शनिवार, 30 अगस्त 2008

बातचीत



वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र यादव के साथ रूपसिंह चन्देल की बातचीत

राजेन्द्र जी २८ अगस्त, २००८ को ७९ वर्ष के हो गये. लेकिन आज भी वह चिर युवा दिखाई देते हैं. अपने विषय में बहुत कुछ छुपा जाने (मुड़-मुड़के देखता हूं ) वाले राजेन्द्र जी अपनी वय को छुपा जाने की कला भी जानते हैं. उनकी इस कला के पीछे 'हंस' कार्यालय में गूंजने वाले उनके ठहाके हैं . मैं कामना करता हूं कि उनके ये ठहाके 'हंस' कार्यालय में आगामी पचास वर्षों तक यूं ही बदस्तूर गूंजते रहें. पचासों बार उनके ठहाकों का मैं न केवल साक्षी रहा बल्कि शामिल भी. और तभी एक दिन उनसे विभिन्न विषयों पर लम्बी बातचीत करने की इच्छा हुई. यह बातचीत दो बैठकों में की गई. पहली बैठक लगभग चार घण्टे चली थी. पूरे समय हम बातचीत करते रहे थे. चार घण्टो की बातचीत पचास पृष्ठों में सिमटी थी. दूसरी बैठक तीन घण्टों की थी और वह तीस पृष्ठों में दर्ज हुई थी. इस प्रकार राजेन्द्र जी के साथ मेरी बातचीत अस्सी पृष्ठों में दर्ज है.

यदि मैं गलत नहीं हूं तो राजेन्द्र जी से सबसे लम्बा साक्षात्कार मैंने दर्ज किया. प्रस्तुत है पहले साक्षात्कार पर 'अकार' पत्रिका के सम्पादक श्री गिरिराज किशोर की टिप्पणी और साक्षात्कार के कुछ महत्वपूर्ण अंश.


गिरिराज किशोर की टिप्पणी :

राजेन्द्र यादव हिन्दी के सबसे विवादास्पद, जीवन्त और टकराहट पैदा करने वाले लेखक हैं. उनकी गालियां भी नकारात्मक और कभी-कभी सकारात्मक भी, चर्चा का विषय बन जाती हैं. अपने मत को पुरज़ोर तरीके से प्रतिपादित करने में उनका कोई सानी नहीं है. -------वैसे वह जादू टोने के खिलाफ हैं पर उन्होंने अपने अन्दर सम्मोहन उत्पन्न किया है. औरत हो या मर्द सम्मोहन का भरपूर उपयोग करते हैं. जब चाहें तोड़ भी देते हैं. सम्मोहित व्यक्ति तत्काल अपने हरवे लेकर सामने जा खड़ा होता है. महिला और दलित उनकी क्रान्ति के दो मजबूत पाए हैं. व्यवहार और लेखन में स्त्री-विमर्श में कुछ दरारें नजर आई हैं. पर उनके स्टण्ड मे कोई फर्क नहीं आया. -------अपनी बात के लिए मित्र को हताहत कर सकते हैं. उनके इस साक्षात्कार में इसकी कई एक बानगियां मिलेंगीं.

******

सच कह दूं ऎ बिरहमन*

राजेन्द्र जी के विषय में कहा जाता है कि वे साहित्यिक विवादों में रहना पसन्द करते हैं. यह कहना शायद अनुचित न होगा कि वे विवाद उनकी सामाजिक सोच, वैचारिक प्रतिबद्धता और साहित्यिक सरोकारों के पुनःपरीक्षण के परिणाम होते हैं. साहित्य-सृजन की अपेक्शा साहित्यिक जुगाली करने वालों को यह सब कुफ्र लगता है. राजेन्द्र जी के विषय में यह बात सत्य है कि वे घोर पढ़ाकू किस्म के इन्सान हैं और आज जब हिन्दी-साहित्य में बिना पढ़े फतवे देने वाले (अपढ़-से) लोगों का आधिक्य है तब राजेन्द्र जी उन रचनाओं की परम्परा में खड़े दिखाई देते हैं जो न केवल वैश्विक-विशिष्ट साहित्यिक योगदान के लिए जाने जाते हैं; बल्कि अपनी बहु-पठन वृत्ति के लिए भी उन्हें हम जानते हैं -- चाहे वे तोल्स्तोय - गोर्की हों या दॉस्तोएव्स्की.

