शनिवार, 30 अगस्त 2014

वातायन-सितम्बर,२०१४



हम और हमारा समय

आत्मीय,जीवन्त,खुद्दार और अति संवेदनशील व्यक्ति

रूपसिंह चन्देल

यह बता पाना कठिन है कि क़मर मेवाड़ी जी से मेरा परिचय किस माह और वर्ष हुआ. अनुमान ही लगा सकता हूं कि वह १९८८ की बात होगी. सम्बोधन से मेरा परिचय किसी लेखक मित्र के माध्यम से हुआ था. कहानी भेजी और कुछ दिनों बाद क़मर भाई का पोस्टकार्ड मिला कि आगामी अंक में कहानी प्रकाशित करेंगे. पत्रों का आदान-प्रदान प्रारंभ हो गया. उन दिनों मैं प्रतिदिन ढेरों पत्र लिखता.  सम्पादकों, लेखक मित्रो, और उन पाठकों को जो मेरी रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया देते थे.   बेहद खराब, उबाऊ और पीड़क नौकरी में रहते हुए भी मैं सारे पत्र दफ्तर में ही लिखता. सुबह जल्दी पहुंच जाता तब काम शुरू करने से पहले कुछ पत्र लिख लेता और शेष लंच के दौरान. प्रतिदिन कम-से कम दस पत्र. ढेरों अंतर्देशीय और पोस्टकार्ड बैग में पड़े रहते. शाम घर लौटकर लेटर बॉक्स देखता और यदि किसी दिन (ऎसा कभी ही होता) कोई पत्र न आया होता तब शाम चाय फीकी लगती. 

हिन्दी के दो ऎसे लेखक हैं जिनके साथ मेरा पत्राचार सर्वाधिक हुआ. एक हृदयेश और दूसरे क़मर मेवाड़ी. क़मर मेवाड़ी जी के साथ हृदयेश जी से कहीं अधिक पत्राचार रहा. हृदयेश जी के पत्र सदैव अपने किसी काम से आते जबकि क़मर भाई से पत्राचार  रचनात्मक कारणों से होता. 

फोन पर पहली बार कब बात की यह भी याद नहीं, लेकिन स्पष्ट है कि तब मोबाइल न मेरे पास था और न क़मर भाई के पास.  शायद किसी रचना के सिलसिले में मैंने उन्हें दफ्तर से फोन किया था. यह बात निश्चित ही २००४ से पहले की है. यद्यपि पत्रों से उनके व्यक्तित्व का एक खाका मेरे मन-मस्तिष्क में निर्मित हो चुका था. उनके चित्र अनेक बार देख चुका था और चित्र भी किसी के व्यक्तित्व के विषय में अच्छी समझ देते हैं. लेकिन फोन पर बात करने के पश्चात उनकी वाणी का माधुर्य और ठहाकों ने मुझे बहुत ही प्रभावित किया. अनुभव किया कि वह एक अलमस्त,गंभीर, स्वाभिमानी और संवेदनशील लेकिन चीजों की परवाह न करने वाले व्यक्ति हैं. ऎसा ही व्यक्ति सीमित साधनों के बावजूद १९६६ से  किसी पत्रिका को निरंतर निकालने का साहस कर सकता है. सम्बोधन के कितने ही बड़े विशेषांक  निकाले उन्होंने –व्यक्ति केन्द्रित भी और विधा और विमर्श केन्द्रित भी. कहानी,,संस्मरण और स्त्री विमर्श  विशेषांक तो बहु-चर्चित रहे. 

क़मर भाई ने  कहानी, कविता, संस्मरण, उपन्यास आदि विधाओं में अपनी रचनात्मकता को सार्थकता प्रदान किया. समय से साक्षात करती इनकी कविताएं जन सरोकारों से जुडती हैं तो कहानियों में समाजिक विद्रूपता, राजनैतिक कुरूपता, आर्थिक ,धार्मिक आदि समस्याएं उद्घाटित हुई हैं. कहानियों की विशेषता उनका छोटा होना है. क़मर मेवाड़ी का कथाकार अनावश्यक विवरण प्रस्तुत करने में विश्वास नहीं करता. उनकी पहली कहानी ८ मार्च, १९५९ के साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुई थी. अब तक दस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें उनका एक मात्र उपन्यास – ’वह एक’ (१९७४) भी है. 

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एक बार का वाकया याद आ रहा है.  मैंने एक कहानी ’चेहरा’ शीर्षक से सम्बोधन को भेजा. दो माह बीत गए, क़मर भाई का कोई पत्र नहीं आया. मैंने पत्र लिखा लेकिन वह अनुत्तरित रहा. सोचा कि कहानी उन्हें पसंद नहीं आयी. कुछ दिन और प्रतीक्षा की, लेकिन कोई उत्तर नहीं. मैंने कहानी सण्डे मेल को भेज दी. उन दिनों रमेश बतरा वहां साहित्य देख रहे थे. रमेश ने तीसरे सप्ताह उसे प्रकाशित कर दिया. एक सप्ताह बाद ही क़मर भाई का पोस्टकार्ड मिला. लिखा था, “किसी रचना का एक से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होना अच्छी बात है. जितने अधिक पाठकों द्वारा वह पढ़ी जाए उतना  ही अच्छा. आपकी चेहरा कहानी सण्डे मेल प्रकाशित देखी.  कहानी आपने मुझे भेजी थी और सम्बोधन में भी प्रकाशित हो गयी है. एक-दो दिन में अंक आपको भेज रहा हूं.”   क़मर भाई ने बहुत ही शिष्ट तरीके से अपना विरोध व्यक्त किया था. मैं बहुत शर्मिन्दा हुआ था अपने अधैर्य को लेकर. पत्र लिखकर मैंने क्षमा मांगी थी. वह उन सम्पादकों में नहीं कि उस त्रुटि के लिए मुझे अपनी पत्रिका से ब्लैकलिस्ट कर देते. हमारे सम्बन्ध यथावत बने रहे. 

कानपुर के कथाकार सुनील कौशिश कथानक पत्रिका निकालते थे. कौशिश जी ने भी मेरी कई कहानियां  कथानक में प्रकाशित की थीं. मुझे यह जानकारी नहीं थी कि वह मधुमेह के पुराने और गंभीर मरीज थे. कानपुर में यशोदा नगर में बड़े भाई साहब के घर से दस मकान छोड़कर उनका मकान था. १९९१ जून में उनसे मेरी मुलाकात हुई. कौशिश जी बहुत अच्छे नहीं तो बहुत खराब कथाकार भी न थे. उनकी कई कहानियां चर्चित रही थीं, लेकिन वह स्थानीय साहित्यिक राजनीति का शिकार थे. जब मिला  तब इस बारे में उन्होंने अपना दुखड़ा सुनाया था.  लेकिन  उनकी उपेक्षा का एक प्रमुख कारण शायद उनका स्वभाव भी रहा होगा. वह चिड़चिड़े हो चुके थे और बात-बात में लोगों को गाली दे रहे थे. यहां तक कि मेरे खिलाफ भी बोलते रहे थे. मेरी चूक यह थी कि दो बार उनके दिल्ली आगमन पर वायदा करके भी मैं दफ्तर की व्यस्तता के कारण उनसे नहीं मिल सका था.   लेकिन दो लोगों की उन्होंने  मुक्तकंठ प्रशंसा की थी. एक क़मर मेवाड़ी और दूसरे डॉ. माधव सक्सेना ’अरविन्द’ की.  कुछ दिनों बाद ही उनका स्वास्थ्य अधिक खराब हुआ और इलाज के लिए उन्हें मुम्बई जाना पड़ा. जहां कुछ दिन वह अरविन्द जी के घर रहे और शायद वहीं उनका निधन हुआ था. उनके निधन की सूचना मुझे अरविन्द जी से मिली. पत्र लिखकर मैंने यह बात क़मर भाई को बताई. पत्र आया. दुख प्रकट करते हुए लिखा, “चन्देल भाई, आप कौशिश जी पर सम्बोधन के लिए एक संस्मरण लिख दें---इसी अंक में देना चाहूंगा.”  मैंने कौशिश जी पर उन्हें संस्मरण लिख भेजा. संस्मरण विधा की वह मेरी पहली रचना थी. सम्बोधन को कौशिश जी पर संस्मरण लिख भेजने के पश्चात अरविन्द जी ने फोन करके कथाबिंब के लिए लिखने का आग्रह किया. मैंने बताया कि वह तो सम्बोधन के आने वाले अंक में प्रकाशित हो रहा है. अरविन्द जी ने कहा, “भाई, उसे मुझे देना चाहिए था. उस पर कथाबिंब का पहले अधिकार था, खैर…” कुछ दिनों तक अरविन्द जी की नाराजगी बनी रही थी. 

एक और घटना. मैंने राजेन्द्र यादव का लंबा साक्षात्कार किया. साक्षात्कार ’अकार’ के अंक तीन में प्रकाशित हुआ. राजेन्द्र यादव भी क़मर मेवाड़ी के जुझारू व्यक्तित्व के प्रशंसक थे. साक्षात्कार में उन्होंने सम्बोधन की विशेष चर्चा की थी.  उनके साथ अपनी बातचीत के विषय में क़मर भाई से फोन पर चर्चा हुई तो वह बोले, “चन्देल भाई, दो-तीन और लोगों के साक्षात्कार कर लें तो सम्बोधन का साक्षात्कार विशेषांक  निकाल दूंगा आपके अतिथि सम्पादन में. मैंने कहा कि राजेन्द्र जी का इंटरव्यू तो प्रकाशित हो चुका. बोले, “क्या फर्क पड़ता है. अकार के पाठक अलग और सम्बोधन के अलग. कुछ लोग ही होंगे कॉमन---तो आप इस काम को कर डालें.” मैंने धीमे स्वर में हां की किन्तु, राजेन्द्र जी के बाद किसी अन्य साहित्यकार का  चाहकर भी साक्षात्कार  नहीं कर पाया. लेकिन प्रकाशित साक्षात्कार पुनः प्रकाशित करने की दिलेरी क़मर मेवाड़ी ही दिखा सकते थे. 

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नवंबर,२०१३ में एक सुबह सूचना मिली कि मेरे  उपन्यास ’गुलाम बादशाह’ को ’आचार्य निरंजननाथ सम्मान’ के लिए चुना गया है.  अकस्मात प्राप्त ऎसी सूचना से कौन प्रसन्न न होगा. अगले दिन रात “आचार्य निरंजननाथ सम्मान समिति’  के अध्यक्ष कर्नल देशबंधु आचार्य का फोन आया.  कर्नल साहब ने लंबी बात की. सम्मान समारोह २५ दिसम्बर, २०१३ को सुनिश्चित किया गया था. कर्नल साहब ने मुझसे २४ दिसम्बर को पहुंचने का आग्रह किया. फिर उन्होंने सम्मान के विषय में विस्तार से बताया. तभी पता चला कि आचार्य निरंजननाथ उनके पिता थे और एक अच्छे साहित्यकार के साथ ही राजस्थान विधान के अध्यक्ष रहे थे.  इस सम्मान की रपट प्रतिवर्ष  सम्बोधन  में देखता तो था, लेकिन  उसके विषय में अधिक नहीं जानता था. उसके दो दिन बाद क़मर भाई का फोन आया और उन्होंने भी मुझे २४ दसम्बर को पहुंचने का आग्रह किया. एक सप्ताह बाद प्रेस विज्ञप्ति मुझे मेल से प्राप्त हुई तब निर्णायकों के विषय में ज्ञात हुआ.  

