गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

वातायन-दिसम्बर,२०१४

अपनी बात
मित्रो, 

कुछ निजी कारणॊं से लंबे समय से मैं अपने ब्लॉग्स ’वातायन’ और ’रचना समय’ में कोई रचना पोस्ट नहीं कर सका. १ से ३ सितम्बर,२०१२ में मैंने अमृतसर की यात्रा की थी, जिस पर यात्रा संस्मरण लिखा था. ’बहुबचन’ अक्टू.दिसम्बर,१४ में वह संस्मरण प्रकाशित हुआ है. बहुबचन के सम्पादक अशोक मिश्र की सूचनानुसार संस्मरण पर उन्हें अनेक पत्र और फोन मिले हैं. लेकिन मेरे बहुत से मित्र-पाठक हैं, बहुबचन जिनकी पहुंच से बाहर है. उनके लिए मैं उस यात्रा संस्मरण को वातायन के इस अंक में प्रकाशित कर रहा हूं. आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.     


                                   (स्वर्ण मंदिर)
    


वाह अंबरसर! वाह-वाह वाघा!!

रूपसिंह चन्देल

          1977 के अक्टूबर माह की बात है. एक मित्र से यशपाल काझूठा सच प्राप्त हुआ.  विभाजन की त्रासदी ने मेरे अंदर हलचल मचा दी.  उस उपन्यास के पात्र आज भी मेरे अंदर जीवित हैं. यद्यपि उसके बाद मैंने भीष्म साहनी का तमस भी पढ़ा, उसपर निर्मित धारावाहिक भी देखा और द्रोणवीर कोहली का वाह कैंप भी; परन्तुझूठा सच से इन दोनों की तुलना नहीं की जा सकती.  झूठा सच को विश्व के  कालजयी उपन्यासों में स्वीकार किया गया है. जहाँ तक भीष्म जी के उपन्यासों की बात है उनके मय्यादास का माड़ी की उत्कृष्टता निर्विवादित है. वह तमस से श्रेष्ठ है.  उसके कथ्य कीमौलिकता, शिल्प वैशिष्ट्य और भाषा सौष्ठव उसे उल्लेखनीय सिद्ध करते हैं, लेकिन मेरा आभिप्राय तमस को कमतर कर आँकने का नहीं है.  

झूठा सच को पढ़ने के बाद से ही मैं उन जगहों को देखने की इच्छा पाले रहा जहाँ के कैंपों में पनाह लेने के लिए अपने वतन से उजड़कर आए लाखों  लोग अभिशप्त हुए थे. अमृतसर भी उन जगहों में एक था. 1977 से मन में पल रही वह अभिलाषा पैंतीस वर्ष बाद पूरी हुई. आश्चर्य होता हैदिल्ली से मात्र 448 कि.मी. की दूरी और पैंतीस वर्ष!!  दिल्ली से चलकर सितम्बर 1, 2012 को रात साढ़े दस बजे मैं अमृतसर रेलवे स्टेशन पर था. रात के अँधेरे में किसी शहर के निकट पहुँचते हुए जिस प्रकार की रोशनी दिखाई  देती है वैसा कुछ नहीं दिख रहा था. सोचा, शायद शहर अभी दूर है, लेकिन साथ की सवारियों ने उतरने की तैयारी शुरू कर दी तो मानने को विवश हुआ कि शताब्दी ट्रेन कुछ देर में ही स्टेशन पर पहुँचने वाली है.  ट्रेन की गति मंद से मंदतर होती गयी लेकिन रोशनी में नहाए शहर की कल्पना साकार नहीं हो रही थी. समूचा शहर उदासी की चादर में लिपटा हुआ लगा. मन में सवाल उभरा कि क्या हम वाकई उसी शहर में प्रवेश कर रहे हैं जहाँ स्वर्ण मंदिर नाम से विश्वभर में ख्यात तीर्थ है और जिसकी वीर-प्रसूता धरती पर माथा टेकने की अभिलाषा साढ़े तीन दशक बाद आज पूरी होने जा रही है…या उस शहर में जहाँ इतिहास में दर्ज जनरल डायर की क्रूरता को प्रमाणित करता जलियांवाला बाग अपने बदन पर बने बन्दूक की गोलियों के निशान दिखाता आज भी जाँबाजों की तरह तना खड़ा है? आगामी दस मिनट में हम अमृतसर रेलवे स्टेशन पर थे. किसी छोटे शहर के स्टेशन की भाँति विश्रामलय में ऊँघते कुछ लोग थे और किसी ट्रेन की प्रतीक्षा में चहल-कदमी करते कुछ छात्र-छात्राएँ. शताब्दी की सवारियों के बाहर निकल जाने के बाद उस एकमात्र आबाद प्लेटफार्म नं. एक  पर  शेष वही राही रह जाने वाले थे और उनके जाने के बाद रात का सन्नाटा शायद वहाँ रेंगने लगेगा’—मन ने सोचा.

