बड़े प्यार से ताई बुलाती थी । मैंने शोभा को ज़रा डपटते स्वर में कहा -‘ कहां चली गई थी । मेरे आने तक रुकना था न ! यहां इतनी बड़ी मक्खी घुस आई थी और यह तेरी ‘मैडम’ उसके साथ खेल रही थी । काट लेती तो ?’
‘ ममीजी , जरा टमाटर लेने को अब्बी गई थी निच्चे । बेबी बोली - मी कार्टून भखती ! .... और ये मक्खी तो कब्बी कब्बी आती ई रेती ए। ‘ शोभाबाई मसखरी करने के अंदाज़ में बोली - ‘ अपना खोली का रस्ता भूल जाती , इस वास्ते चली आती । होएंगा खोली आजू बाजू ! काटती बीटती नई। बस , आने का , जाने का । बेबी के साथ मस्ती करने को आती .....’ और वह भी बत्तीीसी दिखाती हंस दी।
चिल्की उसके जवाब से खुश हो गई - ‘‘ और ताई , दादी को न डर लगता था उससे ! .....ऐसे .....ऐसे सिर नीचे कर .....चलती थी !’’ और वह मेरा स्वांग रचती झुक कर दादी बनी चलने लगी । दोनों जोर से हंसी और चिल्की को हंसते हंसते खांसी का दौरा पड़ गया ।
‘‘ इसको सुबह सितोपलादि दिया कि नहीं ?’’ मेरे पूछने पर बाई षिकायत पर उतर आई -‘‘ बेबी कू पुच्छो ! ये खाती किदर ?’’
‘‘ छिः , कड़वी दवाई ! ताई ठीक से शहद नहीं डालती ......’’ चिल्की को फिर खांसी छूट गई ।
‘‘ अरे , दवा खाने का कि खाली ‘मध’ खाने का । इतना मिट्ठा डालेंगा तो औषद फायदा नईं करेंगा !’’ ‘‘ शोभा , डाल दो न शहद ! मुझे दो ! मैं खिलाती हूं । ’’
‘‘ नई नईं , मी देती अब्बी। हे चिल्कू बेबी , चल इकड़े आ ! ’’ और शोभा चिल्की को खींचती हुई अपने साथ रसोई में ले जाने लगी ।
चिल्की तब तक रानी मधुमक्खी के प्रभामण्डल से बाहर आ चुकी थी । अब उसे अपने साथियों की याद आई - ‘‘ दादी , भीमा और रेषमा को क्यों नहीं लाते साथ ? यू प्रामिस्ड मी कि आज उनको लेकर आओगे ! कितने दिन से वो दोनों नहीं आये ! ‘‘
चिल्की का दिमाग़ शुरु से ही बहुत चैकन्ना था । कोई भी बात वह आसानी से भूलती नहीं थी । कल मैंने उसे टाल दिया था पर आज फिर वह उन दोनों बच्चों को याद कर रही थी ।
‘‘ आज गार्डेन में मिलेंगे न उन दोनों से , ठीक ? ’’ मैंने चिल्की को आश्वस्त किया ।
जैसे ही मैं अपने बिस्तर पर लेटी , मेरी आंखों के सामने दोनों बच्चे अपने हाव-भाव और चेहरे-मोहरे सहित उपस्थित हो गये थे ।
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भीमा और रेशमा - हमारे घर के सामने बने मोबाइल क्रेश में सुबह नौ बजे से पांच बजे तक पढ़ते- खेलते-रहते बच्चों के हुजूम में से दो बेहद ज़हीन बच्चे - जिनके मां बाबा दोनों मजदूरी करते थे । इस टावर में आते ही प्रतिमा दी के आदेश पर मैंने यह क्रेश ज्वायन कर लिया था । प्रतिमा दी कलकत्ताा के कालेज में मेरी सीनियर थीं । पति के असमय देहांत के बाद , मजदूरों के बच्चों की देखभाल में , उन्होंने अपने को पूरी तरह झोंक दिया था । यह मोबाइल क्रेश उनकी ही दौड़ धूप का नतीजा था । चिल्की अपने प्ले स्कूल से निकलकर डे स्कूल में जाने लगी तो मेरा दोपहर का खाली समय क्रेश में इन बच्चों के साथ बीतने लगा। कुछेक दिन बाद ही मैंने देखा कि लगभग चालीस बच्चों की उस भीड़ में खूब बड़ी बड़ी चमकती आंखों वाले ये पांच - सात साल के दो बच्चे अलग ही दिखाई दे जाते थे । एक दिन बोर्ड पर देवनागरी के वर्णाक्षर लिखने के बाद मैंने रेशमा को अपने पास बुलाया और कहा - मैं जो जो अक्षर बोलूं , उसे ब्लैक बोर्ड पर लिख कर दिखाओ । मैंने कहा - क । उसने लिखा । कहा - ल । वह भी उसने ठीक लिखा । मैं बोलती गई । वह लिखती गई । उसकी मेधा पर मैं हतप्रभ थी । अब दूसरे बच्चे को बुलाया । वह दो अक्षर लिख कर ही बगलें झांकने लगा । दस बारह अक्षर और लिखवा चुकने के बाद मैंने रेशमा से पूछा - तुम्हें इतने कम दिनों में सब याद कैसे हो गया , इस बच्चे को और पूरी कक्षा को बताओ । उसने मेज पर पड़ा स्केल उठाया और मुंह से कम और हाथों के इंगित से ज़्यादा मशीन की तरह झट झट बोलती चली गई - क मंझे एक डंडा , इधर एक वाटी अणी गाय ची पूंछ । व मंझे एक डंडा अणी फक्कत एक वाटी । हर अक्षर का बाकायदा उसके पास हस्तअभिनय के साथ बताने के लिये एक चित्र था । ..... मैंने उसे अपने बैग से निकालकर एक बिस्किट का पैकेट और किटकैट चॉकलेट दी तो सबकी ओर एक गद्गद् निगाह डालकर वह इतराती हुई बैठ गई । सब बच्चों को मैंने कहा कि आप लोग भी रेशमा की तरह सब अक्षर ठीक लिखेंगे तो सबको चॉकलेट मिलेगी । पढ़ाई के एवज में दोपहर का खाना तो उनको मिलता ही था पर उसमें सिर्फ एक सब्जी ,दाल ,चावल और दही रहता , कभी कभी मिठाई का एक टुकड़ा भी , पर चॉकलेट उनके लिये बेशकीमती चीज़ थी जो अच्छा काम करने या पढ़ाई करने के पुरस्कार स्वरूप ही मिलती थी ।
खाने का ब्रेक होते ही कुछ बच्चे सबकी नज़र बचाकर दूसरे कमरे में मेरी मेज़ के इर्द गिर्द जैसे एक राज़ खोलने की कोशिश में पास आये - ‘‘ टीचर-टीचर , रेशमा का पप्पा न मूका है इसके लिये वो ऐसे-ऐसे हाथ से बात करती है ! ’’ बच्चों के स्वर में ईर्ष्या का पुट तो समझ में आ रहा था पर बात मेरी समझ में नहीं आई - ‘‘ मूका मतलब ?’’
-‘‘ मूका मतलब वो सुनता-बोलता नहीं । वो गूंगा है !’’
- ‘‘ अच्छा ? पर इसके लिये तो तुमलोगों को रेशमा और भीमा से और ज़्यादा मेल से , प्यार से रहना चाहिये , है न ? ..... चलो , जाकर खाना खाओ नहीं तो खाना खत्म हो जाएगा ! ’’
