सुरेश उनियाल
आदित्य सहगल खुद को बड़े सुलझे हुए विचारों वाला आदमी मानता था। उसकी कुछ मान्यताएं थीं एक तो उसका मानना था कि आदमी के वजूद का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा उसका दिमाग है। दिल को वह वाहियात चीज मानता था। अगर दिल का काम दिमाग को आक्सीजन सप्लाई करना न होता तो वह शायद अपने दिल को ही निकलवा फेंकता।
आदित्य का यह भी मानना था कि सब दिमाग एक बराबर नहीं होते। बल्कि कोई दो दिमाग भी बराबर नह होते। दुनिया भर के दिमागों को बाकायदा एक रैंकिंग दी जा सकती है। कुछ ऐसे जैसे टेनिस खिलाडि़यों की रैंकिंग होती है।
एक दिलचस्प विचार अकसर आदित्य के दिमाग में आता था कि अगर कोई ऐसा जरिया निकल आता कि दुनिया भर के लोगों के दिमाग की रैंकिंग निर्धारित की जा सकती तो कितना मजा आता। दुनिया की आबादी इस समय पांच अरब से कुछ कम है। याने रैंकिंग दस अंकों की संख्या में होती। आज के जमाने में दस अंकों की संख्या कोई बड़ी चीज तो है नहीं। टेलीफोन नम्बर में ही सात अंक होते हैं। पेजर और मोबाइल क नम्बर तो दस–दस अंकों के ही होते हैं। दस–ग्यारह अंक तो बीमा पॉलिसी नम्बर के भी होते हैं। क्रेडिट कार्ड नम्बर तो 16 अंकों की संख्या में होते हैं। और ये सभी संख्याएं आज हमारे जीवन का जरूरी हिस्सा बनी हुई हैं। तो फिर दस अंकों की एक और संख्या इस खाते में क्यों नहीं जुड़ सकती? उसे भी हम वैसे ही याद रख सकते हैं जैसे बाकी दूसरी संख्याओं को याद रखते हैं।
इसमें एक दिक्कत जरूर थी। क्रेडिट कार्ड नम्बर, बीमा पॉलिसी नम्बर या टेलिफोन नम्बर आम तौर पर बदलते कम ही हैं। जबकि आदमी क दिमाग की रैंकिंग तो लगातार बदलने वाली चीज होगी। टेनिस रैंकिंग की तरह। हर प्रतियोगिता में प्रदर्शन क आधार पर खिलाड़ी को अंक मिलते हैं। इसी हिसाब से उसकी रैंकिंग कम या ज्यादा होती रहती है।
और फिर दिमाग की रैंकिंग का काम तो इससे कहीं ज्यादा उलझा हुआ होगा। एक तो यह कि लोग ... रोज ही क्या, हर घंटे, हर मिनट, हर सेकंड मर रहे हैं और पैदा भी हो रहे हैं। आपसे बेहतर रैंकिंग वाला अगर कोई मर गया तो आप एक पादान चढ़ गए। इसी तरह नए पैदा होने वालों में कोई आपसे बेहतर दिमाग वाला आ गया तो आप हो गए एक पादान नीचे।
नहीं ठहरिए ... ठहरिए ... मामला गड़बड़ा रहा है। नए पैदा हुए बच्चे का कच्चा दिमाग भला किसी प्रौढ़ क पक हुए दिमाग से बेहतर कसे हो सकता है? इसका मतलब यह हुआ कि बच्चा जैसे–जैसे बड़ा होता रहता है, उसी हिसाब से उसका दिमाग भी रैंकिंग में ऊपर चढ़ता चला जाता है।
अब जरूरत सिर्फ़ इस बात की रह गई थी कि रैंकिंग का आधार क्या हो? अब ऐसी कोई प्रतियोगिता तो आयोजित नह की जा सकती कि पूरी दुनिया क लोग उसमें हिस्सा लें और उसमें मिले अंकों क आधार पर उनकी रैंकिंग तय की जाए।
इस तरह की किसी भी प्रतियोगिता की सबसे बड़ी दिक्कत तो यह होगी कि दुनिया क सारे लोगों को एक साथ शामिल कैसे किया जाए। मान लीजिए, पूरी दुनिया क हर व्यक्ति को एक कंप्यूटर नेटवर्क क जरिए जोड़ दिया जाए। हालांकि यह बात सिफर् मान लेने वाली ही होगी क्योंकि दुनिया भर क पांच अरब से कुछ कम लोगोंं क लिए इतने ही कम्प्यूटर सेट जुटाना कैसे सम्भव हो सकता है? लेकिन बात जब परिकल्पना क स्तर की हो, तो मान लीजिए ऐसा हो जाता है। दुनिया का हर व्यक्ति अपने–अपने कम्प्यूटर पर बैठा प्रतियोगिता में पूछे जाने वाला सवालों का इंतजार कर रहा है।
यहां एक दूसरी दिक्कत आ जाती है। जब हर व्यक्ति प्रतियोगी है तो निर्णायक कौन है ? कौन सवाल तय करेगा? कौन यह जांचेगा कि किसका कितना जवाब सही है और कितना नह ? कौन तय करेगा कि किसे कितने अंक दिए जाएं ?
आदित्य सहगल को लगता है कि दिमाग की रैंकिंग क चक्कर में उसका दिमाग कुछ ज्यादा ही उलझता जा रहा है।
लेकिन वह तो खुद को बहुत सुलझे हुए दिमाग वाला व्यक्ति मानता है। इस तरह की उलझन उसक लिए ठीक नहीं है। इस पूरे उलझाव को दिमाग से झटक कर वह एक बार फिर नए सिरे से उस समस्या पर विचार करने लगता है।
उलझाव क ट्रेफिक जाम से निकल कर जब उसकी गाड़ी विचारों की सीधी लेन पर आ जाती है तो आदित्य सहगल को बड़ी राहत मिलती है। वह सोचता है कि वह दुनिया भर क लोगों क चक्कर में पड़ ही क्यों रहा है। वह सिर्फ़ उन लोगों तक सीमित रहे जो उसक सम्पर्क में आते हैं, जिनसे उसका मतलब पड़ता है। जिस आदमी से उसे ज़िन्दगी में कभी कोई मतलब पड़ना ही नह है, वह दिमाग की रैंकिंग में उससे उपर है या नीचे, इससे क्या फर्क पड़ता है।
लेकिन ऐसे लोगों की संख्या भी तो कम नह होगी जिनसे उसे कोई न कोई मतलब रहता है।
उसने ऐसे लोगों को याद करना शुरू किया। सबसे पहले तो अपने परिवार वाले। फिर नाते–रिश्तेदार। कुछ रिश्तेदार वह जो मिलते–जुलते रहते हैं और उनसे कह ज्यादा वह जो कभी छठे–छमाहे किसी शादी–ब्याह में या किसी मातमपुर्सी में मिल जाते हैं। और कुछ जो ऐसे ऐसे मौकों पर भी कम ही मिलते हैं। बस किसी न किसी बहाने उनका जिक्र भर यदा–कदा बातचीत में जाता है। कुल मिलाकर यह संख्या चार–पांच सौ तक तो पहुंच ही जाएगी। ज्यादा भी हो सकती है।
आदित्य सहगल की ज़िन्दगी में दोस्तों की हमेशा से ही एक महत्वपूर्ण जगह रही है। यों तो बहुत बड़ी संख्या में उसक दोस्त कभी नहीं रहे। कम ही लोगों से वह दोस्ती रख पाता है। लेकिन जो दोस्त बन जाते हैं, फिर वह उन पर जान छिड़कने के लिए तैयार रहता है। जब वह अपने दोस्तों को याद करने बैठता है तो पाता है कि बचपन से लेकर स्कूल के दिनों के, बेरोजगारी के जमाने के, उम्र की विभिन्न पादानों पर, ज़िन्दगी क विभिन्न दौरों में कम ही सही, मित्र तो बनते ही रहे हैं। इनमें से समय–समय पर कुछ छूटते भी रहे हैं। कुछ इसलिए छूटे कि जगह बदल गई तो कुछ इसलिए छूट गए कि मन बदल गए। चिट्ठी–पत्री की आदित्य सहगल को आदत नहीं है इसलिए पत्र व्यवहार उसका किसी क साथ नहीं है। लेकिन उन सब दोस्तों में कई ऐसे हैं जिन्हें याद करने का उसका मन नहीं होता तो कुछ ऐसे भी हैं जिनसे दूरी क बावजूद आत्मीयता बनी हुई है। महीनों–बरसों क बाद भी जब मुलाकात होती है तो वही पुरानी गर्मजोशी और अन्तरंगता लौट आती है।
