मंगलवार, 30 मार्च 2010

पुस्तक अंश

महेश दर्पण की यात्रा-संस्मरण पुस्तक ’पुश्किन के देस में’ से एक महत्वपूर्ण अंश :
पुश्किन पुरस्कार ग्रहण करने के लिए महेश दर्पण रूस गए. पुरस्कार उन्होंने प्राप्त किया और ’पुश्किन के देस में’ यात्रा पुस्तक हिन्दी पाठकों को प्राप्त हुई. इस महत्वपूर्ण यात्रा पुस्तक में रूस का वर्तमान परिदृश्य ही नहीं उसका अनछुआ अतीत भी उद्घाटित हुआ है. महेश दर्पण हिन्दी के उन कथाकारों में हैं जो रेगिस्तान से भी मोती चुन लाने की क्षमता रखते हैं. कभी शंकरदयाल सिंह की सोवियत संघ की यात्रा के संस्मरण साप्ताहिक हिन्दुस्तान में पढ़े थे और उन दिनों उनकी पर्याप्त चर्चा रही थी. उसके बाद भी कई साहित्यकारों-पत्रकारों ने सोवियत संघ पर यात्रा संस्मरण लिखे, लेकिन ल्युदमीला ख़ख़लोवा (प्लैप) की इस बात से असहमति का कोई कारण नहीं कि -सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस काफी बदल गया है. रूस का जीवन भी अब पहले जैसा नहीं रहा. महेश दर्पण ने इसी बदले हुए जमाने का बेहद आत्मीय, सच्चा और सहज चित्र प्रस्तुत किया है. बदले रूस को जानने के लिए दर्पण की यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण दस्तावेज की भांति है. प्रस्तुत है इससे एक महत्वपूर्ण अंश :
मास्को में तोल्स्तोय का संग्रहालय
महेश दर्पण
मास्को स्थित तोल्स्तोय संग्रहालय दरअसल १८६८ में एक लॉज हुआ करता था. यहां तब एक कोस्चवान और सहन की देखभाल करने वाले रहा करते थे. तोल्स्तोय संग्रहालय देखकर लेखक के उन दिनों की कल्पना बखूबी की जा सकती है. मैं और अनिल अचानक ही यहां आ पहुंचे थे.
इसका डाइनिंग रुम देखने लायक है. कहते हैं, यहा सिर्फ मेहमानों को ही वाइन पेश की जाती थी. १८९३ में तात्याना ने बेटी मारिया का जो चित्र बनाया था, वह यहीं रखा हुआ है. उस वक्त की एक जर्मन घड़ी भी सजी हुई है. ठीक सामने एक बड़ी खिड़की है. इसके साथ ही लगे दूसरे कमरे में रहने वाले, परिवार के लोग, बदलते रहते थे. उसी वक्त का खास सामान यहां रखा गया है. लेखक के बेटे सर्गेई की पत्नी का चित्र , तोल्स्तोय की पत्नी का पलंग, पियानो और तमाम दूसरी चीजें यहां देखी जा सकती हैं.
म्यूजियम के बहाने अंतरंग जीवन-कथा भी खुलती है लेखक की. १८८८ से पति-पत्नी का शयन कक्ष तीसरा कमरा हो गया. आखिरी बेटे के जन्म के बाद पलंग अलग कर लिए गए थे. यहीं मेज पर सोफिया पति की रचनाओं के प्रूफ और घर का हिसाब देखा करती थीं. वह कहानियां भी लिखती थीं. संगीत में तो उनकी दिलचस्पी थी ही, वह फोटोग्रफी भी किया करती थीं. ज्यादातर कामकाज उन्हीं के निर्देशन में हुआ करता था. यही वजह है कि यहां मेहमानों की लिस्ट, हिसाब-किताब और बिल आदि भी सहेज कर रखे गए हैं.
तोल्स्तोय के पलंग पर रखा हुआ कंबल कभी खुद पत्नी ने बुना था. किसी खास अवसर के लिए तैयार कराया गया आमंत्रण पत्र भी रखा हुआ है. अपने सबसे छोटे बेटे के साथ सोफिया आंद्रेवना का चित्र भी देखा जा सकता है जो कलाकार गे ने बनाया था.