स्टेशन से बाहर आते ही कुछ पैडल-रिक्शे और तिपहिया ऑटो वाले मिले.  होटल के लिए ऑटो लेते हुए मैंने अनुभव किया कि दिल्ली जैसी लूट वहाँ नहीं थी. वह हमें होटल रूपा इंटरनेशनल’  ले गया जहाँ से स्वर्णमंदिर मात्र दस मिनट पैदल की दूरी पर था. स्टेशन के आसपास दुकानें अवश्य खुली हुई थीं, लेकिन पाँच सौ मीटर कीदूरी तय कर लेने के बाद  भयावह सन्नाटा थारौंगटे खड़े कर देने वाला. इक्का-दुक्का कारें या मोटर साइकलें उस सन्नाटे को चीरते हुए तेजी के साथ बगल से गुजरतीं तो सुकून मिलता, लगता कि डरने की कोई बात नहीं है, सब ठीक-ठाक है. कुछ और आगे बढ़ने पर सड़केंसूनी और अँधेरी थीं. केवल चौराहों पर कोई दुकानदार अपनी दुकान बढ़ाने की तैयारी करता दिख जाता था. शहर के आम निवासी सच ही लंबी तान सो चुके थे या सोने की तैयारी कर रहे थे. ऎसे में, ट्रेन के डिब्बे में बैठे हमको शहर की रोशनी कैसे दिखती! 

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         अमृतसर के विषय में कहा जाता है कि वहाँ तुंग नामका एक गाँव था. सिख गुरु रामदास ने 1564 में (कुछ इतिहासकारों के अनुसार 1570 में) सुल्तानविंद गाँव की जमीन पर संतोखसर नाम से एक सरोवर बनवाना प्रारंभ किया था जो 1588 से पहले बनकर तैयार नहीं हो सका. वही सरोवर स्वर्णमंदिर परिसर में स्थित है. इस सरोवर के साथ ही एक बेरी का पेड़ है जिसे ’दुखभंजन’ कहा जाता है. इसके विषय में किंवदंती है कि सरोवर निर्माण के समय से वह वहां विद्यमान है. श्रद्धालुओं में उस पेड़ की मान्यता का अनुमान उसके नाम से ही लगाया जा सकता है.

          गुरु रामदास ने 1574 में  तुंग गाँव के लोगों से 700 रुपयों में कुछ जमीन खरीदी और भवन निर्माण करवाकर वहाँ रहने आ गये.शिष्यों ने उनके रहने की जगह को उन दिनों गुरु का चक्क नाम से पुकारना शुरू कर दिया, लेकिन बाद में उसका नाम बदलकर चक्क रामदास हो गया था.

            यह जानकर कि हम अमृतसर जा रहे हैं और यह देखकर कि हम न तो सिख हैं और न ही पंजाबी, शताब्दी में बगल की सीट पर बैठे सज्जन ने बिना पूछे ही हमें स्वर्ण मंदिर के विषय में बताना प्रारंभ कर दिया था. वह बता रहे थे—“स्वर्ण मंदिर को हरमंदिर साहब कहते हैं. पहले वह हरिमंदिर थाभगवान विष्णु का मंदिर, जहाँ बैठकर तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की थी. उन्होंने और भी बहुत-कुछ बताया था लेकिन मैं उनकी सभी बातों को शब्दश: याद नहीं रख पाया, तथापि मौन श्रोता बना रहकर सुनता अवश्य रहा था. प्रतिवाद करना उचित नहीं समझा था. हरमंदिर साहिब कभी हरिमंदिर रहा होगालेकिन तुलसीदास…! मेरे लिए वह किंवदन्ती-सा था. स्वर्ण मंदिर के विषय में यह बात अवश्य कही जाती है कि नींव गुरु के दो-हिन्दू और मुसलमान शिष्यों ने रखी थी. हिन्दू –मुसलमान शिष्यों की परंपरा लंबे समय तक चलती रही थी. कहते हैं कि स्वर्णमंदिर में 1902 तक हिन्दू मूर्तियां भी स्थापित रही थीं. उन मूर्तियों को हटाने की चर्चा 1896 में प्रारंभ हुई और अंततः 1902तक सभी मूर्तियां वहां से अन्यत्र स्थानातंरित कर दी गयी थीं. शायद यही कारण रहा होगा कि वहां 1902 तक हिन्दू बच्चों के मुंडन संस्कार होते रहे थे. 
तुंग गाँव में गुरु रामदास के आ बसने से वह स्थान अंततः रामदासपुर के नाम से जाना जाने लगा, जो कालांतर में अंबरसर और फिर अमृतसर बना. हरमंदिर साहिब जिसे पाश्चात्य मीडिया गोल्डेन टेम्पल (स्वर्ण मंदिर) कहता है सिखों का धार्मिक और सांस्कृतिक केन्द्रहै.  लगभग एक लाख श्रद्धालु प्रति सप्ताह इस पवित्र स्थान में आकर मत्था टेकते हैं. अमृतसर से लाहौर की दूरी मात्र 32 किलोमीटर(सीमा से) है. 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की आबादी 11, 32, 761 थी. फैलाव की दृष्टि से देखें तो एक घण्टा से भी कम समय में इस शहर की एक छोर से दूसरे छोर की दूरी नापी जा सकती है.

पुराना अमृतसर शहर दिल्ली की ही भाँति कटरों में बसा हुआ है. ये कटरे सत्रहवीं और अठाहरवीं शताब्दी  में बने थे, जहाँ सँकरी गलियाँ मुझे दिल्ली के चाँदनी चौक और जामा मस्जिद के आसपास के कटरों-कूचों और कानपुर के कुछ इलाकों की याद दिला रहे थे. जिस होटल में हम ठहरे थे, उसके सामने की सड़क स्वर्णमंदिर से आकर घूमती-बल खाती हुई रेलवे स्टेशन की ओर जाती है. वह ज्यादा नहीं, मात्र बीस फीट चौड़ी है. होटल के सामने जो मोहल्ला था वहाँ मैं पतली गलियाँ देख रहा था. उन्हें देखते हुए मुझे चन्द्रशर्मा गुलेरी की कहानी ’उसने कहा था’ के लहना सिंह की याद हो आयी. उसने ऎसी ही किसी गली में कहानी की नायिका से पूछा था, ’तेरी कुड़माई हो गयी?’  

