बुधवार, 4 अप्रैल 2012

छोटी कहानियां






वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा की तीन छोटी कहानियां



सुधा अरोड़ा



एक

रहोगी तुम वही


यह कहानी एक पति का एकालाप है जो दो हिस्सों में है । पहला शादी के पांच साल बाद और दूसरा शादी के पंद्रह साल बाद ।

( एक )

‘‘ क्या यह जरुरी है कि तीन बार घण्टी बजने से पहले दरवाजा खोला ही न जाये ? ऐसा भी कौन-सा पहाड़ काट रही होती हो। आदमी थका-मांदा ऑफिस से आये और पांच मिनट दरवाजे पर ही खड़ा रहे...
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‘‘ इसे घर कहते हैं ? यहां कपड़ों का ढेर, वहां खिलौनों का ढेर। इस घर में कोई चीज सलीके से रखी नहीं जा सकती ?
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‘‘ उफ् ! इस बिस्तर पर तो बैठना मुश्किल है, चादर से पेशाब की गन्ध आ रही है । यहां-वहां पोतड़े सुखाती रहोगी तो गन्ध तो आएगी ही... कभी गद्दे को धूप ही लगवा लिया करो , पर तुम्हारा तो बारह महीने नाक ही बन्द रहता है, तुम्हे कोई गन्ध-दुर्गन्ध नहीं आती ।
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‘‘ अच्छा, तुम सारा दिन यही करती रहती हो क्या ? जब देखो तो लिथड़ी बैठी हो बच्चों में। मेरी मां ने सात-सात बच्चे पाले थे, फिर भी घर साफ-सुथरा रहता था । तुमने तो दो बच्चों में ही घर की वह दुर्दशा कर रखी है, जैसे घर में क्रिकेट की पूरी टीम पल रही है ।
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‘‘ फिर बही शर्बत ! तुम्हें अच्छी तरह मालूम है - मेरा गला खराब है। पकड़ा दिया हाथ ठण्डा शर्बत। कभी तो अक्ल का काम किया करो। जाओ, चाय लेकर आओ..... और सुनो, आगे से आते ही ठण्डा शर्बत मत ले आया करो। सामने........बीमार पड़ना अफोर्ड नहीं कर सकता मैं। ऑफिस में दम लेने की फुर्सत नहीं रहती मुझे....... पर तुम्हें कुछ समझ में नहीं आएगा.....तुम्हें तो अपनी तरह सारी दुनिया स्लो मोषन में चलती दिखाई देती है.......
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‘‘ सारा दिन घर-घुसरी बनी क्यों बैठी रहती हो, खुली हवा में थोड़ा बाहर निकला करो। ढंग के कपड़े पहनो। बाल संवारने का भी वक्त नहीं मिलता तुम्हें, तो बाल छोटे करवा लो, सूरत भी कुछ सुधर जाएगी। पास-पड़ोस की अच्छी समझदार औरतों में उठा-बैठा करो।
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‘‘ बाऊजी को खाना दिया ? कितनी बार कहा है, उन्हें देर से खाना हजम नहीं होता, उन्हें वक्त पर खाना दे दिया करो.... दे दिया है ? तो मुहं से बोलो तो सही.....। जब तक बोलोगी नहीं, मुझे कैसे समझ में आएगा ?