चौथा कमरा बच्चों का है. पहले तीन बच्चे यहीं रहते थे. दो बेटे और एक बेटी. बाद में अलेक्सांद्रा बड़ी होकर इस कमरे से चली गई. इस कमरे में १३वें बच्चे वान्या का सारा सामान सुरक्षित रखा हुआ है.
वान्या को लेखक खूब प्यार करते थे. उन्हें यकीन था कि छोटा बेटा ही उनका प्रभु सेवा का काम पूरा करेगा. यह कमरा उसकी स्मृतियों को संजोए है. यहां आप सर्गेई की लिखी एक कहानी का संपादित रूप देख सकते हैं. यहां रखे दस्तावेज बताते हैं कि १८९५ में वान्या सात साल का होकर मर गया. दो पलंग हैं जिनमें से एक पर आया और एक पर बच्चा सोया करता था. दरवाजे पर ही झूले के कांटे लगे हुए हैं. एक पक्षी का पिंजरा रखा हुआ है. कई हस्तशिल्प और खिलौने उस समय की कला से परिचित कराते हैं.
एक कमरा बच्चों की पढ़ाई का है. इसे देख कर पता लगता है कि सामान्य पढ़ाई के अलावा यहां विदेशी भाषाएं भी सीखी जाती थीं. अलेक्सांद्रा के अलावा यहां गवर्नेस हमेशा रहा करती थी. वह आमतौर पर जर्मन या फ्रेंच में बोला करती थी. सोफिया भी जर्मन पढ़ा देती थीं. कुर्सी की गद्दियों पर कढ़ाई तोल्स्तोय की पत्नी ने की है. यहां उस वक्त इस्तेमाल होने वाला लकड़ी का संदूक और कुछ बर्तन भी रखे हुए हैं.
इस कमरे को पार कर के आप नौकरानियों के कमरे तक जा पहुंचेंगे. इनका काम हुआ करता था कपड़े धोना, प्रेस करना और जरूरी मरम्मत. खली समय में ये मेज के पास आकर चाय पिया करती थीं. इनमें से एक नौकरानी मरीया ने रसोइए से शादी कर ली थी. इस कमरे की विशेषता यह है कि यहां से आप बाहर भी जा सकते हैं और ऊपर भी. यहीं से खाना लाया जाता था.
सातवें कमरे में दो बेटे आंद्रेई और मिखाइल रहा करते थे. इन लोगों के पलंग अब भी यहीं रखे हैं. ये वॉयलिन और हारमोनियम बजाया करते थे. उनकी मेज भी यहीं रखी हुई है. आठवां कमरा बेटी तात्याना का है. कमरे की खूबसूरती उसके बताए गए मिजाज के अनुरूप ही है. उसने चित्रकारी और कढ़ाई बाकायदा सीखी थी. उसके बारे में कहा जाता है कि वह काफी मिलनसार, दयालु और खुशमिजाज थी. उसे छोटे बच्चों की बड़ी चिंता रहती थी. यही नहीं, जब कभी मां-बाप में तनातनी हो जाती, समझौता भी यही कराती थी. वह गे, रेपिन और कसातकिन जैसे चित्रकारों की मित्र थी. इस कमरे में रखे तात्याना के कई पोट्रेट इन्हीं चित्रकारों के बनाए हैं. इस कमरे की एक मेज पर काला मेजपोश बिछा है. इस पर मेहमानों के हस्ताक्षर मौजूद हैं. उन पर कढ़ाईदार काम भी है.
इसके बाद खाना सर्व करने वाला कमरा आता है. यहां उस जमाने मिट्टी के तेल का एक लैंप रखा हुआ है. यहां दून्या रोज ऑमलेट बनाया करती थी. घर के लोग उससे कॉफी और खिचड़ी भी बनवा लेते थे. शेल्फों में बर्तन सजे हैं.यहीं पास में एक अलमारी में तोल्स्तोय का कोट रखा है. इसका साइज बता है कि वह कितने लंबे-तगड़े थे. (उनके मित्रों के संस्मरणों में यह स्पष्ट मिलता है कि तोल्स्तोय लंबे नहीं --- सामान्य कद के थे - रूपसिंह चन्देल)
नीचे की मंजिल में तोल्स्तोय खुद रहते थे और ऊपर मेहमानों को टिकाते थे. आप जरूर जानना चाहेंगे कि मेहमानों में अक्सर आने वालों में कौन लोग होते थे. इनमें थे : चेखव, लेस्कोव, बूनिन, अस्त्रोवस्की और गोर्की.
ऊपर जाने के लिए, पहले नकली भालू के हाथ में विजिटिग कार्ड रखते थे लोग. ये वे दिन थे जब बिजली नहीं हुआ करती थी. इसीलिए गैलरी में चित्रों के मॉडल रखे हैं.यही थी चित्र बनाने की जगह. यहां घोड़ों के दो चित्र आज भी आप देख सकते हैं. ये हैं : ’ताकत का अंदाजा बुड़ापे में’ और ’ताकत का अंदाजा जवानी में’. ये दोनों चित्र स्वेर्चकोव के हैं. ये उन्होंने तोल्स्तोय को भेंट किए थे.
हॉल में संगमरमर इंप्रेशन का वॉल पेपर लगा है. यहां गोष्ठी और पारिवारिक समारोह हुआ करते थे. इन समाराहों में स्क्रियाबिन, रहमानिनफ, रीम्स्की, कोर्साक, रानेमेव और शल्यापिन जैसे संगीतकार आया करते थे. यहां आप तोल्स्तोय की वह मूर्ति भी देख सकते हैं जो गे ने खुद बना कर उन्हें भेंट की थी. १८५८ में मारे गए रीछ की खाल भी यहां रखी हुई है. कहते हैं, इस रीछ ने लेखक पर हमला कर दिया था.
तोल्स्तोय मेहमानों का जमकर स्वागत करते थे. खासकर ईस्टर के मौके पर. ईस्टर पर्व मनाते हुए कई चित्र यहां उनके साथ विशेष लोगों के देखे जा सकते हैं.एक बड़ी शतरंज भी यहां रखी है. आप चाहें तो रिकार्ड की गई तोल्स्तोय की आवाज भी सुन सकते हैं. इसमें वे गांव के स्कूली बच्चों को संबोधित कर रहे हैं. जो कुछ मैं सुन पाया, उसका आभिप्राय लीन ने मुझे यह बताया : ’शुक्रिया बच्चो कि आप मेरे पास आते हैं. मैं खुश हूं . मुझे मालूम है कि आप में ऎसे बच्चे भी हैं जो पढ़ाई नहीं करते . वे शैतानी करते हैं. बड़े होने पर आप लोग मुझे याद करेंगे.’
वैसे रिकार्ड तो उस म्यूजिक का भी रखा है जो तोल्स्तोय की पोती बजाया करती थी. गेस्ट रूम में कलाकार सोरोव का बनाया सोफिया का खूबसूरत चित्र रखा है. दूसरा चित्र रेपिन का बनाया तात्याना का सजा है. गे का बनाया मरीया का चित्र भी यहां मौजूद है. देखने वाला सोच सकता है कि ये मूल चित्र हैं, लेकिन आप इसे देख कर जब खुश हो रहे हों तो यह भी याद रखिएगा कि तोल्स्तोय खुद इसे बोर मेहमानों का कमरा कहा करते थे.
यहां वह कभी-कभी ही मिलने आया करते थे. यहां अक्सर घर की मालकिन की सहेलियां आकर बैठा करती थीं. यहीं वह छोटी-सी मेज भी है जिस पर बैठ कर सोफिया पति की रचनाओं के प्रूफ देखा करती थी. आखिरी कमरे में यहीं वह पलंग भी रखा हुआ है जिस पर लेखक सोए थे. यहां आपको परिवार के तमाम सदस्यों की तस्वीरें नजर अएंगी. वे उपहार भी बाकायदा सजें हैं जो बच्चों ने लेखक को शादी के ३० बरस पुरे होने पर भेंट किए थे.
इस म्यूजियम में यह गौर करने लायक बात है कि मरीया के कमरे की छत सबसे नीची है. वही पिता की रचनाओं का पुनर्लेखन , उनके पत्रों के उत्तर देने का काम करती और फ्रांसीसी से अनुवाद करती थी. यहां मेज पर बिछे मेजपोश पर परिवार में मेहमान बनकर आए लोगों के हस्ताक्षर नजर आते हैं. वह कबल भी रखा हुआ है जिसे सोफिया ने बनाया था. घर की मैनेजर अवरोतिया थी, जो ३० साल से भी ज्यादा सेवा में रही. कुल दस नौकर थे.
एक कमरे में तोल्स्तोय परिवार की महिलाओं के वस्त्र रखे हुए हैं.
