शुक्रवार, 2 मार्च 2012

वातायन-मार्च,२०१२



हम और हमारा समय

साहित्य, राजनीति और हसन जमाल


रूपसिंह चन्देल

हाल ही में एक वेब पत्रिका में प्रकाशित अधकचरे आलेख पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए मैंने कहा कि आलेख में न केवल आलेखकार की अज्ञानता प्रकट हुई बल्कि आलेख साहित्यिक राजनीति का शिकार भी हुआ है. उस पर मेरी प्रतिक्रिया पर देश-विदेश के कुछ हिन्दी लेखकों में तीखी प्रति-प्रतिक्रिया हुई. फोन घनघनाए और कुछ मुझ तक भी आए. चार पंक्तियों की उस प्रतिक्रिया की सफाई भी दी गई लेकिन सफाई देने का जो उपयुक्त मंच था अर्थात वह पत्रिका जिसमें आलेख प्रकाशित हुआ था और जिसमें मैंने अपनी प्रतिक्रिया प्रकाशित करवाई थी, वहां चुप्पी पसरी रही. आलेखकार के समर्थन में फोन पर मेरी भर्त्सना करने वालों ने वहां कुछ नहीं कहा. इसका अर्थ स्पष्ट है. ऎसा नहीं कि मेरी प्रतिक्रिया पर प्रति-प्रतिक्रिया देने वाले इस बात से अनजान हैं कि साहित्य में राजनीति होती है. वे अनजान नहीं बल्कि राजनीति की पेंगे भरने वाले लोग हैं और उनकी तीखी प्रतिक्रिया का कारण यह था कि उनके किसी मित्र के अधकचरे आलेख पर मैंने उंगली उठायी थी---आंख में उंगली गड़ाकर सच दिखाना चाहा था.

साहित्य में राजनीति आज की देन नहीं---यह आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रादुर्भाव काल से है---प्रेमचंद युग भी इससे अछूता नहीं था. निराला की अर्द्धविक्षप्तावस्था का कारण उनके विरुद्ध की गई राजनीति ही थी. उन्हें सम्मानित किया गया--- एक निश्चित राशि का लिफाफा सम्मानस्वरूप दिया गया, लेकिन वह मात्र लिफाफा था----राशि उसमें नहीं थी. कवि-मन आहत हुआ था और वही उनकी अर्द्धविक्षप्तिता का कारण बना था. ’नई कहानी’ के पुरोधा कितनी ही प्रतिभाओं की भ्रूणहत्या के दोषी हैं---वे स्वीकार भले ही न करें.

साहित्य की राजनीति नई कहानी आन्दोलन की अपेक्षा आठवें दशक में कहीं अधिक दिखाई दी. नई कहानीकारों के लिए ’स्व’ की चिन्ता में केवल साहित्य अर्थात कहानी केन्द्र में थी और वे अपनों के अतिरिक्त दूसरों को खारिज करते रहे, लेकिन आठवें दशक में साहित्य दूसरे स्थान पर आ गया था. प्रथम स्थान पर पद-प्रतिष्ठा और पूंजी थी. जिसके पास ’ये’ सब थे उसकी रचनाओं की अधिकाधिक चर्चा की जाती रही. यह स्थिति दिनों दिन विद्रूप होती गई और आज यह भयंकरतम रूप में है. कितने ही सक्षम और सक्रिय साहित्यकार हाशिए पर धकेले जाते रहे/जा रहे हैं. हसन जमाल उनमें से एक नाम है.

’पाठ’ त्रैमासिक (सम्पादक – देवांशु पाल, विनाबा नगर, बिलासपुर (छत्तीस गढ़), फोन नं. ०-९९०७१२६३५०) ने जनवरी-मार्च,२०१२ (अंक २९) हसन जमाल पर केन्द्रित किया है. हसन जमाल पर लिखते हुए अनेक लेखकों ने इस मुद्दे पर चर्चा की है. सुरेश पंडित अपने आलेख – ’लेखकों की भीड़ का हसन जमाल भी एक हिस्सा हैं’ में लिखते हैं – “मैं समझता हूं कि हसन जमाल का सबसे बड़ा अपराध यही है कि वे बिना किसी गाड फादर का वरदहस्त पाए एक अच्छा लेखक बनना चाहते हैं. इसी के चलते उनकी कहानियों का सही मूल्याकंन तो हुआ ही नहीं बहुत से लोग यह भी नहीं जानते कि वे एक बढ़िया सम्पादक के साथ-साथ बढ़िया कहानीकार भी हैं. मैंने किसी लेखक का उनकी कहानी पर कुछ भी लिखा देखा या पढ़ा नहीं है. न ही किसी को इनका रेफ्रेंस देते पाया है.”

हितेश व्यास अपने आलेख – ’जमालुद्दीन छीपा से हसन जमाल तक’ में कहते हैं – “उन्हें भवभूति के इस कथन पर विश्वास रखना चाहिए कि काल अनन्त है और पृथ्वी व्यापक. कोई तो समानधर्मा होगा जो उनकी कद्र करेगा. मेरी दृष्टि में हसन जमाल कथा-साहित्य के अन्ना हजारे हैं.”

