बुधवार, 26 मई 2010

वातायन - जून,२०१०



हम और हमारा समय

कंधों पर परम्पराओं का शव
रूपसिंह चन्देल

दो वर्ष पहले बाहरी दिल्ली के गांवों के जाट समुदाय ने कम से कम प्रदर्शन के साथ दिन में विवाह करने का ऐतिहासिक और अनुकरणीय निर्णय किया था । निर्णय पर कितना अमल हो रहा है, यह स्पष्ट नहीं है , लेकिन ऐसे निर्णय बिना गहन सामाजिक चिन्तन के संभव नहीं हैं । सगोत्रीय संबन्धों का विरोध करने वाली इस कौम के इस निर्णय को एक आदर्श निर्णय इसलिए कहना होगा क्योंकि इसमें वैवाहिक कार्यक्रमों के रात्रि प्रदर्शन पर होने वाले धन के दुरुपयोग को रोकने की इच्छाशक्ति अंतर्निहित थी । सिख समुदाय के वैवाहिक कार्यक्रम ही नहीं, अन्य सामाजिक कार्यक्रम भी दिन में सम्पन्न होते हैं और वह भी प्रायः गुरुद्वारों में । व्यवसायों के शिखर पर विराजमान सिखों की जनसंख्या का बड़ा भाग बड़े और चमक-दमक वाले पण्डालों का खर्च वहन करने की क्षमता रखते हैं, लेकिन गुरुद्वारों में पारिवारिक-सामाजिक कार्यक्रमों के पीछे धन के अपव्यय पर अंकुश लगाना ही उनका मुख्य ध्येय होगा ।
बात मात्र वैवाहिक कार्यक्रमों से जुड़े अपव्यय और अर्थहीन हो चुके अनुष्ठानों से मुक्ति का ही नहीं है , बात बदलती जीवन स्थितियों , परिवेश, और वातावरण के अनुकूल अपने को ढालने और बदलने का भी है । आज कितने ही ..... बल्कि कहना होगा अस्सी प्रतिशत से अधिक परिवार पुरानी परम्पराओं के शव कंधों पर लादे चल रहे हैं । कई बार ऐसी अनुभूति होती है कि उस शव से मुक्ति के बजाय वे उसे और अधिक अपने से चिपटाने का प्रयत्न करने लगे हैं यह जानते हुए भी कि उनके जीवन-विकास में वे कितनी बड़ी बाधा हैं ।

इन परम्पराओं और अनुष्ठानों का सर्वाधिक दुष्प्रभाव नारी जीवन पर पड़ता है । भारतीय समाज में कम से कम नव्वे प्रतिशत परिवारों में नारी का स्थान दोयम है । पुरुष वर्चस्व उसे अपने समकक्ष समझने को तैयार नहीं है । उसे आज भी अनुगामिनी ही माना जाता है , भले ही वह पति से अच्छी नौकरी करती हो और उससे अधिक पढ़ी-लिखी हो । अच्छे-भले ..पढ़े -लिखे परिवारों की यह स्थिति है । कुछ दिन पहले एक श्रीवास्तव जी टकराए ... उच्च ”शिक्षित परिवार , लेकिन सोच अठारहवीं शताब्दी वाली । बोले , ‘‘पत्नी को पति के पीछे ही चलना होता है .... वह आगे कैसे चल सकती है ! भारतीय परम्परा यही है । ’’ दूसरा उदाहरण :
मुगलसराय में रेलवे के एक ट्रेड यूनियन नेता से कॉफी हाउस में मुलाकात हुई । यूनियन की किसी मीटिगं में आए थे । दिल्ली में उनके दो बेटे पत्रकार हैं ...अच्छे पत्र समूहों से जुड़े हुए । पत्नी प्रसंग में बोले , ‘‘ पत्नी पति की पी.ए. की भांति होती है ।’’ दरअसल , इन लोगों ने परम्परा से यही सीखा था और उनकी पत्नियों ने भी । शायद ही उन लोगों ने कभी विरोध किया होगा । इनके बच्चे भी उसी परम्परा के वाहक होंगे .... आगे की पीढ़ी के बारे में सोचा जा सकता है ।

