बुधवार, 4 अप्रैल 2012

वातायन-अप्रैल,२०१२





हम और हमारा समय

नि:सन्देह, यह गाँधी का देश है!

रूपसिंह चन्देल

पिछले लंबे समय से देश की हवा गर्म है. यह गर्मी ठिठुरती ठंड के दिनों में भी अनुभव की गई. लेकिन इन दिनों ताप कुछ अधिक ही है. बात चाहे जनरल वी.के.सिंह द्वारा किए गए खुलासों की हो या पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअन्त सिंह की हत्या की साजिश में फाँसी प्राप्त राजोआणा की अचानक राजनीतिक माहौल गर्मा गया. देश हक्का-बक्का है. चौदह करोड़ की रिश्वत की पेशकश ने राजनीतिज्ञों को उतना नहीं हकबकाया जितना जनरल सिंह के १२ मार्च के उस पत्र ने जो माननीय प्रधानमंत्री जी को उन्होंने भेजा. पत्र मीडिया में लीक हो गया. पत्र लीक होना एक गंभीर मामला है. यह देशद्रोहपूर्ण कार्य है, जिसके लिए लीक करने वाले को वह सजा दी जानी चाहिए जिससे दूसरे सबक लें.


जनरल वी.के.सिंह के पत्र के लीक होने से दो बातें उभरकर सामने आयीं. राजनीतिज्ञों ने पत्र लीक होने पर गंभीर चर्चा की, जिसमें कुछ सांसदों ने उनके विषय में बहुत कुछ ऎसा कहा जो यदि कोई आम व्यक्ति किसी राजनीतिज्ञ के विषय में कहता तो उसके विरुद्ध संसद में निंदा प्रस्ताव लाए जाने की बात की जाती या उसे पागल कहकर अपमानित किया जाता. माँग यहाँ तक की गई कि जनरल सिंह को ’सैक’ कर दिया जाए---छुट्टी पर भेज दिया जाए---ऎसे कुंठित जनरल से मुक्ति पा ली जाए---. जहाँ राजनीतिज्ञों के निशाने पर जनरल वी.के.सिंह थे, वहीं जनता कुछ और ही सोच रही थी. उसके सरोकार और चिन्ता देश की सुरक्षा से जुड़े थे. वह सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार के विषय में सोच रही थी. चौदह करोड़ की रिश्वत को ठुकराने वाले और सेना के अनेक भ्रष्टाचार और घोटालों को उजागर करने वाले जनरल की ईमानदारी और उन्हें ’सैक’ करने जैसे फतवे जारी करने वाले राजनीतिज्ञों की नीयत के विषय में सोच रही थी.


सेना में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं. कहते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात सेना के कुछ विभागों में भ्रष्टाचार पनपने लगा था. आजादी के बाद वह क्रमशः बढ़ा, लेकिन इतना सर्वव्यापी नहीं था. जब मैं छोटा था सुना करता कि इस देश में पुलिस सर्वाधिक भ्रष्ट और सेना भ्रष्टाचार मुक्त है. लेकिन यह स्थिति अधिक समय तक बनी नहीं रह सकी. नियुक्तियों से लेकर चीजों की खरीद तक वहाँ भ्रष्टाचार पनपने लगा था. यह स्थिति सेना के तीनों अंगों में है. सेना ही नहीं, रक्षा मामलों से जुड़े अन्य विभागों में भी यही स्थिति है. एम.ई.एस. जैसे विभागों में बहुत पहले से यह सब जारी था. इन विभागों में पोस्टिंग्स लेने के लिए लोग वे सब हथकंडे अपनाते हैं जो किसी भी कमाऊ थाने की पोस्टिंग के लिए अपनाए जाते हैं. जहाँ ’ठेकेदार’ नाम के जीव का प्रवेश होगा भ्रष्टाचार वहाँ नहीं होगा, यह सोचना सही नहीं होगा. व्यवस्था में भ्रष्टाचार इस हद तक प्रविष्ट हो चुका है कि शायद ही पूरी तरह उसकी सफाई संभव हो---लेकिन यह सोचकर सफाई के प्रयास ही न किए जाएँ और सफाई के प्रयास करने वाले का मखौल उड़ाया जाए यह उचित नहीं.