बच्चे अन्यमनस्क से सिर हिलाते चले गये और मैं सोच में पड़ गई । इतने छोटे बच्चों में भी एक सहपाठी की तारीफ से झट से उसे नीचा दिखाने का भाव आ गया जबकि वह सहानुभूति का पात्र था । उस शाम जब बच्चों की मांएं या पिता अपने अपने बच्चे को लेने आये तो मैंने रेशमा और भीमा की मां को ध्यान से देखा । इशारे से मैंने उसे बुलाया । उसके माथे पर एक भी सलवट नहीं और चेहरे पर एक अजब सा संतोष और सुकून का भाव था जो आम तौर पर मजदूरिनों के चेहरे पर कम ही दिखता है । वह घबराती हुई पास आई - ‘‘ रेशमा भीमा ने परेशान किया टीचर तुमको ?’’
‘‘ अरे नहीं , तुम्हारे बच्चे तो सबसे होशियार हैं पढ़ने में । ........ मुझे तुमसे यह पूछना था कि तुम्हारा मरद क्या ......... वह बोलता .... सुनता नहीं ? ’’ मैंने हिचकिचाहट से पूछा ।
‘‘ हां , व्वो ऐसाच है शुरु से ! ’’ उसने बग़ैर किसी हील हुज्जत के , मुस्कुराकर बताया ।
‘‘ पर तुम तो ठीक हो । ऐसे आदमी के साथ शादी कर दी तुम्हारे मां बाप ने ? ’’
‘‘ वो लोग नईं किया । मी स्वतः लगन केली ! ’’ वह उंगली में आंचल का सिरा लपेटते शरमाते हुए बोली - ‘‘ हमारा प्यार का शादी होता , टीचर !’’ और उसकी चमकती आंखें मेरे चेहरे पर टिक गईं ।
‘‘ अच्छा ! बहुत अच्छी बात है ! ’’ मैं शर्मिंदा सी हुई । अपनी झेंप को छिपाते बोली - ‘‘ कभी लेकर आना उसको ! वैसे तुम ..... मतलब ... वो अच्छा है न ..... खुश हो न ? ’’
‘‘ फार चांग्ला आहे ! टीचर ! ’’ वह उमग कर बोली ,‘‘ कब्भी दारू नईं , मार-पीट नईं , बीड़ी -तमाखू नईं , तीन पत्ती नईं ! बच्चे लोग को लेकर बैठने का टी वी के सामने । मेरे कू भोत मानता ! जो भी पका कर देगा , अच्छे से खाने का , कब्भी गुस्सा नई किया मेरे कू ! ’’ ..... और वह दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन की मुद्रा में बोली - ‘‘ मी जाऊं ? ’’ रेशमा और भीमा अपना बस्ता संभाले मां के इर्द गिर्द आकर खड़े हो गये थे ।
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गर्मी की छुट्टियां होने वाली थीं । स्कूल का आखिरी दिन था । बच्चों को लेने उनकी मां नहीं , उनका पप्पा आ गया । समय से पहले ही । वैसी ही बच्चों जैसी बड़ी बड़ी बोलती आंखें । मूका - जिसके कान और ज़बान का काम भी आंखें करती हैं इसलिये आंखें ज़्यादा सक्रिय और उजली दिखती हैं । हथेली से सिर ढकने की क्रिया और फिर माथे पर घने ताप का इशारा कर उसने समझा दिया कि उसकी औरत को तेज़ बुखार है , इसलिये वह इन्हें ले जाने आया है । वैसे तो खोली पास ही है , बच्चे खुद भी कूदते फांदते चले जा सकते हैं लेकिन उसने आज काम से छुट्टी ली । यूं भी दिहाड़ी का काम है । छुट्टी लेना मुश्किल नहीं है । उसकी औरत तो गार्डेन में कायम का काम करती है । उसका कार्ड बना हुआ है । महीने की पगार मिलती है । वैसे तो दस साल से वह भी इसी पुताई के काम में है पर काम पक्का नहीं । सबके कान्ट्रैक्ट के काम है । ठेकेदार को सस्ता पड़ता है । कोई जवाबदेही नहीं । जिम्मेदारी नहीं । दिहाड़ी का काम बीस के लिये , पीछे खड़े मजूर पचास । रोज दिन का तीन सौ । ये जितने टावर दिखाई देते हैं न , सबकी दीवारों पर उसके हाथों से रंग का ब्रश चला है । जो काम दूसरे मजूर आठ घंटे में करते हैं , वह पांच घंटे में कर देता है । जोखिम का काम तो है पर अब इतना हाथ सध गया है उसका , कि बांस पर एक पैर पर खड़ा हो सकता है - बताते हुए वह हंस दिया । इंगित में बात करने का शहंशाह था वह। जैसे किसी स्कूल में उंगलियों और आंखों के जरिये संवाद करने की बाक़ायदा ट्रेनिंग ली हो ! वह लगातार अपनी आंखों और उंगलियों से बोल रहा था और मैं अपनी समझ भर उसकी बात समझ ही रही थी । यह भी समझ पा रही थी कि कैसे इसकी बोलती आंखों ने एक खूबसूरत कोंकणी कन्या का दिल जीत लिया होगा । ऐसा जीवंत मूका कि उसे मूका कहना खलने लगा । लगा कि पांच दिन मेरे पास आकर इसने बात की तो मुझे भी मूक-बधिर संवाद कला में पारंगत बना देगा । वह जाने लगा तो मैंने उसके सिर पर हाथ रखा । गद्गद् होकर अपने दोनों बच्चों की उंगलियां थाम अपनी खास अदा में बतियाता वह चल दिया ।
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छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुला तो मैं तीन दिन देर से पहुंची । चूंकि मैं अवैतनिक स्वैच्छिक काम करती थी इसलिये स्कूल की शिक्षिकाओं पर लागू किये गये कायदे कानून से मैं बाहर थी । स्कूल पहुचते ही सुपरवाइज़र ने हादसे की खबर दी । बीस दिन पहले मूका चालीस मंजिल के नये टावर में काम करते हुए चैंतीसवें माले से गिर गया था और घटनास्थल पर ही उसकी मौत हो गई थी । मेरी धड़कन उस पल थम गई और कानों में बहरेपन की सीटियां सी गूंजने लगीं । मुझे अपने सुने हुए पर भरोसा नहीं हुआ । ऐसा हुआ कैसे ? वह तो अपने काम में पारंगत था , फिर ऐसी चूक ? उसने बताया कि पुताई का काम खत्म हो चुका था , बंधे हुए बांस उतारे जा रहे थे । ऊपर से नीचे तक उतारे जाते बांस में से एक बांस ऊपर वाले मजदूर के हाथ से फिसल कर गिरा । वह चिल्लाया भी पर मूका सुन नहीं सकता था । बांस उसके सिर पर चोट करता हुआ नीचे जा पड़ा और मूका इस अप्रत्याशित चोट से संतुलन खो बैठा । उसके बाद की घटनायें और ज़्यादा परेशान करने वाली थीं । ठेकेदार ने मुआवज़ा देने से मना कर दिया और तैश में आकर कहा - हर मजदूर को सेफ्टी बेल्ट दी जाती है पर वे पहनते नहीं क्योंकि जाहिल हैं , आलसी हैं , पहनने उतारने का झंझट कौन करे ! जान गंवाने पर उनके रिष्तेदार मुआवजे के लिये हमारी गरदन पकड़ लेते हैं , इसलिये हम काम पर लगने से पहले इनसे सुरक्षा फॉर्म पर साइन करवा लेते हैं। उसने अंगूठा लगे हुए कागज़ सामने रख दिये । बात रफा दफा हो गई।
