शनिवार, 12 अगस्त 2017

वातायन-अगस्त,२०१७



वरिष्ठ साहित्यकार प्राण शर्मा की लघुकथाएं
उपचार
        दौलत राम और देविका रानी का जवान बेटा  दिमागी बीमारी का शिकार हो गया था। उसके हाव - भाव विचित्र हो गए थे। सारा दिन उसकी आँखें ऊपर की ओर उठी रहती थीं। उसकी ऐसी शोचनीय हालत देख कर दौलत राम और देविका रानी विचलित हो गए थे। उनकी रातों की नींद उड़ गई थी। कुछ भी खाने को उनका जी नहीं करता था।  उन्होंने बेटे को शहर के प्रसिद्ध मनोचिकिस्तकों को दिखाया। पैसा पानी की तरह बहाया लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। किसीने सुझाव दिया -
" दौलत राम जी , ऐसी मानसिक बीमारी कोई तांत्रिक ही दूर कर सकता है। मेरा भांजा तांत्रिक से ही स्वस्थ हुआ था। शहर के प्रसिद्ध तांत्रिक हैं -त्रिभुज जी। बेटे को ले कर उनके पास जाइये। अवश्य ही लाभ होगा। "
         दौलत राम  और देविका रानी तंत्र - मंत्र में विश्वास नहीं रखते हैं लेकिन मजबूरी के सामने उनका विश्वास डोल  गया। बेटे को ले कर उन्हें त्रिभुज जी के पास जाना ही पड़ा। सब कुछ देखने - परखने के बाद त्रिभुज जी बोले - " देखिये , आपके बेटे के शरीर में कोई भूत घुस गया है , उसे निकालना होगा। "
         " कैसे निकालेंगे ? " दौलत राम ने दुःखी स्वर में पूछा। 
         " आपके बेटे के शरीर को  मार - पीट कर। "
           सुनते ही दौलत राम और देविका रानी कांप  उठे। कांपते स्वर में ही दोनों ने पूछा - " स्वामी जी , कोई और उपाय नहीं है ? "
         " नहीं , कोई और उपाय नहीं है। देखिये , भूत बातों से नहीं लातों से भागते हैं। "
           दौलत राम और देविका रानी को त्रिभुज जी की बात के आगे झुकना पड़ा। जैसे - तैसे बेटा स्वस्थ होना चाहिए। 
           बेटे को एक गुप्त कमरे में ले जाया गया। भूत निकालने की विधि शुरु हो गयी।  बेटे को कभी थप्पड़ों - मुक्कों और कभी चाबुक से पीटा गया। चीखते - चीखते वह निढाल हो गया।  उसके निढाल शरीर से  आत्मा 
निकल गयी  लेकिन भूत नहीं निकला  . 
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रक्षक

           रतन  और अन्य लोग बार - बार  कलाई में बंधी  घड़ी देख रहे थे। कोई बस आती नज़र नहीं  आ रही थी।  " ये क्या  व्यवस्था है ? इस सरकार को अब जाना ही चाहिए। `` क़तार में  खड़े सभी लोग रोष प्रकट कर रहे थे। एक बस आती दिखायी दी , सबके चेहरे खिल गए लेकिन वो पास आते ही फुर्र से निकल गयी। एक और बस आयी , वो भी फुर्र से निकल गयी। लोगों का रोष और बढ़ गया।  एक बस आ कर रुकी। " दो ही सवारियाँ चाहिए। " कण्डक्टर ऊँचे स्वर में बोला।  लोगों में भगदड़ मच गयी। सभी बस पर चढ़ने को टूट पड़े।  रतन और उसके पीछे का व्यक्ति धक्कों के बीच बस पर चढ़ने ही लगे थे कि कहीं से दो सिपाही आ टपके। दोनों डंडों के ज़ोर से सबको धकेल कर बस पर चढ़ गए। 
            रतन और अन्य लोग विरोध में चिल्ला उठे " कण्डक्टर ,ये क्या माजरा है ?हम आधे घंटे से बस की प्रतीक्षा कर रहे हैं ,ये पुलिस वाले अभी आये और सवार हो गए। इन्हें उतारिये और हमें चढ़ाइये। "
            " इन्हें मैं उतार नहीं सकता। "
            " क्यों नहीं उतार सकते ?"
            " इन्हें ड्यूटी पर पहुँचना है। "
            " हमें भी ड्यूटी पर पहुँचना है। " लोगों की आवाज़ गूँजी। 
            " ये समाज की व्यवस्था के रक्षक हैं। "
            " हम क्या समाज की व्यवस्था के रक्षक नहीं हैं ? "
            " इनकी बात और है। "
              कण्डक्टर ने झट सीटी बजायी और बस  को आँखों से ओझल होते देर नहीं लगी। 
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मुराद

