शनिवार, 13 जुलाई 2019

वातायन-जुलाई,२०१९









कहानी
बस अब अंत

रूपसिंह चन्देल

दोनों देर से उठे. आठ बजे से पहले दोनों नहीं उठते. आते ही हैं रात ग्यारह बजे ऑफिस से. खाना वहीं  खा लेते हैं. बहु-राष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वाले अधिकांश की दिनचर्या यही है. बारह बजे ऑफिस पहुंचना और देर रात घर लौटना और देर से सोना. उठते ही कांचना किचन में जा पहुंचती है अपने और पुनीत के लिए चाय बनाने. उनसे नहीं पूछती. प्रारंभ में, जब ब्याहकर आयी थी, एक-दो बार पूछा था, और उन्होंने मना कर दिया था.  क्योंकि वह सात बजे तक अपने लिए ग्रीन टी बनाकर पी चुके होते थे. लेकिन कभी-कभी कांचना को चाय बनाता देख उनका मन करता कि उसे अपने लिए भी बनाने के लिए कहें, लेकिन चुप रहते यह सोचकर कि वह यह न कह दे कि “पापा इतनी जल्दी दूसरी चाय---? आप अपनी ग्रीन टी तो पी चुके हैं!” एक बार उन्होंने बेटे से कहा था कि वह कांचना को उनके लिए भी बनाने के लिए कह दे तब यही उत्तर उसने दिया था. 

सुबह चार बजे उठ जाने की उनकी आदत बहुत पुरानी है---युवा अवस्था से ही. हालांकि दोनों के ऑफिस से लौटने तक वह जागते रहते हैं. पत्नी थी तब वह जागती उनके लिए दरवाजा खोलने के लिए, लेकिन एक साल पहले उसके न रहने पर यह जिम्मेदारी उन पर आ पड़ी थी. जबकि सुबह जल्दी जागने के लिए पत्नी के रहते वह ठीक दस बजे बिस्तर पर चले जाते थे. चार बजे उठकर साढ़े चार बजे  सैर के लिए निकल जाया करते थे. सैर के बाद पार्क में कुछ समय बिताकर वह छः बजे घर लौटते. उनके लौटने के समय पत्नी जागती. कई बार उन्होंने उसे सलाह दी थी कि वह भी सुबह जल्दी उठ लिया करे और सैर के लिए जाया करे, लेकिन उसके पास एक ही बहाना था कि बेटा-बहू दफ्तर से देर से आते हैं और इसलिए वह देर से जागती है. वह नहीं जा सकती. उन्होंने समझाया था कि बढ़ती उम्र में बीमारियां जल्दी पकड़ती हैं. लेकिन वह अपनी बात पर अडिग रही थी. जब बेटा और बेटी छोटे थे उसके पास उनके स्कूल की तैयारी करने, उन्हें स्कूल भेजने और उनके दफ्तर जाने से पहले नाश्ता और लंच तैयार करने का बहाना था. वह कहते कि वह दिन में कुछ देर की झपकी ले लिया करे, और वह लेती, लेकिन उसने  सुबह की सैर या योग में कभी रुचि नहीं ली. और न केवल शुगर की मरीज बनी थायोराइड भी उसे जबर्दस्त हुआ और कई सालों तक बीमारी झेलते एक साल पहले---. लेकिन उसकी मृत्यु से पहले वह बेटी का विवाह कर चुके थे. अपनी बीमारी भूल अनीता बेटी के हाथ पीले करने की चिन्ता में डूबी रहती थी और उसीने निर्णय दिया था कि बड़ा होते हुए भी बेटी के विवाह के बाद ही बेटे की शादी करेगी वह और ऎसा ही हुआ. पुनीत के शादी के दूसरे माह ही उसने उनका साथ छोड़ दिया था. 

उस दिन सुबह की सैर से लौटने के बाद ग्रीन टी पीते हुए वह देर तक अनीता के विषय में सोचते रहे थे. उसके रहते वह कितना निश्चिंत थे. बच्चों से लेकर उनकी हर सुख-सुविधा की जिम्मेदारी उसने अपने सिर ले रखी थी. कहीं घूमने जाने के विषय में उसने एक-दो बार ही कहा और जब उन्होंने उसे समझाया कि बच्चों की जिम्मेदारी से मुक्त होकर और नौकरी से अवकाश लेने के बाद वह देशाटन ही करेंगे. उसने हंसकर कहा था, “बीमारी इतनी फुर्सत देगी तब न---!” और वह अंदर तक हिल उठे थे. 