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         सितम्बर, 2  को सुबह आठ बजे होटल से निकलकर हमटहलते हुए स्वर्ण मंदिर पहुँचे. सड़क वन वे है. उसपर आते हुए इक्का-दुक्का पैडल-रिक्शा थे या धड़धड़ाते, धुआँ छोड़कर दौड़ते हुए तिपहिया टेम्पो. कारोबारी लोगों की कारें ट्रैफिक नियमों की धज्जियाँ उड़ाती हुई दाहिनी ओर  यानी रौंग साइड से तेजी से गुजर रही थीं. वही हाल  टेम्पोवालों का भी था. पुटपाथ एक फीट से अधिक चौड़े नहीं थे. निश्चित ही, उन्हें पतला करके…गरीबों की तरह उनका हक़ मारकर ही मुख्य सड़क बीस फुट चौड़ी बनाई जा सकी होगी. फुटपाथ पर चलना कठिन था. पैदल चलते हुए किसी कार या टेम्पो द्वारा रौंदेजाने का खतरा हर पल सिर पर सवार रहता था, लेकिन उस शहर को, जहाँ कभी स्वाधीनता आंदोलनकारियों और क्रान्तिकारियों के चरण पड़े थे, जीने का सुख पैदल चलते हुए ही था. पैदल चलते मैं अतीत के उन क्षणों को भी जीता जा रहा था.

हम तीन थेमैं, पत्नी और बेटी माशा यानी मालविका. हम आपस में चर्चा कर रहे थे कि मंदिर को जाते हुए लोग तो दिखनहीं रहे फिर कैसे यह कहा जाता है कि हजारों लोग प्रतिदिन दरबार साहिब के दर्शन के लिए जाते हैं. लेकिन भरावां का ढाबा के निकट पहुँचते ही हमारा भ्रम टूट गया. हम जिस सड़क से जा रहे थे यहाँ वह पूरी गोलाई के साथ मुड़ती थी. वहाँ से जो दृश्य दिखा, उसे देख हम हत्प्रभ थे. मंदिर की ओर जाते हुए लोगों की अपार भीड़ देख हकीकत समझ आयी थी. हम उस रास्ते से गए थे जो गुरुद्वारा से स्टेशन की ओर जाता था. ऑटो या कारों में दौड़ते लोग मंदिर से लौटने वाले थे,मंदिर की ओर जाने वाले दूसरे मार्ग से वहाँ पहुंच रहे थे. मंदिर के प्रांगण में जन-समूह हिलोरें ले रहा था. दरबार साहिब के दर्शनार्थ बहुत लंबी पंक्ति थी, जिसके विषय में बताया गया कि दर्शन के लिए कम से कम चार घण्टे का समय चाहिए. एक घण्टे तक मंदिर केस्थापत्य को देख और सरोवर के पास खड़े होकर कुछ चित्र लेकर हम बाहर आ गए. जलियांवाला बाग स्वर्ण मन्दिर के निकट ही दो मिनट की दूरी पर है. एक ढाबे में अमृतसर के मशहूर आलू-कुलचे का स्वाद लेकर जब हम उससे बाहर निकले तब हमारी दृष्टि सामने एक ऑफिस पर जा टिकी जिस पर अंग्रेजी में प्रिपेड टैक्सी लिखा हुआ  था. काउण्टर पर लगभग पैंतीस वर्षीय हट्टा-कट्टा सिख युवक बैठा था. वाघा बॉर्डर जाने के विषय में पूछने पर उसने संयुक्त टैक्सी भाड़ा बताया. स्वयं ए.सी. टैक्सी हायर करने का जो भाड़ा उसने बताया वह होटल वाले द्वारा बताए टैक्सी भाड़े से पर्याप्त कम था. आशंका हुईसुविधा-असुविधा को लेकर;  लेकिन मन ने कहा कि यह सिख युवक झूठे वायदे नहीं करेगा. हमने उसे तय कर दिया; और मन की बात ठीक निकली. उसने साढ़े तीन बजे टैक्सी के होटल पहुँचने की बात कही थी और ठीक साढ़े तीन बजे टैक्सी ड्राइवर होटल के बाहर था. 