कहने के लिए हम ग्लोबलाइज हो रहे हैं , लेकिन इस वैश्वीकरण से हमारे समाज के ऐसे परिवार कुछ बुरी आदतों में इज़ाफा अवश्य कर रहे हैं, परन्तु अपनी बुरी परम्पराओं से मुक्त नहीं हो पा रहे । नयी पीढ़ी ड्रिंक और स्मोक को जीवन के हिस्से के रूप में अपना रही है । परिधानों के मामलों में महानगरीय-नगरीय और कस्बाई जीवन में युवाओं में परिवर्तन हुआ है , लेकिन लड़कियों के मामलों में यह परिवर्तन तभी तक स्वीकार्य है जब तक वह अपने मां-पिता के घर होती है । शादी के बाद उसके परिधान उसकी ससुराल वाले तय करते हैं (इस मामले में उच्च वर्ग में शायद कुछ छूट होती होगी ) । ससुराल वाले यदि बहुत उदार हुए तभी बहू अपनी मर्जी के कपड़े पहन सकती है, अन्यथा उसे पति-सास-ससुर की आंखों को प्रिय लगने वाले और आस-पास पड़ोस के लोंगो की नजरों में न चुभने वाले (जिससे ससुराल की नाक नीची न हो) कपड़े ही पहनने होते हैं ।
मुम्बई हाई कोर्ट ने 11 मई , 2010 को साड़ी पहनने को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला दिया जो सोचने के लिए विवश करता है । यद्यपि माननीय जस्टिस ए.पी. देशपाण्डे और रेखा सोदंर्बल्दोता की खंडपीठ ने एक याचिकाकर्ता की याचिका पर सुनवाई करते समय निर्णय दिया कि ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ के तहत सास-ससुर के दबाव में घर में साड़ी पहनने को बर्बरता नहीं स्वीकार किया जा सकता । अर्थात् याचिकाकर्ता को सास-ससुर की इच्छा का सम्मान करते हुए घर में साड़ी ही पहननी चाहिए । माननीय जजों ने यह भी निर्णय दिया कि इस आधार पर पति के साथ याचिकाकर्ता का संबंध विच्छेद उचित नहीं होगा । हालांकि अपील में पति के विवाहेतर संबन्धों की बात भी कही गयी थी ।

मुम्बई हाई कोर्ट का फैसला इस बात को स्पष्ट करता है कि ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ किसी स्त्री को उसकी इच्छा के विरुद्ध कपड़े पहनने के लिए बाध्य करता है । यह अधिनियम देश की आजादी के पश्चात् 1955 में बना था । उन दिनों कथाकार यशपाल के ‘झूठा सच’ की कनक की भांति कामकाजी महिलाओं की संख्या नगण्य थी । आज जब न केवल पढ़ी-लिखी लड़कियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, बल्कि हर क्षेत्र में उनकी भागीदारी पुरुषों से कम नहीं है तब भी क्या ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ के वही नियम लागू रहने चाहिए ?
माना कि साड़ी भारत की सांस्कृतिक पहचान है । उसे पहनकर एक स्त्री का सौंदर्य द्विगुणित हो जाता है , लेकिन सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के लिए किसी नारी को उसे पहनने के लिए विवश होना पड़े , यह उचित नहीं । हर स्त्री अपने सौंदर्य और आवश्यकता के प्रति जागरूक होती है । लेकिन वह यह भी जानती है कि क्या पहनना उसके लिए सुविधाजनक है । एक महिला उच्च अधिकारी , राजनेत्री अथवा पूंजीपति महिलाओं के लिए साड़ी सुविधाजनक परिधान हो सकता है , क्योंकि उन्हें गाड़ी-ड्राइवर की सुविधा प्राप्त होती है , जबकि बस में यात्रा करने वाली, घर पहुंचकर किचन-घर संभालने वाली महिला के लिए सलवार-कुर्ता ही सुविधाजनक होगा । फिर पचपन वर्ष पुराने ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ में परिवर्तन की आवश्यकता क्यों अनुभव नहीं की गयी ?
परम्पराओं की लाश कंधे पर लटकाए घूमने का एक और भोंडा उदाहरण याद आ रहा है । एक राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक ने लड़कियों में सर्वे कर उनके अनुभव प्रकाशित किए । अधिकांश एक या दूसरे कारण से वैवाहिक जीवन से दूर थीं । एक लड़की ने तब अपनी सगाई तोड़ दी जब उसे पता चला कि उसकी ससुराल में परम्परा है कि पहली रात लड़की को पति के पैर धोने होंगे , फिर साग्रह उसे पलंग तक हाथ पकड़कर ले जाना होगा । ये सब बातें क्या यह नहीं सिद्ध करतीं कि हम आज भी आज से दो सौ वर्ष पीछे जी रहे हैं । हमारा समाज यह स्वीकार करने को क्यों तैयार नहीं कि महिलाएं पुरुषों से कंधा से कंधा मिलाकर चल रही हैं और कितने ही ऐसे क्षेत्र हैं जहां वे पुरुषों से आगे हैं । यहां यह स्मरणीय है कि अलेक्षेन्द्र से लेकर अंग्रेजों तक युद्धों में हारने के अन्य जो भी कारण थे, लेकिन उनमें एक प्रमुख कारण भारतीय सैनिकों के परिधान भी थे ।