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 २४ दिसम्बर को सुबह चित्तौड़ से ही गज़ब का कोहरा दिखाई देने लगा था. ट्रेन की गति इतनी मंद कि लगे कि वह रेंग रही थी. क़मर भाई का फोन सुबह ५.४० पर आ गया. मैंने उन्हें वस्तुस्थिति बताई. बोले, “चिन्ता न करें, कर्नल साहब से बात हुई है. वे आपको लेने पहुंच रहे हैं.” फिर पूछा, “ विष्णु नागर जी भी इसी ट्रेन में हैं---मुलाकात हुई?” मैंने कहा, “नहीं हुई.” (पुरस्कार नागर जी के हाथों दिलाया जाना था) क़मर भाई बोले, “कोई बात नहीं.” थोड़ी देर बाद कर्नल साहब का फोन आ गया. मैंने कहा, “ट्रेन आठ बजे से पहले उदयपुर नहीं पहुंचेगी.” बोले, “मैं वहीं मिलूंगा.” ट्रेन के उदयपुर पहुंचने तक चार बार और क़मर भाई के फोन आए. कर्नल साहब ने भी किए. दोनों की आत्मीयता ने मुझे अभिभूत कर दिया था. ’इतना सम्मान कैसे संभाल पाउंगा” सोचता रहा था.    
    
उदयपुर स्टेशन पर विष्णुनागर और श्रीमती नागर से मेरी मुलाकात हुई. वह कर्नल देशबन्धु आचार्य से पूर्व परिचित थे. पहले भी किसी को पुरस्कार देने के लिए जा चुके थे. मैं दिन भर कर्नल साहब के आतिथ्य में रहा. नागर दम्पती शहर घूमने चले गए थे.  लगभग तीन बजे हम राजसंमद के लिए चले.  पांच बजे के लगभग हम राजसमंद पहुंचे. एक वाटिका के  रेस्टॉरेण्ट में क़मर भाई हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे. हम गले मिले. वर्षों से जिस व्यक्ति से पत्रों –फोन के माध्यम से मिलता रहा था, पहली बार मिलकर लगा कि मैं तो उनसे सैकड़ों बार मिल चुका था. हल्के नीले सूट में मुस्कराता चेहरा, दुबला मध्यम कद, चमकती खूबसूरत बड़ी भेदक आंखें—प्रभावित करने वाला व्यक्तित्व है क़मर भाई का. कुछ देर पश्चात नागर दम्पति भी पहुंच गए. चाय पकौड़ों के बाद हमें जेके गेस्ट हाउस पहुंचाया गया. वहां की व्यवस्था कवि नरेन्द्र निर्मल ने संभाल रखी थी. रात लौटने से पहले क़मर भाई ने पूछा, “चन्देल साहब, संकोच न करिएगा. यहां सारी व्यवस्था है.” मैं समझ नहीं पाया तो कर्नल साहब ने स्पष्ट किया, “क़मर भाई का मतलब ड्रिंक से है.” मैंने मुस्कराते हुए कहा, “मैं नहीं लेता.” जाते जाते दोनों ने नरेन्द्र निर्मल को ताकीद की कि हमें कोई कष्ट न होने पाए. 

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25 दिसम्बर को सुबह ११ बजे पुरस्कार समारोह  था. वहां पहली ही बार मेरी मुलाकात वरिष्ठ कथाकार माधव नागदा से हुई. वह भी उस पुरस्कार के निर्णायकों में से एक थे. क़मर भाई बहुत व्यस्त थे. दौड़कर-दौड़कर सारी व्यवस्था देख रहे थे. मैं सोच भी नहीं सकता था कि छः माह पश्चात ही वह पचहत्तर वर्ष के होने वाले हैं.  आज सोचता हूं कि उनकी यह सक्रियता ही उन्हें जवान बनाए हुए है.

कार्यक्रम बहुत ही सादा लेकिन भव्य था. देखकर हैरान था कि स्थानीय साहित्यकारों के अतिरिक्त  बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमी वहां उपस्थित थे. इतनी भीड़ दिल्ली जैसे महानगर में होने वाले किसी साहित्यिक कार्यक्रम में नहीं होती.  मुझे इस बात का अफसोस रहा कि क़मर भाई से बहुत ही संक्षिप्त मुलाकात रही. दो-चार घण्टे बैठकर बातें करने का अवसर ही  न था. तीन बजे ट्रेन पकड़ने के लिए निकलना था. शाम सवा छः बजे ट्रेन थी. पिछले दिन की ही भांति कर्नल साहब ने  मेरी जिम्मेदारी संभाल रखी थी. साथ में उनकी पत्नी श्रीमती सुधा आचार्य भी थीं. चलते समय क़मर भाई दौड़कर मेरे पास आए. उनके चेहरे पर उदासी थी. बोले, “चन्देल साहब, मजा नहीं आया इस संक्षिप्त मुलाकात में.” मैं बोला, “जल्दी ही आने का कार्यक्रम बनाउंगा तब पूरा दिन आपके साथ रहूंगा.” उन्होंने उदास आंखों मुझे विदा किया.     पुनः मिलने की आकांक्षा लिए मैं उदयपुर जाने के लिए गाड़ी में कर्नल साहब के बगल में बैठ गया था. राजसंमद से निकलते ही कर्नल साहब की बातों का सिलसिला शुरू हो गया था. वह एक अच्छे किस्सागो हैं. दो घण्टे बीतने का पता तब चला जब हम उदयपुर में प्रविष्ट हुए. उस समय पांच बज रहे थे.
 इतने आत्मीय व्यक्ति सौभाग्य से ही मिलते हैं.

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इस बार का वातायन वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार क़मर मेवाड़ी पर विशेष है. आशा है आपको पसंद आएगा. आपकी बेबाक राय की अपेक्षा है.

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क़मर मेवाड़ी की छः कविताएं
(१)

नदी

नदी बहती रहती है
बिना रुके-थके
      अविराम
बड़ी प्यारी लगती है नदी
                 पूजनीय भी
नदी पवित्र होती है
आत्मा की तरह उज्वल
                और श्रृद्धेय
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मैं नदी को प्यार करता हूं
आप नदी को प्यार करते हैं
हम सब नदी को प्यार करते हैं
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नदी कभी अपवित्र नहीं होती
                          न गंदली
जबकि गंदगी का साम्राज्य
उसके सीने में छिपा रहता है अकूत
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नदी का
एक जीवन दर्शन होता है
वह मिट कर भी
हजारों हजार लोगों को
एक नई ज़िन्दगी बख्शती है
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नदी होती है
फूलों से सजा एक खूबसूरत गुलदस्ता
ठहाकों से भरी एक ज़िन्दगी
मस्जिद में गूंजती अ़ज़ान
मन्दिर में बजते घण्टे की आवाज
नदी सिर्फ नदी ही नहीं होती
नदी कुछ और भी होती है.
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(२)

अभी बेमतलब नहीं हुई है कविता

सचमुच
मैंने छोड़ दिया था लिखना कविता
लोग कहते हैं
कविता लिखने से आखिर होता क्या है
सिर्फ अपनी भड़ास निकालते हैं कवि
और कुछ नहीं होता कविता से

लोगों का मानना है
अब कविता नहीं बिखेरती रंग
न बढ़ाती प्रेम
कविता अब लोगों के बीच
खड़ी करती है दीवार

आखिर ऎसा क्या हो गया
कि लोगों के बीच
दीवार की तरह खड़ी हो गयी कविता

दंभी कब से हो गयी कविता
कविता तो होती है
प्रेम का महासागर
नदी में बहता पवित्र जल
फूलों की खुशबू
सूर्य का प्रकाश
और चिड़ियों की चहक
कविता को बदनाम मत करो लोगो
कविता को कविता ही रहने दो

ताकि मैं फिर से लिख सकूं
एक सुन्दर कविता

आजकल लोग जल्दी में हैं
और हड़बड़ी में भागे जा रहे हैं
अब उनकी प्राथमिकताएं बदल गयी हैं
कविता के लिए
वक़्त नहीं है लोगों के पास

क्या कविता
इतनी दंभी और आत्ममुग्ध हो गयी है
मैंने तो पढ़ा था
दंभी नहीं
ज़िन्दगी की हक़ीकत है कविता

दोस्तो!
लोग चाहे कितनी भी जल्दी में हों
अभी बेमतलब नहीं हुई है कविता
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(3)

सुनो लोगो

सुनो लोगो
अब साहित्य और समाज की चिन्ता करेंगे
तस्कर,अश्लील फोटो काण्ड में लिप्त शोहदे
                          और रंडियों के दलाल
वे दिन में
गोष्ठियों में विद्वतापूर्ण व्याख्यान देंगे
जनता के चन्दे से खरीदी गयी
दारू पीते हुए
अपनी टीम को मजबूत बनाने के
एक दूसरे को गुर बताएंगे

अब वे
अपनी चिर-परिचित
शातिराना चालों में व्यस्त हो जांएगें
और पद-प्रतिष्ठा और पुरस्कारों की होड़ में
                      खुद को शामिल कर लेंगे

जो प्रगतिशीलता और जनवाद पर
विचार करते-करते
आसमान के कुलाबे तक मिला देते थे
उनके कमीज़ का रंग
अचानक बदल जाएगा

सुनो लोगो
जिनकी दोस्ती पर हमें नाज़ था
उनका व्यक्तित्व
रेत की दीवार की तरह
              ढह जाएगा
ऎसा ख्याल तो कभी
स्वप्न में भी नहीं आया था हमें

खैर
वे जहां हैं वहां खुश रहें
और जुड़े रहें तस्करों से
शोहदों से बनी रहे उनकी दोस्ती
और खाते रहें रंडियों की दलाली
नयी जगह उन्हें मुबारक हो.
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(४)

वह बजा रहा है बांसुरी

जब भी फूटते हैं
उसके मुंह से शब्द
एक तिलिस्मी रहस्य की चादर
फैल जाती है सर्वत्र

जब भी गर्माने लगती है हवा
हिम खंडों के लगा दिए जाते हैं अंबार
मौसम बदमज़कियों से शर्मसार है
लोग सच और झूठ का फर्क करने में
खुद को असमर्थ पाते हैं

आदर्श, राष्ट्रभक्ति और इंसानियत
सब गड्ड-मड्ड हो गए हैं
और प्रत्येक राजपुरुष
एक-दूसरे से
बड़ी लकीर खींचने की होड़ में व्यस्त है

(५)

शब्दों को सान पर चढ़ा रहा हूं

अगर जरूरी हुआ तो मैं और संघर्ष करूंगा
यह मत समझना/कि अंधकार ही अंधकार है सर्वत्र
सुनो, सूर्यास्त नहीं हुआ है अभी
प्रकाश ही प्रकाश है सब ओर

तुम्हारे दिमाग़ की गंदगी और ग़लाज़त को
एक बार फिर साफ करूंगा
अपने शब्दों को पैना करूंगा
ताकि तुम
किसी धनपति के गुणगान
और दीवार पर चिपकी कामुक तस्वीरों से
मुक्त हो सको

अगर यह संभव नहीं हुआ
तब संभव है
तुम्हारे दिमाग़ की नसों पर
फफूंद जम जाए
और हजा़रों बार इबादत में झुका सर
तुम्हें विक्षिप्त होने से न बचा सके

किसी खाम ख्याली में मत रहना
कि शब्द भौंथरा गए हैं
और उम्र के इस उत्तरार्द्ध में
मैं आत्ममुग्ध हो गया हूं

दोस्त!
शब्द जैसे थे वैसे ही हैं
अपनी-अपनी जगह
सूर्य की किरणें फैली हैं सब ओर
और मैं
शब्दों को सान पर चढ़ा रहा हूं
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(६)

मौत का नजारा

अंधेरा उसकी ज़िन्दगी पर छा गया था
उसका बिलबिलाना मैं सुन सकता था
वह कातिलों जैसी हरकत करता
और मैं उदास हो जाता

वह जब चाहता
मेरी हत्या कर सकता था
और खून के इल्जाम से
       साफ बच जाता
उसके अंग अंग पर
तलवार की धार जैसे
तेज नाखूनों का एक जंगल था.

और मैं उस जंगल में भटक गया था
जहां कल मेरे चिथड़े-चिथड़े
                कर दिए जाएंगे

चारों ओर सन्नाटा फैला था
मैं ख़ून के दरिया में गर्दन तक डूबा हुआ
आंखों में बिजली की कौंध थी
और अंधड़
मेरे सर के ऊपर से गुजर रहा था.