टैक्सी बुक करवाकर  हम जलियांवाला बाग के अंदर पहुँचे। यद्यपि यह बहुत पुराना बाग है लेकिन  13 अप्रैल, 1919 को  वरिष्ठ ब्रिटिश सैन्य अधिकारी रिजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर द्वारा 300 से अधिक देशभक्तों की नृशंसतापूर्वक हत्या करवा देने से यह उस जघन्यता के लिए विश्वभर में कुख्यात हो गया था. यह महाराजा रणजीति सिंह (1780-1839) के दरबारी सरदार हिम्मतसिंहजालेवालिया (मृत्यु 1829) की सम्पत्ति थी, जो जाला नामक गाँव से आए थे. इस परिवार को जाल्हेवाले, जाल्हे या जाले कहा जाता था. यह गाँव अब पंजाब के फतेहगढ़ साहिब जिले का हिस्सा है.
            10 अप्रैल, 1919 को  स्वतंत्रता सेनानी सत्यपाल और किचलू अमृतसर के  डिप्टी कमिश्नर से मिलने उसके निवास पर गए थे, लेकिन उन्हें गिरफ्तार करके कार द्वारा हिमाचल के धर्मशाला भेज दिया गया. विरोधस्वरूप आंदोलनकारियों ने शहर में हड़ताल की घोषणा कर दी. लगभग  50 हजार लोगों की उत्तेजित भीड़ ने डिप्टी कमिश्नर के बंगले की ओर प्रस्थान किया, लेकिन ब्रिटिश पुलिस ने भीड़ को रेलवे स्टेशन के पास पैदल पारपथ पर रोक लिया और उसे तितर-बितर करने के लिए गोलियाँ चला दीं. सरकारी आँकड़ों के अनुसार 12 लोग मारे गए और लगभग तीस घायल हुए लेकिन बाद में आयी कांग्रेस इंक्वारी कमिटी की रपट के अनुसार मरने वालों की संख्या 20 से 30 थी.

            इस गोलीबारी में मरने वाले लोगों के शवों को आंदोलनकारी  सड़कों से लेकर निकले. जनता में उबाल स्वाभाविक था. भीड़ ने बैंकों और सरकारी कार्यालयों पर हमले किए और पाँच यूरोपियनों को मौत के घाट उतार दिया. क्रुद्ध भीड़ को काबू करने केलिए फौज बुला ली गयी. 11 अप्रैल को एक प्रकार से शहर में अशांत शांति रही. उसी शाम जालंधर से 45वीं इन्फैंट्री ब्रिगेड का कमाण्डर जनरल डायर  अमृतसर पहुँचा. पाँच  यूरोपियनों की हत्या और सिटी मिशन स्कूल की प्रबन्धक और चर्च ऑफ जनाना मिशनरीसोसाइटी के लिए कार्य करने वाली मिस मार्सेला शेरवुड पर कूचा कुरिछन में हुए  हमले की सूचना से डायर बौखला उठा.  12 अप्रैल को डायर ने सभी सभाओं पर प्रतिबन्ध की घोषणा कर दी. 13 अप्रैल को बैसाखी का त्यौहार था.  आसपास के गाँवों से हजारों की संख्या में लोग, जिनमें अधिकांश  सिख थे, अमृतसर में एकत्रित हुए थे. स्थानीय नेताओं ने लोगों को शाम साढ़े चार बजे जलियांवाला बाग में सभा के लिए एकत्रित होने के लिए आह्वान किया. जनरल डायर के लिए यह चुनौती थी. उसने पहले ही 470 ब्रिटिश और 710 भारतीय सैनिकों को एकत्र कर रखा था. 50 राइफलधारी सैनिक,सैनिक साजो-सामान से लदी कारों और मशीनगनों को शांतिपूर्ण सभा कर रहे लोगों की ओर तैनात कर रखा गया था. सभा में दोपहला, रौलट एक्ट वापस लेने और दूसरा, 10 अप्रैल की फायरिंग कीभर्त्सना  करने के प्रस्ताव पारित किए गए. तीसरे प्रस्ताव पर विचार चल ही रहा था कि सवा पाँच बजे जनरल डायर वहाँ पहुँचा और प्रवेश द्वार के पास खड़े राइफलधारी सैनिकों को गोलियाँ चलाने का आदेश दिया. बीस मिनट तक अबाध गोलियाँ चलती रहीं. 1650 राउंड गोलियाँ दागी गयीं. बाग में जाने और निकलने के लिए एक ही रास्ता था. वहां तैनात रायफलधारी सैनिकों की गोलियों का तांडव जारी था. बाग के शेष तीन ओर मकानों की ऊंची दीवारें थीं या बाग ही की ऊंची दीवार थी. सभा में स्त्रियां, बच्चे और वृद्ध भी थे. गोलियों की बौछार से बचने के लिए वे सभास्थल के पास स्थित कुंआ की ओर भागे और प्राण बचाने के लिए उसमें छलांग लगाने लगे. उनकी चीख-पुकार से शहर स्तब्ध था, लेकिन बाग के मुख्य द्वार के पास खड़ा जनरल डायर अट्टहास कर रहा था. उस भयावह दृश्य का अनुमान लगा जा सकता है. युवकों ने दीवारों पर चढ़ने के प्रयास किए और पीठ में धंसती गोलियों से धराशायी होते गए.