आजाद भारत में सभी को अपनी सुविधा के वस्त्र चयन की स्वतंत्रता और अधिकार होना चाहिए बशर्तें उसमें भोंडापन न हो । भोजन और कपड़ों पर प्रतिबंध से उपजी कुण्ठा परिवार और समाज के लिए घातक हो सकती है ।
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वातायन के इस अंक में प्रस्तुत हैं स्व. देवेन्द्र सत्यार्थी के जन्म दिन पर (विशेष) पंजाबी के युवा कवि तरसेम की कविता और पंजाबी कथाकार स्व. रामस्वरूप अणखी की कहानी (दोनो रचनाओं के अनुवाद - सुभाष नीरव) .
अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा रहेगी.
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6 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

Roop jee,hum paramparaaon aur
jhothee riti-rivaajon gond kee
tarah chipke rahenge.sadiyaan beet
jaayengee unse mukt hote-hote.Aapka
lekh pasand aayaa hai.Aapke vichaar
jan-jan tak pahunchne chahiye.Aapki
nazr mera ek sher hai--
MUN KO ACHCHHA LAGE JO HAR IK KO
KOEE AESAA RIWAAJ HO PYARE

बेनामी ने कहा…

बहुत सन्तुलित शब्दों मे एक सार्थक आलेख है। आपसे शत प्रतिशत सहमत हूँ कि लोग अधुनिक युग मे भी अठाहर्वीं सदी की सोच रखते हैं और नारी की स्थिती का सहीाँकलन है। बधाई इस आलेख के लिये। बहुत दिनों बाद आने के लिये क्षमा चाहती हूँ। आभार्

निर्मला कपिला

१४ जून २०१० ८:०४ PM

ashok andrey ने कहा…

tumhaara yeh aalekh un sabhi logo ke liye hai jo abhi bhee prampraon ke shav dho rahe hai oos bandariya ki tarah jo apne bachche ke marne ke baad use seene se chipkae rehti hai jab tak ki usme se badboo nahi aane lagti hai, achchha aalekh ban pada hai bhai chandel, badhai

شہروز ने कहा…

अब आपके ब्लॉग को न सिर्फ पढना बल्कि कमेन्ट करना सुविधा जनक हुआ.पहले सोचना पड़ता था.पढ़ते जाओ..और ढूंढते रहो कमेन्ट कहाँ करूँ !!
अब ठीक रहा संयोजन..पत्रिका तो है लेकिन ज़रा ध्यान है कि ब्लॉग है.इसके अपने कायदे हैं.
खैर आदर्श के तिहत हमज़बान में वरिष्ठ लेखक रूप सिंह चंदेल की दृष्टि नाम से आपके दोनों ब्लॉग का लिंक है.ध्यान देंगे.रचना समय में मेरे किसी एक ब्लॉग का ही सही लिंक्देकर उपकृत करें.आभार होगा !
रचना समय में शेरघाटी के नाम से मैंने ही अपनी राय दर्ज की है.

شہروز ने कहा…

अब आपके ब्लॉग को न सिर्फ पढना बल्कि कमेन्ट करना सुविधा जनक हुआ.पहले सोचना पड़ता था.पढ़ते जाओ..और ढूंढते रहो कमेन्ट कहाँ करूँ !!
अब ठीक रहा संयोजन..पत्रिका तो है लेकिन ज़रा ध्यान है कि ब्लॉग है.इसके अपने कायदे हैं.
खैर 'आदर्श' के तिहत हमज़बान में 'वरिष्ठ लेखक रूप सिंह चंदेल की दृष्टि' नाम से आपके दोनों ब्लॉग का लिंक है.ध्यान देंगे.
रचना समय में मेरे किसी एक ब्लॉग का ही सही लिंक्देकर उपकृत करें.आभार होगा !
रचना समय में शेरघाटी के नाम से मैंने ही अपनी राय दर्ज की है.

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

बहुत स्पष्ट बात कही आपने. जहाँ बदलना चाहिए हमें वहाँ हम बदल नहीं रहे और फिर तरक्की की बात करते हैं.
बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आई हूँ किसी प्रोजेक्ट में व्यस्त थी..
देरी से हाज़री लगाने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ.