मंगलवार, 1 जनवरी 2008

वातायन- जनवरी 2008


"वातायन" की ओर से नव वर्ष की शुभकामनाएं !


हम और हमारा समय
आज हम अर्थवादी समय में जी रहे है। बाजारवाद भयावह रूप से हावी है। निश्चित रूप से बाजार से साधारण व्यक्ति अधिक प्रभावित हो रहा है। सेज के नाम पर किसानों को उजाड़ने के षडयंत्र हो रहे हैं। हम एक अघोषित पूंजीवाद की ओर अग्रसर हैं। यह दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है । अर्थवाद ने पारिवारिक जीवन को तहस-नहस कर दिया है। बुजुर्ग परिवार में ही उपेक्षा का शिकार हो रहे हैं। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि वृद्ध माँ-पिता की देखभाल के लिए अदालत को निर्देश देने पड़ रहे हैं।

हम और हमारा समय ‘ में प्रस्तुत हैं ऐसी ही स्थितियों को व्याख्यायित करती कथाकार सुभाष नीरव की दो लघु कहानियाँ। लघुकथा को लघुकहानी कहना अधिक तर्कसंगत है। ‘कथा‘ एक व्यापक शब्द है। यह कथा-साहित्य की समस्त विधाओं को ध्वनित करता है। अंग्रेजी में ‘शार्ट स्टोरी’ जब हिन्दी में कहानी के रूप में पहचानी जाती है तब उससे छोटी कहानी ‘लघु कहानी‘ ही कही जानी चाहिए। आशा है इस दिशा में सक्रिय रचनाकार मेरे तर्क से सहमत होगें। हिंदी में जो कहानीकार इस तरह की रचनाएं लिख रहे हैं, उन्हें तो कम से कम इन्हें “लघु कहानी” ही कहना चाहिए।

सुभाष नीरव की दो लघु कहानियाँ
मकड़ी


अधिक बरस नहीं बीते जब बाजार ने खुद चलकर उसके द्वार पर दस्तक दी थी। चकाचौंध से भरपूर लुभावने बाजार को देखकर वह दंग रह गया था। अवश्य बाजार को कोई गलत-फहमी हुई होगी, जो वह गलत जगह पर आ गया – उसने सोचा था। उसने बाजार को समझाने की कोशिश की थी कि यह कोई रुपये-पैसे वाले अमीर व्यक्ति का घर नहीं, बल्कि एक गरीब बाबू का घर है, जहां हर महीने बंधी-बधाई तनख्वाह आती है और बमुश्किल पूरा महीना खींच पाती है। इस पर बाजार ने हँसकर कहा था, “आप अपने आप को इतना हीन क्यों समझते हैं? इस बाजार पर जितना रुपये-पैसों वाले अमीर लोगों का हक है, उतना ही आपका भी? हम जो आपके लिए लाए हैं, उससे अमीर-गरीब का फर्क ही खत्म हो जाएगा।" बाजार ने जिस मोहित कर देने वाली मुस्कान में बात की थी, उसका असर इतनी तेजी से हुआ था कि वह बाजार की गिरफ्त में आने से स्वयं को बचा न सका था।
अब उसकी जेब में सुनहरी कार्ड रहने लगा था। अकेले में उसे देख-देखकर वह मुग्ध होता रहता। धीरे-धीरे उसमें आत्म-विश्वास पैदा हुआ। जिन वातानुकूलित चमचमाती दुकानों में घुसने का उसके अन्दर साहस नहीं होता था, वह उनमें गर्दन ऊँची करके जाने लगा।
धीरे-धीरे घर का नक्शा बदलने लगा। सोफा, फ्रिज, रंगीन टी.वी., वाशिंग-मशीन आदि घर की शोभा बढ़ाने लगे। आस-पड़ोस और रिश्तेदारों में रुतबा बढ़ गया। घर में फोन की घंटियाँ बजने लगीं। हाथ में मोबाइल आ गया। कुछ ही समय बाद बाजार फिर उसके द्वार पर था। इस बार बाजार पहले से अधिक लुभावने रूप में था। मुफ्त कार्ड, अधिक लिमिट, साथ में बीमा दो लाख का। जब चाहे वक्त-बेवक्त जरूरत पड़ने पर ए.टी.एम. से कैश। किसी महाजन, दोस्त-यार, रिश्तेदार के आगे हाथ फैलाने की जरूरत नहीं।
इसी बीच पत्नी भंयकर रूप से बीमार पड़ गई थी। डॉक्टर ने आपरेशन की सलाह दी थी और दस हजार का खर्चा बता दिया था। इतने रूपये कहां थे उसके पास? बंधे-बंधाये वेतन में से बमुश्किल गुजारा होता था। और अब तो बिलों का भुगतान भी हर माह करना पड़ता था। पर इलाज तो करवाना था। उसे चिंता सताने लगी थी। कैसे होगा? तभी, जेब मे रखे कार्ड उछलने लगे थे, जैसे कह रहे हों– “हम है न !” धन्य हो इस बाजार का! न किसी के पीछे मारे-मारे घूमने की जरूरत, न गिड़गिड़ाने की। ए.टी.एम.से रूपया निकलवाकर उसने पत्नी का आपरेशन कराया था।
लेकिन, कुछ बरस पहले बहुत लुभावना लगने वाला बाजार अब उसे भयभीत करने लगा था। हर माह आने वाले बिलों का न्यूनतम चुकाने में ही उसकी आधी तनख्वाह खत्म हो जाती थी। इधर बच्चे बड़े हो रहे थे, उनकी पढाई का खर्च बढ़ रहा था। हारी-बीमारी अलग थी। कोई चारा न देख, आफिस के बाद वह दो घंटे पार्ट टाइम करने लगा। पर इससे अधिक राहत न मिली। बिलों का न्यूनतम ही वह अदा कर पाता था। बकाया रकम और उस पर लगने वाले ब्याज ने उसका मानसिक चैन छीन लिया था। उसकी नींद गायब कर दी थी। रात में, बमुश्किल आँख लगती तो सपने में जाले-ही-जाले दिखाई देते जिनमें वह खुद को बुरी तरह फंसा हुआ पाता।
छुट्टी का दिन था और वह घर पर था। डोर-बेल बजी तो उसने उठकर दरवाजा खोला। एक सुन्दर-सी बाला फिर उसके सामने खड़ी थी, मोहक मुस्कान बिखेरती। उसने फटाक-से दरवाजा बन्द कर दिया। उसकी सांसे तेज हो गई थीं जैसे बाहर कोई भयानक चीज देख ली हो। पत्नी ने पूछा, “क्या बात है? इतना घबरा क्यों गये? बाहर कौन है?”
“मकड़ी !” कहकर वह माथे का पसीना पोंछने लगा।