          सरकारी आँकड़ों के अनुसार 379 लोगों को मौत के घाट उतारने और 1200 से अधिक को घायल कर वह नरपिशाच जिस रास्ते से आया था अपने सैनिकों सहित उधर ही वापस लौट गया. 

प्रवेश द्वार से हम सीधे ‘शहीदी कुऑं’  के पास पहुँचे, जिसे चारों ओर से ढक दिया गया है. उस पर लिखा है—‘शहीदी कुआं’. देर तक हम कुएँ में झाँककर देखने और उन चीखों को सुनने का प्रयास करते रहे जो बाल,वृद्ध और महिलाओं ने मौत के आगोश मेंजाने से पहले की होंगी. लेकिन कुएँ में गंदे पानी के अतिरिक्त न कुछ दिखा न सुनाई पड़ा. हम पास की उस दीवार के सामने खड़े थे जिसकी लाल ईंटों पर आज भी अनेक गोलियों के गहरे निशान डायर की क्रूर कहानी बयाँ कर रहे हैं. वहाँ से हटकर हम उस स्थल के पास पहुँचे जहाँ शहीदों की याद में लाल पत्थरों से निर्मित गर्वोन्नत स्मारकखड़ा हुआ यह घोषणा कर रहा है कि आजादी के दीवानों को सत्ता की कोई भी क्रूरता परास्त नहीं कर सकती है. दस दीवानों की बलि हजारों-लाखों को जन्म देती है और एक न एक दिन वे अंततः आतताइयों का  अंत कर ही देते हैं. 

13 अप्रैल, 1919 के शहीदों को प्रणाम कर  उदास मन, भीगी आँखों हम होटल के लिए लौट लिए थे.

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                                                                 (वाघा)

       टैक्सी ड्राइवर योगेश ने लेट हो जाने सम्बन्धी मेरी हर आशंका को खारिज करते हुए दावे के साथ विश्वास दिलाया था कि वह आधेघण्टा में हमें वाघा बॉर्डर पहुँचा देगा. वाघा की ओर जाने वाली सड़क साफ और चौड़ी थी. वाहनों की संख्या तुलनात्मक दृष्टि से कमथी. आसमान पर हल्के सलेटी बादलों के टुकड़े हमारे साथ दौड़ रहे थे. लाहौर पहुँचने के लिए उन्हें किसी वीजा-पासपोर्ट की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि ज़मीन और आसमान में जो सीमा-रेखाएँ देशों ने तय कर ली हैं वे उन्हें रोकने में अक्षम हैं. लाहौर, जो पैंसठ वर्ष पहले हमारी साझा संस्कृति का गढ़ था, जहाँ आजादी के दीवाने भगतसिंह और उनके साथियों ने आजादी के लिए कितनी ही योजनाएँ बनाई थीं,  पंजाब केसरी लाला लाजपतराय पर लाठियाँ बरसाने के कर्म को राष्ट्र की अस्मिता पर हमला मानने वाले युवा भगत सिंह ने जहाँ अंग्रेज अधिकारी साण्डर्स गोली दागी थी. लाहौर जहाँ मुगल शासक जहाँगीर का लगवाया शालीमार बाग था. लाहौर, जहाँ आज भी वह मकान है जिसमें रहते हुए उर्दू के महान कथाकार सआदत हसन मंटो ने कितना ही कालजयी साहित्य रचा और जिसमें आज भी उनकी एक बेटी और उसका परिवार रहता है. 