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‘‘ अच्छा सुनो , वह किताब कहां रखी है तुमने? टेबल के ऊपर-नीचे सारा ढंूढ लिया, शेल्फ भी छान मारा। तुमसे कोई चीज ठिकाने पर रखी नहीं जाती? गलती की जो तुमसे पढ़ने को कह दिया। अब वह किताब इस जिन्दगी में तो मिलने से रही।.... तुम औरतों के साथ यही तो दिक्कत है - शादी हुई नहीं, बाल-बच्चे हुए नहीं कि किताबों की दुनिया को अलविदा कह दिया और लग गये नून-तेल-लकड़ी के खटराग में, पढ़ना-लिखना गया भाड़ में.........
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‘‘ यह कोई खाना है! रोज वही दाल-रोटी-बैंगन-भिण्डी और आ....लू। आलू के बिना भी कोई सब्जी होती है इस हिन्दुस्तान में या नहीं? मटर में आलू, गोभी मे आलू, मेथी में आलू, हर चीज में आ....लू। तुमसे ढंग का खाना भी नहीं बनाया जाता। अब और कुछ नहीं करती हो तो कम-से-कम खाना तो सलीके से बनाया करो।.......जाओ, एक महीना अपनी मां के पास लगा जाओ, उनसे कुछ रेसिपीज नोट करके ले आना.....अम्मा तो तुम्हारी इतना बढ़िया खाना बनाती है, तुम्हे कुछ नहीं सिखाया ? कभी चायनीज बनाओ, कॉण्टीनेण्टल बनाओ...खाने में वेरायटी तो हो.....
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‘‘ वह किताब जरुर ढूंढ़कर रखना, मुझे वापस देनी है। यह मत कहना -‘भूल गयी’..... तुम्हें आजकल कुछ याद नहीं रहता......
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‘‘ अब तो दोनों सो गये है, अब तो यहां आ जाओ। बस, मेरे ही लिए तुम्हारे पास वक्त नहीं है। और सुनो...बाऊजी को दवाई देते हुए आना , नहीं तो अभी टेर लगाएंगे........’’
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‘‘ आओ, बैठो मेरे पास ! अच्छा, यह बताओ , मैंने इतने ढेर सारे प्रपोजल में से तुम्हें ही शादी के लिए क्यों चुना ? इसलिए कि तुम पढ़ी-लिखी थीं , संगीत - विशारद थीं, गजलों में तुम्हारी दिलचस्पी थी, इतने खूबसूरत लैण्डस्केप तुम्हारे घर की दीवारों पर लगे थे।..... तुमने तुमने आपना यह हाल कैसे बना लिया ? चार किताबें लाकर दीं तुम्हें, एक भी तुमने खोलकर नहीं देखी।.... ऐसी ही बीवियों के शौहर फिर दूसरी खुले दिमागवाली औरतों के चक्कर में पड़ जाते हैं, और तुम्हारे जैसी बीवियां घर में बैठकर टसुए बहाती हैं ?....पर अपने को सुधारने की कोशिश बिल्कुल नहीं करेंगी।
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‘‘ तुम्हारे तो कपड़ों में से भी बेबी-फूड और तेल-मसालों की गन्ध आ रही है.....सोने से पहले एक बार नहा लिया करो, तुम्हें भी साफ-सुथरा लगे और.......।
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‘‘ यह लो , मैं बोल रहा हूं और तुम सो भी गयीं। अभी तो साढ़े दस ही बजे हैं, यह कोई सोने का वक्त है ? सिर्फ घर के काम-काज में ही इतना थक जाती हो कि किसी और काम के लायक ही नहीं रहतीं........’’
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( दो )