जैसे मौत मेरा इंतज़ार कर रही हो
मेरी आवाज़ बन्द थी
आंखों में नींद जैसी खुमारी

देखते-देखते अंधेरा
उसकी ज़िन्दगी से छंट गया था
और अब मैं
अंधेरे की गिरफ्त में था

उसके चेहरे पर
खुशी का सूरज
उदय हो रहा था
और वह मेरी मौत का खौफनाक नज़ारा
देखने को व्याकुल था.

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कहानी
हजारों आंखों वाला चेहरा
                                                 क़मर मेवाड़ी       
आसमान साफ हो गया है. बादल छंट गए हैं और धूप का एक शहतीर खिड़की के रास्ते मेरे कमरे में झांक रहा है.
मौसम सुहावना है. रास्ते धुले-धुले और साफ. पहाड़ियों की छाती पर हरी-हरी नर्म और मखमली घास उग आयी है.
इतना सब कुछ होते हुए भी प्रकृति मुझे अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पा रही है. मेरे दिल और दिमाग पर भय का एक भारी बोझ है जो कुष्ठ रोग की तरह मेरे शरीर पर छाया हुआ है.
मेरे दिन बड़े उदास और गमगीन हो गए हैं. रातें लंबी और भयानक. मेरी आंखों के सामने दो चेहरे हरदम नाचते रहते हैं और मैं आकंठ भय के समंदर में गोते खाता रहता हूं. उन दो चेहरों में पहला चेहरा है सलमा का. सुतवां नाक, लंबा और छरहरा बदन, घुटनों तक काले बाल, बड़ी-बड़ी आंखें, गोरी चिकनी बांहें और गोल चेहरा. ये सब खूबसूरतियां मिल कर सलमा की सृष्टि करते हैं.
सलमा एक करोड़पति सेठ की बीवी है. पहली बीवी के मरने पर सेठ सलमा के गरीब बाप को रुपयों का लालच देकर ब्याह लाया. शादी हुए दो साल हो  गए. इस बीच सलमा के एक मरियल-सा बच्चा हुआ जो दिन रात बीमार रहता है. सलमा का हुस्न और जवानी उसकी ज़िन्दगी के लिए अज़ाब बन गए हैं.
इस वक्त सेठ की उम्र साठ साल है और सलमा की बीस साल! सलमा कभी-कभी वक्त निकाल कर मेरे पास आ जाती है. वह मुझे अपने प्यार के आंचल में छुपा लेती है और मैं किसी दूसरी ही दुनिया में विचरने लगता हूं.
सलमा के बाद दूसरा चेहरा है नूरे खां का. ठिगना कद, काला रंग, भेड़िए जैसी चालाक आंखें. बदन पर बिना धुले लट्ठे की शलवार-कमीज और सिर पर वैसे ही कपड़े की गोल टोपी. मुंह में पान और चेहरे पर हर दम नाचती शैतानी मुस्कराहट.
नूरे खां मेरा जानी दुश्मन है. क्योंकि यतीमखाने के धन का गोल-माल करने पर मैंने एक कहानी इस पर लिखी थी. तब से यह मेरा दुश्मन बन गया है. फिर एक बात और हुई जब इसकी बीवी का इन्तेकाल हो गया और यह अपने इकलौते लड़के रफ़ीक के साथ रहने लगा. एक दिन रफ़ीक की बिवी के साथ उसका हल्ला उड़ गया.   तब से तो नूरे खां मेरा जानी दुश्मन बन गया है. सुना है जुमे की नमाज़ के पहले बिला नागा़ वह छुरे पर धार मारता है ताकि मुझ जैसे काफ़िर को कत्ल कर सके. मैं इन दोनों चेहरों से काफी भयभीत और आतंकित हूं. लगता है किसी न किसी दिन सलमा के प्यार या नूरे खां की नफ़रत का निशाना बन जाउंगा.
कल की ही बात है. मैं कमरे का ताला लगाकर बाहर जाने की सोच रहा था कि सलमा दौड़ी-दौड़ी आयी और कहने लगी—“कुछ दिन बाजार जाना बन्द कर दो.”
“क्यों?”
“इसलिए कि बाजार जाने से तुम्हारी जान को खतरा है.”
“लेकिन घर में बन्द रहने पर भी तो सुरक्षित नहीं हूं.”
“वह कैसे?”
“तुम जो दौड़-दौड़ कर आ जाती हो.”
“पर मैं तो तुम्हारी दुश्मन नहीं.”
“दुश्मन नहीं तो और क्या हो! तुम मुझे प्यार से मार डालना चाहती हो, वह नफ़रत से. दोनों का मतलब एक है.”
मेरी इस बात से उसे आघात पहुंचा.
उसकी हिचकियां बंध गयीं. चेहरा गुस्से से लाल हो गया और उसकी झील जैसी शांत आंखों से एक बेपनाह तूफान उमड़ता हुआ दिखाई दिया. वह चुपचाप मेरे दरवाजे से बाहर निकल गयी.
मैं फिर दस दिन तक मुतवातिर कमरे में बन्द रहा. बाहर नहीं निकला. क्योंकि संभव है नूरे खां हाथ में लपलपाता छुरा लिए कहीं घात लगाए बैठा हो.
पर ये दस दिन बड़े मजे से गुज़रे . सलमा हर रोज़ मेरे पास आती रही. यह इसलिए हो सका क्योंकि उसका करोड़पति सेठ अपने व्यापार के सिलसिले में कहीं बाहर गया हुआ था.
पर फिर भी मेरे दिल से दहशत कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ी थी. क्योंकि उस शहर पर नूरे खां का कब्जा था. नूरे खां के हुक्म के बिना उस शहर में एक पत्ता तक नहीं हिल सकता था. यहां तक कि शादी-ब्याह से लेकर खुशी और गमी के इज़हार के लिए भी उसकी स्वीकृति की मुहर जरूरी थी. पूरा शहर नूरे खां का हुक्म मानता था. नूरे खां की इज्जत एक शहंशाह से भी ज्यादा थी. एक शंहशाह का हुक्म जनता टाल सकती है. लेकिन मजहबी शहंशाहों का हुक्म टालने की कुव्वत जनता में नहीं होती. और नूरे खां एक मज़हबी शहंशाह था. जनता को उसका खास फरमान था कि मुल्क के शहंशाह का हुक्म मानने के बजाए उसका फरमान पहले माना जाए. और आप जानते हैं मुर्दा और कायर कौम के लिए मज़हब अफीम का काम करता है. इसलिए उस शहर पर मुल्क के शहंशाह का नहीं नूरे खां का हुक्म चलता था.
मेरे दिल में दहशत बढ़ गयी थी. दहशत बढ़ने की बुनियाद में यह बात खास थी कि शहर की जनता को नूरे खां ने मेरे खिलाफ कर दिया था. उसका कहना था कि मैं काफिर हूं. क्योंकि मैं उसका फरमान नहीं मानता. इसलिए नूरे खां का हुक्म था कि मेरे जैसे काफ़िर को खत्म  कर देना हर आदमी का फर्ज है. यही वह बात थी जिसने जनता को मेरे खिलाफ उकसाने में मदद दी थी. और शहर का हर फर्द मुझे नूरे खां लगने लगा था.
मुझे हर आदमी खूनी दिखाई देता. लगता कि यह कहीं खून करके आ रहा है या अब करने वाला है. मैं सोचता मुमकिन है उसने अपने आस्तीन में खंजर छिपा रखा हो और नज़दीक आने पर वह उसे मेरे सीने में घोंप दे.
एक दिन शाम का वक्त था, सलमा फिर आ गयी और कहने लगी—“ आज घर से बाहर मत निकलना.”
“क्यों?”
“इसलिए कि तुमने हुकूमत के सामने नूरे खां के राज खोल दिए हैं.”
“मैं उसके राज ही क्या जानता था सो खोलता.”
“पर लोग ऎसा ही कहते हैं.”
“कहते होंगे. इससे क्या फर्क पड़ता है. लोगों को तो आदत बन गयी है. नूरे खां को खुश रखने के लिए कुछ न कुछ उड़ाते ही रहते हैं.” मैंने बे-बाकी के साथ कहा.
“तुम्हें डर नहीं लगता?”
“नहीं! अब मैं बिल्कुल नहीं डरता. मैं इनकी असलियत पहचान गया हूं.”
वह कुछ देर चुपचाप खड़ी रही. मौन! मैंने चुप्पी तोड़ने के लिए कहा –“ तुम बैठो न! खड़ी क्यों हो!”
“ना बाबा! मुझे ज्यादा वक्त नहीं. मैं सिर्फ पांच मिनट के लिए आयी हूं, पर पांच मिनट में क्या हो सकता है!”
“अच्छा सुनो, तुम्हारा बच्चा कैसा है?”
“अब वह जल्दी ही मर जाएगा.”
“ऎसा क्यों कहती हो?”
“मैं सेठ की हर यादगार मिटा देना चाहती हूं.”
“तुम बच्चे को जिन्दा रखने की कोशिश करो. सेठ को मैं मार डालूंगा.”
“नहीं. तुम सेठ को नहीं मार सकोगे.”
“क्यों?”
“इसलिए कि तुम सिर्फ प्यार कर सकते हो, किसी को मार नहीं सकते.”
“नहीं, नहीं मैं एक दिन जरूर तुम्हारे वाले सेठ और नूरे खां दोनों को खत्म कर दूंगा.”
“और वह दिन कभी नहीं आएगा.”
“वह दिन अभी और इसी वक्त आएगा, तुम इधर मेरे पास आओ.”
“नहीं, सेठ आने वाला है. मैं सिर्फ पांच मिनट के लिए ही तुम्हार पास आयी हूं. और पांच मिनट में तुम कुछ नहीं कर सकोगे.”
मैंने आगे बढ़कर सलमा को अपनी ओर खींचा और सीने से लगा लिया. मेरे दोनों हाथ सलमा के इर्द गिर्द लिपटे थे और हाथों का घेरा कसता चला जा रहा था.
मुझे लग रहा था कि मेरे हाथ में नूरे खां की गर्दन आ गयी है और आज मैं इस शैतान को खत्म करके ही दम लूंगा. इसने मुझे एक लंबे अर्से से परेशान कर रखा है. मेरे दिल का चैन और रातों की नींद हराम कर दी है. आज यह मेरे हाथ से बचकर नहीं जा सकता. आज मैं इसका नामो निशान मिटा दूंगा. इस ख्याल के दिमाग में आते ही मेरे बदन का खूल उबलने लगा.
शरीर की नसें उत्तेजित हो फड़फड़ाने लगीं.
मेरी सांस तेज-तेज चल रही थी और मैं पागलों की तरह नूरे खां से जंग लड़ने में मशगूल था.
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                                                               (बाएं से दूसरे क़मर मेवाड़ी)       


क़मर मेवाड़ी:संक्षिप्त परिचय

जन्म:     ११ जुलाई,१९३९, कांकरोली, राजसमंद(राजस्थान)

प्रकाशन : ८ मार्च,१९५९ के साप्ताहिक हिन्दुस्तान में पहली कहानी प्रकाशित. तब से अब तक अनेक
             महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से प्रसारण.

प्रमुख कृतियां : रोशनी की तलाश (१९७६), लाशों का जंगल (१९७७), उनका सपना (१९९०),
             ऊंचे कद का आदमी (१९९९), जिजीविषा और अन्य कहानियां (२०१२), चांद के दाग
             (१९७०), आखिर कब तक: एक लंबी कविता(१९७३), बहस अभी जारी है (१९७७),
             फैसला होने तक (१९९३), वह एक (१९७४- उपन्यास).

अनुवाद : अंग्रेजी, उड़िया, उर्दू, राजस्थानी, मराठी तथा पंजाबी भाषा में रचनाएं अनूदित.

संपादन : हिन्दी की साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका ’संबोधन’ का १९६६ से संपादन.