              घर में ख़बर फैलते ही सबके चेहरों पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी कि छोटी बहु पेट से है। चार सालों के बाद सबकी मुराद पूरी हुयी थी।  दादा जी तुरंत बेटे और बहु की जन्म पत्रियाँ लेकर नगर के प्रसिद्ध 
ज्योतिषाचार्य के पास पहुँच गए। 
               दादा जी के अलावा घर में आठ सदस्य हैं - दादी , दो बेटे ,दो बहुएँ ,दो बेटियाँ और बड़े बेटे का बेटा। सभी दादा जी की प्रतीक्षा कर रहे थे। बेटियाँ तो उतावली सी पाँच - पाँच मिनट के बाद बाहिर जा कर उनकी राह देख आती थीं। 
               दादा जी का  प्रवेश हुआ। उत्सुकता में सभी उनके पीछे पड़ गए " बताइये , ज्योतिष ने क्या कहा है ?"
               " बताता हूँ , पहले प्यास तो बुझा लूँ। "
               " प्यास बाद में बुझाइये , पहले बताइये। "
               " कन्या  यानि लक्ष्मी का योग है। "
               " उफ़ ! "
                 सबके चेहरे लटक गए। 
               " अरे , चेहरे क्यों लटकाते हो ? लड़के का योग है। "
               " सच ? "
               "  सच। "
               "  हुर्रे ! "
                  झूमते हुए सबने दादा जी को उठा लिया 
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मोह

                 दादा जी गुस्से वाले थे। दादी जी के स्वर्ग सिधारने के बाद उनके गुस्से में बढ़ोतरी हो गयी थी। उनके गुस्से का नज़ला मेरे बड़े भाई पर अधिक गिरता था। बड़े भाई की दिलचस्पी क्रिकेट खेलने में अधिक और पढ़ाई -लिखाई में कम थी। दादा जी चाहते थे कि हम दोनों  भाई भी उनकी तरह ख़ूब पढ़ -लिख जाएँ और खानदान का नाम रोशन करें। 
                 बड़े भाई की दसवीं की परीक्षा चल रही थी। गणित की परीक्षा के एक दिन पहले छुट्टी थी। वह सारा दिन क्रिकेट खेलता रहा था। सूरज के डूबने के बाद वह घर लौटा। उसे देखते ही दादा जी गरज उठे - " कहाँ था तू अब तक ? "
                 " क्रिकेट खेलने गया था। "
                 " सूरज के डूबने तक क्रिकेट खेलता रहा ? कल गणित की परीक्षा है , उसकी कोई चिंता है तुझे ? "
                   बड़ा भाई उत्तर नहीं दे पाया। 
                 " नालायक ; बेपरवाह , तू सुधरेगा नहीं। "
                    दादा जी की आँखें सुर्ख हो गयीं। उनके थप्पड़ बड़े भाई के दोनों गालों पर पड़ने शुरु हो गए। उसके मुँह से खून बहते देर नहीं लगी।  पहले दादा जी के सामने माँ की मुँह खोलने की हिम्मत नहीं होती थी लेकिन अब बेटे के मुँह से ख़ून बहता हुआ देख कर वह चुप नहीं रह सकी। गुस्से में वह भी बोल उठी - " इतना गुस्सा ! आपने तो बेटे को पीट - पीट कर लहूलुहान कर दिया है। "
                   " बहु , पीटूँगा नहीं तो ये सुधरेगा कैसे ,पढ़े-लिखेगा कैसे ? "
                   " आगे से  आप इस पर हाथ नहीं उठाएँगे , छोड़ दीजिये 
                      मेरे बेटे को। "
                   "  ले ,छोड़ दिया तेरे बेटे को , तेरा घर भी छोड़ रहा हूँ। मेरा यहाँ रहना अब मुनासिब नहीं। "
                     माँ  ने हाथ जोड़े , उनके पैरों पर पडी लेकिन दादा जी ने अपना सामान उठाया और घर चले गए। दादा जी का घर से चले जाना किसीको अच्छा नहीं लगा। सब पर उदासी छा गयी।  इस उम्र में वह ------------ माँ  अपने कहे पर बहुत पछतायी।  पापा ने दादा जी के सब मित्रों से पूछताछ की , शहर के हर होटल , हर धर्मशाला और वृद्धाश्रम में उनको ढूँढा लेकिन उनका कोई अता -पता नहीं मिला। 
                      एक दिन मैं घर के बाहिर खड़ा था। मुझे दादा जी आते हुए दिखायी दिए। खुशी में मैं झूम उठा। मैंने माँ को तुरंत आवाज़ दी - " माँ,बाहिर आइये , देखिये कौन आ रहा है ?"
                     " कौन आ रहा है ?" माँ ने भीतर से ज़ोर से पूछा। 
                     " आप ही आ कर देख लें। "
                        माँ भागी - भागी बाहिर आयी। दादा जी को आते हुए देख कर उसकी आँखें खुशी के आँसुओं से भर गयीं। 
                      पास आते ही दादा जी ने मुझे अपनी  बाँहों में भर लिया और मेरे सिर पर आशीर्वाद का हाथ फेरना शुरु कर दिया। 
                      माँ से मिलते  ही वह भीगी आँखों से बोले - " बहु , पोतों का मोह मुझे वापस खींच लाया है। "