‘‘ तुम्हारी आदतें कभी सुधरेंगी नहीं। पन्द्रह साल हो गये हमारी शादी को, पर तुमने एक छोटी-सी बात नहीं सीखी कि आदमी थका-मांदा ऑफिस से आये तो एक बार की घण्टी में दरवाजा खोल दिया जाये। तुम उस कोनेवाले कमरे में बैठी ही क्यों रहती हो कि यहां तक आने में इतना वक्त लगे ? मेरे ऑफिस से लौटने के वक्त तुम यहां....इस सोफे पर क्यों नहीं बैठतीं ?
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‘‘ अब यह घर है ? न मेज पर ऐशट्रे, न बाथरुम में तौलिया...... बस, जहां देखो, किताबें, किताबें, किताबें........मेज पर, शेल्फ पर, बिस्तर पर, कार्पेट पर, रसोई में, बाथरुम में ..... अब किताबें ही ओढ़ें-बिछायें, किताबें ही पहनें, किताबें ही खायें ?......
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‘‘ यह कोई वक्त है चाय पीने का ? खाना लगाओ। गर्मी से वैसे ही बेहाल हैं, आते ही चाय थमा दी। कभी ठण्डा नींबू पानी ही ले आया करो।
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‘‘ अच्छा, इतने अखबार क्यों दिखाई देते हैं यहां ? षहर में जितने अखबार निकलते हैं, सब तुम्हें ही पढ़ने होते हैं ? खबरें तो एक ही होती हैं सबमें, पढ़ने का भूत सवार हो गया है तुम्हें। कुछ होश ही नहीं कि घर कहां जा रहा है, बच्चे कहां जा रहे हैं......
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‘‘ यह क्या खाना है ? बोर हो गये हैं रोज-रोज सूप पी-पीकर और यह फलाना-ढिमकाना बेक्ड और बॉयल्ड वेजीटेबल खा-खाकर। घर में रोज होटलों जैसा खाना नहीं खाया जाता। इतना न्यूट्रीशन कॉन्शस होने की जरुरत नहीं है। कभी सीधी-सादी दाल-रोटी भी बना दिया करो, लगे तो कि घर में खाना खा रहे हैं। आजकल की औरतें विदेशी नकल में हिन्दुस्तानी मसालों का इस्तेमाल भी भूलती जा रही हैं।
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‘‘ यह क्या है, मेरे जूते रिपेयर नहीं करवाये तुमने ? और बिजली का बिल भी नहीं भरा ? तुमसे घर में टिककर बैठा जाए, तब न ! स्कूल में पढ़ाती हो, वह क्या काफी नहीं ? ऊपर से यह समाज सेवा का रोग भी पाल लिया अपने सिर पर ! क्यों जाती हो उस फटीचर समाज-सेवा के दफ्तर में? सब हिपोक्रेट औरतें हैं वहां। मिलता क्या है तुम्हें ? न पैसा, न धेला, उल्टा अपनी जेब से आने-जाने का भाड़ा भी फूंकती हो।
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‘‘ यह है तुम्हारे लाड़ले का रिपोर्ट कार्ड! फेल नहीं होंगे तो और क्या! मां को तो फुर्सत ही नहीं हैं बेटे के लिए। अब मुझसे उम्मीद मत करो कि मैं थका-मांदा लौटकर दोनों को गणित पढ़ाने बैठूंगा। एम. ए. की गोल्ड मेडलिस्ट हा, तुमसे अपने ही बच्चों को पढ़ाया नहीं जाता? तुम्हें नया गणित नहीं आता तो एक ट्यूटर रख लो। अब तो तुम भी कमाती हो, अपना पैसा समाज-सेवा में उड़ाने से तो बेहतर ही है कि बच्चों को किसी लायक बनाओ। सारा दिन एम. टी. वी. देखते रहते हैं।
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‘‘ यह तुमने बाल इतने छोटे क्यों करवा लिये हैं ? मुझसे पूछा तक नहीं। तुम्हें क्या लगता है, छोटे बालों में बहुत खूबसूरत लगती हो ? यू लुक हॉरिबल ! तुम्हारी उम्र में ज्यादा नहीं तो दस साल और जुड़ जाते हैं । चेहरे पर सूट करें या न करें , फैशन जरुर करो ।
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‘‘ सोना नहीं है क्या ? बारह बज रहे हैं । बहुत पढ़ाकू बन रही हो आजकल । तुम्हे नहीं सोना है तो दूसरे कमरे में जाकर पढ़ो । मेहरबानी करके इस कमरे की बत्ती बुझा दो और मुझे सोने दो ।
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‘‘ अब हाथ से किताब छोड़ो तो सही ! सच कह रहा हूं , मुझे गुस्सा आ गया तो इस कमरे की एक-एक किताब इस खिड़की से नीचे फेंक दूंगा। फिर देखता हूं कैसे.........
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‘‘ अरे, कमाल है, मैं बोले जा रहा हूं, तुम सुन ही नहीं रही हो। ऐसा भी क्या पढ़ रही हो जिसे पढ़े बिना तुम्हारा जन्म अधूरा रह जाएगा। कितनी भी किताबें पढ़ लो, तुम्हारी बुद्धि में कोई बढ़ोतरी होनेवाली नहीं है । रहोगी तो तुम वही........’’
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दो


