
हम और हमारा समय
हिन्दी साहित्य में दूसरों को पढ़ने की परम्परा कम अपने लिखे को पढ़वाने की आकांक्षा अधिक देखने में आती है. प्रायः देखने में आता है कि आलोचक (अपवादस्वरूप कुछ को छोड़कर ) दूसरों के पढ़े से काम चला लेते हैं. यही कारण है कि किसी लेखक की लगातार उन्हीं कहानियों की चर्चा करते रहते हैं जिनकी चर्चा किन्ही कारणों से हो चुकी होती है , भले ही लेखक ने उससे भी अच्छी कहानी/ उपन्यास बाद में लिखा हो. ये उन्हीं कुछ लेखकों के नामों का पिष्टपेषण करते रहते हैं जिनके नाम उनके सामने परोस दिए जाते हैं. यही कारण है कि लेखकों का एक बड़ा वर्ग इनके लिए अछूत बना रहता है. जबकि हकीकत यह है कि वही अछूत वर्ग अच्छा और लंबे समय तक साहित्य के मैदान में टिका रहता है, क्योंकि दूसरों की बैसाखियों के सहारे लंबी यात्रा नहीं की जा सकती .
और पुरस्कार ---- उनकी स्थिति हिन्दी में जितनी दुर्भाग्यपूर्ण है उतनी शायद किसी अन्य भाषा में नहीं है. पुरस्कारों के लिए साहित्यकार बेशर्मी की किसी भी हद तक जा सकने के लिए तैयार रहते हैं. तंत्र- मंत्र और षडयंत्र करते हैं और संस्थाएं और उससे जुड़े पदाधिकारियों के विषय में क्या कहा जाये. शायद वे जुगाड़ के सामने नतमस्तक हो जाने के लिए विवश हो जाते हैं या उनका अपना विवेक ही नहीं होता . कम से कम ’केन्द्रीय साहित्य अकादमी’ का उदाहरण तो दिया ही जा सकता है जहां किसी नोवोदित/नवोदिता की पहली कृति को पुरस्कार से नवाज दिया जाता है जबकि कितने ही वरिष्ठ लेखकों की सुध तक नहीं ली जाती. ’कुरु-कुरु स्वाहा’ , तथा ’कसप’ जैसे कालजयी उपन्यास लिखने वाले मनोहरश्याम जोशी की याद अकादमी को उनकी मृत्यु से पहले आयी. और यदि बात ’हिन्दी अकादमी’, दिल्ली की करें तो कृष्ण बलदेव वैद जैसे वरिष्टतम लेखक की औकात वह साहित्यकार पुरस्कार (इक्कीस हजार) से अधिक आंकने को तैयार नहीं, जबकि कितने ही लल्लू लाल और जगधर लालों को यह पुरस्कार उसने अंधे की रेवड़ी की भांति बांटा . वैद जी की प्रशंसा करनी चाहिए जिन्होंने इस अति विवादित पुरस्कार को लौटाने में कोई संकोच नहीं किया . कश्मीर प्रसंग पर अरुधंती राय का मैं विरोधी हूं लेकिन उन्होंने भी साहित्य अकादमी पुरस्कार लेने से इंकार करके स्तुत्य कार्य किया था.
वातायन के जून अंक में प्रस्तुत है स्व. हजारी प्रसाद द्विवेदी पर युवा कवि राधेश्याम तिवारी का आलेख -’आकाशधर्मी गुरु की परम्परा’, वरिष्ठ चित्रकार और साहित्यकार हरिपाल त्यागी की दो कविताएं और युवा कथाकार और कवियत्री इला प्रसाद की कहानी -’बैसाखियां’.