तब तक प्रतिमा दी आकर मुझे अपने केबिन में ले गईं । मुझे परेशान देखकर पहले पानी का गिलास थमाया । बोलीं - ‘‘ यह लड़ाई अब हम सबकी है । उसे अपना हक़ दिलाना हम सब का फ़र्ज़ है । हमलोगों ने किसी तरह मूका की औरत और बच्चों को समझा-बुझा कर यहां रोक रखा है वर्ना वह दोनों बच्चों को लेकर अपने भाई के पास गांव जाना चाहती थी । ठेकेदार झूठ बोलता है । आलस की वजह से ये मजदूर बेल्ट नहीं पहनते , यह सच नहीं है । सेफ्टी बेल्ट ये मजदूर इसलिये नहीं पहनते कि बांसों को उतारते समय हर दो मिनट में तो उनकी पोज़ीशन बदलती है , ऊपर की कतार के बांस उतर गये तो उन्हें नीचे वाली कतार पर जाना पड़ता है । कभी देखा है पुताई के बाद इन्हें बांस उतारते ? कुछ मजदूर रस्सी खोल रहे होते हैं और कुछ एक के बाद एक बांस पकड़ाते जाते हैं , मशीन की तरह बांसों को ऊपर से दायें हाथ से पकड़ने और बायें हाथ से खड़े बांस को घेर कर दोनों हाथों से नीचे खड़े मजदूर के हाथ में थमाते हुए उतारने का सिलसिला जारी रहता है । एक बांस नीचे उतारा नहीं कि दूसरा सिर पे खड़ा । हर पल चैकन्ना रहना पड़ता है । सुस्ताने को एक पल नहीं मिलता इन्हें । और एक दिन में जितना एरिया खाली करना पड़ता है , वह खाली न हो तो दिहाड़ी मजदूर की पगार में कटौती कर ली जाती है । ऐसे में वह क्या करेगा ? काम करेगा या सेफ्टी बेल्ट बांधता खोलता रहेगा जिससे उससे काम की त्वरा में व्यवधान पड़ता है । बेपढ़े लिखे मजदूरों से बारीक बारीक रोमन अक्षरों में लिखे हुए मसविदे पर अंगूठा लगवा लेना कौन सा मुश्किल काम है ! उसे तो दिन भर की मशक्कत के बाद बस , तीन सौ रुपये अंटी में आने भर से मतलब होता है । सरकस के जोकर की तरह ,जान को जोखिम में डालकर ,वे बांसों के साथ कलाबाजी करते रहते हैं । पर सरकस में तो सुरक्षा के लिये नीचे जाल बिछा होता है , यहां तो सीमेंट कंक्रीट की ऐसी लोहे सी ज़मीन है कि पचास किलो का वज़न धुर छत से गिरे तो भी ज़मीन पर एक तरेड़ नहीं पड़ती। ऐसे में एक ज़िन्दगी की कीमत कितनी ? बस , फॉर्म पर लगाया एक अंगूठा । हमने एडवोकेट रुखसाना से बात की है। उन्होंने केस दर्ज़ कर दिया है।
कक्षा में पहुंचते ही माहौल में अजीब सा भारीपन महसूस हुआ । रेषमा और भीमा मुझसे नज़रें चुरा रहे थे और आंखें ज़मीन पर गड़ा कर बैठे थे । मैं उनके पास गई और उन्हें जैसे ही छुआ , वे मुझसे लिपट कर जोर जोर से रोने लगे । उनके रोने का सुर तेज़ होते होते पप्पा और आई की गुहार में बदल गया । मैंने दोनों बच्चों को अपने साथ घर ले आने की इजाज़त मांगी तो प्रतिमा दी ने कहा - ‘‘ज़रूर ले जाओ , इनका मन भी बहल जाएगा।’’
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घर लौटकर मैंने शोभाबाई को मूका के बारे में बताया तो वो कहने लगी -‘‘ ये तो मेरे कू मालूम है , भोत श्याना कारीगर था । पण उसका बच्चा लोक आपका बालवाड़ी में पढ़ता है , ये नईं मालूम था । ’’ रेशमा और भीमा पहले तो घर को अंाखें चैड़ी करके देखते रहे पर जैसे ही षोभाबाई ने उनकी भाशा में उनसे बातचीत की तो वे कुछ सहज हो गये । उनको बड़े प्यार से अपने पास बिठाकर खाना भी खिलाया पर वे ऐसे सकुचाते हुए मुंह में कौर डालते रहे जैसे चुराई हुई चीज़ को छिपा रहे हों । चिल्की खुश हुई कि उसके साथ खेलने के लिये दो बच्चे अब उसके साथ थे । दोनों इतने षांत और डरे सहमे से थे कि उनको सहज करने के लिये वह अपने खिलौनों का पूरा खजा़ना निकाल लाई । उसे मालूम था कि ये चीज़े इन्होंने पहले कभी देखी नहीं हैं । वे अकबकाये से उन्हें पहले दूर से , फिर छू-छू कर देखते रहे ।
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उधर स्कूल में प्रतिमा दी और कई कार्यकर्ताएं मिलकर मुआवज़े की लड़ाई लड़ रही थीं । मैं कभी कभी स्कूल से बच्चों को अपने घर ले आती । चिल्की को रेशमा का साथ मिल गया था जो उसकी उम्र की ही थी पर उससे दुबली थी । एक दिन चिल्की ने अपनी एक फ्रॉक निकालकर रेशमा को पहना दी और मैं जब दोपहर की झपकी लेकर उठी तो देखा रेशमा पीठ कर मेरे सामने खड़ी है और चिल्की हंस रही है - ‘‘ दादी बताओ , ये कौन है ?’’
मैंने कहा -‘‘ वाह , तूने तो रेशमा को चिल्की बना दिया ! ’’
चिल्की ने कहा - ‘‘ मैं इसकी ‘तप्पू हूं और ये मेरी ‘इचकी’! ....पर हम लड़ते नहीं उन लोगों की तरह !’’
वह ‘उतरन’ सीरियल की बात कर रही थी । कभी कभी उसकी मां भी रात को आकर यह धारावाहिक देखती और बच्चों को साथ ले जाती । यह उनकी पसंद का धारावाहिक था ।
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चिल्की को अब अच्छा लगने लगा था । दरअसल मुंबई के बड़े टावर में रहने का निर्णय हमने इसलिये लिया था कि वह अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेलेगी , अपने हमउम्र साथियों में मुतमइन रहेंगी और खाली वक्त उसे परेशान नहीं करेगा । यही सोचकर इस इक्कीस मंजिला इमारत में बेटे ने उन्नीसवें माले पर घर ले लिया था पर चिल्की को हमउम्र बच्चों का साथ यहां भी नहीं मिल पाया था । अधिकांश फ्लैट में अधेड़ दंपति थे जिनके बच्चों ने उन्हें रहने के लिये यह दो तीन बेडरूम वाला राजसी फ्लैट ले दिया था और अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गये थे । कुछेक युवा दंपति ज़रूर थे इस इमारत में , पर उनमें से अधिकांश ने बच्चों को पंचगनी या ऋशि वैली के हॉस्टल में डाल रखा था और वे सिर्फ छुट्टियों के मौसम में इस टावर में दिखाई देते थे । चिल्की को बोर्डिंग में जाना रास नहीं आया था । वहां सब बच्चे उससे ममी के बारे में पूछते और जब वह बताती कि उसकी ममी अमेरिका में नौकरी करती है तो वे झट से कहते - ‘‘ तो तुम्हारे भी ममी पापा साथ नहीं रहते ? दोनों में तलाक हो गया है क्या ? ’’ हॉस्टल में ऐसे बच्चों की तादाद ज़्यादा थी जिनके ममी पापा अलग रहते थे। कच्ची उम्र में ऐसे जुमलों से उसे बचाने के लिये मैंने और मेरे बेटे ने सोचा था कि उसे परेषान करने वाले सवालों से जब तक संभव हो सके , दूर ही रखा जाना चाहिये ।