शादी से पहले बेटा और बेटी दोनों ही नौकरी में आ गए थे---दोनों ही बहु राष्ट्रीय कंपनियों में. वह प्रसन्न थी. यह उसीकी इच्छा थी कि बहू भी नौकरीवाली लाएगी . “पढ़-लिखकर भी मैं कुछ नहीं कर सकी. घर से बंधी रही---.” अपनी इच्छा बेटी में तो पूरी देख ही रही थी, बहू में भी देखना चाहती थी.

अनीता को नौकरी न कर पाने का पश्चाताप था.  ऎसे समय वह उसे यह समझाकर सांत्वना देते कि उसके कारण ही बेटी और पुनीत आज उच्च शिक्षा पाकर ऊंचे पदों पर बड़ी कंपनियों में काम कर रहे हैं. जब वह नौकरीपेशा बहू लाने की बात करती तब वह सोच में पड़ जाते. तब वह कहती, “पुनीत के पापा, समय बदल गया है---मंहगाई और शौक---आज जब दोनों कमाएगें तभी समाज में सही जीवन जी सकेंगे.”

“लेकिन संतानों को कैसे संभालेंगे?” वह चिन्ता व्यक्त करते.

“बहुत-सी कंपनियों ने यह सुविधा दे रखी है. पुनीत के ऑफिस की ओर से क्रेच की सुविधा है---वहीं ऑफिस बिल्डिंग में. और सौ बात की एक बात मेरा समय और था. आज कोई भी पढ़ी-लिखी लड़की घर बैठना पसंद नहीं करेगी. और बैठे भी क्यों? पढ़ाई की है तो उसे अपने व्यक्तित्व के विकास के अवसर मिलने ही चाहिए. “
वह चुप रह जाते थे अनीता के तर्कों के सामने. लेकिन उसके जाने के बाद वह खोए से रहने लगे थे. पुनीत और कांचना एक-दो वाक्यों से अधिक उनसे बातें नहीं करते थे. सुबह जाते तब ’पापा जी, दरवाजा बंद कर लें’ और आते तब बेटा हर दिन  पूछता ,”अरे आप अभी तक सोए नहीं?” और वह चुप रह सोचते, ’कैसा मूर्खतापूर्ण प्रश्न. मैं सो जाता तब दरवाजा कौन खोलता और इसे पता है कि उन दोनों के आने की चिन्ता में वह सो भी नहीं सकते. आखिर पैंतालीस किलोमीटर की दूरी तय करके आते हैं वे गुरुग्राम से---दिल्ली की सड़कें--रात का समय---बेलगाम ट्रैफिक---उनकी जान उन दोनों पर अटकी रहती है.’ 

पहले इस दुश्चिन्ता को अनीता झेलती थी. अब वह. 

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वह बेटा और बहू की व्यस्तता समझते थे.  लेकिन विचित्र तब लगता जब शनिवार और रविवार वे दोनों दस बजे के लगभग सोकर उठते. सुबह दस बजे तक उन्हें नाश्ता चाहिए होता. अनीता नौ बजे नाश्ता डायनिंग मेज पर लगा दिया करती थी. जब वह नौकरी में थे तब और उसके बाद भी. लेकिन उसके जाने के बाद उन्हें अपने को बदलना पड़ा था. अब वह बेटा-बहू के दस बजे ऑफिस के लिए निकलने के बाद नाश्ता करते थे. कांचना उनके लिए नाश्ता और लंच बना देती. अपने और पति के लिए नाश्ता निकालकर अपने कमरे में चली जाती लेकिन न उनके लिए नाश्ता निकालकर डाइनिंग मेज पर रखती, जबकि सास को वैसा करते उसने देखा हुआ था, और न ही उन्हें नाश्ता करने के लिए कहती. दोनों के ऑफिस जाने के बाद दरवाजा बंद करके वह स्वयं नाश्ता निकालते और अपने लिए दूसरी चाय बनाते. शाम के भोजन के लिए दोनों ने मेड लगा देने के लिए पूछा था, लेकिन उन्होंने मना करते हुए कहा था, “तुम दोनों चिन्ता न करो. मैं खुद कुछ कर लिया करूंगा. और वह कभी दलिया तो कभी खिचड़ी पका लेने लगे थे. मेड सुबह नौ बजे आती थी बर्तन मांजने और झाड़ू-पोचा करने के लिए. 

