शुक्रवार, 11 मार्च 2011

कविता और गज़ल


देवी नागरानी की कविता और गज़ल
मेरे वतन की खुशबू

बादे-सहर वतन की, चँदन सी आ रही है
यादों के पालने में मुझको झुला रही है.

ये जान कर भी अरमां होते नहीं हैं पूरे
पलकों पे ख़्वाब ‘देवी’ फिर भी सजा रही है.

कोई कमी नहीं है हमको मिला है सब कुछ
दूरी मगर दिलों को क्योंकर रुला रही है.

कैसा सिला दिया है ज़ालिम ने दूरियों का
इक याद आ रही है, इक याद जा रही है.

पत्थर का शहर है ये, पत्थर के आदमी भी
बस ख़ामशी ये रिश्ते, सब से निभा रही है.

शादाब याद दिल में, इक याद है वतन की
तेरी भी याद उसमें, घुलमिल के आ रही है.

‘देवी’ महक है इसमें, मिट्टी की सौंधी सौंधी
मेरे वतन की खुशबू, केसर लुटा रही है.
****
गज़ल

भाषा की खुशबू
लोरी सुना रही है हिंदी जुबां की खुशबू
रग
-रग से आ रही है हिन्दोस्तां की खुशबू
 
भारत हमारी माँ है
, भाषा है उसकी ममता
हिन्दोस्तां से आये सारे जहाँ की खुशबू
भाषा अलग
-अलग सी हर प्रांत की है बेशक
पर दास्ताँ से आये उनकी जुबां की खुशबू
 
दुश्मन का भी भरोसा
, जिसने कभी न तोड़ा
ख़ामोश उस ज़बाँ से आये बयाँ की खुशबू
भाषाई शाखों पर
है हर प्राँत के परिंदे
उड़कर जहाँ भी पहुंचे
, पहुंची वहां की खुशबू
दीपक जले है हरसूं भाषा के आज देवी
लोबान सी है आती
कुछ कुछ वहां की खुशबू
****
देवी नागरानी
जन्मः ११ मई, १९४१ कराची
शिक्षाः बी.ए अर्ली चाइल्डहुड में, न्यू जर्सी, गणित का भारत व न्यू जर्सी से डिगरी हासिल
सम्प्रतिः शिक्षिका, न्यू जर्सी.यू.एस.ए
क्रुतियां
"ग़म में भींजीं ख़ुशी" सिंधी भाषा में पहला- गज़ल संग्रह २००४
"चरागे-दिल" हिंदी में पहला गज़ल-संग्रह, २००७
"उडुर-पखिअरा" ( सिंधी भजन- संग्रह, २००७)
“ दिल से दिल तक" (हिंदी ग़ज़ल- संग्रह २००८)
" आस की शम्अ" (सिंधी ग़ज़ल -सँग्रह २००८)
" सिंध जी आँऊ जाई आह्याँ" (सिंधी काव्य- संग्रह, २००९) -कराची में छपा
"द जर्नी " (अंग्रेजी काव्य- संग्रह २००९)
कलम तो मात्र इक जरिया है, अपने अँदर की भावनाओं को मन की गहराइयों से सतह पर लाने का. इसे मैं रब की देन मानती हूँ, शायद इसलिये जब हमारे पास कोई नहीं होता है तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमाँ बन जाता है.
संपर्कः
Add: 9-D Corner View Society, 15/33 Road, Bandra, Mumbai 4000५0, Ph: 9867855751
Email:dnangrani@gmail.com,

4 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

कैसा सिला दिया है ज़ालिम ने दूरियों का
इक याद आ रही है, इक याद जा रही है.

पत्थर का शहर है ये, पत्थर के आदमी भी
बस ख़ामशी ये रिश्ते, सब से निभा रही है.
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दीपक जले है हरसूं भाषा के आज देवी
लोबान सी है आती,कुछ कुछ वहां की खुशबू

वाह ! बहुत खूब कहा है ! बहुत सुन्दर ग़ज़लें हैं देवी नांगरानी जी की ! बधाई ! तुम्हें भी और नांगरानी जी को भी !

PRAN SHARMA ने कहा…

DEVI NANGRANI KEE GAZALEN AUR
KAVITAAYEN PADHNAA UMDAA SHAYREE
KAA AANAND LENAA HAI . MERAA
SAUBHAGYA HAI KI MAINE UNKEE HAR
GAZAL LUTF UTHAAYAA HAI . UNKEE
GAZAL PADHKAR LAGHBHAG 40 SAAL
PURANI MEREE GAZAL KE CHAND SHER
YAAD AA GYE HAIN -

HARI DHARTI , KHULE NILE
GAGAN KO CHHOD AAYAA HOON
KI KUCHH SIKKON KEE KHATIR
MAIN VATAN KO CHHOD AAYAA HOON


VIDESHEE BHOOMI PAR MAANAA
LIYE PHIRTAA HOON TUN LEKIN
VATAN KEE SAUNDHEE MITTEE MEIN
MAIN MUN KO CHHOD AAYAA HOON

NAHIN BHOOLEGEE JEEWAN BHAR
VO SAB ATHKHELIYAN APNEE
JAWAANI KE SUREELE BAANKPAN
KO CHHOD AAYAA HOON

ashok andrey ने कहा…

बहुत अच्छी रचनाएँ हैं देवी नागरानी जी की. पड़कर एक सुखद एहसास का अनुभव हुआ. बधाई.

सुभाष नीरव ने कहा…

वाह ! प्राण साहिब आपने अपनी 40 साल पहले की ग़ज़ल के कुछ अशआर देकर मन को खुश कर दिया। पूरी ग़ज़ल पढ़ने को मन हो रहा है।