राजनीतिक हलकों में राजोआणा की फाँसी ने भी खासा माहौल गर्माया. उसकी फाँसी रुकवाने के लिए जो प्रयास किए गए वे अनेक प्रश्न उत्पन्न करते हैं. आम आदमी यह सोचने को विवश हुआ है कि यह अभियान तुच्छ राजनीतिक लाभ के लिए देश को किसी अंधी खाई में धकेलने का प्रयास था. कहा यहाँ तक गया कि यह गाँधी का देश है---गाँधी अहिंसा के पुजारी थे---अहिंसा के पुजारी के देश में फाँसी की बात नहीं की जानी चाहिए. लेकिन यह कहने वाले यह भूल गए कि यह चन्द्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल, खुदीराम बोस, भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव जैसे उन सैकड़ों क्रान्तिकारियों का देश भी है जिन्होंने देश के लिए हँसते-हँसते अपने को कुर्बान कर दिया था. भगतसिंह की फाँसी से पूर्व गाँधी जी से कहा गया था कि वे ब्रिटिश हुकूमत से भगतसिंह सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी न दिए जाने के लिए बात करें. माना जा रहा था कि यदि गाँधी जी ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनाएँगें तो उनकी फाँसी की सज़ा बदल जाएगी. गाँधी जी ने किंचिंत भी उत्साह नहीं दिखाया. वह भगतसिंह और उनके साथियों को आतंकवादी मानते थे और आतंकवादियों के लिए उपयुक्त सजा फाँसी ही थी. फिर गाँधी के नाम पर राजोआणा को फाँसी न दिए जाने की बात क्यों की जा रही है? क्या वह आतंकवादी नहीं है? इससे यह सिद्ध होता है कि आज के भारतीय राजनीतिज्ञ उचित-अनुचित को अपने पक्ष में करने में सिद्धहस्त हैं. जनता यह भी जानना चाहती है कि प्रतिदिन दो लाख रुपयों के खर्च पर पलने वाले कसाब को फाँसी दी भी जाएगी या नहीं और दी जाएगी तो कब? उसके फैसले पर विलंब क्यों? और अफजल गुरू को क्यों बचाया जा रहा है? जनता चुप है, लेकिन वह समझती है कि यह भ्रम पालना राजनीतिज्ञों के लिए सही सिद्ध नहीं होने वाला.
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जब मैं देश की राजनीतिक स्थितियों पर विचार करता हूं और आम जन को उस पर चर्चा करता पाता हूं तब एक प्रश्न मन में उठता है कि साहित्यकार के सरोकार क्या हैं? क्या होने चाहिए? अन्ना ने भ्रश्टाचार के विरुद्ध आवाज उठायी---लेकिन अधिकांश साहित्यकार चुप थे. साहित्यकार को अपने समय के प्रश्नों से जूझना चाहिए या नहीं? सुविधाभोगी साहित्यकार ही यह सोचेंगे कि उन्हें केवल लिखना चाहिए शेष बातों से जूझने का काम दूसरों का है. प्रश्न उठता है कि ऎसे लेखक क्यों और किसके लिए लिखते हैं? अपने समय के सवालों से कतराने वाले साहित्यकार को पलायनवादी कहा जाएगा या कलावादी? वह लिखता ही क्यों है? अपने देश, समाज, भाषा, संस्कृति के प्रति जिम्मेदारी से बचने वाले साहित्यकारों की लेखकीय गंभीरता को समझा जाना चाहिए. ऎसे सुविधाभोगी साहित्यकारों के लिए हिन्दी की चर्चित और वरिष्ठ लेखिका सुधा अरोड़ा एक उदाहरण हैं, जिनका संपूर्ण लेखन समय की टकराहट से जन्मा है और समय से टकराकर जन्मा साहित्य ही सार्थक होता है.
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वातायन का यह अंक वरिष्ठ कथाकार और कवियत्री सुधा अरोड़ा जी की रचनाओं पर केन्द्रित है. साथ में प्रस्तुत है वरिष्ठतम कथाकार मन्नू भंडारी और सुधा अरोड़ा जी के साथ २० मार्च, २०१२ को मेरी और बलराम की मुलाकात के दौरान हुई बातचीत के कुछ अंश. आशा है अंक आपको पसंद आएगा.

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5 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

HAMESHA KEE TARAH AAPKA SAMPAADKIY
LEKH HAI , DESH MEIN VYAAPT
BHRASHTACHAR KE KHILAAF PAR. KASH,
AAPKEE AAWAAZ APNE AAPKO DESH KE
` SACHCHE SEWAK ` KAHNE WAALON KE
KAANON MEIN GOONJE .

ashok andrey ने कहा…

chandel tumne bilkul theek kahaa hamari chintaa desh ko lekar jayaada hai ki ham kitne kharaab samay men reh rhe hain,jiski taraph kuchh prabudh log hii chintit hain.

बेनामी ने कहा…

लिंक भेजने के लिए धन्यवाद रूपसिंहजी। सुधाजी मेरी अच्छी मित्र है उन पर आधारित सामग्री पढ़ने में खुशी होगी।

विजय शर्मा

Ila ने कहा…

अपने समय और समाज से जुड़े प्रश्नों से टकराता वातायन का सम्पादकीय हर बार की तरह पठनीय है |
सच तो यह है कि वातायन धीरे- धीरे एक संपूर्ण पत्रिका का रूप लेता जा रहा है जिसे आद्यांत पढ़ कर ही मेरे जैसे पाठक को संतुष्टि मिलती है |
वातायन के इस स्वरूप का व्यापक स्वागत होगा - ऐसा मेरा विश्वास है |
सादर
इला

Ila ने कहा…

अपने समय और समाज से जुड़े प्रश्नों से टकराता वातायन का सम्पादकीय हर बार की तरह पठनीय है |
सच तो यह है कि वातायन धीरे- धीरे एक संपूर्ण पत्रिका का रूप लेता जा रहा है जिसे आद्यांत पढ़ कर ही मेरे जैसे पाठक को संतुष्टि मिलती है |
वातायन के इस स्वरूप का व्यापक स्वागत होगा - ऐसा मेरा विश्वास है |
सादर
इला