नाते–रिश्तेदारों और दोस्तों क बाद नम्बर आता है पड़ोसियों का। कभी महानगरीय संस्कृति की बात की जाती थी कि एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी से कोई मतलब नह रखता। आपसी दुआ–सलाम भी हो जाए तो बहुत है। लेकिन अब ग्रुपहाउसिंग सोसाइटियों क जमाने में एक सोसाइटी क ज्यादातर लोग एक दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं। फिर आसपास क परचूनिए, सब्जीवाले, दूधवाले, इलैक्ट्रीशियन, प्लम्बर, धोबी, अखबारवाला, सोसाइटी का केयरटेकर, चौकीदार, माली, कार की सफाई करने वाला, न जाने कितने लोग हैं जो रोज या दो–चार दिन में मिलते ही रहते हैं। चार–पांच सौ से ज्यादा इनकी संख्या होगी।
यहां तक आते–आते आदित्य सहगल को लगता है कि अपनी ज़िन्दगी में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वालों को तो वह भूल ही गया है। ये वे लोग हैं जिनक साथ उसक दिन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा गुजरता है, जो उसकी ज़िन्दगी को कई तरह से प्रभावित करते हैं। उसक दफ्तर वाले, उसक साथ काम करने वाले जिनमें से कई ऐसे हैं जिनके साथ वह अपना सुख–दुख बांटता है। कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें वह उतना अपना तो नह समझता लेकिन उनक साथ अपनापे का दिखावा जरूर करता है। कुछ क साथ न चाहने क बावजूद कामकाजी रिश्ते रखने जरूरी हो जाते हैं। कुछ क साथ साफ तौर पर झगड़ा भी है। सब मिलाकर सौ से ज्यादा ही होंगे।
इनके अलावा कुछ ऐसे भी हैं जिनके साथ रोज का सम्बन्ध तो नह है लेकिन गाहे–बगाहे जब मिलना होता है तो बड़े प्यार से मिलते हैं। इसमें उसक वे सब हमपेशा लोग आते हैं जो दूसरे संस्थानों में काम करते हैं और सेमिनारों, मीटिगों वगैरह में अकसर उनसे मुलाकात होती रहती है।
एक श्रेणी उन लोगों की भी है जिनके साथ उसका कोई औपचारिक परिचय तो नहीं है लेकिन रास्ते में आते–जाते, किसी परचून वाले की दूकान पर, किसी सब्जी वाले के ठेले के पास, किसी पनवाड़ी की गुमटी के सामने, चाय के ढाबे में, बस स्टॉप पर ये लोग अकसर दिख जाते हैं। इन लोगों के साथ किसी तरह की हाय–हैलो भी नहीं होती, बस नजरें मिल गई तो मुस्कान का आदान–प्रदान हो जाता है। कुछ ज्यादा फुरसत हो तो मौसम या क्रिकट पर एक आध वाक्य का संवाद हो जाता है।
आदित्य को लगता है कि लिस्ट लम्बी होती जा रही है। हजार का आंकड़ा तो निश्चित रूप से पार हो गया होगा और अभी वे लोग इस लिस्ट में आए ही नहीं जिनके बारे में वह तो बहुत कुछ जानता है लेकिन वे शायद उसका नाम भी नहीं जानते होंगे। भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, दुनिया भर के कई बड़े नेता, फिल्म और टेलिविजन की दुनिया के स्टार, दुनिया भर के जाने–माने लेखक, संपादक, पत्रकार, संगीतकार, कलाकार, खिलाड़ी। वे जो आज सक्रिय हैं, और वे भी जो आज सक्रिय तो नहीं हैं लेकिन गाहे–बगाहे टेलीविजन पर या अखबारों में उनकी शक्ल देखने को मिल जाती है। कुछ वे भी जो आज इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन यादों के सहारे आज भी उसक भीतर मौजूद हैं।
आदित्य इस सूची को यहीं पर खत्म कर देना चाहता है लेकिन उसका साफ सोच वाला उर्वर दिमाग अभी और बहुत से नाम जोड़ना चाहता है। वह उन लोगों को नहीं छोड़ना चाहता जिनके लिए वह खुद भी एक स्टार है। जो सभाओं, बैठकों में अकसर उसे घेर लेते हैं। उसकी कही हुई बातों की दिल से तारीफ करते हैं, उसक ऑटोग्राफ मांगते हैं। उसकी कोई कहानी, कोई कविता, कोई लेख, कोई रिपोर्ट कहीं छपती है तो वे उसे प्रशंसा पत्र लिखते हैं। वे जब उससे मिलते हैं, तब उसकी रचनाओं का जिक्र करते हैं, बताते हैं कि किस तरह वह उन्हें प्रेरित करती हैं।
उनसे मिलते हुए आदित्य को पूरे अपरिचय के बावजूद खुशी होती है। कई बार आदित्य को लगता है कि ये ही वे लोग हैं जिनकी वजह से आदित्य को खुद को देखने का, परखने का मौका मिलता है। ये आदित्य से जो भी कहते हैं, उसमें किसी तरह का छल या प्रपंच नहीं होता। ऐसा नहीं है कि ये लोग आदित्य के हर तरह के विचारों का समर्थन ही करते हों, कुछ चीजों क लिए वे उसकी आलोचना भी करते हैं। इन्हीं लोगों की बातों से, उनक लिखे पत्रों और टेलीफोन पर बातचीत से उसे खुद को परिमार्जित करने का मौका मिलता है। अगर आदित्य सहगल खुद को सुलझे हुए विचारों वाला आदमी मानता है तो उसक पीछे इन सब प्रशंसकों की भी एक बड़ी भूमिका है।
हर वर्ग में औसतन पांच सौ लोग भी हुए तो आठ वर्गों में कुल चार हजार लोग तो हुए ही।
इन वर्गों के विभाजन कुछ खामियां आदित्य सहगल को लगती हैं। एक खामी तो यही है कि बहुत से लोग एक से ज्यादा वर्गों में आते हैं। जैसे कोई दोस्त है तो वह पड़ोसी भी है या सहकर्मी भी। या कोई रिश्तेदार है जो दोस्त भी है और बैठकों, सम्मेलनों में भी उससे अकसर मिलना हो जाता है, या एक पड़ोसी है जो रिश्तेदार भी है, या कोई प्रशंसक ऐसा भी है जिससे अमूमन किसी पनवाड़ी की गुमटी के सामने या किसी चाय के ढाबे में मुलाकात हो जाती है।
मान लीजिए, सूचियों में दोबारा–तिबारा आने वाले नाम पांच सौ हैं। कम भी हो सकते हैं और ज्यादा भी लेकिन जब सब कुछ अंदाजे से ही चल रहा है तो एक अंदाजा यह भी सही।
इस तरह कुल नाम साढ़े तीन हजार के आसपास होने चाहिएं।
इस पूरे हिसाब–किताब से आदित्य सहगल को बड़ी राहत मिलती है। एक बहुत बड़ा काम कर लिया है उसने। पांच अरब की संख्या को घटाकर साढ़े तीन हजार कर दिया है। याने करीब पन्द्रह लाखवां हिस्सा।
यह आंकड़ा एक तरफ जहां आदित्य सहगल को राहत देता है वहीं उसे इस बात का भी अफसोस होता है कि दुनिया के लोगों का कितना थोड़ा सा हिस्सा है जिसे वह जानता है, जो उसक परिचितों की सूची में आता है। यानी दुनिया के हर पंद्रह लाख लोगों में से वह सिर्फ़ एक को जानता है। बाकी चौदह लाख निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यानवे लोग ऐसे हैं जिन्हें वह बिल्कुल नहीं जानता।
आदित्य सहगल खुद को बड़ा साहित्यकार और विचारक मानता है। वह मानता है कि इन्सानी फितरत को पहचानने में उसे महारत हासिल है। लेकिन इस आंकड़े के बाद उसका आत्मविश्वास डोल जाता है। कितने कम लोगों को जानता है वह! कितने कम लोगों क सम्पर्क में आ सका है अब तक! कितना कुछ अनदेखा अनजाना रह गया है उससे!
इस आंकड़े ने आदित्य सहगल के बहुत से भ्रमों को तोड़ दिया। आदित्य दुनिया के कई देशों में घूमा है। वहां के लोगों को देखने, परखने, जानने का मौका उसे मिला है। वहां उसने भारत और भारत के लोगों के बारे में कई जगह व्याख्यान भी दिए हैं। लौटने पर यहां के सभा–सम्मेलनों में वहां के लोगों के बारे में, उनक जीवन के बारे में व्याख्यान दिए, लेख लिखे, किताबें लिखीं। लेकिन यह आंकड़ा अब उसकी खिल्ली उड़ा रहा था। कितनी कम समझ के आधार पर किया था उसने यह सब कुछ।
यह तो ठीक तरह से सैंपल सर्वे भी नहीं हुआ। सौ में से एक, हजार में से एक होता तो इसकी कोई प्रामाणिकता भी होती। यहां तो सैम्पल दस हजार या एक लाख में एक नहीं बल्कि पन्द्रह लाख में एक का है।
यह सब क्या है आदित्य सहगल? इनसानी फितरत की जानकारी का तुम्हारा आधार कितना छोटा है? कितने कम लोगों को असल में तुमने देखा और जाना है? तुम्हारी यह जानकारी तो ज्यादातर किताबी है! और जिनकी किताबें पढ़कर तुमने यह सब जाना–समझा है, उनकी खुद की जानकारी का आधार क्या रहा होगा? क्या वे भी तुम्हारी तरह अपनी विद्वत्ता के अहम से भरे हुए अल्पज्ञानी नहीं होंगे? आखिर तुम्हारी किताबें पढ़कर तुम्हारी ‘विद्वत्ता’ से प्रभावित होने वालों की संख्या भी तो कम नहीं होगी। वे तुम्हारी किताबों को पूरी आस्था के साथ पढ़ते हैं। उन्हें तो लगता भी नहीं होगा कि यह कितने अल्पज्ञान की उपज है।
लेकिन ठहरो आदित्य सहगल! लघुता बोध से तुम कुछ ज्यादा ही दबे जा रहे हो। क्या तुम समझते हो कि दुनिया में सचमुच कोई ऐसा आदमी हो सकता है, जो दुनिया के सभी आदमियों को जानता होगा! सभी तो छोड़ो, आधे लोगों को, दसवें हिस्से या सौवें हिस्से को भी जानने वाला कोई इस दुनिया में होगा?
अगर एक व्यक्ति से एक मिनट की भी मुलाकात हो तो पांच अरब व्यक्तियों से एक एक बार मिलने में ही नौ हजार पांच सौ तेरह बरस लग जाएंगे। इन बरसों में वह लोगों से मिलने के अलावा और कुछ नहीं कर पाएगा, न खाना, न सोना, न शौच, न नहाना–धोना, कुछ नहीं।
पूरे न सही, आधे लोगों से मिलने क लिए भी चार हजार सात सौ छप्पन साल छह महीने की जरूरत होगी। दसवें हिस्से से मिलने के लिए नौ सौ इक्यावन साल चार महीने और सौवें हिस्से से मिलने क लिए पचनवे साल और डेढ़ महीने की जरूरत होगी।
आदित्य सहगल को पूरा विश्वास है कि कोई सामाजिक कार्यकर्ता या कोई नेता भी, जिसे लोगों से मिलने के ज्यादा मौके मिलते हैं, अपनी पूरी जिन्दगी में व्यक्तिगत तौर पर तीस–पैंतीस हजार से ज्यादा लोगों को नहीं जानता होगा। याने पूरी दुनिया की आबादी का पंद्रह हजारवां हिस्सा। लेकिन इस जानने में भी जानने की औपचारिकता भर होगी, उपरी दुआ–सलाम की। जिसे असल में जानना कहते हैं, वह तो इनके मामले में भी आदित्य सहगल से ज्यादा नहीं होगी।
यहां पर आदित्य सहगल को एक बात और याद आती है। देश की संसद में बैठे जो लोग पूरे देश और देशवासियों की तकदीर का फैसला करते हैं, वे भी औसतन पंद्रह लाख से ज्यादा ही लोगों का प्रतिनिधित्व करते होंगे। एक संसदीय क्षेत्र में मतदाताओं की औसत संख्या बीस लाख क करीब है। करीब पांच लाख और ऐसे लोग होंगे जिनके नाम मतदाता सूची में नहीं होंगे। इनमें कुछ 18 बरस से कम के बच्चे होंगे, कुछ लोग मतदाता सूचियां बनने के बाद आए होंगे, कुछ के नाम राजनीतिक या इतर कारणों से मतदाता सूचियों से गायब करवा दिए गए होंगे। मतलब यह कि एक सांसद अपने क्षेत्र के करीब 25 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है।
इसे इस तरह से देख सकते हैं कि हालांकि वह सांसद एक व्यक्ति है और उसकी समझ भी एक व्यक्ति की ही समझ है लेकिन संसद में वह जो कुछ भी कहता है, वह उसक चुनाव क्षेत्र के 25 लाख लोगों की आवाज मान ली जाती है। जहां उसने सहमति दी, मान लिया जाता है कि वह 25 लाख लोगों की सहमति है और जहां उसने असहमति प्रकट की तो वह 25 लाख लोगों की असहमति मान ली जाती है। भले ही अपनी इस राय से इत्तेफाक रखने वाला वह अकेला व्यक्ति हो और बाकी 24,99,999 लोग उससे इत्तेफाक न रखते हों।
इसी का नाम प्रजातंत्र है और आदित्य सहगल को प्रजातंत्र में पूरा विश्वाय है। इसलिए सारी विसंगतियों क बावजूद जनप्रतिनिधित्व क इस सिद्धान्त मंे उसकी आस्था है।
अब आदित्य सहगल क सामने सवाल यह था कि क्या ये साढ़े तीन हजार व्यक्ति जो उसक परिचितों की सूची में हैं, पूरी दुनिया की आबादी का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं?