'हंस' के प्रेमच्न्दीय गौरव को अक्षुण्ण रखते हुए उसे पत्रिका से आगे 'मंच' का स्वरूप प्रदान करने का श्रेय राजेन्द्र जी को है और उनकी एकमाअत्र चिन्त्रा का कारण 'हंस' होता है. न वे खुद और न उनका स्वास्थ्य. ठहाकों ने उन्हें चिर युवा बना रखा है. शायद वे अपने किस्म के निराले साहित्यकार-सम्पादक हैं जो बीस वर्ष की युवती से भी शिष्ट मजाक कर ठहाका लगा सकते हैं. यह उनकी जीवंतता को प्रमाणित करता है.

राजेन्द्र जी ने 'हंस' के माध्यम से स्त्री और दलित समस्याओं पर अपनी चिन्ताएं व्यक्त कीं और सबसे पहले नारी-दलित विमर्श को विचार का विषय बनाकर अनेकों को उस पर सोचने के लिए उत्प्रेरित किया. उन्होंने सक्षम-अक्षम अनेक दलित रचनाकोरों को 'हंस' का मंच प्रदान किया---- प्रोत्साहन के लिए ही सही. प्रस्तुत है साहित्यिक और साहित्येतर विषयों पर रजेन्द्र जी के साथ बातचीत के कुछ प्रमुख अंश: --

रूपसिंह चन्देल : इधर 'विवादास्पद' विशेषण आपकी पहचान बनता जा रहा है. यहीं से क्यों न अपनी बात शुरू करें.

राजेन्द्र यादव : मुझे नहीं मालूम विवादास्पद का क्या अर्थ वे लेते हैं. शायद घूंघट और बुर्कों वाली जमात में किसी स्त्री का मुंह खोलकर चलना ही उसे विवादास्पद बनाता हो. आत्मतुष्ट, लद्धड़, मुर्दा और अन्तिम सत्यों तक पहुंचे हुए समाज में कुछ असुविधाजनक सवाल उठाना ही विवादास्पद व्यक्ति के रूप में जाना जाता है, बाद में धीरे-धीरे लगने लगा कि शायद मेरी बातें चली आती परम्पराओं से हटकर होती हैं और कुछ विश्वासों के साथ आराम से चिपके बैठे लोगों के गले नहीं उतरतीं. न उन्हें यह अभ्यास होता है कि मुद्दों को नयी दृष्टि से देखें, न शायद जरूरत महसूस होती है. वे पचासों बार कही-सुनी बातों को अपने शब्दों में दुहरा देते हैं तो तालियां बजने लगती हैं. भवान की सुनी-पढ़ी महिमा को आप गदगद होकर दुहराते जाइए, आप भक्त, विद्वान, चिन्तक, दार्शनिक सब कुछ मान लिए जाएंगे. अपनी अक्ल लगाने की जरूरत ही नहीं है. पुराने और घिसे-पिटे को सही जगह सजाकर नाटकीयता से पेश कर दीजिए--- यहां आप अद्भुत विचारक हैं. आप सिर्फ इतना कह दीजिए कि भगवान नाम का यह 'अन्तिम सत्य' आपके चिन्तन, कर्म, विवेक की सारी पहल (इनीशियेटिव) आपके हाथ से छीनकर आपको सिर्फ कठपुतलियों में बदल देता है, वह आपको अपने किए की जिम्मेदारियों से मुक्त करके सारे मानवीय सरोकारों को सोख लेता है. खुद आपके द्वारा गढ़ा गया भगवान-रूपी भस्मासुर सबसे पहले आपको ही खा जाता है. लीजिए साहब, आप विवादास्पद भी हैं और सिरफिरे भी.