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एक दिन मैं लौटी तो चिल्की दौड़ती हुई मेरे पास आई - बताओ दादी , मेरे हाथ में क्या है ? उसने दोनों मुट्ठियां कस कर बंधी हुई थीं कि मुट्ठियों में क़ैद चीज़ मुझे दिख न जाये । मैं क्या कयास लगा पाती भला ! मैंने कहा – चॉकलेट ? ऊं हूं ! जेम्स ? ऊं हूं ! मोती ? ऊं हूं ! टॉफीज़ ? ओफ्फोह ! बुद्धू दादी ! देखो ! बेसब्र सी चिल्की ने दोनों मुट्ठियां खोल दीं । उसमें एक हथेली में सुनहरी चमकती गोलियों जैसा कुछ था और दूसरे में रूपहली गोलियां ! मैंने दो तीन दाने उठाये और सूंघने लगी । - ‘‘ ओफ्फोह दादी , ये सूंघने और खाने की नहीं , खेलने की चीज़ है !’’ चिल्की खीझी ।
‘‘ अच्छा ? ’’ मैंने हैरानी ज़ाहिर की -‘‘ कहां से आईं ? ’’
‘‘ ये ना ‘‘मणि’’ हैं , इसको मणि कहते हैं , इसमें छेद करके धागे में डालकर गले में इसकी माला भी पहन सकते हैं ’’ चिल्की मुझे दादी अम्मा की तरह समझा रही थी - ‘‘ और ये ना ..... रेशमा ने बनाईं । कचरे के डिब्बे में कल सारे चॉकलेट्स के रैपर्स पड़े थे न , उनको गोल गोल करके ऐसे ऐसे बना दिया और और देखो ......’’ वह मुझे घसीटती हुई रसोई की ओर ले गई । रसोई के साथ लगे स्टोर रूम की दीवार में खाली डिब्बों को गिफ्ट रैपिंग पेपर्स से लपेट कर एक के ऊपर एक सजा कर उनका घर बना रखा था । एक प्लेट में ये मणियां सजा रखी थीं । एक लंबी सी ट्रे में पानी डालकर स्विमिंग पूल बनाया गया था , उसके किनारे किनारे डॉमिनोज़ पित्ज़ा के डिब्बे में आने वाली प्लास्टिक की छोटी छोटी तिपहिया मेज़ों को सजा रखा था । टूथपिक्स को जोड़कर पेड़ के तने का आकार दिया था । उसके ऊपर छींटदार कपड़ों की कतरनों की भी सजावट कर रखी थी । मैं देखती रह गई । चिल्की मेरे चेहरे पर कौतुक देख तालियां बजाकर हंस रही थी -‘‘ देखा दादी , कितना सुंदर घर बनाया है !’’
- ‘‘पर किसने ? रेशमा ने ?’’
- ‘‘हां दादी , रेशमा ने और मैंने ! अच्छा है न !’’ चिल्की की आवाज़ में खुशी छलकी पड़ रही थी । वह अपने जन्मदिन पर मिले तोहफों को खोलते समय भी इतनी खुश नहीं हुई थी जितना उसके फेंके गये गिफ्ट पेपर और चैकलेट के रैपरों से बने इस अनोखे सजे घर को देखकर हो रही थी ।
- ‘‘ बहुत सुंदर ! शाबाश ! ’’ मैंने रेशमा के गाल पर प्यार से चिकोटी काटी और दोनों लड़कियों की कारीगरी पर निहाल होती रही । लड़कियों की रगों में जन्म से ही यह साज संभाल होती है । टूटी फूटी और कचरे में फेंकने वाली चीज़ों से भी सजाने संवारने का संस्कार अपने आप पैदा हो जाता है । यह ज़रूर रेशमा की कारीगरी थी जो चिल्की को भी लुभा रही थी और इसलिये वह इसे बनाने का श्रेय छोड़ना नहीं चाह रही थी ।
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हमेषा की तरह एक दिन अपने साथ रेशमा और भीमा को लेकर मैं आ रही थी कि वॉचमैन ने सोसायटी के सेक्रेटरी का संदेश दिया कि उन्होंने मुझे सोसायटी ऑफिस में बुलाया है। अर्जेन्ट मीटिंग है । सिर्फ पांच मिनट के लिये आ जायें । मैंने सोचा - हमेशा की तरह लीेकेज का मामला होगा । ऐसे टावरों में - जिस फ्लैट के बाथरूम या किचन में पानी का रिसाव होता है , वह अपने ऊपर के तमाम वाशिंदों को कोसने लगता है । बच्चों को षोभाबाई के पास छोड़कर नीचे गई तो देखा , वहां तीन कमेटी मेम्बर और बैठे हुए थे । मेरे अंदर आते ही सबने एक दूसरे की ओर देखा जैसे तय नहीं कर पा रहे कि किसको बात शुरु करनी है । मैंने उनका असमंजस देख कर पूछा - ‘‘ क्या बात है , कुछ खास ..... ?’’
‘‘ जी ,देखिये मैडम ! ’’ मिस्टर मलकानी बड़े सधे सुर में बोले - ‘‘ आपको तो मालूम है कि हमारा टावर सबसे पहला टावर है ! दूसरे सभी टावरों में तीन तीन लिफ्ट हैं जिनमें से एक सर्विस लिफ्ट है । लेकिन हमारे टावर में अब तक दो ही लिफ्ट हैं । सभी इसी में आते-जाते हैं । ’’
‘‘ हां , तो .....? ’’ बात का सिरा मेरी पकड़ में नहीं आ रहा था ।
‘‘आप मोबाइल क्रेश में काम करती हैं , अच्छी बात है। हमें बहुत अच्छा लगता है कि आप गरीब बच्चों के लिये कुछ कर रही हैं । आप ज़रूर करें । पर ऐसा है कि कामगारों के पढ़ने वाले बच्चे बार बार आपके घर आते-जाते हैं , यह दूसरे लोगों को ठीक नहीं लगता । हम काफी वक्त से तीसरी सर्विस लिफ्ट की प्लैनिंग कर रहे हैं ताकि काम वाली बाइयां , स्टोर से सामान लाने वाले लड़के , कुरियर ब्वॉयज़ और सामान लाने - ले जाने वाले मजदूरों के लिये अलग बंदोबस्त करवाया जा सके । लेकिन जब तक वह लिफ्ट नहीं बनतीं , आप स्कूल तक ही अपना सोशल वर्क रखें , उसे घर पर लेकर न आयें । प्लीज़ बुरा न मानें पर यहां रहने वालों को दिक्कत होती है । आप समझेंगी शायद !’’
‘‘ सॉरी मिस्टर मलकानी ! बच्चे बिल्कुल साफ सुथरे हैं , सलीके से रहते हैं , साफ कपड़े पहनते हैं , किसी से बेअदबी नहीं करते , आप लोगों को उनसे क्या परेशानी है ? ’’ मैं अपना आपा खो रही थी ।
‘‘ मैडम , आप तो बुरा मान गईं । माफ कीजिये , साफ कपड़े देकर आप षक्ल सूरत तो नहीं बदल सकतीं । आप अपनी पोती को बाहर उनके साथ खेलने के लिये ले जाइये , लेकिन बार बार उन्हें यहां लाती हैं , कई लोग हमसे शिकायत कर चुके हैं । हमने सबको प्रॉमिस किया है कि हम आपसे रिक्वेस्ट करेंगे । आप अगर इसे बढ़ाना चाहती हैं तो अगले महीने , ए.जी.एम. में इस मुद्दे पर बात करेंगे । ..... आप जैसा ठीक समझें । ’’
मैं अपमानित महसूस कर रही थी । इसके बावजूद मैंने आश्वासन दिया कि मैं आगे से खयाल रखूंगी । उस दिन के बाद से चिल्की को रेशमा से मिलवाने कभी अपने स्कूल ले जाती , कभी गार्डेन । लगा कि अपनी लिफ्ट में चढ़ते हुए मुझे अपने को ही नहीं , उन बच्चों को अपमानित करने का भी कोई हक नहीं था ।
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रानी मधुमक्खी कमरे से बाहर जा चुकी थी । मैं अपने हाथ का सारा सामान भीतर रखकर , हाथ मुंह धोकर बाहर आई तो सुना , शोभा उसे किस्से कहानी सुना रही थी और चिल्की बड़े ध्यान से दोनों हथेलियों में सिर टिकाये सुन रही थी -‘‘ सच्ची , ये मक्खी कैसे इतना सारा शहद जमा करेगी , इसका मुंह तो इतना छोटा है !’’
शोभा ताई बड़े इत्मीनान से उसे बता रही थी - कैसे यह पूरा इलाका पहले जंगल था और यहां पेड़ ही पेड़ थे , आम के पेड़ों का मीलों तक फैला बागान , किस्म किस्म के पेड़ और उन पेड़ों पर हजारों चिड़ियों तोतों का बसेरा । जहां अब हम रहते हैं न , यहां पहले ये मक्खियां , रंगबिरंगी चिड़ियां , तितलियां , सांप , चीते और सामने दिखते लेक में मगरमच्छ रहते थे । उन्हीं का बसेरा था यह इलाका । रात रात को आराम से घूमते टहलते थे । तब रात को इस रास्ते कोई आता जाता नहीं था । कोई शेर चीता पकड़ के खा जाएगा तो ?
‘‘ यू मीन टाइगर , ताई ? खा जाता है आदमी को ?’’ चिल्की पूछ रही थी ।
‘‘ अब नहीं खाता ! अब तो कोई शेर , चीता भूले भटके आ जाता है तो उसके छिपने के लिये पेड़ और जंगल कहां रहे , अब तो वो मार दिया जाता है ! पेपर में पढ़ते हैं न ! आज शेर को मारा , मगरमच्छ को मारा । पुराना जंगल समझकर ग़लती से बाहर निकल आया था । मर गया ! सांप तो रोज़ ही मारे जाते हैं । ’’ उसे कहानियां सुनाते छोड़ मैं आकर अपने कमरे में लेट गई ।
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शाम को मैं लेटी ही थी कि घंटी बजी । शोभाबाई ने दरवाज़ा खोल दिया होगा । दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ के साथ साथ शोभाबाई मेरे कमरे का दरवाज़ा खटखटा रही थी । अंदर आकर उसने खिड़कियों के पल्ले सरकाकर बंद किये और उन्हें हिलाकर आश्वस्त हो गई कि वे लाॅक हो गये हैं । क्या बात है ? पूछने से पहले ही वह बोली - ‘‘ ऊपर छत्ता तोड़ने वाला घाटी लोग आया , बोला - तोड़ेंगा तो सब मक्खी उडे़गा , इसके लिये दरवाजा जाली सब बंद करने का !’’
‘‘ बिल्डिंग में छत्ताा ? ’’ मैं हैरान थी ।
इंटरकॉम सामने था और पूरी बिल्डिंग के सभी रिहायशियों का सम्पर्क नम्बर भी । मैंने इक्कीसवें फ्लोर पर फोन मिलाया - ‘‘ मिसेज़ रमानी ! क्या आपके घर के बाहर मधुमक्खी का छत्ताा तोड़ा जा रहा है ? ’’ उसने हड़बड़ाकर कहा - ‘‘ हां , सैकड़ों मक्खियां जब देखो तो बैठी रहती हैं , भिन भिन करती हैं । इन लोगों को बुलाया है। सिर मुंह पर कपड़ा बांध रहे हैं अभी ! आप अपनी सारी खिड़कियां बंद कर लो । मैंने सारे लोगों को फोन लगाने को नीचे सिक्योरिटी में कह दिया है । आप उन्नीसवें पर हो , आपको तो खास एहतियात बरतनी पड़ेगी । ’’
‘‘ हां , वो तो बंद कर लिया है पर घर के बाहर की दीवार पर इतना बड़ा छत्ताा बन कैसे गया ? ’’
‘‘ अब क्या बताऊं आंटी ! रोमिल का कमरा है न ! साल हो गया । उसने कभी परदा ही नहीं खोला । जितनी देर घर में रहता है , ए.सी. चलता रहता है । बाहर देखा ही नहीं । वो तो छत्ताा पूरी दीवार जितना बड़ा होने के बाद जब दरवाज़े के कांच पर दिखने लगा , फिर समझ में आया कि क्या आफत आ गई है । खैर जी , आप दरवाज़े बंद कर लेना आंटी ! बाद में कोई कहे ना कि हमें बताया नहीं । ’’
कुछ ही देर बाद बीसवें फ्लोर पर घर्र सी आवाज़ के साथ ड्रिल मशीन जैसे चलनी शुरु हो गई । इस आवाज़ ने फिर वातावरण की
शांति में खलल पैदा किया । रईस औरतों के लिये जैसे कहा जाता है कि उन्हें जब कोई काम धाम नहीं होता तो गहने तुड़वाने , गहने बनवाने लग जाती हैं , वैसे ही इन टावरों के नव धनाढ्य लोगों के लिये भी कहा जा सकता है कि वे फर्श तुड़वाते , फर्श बनवाते रहते हैं । जब काला पैसा छिपाने के लिये जगह कम पड़ जाती है तो वे बाथरूम की टाइलें या बैठक के फ़र्श की पुरानी टाइलें तुड़वाकर नई डिज़ाइनर टाइलें लगवाने पर आमादा हो जाते हैं । इसे झेलना पड़ता है हम जैसे लोगों को , जो बिल्डर की दी हुई दीवारों और फ़र्ष को एक नियामत मानकर उसमें ज़रा सा भी फेरबदल करना गवारा नहीं करते इसलिये दूसरों के घर चलती धूम-धड़ाम ,उठा-पटक , तोड़-फोड़ और उससे पैदा होते षोर के प्रदूषण से हलकान होते रहते हैं । कई बार पड़ोसनें आकर मेरे नुमाइशी फ्लैट के बारे में यह तंजिया ऐलान कर चुकी थीं कि बिल्डर ने कैसी दीवारें और फलोरिंग बनवा कर दी थी , इसे देखना हो तो आंटी का एंटीक हाउस पेशे खिदमत है !