आकांक्षा

आकांक्षा तीस साल की हो गयी थी। अब तक उसका विवाह हो जाना चाहिए था। वह रईस से रईस माँ - बाप के बेटे से विवाह करना चाहती थी। बात बन नहीं रही थी। लड़के भी रईस से रईस माँ - बाप की बेटी से विवाह करना चाहते थे। माँ की सभी कोशिशें बेकार हो जाती थीं और बेटी की  वर्षों से  पाली बड़े - बड़े देशों को देखने की आकांक्षा धरी की धरी रह जाती थी। किसीने एक रईस ` लड़का ` सुझाया। रूप - रंग गोरा - चिट्टा था उसका पर उम्र सत्तर साल की थी उसकी। आकांक्षा ने सुना तो बौखला उठी - " उफ़ ,इतनी बड़ीऔर  उम्र ! नहीं,मैं उस बूढ़े खूँसट  से कभी ब्याह नहीं करुँगी। "माँ ने बेटी को पास बिठाया और बड़े लाड़ -प्यार से  समझाया - " अरी , क्या हुआ जो वो सत्तर साल का है ,है तो रईस न। एकाध साल में वो लुढ़का ही समझ। सारी संपत्ति की तू  वारिस होगी। तब ऐश और आराम का जीवन बिताना और जहाँ भी चाहे आना - जाना। तू किसी रानी  से कम नहीं होगी। "आकांक्षा को माँ का सुझाव खजूर से भी ज़्यादा मीठा लगा। दूसरे दिन ही  अग्नि के सात फेरों के बाद वह बूढ़े खूँसट की अर्धांगनी बन गयी। 

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                   संतान की सफलता 