बड़ी हत्या , छोटी हत्या

मां की कोख से बाहर आते ही , जैसे ही नवजात बच्चे के रोने की आवाज आई , सास ने दाई का मुंह देखा और एक ओर को सिर हिलाया जैसे पूछती हो - क्या हुआ ? खबर अच्छी या बुरी ।
दाई ने सिर झुका लिया - छोरी ।
अब दाई ने सिर को हल्का सा झटका दे आंख के इशारे से पूछा - काय करुं ?
सास ने चिलम सरकाई और बंधी मुट्टी के अंगूठे को नीचे झटके से फेंककर मुट्ठी खोलकर हथेली से बुहारने का इषारा कर दिया - दाब दे !
दाई फिर भी खड़ी रही । हिली नहीं ।
सास ने दबी लेकिन तीखी आवाज में कहा - सुण्यो कोनी ? ज्जा इब ।
दाई ने मायूसी दिखाई - भोर से दो को साफ कर आई । ये तीज्जी है , पाप लागसी ।
सास की आंख में अंगारे कौंधे - जैसा बोला , कर । बीस बरस पाल पोस के आधा घर बांधके देवेंगे , फिर भी सासरे दाण दहेज में सौ नुक्स निकालेगे और आधा टिन मिट्टी का तेल डाल के फूंक आएंगे । उस मोठे जंजाल से यो छोटो गुनाह भलो।
दाई बेमन से भीतर चल दी । कुछ पलों के बाद बच्चे के रोने का स्वर बंद हो गया ।
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बाहर निकल कर दाई जाते जाते बोली - बीनणी णे बोल आई - मरी छोरी जणमी ! बीनणी ने सुण्यो तो गहरी मोठी थकी सांस ले के चद्दर ताण ली ।
सास के हाथ से दाई ने नोट लेकर मुट्ठी में दाबे और टेंट में खोंसते नोटों का हल्का वजन मापते बोली - बस्स ?
सास ने माथे की त्यौरियां सीधी कर कहा - तेरे भाग में आधे दिन में तीन छोरियों को तारने का जोग लिख्यो था तो इसमें मेरा क्या दोश ?
सास ने उंगली आसमान की ओर उठाकर कहा - सिरजनहार णे पूछ । छोरे गढ़ाई का सांचा कहीं रख के भूल गया क्या ? ...... और पानदान खोलकर मुंह में पान की गिलौरी गाल के एक कोने में दबा ली ।