वह अधिक से अधिक अपने को पढ़ने में खपाने लगे थे. दिन में कुछ समय के लिए टी.वी. देख लेते थे. सोसाइटी में किसी से परिचय नहीं बना पाए थे. यह स्वभाव ही नहीं था उनका. वास्तव में लोग जिस प्रकार की दुनियादारी की बातें करते वह उन्हें पसंद नहीं था. अधिकांश सरकारी कर्मचारी थे सोसाइटी में. सोसाइटी ही थी केन्द्रीय कर्मचारियों की. उन्होंने भी आवेदन किया और उन्हें भी नोएडा की उस सोसाइटी में एम.आई.जी. फ्लैट मिल गया था. सरकारी कर्मचारियों के पास दो ही विषय होते बातचीत के---मंहगाई भत्ता और राजनीति पर चर्चा. उनकी तरह अवकाश प्राप्त लोगों के पास एक और विषय होता---भारत सरकार द्वारा स्वास्थ्य के विषय में जारी किए गए आदेश---जो समय समय पर भारत सरकार जारी करती रहती है.  नौकरी में थे तब भी बाबुओं को इन्हीं सब बातों में गर्क देखते थे और हर दिन वही बातें सुनकर वह ऊब अनुभव करते और इसीलिए सोसाइटी में शिफ्ट होने के बाद भी उन्होंने किसी से जान-पहचान नहीं बनायी.

’पुस्तकों से अच्छा कोई मित्र नहीं’ वह सोचते, लेकिन कहीं कुछ ऎसा था जो दरक रहा था. कुछ था जो उन्हें उन पुस्तकों के अलावा परेशान करता.  एक इंसान कब तक मुंह बंद करके रह सकता है. सप्ताह के पांच दिनों में बेटा-बहू की ओर से संवाद के हर दिन केवल दो वाक्य और अवकाश के दिनों में भी कोई संवाद नहीं. उन दिनों तो दरवाजा बंद करने और खोलने की भी बात नहीं थी तो वे दो वाक्य सुनने के लिए उन्हें सोमवार का इंतजार करना होता. उन दिनों वह शाम को छः बजे के लगभग पार्क में चले जाते थे जहां बच्चों को खेलते देखते रहते. कभी पुनीत और बेटी को भी वह हर शनिवार और रविवार सुबह और शाम पार्क में ले जाया करते थे और उनके साथ बैडमिंटन खेला करते थे. कभी गेंद उछालते और तीनों उसे पकड़ने के लिए दौड़ा करते थे. अब वह सोसाइटी के बच्चों को खेलता देख उन दिनों को पुनः जीने का प्रयास करते. यादें---बहुत-सी यादें. गर्मी की छुट्टियों में वह दोनों बच्चों को पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने बनी दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी  ले जाते थे. बेटा आठवीं कर चुका और बेटी छठवीं जब वह पहली बार दोनों को लेकर गए थे. दोनों को पुस्तकालय की सदस्यता भी दिला दी थी उन्होंने. दोनों वहां के बाल विभाग में घण्टों व्यतीत करते. वह बड़ों के सेक्शन में अपनी मन पसंद पुस्तकें खोज लेते और बच्चों के चलने के लिए कहने तक पढ़ते और तीनों अपने लिए पुस्तकें इश्यू करवाकर लौटते.  चार-पांच बार बच्चों के साथ वह गए थे. उसके बाद दोनों स्वयं जाने लगे थे. 