   सुमित्रा के जीवन की एक ही कामना थी कि उसकी इकलौती बेटी रमा बी ए में प्रथम आये। उसकी सफलता का समाचार अखबारों में मोटे - मोटे और हरे - गुलाबी अक्षरों में छपवायेगी,आसपास के सभी मोहल्लों में खोये के लड्डू बँटवायेगी भले ही उसके हज़ारों रुपये ख़र्च हो जाएँ. बेटी रमा ने कमरे की सीढ़ियों के नीचे से गुहार लगायी - " माँ , कहाँ है आप ?मैं पास हो गई हूँ। आपकी मुराद पूरी हो गई है , मैं प्रथम आई हूँ , प्रथम। "
माँ ने सुना तो वह खुशी से उछल पड़ी। सीढ़ियों के ऊपर से ही बोली - फिर से बोल , मैंने अच्छी तरह से सूना नहीं है। "
" माँ , मैं प्रथम आई हूँ। " बेटी की आवाज़ कमरे में गूँज उठी। 
" मेरी आत्मा को खुश कर दिया है तूने। बलिहारी जाऊँ तुझ पर। "
बेटी को गले लगाने के लिए माँ खुशी में पागल हो कर नीचे उतरी। एक सीढ़ी पर उसका दाहिना पाँव फिसल गया। धड़ाम से वह नीचे आ गिरी। उसके माथे से ज़रा - ज़रा ख़ून बहना शुरु हो गया। 
डॉक्टर को बुलाने के लिए बेटी फोन की ओर लपकी। 
माँ ने रोक लिया। बाँहें फैला कर बोली - " पहले मेरे गले  से तो लग जा। ऐसी खुशी रोज़ - रोज़ कहाँ आती है ? "
माँ - बेटी गलबइयाँ हो गयीं। दोनों की पलकों पर खुशी के मोटे - मोटे मोती 
चमक उठे थे। 
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साख

एक निर्माणाधीन फिल्म को और रोमांचित बनाने के लिए निर्माता और निर्देशक को एक पहलवान की ज़रूरत पड़ गयी थी। यूनिट के सभी लोगों से विचार - विमर्श किया गया। देश के बड़े - बड़े पहलवानों के नाम सुझाये गए। हरियाणा के हट्टे - कट्टे पहलवान उदय सिंह को रोल के लिए निर्णय किया गया। निर्माता और निर्देशक तुरंत उदय सिंह के पास पहुँच गए। बातों - बातों में उन्होंने अपने आने का उद्देश्य बताया-" उदय सिंह जी , हमारी फिल्म में आपकी ज़रुरत है। आशा है , आप निराश नहीं करेंगे।"
- देखिये , मैंने अब तक किसी फिल्म में काम नहीं किया है। 
- हमारी फिल्म से काम करना शुरु कर दीजिये। 
- आपकी फिल्म में मुझे क्या करना है ?
- हीरो से बस कुश्ती करनी है। 
- हार - जीत का फैसला तो होगा ही ?
- जी , होगा। जीत हीरो की होगी। 
- मेरी हार दिखाएँगे आप ?
- खामोशी 
- देखिये , मैं अब तक देश - विदेश में हर बार जीता हूँ। आप मुझे हारा 
   हुआ दिखाना चाहते हैं ?
- हम आपकी हार के लिए दस लाख रुपये देंगे। 
- दस लाख रुपयों के लिए देश वासियों में बनी अपनी छवि बिगाड़ लूँ क्या ?
   जाइये ; जाइये , किसी और को ढूँढ़िये। 

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परिचय

प्राण शर्मा का जन्म १३ जून १९३७ को वजीराबाद (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली में. पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी). १९५५ से लेखन . फिल्मी गीत गाते-गाते गीत , कविताएं और ग़ज़ले कहनी शुरू कीं.

१९६५ से ब्रिटेन में.

१९६१ में भाषा विभाग, पटियाला द्वारा आयोजित टैगोर निबंध प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार. १९८२ में कादम्बिनी द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार. १९८६ में ईस्ट मिडलैंड आर्ट्स, लेस्टर द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार.

लेख - 'हिन्दी गज़ल बनाम उर्दू गज़ल" पुरवाई पत्रिका और अभिव्यक्ति वेबसाइट पर काफी सराहा गया. शीघ्र यह लेख पुस्तकाकार रूप में प्रकाश्य.