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तीन

डेजर्ट फोबिया उर्फ
समुद्र में रेगिस्तान

दिन , हफ्ते , महीने , साल .... लगभग पैंतीस सालों से वे खड़ी थीं - खिड़की के आयताकार फ्रेम के दो हिस्सों में बंटे समुद्र के निस्सीम विस्तार के सामने - ऐसे , जैसे समुद्र का हिस्सा हों
वे । हहराते - गहराते समुद्र की उफनती पछाड़ खाती फेनिल लहरों की गतिशीलता के बीच एकमात्र
शांत , स्थिर और निश्चल वस्तु की तरह वे मानो कैलेंडर में जड़े एक खूबसूरत लैंडस्केप का अभिन्न हिस्सा बन गयी थीं ।
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‘‘ आंटी , थोड़ी शक्कर चाहिए । ’’ दरवाजे की घंटी के बजने के साथ सात - आठ साल के दो बच्चों में से एक ने हाथ का खाली कटोरा आगे कर दिया ।
बच्चों की आंखो के चुम्बकीय आकर्षण से उन्होंने आगे बढ़कर खाली कटोरा लिया , खुद रसोई में जाकर उसे चीनी से भरा और लाकर उन्हें थमा दिया ।
‘‘ संभालना । ’’ उन्होंने हल्की सी मुस्कान के साथ एक का गाल थपथपाया और जिज्ञासु निगाहों से देखा । पूछा कुछ नहीं ।
‘‘वहां ।’’ बच्चे ने आंटी की मोहक मुस्कान में सवाल पढ़ पड़ोस के फ्लैट की ओर इशारा किया , जो किसी बड़ी कंपनी का गेस्ट हाउस था ,‘‘ वहां अब्भी आये हमलोग ! ‘ दुबाई ’ से .... ’’ विदेशी अन्दाज में ‘ आ ’ को खीचंते हुए बड़ी लड़की ने कहा ।

पीछे से नाम की पुकार सुनकर एक ने दूसरे को टहोका । लौटते बच्चों की खिलखिलाहट को वे एकटक निहारती रहीं । एक खिलखिलाहट पलटी -‘ थैंक्यू आंटी ’ । उन्होंने स्वीकृति में हाथ उठाया और बेमन से मुड़ गयीं खिड़की की ओर । उनके पीछे पीछे हवा में ‘थैक्यू आंटी’ के टुकडे़ तिर रहे थे ।
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तीस साल पहले समुद्र ऐसा मटमैला नहीं था । चढ़ती दुपहरी में वह आसमान के हल्के नीले रंग से कुछ ज्यादा नीलापन लिए दिखता - आसमानी नीले रंग से तीन शेड गहरा । लगता , जैसे चित्रकार ने समुद्र को आंकने के बाद उसी नीले रंग में सफेद मिलाकर ऊपर के आसमान पर रंगों की कूची फेर दी हो । आसमान और समुद्र को अलग करती बस एक गहरी नीली लकीर । डूबता सूरज जब उस नीली लकीर को छूने के लिए धीरे धीरे नीचे उतरता तो लाल गुलाबी रंगो का तूफान सा उमड़ता और वे सारे काम छोड़कर उठतीं और कूची लेकर उस उड़ते अबीर को कैनवस पर उतारती रहतीं - एक दिन , दो दिन , तीन दिन । तस्वीर पूरी होने पर खिड़की के बाहर की तस्वीर का अपनी तस्वीर से मिलान करतीं और अपनी उंगलियों पर रीझ जाती । उन्हे थाम लेते ऑफिस से लौटे साहब के मजबूत हाथ और उनकी उंगलियां पर होते साहब के नम होंठ ।
दस साल बाद एक दिन अचानक ,जब गर्मी की छुट्टियां खत्म होने पर , बच्चे वापस पंचगनी के हॉस्टल लौट गए , उन्हे समुद्र कुछ बदरंग सा नीला लगा जिसमे जगह जगह नीले रंग के धुंधलाए चकत्ते थे । खिड़की के बाहर दिखाई देता समुद्र पहले से भी ज्यादा विस्तारित था । वैसा ही अछोर विस्तार उन्हे अपने भीतर पसरता महसूस हुआ । उनका मन हुआ कि उस सपाट निर्जन असीम विस्तार पर घर लौटते हुए पक्षियों की एक कतार आंक दें जिनके उड़ने का अक्स समुद्र की लहरों पर पड़ता हो । उन्होंने पुराने सामान के जखीरे से कैनवस और कूची निकाली पर कैनवस सख्त और खुरदुरा हो चुका था और कूची के बाल सूखकर अकड़ गए थे । वे बार बार खिड़की के बाहर की तस्वीर को बदलने की कोशिश करतीं पर उस कोशिश को हर बार नाकाम करता हुआ समुद्र फिर समुद्र था - जिद्दी , भयावह और खिलंदड़ा ।

खिलंदड़े समुद्र के किनारे किनारे कुछ औरते प्रैम में बच्चों को घुमा रही थीं । एक युवा लड़की के कमर मे बंधे पट्टे के साथ बच्चे का कैरियर नत्थी था जिसमें बच्चा बंदरिए के बच्चे की तरह मां की छाती से चिपका था ।

‘‘ मुझे अपना बच्चा चाहिए ’’ , साहब की बांहो के घेरे को हथेलियो से कसते हुए उनके मुंह से कराह सा वाक्य फिसल पड़ा ।
साहब के हाथ झटके से अलग हुए और बाएं हाथ की तर्जनी को उठाकर उन्होने बरज दिया , ’’ फिर कभी मत कहना । ये तीनों तुम्हारे अपने नहीं है क्या ? ’’ साहब ने कार्निस पर रखी बच्चों की तस्वीर उठा ली । फ्रेम मे जडी हुई तीनो बच्चो की हंसी के साथ साहब की तर्जनी की हीरे की अंगूठी की चमक इतनी तेज़ थी कि वे कह नही र्पाइं कि उनका बचपन कहां देखा उन्होंने । वे तो जब ब्याह कर इस घर मे आई तो दस , आठ और छः साल के तीनो बेटों ने अपनी छोटी मां का स्वागत किया था और वे दहलीज लांघते ही एकाएक बड़ी हो गयी थी ।

वह अपने दसवें माले के फ्लैट की ऊंचाई से सबको तब तक देखती रहीं , जब तक समुद्र की पछाड़ खाती लहरें उफन उफन कर जमीन से एकाकार नही हो गयीं । सबकुछ गड्डमड्ड होकर धुंआ धुंआ सा धुंधला हो गया ।
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न जाने कब वह खिलंदड़ा समुद्र एकाकी और हताश रेगिस्तान में बदल गया । वे खिड़की पर खड़ी होतीं तो उन्हे लगता - उनकी आंखो के सामने हिलोरें लेता समुद्र नहीं , दूर दूर तक फैला खुश्क रेगिस्तान है । यहां तक कि वे अपनी पनियाई आंखो में रेत की किरकिरी महसूस करतीं वहां से हट जातीं ।
‘ तुम्हें डेज़र्ट फोबिया हो गया है । ’ साहब हंसते हुए कहते ,‘ इसका इलाज होना चाहिए । ’
साहब को अचानक एक दिन दिल का दौरा पड़ा और वह उनका अतीत बन गए । पीछे छोड़ गए - बेशुमार जायदाद और तीन जवान बेटे । उतने ही अचानक उन्होंने अपने को कोर्ट कचहरी के मुकदमों और कानूनी दांवपेचों से घिरा पाया ।

तीनों बेटों के घेरने पर उन्होंने कहा कि उन्हें साहब की जमा पूंजी , फार्म हाउस और बैक बैलेंस नहीं चाहिए , सिर्फ यह घर उनसे न छीना जाए । उन्हें लगा , उनके जीने के लिये यह रेगिस्तान बहुत जरूरी है ।
घर उन्हें मिला पर बच्चे छिन गए । तीनों बेटे अब विदेश में थे और जमीन जायदाद की देख रेख करने साल छमाही आ जाते थे पर आकर छोटी मां के दरवाजे पर दस्तक देना अब उनके लिये जरूरी नहीं रह गया था ।
उन्हें पता ही नहीं चला , कब वह धीरे धीरे खिड़की के चैकोर फ्रेम में जड़े लैंडस्केप का हिस्सा बन गयीं ।
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‘‘ आंटी , हमलोग आज चले जाएंगे - वापस दुबाई ’’ वैसे ही ‘ आ ’ को खींचते हुए बड़ी लड़की ने कहा । ’’ हमारे ग्रैंड पा ’ मतलब नाना हमें लेने आए हैं । चलिए हमारे साथ , उनसे मिलिए । ’’ बच्चों ने दोनो ओर से उनकी उंगलियां थामीं और उनके मना करने के बावजूद उन्हे गेस्ट हाउस की ओर ले चले । इन चार दिनों में बच्चे उनके इर्द गिर्द बने रहे थे ।