आदित्य सहगल को लगता है कि जरूर कर सकते हैं। ऐसा सोचने की आदित्य क पास वजह भी है। उसका मानना है कि इन सब लागों से मिलकर ही उसकी अपनी दुनिया बनती है।
यहां आकर आदित्य दार्शनिकों क सबसे पुराने सवाल पर आ जाता है कि दुनिया दरअसल क्या है? या कहें कि यह पूरी कायनात क्या है? तब वह दार्शनिकों क उस वर्ग की सोच को अपने ज्यादा करीब मानता है जिनक अनुसार आदमी की दुनिया उतनी ही है जितनी उसकी इन्द्रियां याने आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा क द्वारा बोधगम्य है।
जिन लोगों से वह कभी मिला नहीं, जिन्हंे उसने कभी जाना नहीं, जिनक अस्तित्व का उसे कभी बोध नहीं हुआ, वे उसकी अपनी दुनिया का हिस्सा कसे हो सकते हैं? उसकी अपनी दुनिया तो उन्हीं लोगों से बनती है जो कभी न कभी उसक जीवन से जुड़े रहे हैं। चाहे कितने कम ही क्यों न जुड़े हों, लेकिन उनक होने ने आदित्य की यादों में, उसकी चेतना में अपनी एक जगह बनाई है। आदित्य क आदित्य होने में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में, कम या ज्यादा लेकिन उनका एक निश्चित योगदान है। उनकी दोस्ती का, उनकी दुश्मनी का, उनक लगाव का, उनकी उदासीनता का, उनकी निकटता का, उनकी दूरी का उसकी जिन्दगी क तौर तरीकों पर, कम या ज्यादा लेकिन फर्क पड़ा है। यानी एक तरह से देखा जाए तो इन सबकी वजह से ही आदित्य सहगल का अस्तित्व है।
अगर ये सब लोग आदित्य सहगल क लिए इतने महत्वपूर्ण हैं, उसकी अपनी दुनिया इन्हीं से मिलकर बनी है तो फिर दुनिया क बाकी पांच अरब या जितने भी वे हैं, की परवाह ही वह क्यों करे? उसक ये साढ़े तीन हजार ही उसक लिए किसी भी दुनिया का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं।
इसमें कुछ गलत भी तो नहीं है। आखिर वह आदमी जिससे आदित्य सहगल की कभी मुलाकात ही नहीं हुई और न कभी होने की सम्भावना है, जिसक होने या न होने से आदित्य को कोई फर्क ही नहीं पड़ता, जिसका आदित्य क लिए कोई अस्तित्व ही नहीं है, उसक दिमाग की रेटिंग कुछ भी हो, आदित्य की दिमाग की रेटिंग से कम हो या ज्यादा, कोई मायने नहीं रखता।
अचानक एक सवाल आदित्य क दिमाग में कौंधता है कि रेटिंग की आखिर जरूरत ही क्या है? जो उसकी इस साढ़े तीन हजार की गिनती से बाहर हैं, वे तो उसक लिए बाहर हैं ही और जो इस गिनती में शामिल हैं, वे उसक अपने हैं। इस अपनत्व की डिग्री में फर्क हो सकता है लेकिन हैं तो अपने ही। रेटिंग अगर जरूरी है तो दिमाग की रेटिंग क बजाय अपनत्व की डिग्री की रेटिंग होनी चाहिए।
अरे आदित्य सहगल, यह तुम्हें क्या होता जा रहा है? तुम इतना कनफ्यूज तो कभी नहीं हुए थे। दिमाग को सर्वोपरि मानने वाले तुम, आदित्य सहगल यह दिल की जबान कसे बोलने लगे? यह अपनापन, परायापन तो दिल से होता है। और अगर अपनेपन की बात करनी है तो उसक लिए रेटिंग की जरूरत ही क्या है? अपनापन कोई ऐसी चीज तो है नहीं जिसे नापा जा सक। यह तो सिर्फ़ महसूस की जा सकने वाली चीज है। दिल कोई दिमाग तो है नहीं जो किसी चीज को आंकड़ों की जबान में परखता हो। दिल तो दिल है। उसकी जबान तो महसूस करने वाली जबान है।
संभालो खुद को आदित्य सहगल! यह तो तुम पाला बदलने लगे हो! दिमाग के पाले से दिल के पाले में जाने की कोशिश करने लगोगे तो कहोगे कि आदमी के वजूद का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा उसका दिल है और दिमाग एक वाहियात चीज है। अगर दिमाग का काम दिल को धड़काना न होता तो दिमाग को निकलवा फेंकना ही बेहतर होता।
क्या सोचने लगे आदित्य सहगल!
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संक्षिप्त परिचय
सुरेश उनियाल
जन्म तिथि : 4 फरवरी, 1947
जन्म स्थान : देहरादून, उत्तराखंड
शिक्षा देहरादून में। गणित से एम.एस–सी. व हिंदी साहित्य से
एम.ए.
पूना स्थित फिल्म आर्काइव्स से फिल्म एप्रिसिएशन का
कोर्स
अनुभव : करीब चार दशक तक पत्रकारिता से जुड़े रहने के बाद
स्वैच्छिक सेवानिवृत्त।
1974 से 1977 तक नेशनल बुक ट्रस्ट के संपादकीय विभाग से संबद्ध
कथा पत्रिका सारिका के संपादकीय विभाग में करीब दो दशकों तक काम करने के अलावा टाइम्स ऑफ इंडिया के अन्य प्रकाशनों दिनमान टाइम्स और सांध्य टाइम्स प्रकाशनों से भी जुड़ा रहा।
अब स्वतंत्र लेखन।
पिछले करीब चालीस वषो से लेखनरत। कहानी, समीक्षा, साहित्य विषयक लेख, सिनेमा और खेल पर विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन। सांध्य आइम्स के लिए फिल्म समीक्षा और संगीत समीक्षा के नियमित कॉलम।
प्रकाशित पुस्तकें : दरअसल (कहानी संग्रह)
यह कल्पनालोक नहीं (कहानी संग्रह)
कहीं कुछ गलत (कहानी संग्रह)
विज्ञान और विनाश (विज्ञान विषयक टिप्पणियां )
एक अभियान और (संपादित कहानी संकलन)
लगभग दो दर्जन पुस्तकों में सहयोगी लेखन
दो कहानी संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशनाधीन
नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए नेशनल बायोग्राफी सीरीज की
पुस्तक ‘द मदर’ का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद।
टाटा समूह के इतिहास की पुस्तक का अनुवाद समृद्धि का
राजपथ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित
हिंदी सिनेमा पर एक शोधपरक पुस्तक पर काम लगभग
अंतिम चरण पर।
नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए ही नेहरू बाल पुस्तकालय
श्रृंखला के लिए भी हमारी नोसेना, जिस दिन नदी बोली
थी और अंतरिक्ष का वरदान का अनुवाद।
विभिन्न भारतीय और विदेशी भाषाओं में कहानियों के
अनुवाद प्रकाशित
पुरस्कार : यह कल्पनालोक कहानी संग्रह के लिए हिंदी
अकादमी से साहित्यिक कृति सम्मान
पता : बी–8, प्रेस अपार्टमेंट्स,
23 इंद्रप्रस्थ एक्सटेंशन,
दिल्ली–110092
आदित्य का यह भी मानना था कि सब दिमाग एक बराबर नहीं होते। बल्कि कोई दो दिमाग भी बराबर नह होते। दुनिया भर के दिमागों को बाकायदा एक रैंकिंग दी जा सकती है। कुछ ऐसे जैसे टेनिस खिलाडि़यों की रैंकिंग होती है।