विशेष :  दूरदर्शन (नेशनल) द्वारा कहानी ’ऊंचे कद का आदमी’ पर टेली फिल्म. विश्वविद्यालय
             अनुदान आयोग क्षेत्रीय कार्यालय भोपाल के सौजन्य एवं जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय,
            जोधपुर में कहानियों पर पी-एच.डी. एवं. एम.फिल. के लिए शोधकार्य.
            * दो बार राजस्थान साहित्य अकादमी के सदस्य और दो बार आकाशवाणी, सलाहकार  समिति उदयपुर के सदस्य मनोनीत.

सम्मान : राजस्थान साहित्य अकादमी के डॉ. रांगेय राघव पुरस्कार तथा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान
           सहित पंद्रह से अधिक महत्वपूर्ण सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त.

मो. ०९८२९१६१३४२/ ०९४१३६७१३४२



 व्यक्तित्व
क़मर जैसा दुर्लभ दोस्त





डॉ. महेन्द्र भानावत

वे लोग दूसरे होते होंगे जिनके लिए ’पचासां पाको साठां थाकते’ कहा जाता है. बाल सफेद होना ही किसी के पक जाने की निशानी नहीं है. क़मर तो तब ही पक गए थे जब उन्होंने ’सम्बोधन’ निकालने की शुरूआत कर दी थी. वह एक जवांमर्द, खिलखिलाता, हंसता, मुस्कराता, ताज़गी देता, बतियाता, चपल, स्फूर्तिवान और स्नेह उड़ेलने वाला व्यक्ति है. उसके सारे काम आलतू-फालतू के नहीं, प्रयोजन और परिणाम की संगत लिए होते हैं.

इस अर्थ में क़मर मेवाड़ी एक सहृदय साहित्य-जीवी तथा कठोर कर्मशील संघर्ष वाला पत्रकार है जिसे कोई किसी बिरादरी में नहीं बांध पाया  और न जिसे कोई अपने पिंजरे का पंछी ही बना सका. सच भी है, पका हुआ पानी अपने हौसले और हुर्रियत का राजा होता है. उसकी अपनी धार और मार होती है. उसकी उड़ान में बिजली और शरीर में गरमाहट का ज्वार होता है. वह उस मच्छी की तरह जीवनी शक्ति लिए होता है जो धार के विपरीत अपना बहाव और हाव-भाव रखती है, जो अपनी तेज और खुली आंखों से कोई नज़ारा निरखती है, जो करुणा तथा ममता से ओतप्रोत होती है और जिसे जालसाजों के जाल से बचते रहने की कला भी आती है. शायद इसीलिए क़मर के संपर्क में आने वाला हर व्यक्ति उसका अजीज़ नहीं होता और न क़मर स्वयं भी अपने पर किसी को बोझ की तरह लाद सकता है. 

न जाने कौन से शकुन में क़मर से मेरा संपर्क हुआ जो आज तक बंधा हुआ है, एक स्नेहिल, आत्मीय और उन्नत उजास लिए जिसमें कभी कोई दरार याकि गार का छींटा तक नहीं देखा गया. मैत्री वही स्थापित्व लिए होती है जिसमें अपेक्षा और उपेक्षा के दोनों भाव नगण्य हों. दोनों पक्ष यदि गंभीरता पूर्वक समझदारी के साथ इसकी पालना करते रहें तो दोनों के बीच के मधुर संबन्ध कभी खटास नहीं देंगे किन्तु स्वास्थ्य की फांस भी यदि कभी लग गयी तो फिर कोई किसी का सगा नहीं रहेगा. वो फांस ही तो थी जिसके कारण कैकयी रानी ने अपनी दो बातें मनवाने के लिए राजा दशरथ को बाध्य किया और परिणाम स्वरूप दशरथ को अपने प्राणों तक का उत्सर्ग करना पड़ा.  क़मर की मैत्री ज़िन्दादिल की मैत्री है. हमसफर की मैत्री है. कोई प्रतिस्पर्द्धा या होड़ की मैत्री नहीं है.  कुछ करने और कहलाने की मैत्री नहीं है. पंचायत करने और प्रपंच फैलाने की मैत्री नहीं है. इस मैत्री में कभी ये नहीं आया कि कौन क्या कैसे और क्यों कर रहा है.

यह साहित्य की मैत्री है. बचपन के यार-दोस्त की मैत्री नहीं है. साथ पढ़े गांव सहपाठी की मैत्री नहीं है. इस मैत्री में कोई कृष्ण नहीं रह गया है. कोई सुदामा नहीं बन गया है. इस मैत्री में कतई जरूरी नहीं है यह जानना कि कांकरोली में कहां चांद पोल है! कहां क़मर रहते हैं! कितना कैसा उनका परिवार है. कहां उनका किताबी कक्ष या कि बैठक खाना है! लेकिन वो क्या चीज है जिसके कारण क़मर से बार-बार मिलने की याद सताती है. वे टेलीफोन कर हैलो कहकर मौज मस्ती पूछ लेते हैं. कभी नंद बाबू से तो कभी मेरे से एक दूसरे की कुशल क्षेम कह लेते हैं. महीने-पन्द्रह दिन में मिलने आ जाते हैं. आने की वे पूर्व सूचना कर देते हैं. चेतक चौराहे पर  अपने ऑफिस-प्रेस पर ही उनसे मिलना होता है. कभी नंद बाबू वहीं आ जाते हैं. नहीं तो हम उनके वहां चले जाते हैं. चर्चा घर-परिवार की वैयक्तिक कभी नहीं होती. केवल साहित्य की, सृजन की, पत्र-पत्रिकाओं की, नये प्रकाशनों की, संगोष्ठियों  की, समाराहों की, इष्ट मित्रों की और साहित्यिक पैंतरेबाजी, उठापटक की होती है. 

साहित्य के बाज़ार में क्षीण होती संवेदनाओं और अतीत-पतित होते मानव सरोकारों तथा श्लथ एवं कमज़ोर होते जीवन मूल्यों पर हमें तरस आता है तब हमारे ठहाकों की गूंज ठंडी होती हुई विचार और सोच के सन्नाटे में डूब जाती है.

क़मर चले जाते हैं. कभी मैं उन्हें बस स्टेण्ड पर छोड़ता हूं तब वहीं खड़े-खड़े हम बातों में इतने डूब जाते हैं कि कांकरोली जाने वाली बस देखते हुए भी अनदेखी रह जाती है. क़मर रात्रि विश्राम बहुत कम करते हैं. करते भी हैं तो होटल में ठहरते हैं. कहीं किसी भोजनालय में ही अपना मन चाहा भोजन करते हैं. एक बार मिलने के बाद न वे पुनः मिलने की कोई उम्मीद करते हैं न मित्रो को ही अन्यथा कष्ट देते हैं. मनुहार करने पर भी वे अपने ही हाल में स्वतंत्र, अकेले और मस्त रहना चाहते हैं.

इस मामले में मैं क़मर को एक अजीब तरह का मित्र मानता हूं. ऎसे मित्र दुर्लभ ही होते हैं जो बहुत ज़्यादा मनुहार करने पर ज़िद्दी किस्म के हो जाते हैं. मैं क़मर की प्रकृति और परिस्थिति को भांप जाता हूं इसलिए उनका ’ना’ मुझ में किसी प्रकार का नैराश्य नहीं दे पाता है. किन्तु यह तो सोचता ही हूं कि कैसी निराली मैत्री है यह जिसमें एक मित्र अपने अज़ीज का आतिथ्य ही ग्रहण नहीं कर पाता है और वही मित्र जब क़मर के बुलावे पर कांकरोली जाता है तो क़मर उसे देखते ही सबसे पहले अच्छे लच्छेदार होटल या कि रेस्टोरेंट में ले जाएगा. जहां, रबड़ी, जलेबी, गुलाबजामुन, कचौरी, और नमकीन की प्लेटें परोसी मिलेंगी और मनुहारों पर मनुहारें चलेंगी. तब इसकी किसे चिंता होगी कि उसका यार पेट ठूंसने के बाद कैसे और कहां तक अपना गला भरता रहेगा!

क़मर जिद्दी हैं. उन पर जिद्द चढ़ते मैंने देखा है. यूं ये चढ़ती नहीं है पर जब चढ़ जाती है तब लाख उपाय करने पर भी उतरने का नाम मुश्किल से लेती है. जिद्द के प्रसंग में क़मर ने अपने परिवार से उनकी जुड़ी जिद्द के परिणाम का जिक्र बड़े हौसले और बड़ी नामवरी के साथ किया है. और उस प्रकार के जिद्दी होने को अपना बड़ा गुण गिनाया है किंतु यह उनकी साफ़गोई भी है कि वे परिणाम की चिंता तो नहीं करते पर कुछ विपरीत न घट जाये, इसका सदा ध्यान रखे रहते हैं.

साहित्यिकों के साथ चढ़ी उनकी एक जिद्द का उल्लेख करना मैं ज़रूरी समझता हूं. यद्यपि अब डॉ. प्रकाश ’आतुर’ नहीं हैं. क़मर उनके बड़े अनन्य मित्र रहे. कई बार तो हम साथ ही उनसे मिले. एक बार किसी बात के प्रसंग में साहित्यकारों के लिए उन्होंने कुछ कह दिया. राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष होने के नाते उन्होंने जो भोगा और उनके जो अनुभव थे उसके आधार पर कोई बात कह दी जो उनकी बातचीत में समोसे-कचौरी के साथ मात्र चटनीवत थी किंतु क़मर ने यह बात पकड़ ली और उनसे अबोले हो गये. आतुर साहब को इससे बड़ी वेदना रही. मैंने भी क़मर को बहुत समझाया मगर वे टस से मस भी नहीं हुए.

समय बीतने पर जब बांस ही तिड़कने लग जाते हैं तो चीजें वैसी की वैसी नहीं रहतीं, यह जानते हुए क़मर से जब भी मिलना होता मैं उन्हें अपने स्वभाव में नरमाई लाने की बात कहता. इसका असर भी हुआ. दोनों के बीच सुलह हुई किंतु वह खुलापन और झरती हंसी मैं फिर नहीं देख पाया. ऎसा होता है जब निरर्थक बातें हमारे ज़हन में व्यर्थ ही महत्वपूर्ण हुई गहरी पैठ जाती हैं और जिनकी ओर हमें विशेष ध्यान केन्द्रित करना होता है वे उतनी ही हल्की-फुल्की, बेअसर और बेमज़ा दिए रह जाती हैं. लेकिन लंबी और अटूट मैत्री कायम रखने के लिए पग-पग पर कई तरह की सावधानियां रखनी ज़रूरी होती है. बहुत कुछ त्यागना पड़ता है. कभी कुछ खोना पड़ता है. निरंतर हंसी के गुब्बारे उड़ाते-उड़ाते कभी कुछ रोना भी पड़ता है. मज़ा ऎसी ही मैत्री का रहता है. वह मैत्री क्या मैत्री होती है जो बनावटी आदर्शों, प्रशंसकों और खोखले संबन्धों की बुनियाद से बुनी हुई होती है. क़मर की मैत्री एक दिलेर पुरुष की दिलदार मैत्री है. साहित्य जगत में हो रही विसंगतियों और साहित्यिक प्रतिष्ठानों में चल रहे कुचक्रों के प्रति क़मर की निगाहें सदैव ही तेज़ एवं टेढ़ी रही हैं. सत्य को उज़ागर करने और सही की प्रतिष्ठा करने में क़मर बेदर्द हो जायेंगे. प्राप्त होते लाभ को ठोकर मार देंगे तथा लोभ से कपूर की तरह किनारा कर लेंगे. अच्छे, निडर और बेलाग, बेदाग लेखकों से उनकी पटती है. चालू, घटिया और तिकड़मियों से वे कभी अपनी आंखें चार करते नहीं चलेंगे. ऎसे लोगों के दुश्चक्र भर जीवन को उन्होंने अपनी कविताओं में उतारा है. कहानियों में हजामपट्टी की है और उपन्यास तक में औंधा लिया है. मैत्री को तिलांजलि दी है. क़मर जहां रहते हैं अपनी धाक देते हैं. उनके नाम का हाक चलता है

क़मर के साहित्यिक आयोजनों में जिसने भी भागीदारी दी, वह अभिभूत हुए बिना नहीं रहा. साहित्यिकों के बीच और इतर जमात के लोगों में उनकी प्रियता और पैंठ कोई कांकरोली जाकर देखे. उनके नाम से कांकरोली की दूर-दूर तक फैली गूंज को वहां के लोग अच्छी तरह जानते हैं. उनके द्वारा संचालित ’राजस्थान साहित्यकार परिषद’ और उससे जुड़े वहां के रचनाकारों का आपसी सृजन-सौहार्द अच्छे बड़े कहे जाने वाले लेखक संगठनों के लिए भी आदर्श है. परिषद के मंच से जिसने भी सम्मान पाया वह बड़ी बिरादरी और बड़े सम्मान से भी बड़े दिल एवं बड़े इरादों का सम्मान कहा गया. लेन देन के मामले में कई लोग लेखकों को आलसी और अलमस्त स्वभावी मानते हैं. उनकी अच्छी खासी आदतों का भी खुलकर बखान करते हैं किंतु क़मर उस कोटि के नहीं हैं. उनकी ’सम्बोधन’ के कई अंक मेरे यहां छपते रहे किंतु इससे हमारे मैत्री संबन्धों पर कोई अच्छा याकि बुरा प्रभाव नहीं पड़ा. इन संबन्धो के लिए हमने अपने खेत के किसी क्यारे को पानी से वंचित नहीं रखा और न अधिक तृप्ति ही आने दी.