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आलेख
(आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी : १९ मई, पुण्य तिथि पर विशेष )
आकाशधर्मी गुरु की परम्परा
राधेश्यम तिवारी
डॉ. नामवर सिंह की पुस्तक, ’दूसरी परम्परा की खोज’ मैंने दो बार पढ़ी . पहली बार तब जब मैं इंटर में था और दूसरी बार करीब उसके आठ वर्षों बाद. इसे पढ़ते हुए ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य को पढ़ने की ललक पैदा हुई थी. उसी क्रम में पहले ’चारु चन्द्रलेख’ एवं ’बाणभट्ट की आत्मकथा’ उपन्यास पढ़े . बाद में ’कबीर’ एवम ’सूर साहित्य’ पढ़ा तो एक पाठक के रूप में द्विवेदी जी से और गहरे जुड़ा. उस समय यह भी लगा था कि एक लेखक से जुड़ने के लिए उससे दैहिक रूप से मिलना जरूरी
नहीं है. बल्कि बिना मिले जुड़ना अधिक सुखकर होता है, क्योंकि तब जुड़ने का एक मात्र माध्यम लेखक का साहित्य होता है. दैहिक रूप से मिलने के बाद कई बार बनी-बनाई धारणाएं खंडित होती हैं. ऎसा इसलिए होता है कि लेखकों को हम उसी रूप में देखना चाहते हैं जैसा उनका लेखन होता है. लेकिन दुर्भाग्य से हिन्दी में ऎसा साम्य कम ही लेखकों में देखने को मिलता है. ’दूसरी परम्परा की खोज’ ने द्विवेदी जी के साहित्य से मुझे जोड़ा इसके लिए इस कृति का मैं रिणी हूं. हिन्दी में इसी तरह की एक दूसरी पुस्तक है जिसने मुझे शरदचंद्र के साहित्य से जोड़ा. वह है विष्णु प्रभाकर का ’आवारा मसीहा’ . लेकिन एक पाठक के रूप में द्विवेदी जी की आलोचना पुस्तक एवम निबंधों ने मुझे ज्यादा प्रभावित किया. हांलाकि इसका यह अर्थ नहीं कि उनके उपन्यास किसी भी दृष्टि से कमतर हैं. सच तो यह है कि यह किसी भी पाठक की रुचि पर भी निर्भर करता है कि उसके अध्ययन की दुनिया क्या है. आचार्य द्विवेदी की आलोचना पुस्तक- ’हिन्दी साहित्य की भूमिका’, ’हिन्दी साहित्य: उद्भव और विकास’, ’मेघदूत: एक पुरानी कहानी’, ’सूर साहित्य’, ’कबीर, कालिदास की लालित्य योजना’, ’मध्यकालीन बोध का स्वरूप,’ ’मृत्युंजय रवींद्र’ आदि ने मुझे गहरे प्रभावित किया. उनके निबंधों में आलोक पर्व, कल्पलता, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, देवदास , कुटज, अशोक के फूल आदि को पढ़ते हुए अक्सर ऎसा लगा कि द्विवेदी जी के निबंधों को प्रत्येक रचनाकारों को अवश्य पढ़ना चाहिए. उनके निबंधों से विषय की गहराई और भाषा का संस्कार तो मिलता है, जिसकी तुलना हम कम से कम हिन्दी के किसी दूसरे निबंधकार से नहीं कर सकते.
’दूसरी परम्परा की खोज’ पढ़ी तो एक बात अनायास ही मन में आयी. वह भी तब जब नामवर जी ने निराला से आचार्य द्विवेदी जी की तुलना करते हुए लिखा है - "द्विवेदी जी और निराला
में अद्भुत समानता है. निराला के बारे में जैसा कि कहा गया है, बंगाल के सांस्कृतिक जागरण से प्रेरणा लेते हुए भी निराला अपने जनपद के लोक जीवन से बहुत गहराई तक सम्बद्ध थे. और उनके जीवन और साहित्य के बहुत से क्रान्तिकारी श्रोत इस लोक जीवन से ही फूटे थे. इसी प्रकार द्विवेदी जी के जीवन और साहित्य का क्रांतिकारी श्रोत स्वयं उनके अपने जनपद बलिया का लोक जीवन है. असल पूंजी यही है . शांति निकेतन ने इसे सिर्फ संस्कार दिया." अर्थात निराला एवं आचार्य द्विवेदी की जड़ें अपनी जमीन से गहरे जुड़ी रहीं. जिस लेखक के जीवन में इस तरह अपनी जमीन और समाज से जुड़ाव नहीं होगा वह आखिर कैसा लेखन करेगा. वह भले ही यह भ्रम पालता फिरे कि उसका लेखक इतना महान है कि सामान्य जन की पहुंच से परे है. उसका संबन्ध किसी खास जगह से न होकर वैश्विक है. पूरे विश्व का बोझ उठाने वाले ऎसे कवि-लेखक बहुत दिनों बाद यह समझ पाते हैं कि उनके पांव के नीचे कोई जमीन नहीं है. सच्चाई तो यह है कि जो लेखक-कवि अपने समाज के प्रति कृतज्ञ नहीं होता वह विश्व के प्रति क्या होगा. निराला और आचार्य द्विवेदी अपनी जमीन के रचनाकार थे. इसीलिए वे बार-बार अपने जनपद में लौटते रहे उन्हें अपनी संस्कृति के उस पक्ष की तलाश थी जिसे कुछ परम्परावादी लोग एक खास वर्ग की पूंजी मान बैठे थे. यानी परम्परा की लाश ढो रहे थे. निराला और आचार्य द्विवेदी ने यह तलाश की कि परम्परा सिर्फ वही नहीं है कि जिसे अब तक लाश की तरह ढोया जाता रहा. वह इससे अलग भी है और वह है मनुष्य की मुक्ति की परम्परा . यानी हमारी परम्परा हमें घेरती नहीं बल्कि हमें मुक्त करती है. इस संबंध में डॉ. नामवर सिंह ’दूसरी परम्परा की खोज’ की भूमिका में लिखते हैं -- "वे आकाशधर्मी गुरु थे. हर पौधे को बढ़ने के लिए उन्मुक्तता देने के विश्वासी. यह उन्मुक्तता ही उनकी परम्परा का मूल स्वर है. लेकिन यह उन्मुक्तता जितनी सहज दिखती है उसे समझ पाना उतना सहज नहीं है." द्विवेदी जी ने इस परम्परा की खोज अपनी ही जमीन से की है. इसके लिए उन्हें कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी.