तिड़के घड़े

“सुनो जी, बाऊजी से कहो, लैट्रिन में पानी अच्छी तरह डाला करें। भंगन की तरह मुझे रोज साफ करनी पड़ती है।"
गुड़ुप!

“बाऊजी, देखता हूँ, आप हर समय बैठक में ही पड़े रहते हैं। कभी दूसरे कमरे में भी बैठ जाया करें। इधर कभी कोई यार-दोस्त भी आ जाता है मिलने।"
गुड़ुप!

“बाऊजी, आप तो नहाते समय कितना पानी बर्बाद करते हैं। सारा बाथरूम गीला कर देते है। पता भी है, पानी की कितनी किल्लत है।"

“अम्मा, हर समय बाऊजी के साथ क्यों चिपकी रहती हो। थोड़ा मेरा हाथ भी बटा दिया करो। सुबह-शाम खटती रहती हूँ, यह नहीं कि दो बर्तन ही मांज-धो दें।"
गुड़ुप! गुड़ुप!

“बाऊजी, यह क्या उठा लाए सड़ी-गली सब्जी! एक काम कहा था आपसे, वह भी नहीं हुआ। नहीं होता तो मना कर देते, पैसे तो बर्बाद न होते।"
गुड़ुप!

“अम्मा, आपको भी बाऊजी की तरह कम दीखने लगा है। ये बर्तन धुले, न धुले बरबार हैं। जब दुबारा मुझे ही धोने हैं तो क्या फायदा आपसे काम करा कर। आप तो जाइए बैठिये बाऊजी के पास।"
गुड़ुप!

दिनभर शब्दों के अनेक कंकर-पत्थर बूढ़ा-बूढ़ी के मनों के शान्त और स्थिर पानियों में गिरते रहते हैं। गुड़ुप-सी आवाज होती है। कुछ देर बेचैनी की लहरे उठती हैं और फिर शान्त हो जाती हैं।

रोज की तरह रात का खाना खाकर, टी वी पर अपना मनपसंद सीरियल देखकर बहू-बेटा और बच्चे अपने-अपने कमरे में चले गये हैं और कूलर चलाकर बत्ती बुझाकर अपने-अपने बिस्तर पर जा लेटे हैं। पर इधर न बूढ़े की आँखों में नींद है, बूढ़ी की। पंखा भी गरम हवा फेंक रहा है।
“आपने आज दवाई नहीं खाई?”
“नहीं, वह तो दो दिन से खत्म है। राकेश से कहा तो था, शायद, याद नहीं रहा होगा।"
“क्या बात है, अपनी बांह क्यों दबा रही हो?”
“कई दिन से दर्द रहता है।"
“लाओ, आयोडेक्स मल दूँ।"
“नहीं रहने दो।"
“नहीं, लेकर आओ। मैं मल देता हूँ, आराम आ जाएगा।"
“आयोडेक्स, उधर बेटे के कमरे में रखी है। वे सो गये हैं। रहने दीजिए।"
“ये बहू-बेटा हमें दिन भर कोंचते क्यों रहते हैं?” बूढ़ी का स्वर धीमा और रुआंसा-सा था।
“तुम दिल पर क्यों लगाती हो। कहने दिया करो जो कहते हैं। हम तो अब तिड़के घड़े का पानी ठहरे। आज हैं, कल नहीं रहेगें। फेंकने दो कंकर-पत्थर। जो दिन कट जाएं, अच्छा है।"

तभी, दूसरे कमरे से एक पत्थर उछला।
“अब रात में कौन-सी रामायण बांची जा रही है बत्ती जलाकर। रात इत्ती-इत्ती देर तलक बत्ती जलेगी तो बिल ज्यादा तो आएगा ही।"
गुड़ुप!

लेखक संपर्क :
248, टाइप-3, सेक्टर-3
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09810534373(मोवाइल)
ई-मेल :subhneerav@gmail.com

2 टिप्‍पणियां:

मीनाक्षी ने कहा…

दोनो कहानियों में जीवन की कड़वी सच्चाइयाँ हैं लेकिन तिड़के घड़ों की व्यथा ने तो दिल ही तोड़ दिया.. दिल को गहरे तक छू गई.

Devi Nangrani ने कहा…

Dard sabka saanjha hota hai par phir bhi yeh jub umadkar chiliyaan maarta hai to har dil ke tat ko choota hi chala jaata hai. bus jis mahirta se kalam ne is praseev peeda ki angdaaion ko darshaya hai wah kabile tareef hain.

ek se badkar ek kahani bahut hi achi lagi. kash uska koi defination hota to pahchaan aasaan ho jaati.