हम में से बहुत से लोगों की तरह क़मर भी छोटी हैसियत के ही व्यक्ति हैं किंतु उन्होंने अपने बड़प्पन को कभी छोटा नहीं बनाया. यह तब दिखा जब वे एक छोटे से गांव के प्राइमरी स्कूल की हैडमस्टरी से सेवा निवृत हुए तब उनका जो गांवाभिनंदन किया गया वह उनके जीवन का ही नहीं,उस पूरे गांव की और उसके पास-दूर की किसी जमीं का –वैसा न भूतो न भविष्यति स्नेहाभिनंदन ही बन गया था.

क़मर की ज़िन्दगी जीवटवाली, चुस्त और चहल-पहल वाली ज़िन्दगी है जो पानी हिलोर नहीं देता वह आब और ऊर्जा विहीन होता है. निरंतर जो बहता है वही कुछ कहता है. उस माने में क़मर ने अपने को सदाबहार ही बनाये रखा. उनकी उपस्थिति उनके होने का एहसास कराती है. शांत बने सन्नाटे को तोड़ती है.

यह सच है कि क़मर की सर्वाधिक पहचान ’सम्बोधन’ ने कराई. अपने छोटे से दायरे में, छोटी जगह से, छोटे हौसले में जो हैसियत ’सम्बोधन’ की बनी वह उन कई बड़ी पत्रिकाओं की भी नहीं बन पायी जो पर्याप्त साधनों और सुविधाओं की पृष्ठभूमि पाकर भी अपनी मति का मधु  नहीं दे पायीं.

क़मर जैसे मित्र अधिक नहीं होते हैं. जो होते हैं वे दुर्लभ ही होते हैं अतः वे सर्वप्रकारेण अभिनंदनीय होते हैं.

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क़मर मेवाड़ी से वरिष्ठ कवि नरेन्द्र निर्मल की बातचीत

दोस्तों का स्नेह ही मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है: क़मर मेवाड़ी

नरेन्द्र निर्मल : आपको लिखने की प्रेरणा किससे मिल?
क़मर मेवाड़ी : अपनी मां से. मां हर रात हम दोनों भाइयों को कहानियां सुनाया करती थीं. मैं क्लास के खाली पीरियड में उन्हीं कहानियों को दोस्तों को सुनाता था. दोस्त कहानियों में खूब रुचि लेते थे. यह मुझे बहुत अच्छा लगता था.
बाद में जब मैं छठी कक्षा का छात्र था, आसपास घटने वाली घटनाओं को छोटी-छोटी कहानियों की शक्ल में एक कॉपी में लिखने लगा. मेरी उस कॉपी में जो सबसे पहली रचना है उस पर १९५६ अंकित है.
नरेन्द्र निर्मल : आपकी कहानी ’ये सिनेमा प्रेमी’ जब १९५९ कें साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रथम रचना के रूप में प्रकाशित हुई तब आपके मित्रों और शिक्षकों की क्या प्रतिक्रिया थी?
क़मर मेवाड़ी: मेरे लिए यह एक ज़बरदस्त घटना थी. मैंने कहानी को टाइप कराकर ’साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के सम्पादक बांके बिहारी भटनागर को भेज दिया. फिर उसकी प्रतिलिपि अपने हिन्दी शिक्षक दरियावसिंह मेहता को दिखायी तो उन्होंने कहा—“इसमें तो सुधार की काफी गुंजाइश है!” मैंने उन्हें कहा, “गुरूजी, कहानी तो मैंने छपने के लिए भेज दी.” उन्होंने गुस्साते हुए कहा, “तो फिर मुझे बताने की क्या जरूरत थी!”
मैं चुप्पी साध गया. लेकिन कुछ ही दिनों बाद जब कहानी बगै़र किसी काट-छांट के छप कर आ गयी तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. लेकिन कोई भी यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि यह कहानी मैंने लिखी है. क्योंकि कहानी के साथ जिस लेखक का नाम छपा था उसका नाम  क़मर मेवाड़ी था. और हाजरी रजिस्टर में क़मर मेवाड़ी का दूर-दूर तक अता पता नहीं था.
नरेन्द्र निर्मल : क़मर मेवाड़ी नाम रखने के पीछे क्या कोई कहानी है?
क़मर मेवाड़ी : (मुस्कराते हुए) यह मेरी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा राज है! इसे मेरे अलावा कोई नहीं जानता.
नरेन्द्र निर्मल : क्या यह राज़ हमेशा राज़ ही बना रहेगा !
क़मर मेवाड़ी : चाहता तो यही था कि यह राज़ ही बना रहता. लेकिन जब आपने पूछ ही लिया है तब सुनिए – “आठवीं कक्षा पास करने के बाद मैं अज़मेर गया था. डाक विभाग के क्लर्क की परीक्षा देने. वहीं पर एक लड़की से मेरा प्यार हो गया. क्लर्क तो नहीं बन पाया, आशिक जरूर बन गया. लेकिन यह इश्क परवान नहीं चढ़ सका. क्योंकि कुछ ही दिनों बाद उस लड़की का देहांत हो गया था.   
मैं इश्किया अशआर लिखने लगा. और उसकी याद में अपना उपनाम ’क़मर’ रख लिया. उस ज़माने में उर्दू शायरों के नाम के साथ उनके शहर का नाम भी जुड़ा रहता था, मैंने भी उसी परम्परा में ’क़मर’ के साथ ’मेवाड़ी’ जोड़ दिया और क़मर मेवाड़ी बन गया.
पिता जी मुझसे मायूस हो गये और बेहद नाराज़ रहने लगे.
नरेन्द्र निर्मल : कहानी छपने के बाद पिताजी की क्या प्रतिक्रिया थी?
क़मर मेवाड़ी: कहानी छपने के बाद जब पारिश्रमिक का तीस रुपये का मनीआर्डर आया तब पिताजी बहुत खुश हुए. जबकि पहले उनसे कोई कहता कि आपका बड़ा लड़का तो शायर है तब वे नाक-भौं सिकोड़ते और शायरों की लानत-मलामत करते.
नरेन्द्र निर्मल : वे शायरों की लानत-मलामत क्यों करते थे?
क़मर मेवाड़ी : वे समझते थे कि शायर घर-परिवार के प्रति लापरवाह होते हैं. न ढंग से खाते हैं और न ढंग से रहते हैं, ऊपर से कई बुरी आदतें और पाल लेते हैं.
नरेन्द्र निर्मल : क़मर साहब! आपने कविता, कहानी, संस्मरण, उपन्यास आदि अनेक विधाओं में लिखा है. आपकी पसंदीदा विधा कौन सी है?
क़मर मेवाड़ी : यह सही है कि मैंने कविता, कहानी, संस्मरण और एक उपन्यास भी लिखा है. और यह भी सही है कि मैं अपने लेखन की शुरूआत कहानी से मानता हूं. लेकिन कविता लिखकर जो आनंद और संतुष्टि प्राप्त होती है वह और कुछ लिखकर नहीं.
नरेन्द्र निर्मल : आपकी सर्वश्रेष्ठ कविता कौन-सी है?
क़मर मेवाड़ी : सर्वश्रेष्ठ तो नहीं कहूंगा. श्रेष्ठ भी नहीं. अभी मैंने लिखा ही कितना है. फिर भी १९७३ में प्रकाशित अपनी लंबी कविता ’आखिर कब तक’ मुझे बहुत पसंद है.
नरेन्द्र निर्मल : क्या सम्बोधन के सम्पादन-प्रकाशन के कारण आपके लेखन में कभी व्यवधान उपस्थित हुआ?
क़मर मेवाड़ी : सच्चाई तो यह है नरेन्द्र जी कि मैं ही नहीं जितने भी लेखक पत्रिका प्रकाशन में संलग्न हैं वे जानते हैं कि यह एक बड़ी जिम्मेवारी का और जटिल काम है. हां, वे लोग सुखी हैं जिन्हें एक मोटी रकम के एवज में सिर्फ सम्पादन का दायित्व निभाना होता है.
यहां तो रचनाएं मंगवाने से लेकर, अर्थ प्रबंध के साथ-साथ कागज खरीद, प्रेस व्यवस्था, प्रूफ रीडिंग, डिस्पेच और डाकखाने तक की यात्रा में इतना समय निकल जाता है कि कभी-कभी तो भोजन करना भी याद नहीं रहता. फिर व्यक्तिगत दायित्व, घर-परिवार और नौकरी. अब आप ही बताइये लेखन के लिए कितना वक्त निकाल सकता है कोई.
नरेन्द्र निर्मल: लेकिन आप तो लेखन और प्रकाशन दोनों मोर्चों पर सफल रहे हैं?
क़मर मेवाड़ी: इसे आप सफलता कहते हैं? कैसी सफलता? कैसा लेखन? सब बकवास! लिखने का मज़ा तो अब आएगा. बहुत कुछ लिखना चाहता हूं लेकिन लग रहा है वक़्त बहुत कम है और वह हाथ से निकलता जा रहा है.
नरेन्द्र निर्मल : आपकी व्यस्तताओं और लेखन के विरोध में कभी पारिवारिक अवरोध उत्पन्न हुआ?
क़मर मेवाड़ी : इस विषय में मैं खुशकिस्मत रहा हू. मेरी दुआ है कि हर लेखक को मेरे परिवार के सदस्यों जैसी सोच, साहस और मानसिकता के लोग मिलें.
नरेन्द्र निर्मल : आपके लेखन को लेकर कभी कोई विवाद पैदा हुआ?
क़मर मेवाड़ी : रहने दीजिए नरेन्द्र जी. गढ़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा? मेरे लेखन के कारण विभागीय जांच, सी.आई.डी. इन्क्वायरी और लगभग दस वर्ष तक मैं लोगों के नफरत का शिकार बना रहा. मुस्लिम परिवेश पर लिखी कुछ कहानियों को लेकर मेरी मां का जनाज़ा दफन के लिए इंतजार करता रहा. ये सारे हालात आपातकाल के वक़्त के हैं.
नरेन्द्र निर्मल : हिन्दी की पुस्तकें नहीं बिकती लेकिन अंग्रेजी की पुस्तकें हज़ारों की संख्या में बिकती हैं. ऎसा क्यों?
क़मर मेवाड़ी : हिन्दी प्रदेश के लोगों की मानसिकता के कारण. हिन्दी का पाठक इतना कंजूस है कि अपनी अंटी ढीली करना ही नहीं चाहता. फिर इसके लिए हिन्दी का आलोचक भी कम दोषी नहीं.
नरेन्द्र निर्मल : कैसे?
क़मर मेवाड़ी : मैं आपको एक छोटा-सा उदाहरण देता हूं. पिछले दिनों जयपुर में चतुर्र्थ राष्ट्रीय लघु पत्रिका सम्मेलन हुआ. कई पत्र-पत्रिकाओं में लघु पत्रिकाओं पर लेख प्रकाशित हुए. जो ईमानदार लेखक थे उन्होंने संघर्षरत लघु पत्रिकाओं को रेखांकित किया. पर कुछ स्वनामधन्य विद्वानों एवं आलोचकों के ज़हन में आज भी मृत पत्रिकाएं आसन जमाए बैठी हैं. आश्चर्य इस बात का है कि महत्वपूर्ण लघु पत्रिकाओं पर उनकी नज़र क्यों नहीं पहुंचती.
यही हाल हिन्दी पुस्तकों की आलोचना का है. गुटबाजी और गंदी साहित्यिक राजनीति के कारण रद्दी किस्म की पुस्तकें चर्चित हो जाती हैं और महत्वपूर्ण पुस्तकें उपेक्षा का शिकार.
नरेन्द्र निर्मल : आजकल लाखों रुपये के पुरस्कार दिए जा रहे हैं. पुरस्कारों की राजनीति पर प्रकाश डालेंगे?
क़मर मेवाड़ी : पुरस्कार मिलने से कोई लेखक बड़ा नहीं बन जाता. आज तो केन्द्रीय साहित्य अकादमी के पुरस्कार भी विवादास्पद हो गए हैं. फिर पूंजीपति प्रतिष्ठानों से दिए जाने वाले लखटकिया पुरस्कारों में तो और भी ज़्यादा घाल-मेल है.
नरेन्द्र निर्मल : आपको भी तो इस वर्ष ’राजस्थान साहित्य अकादमी’ ने ’विशिष्ट साहित्यकार सम्मान’ तथा ’डॉ. रांगेय राघव’ पुरस्कार देने की घोषणा की है. कैसा लगा आपको?
क़मर मेवाड़ी : पुरस्कार और सम्मान मिलता है तो खुशी तो होती ही है. लेकिन यह सब दस साल पहले मिला होता तो बहुत ज्यादा खुशी होती.
नरेन्द्र निर्मल : क्या इलेक्ट्रोनिक मीडिया साहित्य के लिए खतरा बन गया है? क्या इसी वजह से हिन्दी में पाठकों की संख्या दिन-ब-दिन घटती जा रही है?
क़मर मेवाड़ी : इलेक्ट्रोनिक मीडिया साहित्य के लिए न कभी खतरा था, न खतरा है और न खतरा रहेगा. इलेक्ट्रोनिक मीडिया के फूहड़ और असांस्कृतिक आयोजनों से लोग बहुत जल्द ऊब जाएंगे.
दैनिक समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और पुस्तकों के प्रकाशन सर्वेक्षण से तो हिन्दी पाठकों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ रही है. जब तक मनुष्य का धरती पर अस्तित्व है पुस्तक का महत्व कायम रहेगा.
नरेन्द्र निर्मल : आपके सामाजिक सरोकार क्या हैं?
क़मर मेवाड़ी : एक प्रतिबद्ध रचनाकार के जो सरोकार होते हैं वही सरोकार मेरे भी हैं. आज जो चारों ओर अराजकता की स्थिति है—भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिक हिंसा, जातिवाद, दलित एवं महिला उत्पीड़न, धर्मांधता, वोट बैंक की राजनीति इन सब मुद्दों से मैं तटस्थ नहीं रह सकता. यही कारण है कि आम आदमी के हित में निकाली जाने वाली रैलियों और धरनों में शामिल होना मैं अपना फर्ज़ समझता हूं.
नरेन्द्र निर्मल : प्रदेश में जो सृजन हो रहा है उस पर आपके क्या विचार हैं?
क़मर मेवाड़ी : प्रदेश के रचनाकार महत्वपूर्ण सृजन कर रहे हैं. रजस्थान के कृतिकारों की कृतियां आज आदर एवं सम्मान के साथ पढ़ी जा रही हैं. लेकिन अफसोस इस बात का है कि यहां का लेखक आज भी गुटबाजी और संकीर्ण मानसिकता का शिकार है.
नरेन्द्र निर्मल : इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं?
क़मर मेवाड़ी : हां, अगर वक्त ने साथ दिया तो अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक ’कैसे-कैसे दोस्त’ को बहुत जल्द प्रेस में देना चाहूंगा. इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद मैं राहत की सांस लूंगा. देश के वर्तमान हालात पर एक उपन्यास भी लिख रहा हूं. मैं नहीं जानता यह पूरा होगा भी या नहीं. क्योंकि इधर मैं काफी लापरवाह और आलसी बन गया हूं.
नरेन्द्र निर्मल : अब एक आखरी सवाल—आपकी जीवन्तता और खुशमिजाजी का रहस्य?
क़मर मेवाड़ी : आप जैसे उन तमाम दोस्तों का प्यार और अपनत्व जिससे मुझे शक्ति मिलती है. दोस्तों का स्न्ह ही मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है.