२००६ में हिन्दी समिति, लन्दन द्वारा सम्मानित.
"गज़ल कहता हूं' और 'सुराही' - दो काव्य संग्रह प्रकाशित.
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डॉ. किरण मिश्र की कविताएं

स्त्री-1
सारे दरवाजे बंद कर
घनघोर अँधेरे में बैठा वो
निराश हताश था
दरारों से जीवन ने प्रवेश किया
खोल दी खिड़की, जीवन की
वो स्त्री थी
जो रिक्त हुये में भरती रही उजाले
और बदल गई अँधेरे के जीवाश्म में
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स्त्री-2
टूटती जुड़ती स्त्री के बीच
बसी दुनियाँ में किसी ने 
हँसते हुए कहा स्त्री सिर्फ आंसू है
जबकि वो हँसी ले आया था
अपने बाहों में प्रेम की
किस्सों से आवाज आयी
स्त्री लालची है
स्त्री हैरान थी क्योंकि
उसने अपने अंश को जला
दी थी राजमहल को सुगंध चन्दन की
तभी शोर मचता है बेहया, बेशर्म
इतिहास में विचरण करती
पिता को दुग्धपान करा
उनकी जान बचाती
स्त्री को लोग दिखा रहे है
तोड़े गये समाज के  मुल्य
होकर परेशान
सारी सभ्यताओं को लांघ जाना चाहती है स्त्री
लेकिन हर बार सभ्यता रोकती है रास्ता
क्योंकि स्त्री आधा दिन और आधी रात है
जिसे दिन में सूरज सा जल कर
रात में रोपना है अपने स्त्री मन को
पुरुष के अन्दर
जिन्दा रखने सभ्यताओं को।
स्त्री सिर्फ रोपनी है।
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स्त्री-3
बादल उमड़ घुमड़ रहे है
खदेडी गई कौमों की स्त्रियां
इंतज़ार में है
अषाढ की उमस कुछ कम पड़े
सियासत की हवा कुछ नरम पड़े
तो नसों में धंसी वक्त की कीलों
को निकाल फेका जाए
वो जर्द चिनारों से
जो खौफ लेकर चली थी
वो खौफ भी उनके नहीं
आंसुओं से तर दर्द सूख गये
लेकिन लोरियों में घुले खून की महक
अभी तक गई नहीं
उनके रौंदे जिस्म महज़ब की कहानी कहते है
स्त्रियां भूल गई
रचना रचाना स्त्री का है
उसे बारूद के ढेर पर बैठाना पुरुष का काम है
स्त्री के लिए जमी कभी जन्नत न बनी
फिरदौस बरूह जमीनस्तो
जहाँगीर ने कहा था
नूरजहां कहां कह पायी थी ?
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स्त्री-4
तेदू पत्ता तुड़ान करते हुये एक दिन
मेरे ही धधकती जवानी से
ठेकेदार ने जब बीड़ी सुलगा ली तो
मैं नहीं बची
गुम हो मिल गई
दंडकारणय  की गुमनाम कहानियों में
लेकिन कहते है न
कुछ बचा रह जाता है
सो बची रही
नख भर उम्मीद  नख भर ताकत
उसी से ले हाथ में बगावत की विरासत
गांधी के न्यासिता के सिद्धांत को नकारा
लैण्ड माईन बिछाई लाल विचारों की
और कर दी घोषणा क्रांति की
उखाड़ फेका सत्ता, पुलिस, सेना को
हो कर खुश हवा में उठाया हांथ
मुठ्ठी बंद की और जोर से चिल्लाई
लाल सलाम
मैं आजाद थी
वर्ष बीते, बीते आजादी के ढंग
देख रही हूं हर तरफ
सिद्धांत परिभ्रमण का।
लोमड़ी जिसे मिली थी आजादी
बन के वो शेर शासक कहला रही है
अधोवस्त्र  फेक बीड़ी सुलगा रही है
मैं क्रांति की बात करने वाली
खुराक बन सत्ता की
कब की शेरों  के गले उतर चुकी हूं
मार्क्स तैयार है वर्ग संघर्ष के लिए
सलामी दे
हवा में हाथ लाल सलाम।