इस संदर्भ में एक बात और जो चकित करती है वह यह कि हिन्दी के दो शीर्ष आलोचक डॉ. राम विलाश शर्मा एवं डॉ. नामवर सिंह ने जिन लेखकों पर सर्वाधिक गंभीरता से काम किया है उनमें निराला और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं. दोनों ही आलोचक घोषित रूप से मार्क्सवादी आलोचक हैं. जबकि इनके आदर्श निराला और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कभी भी यह घोषणा नहीं की कि वे किसी वाद से जुड़े हैं. फिर भी इनके प्रति इन आलोचकों के जुड़ाव में कोई कमी नहीं रही. डॉ. नामवर सिंह ने लिखा है -- "यह बात तब की है जब १९५० में वे (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी) शांतिनिकेतन से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राचार्य होकर आए और एम.ए. अंतिम वर्ष के छात्र के रूप में मुझे उनके चरणों में बठकर कुछ सीखने का सभाग्य प्राप्त हुआ."
गुरु के चरणॊं में सीखने का यह जो विनम्र भाव है वह कबीर के यहां भी मौजूद है. कबीर तो गुरु को कुछ मामलों में गोविन्द से भी बड़ा मानते हैं. क्योंकि गोविन्द तक पहुंचने का रास्ता गुरु ही बताता है. नामवर जी को गोविन्द की जरूरत नहीं थी, क्योंकि वे मार्क्सवादी हैं .वह ऎसे गुरु के पक्षधर हैं जो ज्ञान के स्तर पर चेतना सम्पन्न हों. आचार्य द्विवेदी वैसे ही गुरु थे.
ऎसे आकाशधर्मी गुरु के प्रति यह कृतज्ञ भाव हमें मनुष्यता के करीब लाता है साथ इससे यह भी बोध होता है कि हमारी परम्परा में मार्क्स से बहुत पहले प्रगतिशील विचार जन्म ले चुका था. जहां से आचार्य द्विवेदी एवम निराला को रचनात्मक ऊर्जा मिलती रही. इसके लिए उन्हें कहीं बाहर झांकने की जरूरत नहीं पड़ी. जीवन के प्रति आस्था और प्रगतिशीलता उनके रक्त में था. उनकी आधुनिक दृष्टि एवं प्रगतिशीलता दिखावटी नहीं थी. नामवर जी लिखते हैं -- "आधुनिकता भी उनके लिए एक नया फैशन नहीं, बल्कि भावबोध के स्तर की वस्तु है." सच तो यह है कि आज ऎसे ही गुरुओं से कुछ सीखने की जरूरत है . ऎसे गुरुओं के साथ जुड़कर ही मुक्ति का मार्ग तलाशा जा सकता है. इनके साथ बंध कर रहना बंधन नहीं मुक्ति है. इस संदर्भ में मुझे अपनी ही कविता की कुछ पंक्तियां याद आती हैं :
’’ऊंचे आकाश में
कुलांचे भरती पतंगें,
सोचती हैं खुद पर
यह बंधन भी, कितना अजीब है
कि दूर-दूर तक लिए फिरता है."