   
                            (बाएं से - विष्णु नागर, श्रीमती नागर, नरेन्द्र निर्मल और रूपसिंह चन्देल)

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आलेख
क़मर मेवाड़ी की कहानियाँ :नये सूरज की तलाश में
माधव नागदा
          क़मर मेवाड़ी हमारे समय के एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं| बिना किसी डर, दबाव या समझौते के लगातार सैंतालीस वर्षों तक अपनी तमाम वैचारिक प्रतिबद्धता और स्तरीयता के साथ अकेले दम पर ‘सम्बोधन त्रैमासिकी’ का संपादन-प्रकाशन क़मर मेवाड़ी जैसि शख्सियत के बूते की ही बात है| प्रायः होता यह है कि संपादक बनने के पश्चात् धीरे-धीरे लेखक के भीतर का सर्जक दम तोड़ने लगता है| लेकिन क़मर मेवाड़ी पर यह बात लागू नहीं होती| ‘सम्बोधन’ के संपादन के साथ-साथ उनके लेखन में न केवल निखार आया,बल्कि वह बहुआयामी भी होता गया है| उनके अब तक चार कविता संग्रह, एक उपन्यास तथा पांच कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं|
       क़मर मेवाड़ी की प्रथम कहानी सन् 1959 में प्रकाशित हुई थी| तब से अब तक वे शताधिक कहानियाँ रच चुके हैं| उनका सद्यःप्रकाशित कहानी संग्रह ‘जिजीविषा तथा अन्य कहानियाँ’ इन्हीं में से चयनित तरपन कहानियों का सुन्दर गुलदस्ता है| यद्यपि ये कहानियाँ कालक्रमानुसार व्यवस्थित नहीं की गईं हैं फिर भी इन्हें पढ़ते हुए विगत आधी सदी में हुए परिवर्तनों के पद चिह्न आसानी से ढूंढे जा सकते हैं| आजादी के बाद की मोहभंग की स्थितियाँ,आपात्काल की आहट,संपूर्ण क्रांति आंदोलन और उसका भटकाव,श्रमिक चेतना, पूंजीवाद के फैलते डैने, अमीर और गरीब के मध्य चौड़ाती खाई ,साम्प्रदायिक विद्वेष, भ्रष्टाचार के बोझ तले दूभर होती जा रही ईमानदार आदमी की जिंदगी,मनुष्य का बढ़ता एकाकीपन एवं तद्जन्य मानसिक अस्थिरता आदि अंडरकरंट की तरह इन कहानियों मे मौजूद है| यही नहीं स्वयं कहानी विधा किन अंधेरी सुरंगों से गुजरते हुए एक मुकम्मल मुकाम हासिल कर सकी है; सचेत पाठक यह बात भी इन कहानियों को पढ़ते हुए ताड़ सकता है| वैसे क़मर मेवाड़ी अपने एक कहानी संग्रह ‘लाशों का जंगल’ में बड़ी साफगोई के साथ कहते हैं, ‘संग्रह की एक-दो कहानियों को छोड़कर शेष सभी कहानियों का रचनाकाल उस अंधकार युग की याद को ताजा करता है जब कहानी सिर्फ सिगरेट,शराब और लड़की पर केन्द्रित थी|’
    आइये क़मर मेवाड़ी की कथा यात्रा का जायजा लेने के लिए शुरुआत इन्हीं कहानियों से करें| इस तरह की कहानियों में समाज और परिवेश से कटे एवं देह सम्बन्धों में आकंठ डूबे पात्रों का खिलंदड़ापन ही प्रमुखता से उभरकर आया है| ‘उसका जाना’, ‘पिछले रविवार’, ‘लौटने से पहले’, ‘नीली झील की गहराइयाँ’ आदि इसी खिलंदडेँपन की कहानियाँ हैं| कई नारी पात्रों की आक्रामकता तो निम्फोमेनिया की हद तक जा पहुँची है| ये पात्र या तो जिंदगी से ऊबे हुए हैं या फिर मोहभंग की स्थिति में पहुँच अपने होने को देह में ढूंढ रहे हैं|
   दूसरी तरह की कहानियाँ वे हैं जहां देह के साथ प्रेम भी उपस्थित है| यहां भी स्त्री-पुरुष सम्बंधों को बेबाक ढंग से चित्रित किया गया है| परिवार नाम की संस्था लगभग अनुपस्थित है| अधिकांश स्त्री पात्र अपने पुरुष मित्र के साथ बिना किसी अपराधबोध के उन्मुक्त भाव से देह सम्बंध स्थापित करते हैं| ‘बावजूद’ की नायिका किसी अन्य से विवाह करके भी ‘सुहागरात’ मनाने अपने प्रेमी के पास जा पहुंचती है| ‘हजार आंखों वाला चेहरा’ में साठ साल के सेठ की युवा पत्नी अपने पति की मृत्युकामना मन में लिए कथानायक से प्यार करती है| ‘बिस्तर में धँसा दिन’ की नायिका मौका देखकर पति के दोस्त से शारीरिक सम्बंध स्थापित कर लेती है| संभवतः इन कहानियों के माध्यम से क़मर मेवाड़ी विवाह बंधन के खोखलेपन को उजागर करना चाहते हैं| जिस बात को सभी जानते हुए भी मानने को तैयार नहीं हैं वही बात क़मर अपनी इन कथा रचनाओं के माध्यम से बताना चाहते हैं कि विवाह वेदी की आहुतियों में मन भस्मीभूत नहीं होता| मन जिसके साथ बंधा है तन का भी उसी के साथ एकाकार होना स्वस्थ सम्बंधों का परिचायक है| संग्रह में ‘पुजारिन’, ‘फिर कब आओगे आनंद’,‘दस साल बाद’,‘खण्डित प्रेम’, ‘नीली झील की गहराइयाँ’ जैसी कहानियाँ भी हैं जो प्यार के मासूम एहसास से रूबरू कराती हैं तथा जो लंबे समय तक हमारे भीतर धड़कती रहती हैं|
   ‘उसने कहा’, ‘बौना’, ‘अजनबी शहर’, ‘वह’, ‘मरा हुआ क्षण’, ‘विचित्र आदमी’ आदि कहानियों में क़मर मेवाड़ी ऐसे पुरुष पात्रों से हमारा परिचय कराते हैं जो काइयाँ,खुदगर्ज,दगाबाज,पलायनवादी और षड़यन्त्री आदमी के रूप में सामने आते हैं| ये लोग जिंदगी से हताश हैं| या तो वे किसी की हत्या कर देना चाहते हैं या फिर आत्महत्या पर आमादा हैं| इनमे आदमी का टुच्चापन और उसकी स्वार्थपरता बड़ी शिद्दत के साथ बेनकाब हुई है| इन कहानियों में क़मर मेवाड़ी ने अपनी अद्भुत निरीक्षण क्षमता का खुलकर प्रयोग किया है| पात्रों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म मनोभाव एवं छोटे से छोटे क्रियाकलाप भी उनकी नजरों से बच नहीं पाये हैं| संवादों का टटकापन इन रचनाओं को अतिरिक्त संप्रेषणीयता प्रदान करता है|
    ‘लाशों का जंगल’ गरीबी, बेबसी और बेरोजगारी की अंतर्व्यथा को उकेरती एक सशक्त कहानी है| पिता की आर्थिक मजबूरियों को ताड़कर नन्हा गुड्डू असमय ही बुजुर्ग बन गया है| दूसरी ओर रोजगार की तलाश में घर से भागा डेविड असाध्य बीमारी को गले लगाये लगभग विक्षिप्त अवस्था में घर वापस आता है| अन्ततः उसकी जिंदगी की नाव मझधार में ही डूब जाती है|
  वस्तुतः ऊपर वर्णित कहानियाँ मनुष्य के अंधेरे पक्ष की कहानियाँ हैं| क़मर मेवाड़ी एक कवि भी हैं इस नाते उन्होने ‘अंधेरा’ प्रतीक का कई कहानियों में बड़ी खूबसूरती के साथ इस्तेमाल किया है|
  उस समय भारत के लोकतंत्र पर भी आपात्काल के रूप में अंधकार के बादल घुमड़ रहे थे| बिहार में जे.पी. का संपूर्ण क्रान्ति का नारा बुलंदी पर था| छात्र दूसरी आजादी के लिए आंदोलनरत थे| कालांतर में जे.पी. कहीं पीछे छूट गये और आंदोलन ने हिंसक रूप अख्तियार कर लिया| इन सभी स्थितियों को प्रतीकात्मक रूप में किंतु गहराई के साथ उठाने वाली कहानी है ‘रोशनी की तलाश|’ एक बानगी देखिये, “उसे लगा इस ओर रोशनी को कोई बहुत बड़ा दैत्य डकार गया है और सारी धरती रोशनी से वंचित हो गई है| उसने मजबूत इरादे से अपने कदम आगे बढ़ाये और यह निश्चय कर लिया कि ज्योंही वह दैत्य उसे दिखायी देगा , वह उसका सीना चाक कर देगा और रोशनी उलीच उलीचकर चारों ओर बिखेर देगा|”
  ‘अलग-अलग रास्ते’ भी संपूर्ण क्रांति पर एक तल्ख टिप्पणी है| लड़की का पिता इस आंदोलन के लिए पचास हजार रुपये का चंदा देता है| इस बात को लेकर लड़के की बौखलाहट को जब उससे प्यार का दम भरने वाली लड़की पागलपन करार देती है तो लड़का दो टूक शब्दों में कहता है, “वे लोग जो अस्पतालों और फेक्ट्रियों में आग लगा रहे थे| जिनकी वजह से जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था| जो मुल्क को साम्राज्यवादियों के हाथ बेचकर मटियामेट कर देना चाहते थे| तुम्हारी निगाह में वे सही थे| और उनके गंदे इरादों को नंगा कर रहा हूं तो तुम्हे लग रहा है मैं बक रहा हूं और यह मेरा पागलपन है|”