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तलाश
जीवन के खंड खंड से निकले शब्द
कविता बन उतरे कागजों पर
तो कभी मन के प्रान्तर में भटकते रहे
लेकिन एकांत अखंड ही रहा
आमंत्रण देता
संभावनाओं के पंख लगे
अब अधिष्ठाती हूँ मैं
फिर कोलाहल हुआ
'मैं' खंडित
तो कौन उपस्थित था
ऊर्जा
कैसी उर्जा
सम्बन्ध
कैसा सम्बन्ध
सारी ध्वनियाँ थरथरा कर
गुरुत्वाकर्षण का भेदन
नहीं करती
क्यों
कुछ नि:शेष है
शून्य से आगे
महाशुन्य की तलाश में
मैं।
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कैदी
मुझे एक कैदी में तब्दील कर
वो भागता है हर बार
नये नये स्वप्न तट की तरफ
ये देख दरिया हँसता है
और रोती है दीवारें
लग कर गले
बिछड़े दोस्त की तरह,
मेरे भीतर उसकी मौजूदगी
ढलता सूरज है
उगा भी तो
इस कदर तपा देगा
की हो जाउंगी पत्थर
सुना है होते है
सख्त पत्थर के इरादे।
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प्रेम
होना तो ये था
पाबंद बन जाने थे माथे पर
जलाना था दिया
जाना था तकिया पर
ये पूछने
दरिया में आग क्यों अमृत क्यों नहीं
शायद दो मैना दिख जाती
लेकिन झुकना न आया
फिर मारे पत्थर दिल पर
खौफ़ की चक्की चलाई
सोचा तो ये भी था
आब-ए-चश्म में नहा कर
पता चलेगा
दिल का जला क्या पता देगा
कुछ आंखो में
जुगनुओं की तरह टिमटिमाया
फिर गायब
खुदाई में मिला
आत्मा का पता नहीं
आम दस्तूर
आग के दरिया से पार नहीं पाया
राख का पंछी बन
भटक रहा है वीराने में
जहां न चुम्बकत्व है
न गंध है
न सूर्य
अब कफ़स में मैना
पैगाम आए तो कैसे।
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तकिया- फकीरों-दरवेशों का निवास-स्थान\
आब-ए-चश्म- आंसू
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परिचय

12  अक्टूबर,१९७९ को कानपुर में जन्म
डॉ किरण मिश्रा: प्राचार्या डिग्री कॉलेज कानपुर
लेख- दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण ,लोकसत्य, लोकमत, जनमत की पुकार(पत्रिका) ग्राम सन्देश ।
कविता- आह!जिन्दगी, अटूट बंधन, सौरभ दर्शन
अनेक शोध पत्र -राष्ट्रीय /अंतरष्ट्रीय शोध -पत्रिकाओं में प्रकाशित    
प्रकाशित पुस्तके: समाजशास्त्र;एक परिचय
प्रकाशन में- एक कर्मनिष्ट यति
पुरस्कार सम्मान: माटी साहित्य सम्मान(२०१३), सरस्वती सम्मान (२०१२) निरालाश्री पुरस्कार (२०१५) गगन स्वर पुरस्कार (2015)दिल्ली
रामप्रसाद बिस्मिल सम्मान (2017)दिल्ली

13,टेम्पल रोड भोगल, जंगपुरा,नई दिल्ली   पिन कोड-110014  
मो.-  +918700696816


4 टिप्‍पणियां:

lalitya lalit ने कहा…

प्राण शर्मा की लघु कथाएँ सुन्दर है और मर्मस्पर्शी भी।बधाई और शुभकामनाएं।

Devi Nangrani ने कहा…

Adarneey pransharma ji ne Ghazal ke baad laghukkatha ki abhivyakti par mahirta hasil ki hai. kahane ka andaaz, v sanvadon ki marmata laghukatha ko sajeev bana deti hai.
jaise Moh katha mein......upachaar mein....
Laghuta mein sampoorn katha ka anad milta hai.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

हकीकत से साक्षात्कार करती हुयी लघु कहानिया हैं आदरणीय प्राण जी की ... चुटीले संवाद और दूर की बात करती हुयी कहानियाँ हैं सभी ... बहुत बहुत बधाई प्राण जी को ...

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

प्राण शर्मा जी,
आपकी लघु कथाओं में समाज के कई रूपों का समावेश है. उपचार में अंधविश्वास के कारण पुत्र मारा जाता है, मुराद में लडकी होना किसी को गँवारा नहीं, आकाँक्षा में एक वृद्ध से विवाह. सभी लघु कथाएँ बेहतरीन हैं. शुभकामनाएँ.