एक दिलचस्प विचार अकसर आदित्य के दिमाग में आता था कि अगर कोई ऐसा जरिया निकल आता कि दुनिया भर के लोगों के दिमाग की रैंकिंग निर्धारित की जा सकती तो कितना मजा आता। दुनिया की आबादी इस समय पांच अरब से कुछ कम है। याने रैंकिंग दस अंकों की संख्या में होती। आज के जमाने में दस अंकों की संख्या कोई बड़ी चीज तो है नहीं। टेलीफोन नम्बर में ही सात अंक होते हैं। पेजर और मोबाइल क नम्बर तो दस–दस अंकों के ही होते हैं। दस–ग्यारह अंक तो बीमा पॉलिसी नम्बर के भी होते हैं। क्रेडिट कार्ड नम्बर तो 16 अंकों की संख्या में होते हैं। और ये सभी संख्याएं आज हमारे जीवन का जरूरी हिस्सा बनी हुई हैं। तो फिर दस अंकों की एक और संख्या इस खाते में क्यों नहीं जुड़ सकती? उसे भी हम वैसे ही याद रख सकते हैं जैसे बाकी दूसरी संख्याओं को याद रखते हैं।
इसमें एक दिक्कत जरूर थी। क्रेडिट कार्ड नम्बर, बीमा पॉलिसी नम्बर या टेलिफोन नम्बर आम तौर पर बदलते कम ही हैं। जबकि आदमी क दिमाग की रैंकिंग तो लगातार बदलने वाली चीज होगी। टेनिस रैंकिंग की तरह। हर प्रतियोगिता में प्रदर्शन क आधार पर खिलाड़ी को अंक मिलते हैं। इसी हिसाब से उसकी रैंकिंग कम या ज्यादा होती रहती है।
और फिर दिमाग की रैंकिंग का काम तो इससे कहीं ज्यादा उलझा हुआ होगा। एक तो यह कि लोग ... रोज ही क्या, हर घंटे, हर मिनट, हर सेकंड मर रहे हैं और पैदा भी हो रहे हैं। आपसे बेहतर रैंकिंग वाला अगर कोई मर गया तो आप एक पादान चढ़ गए। इसी तरह नए पैदा होने वालों में कोई आपसे बेहतर दिमाग वाला आ गया तो आप हो गए एक पादान नीचे।
नहीं ठहरिए ... ठहरिए ... मामला गड़बड़ा रहा है। नए पैदा हुए बच्चे का कच्चा दिमाग भला किसी प्रौढ़ क पक हुए दिमाग से बेहतर कसे हो सकता है? इसका मतलब यह हुआ कि बच्चा जैसे–जैसे बड़ा होता रहता है, उसी हिसाब से उसका दिमाग भी रैंकिंग में ऊपर चढ़ता चला जाता है।
अब जरूरत सिर्फ़ इस बात की रह गई थी कि रैंकिंग का आधार क्या हो? अब ऐसी कोई प्रतियोगिता तो आयोजित नह की जा सकती कि पूरी दुनिया क लोग उसमें हिस्सा लें और उसमें मिले अंकों क आधार पर उनकी रैंकिंग तय की जाए।
इस तरह की किसी भी प्रतियोगिता की सबसे बड़ी दिक्कत तो यह होगी कि दुनिया क सारे लोगों को एक साथ शामिल कैसे किया जाए। मान लीजिए, पूरी दुनिया क हर व्यक्ति को एक कंप्यूटर नेटवर्क क जरिए जोड़ दिया जाए। हालांकि यह बात सिफर् मान लेने वाली ही होगी क्योंकि दुनिया भर क पांच अरब से कुछ कम लोगोंं क लिए इतने ही कम्प्यूटर सेट जुटाना कैसे सम्भव हो सकता है? लेकिन बात जब परिकल्पना क स्तर की हो, तो मान लीजिए ऐसा हो जाता है। दुनिया का हर व्यक्ति अपने–अपने कम्प्यूटर पर बैठा प्रतियोगिता में पूछे जाने वाला सवालों का इंतजार कर रहा है।
यहां एक दूसरी दिक्कत आ जाती है। जब हर व्यक्ति प्रतियोगी है तो निर्णायक कौन है ? कौन सवाल तय करेगा? कौन यह जांचेगा कि किसका कितना जवाब सही है और कितना नह ? कौन तय करेगा कि किसे कितने अंक दिए जाएं ?
आदित्य सहगल को लगता है कि दिमाग की रैंकिंग क चक्कर में उसका दिमाग कुछ ज्यादा ही उलझता जा रहा है।
लेकिन वह तो खुद को बहुत सुलझे हुए दिमाग वाला व्यक्ति मानता है। इस तरह की उलझन उसक लिए ठीक नहीं है। इस पूरे उलझाव को दिमाग से झटक कर वह एक बार फिर नए सिरे से उस समस्या पर विचार करने लगता है।
उलझाव क ट्रेफिक जाम से निकल कर जब उसकी गाड़ी विचारों की सीधी लेन पर आ जाती है तो आदित्य सहगल को बड़ी राहत मिलती है। वह सोचता है कि वह दुनिया भर क लोगों क चक्कर में पड़ ही क्यों रहा है। वह सिर्फ़ उन लोगों तक सीमित रहे जो उसक सम्पर्क में आते हैं, जिनसे उसका मतलब पड़ता है। जिस आदमी से उसे ज़िन्दगी में कभी कोई मतलब पड़ना ही नह है, वह दिमाग की रैंकिंग में उससे उपर है या नीचे, इससे क्या फर्क पड़ता है।
लेकिन ऐसे लोगों की संख्या भी तो कम नह होगी जिनसे उसे कोई न कोई मतलब रहता है।
उसने ऐसे लोगों को याद करना शुरू किया। सबसे पहले तो अपने परिवार वाले। फिर नाते–रिश्तेदार। कुछ रिश्तेदार वह जो मिलते–जुलते रहते हैं और उनसे कह ज्यादा वह जो कभी छठे–छमाहे किसी शादी–ब्याह में या किसी मातमपुर्सी में मिल जाते हैं। और कुछ जो ऐसे ऐसे मौकों पर भी कम ही मिलते हैं। बस किसी न किसी बहाने उनका जिक्र भर यदा–कदा बातचीत में जाता है। कुल मिलाकर यह संख्या चार–पांच सौ तक तो पहुंच ही जाएगी। ज्यादा भी हो सकती है।
आदित्य सहगल की ज़िन्दगी में दोस्तों की हमेशा से ही एक महत्वपूर्ण जगह रही है। यों तो बहुत बड़ी संख्या में उसक दोस्त कभी नहीं रहे। कम ही लोगों से वह दोस्ती रख पाता है। लेकिन जो दोस्त बन जाते हैं, फिर वह उन पर जान छिड़कने के लिए तैयार रहता है। जब वह अपने दोस्तों को याद करने बैठता है तो पाता है कि बचपन से लेकर स्कूल के दिनों के, बेरोजगारी के जमाने के, उम्र की विभिन्न पादानों पर, ज़िन्दगी क विभिन्न दौरों में कम ही सही, मित्र तो बनते ही रहे हैं। इनमें से समय–समय पर कुछ छूटते भी रहे हैं। कुछ इसलिए छूटे कि जगह बदल गई तो कुछ इसलिए छूट गए कि मन बदल गए। चिट्ठी–पत्री की आदित्य सहगल को आदत नहीं है इसलिए पत्र व्यवहार उसका किसी क साथ नहीं है। लेकिन उन सब दोस्तों में कई ऐसे हैं जिन्हें याद करने का उसका मन नहीं होता तो कुछ ऐसे भी हैं जिनसे दूरी क बावजूद आत्मीयता बनी हुई है। महीनों–बरसों क बाद भी जब मुलाकात होती है तो वही पुरानी गर्मजोशी और अन्तरंगता लौट आती है।
नाते–रिश्तेदारों और दोस्तों क बाद नम्बर आता है पड़ोसियों का। कभी महानगरीय संस्कृति की बात की जाती थी कि एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी से कोई मतलब नह रखता। आपसी दुआ–सलाम भी हो जाए तो बहुत है। लेकिन अब ग्रुपहाउसिंग सोसाइटियों क जमाने में एक सोसाइटी क ज्यादातर लोग एक दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं। फिर आसपास क परचूनिए, सब्जीवाले, दूधवाले, इलैक्ट्रीशियन, प्लम्बर, धोबी, अखबारवाला, सोसाइटी का केयरटेकर, चौकीदार, माली, कार की सफाई करने वाला, न जाने कितने लोग हैं जो रोज या दो–चार दिन में मिलते ही रहते हैं। चार–पांच सौ से ज्यादा इनकी संख्या होगी।
यहां तक आते–आते आदित्य सहगल को लगता है कि अपनी ज़िन्दगी में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वालों को तो वह भूल ही गया है। ये वे लोग हैं जिनक साथ उसक दिन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा गुजरता है, जो उसकी ज़िन्दगी को कई तरह से प्रभावित करते हैं। उसक दफ्तर वाले, उसक साथ काम करने वाले जिनमें से कई ऐसे हैं जिनके साथ वह अपना सुख–दुख बांटता है। कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें वह उतना अपना तो नह समझता लेकिन उनक साथ अपनापे का दिखावा जरूर करता है। कुछ क साथ न चाहने क बावजूद कामकाजी रिश्ते रखने जरूरी हो जाते हैं। कुछ क साथ साफ तौर पर झगड़ा भी है। सब मिलाकर सौ से ज्यादा ही होंगे।
इनके अलावा कुछ ऐसे भी हैं जिनके साथ रोज का सम्बन्ध तो नह है लेकिन गाहे–बगाहे जब मिलना होता है तो बड़े प्यार से मिलते हैं। इसमें उसक वे सब हमपेशा लोग आते हैं जो दूसरे संस्थानों में काम करते हैं और सेमिनारों, मीटिगों वगैरह में अकसर उनसे मुलाकात होती रहती है।
एक श्रेणी उन लोगों की भी है जिनके साथ उसका कोई औपचारिक परिचय तो नहीं है लेकिन रास्ते में आते–जाते, किसी परचून वाले की दूकान पर, किसी सब्जी वाले के ठेले के पास, किसी पनवाड़ी की गुमटी के सामने, चाय के ढाबे में, बस स्टॉप पर ये लोग अकसर दिख जाते हैं। इन लोगों के साथ किसी तरह की हाय–हैलो भी नहीं होती, बस नजरें मिल गई तो मुस्कान का आदान–प्रदान हो जाता है। कुछ ज्यादा फुरसत हो तो मौसम या क्रिकट पर एक आध वाक्य का संवाद हो जाता है।
आदित्य को लगता है कि लिस्ट लम्बी होती जा रही है। हजार का आंकड़ा तो निश्चित रूप से पार हो गया होगा और अभी वे लोग इस लिस्ट में आए ही नहीं जिनके बारे में वह तो बहुत कुछ जानता है लेकिन वे शायद उसका नाम भी नहीं जानते होंगे। भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, दुनिया भर के कई बड़े नेता, फिल्म और टेलिविजन की दुनिया के स्टार, दुनिया भर के जाने–माने लेखक, संपादक, पत्रकार, संगीतकार, कलाकार, खिलाड़ी। वे जो आज सक्रिय हैं, और वे भी जो आज सक्रिय तो नहीं हैं लेकिन गाहे–बगाहे टेलीविजन पर या अखबारों में उनकी शक्ल देखने को मिल जाती है। कुछ वे भी जो आज इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन यादों के सहारे आज भी उसक भीतर मौजूद हैं।
आदित्य इस सूची को यहीं पर खत्म कर देना चाहता है लेकिन उसका साफ सोच वाला उर्वर दिमाग अभी और बहुत से नाम जोड़ना चाहता है। वह उन लोगों को नहीं छोड़ना चाहता जिनके लिए वह खुद भी एक स्टार है। जो सभाओं, बैठकों में अकसर उसे घेर लेते हैं। उसकी कही हुई बातों की दिल से तारीफ करते हैं, उसक ऑटोग्राफ मांगते हैं। उसकी कोई कहानी, कोई कविता, कोई लेख, कोई रिपोर्ट कहीं छपती है तो वे उसे प्रशंसा पत्र लिखते हैं। वे जब उससे मिलते हैं, तब उसकी रचनाओं का जिक्र करते हैं, बताते हैं कि किस तरह वह उन्हें प्रेरित करती हैं।
उनसे मिलते हुए आदित्य को पूरे अपरिचय के बावजूद खुशी होती है। कई बार आदित्य को लगता है कि ये ही वे लोग हैं जिनकी वजह से आदित्य को खुद को देखने का, परखने का मौका मिलता है। ये आदित्य से जो भी कहते हैं, उसमें किसी तरह का छल या प्रपंच नहीं होता। ऐसा नहीं है कि ये लोग आदित्य के हर तरह के विचारों का समर्थन ही करते हों, कुछ चीजों क लिए वे उसकी आलोचना भी करते हैं। इन्हीं लोगों की बातों से, उनक लिखे पत्रों और टेलीफोन पर बातचीत से उसे खुद को परिमार्जित करने का मौका मिलता है। अगर आदित्य सहगल खुद को सुलझे हुए विचारों वाला आदमी मानता है तो उसक पीछे इन सब प्रशंसकों की भी एक बड़ी भूमिका है।
हर वर्ग में औसतन पांच सौ लोग भी हुए तो आठ वर्गों में कुल चार हजार लोग तो हुए ही।
इन वर्गों के विभाजन कुछ खामियां आदित्य सहगल को लगती हैं। एक खामी तो यही है कि बहुत से लोग एक से ज्यादा वर्गों में आते हैं। जैसे कोई दोस्त है तो वह पड़ोसी भी है या सहकर्मी भी। या कोई रिश्तेदार है जो दोस्त भी है और बैठकों, सम्मेलनों में भी उससे अकसर मिलना हो जाता है, या एक पड़ोसी है जो रिश्तेदार भी है, या कोई प्रशंसक ऐसा भी है जिससे अमूमन किसी पनवाड़ी की गुमटी के सामने या किसी चाय के ढाबे में मुलाकात हो जाती है।
मान लीजिए, सूचियों में दोबारा–तिबारा आने वाले नाम पांच सौ हैं। कम भी हो सकते हैं और ज्यादा भी लेकिन जब सब कुछ अंदाजे से ही चल रहा है तो एक अंदाजा यह भी सही।
इस तरह कुल नाम साढ़े तीन हजार के आसपास होने चाहिएं।
इस पूरे हिसाब–किताब से आदित्य सहगल को बड़ी राहत मिलती है। एक बहुत बड़ा काम कर लिया है उसने। पांच अरब की संख्या को घटाकर साढ़े तीन हजार कर दिया है। याने करीब पन्द्रह लाखवां हिस्सा।
यह आंकड़ा एक तरफ जहां आदित्य सहगल को राहत देता है वहीं उसे इस बात का भी अफसोस होता है कि दुनिया के लोगों का कितना थोड़ा सा हिस्सा है जिसे वह जानता है, जो उसक परिचितों की सूची में आता है। यानी दुनिया के हर पंद्रह लाख लोगों में से वह सिर्फ़ एक को जानता है। बाकी चौदह लाख निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यानवे लोग ऐसे हैं जिन्हें वह बिल्कुल नहीं जानता।
आदित्य सहगल खुद को बड़ा साहित्यकार और विचारक मानता है। वह मानता है कि इन्सानी फितरत को पहचानने में उसे महारत हासिल है। लेकिन इस आंकड़े के बाद उसका आत्मविश्वास डोल जाता है। कितने कम लोगों को जानता है वह! कितने कम लोगों क सम्पर्क में आ सका है अब तक! कितना कुछ अनदेखा अनजाना रह गया है उससे!
इस आंकड़े ने आदित्य सहगल के बहुत से भ्रमों को तोड़ दिया। आदित्य दुनिया के कई देशों में घूमा है। वहां के लोगों को देखने, परखने, जानने का मौका उसे मिला है। वहां उसने भारत और भारत के लोगों के बारे में कई जगह व्याख्यान भी दिए हैं। लौटने पर यहां के सभा–सम्मेलनों में वहां के लोगों के बारे में, उनक जीवन के बारे में व्याख्यान दिए, लेख लिखे, किताबें लिखीं। लेकिन यह आंकड़ा अब उसकी खिल्ली उड़ा रहा था। कितनी कम समझ के आधार पर किया था उसने यह सब कुछ।
यह तो ठीक तरह से सैंपल सर्वे भी नहीं हुआ। सौ में से एक, हजार में से एक होता तो इसकी कोई प्रामाणिकता भी होती। यहां तो सैम्पल दस हजार या एक लाख में एक नहीं बल्कि पन्द्रह लाख में एक का है।
यह सब क्या है आदित्य सहगल? इनसानी फितरत की जानकारी का तुम्हारा आधार कितना छोटा है? कितने कम लोगों को असल में तुमने देखा और जाना है? तुम्हारी यह जानकारी तो ज्यादातर किताबी है! और जिनकी किताबें पढ़कर तुमने यह सब जाना–समझा है, उनकी खुद की जानकारी का आधार क्या रहा होगा? क्या वे भी तुम्हारी तरह अपनी विद्वत्ता के अहम से भरे हुए अल्पज्ञानी नहीं होंगे? आखिर तुम्हारी किताबें पढ़कर तुम्हारी ‘विद्वत्ता’ से प्रभावित होने वालों की संख्या भी तो कम नहीं होगी। वे तुम्हारी किताबों को पूरी आस्था के साथ पढ़ते हैं। उन्हें तो लगता भी नहीं होगा कि यह कितने अल्पज्ञान की उपज है।
लेकिन ठहरो आदित्य सहगल! लघुता बोध से तुम कुछ ज्यादा ही दबे जा रहे हो। क्या तुम समझते हो कि दुनिया में सचमुच कोई ऐसा आदमी हो सकता है, जो दुनिया के सभी आदमियों को जानता होगा! सभी तो छोड़ो, आधे लोगों को, दसवें हिस्से या सौवें हिस्से को भी जानने वाला कोई इस दुनिया में होगा?
अगर एक व्यक्ति से एक मिनट की भी मुलाकात हो तो पांच अरब व्यक्तियों से एक एक बार मिलने में ही नौ हजार पांच सौ तेरह बरस लग जाएंगे। इन बरसों में वह लोगों से मिलने के अलावा और कुछ नहीं कर पाएगा, न खाना, न सोना, न शौच, न नहाना–धोना, कुछ नहीं।
पूरे न सही, आधे लोगों से मिलने क लिए भी चार हजार सात सौ छप्पन साल छह महीने की जरूरत होगी। दसवें हिस्से से मिलने के लिए नौ सौ इक्यावन साल चार महीने और सौवें हिस्से से मिलने क लिए पचनवे साल और डेढ़ महीने की जरूरत होगी।
आदित्य सहगल को पूरा विश्वास है कि कोई सामाजिक कार्यकर्ता या कोई नेता भी, जिसे लोगों से मिलने के ज्यादा मौके मिलते हैं, अपनी पूरी जिन्दगी में व्यक्तिगत तौर पर तीस–पैंतीस हजार से ज्यादा लोगों को नहीं जानता होगा। याने पूरी दुनिया की आबादी का पंद्रह हजारवां हिस्सा। लेकिन इस जानने में भी जानने की औपचारिकता भर होगी, उपरी दुआ–सलाम की। जिसे असल में जानना कहते हैं, वह तो इनके मामले में भी आदित्य सहगल से ज्यादा नहीं होगी।
यहां पर आदित्य सहगल को एक बात और याद आती है। देश की संसद में बैठे जो लोग पूरे देश और देशवासियों की तकदीर का फैसला करते हैं, वे भी औसतन पंद्रह लाख से ज्यादा ही लोगों का प्रतिनिधित्व करते होंगे। एक संसदीय क्षेत्र में मतदाताओं की औसत संख्या बीस लाख क करीब है। करीब पांच लाख और ऐसे लोग होंगे जिनके नाम मतदाता सूची में नहीं होंगे। इनमें कुछ 18 बरस से कम के बच्चे होंगे, कुछ लोग मतदाता सूचियां बनने के बाद आए होंगे, कुछ के नाम राजनीतिक या इतर कारणों से मतदाता सूचियों से गायब करवा दिए गए होंगे। मतलब यह कि एक सांसद अपने क्षेत्र के करीब 25 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है।
इसे इस तरह से देख सकते हैं कि हालांकि वह सांसद एक व्यक्ति है और उसकी समझ भी एक व्यक्ति की ही समझ है लेकिन संसद में वह जो कुछ भी कहता है, वह उसक चुनाव क्षेत्र के 25 लाख लोगों की आवाज मान ली जाती है। जहां उसने सहमति दी, मान लिया जाता है कि वह 25 लाख लोगों की सहमति है और जहां उसने असहमति प्रकट की तो वह 25 लाख लोगों की असहमति मान ली जाती है। भले ही अपनी इस राय से इत्तेफाक रखने वाला वह अकेला व्यक्ति हो और बाकी 24,99,999 लोग उससे इत्तेफाक न रखते हों।
इसी का नाम प्रजातंत्र है और आदित्य सहगल को प्रजातंत्र में पूरा विश्वाय है। इसलिए सारी विसंगतियों क बावजूद जनप्रतिनिधित्व क इस सिद्धान्त मंे उसकी आस्था है।
अब आदित्य सहगल क सामने सवाल यह था कि क्या ये साढ़े तीन हजार व्यक्ति जो उसक परिचितों की सूची में हैं, पूरी दुनिया की आबादी का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं?
