रविवार, 7 मार्च 2010

वातायन - मार्च, २०१०



हम और हमारा समय

कब होगा इस गुलामी का अंत !

रूपसिंह चन्देल
उसने एक स्वप्न देखा और पूरा होने पर उसके ध्वस्त होने की पीड़ा भी झेली थी . अपने स्वप्न को पूरा करने के लिए उसने वह सब कुछ किया जो आवश्यक था. जल्दी सुबह जब उसकी उम्र के युवक गहरी नींद में होते वह बंबे (नहर) की पटरी पर दौड़ रहा होता. लौट कर रात भिगोये चनों के साथ दूध लेता और निश्चित समय पर साइकिल पर बस्ता लटका कॉलेज के लिए निकल लेता. शाम कॉलेज से लौट कसरत और पढ़ाई----दो वर्षों तक अर्थात इण्टर के दोनों वर्षों के दौरान ---उसने घरवालों से काम की छूट ले ली थी और पूरी तरह अपने स्वप्न को साकार करने में जुट गया था. दो वर्षों की कड़ी मेहनत से उसका शरीर खिल उठा था. इंटर में भी उसने अच्छे अंक पाये और एक दिन वह जा पहुंचा था लखनऊ. उसे सफलता मिली और वह एक सैनिक के रूप में भारतीय सेना के लिए चुना गया. लेकिन देश की रक्षा के लिए कुछ कर गुजरने का उसका स्वप्न कुछ समय बाद ही ध्वस्त हो गया, जब उसे एक अधिकारी की सेवा में तैनात किया गया.
उसकी बाद की कहानी उन हजारों जवानों की कहानी है जिन्हें छोटे से लेकर उच्च अधिकारियों तक की सेवा में उनके सहायक के रूप में उनके कपड़े प्रेस करने से लेकर जूते पॉलिश करने, बागवानी से लेकर सब्जी लाने---- साहब के दफ्तर जाने के समय उन्हें जूते पहनाने और दफ्तर से लौटने पर उनके जूते उतारने तक के ही काम नहीं करने होते बल्कि साहब के बीबी बच्चों तक की गुलामी भी करनी होती है. और मज़ाल कि जवान साहब की किसी बात पर एक शब्द भी प्रतिक्रिया दे सके---- साहब तो साहब उसे उसके बीबी बच्चों के हुक्म और डांट-फटकार को किसी गुलाम की भांति सिर झुकाकर सुनना होता है.
एक बार मेरी मुलाकात एक कर्नल साहब से हुई. बातचीत में उन्होंने अपने सहायक के प्रति अपनी उदारता का परिचय देते हुए कहा, " मैं अपने असिस्टैण्ट को बेल्ट से पीटता था और मज़ाल कि वह चूं करता." लेकिन मेरे चेहरे पर आए भावों को पढ़कर उन्होंने तुरंत जोड़ा, "लेकिन मैं उसे प्यार भी करता था."
आजादी के बासठ वर्षों बाद भी भारतीय सेना में औपनिवेशिक गुलाम प्रथा का जारी रहना दुर्भाग्यपूर्ण और आश्चर्यजनक ही कहा जाएगा.
रक्षा मंत्रालय द्वारा सशस्त्र बलों में तनाव प्रबन्धन विषय पर संसद की एक स्थायी समिति का गठन किया गया था, जिसकी रपट समिति ने २००८ में प्रस्तुत की थी , जिसके आधार पर भारतीय वायुसेना और नौसेना ने अपने अफसरों को सहायक मुहैय्या करवाना स्थगित कर दिया जबकि भारतीय सेना इस बात के लिए तैयार नहीं है. वह गुलामी की इस प्रथा को जारी रखना चाहती है . उसका जितना बड़ा अधिकारी उतने ही उसके सहायकों का दल.
बड़े अफसर के तामझाम भी बड़े होते हैं.
संसद की स्थायी समिति की रेपोर्ट पर अफसरों को सहायक उप्लब्ध करवाने की इस गुलाम प्रथा के पक्ष में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए रक्षा मंत्रालय ने उत्तर देते हुए कहा कि एक सहायक अधिकारियों के लिए कॉमरेड इन आर्म्स होता है जो विश्वास, सम्मान, गर्मजोशी, भरोसे और एक दूसरे पर निर्भरता का प्रतीक है और यह नेतृत्वकर्ता और अनुगामी के बीच सम्बन्धों का मूल सिद्धांत है.
सेना के अफरों के लिए सहायकों की नियुक्ति सरकारी नीति के अनुसार होती है, लेकिन देश का कौन-सा ऎसा सरकारी विभाग है (केन्द्र सरकार या राज्य सरकारों का ) जहां अफसरों के घरों में काम मरने के लिए चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को नहीं जाना पड़ता ? हाल की एक रपट के अनुसार दिल्ली नगर निगम के बाइस हजार चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को वर्षों से वेतन नगर निगम दे रहा है जबकि उनकी सेवाएम अफसरों, निगम पार्षदों और विधायकॊं -मंत्रियों को मिल रही हैं. मेरे नवीनतम उपन्यास - ’गुलाम बादशाह’ का केन्द्रीय विशय ही यह है. इन कर्मचारियों से अफसरों की बीबियां झाड़ू-पोंछे से लेकर कपड़े धुलवाने तक के काम करवाती हैं. उन्हें पानी तक के लिए नहीं पूछा जाता. पानी पीने के लिए वे सड़क किनारे लगे सार्वजनिक नल का उपयोग करते हैं और पानी पीने जाने तक की अवधि की अनुपस्थिति के लिए डांट-फटकार सुनते हैं.
संसद की स्थायी समिति ने रक्षा मंत्रालय से पुनः जोरदार अपील की है कि वह सेना में अफसरों के सहायक के रूप में जवानों को तैनात करने की अपमानजनक व्यवस्था को तत्काल प्रभाव से समाप्त करे, लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों, स्वायत्तशासी संस्थानों आदि में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों को आजाद भारत की इस गुलाम प्रथा से मुक्ति कैसे मिलेगी ? सांसदों की कोई समिति क्या इस बात के अध्ययन और सिफारिश के लिए भी गठित की जाएगी ?
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वातायन के मार्च अंक में प्रस्तुत हैं वरिष्ठ कवि, सम्पादक और पत्रकार आलोक श्रीवास्तव और प्रसिद्ध पंजाबी कवि विशाल की कविताएं और संवाद प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ’इज़ाडोरा की प्रेमकथा’ ( अनुवाद : युगांक धीर) से एक महत्वपूर्ण अंश. आशा है अंक आपको पसंद आएगा. आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.
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3 टिप्‍पणियां:

कबीर कुटी - कमलेश कुमार दीवान ने कहा…

achcha likha hai,kisi suvidha ka chin jaana kitna asahaj banata hai,un logo ke bare me sochna chahiye jinhe kuch bhi nahi milta .

सुभाष नीरव ने कहा…

देख रहा हूँ कि तुम हमारे समाज में व्याप्त ऐसे मुद्दों पर अपनी उंगली रख रहे हो जिन पर दूसरे रखते हुए घबराते हैं। इस बार के सम्पादकीय में जो बाते भारतीय सेना के विषय में उठाई है,वह सत्य के बहुत करीब है। या यूं कहूं - सत्य ही है। इस तरह का भ्रष्टाचार सरकार के हर विभाग में है। सरकारी दफ़्तरों में बड़े अफ़सर चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों का जिस तरह शोषण करते है, वह किसी से छिपा नहीं है। तुमने तो अपने उपन्यास 'गुलाग बादशाह' में इसे बखूबी रेखांकित भी किया है। तुम्हारे संपादकीय में तुम्हारे द्वारा उठाये जा रहे मुद्दों से 'वातायन' एक विचार का ब्लॉग भी बन गया है। साहित्य, समाज और संस्कृति का तो था ही। तुम्हारे भीतर के लेखक के साथ साथ एक सजग पत्रकार भी सदैव जीवित रहे,यही कामना करता हूँ।

ashok andrey ने कहा…

priya Chandel tumharaa sampadkiya pada tatha bhai Subhash neerav ki tippani se ittephak rakhta hoon tumne kai mahatpoorn sawaal oothaye hain jo sochne ko majboor karte hai mai to intjaar karunga shayad kabhi inn vastuisthatiyon ka niraakaran ho, aameen.