आधे घंटे में फिर शोभा हाज़िर थी -‘‘वो कारीगर लोग आया हय , पूछता हय - ताज़ा ‘मध’ खरीदने का क्या ? सस्ता रेट पर देंगा । बाज़ार में कितना भी किम्मत पर अइसा असल ‘मध’ मिलेंगाच नेई ।
मैं दरवाज़े तक गई तो देखा दो पहलवान नुमा आदमी हाथ में शहद की भरी बाल्टियां लिये खड़े थे - ‘‘ मैडम , जल्दी बोलो , लेने का होएंगा तो ! एकदम शुद्ध मधु । बाहर मिलेंगाच नेई ! ’’
मैंने देखा - शहद से तर ब तर दो बाल्टियां । मैंने कहा -‘‘ जिनके घर में यह छत्ताा तोड़ा , उनको नहीं दिया ? ’’
-‘‘ दिया ना मैडम ! चार किलो लिया वो लोग । आपको लेने का है तो भाव करो !’’
मैंने पूछा - ‘‘ इतना सारा षहद एक छत्ते से निकला ?’’
- ‘‘ एक कायकू । तीन छत्ताा साफ करके आया । बाजू वाला बिल्डिंग में भी होता ! लेना है तो बोलो नहीं तो .....’’
देखूं । मैं कुछ आगे आई । और बाल्टी में देखा तो शहद की ऊपरी तह पर कई मक्खियां दिखीं ।
मैं पीछे हट गई -‘‘ इसमें तो मक्खियां मरी हुई हैं । ’’
-‘‘ मध में से मक्खी नहीं तो क्या तितली जुगनू मिलेगा ? छत्ते से मध निकालेंगा तो सब तो भागता नहीं न ! दस बीस तो पकड़ कर रखता है न मध को । वो ही तो जमा करता है । टाइम खोटी करने का नेई आंटी । तीन सौ रुप्या किलो दिया ! लेने का है तो बोलो ! ’’
शोभाबाई मेरे पीछे खड़ी बोल रही थी - ‘‘ ले लो ममी जी ! चालनी से छान के बाटली में भर के गरम पानी में रखेंगा तो साफ हो जाएगा ।’’
पर बाल्टियों मे भरा शहद और उसके ऊपर अपनी शहादत देती मक्खियां मुझे अजीब सी बेचैनी से भर रही थीं । मैंने जैसे ही ‘‘ना’’ में सिर हिलाया , वो खीझते-बड़बड़ाते हुए निकल गये - ‘‘ आंटी , सोना चांदी च्यवनप्राश खरीदो , इसका किम्मत नईं समझेंगा तुम लोग !’’
वे सीढ़ियां उतर गये तो मैंने राहत की सांस ली ।
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चिल्की की शोभाताई अपनी लाड़ली चिल्की को जूते मोजे पहनाकर तैयार कर रही थी ।
‘‘ चल चिल्की बेटा , आज तुझे मैं गार्डेन में ले जाती हूं । .. .. स्लाइड करेगी न ! ’’
‘‘ वहां रेशमा भीमा आयेंगे न ? ’’ चिल्की की आवाज़ में चहक थी ।
‘‘ हां - हां ! ’’ मैंने चिल्की को आश्वासन देती अपनी आवाज़ को खोखला पाया ।
‘‘ चलो !’’ तब तक चिल्की दरवाज़े के पास आकर प्रस्थान की मुद्रा में आ गई थी ,‘‘बा--य , शोभा ताई , मी आज्जी संग जाती ! ’’ चिल्की ने शोभाताई तक अपनी गुहार पहुंचाई और फुदकते हुए नीचे जाने के लिये लिफ्ट का बटन दबा दिया ।
छोटे दरवाज़े से निकलकर गार्डेन की ओर जाने वाले रास्ते की ओर मैं बढ़ रही थी तो चिल्की ने झट से मेरी उंगलियों को अपनी मुट्ठी में थाम लिया । यह अपने सहारे के लिये नहीं , मुझे सहारा देने के लिये था । एक बार मैं ढलान पर थोड़ा लड़खड़ाई थी , तब से वह छह साल की बच्ची , बाहर सड़क पर आते ही , मुझे संभालना अपनी जिम्मेदारी समझती थी ।
अभी हम पांच कदम चले ही थे कि हमारे कदम यक ब यक थम गये । सामने के पूरे रास्ते पर हज़ारों मक्खियां बिछी पड़ी थीं । मृत । बेजान । निश्चेष्ट । दूर कोने से एक स्वीपर मोटे झाड़ू से उन्हें बुहार रहा था । हवा में अब भी छितरायी गई गैस की गंध थी । तो वह ड्रिल मशीन नहीं थी जो बीसवें फ्लोर पर चल रही थी । वह फ़्यूमिगेटर था , जिसने इक्कीसवें माले पर मधुमक्खी का छत्ताा छेड़ने वाले खास कारीगरों के मक्खियों को हंकालने के बाद आक्रमण से तितर बितर हुई और नीचे-ऊपर की ओर भागती हुई मक्खियों को बीसवें फ्लोर से अपने उपकरण के जरिये जहरीली गैस से खात्मा कर हमेशा के लिये शांत कर दिया था । यह एक सुनियोजित मिशन था जिसके तहत मक्खियां अपने महीनों के बुने हुए छत्ते और जमा किये गये शहद के प्राकृतिक खजाने से बेदखल कर दी गई थीं ।
मेरे पैर थमे और मैं पीछे मुड़ने को हुई । मेरी उंगलियों पर चिल्की की मुट्ठी की पकड़ पहले ढीली होती महसूस हुई , फिर छूटी और वह मूर्तिवत खड़ी रह गई । उसका शरीर जैसे एक कंपकंपी से हिलकने लगा और कुछ सेकेंड बाद ही वह सुबक सुबक कर रो रही थी । मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा तो मेरी ओर उसने ऐसी कातर नज़रों से देखा जैसे कहती हो - दादी , इतनी सुंदर मक्खियों को किसने इतनी बेरहमी से मारा ? दादी , इन्हें मर क्यों जाने दिया ? क्यों ?
चिल्की की मूक आंखों में सवाल था पर उसने कुछ नहीं पूछा । मेरे पास कोई जवाब था भी नहीं । गार्डेन में मूका के दोनों बच्चे रेशमा और भीमा इंतज़ार कर रहे थे । उनके और हमारे बीच रानी मधुमक्खियों की पूरी सेना ध्वस्त पड़ी थी । उनकी दो बारीक काली नोक जैसी मूंछें किसी लोहे की काली तारों की तरह खिंची हुई थीं । उड़ते हुए सुनहरे पारदर्शी पंख अब अंदर की ओर सिकुड़ कर किसी प्लास्टिक की तरह अकड़े हुए थे । कुछ ही मिनटों बाद , कभी आसमान की थाह लेने वाले और अब बेजान बना डाले गये , इन सुनहरे पंखों का ढेर , पार्क के किनारे किनारे बनाये गये ,हरे रंग के खूबसूरत डस्टबिन में बिछे चिकने काले प्लास्टिक के गारबेज बैग में होगा और हम साफ सुथरी सड़क पर बड़े आराम से चल रहे होंगे !
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1702 , सॉलिटेअर , डेल्फी के सामने , हीरानंदानी गार्डेन्स , पवई , मुंबई - 400 076
फोन - 022 4005 7872 / 090043 87272
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सुधा अरोड़ा