आदित्य सहगल को लगता है कि जरूर कर सकते हैं। ऐसा सोचने की आदित्य क पास वजह भी है। उसका मानना है कि इन सब लागों से मिलकर ही उसकी अपनी दुनिया बनती है।
यहां आकर आदित्य दार्शनिकों क सबसे पुराने सवाल पर आ जाता है कि दुनिया दरअसल क्या है? या कहें कि यह पूरी कायनात क्या है? तब वह दार्शनिकों क उस वर्ग की सोच को अपने ज्यादा करीब मानता है जिनक अनुसार आदमी की दुनिया उतनी ही है जितनी उसकी इन्द्रियां याने आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा क द्वारा बोधगम्य है।
जिन लोगों से वह कभी मिला नहीं, जिन्हंे उसने कभी जाना नहीं, जिनक अस्तित्व का उसे कभी बोध नहीं हुआ, वे उसकी अपनी दुनिया का हिस्सा कसे हो सकते हैं? उसकी अपनी दुनिया तो उन्हीं लोगों से बनती है जो कभी न कभी उसक जीवन से जुड़े रहे हैं। चाहे कितने कम ही क्यों न जुड़े हों, लेकिन उनक होने ने आदित्य की यादों में, उसकी चेतना में अपनी एक जगह बनाई है। आदित्य क आदित्य होने में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में, कम या ज्यादा लेकिन उनका एक निश्चित योगदान है। उनकी दोस्ती का, उनकी दुश्मनी का, उनक लगाव का, उनकी उदासीनता का, उनकी निकटता का, उनकी दूरी का उसकी जिन्दगी क तौर तरीकों पर, कम या ज्यादा लेकिन फर्क पड़ा है। यानी एक तरह से देखा जाए तो इन सबकी वजह से ही आदित्य सहगल का अस्तित्व है।
अगर ये सब लोग आदित्य सहगल क लिए इतने महत्वपूर्ण हैं, उसकी अपनी दुनिया इन्हीं से मिलकर बनी है तो फिर दुनिया क बाकी पांच अरब या जितने भी वे हैं, की परवाह ही वह क्यों करे? उसक ये साढ़े तीन हजार ही उसक लिए किसी भी दुनिया का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं।
इसमें कुछ गलत भी तो नहीं है। आखिर वह आदमी जिससे आदित्य सहगल की कभी मुलाकात ही नहीं हुई और न कभी होने की सम्भावना है, जिसक होने या न होने से आदित्य को कोई फर्क ही नहीं पड़ता, जिसका आदित्य क लिए कोई अस्तित्व ही नहीं है, उसक दिमाग की रेटिंग कुछ भी हो, आदित्य की दिमाग की रेटिंग से कम हो या ज्यादा, कोई मायने नहीं रखता।
अचानक एक सवाल आदित्य क दिमाग में कौंधता है कि रेटिंग की आखिर जरूरत ही क्या है? जो उसकी इस साढ़े तीन हजार की गिनती से बाहर हैं, वे तो उसक लिए बाहर हैं ही और जो इस गिनती में शामिल हैं, वे उसक अपने हैं। इस अपनत्व की डिग्री में फर्क हो सकता है लेकिन हैं तो अपने ही। रेटिंग अगर जरूरी है तो दिमाग की रेटिंग क बजाय अपनत्व की डिग्री की रेटिंग होनी चाहिए।
अरे आदित्य सहगल, यह तुम्हें क्या होता जा रहा है? तुम इतना कनफ्यूज तो कभी नहीं हुए थे। दिमाग को सर्वोपरि मानने वाले तुम, आदित्य सहगल यह दिल की जबान कसे बोलने लगे? यह अपनापन, परायापन तो दिल से होता है। और अगर अपनेपन की बात करनी है तो उसक लिए रेटिंग की जरूरत ही क्या है? अपनापन कोई ऐसी चीज तो है नहीं जिसे नापा जा सक। यह तो सिर्फ़ महसूस की जा सकने वाली चीज है। दिल कोई दिमाग तो है नहीं जो किसी चीज को आंकड़ों की जबान में परखता हो। दिल तो दिल है। उसकी जबान तो महसूस करने वाली जबान है।
संभालो खुद को आदित्य सहगल! यह तो तुम पाला बदलने लगे हो! दिमाग के पाले से दिल के पाले में जाने की कोशिश करने लगोगे तो कहोगे कि आदमी के वजूद का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा उसका दिल है और दिमाग एक वाहियात चीज है। अगर दिमाग का काम दिल को धड़काना न होता तो दिमाग को निकलवा फेंकना ही बेहतर होता।
क्या सोचने लगे आदित्य सहगल!
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संक्षिप्त परिचय
सुरेश उनियाल
जन्म तिथि : 4 फरवरी, 1947
जन्म स्थान : देहरादून, उत्तराखंड
शिक्षा देहरादून में। गणित से एम.एस–सी. व हिंदी साहित्य से
एम.ए.
पूना स्थित फिल्म आर्काइव्स से फिल्म एप्रिसिएशन का
कोर्स
अनुभव : करीब चार दशक तक पत्रकारिता से जुड़े रहने के बाद
स्वैच्छिक सेवानिवृत्त।
1974 से 1977 तक नेशनल बुक ट्रस्ट के संपादकीय विभाग से संबद्ध
कथा पत्रिका सारिका के संपादकीय विभाग में करीब दो दशकों तक काम करने के अलावा टाइम्स ऑफ इंडिया के अन्य प्रकाशनों दिनमान टाइम्स और सांध्य टाइम्स प्रकाशनों से भी जुड़ा रहा।
अब स्वतंत्र लेखन।
पिछले करीब चालीस वषो से लेखनरत। कहानी, समीक्षा, साहित्य विषयक लेख, सिनेमा और खेल पर विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन। सांध्य आइम्स के लिए फिल्म समीक्षा और संगीत समीक्षा के नियमित कॉलम।
प्रकाशित पुस्तकें : दरअसल (कहानी संग्रह)
यह कल्पनालोक नहीं (कहानी संग्रह)
कहीं कुछ गलत (कहानी संग्रह)
विज्ञान और विनाश (विज्ञान विषयक टिप्पणियां )
एक अभियान और (संपादित कहानी संकलन)
लगभग दो दर्जन पुस्तकों में सहयोगी लेखन
दो कहानी संग्रह और एक उपन्यास प्रकाशनाधीन
नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए नेशनल बायोग्राफी सीरीज की
पुस्तक ‘द मदर’ का अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद।
टाटा समूह के इतिहास की पुस्तक का अनुवाद समृद्धि का
राजपथ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित
हिंदी सिनेमा पर एक शोधपरक पुस्तक पर काम लगभग
अंतिम चरण पर।
नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए ही नेहरू बाल पुस्तकालय
श्रृंखला के लिए भी हमारी नोसेना, जिस दिन नदी बोली
थी और अंतरिक्ष का वरदान का अनुवाद।
विभिन्न भारतीय और विदेशी भाषाओं में कहानियों के
अनुवाद प्रकाशित
पुरस्कार : यह कल्पनालोक कहानी संग्रह के लिए हिंदी
अकादमी से साहित्यिक कृति सम्मान
पता : बी–8, प्रेस अपार्टमेंट्स,
23 इंद्रप्रस्थ एक्सटेंशन,
दिल्ली–110092
2 टिप्पणियां:
Baw, kasagad-sagad sa iya ubra blog!
सुरेश उनियाल को मिले एक लम्बा सा अर्सा गुज़र चुका है। मैं कभी भी उनके अकेले के विषय में नहीं सोच पाया। मेरे दिमाग़ में सुरेश उनियाल, महेश दर्पण एवं वीरेन्द्र जैन की त्रिमूर्ति की छवि ही विद्यमान रहती है। आज की कहानी का महत्वपूर्ण वाक्य अन्त में ही आता है - आदमी के वजूद का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा उसका दिल है और दिमाग एक वाहियात चीज है। अगर दिमाग का काम दिल को धड़काना न होता तो दिमाग को निकलवा फेंकना ही बेहतर होता।
आपके ब्लॉग पर आने का यह भी फ़ायदा हुआ कि सुरेश की सेवानिवृति के बारे में भी मालूम हो गया। यदि उसका संपर्क नम्बर भी छाप दें तो लन्दन से फ़ोन करना कोई कठिन काम नहीं है।
एक नये तरह की कहानी के लिये सुरेश और वातायन को बधाई - तेजेन्द्र शर्मा, लन्दन।
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