हम ठीक चार बजकर पाँच मिनट पर सीमा पर थे. रास्तेभर मैं सड़क के दोनों ओर लहलहाते खेतों को  देखता रहा था और सोचता रहा था उन विस्थापितों के विषय में जो 1947 में अपनातमाम घरबार छोड़, अपनों को अपनी आँखों कत्ल होते देख किसीप्रकार छिपते-छिपाते उन खेतों से होकर गुजरे होंगे. मन पुनः उदास हो उठा था.

वाहन सीमा-क्षेत्र से काफी पहले रोक दिए जाते हैं. योगेश ने वहीं उतारकर हमें वह स्थान बता दिया जहाँ वाघा-सीमा पर सम्पन्न सैनिक कार्यक्रम को देखने के बाद  लौटने पर हमें मिलना था.यद्यपि काफी लोग हमारे पहुँचने से पहले ही वहाँ उपस्थित थे तथापि हमारे देखते-देखते वहाँ लगभग पचास हजार लोगों की भीड़ एकत्रित हो चुकी थी. साढ़े चार बजे सीमा पर बना गेट खुला. ऊँची नस्ल केघोड़ों पर सवार दो सैनिक लोगों का मार्ग-निर्देशन कर रहे थे. महिलाओं की अलग पंक्ति थी. लोगों में अधैर्य था. भीड़ को देखते हुए जल्दी न पहुँचने पर बैठने का सुविधाजनक स्थान मिल पाना मुश्किल था.  सारी बाधाएँ पार कर लोग दौड़ने लगते थे. महिलाएँ  और बच्चियाँ भी दौड़ रही थीं.  सीमा पार वही दृश्य पाकिस्तान के दर्शकों का था. भारतीय दर्शकों की संख्या उनकी अपेक्षा अधिक थीयहाँ लोग खड़े थे, एक दूसरे को धकिया रहे थे, लेकिन वहाँ लोग बैठे हुए थे. इसलिए नहीं कि उधर के दर्शक अनुशासित थे बल्कि इसीलिए कि वे संख्या में बहुत कम थे.  बैठने की उतनी ही व्यवस्था उधर भी थी जितनी इधर. जितना सम्भव हुआ, हमने उनके भी चित्र लिए. ज़ाहिर है कि उन्होंने भी इधर के लोगों के चित्र लिए होंगे. सीमा की व्यवस्था सीमा सुरक्षा बलों के जिम्मे है. जवान सक्रिय थे. पाँच बजे  कुछ युवतियों को तिरंगा पकड़ाकर दौड़कर सीमा पर गेट तक जाने और दौड़ते हुए ही लौट आने के लिए उन्होंने बुलाया. उन्होंने दो को बुलाया और कुछ देर में ही बाल, युवा और प्रौढ़ा स्त्रियों की लंबी पंक्ति बन गयी. दौड़ समाप्त होने के बाद बड़ी संख्या में महिलाओं ने राष्ट्रभक्ति गीतों पर, जो लाउडस्पीकर पर पहले से ही लगातार बज रहे थे, ग्रुप डांस किया. ऎसा ही पाकिस्तान की ओर लोग कर रहे थे. दोनों ओर राष्ट्रभक्ति का सागर हिलोरें लेता दिख रहा था. लोगों में गजब का उत्साह था. बी.एस.एफ. के कमांडेंट के माइक परहिन्दुस्ता…ऽ…न कहते ही ज़िन्दाबा…ऽ…द के नारे से दिशाएँ गूँज उठती थीं. भीड़ स्वयं भी लगातार नारे लगा रही थी. वातावरण राष्ट्रप्रेम में इतना अधिक सराबोर  था कि वहाँ उपस्थित लोगभ्रष्टाचार, मँहगाई और कोलगेट के नाम से विख्यात हो चुके सरकारी घोटालों जैसे सामयिक मुद्दों को सिरे से भूल गए थे. 