दिल्ली का किराए का मकान छोड़ जब वह सोसाइटी के मकान में नोएडा गए दिल्ली पब्लिक पुस्तकालय की सदस्यता छोड़नी पड़ी थी. जब तक नौकरी में रहे केन्द्रीय सचिवालय पुस्तकालय के सदस्य रहे  और अब पुस्तकें खरीदनी पड़तीं. खरीदते पहले भी थे, लेकिन अब अधिक संख्या में खरीदते. जब तक पढ़ते सब भूले रहते, लेकिन कितना पढ़ सकते थे---दो घण्टे—चार घण्टे. उसके बाद---खाली समय खाने को दौड़ता. ’इंसान संवाद के बिना कब तक रह सकता है” वह प्रायः सोचने लगे थे. ’विकल्प क्या है?’ एक दिन उन्होंने सोचा था. ’विकल्प है.  मोहमुक्त होने और साहस दिखाने की आवश्यकता है.’ अंदर से आवाज उठी थी.
’तुम कभी मोह-मुक्त नहीं हो पाओगे. तुम्हारी तरह कितने ही हैं जो ऎसे ही जीने के लिए अभिशप्त हैं.’ दूसरी
आवाज थी. 

’बहुत से लोग हैं जिन्होंने ऎसी स्थितियों में आशियाना खोज लिया है. मुझे ठीक-ठाक पेंशन मिलती है. तुम चिन्ता न करो.’ 

’ओह!’ और उसदिन के बाद से वह निरंतर उसी विषय में सोचने लगे थे. 

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और आज. 

पुनीत कंधे पर बैग लटकाए हाथ में नाश्ते की प्लेट थामे डायनिंग रूम में आया. उसके आने के पांच-सात मिनट पहले ही अमेरिका से उनके एक मित्र का फोन आया था. वह मोबाइल पर उनसे बातों में मशगूल थे. पुनीत डायनिंग रूम  में,जो ड्राइंग रूम से सटा हुआ है, डाइनिंग मेज के इर्द-गिर्द उत्तेजित-सा चक्कर काटने लगा था. उन्होंने एक बार उसकी ओर देखा और बातों में व्यस्त हो गए थे. पुनीत प्लेट थामे हुए ही अपने कमरे की ओर गया पैर पटकता हुआ. उन्होंने उसे उधर जाते देखा और घड़ी की ओर देखा. दस बज चुके थे. पुनीत उसी प्रकार पैर पटकता किचन में गया और नाश्ता की प्लेट जोर से सिंक में पटकी और पैर पटकता फिर डायनिंग मेज के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा. बातें करते हुए उन्होंने पुनः एक नज़र बेटे पर डाली. उसके चेहरे पर तनाव था और चेहरा लाल हो रहा था. उन्होंने अस्पष्ट-सी फुंकारने की सी आवाज भी उसकी नाक से निकलती अनुभव की. लेकिन लगभग एक साल बाद वह मित्र से बातें कर रहे थे, जो बी.ए. में उनका सहपाठी रहा था और इनकम टैक्स विभाग से बड़े पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद न्यू जर्सी में अपने बेटा के पास रह रहा था. वह वहां की अपनी समस्याएं बता रहा था. उसकी समस्या उनसे भिन्न न थी और इसीलिए वह बातचीत में अधिक ही डूबे हुए थे. तभी उन्हें बेटे की चीखने की आवाज सुनाई दी थी.
“यह क्या ढंग है कि हमारे जाने के समय अक्सर आप फोन पर बातें करने लगते हैं”.

बेटे के चीखने की आवाज से वह सकते में आ गए . मशीनी गति से हाथ ने मोबाइल को कान से दूर किया लेकिन तब भी उन्होंने उधर से मित्र की आवाज सुन ली थी, “क्या हुआ? यह आवाज कैसी थी?” लेकिन उन्होंने झटके से फोन बंद कर दिया और अचकचाकर इसप्रकार उठ खड़े हुए मानो कोई अपराध करते हुए पकड़े गए थे. तभी अपने कमरे से परफ्यूम उड़ाती कंधे पर लैप-टॉप का बैग लटकाए और हाथ में लच बैग थामे कांचना प्रकट हुई और “क्यों चीख रहे थे?” पति से बोली, “सॉरी, आज दस मिनट लेट हो गए---कोई नहीं—“ और वह दरवाजे की ओर लपकी. पुनीत भी उनकी ओर बिना देखे और बिना ’दरवाजा बंद कर लें पापा जी’ कहे दरवाजा खोल बाहर गैलरी में निकल गया था.
वह देर तक उसी स्थिति में खड़े रहे थे. उनका दिमाग उड़ रहा था.


’बस अब अंत.’ उन्होंने दृढ़तापूर्वक सोचा और अपने कमरे की ओर बढ़ गए  अपना सामान समेटने के लिए.
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