वह कमरा, जहां मुख्य नौकर इल्या सिदोरको खाना लगाता था, उसी तरह से सहेजकर रखने की कोशिश की गई है. उसे लेखक द्वारा बाकायदा मेहमानों के आने की सूचना दी जाती थी. लैंप में तेल वही डाला करता था. वही बच्चों और सोफिया को शहर ले जाता था. सच पूछें, तो यह लेखक का सबसे विश्वस्त नौकर था. शायद इसीलिए अपनी कई किताबें, प्रिय सामान और तस्वीरें लेखक ने उसे भेंट की थी. यहां मौजूद दस्तावेज बताते हैं कि बीमारी के दिनों में तोल्स्तोय की सबसे ज्यादा सेवा इसी ने की थी. हालांकि सच यह भी था कि लेखक को किसी की मदद लेना कतई पसंद नहीं था. इसके पीछे उनकी वह धारणा सबसे ज्यादा काम करती थी कि किसी को नौकर मानना नैतिक रूप से खराब है. इस कमरे में एक फ्रेंच कलाकार का बनाया इसी नौकर का चित्र सजा हुआ है.
लिखने -पढ़ने के कमरे में दीवारें रंगी हुई हैं. जमीन पर चटाई बिछी है. फर्नीचर कम, लेकिन भारी है. तोल्स्तोय नौ से दस बजे के बीच यहीं बैठ कर लिखा करते थे और फिर अंतराल होता था. इसके बाद तीन से चार बजे के चीच लेखन होता था. इसके बाद वह पत्र लिखते थे. यहीं उन्हॊंने ’पुनरुत्थान’, ’फादर सर्गेई’, ’इवान इलिच’, ’जीवित शव’ और ’मुझे क्या करना चाहिए’ जैसी किताबें लिखीं. धर्म से मोह टूटने के बाद धर्म सभा को उत्तर भी उन्होंने यहीं से लिखा. लेखक को कुर्सी की ऊंची टांगें पसंद नहीं थीं. कुर्सी के पैर उन्होंने खुद काटकर छोटे किए थे. ये वे दिन थे जब लेखक की नजर कमजोर हो गई थी. कुर्सी को कम ऊंचा रखने का कारण यही था कि तोल्स्तोय उन दिनों ज्यादा झुकना नहीं चाहते थे. काम करते-करते थक जाते तो खड़े होकर स्टैंड पर लिखने लगते थे. काम के बाद जिन चौड़ी कुर्सियों पर लेखक आराम करते थे, वे भी यहीं रखी हैं. यहीं वह घर आए लेखकों से मुलाकात किया करते थे.
इस कमरे के बाहर लेखक के जूते रखे हुए हैं. उनके कपड़े, साइकिल और खेत में काम करने का जरूरी सामान भी रखा है.
सात बजे उठ कर तोल्स्तोय बाहर के कमरे में नहाया करते थे. कमरों की सफाई वह खुद किया करते थे. सर्दियों में लकड़ी काटना और फिर उन्हें उठा कर लाना उनके लिए रोजमर्रा के कामों में शुमार था. अपने कमरे में भट्टी भी वह खुद ही जलाते थे. दूर से पानी लाने के लिए वह बर्फगाड़ी का इस्तेमाल किया करते थे. इन तमाम कामों से संबद्ध उनकी कई चीजें आज भी वहा रखी हैं. घूमने के बाद अक्सर तोल्स्तोय जूते बनाया करते थे. जूते बनाना उन्होंने मास्को में रहकर ही सीखा था. इस में काम आने वाली चीजें यहीं सहेज कर रखी गई हैं.
तात्याना के पति के लिए १८९९ में लेखक ने यहीं जूता बनाया . यहीं फेत नाम के कवि के लिए भी उन्होंने जूता बनाया. उनका बनाया एक जूता यहां रखा हुआ है. आप यहीं वह साइकिल भी देख सकते हैं जो तोल्स्तोय चलाया करते थे. उन्हें मुग्दर चलाने का शौक तो था ही, कहते हैं लेखक ने ६७ बरस की उम्र में भी साइकिल चलाई. ये तमाम चीजें साहित्य प्रेमियों के लिए प्रदर्शित हैं.