*****
(आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी : १९ मई, पुण्य तिथि पर विशेष )
आकाशधर्मी गुरु की परम्परा
राधेश्यम तिवारी
डॉ. नामवर सिंह की पुस्तक, ’दूसरी परम्परा की खोज’ मैंने दो बार पढ़ी . पहली बार तब जब मैं इंटर में था और दूसरी बार करीब उसके आठ वर्षों बाद. इसे पढ़ते हुए ही आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साहित्य को पढ़ने की ललक पैदा हुई थी. उसी क्रम में पहले ’चारु चन्द्रलेख’ एवं ’बाणभट्ट की आत्मकथा’ उपन्यास पढ़े . बाद में ’कबीर’ एवम ’सूर साहित्य’ पढ़ा तो एक पाठक के रूप में द्विवेदी जी से और गहरे जुड़ा. उस समय यह भी लगा था कि एक लेखक से जुड़ने के लिए उससे दैहिक रूप से मिलना जरूरी

’दूसरी परम्परा की खोज’ पढ़ी तो एक बात अनायास ही मन में आयी. वह भी तब जब नामवर जी ने निराला से आचार्य द्विवेदी जी की तुलना करते हुए लिखा है - "द्विवेदी जी और निराला

इस संदर्भ में एक बात और जो चकित करती है वह यह कि हिन्दी के दो शीर्ष आलोचक डॉ. राम विलाश शर्मा एवं डॉ. नामवर सिंह ने जिन लेखकों पर सर्वाधिक गंभीरता से काम किया है उनमें निराला और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं. दोनों ही आलोचक घोषित रूप से मार्क्सवादी आलोचक हैं. जबकि इनके आदर्श निराला और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कभी भी यह घोषणा नहीं की कि वे किसी वाद से जुड़े हैं. फिर भी इनके प्रति इन आलोचकों के जुड़ाव में कोई कमी नहीं रही. डॉ. नामवर सिंह ने लिखा है -- "यह बात तब की है जब १९५० में वे (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी) शांतिनिकेतन से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राचार्य होकर आए और एम.ए. अंतिम वर्ष के छात्र के रूप में मुझे उनके चरणों में बठकर कुछ सीखने का सभाग्य प्राप्त हुआ."
गुरु के चरणॊं में सीखने का यह जो विनम्र भाव है वह कबीर के यहां भी मौजूद है. कबीर तो गुरु को कुछ मामलों में गोविन्द से भी बड़ा मानते हैं. क्योंकि गोविन्द तक पहुंचने का रास्ता गुरु ही बताता है. नामवर जी को गोविन्द की जरूरत नहीं थी, क्योंकि वे मार्क्सवादी हैं .वह ऎसे गुरु के पक्षधर हैं जो ज्ञान के स्तर पर चेतना सम्पन्न हों. आचार्य द्विवेदी वैसे ही गुरु थे.
ऎसे आकाशधर्मी गुरु के प्रति यह कृतज्ञ भाव हमें मनुष्यता के करीब लाता है साथ इससे यह भी बोध होता है कि हमारी परम्परा में मार्क्स से बहुत पहले प्रगतिशील विचार जन्म ले चुका था. जहां से आचार्य द्विवेदी एवम निराला को रचनात्मक ऊर्जा मिलती रही. इसके लिए उन्हें कहीं बाहर झांकने की जरूरत नहीं पड़ी. जीवन के प्रति आस्था और प्रगतिशीलता उनके रक्त में था. उनकी आधुनिक दृष्टि एवं प्रगतिशीलता दिखावटी नहीं थी. नामवर जी लिखते हैं -- "आधुनिकता भी उनके लिए एक नया फैशन नहीं, बल्कि भावबोध के स्तर की वस्तु है." सच तो यह है कि आज ऎसे ही गुरुओं से कुछ सीखने की जरूरत है . ऎसे गुरुओं के साथ जुड़कर ही मुक्ति का मार्ग तलाशा जा सकता है. इनके साथ बंध कर रहना बंधन नहीं मुक्ति है. इस संदर्भ में मुझे अपनी ही कविता की कुछ पंक्तियां याद आती हैं :
’’ऊंचे आकाश में
कुलांचे भरती पतंगें,
सोचती हैं खुद पर
यह बंधन भी, कितना अजीब है
कि दूर-दूर तक लिए फिरता है."
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युवा कवि-पत्रकार राधेश्याम तिवारी का जन्म देवरिया जनपद (उत्तर प्रदेश) के ग्राम परसौनी में मजदूर
दिवस अर्थात १ मई, १९६३ को हुआ।अब तक दो कविता संग्रह - 'सागर प्रश्न' और 'बारिश के बाद' प्रकाशित. हिन्दी की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।सम्पादन - 'पृथ्वी के पक्ष में' (प्रकृति से जुड़ी हिन्दी कविताएं)पुरस्कार : राष्ट्रीय अज्ञेय शिखर सम्मान एवं नई धारा साहित्य सम्मान.

संपर्क : एफ-119/1, फ़ेज -2,अंकुर एनक्लेवकरावल नगर,दिल्ली-110094
मो० न० – 09350135756