   बाद की कहानियों में कथाकार क़मर मेवाड़ी अपने जाने पहचाने रूप में सामने आते हैं| अब तक विवेचित अधिकांश कहानियों में उन्होंने आदमी के भीतर की बदसूरती, उसकी कुण्ठाओं, विद्रूपताओं, वासनाओं तथा रोजमर्रा की चख-चख के आगे उसके  लाचार एवं अमानवीय होते जाने की स्थितियों को अपना निशाना बनाया है| जबकि ‘उनकी जीत, ‘सूरज फिर निकलेगा’, ‘नई सुबह’, ‘फैसला’, ‘उसका सपना’, ‘शहीद’, ‘जिजीविषा’ आदि कहानियों में क़मर मेवाड़ी ने एक ओर व्यवस्था तो दूसरी ओर पूंजीवाद और जमींदारी के दुष्चक्र में किरच-किरच होते जा रहे गरीब और शोषित जन के प्रति अपनी भरपूर वाजिब सहानुभूति दिखायी है| ये रचनाएं समाज के मेहनतकश किंतु उपेक्षित स्त्री-पुरुषों के दिलों में धड़क रहे खुशहाली के सपने और उसे साकार करने की कटिबद्धता की कहानियाँ हैं| इन कहानियों के पात्र सरलता से हार मानने वालों में से नहीं हैं| जमींदार से अपनी जमीन छुड़ाने का सपना(उसका सपना) दिल में पाले कालिया की पत्नी चम्पा बीमारी से मर जाती है| कालिया विक्षिप्त हो जाता है| बावजूद इसके कालिया के मन में उसका सपना अपनी सम्पूर्णता के साथ जीवित रहता है| पागलखाने में भर्ती कालिया कहता है, “साहब मैं जल्दी ही वापस आऊंगा| खूब मेहनत करूंगा| मेरा यह सपना पूरा होगा तभी चम्पा की आत्मा को शान्ति मिलेगी|” इस किस्म का जुझारूपन ही कासिम और उसके साथी मजदूरों को घाघ सेठ इलाहीबख्श के खिलाफ जीत की मंजिल तक पहुंचाता है(उनकी जीत)| यही जीवट सदियों से दबे-कुचले दक्षिण पट्टी के लोगों को ठाकुरों के खिलाफ संगठित होकर सरपंच पद के लिए अपना उम्मीदवार खड़ा करने का हौसला देता है(फैसला) और हताशा के चरम क्षणों में आत्महत्या के लिए उतारू कथानायक एक कृशकाय अंधे और अकेले व्यक्ति को जिंदगी की जद्दोजहद में शामिल देख अपना इरादा बदल देता है और पुनः हिम्मत के साथ जीवन की दौड़ में शामिल हो जाता है(जिजीविषा)|
    ‘सूरज फिर निकलेगा’ की अनपढ़ सुखिया अपनी इज्जत की खातिर सेठ की हत्या कर देती है| सुखिया गरीब जरूर है मगर लाचार नहीं है| वह मेहनती ओर बहादुर स्त्री है एवं अपनी शर्तों पर जीना चाहती है| देह का सौदा करके जिंदगी की खुशियाँ खरीदना उसे कतई मंजूर नहीं| इस दृष्टि से अपनी देहयष्टि को केरियर का सोपान मानने वाली आधुनिकाओं के लिए सुखिया बहुत बड़ी चुनौती प्रस्तुत करती है|
   ‘धुंध में फंसे लोग’ इस बात को बड़े ही सशक्त ढंग से रेखांकित करती है कि आज की इस पंगु व्यवस्था में कानून कितना निरुपाय है, कि कानून तोड़ने वाले कानून बनानेवालों से कहीं अधिक ताकतवर हैं| ये ताकतवर लोग परिवर्तनकारी प्रयासों को उलट देना चाहते हैं| उनकी गाज मास्टर दयाराम जैसे बुद्धिजीवियों पर गिरती है जो बन्धुआ मजदूरी की चक्की में पिसते बेसहारा लोगों में चेतना जगाने का प्रयास करते हैं|
  ‘ऊंचे कद का आदमी’ के राष्ट्रप्रेम से ओत-प्रोत कथानायक को रिटायरमेंट के दो साल बाद तक पेंशन नहीं मिल पाती| उन्हें बार-बार चक्कर काटने को मजबूर किया जाता है| महज इस कारण कि उन्हें अपने प्रकरण के निबटान के लिए रिश्वत देना मंजूर नहीं है| वे कहते हैं,  “अब आप ही जवाब दीजिये| जिस आदमी ने जिंदगी भर ईमानदारी और नेकदिली से अपना फर्ज पूरा किया हो अब वह अपने ईमान को दागदार करेगा? क्या मुझे अपना हक हासिल करने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ेगी? सच अर्ज कर रहा हूं| मर जाऊंगा लेकिन रिश्वत नहीं दूंगा|”
   सचमुच वे मर जाते हैं बिना पेंशन लिए ही|
   यह कहानी मौजूदा व्यस्था पर बहुत बड़ा सवालिया निशान है| कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इस कहानी को पढ़कर तिलमिलाये बिना नहीं रह सकता| क्या ईमानदार और मेहनती लोगों का एक दिन यही हश्र होना है? परन्तु क़मर मेवाड़ी निराश नहीं हैं| वे ‘दकियानूस’ कहानी के एक पात्र के मुँह से कहलवाते हैं, “याद रख एक दिन सब ठीक हो के रहेगा| यह अंधेरा छँटेगा| आखिर इस देश का आदमी कब तक सोता रहेगा?”
  ‘शहीद’, ‘आग’, और ‘बदली हुई लड़की अलग मिजाज की कहानियाँ हैं| ‘शहीद’ युद्ध काल की कहानी है जो इस बात की जोरदार ढंग से वकालत करती है कि सीमा पर ही नहीं बल्कि सीमा के भीतर भी अपने कर्त्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन करते हुए प्राण त्याग देना एक प्रकार की शहादत ही है| ‘आग’ बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान पाक सेनाओं द्वारा निर्दोष और मासूम लोगों पर बेरहम अत्याचार की लोमहर्षक कहानी है| ‘बदली हुई लड़की’ साम्राज्यवादी अमरीका की तस्वीर उकेरती है| कई राष्ट्रपति बदल गये किन्तु अमरीका बिल्कुल नहीं बदला| कथानायिका बड़े आक्रोश के साथ कहती है कि विकासशील राष्ट्रों के प्रति अमरीका का व्यवहार अभी भी उतना ही बर्बर और जस का तस है|
  ‘बदलते रिश्ते’तथा ‘आतंक’ कहानियाँ हमारा अलग से ध्यान आकर्षित करती हैं| ‘बदलते रिश्ते’ एक भावपूर्ण कहानी है| दंगों में सोमेश की माँ काल कवलित हो जाती है| नौकरी के चलते वह अंतिम दर्शन को नहीं आ पाता है| बल्कि पूरे दस वर्ष पश्चात् आता है पिताजी की बीमारी की खबर पाकर| यहां रेहाना बेगम नाम की स्त्री को पिता के पास देखकर सोमेश असहज हो उठता है| परन्तु रेहाना बेगम का निश्छल प्रेम तथा समर्पण भाव देखकर अंततः उसे लगता है कि उसके माँ बाप दोनों जिन्दा हैं|
   ‘आतंक’ कहानी पढ़कर हमारे भीतर एक किस्म का सन्नाटा पसर जाता है| यूं तो ‘बदलते रिश्ते’ और ‘आतंक’ दोनो कहानियों में हम सांप्रदायिक दंगों के दुष्परिणामों से रूबरू होते हैं परंतु यही संपूर्ण सच नहीं है| क़मर मेवाड़ी को यहां के लोगों पर पूरा भरोसा है| उनका मानना है कि देश की अंतःस्त्रावी ग्रंथियों से अभी तक प्रेम और करुणा का रस पूर्णतः सूखा नहीं है| ‘बदलते रिश्ते’ में रेहाना बेगम तो ‘आतंक’ में एक हिंदू स्त्री की करुणा उम्मीद जगाती है|
    दरअस्ल क़मर मेवाड़ी इसी उम्मीद ,प्रेम ,भाईचारे और जिजीविषा के रचनाकार हैं| यही उनकी कहानियों का मूल स्वर है|
   जिजीविषा और अन्य कहानियाँ की सबसे बड़ी खूबी इनका कहानीपन है| इन छोटी-छोटी कहानियों में गज़ब की पठनीयता एवं संप्रेषणीयता है| कथ्य,शिल्प और संवेदन की दृष्टि से भी ये कहानियाँ अद्भुत हैं|
  संक्षेप में कहा जाय तो संग्रह की कहानियाँ अंधेरे की शिनाख्त और उसके खिलाफ ज़ेहाद की कहानियाँ हैं| क़मर मेवाड़ी का दिल श्रमवीरों के प्रति प्यार से लबरेज़ है और वे उनकी जीत को जश्न की तरह मनाना चाहते हैं| इन कहानियों में नई सुबह,दूज का चांद,सूरज, आग जैसे प्रतीक बार-बार आये हैं जो इस बात का संकेत देते हैं कि क़मर मेवाड़ी धरती पर समानता और सामाजिक न्याय का प्रकाश फैलता देखने के लिए कितने बेताब हैं|
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- माधव नागदा
लालमादड़ी(नाथद्वारा)-313301(राज.)
मोब.09829588494