उपरोक्त दो उदाहरण इसलिए कि हसन जमाल नाम के लेखक ने न केवल उल्लेखनीय कहानियां लिखीं बल्कि ’शेष’ जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका भी निकालते हैं. नासिरा शर्मा ने अपने आलेख में उनकी दो कहानियों ’जमील अहमद की बीबी’ और ’क्या मेरी बीबी से मुहब्बत करोगे’ का उल्लेख किया है. ’आजमाइश’, ’मॉमु’, ’प्लेटफार्म’ आदि कहानियां हसन जमाल को अपने समकालीनों में शीर्ष का हकदार बनाती हैं, लेकिन ------ और इस लेकिन के पीछे है साहित्य की राजनीति. हसन जमाल न ही चाटुकारिता कर पाते हैं और न ही किसी दरबार में हाजिरी दे पाते हैं. न ही वे ऊंचे पद पर रहे और न ही पूंजीपति हैं. आज जहां किसी पूंजीपति कथा-लेखिका को उसके पहले उपन्यास पर सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं पुरस्कृत कर रही हैं वहां हसन जमाल जैसे अक्खड़ की पूछ होने का सवाल ही नहीं उत्पन्न होता. अक्खड़ता उनकी पहचान है, लेकिन वह अक्खड़ता किसी मठाधीस का प्यादा होकर उसका वरदहस्त प्राप्त होने से नहीं उपजती. वह उनके अति-संवेदनशील और ईमानदार रचनाकार के परिणाम-स्वरूप जन्मती है. प्यादे जब किसी को साहित्य में खारिज करने की धमकी देते हैं तब हंसी आती है. राजेन्द्र यादव को उनके लिखे पत्रों को यदि राजेन्द्र जी ने सुरक्षित रखा होगा तो वह एक महत्वपूर्ण संग्रह होगा. साधनहीन और ईमानदार रचनाकार पत्र लिखकर ही अपनी बात कह सकता है और पत्र लिखना हसन जमाल की कमजोरी है.

कुछ लोगों का कहना है कि हसन जमाल अपना मानसिक संतुलन खो बैठे हैं. लेकिन यह सत्य नहीं है. ’शेष’ जैसी उत्कृष्ट पत्रिका मानसिक संतुलन खोया व्यक्ति नहीं निकाल सकता (जिसकी प्रशंसा करते हुए राजेन्द्र यादव नहीं थकते) और न ही वह बेहतरीन कहानियां लिख सकता है. हां, उनकी स्थिति कमोवेश निराला जैसी है और इस स्थिति को उन्होंने स्वीकार कर लिया है.

’पाठ’ ने हसन जमाल पर अंक केन्द्रित कर स्तुत्य कार्य किया है. ’पाठ’ को इस परम्परा को आगे बढ़ाना चाहिए और हाशिए पर पड़े समर्थ रचनाकारों पर केन्द्रित अंक आगे भी प्रकाशित करने चाहिए.

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वातायन का यह अंक स्व. द्रोणवीर कोहली पर केन्द्रित है. आगामी अंक वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा पर केन्द्रित होगा.
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5 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

प्रिय रूप जी ,
वातायन पर आपका सम्पादकीय आलेख आँखें खोलने वाला है . आप हमेशा ही हिंदी साहित्य में व्याप्त राजनीति पर रोशनी डालते हैं जो बहुत ही अच्छी बात है . देखा जाये तो विश्व का कोई भी साहित्य नहीं है जो इससे अछूता है . हसन जमाल फिर भी किस्मत वाले हैं जिनके साहित्य पर कुछ न कुछ लिखा जा रहा है, उनके साहित्य पर पत्रिकाओं के विशेषांक निकल रहे हैं और आप
जैसे पारखी उनकी रचनाओं को प्रकाश में ला रहे हैं . अनगिनत ऐसे प्रबुद्ध साहित्यकार हैं जिनके साहित्य को अनदेखा किया जाता , कभी उनके साहित्य पर कोई एक शब्द तक नहीं लिखता .
कमलेश्वर , मोहन राकेश व राजेंद्र यादव आज भी चर्चा में हैं और उनपर हमेशा ही कुछ न कुछ लिखा जाता है लेकिन अश्क ,वृन्दावनलाल वर्मा , इला चन्द्र जोशी , शैलेश मटियानी आदि के नाम लेने वाले नहीं रहे हैं . अजीब बात है !
प्राण शर्मा

सुभाष नीरव ने कहा…

हसन जमाल की कहानियां मुझे प्रभावित करती रही हैं। लेखक अपनी रचनाओं से तो जाना ही जाता है, पर उस पर केन्द्रित किसी पत्रिका अंक निकले तो उस लेखक से जुड़ी अन्य बातें भी पाठकों को पढ़ने को मिलती हैं। 'पाठ' के इस अंक को पढ़ने की अब तो इच्छा हो रही है।

ashok andrey ने कहा…

priya chandel Hasan Jamal jee ke rachnaa sansar se mai bhee gujra hoon lekin tumne un par bahut hii badiya aalekh likh kar achchha v mahatpurn kaam kiya hai jiske liye main tumhe badhai deta hoon.

ashok andrey ने कहा…

priya chandel Hasan Jamal jee ke rachnaa sansar se mai bhee gujra hoon lekin tumne un par bahut hii badiya aalekh likh kar achchha v mahatpurn kaam kiya hai jiske liye main tumhe badhai deta hoon.

ashok andrey ने कहा…

priya chandel Hasan Jamal jee ke rachnaa sansar se mai bhee gujra hoon lekin tumne un par bahut hii badiya aalekh likh kar achchha v mahatpurn kaam kiya hai jiske liye main tumhe badhai deta hoon.