ठीक छः बजे बीटिंग रिट्रीट कार्यक्रम प्रारंभ हुआ. राष्ट्रभक्तिपूर्ण गीतों और नारों की गूँज के बीच सीमा सुरक्षा बल की दो युवतियाँ गेट की ओर कदम-ताल करती हुई गयीं और एक खास पोज़ में खड़ी हो गयीं.  भीड़ ने जोरदार नारों से उनका स्वागत किया. फिर दो जवान उसी प्रकार लंबे डग भरते हुए उधर गए. सभी एक निश्चित दूरी बनाकर खड़े हो गए. यह सिलसिला चलता रहा. छह बजकर पचीस मिनट पर दोनों ओर के गेट खुले और फिर हाथ मिलाने और ससम्मान अपने-अपने देश के झण्डे उतारने का कार्यक्रम संपन्न हुआ. पुन: हाथ मिलाए गए और गेट पुनः बंद हो गए.
  
एक जवान आदर के साथ तह किया हुआ तिरंगा नन्हें शिशु की तरह बाँहों पर लेकर वापस लौटा और अपने साथी के हवाले किया. कार्यक्रम समाप्त हुआ. योगेश हमारा इंतजार कर रहा था. उसकी टैक्सी में बैठकर हम वापस अमृतसर की ओर चल दिए. जब हम होटल पहुँचे, शाम के साढ़े सात बजने वाले थे. होटल के अपने कमरे में दाखिल होते हुए मैंने जेब से निकालकर अपना मोबाइल स्क्रीन देखा.  ज्ञात हुआ कि पंजाबी व हिन्दी के प्रख्यात कथाकार डॉ. श्यामसुन्दर दीप्ति तब तक मुझे दो बार फोन कर चुके थे. सुभाष नीरव ने उन्हें सूचना दी थी कि मैं उनके शहर में हूँ.  उनसे बात हुई और अगले दिन यानी 3 सितम्बर को उनके घर जाकर मिलने का कार्यक्रम तय हुआ. 

अगली सुबह  नौ बजे डॉ. दीप्ति मुझे ले जाने के लिए स्वयं होटल पहुँच गए. डॉ. दीप्ति पंजाबी के लब्धप्रतिष्ठ लघुकथाकार तो हैं ही उन्होंने बच्चों की मानसिकता को दृष्टिगत रखते हुए अनेक पुस्तकों की रचना की है. वह अमृतसर मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर हैं और मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि एम.बी.बी.एस. करने के बाद उन्होंने समाजशास्त्र और मनोविज्ञान विषयों में एम.ए. किया था. डॉ. दीप्ति बहुत ही सरल, मृदुभाषी और मित्रजीवी व्यक्ति हैं. उन्होंने बताया कि लगभग बीस वर्ष पहले जब वाघा बॉर्डर पर बीटिंग रिट्रीट कार्यक्रम प्रारंभ हुआ था तब प्रारंभ में पचास लोग ही बमुश्किल वहाँ होते थे. 

        अमृतसर यात्रा मेरे लिए एक अविस्मरणीय यात्रा रही,शायद इसलिए भी कि सोचने के पैंतीस वर्ष बाद ही सही, मैं वहाँ जा पाया था. प्राप्तियाँ समय के अन्तराल और मानसिक-कायिक कष्टों को भुलाकर असीम सुख देती हैं, नि:संदेह.

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1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

प्रिय रूप जी , अमृतसर पर आपके संस्मरण का दोबारा पाठ आनंदित कर गया है। संस्मरण

लिखने में आप अद्वितीय हैं। आपको तो पटकथा लेखक होना चाहिए।