गोष्टी रपट

आबूधाबी में रहते हुए   साहित्यिक पत्रिका ’ निकट’ का सम्पादन  करने वाले  कृष्ण बिहारी जी के हिन्दुस्तान आने पर १६.०८.१४ को  लखनऊ के  जय शंकर प्रसाद सभागार में  एक कार्यक्रम  का आयोजन किया गया   जिसका विषय था- “कृष्ण बिहारी की कहानियां एवं उनका रचना संसार।“
 


 (बाएं से प्रज्ञा पाण्डे, कृष्ण बिहारी, अमरीकसिंह दीप, और रोशन प्रेम योगी)

कृष्ण बिहारी जी की कई  कहानियों पर  चर्चा एवं उन पर वक्तव्य हुए .इस  संगोष्ठी में १९९५ में हंस में  छपी उनकी कहानी  दो औरतें की चर्चा बार बार हुई।    हाल ही में बच्चों की कहानियों पर केंद्रित उनका कहानी संग्रह उसका चेहरा पुस्तक आई है जिस पर बोलते हुए      उपन्यासकार रोशन प्रेमयोगी ने कहा “सोचता हूँ  इस कहानी संग्रह को पढ़कर मुझे क्या मिला - जवाब है कि  पंचमी, स्वतंत्र, विली, आमेर, ज्वाय,हुमांयू खान,हादी आलम और मनप्रीत जैसे बच्चे मेरे मन में जगह पा गए हैं। ऐसा बार बार लगा कि अरे ऐसा  बच्चा तो मेरे पड़ोस मे रहता है और यह तो मेरे घर में ही है।कृष्ण बिहारी की कहानियां जिंदगी के  आसपास की कहानियाँ  लगतीं हैं।
     लेखक  और  पत्रकार   दयानंद पाण्डेय ने उनकी कहानी ’इंतज़ा” की चर्चा  करते हुए   कहा -- अपनी चाची को ले कर जो कहानी उन्होंने लिखी है ’इंतज़ार’ शीर्षक से वह बिना दिल धड़के लिखी ही नहीं जा सकती । बताइए कि  एक औरत व्याह कर बालपन में आती है । पति पढ़ने में कमजोर है । घर के लोग उस के बार-बार फेल हो जाने से परेशान  हैं । पढ़ाना बंद कर देते हैं । और यह औरत कहती है कि  मैं पढ़ाऊंगी  अपने पति को । और पढ़ाई का खर्च वह चरखा पर सूत कात कर निकालती है. स्त्री जवान से बूढ़ी हो जाती है पर पति का इंतज़ार खत्म नहीं होता कि  वह एक दिन लौटेगा । तो ऐसा इंतज़ार बिना कुछ धड़के लिखा जा सकता है क्या ?  उनकी अरब देश पर लिखी  कहानियों पर बात करते हुए  उन्होंने  उन्हें  बोल्ड कहानियां कहा।
 
  आलोचक डॉ० नलिन रंजन सिंह ने कृष्ण बिहारी जी की बोल्ड कही जाने कहानियों की आलोचनात्मक व्याख्या करते हुए कहा " कृष्ण बिहारी की स्त्री -पुरुष के संम्बन्धों की कहानियाँ कुंठा को परत दर परत खोलती हैं। मैं कृष्ण बिहारी को अकुंठ कहानियों के कथाकार के रूप में स्थापित करता हूँ.  नातूर  और दो औरतें कहानी पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि  दोनों ही कहानियों में लेखक   मांग  और आपूर्ति के सन्दर्भों को उठाता है।  महान मनोवैज्ञानिक  सिगमंड फ्रायड  भी  अविरल सेक्स  को आवश्यक मानता   है। उसका कहना है कि  अतृप्ति से अव्यवस्था उत्पन्न  होगी।  नैतिकता  प्रकृति को  सेंसर  करती है । कृष्ण बिहारी भी इसी बात को अपनी कहानियों में कहते हैं तथा किसी भी प्रकार की  कुंठा को खारिज करते हैं. वे अपनी कहानियों में   स्त्री  के  सम्मान की रक्षा   करते हैं।नलिन रंजन सिंह ने कहा कि  इन दोनों ही कहानियों का विषय    सेक्स होने पर भी उनमें सेक्स  नहीं दिखायी देता  है।
               प्रताप दीक्षित ने भी  कृष्णबिहारी  जी की कहानियों  तथा   उन से अपनी सुदृढ़ मित्रता और उनकी सहजता की चर्चा की। उन्होंने कहा कि  उनकी आत्मकथा ‘ सागर के इस पार से उस पार  से’  इस र्इमानदारी से लिखी गर्इ है कि  संभवत: हिन्दी में ऐसी आत्मकथा  कदाचित ही होगी। एक खास बात उन्हे दूसरों से अलग करती है कि वे कभी किसी अनुपस्थित व्यक्ति के संबंध में अनुचित, विपरीत टिप्पणी नहीं करते। जब कि हिन्दी जगत मेँ यह आम फहम बात है।  उनका कहना है कि किसी भी व्यक्ति में अच्छार्इ-बुरार्इ दोनों ही होती हैं। अन्तर्विरोध भी। यही उसके मनुष्य होने की पहचान है और साहित्य का मूल विषय और चिंता। लेकिन  यही विनयशीलता समय आने पर सात्विक आक्रोश में बदल जाती है। राजेन्द्र यादव के निधन के बाद एक मात्र साहसिक टिप्पणी कृष्ण जी ने की थी - राजेन्द्र यादव की एक प्रकार से असमय हत्या की गर्इ है।
     उनकी कहानियों के संबध में प्रताप ने कहा कि उनकी कहानियों पर सेक्स की बहुलता का मिथ्या आरोप लगाया जाता है, लेकिन  उनकी कहानियां जीवन की कहानियां है। उनकी कहानी ‘संगात संजायते काम:’ का शीर्षक गीता के एक “लोक का अंश है। यह मनुष्य के संघर्ष  और अदम्य जिजीविषा की कहानी है।

अधिवक्ता राजेश तिवारी ने उनकी कहानी ऐश ट्रे में ताजमहल की  बहुत मार्मिक व् सूक्ष्म व्याख्या की।उन्होंने कहा कि  ऐश ट्रे में कुछ भी नहीं था लेकिन लेखक ने अपने छात्र के  प्रेम से दिए हुए उस उपहार में ताजमहल की  कल्पना की और एक पूरी कहानी लिख दी।  कानपुर  से आये जाने माने लेखक अमरीक सिंह दीप जी ने  सज्जन पुरुष के गांव छाड़कर जाने और अपनी अच्छाईयों को चहुंओर प्रसारित करने की कथा बताते हुए   कृष्ण बिहारी के विदेश जाने और वहां बसने की बात बतायी। कार्यक्रम की अध्यक्षता  वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति जी ने की। शिवमूर्ति ने   नातूर कहानी की चर्चा करते हुए उसके  चर्चित सन्दर्भ का पाठ किया। उन्होंने कहा कि  कृष्ण बिहारी आबूधाबी में रहते हैं  और उनकी अधिकतर कहानियां  अरब देश के परिवेश और वातावरण की कहानियां हैं परन्तु  लिखने की शैली ऐसी  है कि  वे विदेशी कहानियां नहीं लगतीं।  वे यहाँ और वहां के   सन्दर्भों को जोड़तीं हैं।   
           कृष्णबिहारी जी ने कहा कि उनकी कोई भी कहानी बोल्ड नहीं है।  उनकी कहानियां जीवन के सचों की कहानियां हैं।  वे अपनी कहानियों में कल्पना नहीं यथार्थ लिखते हैं। निकट की  चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि अरब देश में रहते हुए हिंदी  के लिए काम करना और पत्रिका निकालना बेहद संघर्षपूर्णहै।                                                                                                                                                                                                                              
महेंद्र भीष्म के संचालन में यह कार्यक्रम  पूर्ण रूप से सफल रहा। लखनऊ के साहित्य जगत के लगभग सभी लोग कार्यक्रम में उपस्थित रहे।  वरिष्ठ कथाकार अमरीक सिंह दीप ,लमही के  संपादक विजय राय जी , वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति ,कवि  चंद्रेश्वर , कवयित्री इंदु ,कहानीकार किरण सिंह ,कहानीकार पूनम तिवारी , रेवांत  की सम्पादिका अनीता श्रीवास्तव , नाटककार प्रदीप घोष , दिव्या शुक्ला  , विजय पुष्पम, निवेदिता, राजवंत राज, एडवोकेट राजेश तिवारी ,राम  नारायण त्रिपाठी वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता अजय सिंह  एवं अन्य  कई महत्वपूर्ण लोगों की उपस्थिति  ने कार्यक्रम को सफल बनाया   
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7 टिप्‍पणियां:

अर्चना ठाकुर ने कहा…

बहुत बहुत उम्दा....आपका संस्मरण से पढ़ते पढ़ते उस पृष्ठ को पूरा पढ़े बिना छोड़ना मुश्किल था...एक रचनाकार का संघर्ष उसके रचना की नीव होता है...यही हौसला..वही फैसला...आपको हार्दिक बधाई...

बेनामी ने कहा…



हिंदी के एक बेहद जरूरी, सच में तमाम चकाचौंध से दूर जेन्युइन लेखक कमर मेवाडी जी पर पहली बार कोई खास काम हुआ है, रूपसिंह चंदेल जी ने वातायन का पूरा अंक उन पर केंद्रित किया है। उन्हें जानिए, पढिए ! मेरा यकीन है कि आपको हिंदी के आत्ममुग्ध आलोचकों, बडे प्रकाशकों पर बहुत 'प्रेम' आएगा।

डॉ. दुश्यंत

बेनामी ने कहा…


चंदेल जी आपको साधुवाद देते हैं । आपने वह काम किया जिस की दरकार साहित्य जगत में महसूस की जा रही थी । एक विराट व्यक्तिव के धनी हैं कमर मेवामारवाड़ी ।

फारुक अफरीदी

बेनामी ने कहा…

Bhai Kamar mewari. Ji ko tahe dil se mubarkbad


Zeba Rasheed

PRAN SHARMA ने कहा…

नपे - तुले शब्दों में देश के कर्मठ और ईमानदार लेखक और संपादक श्री क़मर मेवाड़ी पर लिखा श्री रूप सिंह चंदेल के संस्मरण का

जवाब नहीं। मुद्दत बाद उन जैसे महान व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में जानने का सुअवसर मिला है। रूप जी , बहुत खूब !



दिल में मुहब्बतों को जगाते रहो सदा

यूँ किस्से दोस्तों के सुनाते रहो सदा



कृष्ण बिहारी जी को उनके नए कहानी संग्रह पर ढेरों बधाईयाँ और शुभ कामनाएँ।

PRAN SHARMA ने कहा…

Qamar Sahib Kaa Kamar Kas Kar
SahItya Sewa Karna Adveeteey Baat
Hai .

प्रज्ञा पांडेय ने कहा…

कमर मेवाड़ी का विस्तृत आपने परिचय कराया। एक उपलब्धि रही. निकट पत्रिका द्वारा किये गए कार्यक्रम की रिपोर्ट को यहाँ प्रस्तुत करने के आपकी आभारी हूँ ।