जन्म - अविभाजित लाहौर ( अब पश्चिमी पाकिस्तान ) में 4 अक्टूबर 1946 को जन्म हुआ । 1947 में लाहौर से कलकत्ता आना हुआ और फिर स्कूल से लेकर एम.ए. तक की शिक्षा कलकत्ता में ही हुई ।

शिक्षा - 1962 में श्री शिक्षायतन स्कूल से प्रथम श्रेणी में हायर सेकेण्डरी पास की । 1965 में श्री शिक्षायतन कॉलेज से बी.ए.ऑनर्स और 1967 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी साहित्य ) किया। दोनों बार गोल्ड मेडलिस्ट। पहली लिखित कहानी ‘एक सेंटीमेंटल डायरी की मौत‘ सारिका मार्च 1966 में प्रकाशित। पहली प्रकाशित कहानी ‘मरी हुई चीज़’ ज्ञानोदय सितम्बर 1965 में ।
1967 में छात्र जीवन में ही प्रथम कहानी संग्रह ‘ बगैर तराशे हुए ’ का प्रकाशन हुआ।

कार्यक्षेत्र -
1965 -1967 तक कलकत्ता विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘‘प्रक्रिया’’ का संपादन .
1969 से 1971 तक कलकत्ता के दो डिग्री कॉलेजों -- श्री शिक्षायतन और आशुतोश कॉलेज के प्रातःकालीन महिला विभाग जोगमाया देवी कॉलेज में अध्यापन .
1977 - 1978 के दौरान कमलेश्वर के संपादन में कथायात्रा में संपादन सहयोग.
1993 - 1999 तक महिला संगठन ‘‘हेल्प’’ से संबद्ध.