कहते हैं, यह सब लेखक की पत्नी ने सरकार को बेच दिया था. बाद में सरकार ने १९११ में यहां म्यूजियम बना दिया. दुनिया-भर से आए लोग इसे देखने का मोह नहीं छोड़ पाते . इसके रख-रखाव में अब अच्छा-खासा खर्च होता है. शायद यही वजह है कि इस म्यूजियम में प्रवेश के लिए हमें १५० रूबल का टिकट लेना पड़ा. फोटॊ खींचने के लिए १०० रूबल अलग से. हां, आप पिछले दरवाजे के पास या बाहर वाले कमरे का फोटो खींचना चाहें तो बगैर कुछ दिए खींच सकते हैं. म्यूजियम से, हमारे बाहर पहुंचते ही आइसक्रीम वाले लड़के ने कहा : ’गुड मॉर्निंग . अनिल ने उससे ’द्रास्तुइचे’ कहा तो वह शर्मा गया. उसके साथ की सुंदरी भी हंस पड़ी.
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कल्याणी शिक्षा परिषद , ३३२०-२१, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली-११००२२.
मूल्य ३००.०० , पृष्ठ २२४
आवरण : निर्दोष त्यागी
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कुमाऊं मूल के एक सैन्य-परिवार में महेश दर्पण का जन्म १ जुलाई, १९५६ को तोतारानी, धर्मशाला (हि.प्र.) में हुआ. देश के कई शहरों में शिक्षा ग्रहण करते हुए अंततः एम.ए.(हिन्दी).
*’विश्ववाणी’, ’सूर्या’, ’सारिका’, ’दिनमान’ और ’नवभारत टाइम्स’ के सम्पादन विभाग में जुड़े रहे महेश जी का साहित्यिक पत्रकारिता में महत्वपूर्ण योगदान है. उनकी कहानियां भीड़ से एकदम अलग आत्मीय आकर्षण लिए हैं जिन्हें आप ’अपने साथ’, ’चेहरे’, ’मिट्टी की औलाद’, ’वर्तमान में भविष्य’, ’जाल’, ’इक्कीस कहानियां’, और ’ एक चिड़िया की उड़ान’ में पढ़ सकते हैं. उनका साहित्य चिंतन झलकता है ’रचना परिवेश’ और ’कथन-उपकथन में’. वह हिन्दी कहानी के एक तटस्थ सम्पादक हैं, जिसकी पहचान उनके द्वारा सम्पादित ’बीसवी शताब्दी की हिन्दी कहानियां’, ’स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी कोश’, ’प्रेम कहानियां’, ’राजधानी की कथायात्रा’, ’प्रेमचन्द की चर्चित कहानियां’, ’जयशंकर प्रसाद की चर्चित कहानियां’, ’रमाकांत का संग्रह, ’जिन्दगी भर का झूठ’ ’अवधनारायण मुद्गल समग्र’ जैसी स्थायी महत्व की पुस्तकों से की जा सकती है. ’पुश्किन सम्मान’ (रूस), ’साहित्यकार सम्मान’, ’कृति सम्मान’ (हिन्दी अकादमी), ’सुभाष चंद्र बोस सम्मान’, ’पीपुल्स विक्ट्री अवार्ड’ और ’नेपाली सम्मान’ से समानित महेशजी की कहानी ’छल ’ पर अमिताभ श्रीवास्तव द्वारा बनाई गई फिल्म भी प्रशंसित हुई है.
संप्रति : टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के सांध्य टाइम्स में कार्यरत.
संपर्क : सी-३/५१, सादतपुर, दिल्ली-११००९४
ई मेल : darpan.mahesh@gmail.com


2 टिप्‍पणियां:

ashok andrey ने कहा…

Mahesh jee dawaara likhit yaatra sansmaran Pushkin ke desh ko padte hue lagaa ki jaise mai khud Tolstoye sanghralya men yaatra kar rahaa hoon unke dawaara likha yeh sansmaran itni jeevantata ke sath prastut hua hai ki hum barbas hii oos aur khinche chale jaate hain maano har ek kamraa bahut kuchh kehne ke liye uss samaya ki ghatnaon ke saath prastut ho oothaa ho. Badhai detaa hoon unhen iss yaatra vritant ko padvane ke liye

सुरेश यादव ने कहा…

प्रिय महेश दर्पण जी,आप के यात्रा वृत्तांत ने प्रभावित किया .इस यात्रा में साहित्यिक दृष्टि भीतर तक याकहें चेतना में समाई है.बधाई.