सोफे पर एक अधेड़ सज्जन बैठे अखबार पढ़ रहे थे । उन्हे देखते ही हड़बड़ाकर उठे और हाथ जोड़कर बोल पड़े , ‘ बच्चे आपकी बहुत तारीफ करते हैं - आंटी इतनी अच्छी पेन्टिंग बनाती हैं , आंटी की खिड़की से इतना अच्छा व्यू दिखता है . . . . ’’ बोलते बोलते वह रुके , चश्मा नाक पर दबाया और आंखे दो तीन बार झपकाकर बोले ‘‘ अगर मैं गलत नहीं तो .....आर यू ...छवि . . .?

छवि - छवि - छवि ..... जैसे किसी दुर्घटना में इंद्रियां संज्ञाहीन हो जाएं.........वे जहां थीं , वहां खड़ी जैसे सचमुच बुत बन गईं ।
‘‘ हां ... पर आप ... ? ’’ बोलते हुए उन्हें अपनी आवाज़ किसी कुंए के भीतर से उभरती लगी ।
‘‘ नही पहचाना न ? मैं ...महेश । कॉलेज में तुम्हारा मजनू नं. वन ! ’’ कहकर वे ठहाका मारकर हंस पड़े ,‘‘तुम भी अब नानी दादी बन गई होगी - पोते पोतियों वाली ...... अपने साहब से मिलवाओ ..... ’’
उन्होने आंखें झुकायीं और सिर हिला दिया - वे नहीं रहे ।
‘‘सॉरी , मुझे पता नही था ! ’’ उनके स्वर में क्षमायाचना थी ।
‘‘ चलती हूं ...’’ वे रुकी नहीं , घर की ओर मुड़ गयीं ।
पीछे से छोटे बच्चे ने उनका पल्लू थामा - ‘‘ आंटी...... आंटी ... ’’
वे मुड़ीं । बच्चे ने एक पल उनकी सूनी आंखों में झांका , फिर पुचकारता हुआ धीरे से बोला -
‘‘ आंटी , यू आर एन एंजेल ’’ ।
वे मुस्कुर्राईं , पसीजी हथेलियों से गाल थपथपाया , फिर घुटने मोड़कर नीचे बैठ गईं , उसका माथा चूमा - ‘ थैंक्यू ! ’’ और घर की ओर कदम बढ़ाए ।
कांपते हाथों से उन्होंने चाभी घुमायी । दरवाजा खुला । दीवारों पर लगी पेन्टिंग्स के कोनों पर लिखा उनका छोटा सा नाम वहां से निकलकर पूरे कमरे में फैल गया था । कमरे के बीचोबीच वह नाम जैसे उनकी प्रतीक्षा में बैठा था । वे हुलस कर उससे मिलीं और ढह गईं जैसे बरसों पहले बिछडे़ दोस्त से गले मिली हों ।

खिड़की के बाहर रेगिस्तान धीरे धीरे हिलोरें लेने लगा था ।

और फिर ...... न जाने कैसे खिड़की के बाहर हिलोरें लेता रेगिस्तान उमड़ते समुद्र की तरह बेरोकटोक कमरे में चला आया और सारे बांध तोड़कर उफनता हुआ उनकी आंखो के रास्ते बह निकला ।
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1 टिप्पणी:

Ila ने कहा…

ये रचनायें मेरे लिए पूर्व पठित थीं , विस्मृत नहीं हुई क्योंकि अच्छी लगी थी | उनसे फिर से गुजरना अच्छा लगा |
इला