कहानी संग्रह -
*बगैर तराशे हुए (1967)
*यु़द्धविराम (1977) - छह लंबी कहानियां
*महानगर की मैथिली ( 1987 )
*काला शुक्रवार ( 2004 )
*कांसे का गिलास ( 2004 ) - पांच लंबी कहानियां
*मेरी तेरह कहानियां ( 2005 )
*रहोगी तुम वही ( 2007 )
*21 श्रेष्ठ कहानियां ( 2009 )
*एक औरत: तीन बटा चार ( 2011 )

उपन्यास
यहीं कहीं था घर (2010)
स्त्री विमर्श
* आम औरत: ज़िन्दा सवाल ‘ (2008)
* एक औरत की नोटबुक (2010)
* औरत की दुनिया: जंग जारी है .... आत्मसंघर्ष कथाएं ( शीघ्र प्रकाश्य )
* औरत की दुनिया: हमारी विरासत: पिछली पीढ़ी की औरतें ..........

कविता संकलन -
* रचेंगे हम साझा इतिहास ( 2012 )

एकांकी
ऑड मैन आउट उर्फ बिरादरी बाहर (2011)

संपादन -
* औरत की कहानी (2008)
* भारतीय महिला कलाकारों के आत्मकथ्यों के दो संकलन-‘दहलीज़ को लांघते हुए‘ और ’पंखों की उड़ान‘.
* मन्नू भंडारी: सृजन के शिखर ( 2010 )
* मन्नू भंडारी का रचनात्मक अवदान ( 2012 )
अनुवाद -
* कहानियां लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, फ्रेंच, पोलिश, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी तथा ताजिकी भाषाओं में अनूदित और इन भाषाओं के संकलनों में प्रकाशित ।
* रहोगी तुम वही ( 2008 - उर्दू भाषा में )
* उंबरठ्याच्या अल्याड पल्याड ( 2012 -स्त्री विमर्श पर आलेखों का संकलन मराठी भाषा में )

टेलीफिल्म -
‘युद्धविराम’, ‘दहलीज़ पर संवाद’, ‘इतिहास दोहराता है’ तथा ‘जानकीनामा’ पर दूरदर्शन द्वारा लघु फिल्में निर्मित. दूरदर्शन के ‘समांतर’ कार्यक्रम के लिए कुछ लघु फिल्मों का निर्माण. फिल्म पटकथाओं (पटकथा-बवंडर), टी. वी. धारावाहिक और कई रेडियो नाटकों का लेखन।

साक्षात्कार -
उर्दू की प्रख्यात लेखिका इस्मत चुग़ताई, बंाग्ला की सम्मानित लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी (नलिनी सिंह के कार्यक्रम ‘सच की परछाइयां ’ के लिए) हिन्दी की प्रतिष्ठित लेखिका मन्नू भंडारी, लेखक भीष्म साहनी, राजेंद्र यादव, नाटककार लक्ष्मीनारायण लाल आदि रचनाकारों का कोलकाता दूरदर्शन के लिए साक्षात्कार।

स्तंभ लेखन -
* सन् 1977-78 में पाक्षिक ‘सारिका’ में ‘आम आदमी: जिन्दा सवाल’ का नियमित लेखन
* सन् 1996-97 में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर एक वर्ष दैनिक अखबार ’जनसत्ता‘ में साप्ताहिक कॉलम ’वामा ‘ महिलाओं के बीच काफी लोकप्रिय रहा।
* मार्च सन् 2004 से मार्च 2009 तक मासिक पत्रिका ‘कथादेश’ में ‘औरत की दुनिया’ स्तंभ बहुचर्चित।

सम्मान -

उत्तार प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा 1978 में विशेष पुरस्कार से सम्मानित।
सन् 2008 का साहित्य क्षेत्र का भारत निर्माण सम्मान , प्रियदर्शिनी सम्मान तथा अन्य ।

सम्पर्क: 1702 ,सॉलिटेअर, हीरानंदानी गार्डेन्स, पवई, मुंबई - 400 076.

फोन नं. 022 4005 7872 / 097574 94505

E- mail : sudhaarora@gmail.com / sudhaaroraa@gmail.com

5 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

सुधा अरोड़ा जी को मैं उस समय से पढ़ता आ रहा हूँ जब धर्मयुग, सारिका जैसी पत्रिकाओं की धूम थी। मैंने अभी लेखन में कदम रखा ही था और सुधा जी की कहानियाँ मुझे भीतर तक मथती थीं। तब से अब तक सुधा जी ने अपने लेखन में बहुत ऊँचाइयां प्राप्त की हैं, उनका लेखन भले ही बीच के कुछ वर्षों में अवरुद्ध हुआ लेकिन जब उन्होंने पुन: प्रारंभ किया तो उसी शक्ति और गरिमा के साथ… सुधा जी की यह नई कहानी इस बात का सबूत है कि वह शौकिया लेखन नहीं करतीं… इस कहानी को मैंने 'शुक्रवार' के साहित्य विशेषांक में अभी कुछ दिन पूर्व ही पढ़ा और मैं सुधा जी की कलम का कायल हो गया। भाषा और विषय पर इतनी गहरी पकड़ और कहानी में कहानी रस और उसके प्रवाह को मेन्टेन रखना, गजब का है… मुझे यह कहानी उनकी श्रेष्ट कहानियों में शुमार करने जैसी लगती है।

Ila ने कहा…

सुधा जी के लेखन की शुरू से प्रशंसिका रही हूँ | "कांच के इधर- उधर" संवेदना के जिन तंतुओं से बुनी गई है वे समाज को आईना तो दिखाती ही हैं , मन पर एक गहरी छाप भी छोड़ जाती हैं | ऐसी कहानियाँ कम पढ़ने को मिलती हैं |
सादर
इला

ashok andrey ने कहा…

priya chandel bahut samay ke baad itni badia kahani padvai hai tatha kaphii der tak mai kahani ke pattro ke madhaya khadaa saari ghatnaon ko kareeb se mehsusta rahaa. mai itni khubsurat kahani ke liye Sudha jee ko vishesh roop se badhai deta hoon.

बेनामी ने कहा…

वातायान जैसी ई-पत्रिका निकालने के लिये बधाई। हम जैसे हिन्दी प्रेमी अपनी भाषा के लिये केवल महसूस ही करते रहते हैं पर आप और आप जैसे कुछ लोग तो हिन्दी के प्रसार के लिये इतना कुछ कर भी रहे हैं।
सुधा अरोरा पर एकाग्र अप्रैल 2012 का पूरा अंक रोचक लगा। ‘‘कॉंच के इधर उधर’’ बेहद संवेदनशील कहानी लगी। अंगे्रज़ो के द्वारा अपने क्लब,रेल के डिब्बों और पार्को में हम भारतीयों को प्रवेश न करने देने को हम आज तक उनके अन्याय की तरह याद करते हैं पर अपने ही देश में अपने ही लोगों के द्वारा एक पूरे कामग़ार वर्ग के साथ किये जाने वाले व्यवहार में हमें ग़लत के दर्शन नही होते। कुछ संवेदनशील लोगों को यदि वह बुरा लगता भी है तो भी वे एक तरह से मजबूर हैं उन बाकी लोगों के साथ शामिल हो जाने के लिये। ‘पंख’ केवल मधुमक्खियों के ही नही काटे जाते...समाज की गार्बेज में जीते जागते इंसानों की छोटी छोटी निर्दोष सी ख़ुशियां भी फेंकी जाती हैं।
सुधा जी की छोटी कहानी ‘‘समुद्र में रेगिस्तान’’ भी बहुत अच्छी लगी। इस तरह से कि पढ़ने के बाद मेरे दिल और दिमाग से उतर नही पायी है।
सुधा जी को और आप को इतनी सुंदर कहानियां देने के लिये बधाई।

शुभ कामनाओं के साथ,
सुमति सक्सेना लाल.

बेनामी ने कहा…

sudhaa ji ko phadhna ek khoobsurat ehsaas se gujarnaa h
meri mangalkamnaye