पहली बात तो यह कि मैं कोई ऎसी बात नहीं कहता जो और लोग पहले न कह चुके हों. गहराई से सोचने वाले सारे लोग यही सब कहते रहे हैं. बात सिर्फ इतनी ही है कि मैं उन्हें अपनी तरतीब दे देता हूं. आग्रह सिर्फ यही है कि चीजों को विश्वास से नहीं, तर्क से देखो. जैसी जो चीज आपको दे दी गयी है उसे अपनी तरह जांचो. हमारे जीवन, सोच, आचार-व्यवहार में जाने कितने अन्धविश्वास संस्कार बनकर हमें निर्धारित-नियन्त्रित करते हैं, उन पर पुनर्विचार करना क्या सचमुच इतना बड़ा अपराध है? हम तार्किक और अतार्किक के अन्तर्विरोधों के शिकार हैं, उन्हें समझ के स्तर पर साफ करना जरूरी है. बुद्धिजीवी का अर्थ सिर्फ दूसरों द्वारा चबाए गये की जुगाली करना ही नहीं है, खुद अपने ढंग से विश्लेषण करना भी है. उसके लिए कुछ भी न पवित्र, भव्य, दिव्य होता है न भ्रष्ट, अस्पर्श्य और तिरस्करणीय. अब अगर मैं कहता हूं कि अभिनन्दनों और श्रद्धांजलियों की भाषा एक ही क्यों होती है-- वह क्यों दयनीय निरर्थकता की अतिशयोक्तियों की कवायद बनकर रह जाती है? क्यों वहां वह व्यक्ति नहीं होता जो कि वह सचमुच था. तुम्हीं बताओ यह सब कहना ही क्या कुफ्र है?

मुझे लगता है कि चीजों को ऎतिहासिक, सामाजिक और व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा जाना चाहिए. जैसे मान लीजिए आपने कहा, 'यह रचना बहुत सुन्दर है' स्वाभाविक है : मैं जानना चाहूंगा कि इसमें वह क्या है जिसे आप सुन्दर कह रहे हैं ? उसकी अपनी कलात्मक संरचना के साथ उसे सुन्दर बनाने वाली एक और चीज है और वह है आपकी अपनी अभिरुचि, दृष्टि और परख के मानदण्ड. यानी देखने वाले की निगाह. साथ ही यह प्रश्न है कि वह दृष्टि कहां से आई है. जाहिर है सौन्दर्य-बोध की एक परम्परा है, शास्त्र है. पिछले सौ सालों के साहित्य को परखने और एप्रिशियेट करने की हमारी सारी अभिरुचियां पश्चिम से आई हैं. परम्परागत सौन्दर्यशास्त्र से आप सस्कृंत साहित्य प्रेरित रचना को तो परख साकते हैं, छायावाद को नहीं. छायावाद या बाद की कविता को समझने के लिए आपके पास पश्चिम, शुरू में इंग्लैण्ड और बाद में योरुप और इधर लातिनी अमेरिकन, अफ्रीकी इत्यादि कविताओं और सामाजिक विमर्श को समझने की पृष्ठभूमि होनी चाहिए. यानी रचना की सुन्दरता को आत्मसात करने के लिए सिर्फ भावुकता या संवेदना से बात नहीं बनेगी, बौद्धिक और व्यापक फलक की भी जरूरत पड़ेगी. अब यह आपके ऊपर है कि अपनी अन्तर्वस्तु देकर आप उसे कितना अपना या अपनों के लिए 'गैर-बाहरी' बना लेते हैं.

सुन्दरता का यह विश्लेषण यहीं खत्म नहीं होता कि साहित्य की यह सारी समझ और सौन्दर्य-बोध हमने पश्चिम से सौ-डेढ़ सौ सालों में पाया, घोटा और आत्मसात किया है-- उसे अभ्यास और संस्कार बनाया है. पश्चिमी होने के साथ-साथ वह दो हिस्सों में बंटा है--- वहां एक धरा औपनिवेशिक साम्राज्यवादी है तो दूसरी लोकतान्त्रिक और राष्ट्रवादी. डैफोडिल्स आपके यहां होते हों या न होते हों, मगर आप शान्ति से आरामकुर्सी पर बैठे वर्डस्वर्थ की इस कविता को मन की आंखों से देखते, सौ-डेढ़ सौ साल विभोर होते रहने के अभ्यास से आये हैं. इस विश्वास के साथ कि सौन्दर्य सार्वभौमिक होता है, उसके लिए देश-काल की सीमाएं नहीं होतीं. मैं कहता हूं कि ऎसा नहीं है; वहां देश और काल से भी अधिक उसी में स्थित एक विशेष वर्ग भी है, विशेष परिवेश में पली संवेदना भी है यानी एक ऎसा व्यक्ति जिसके पास बड़ा-सा घर बंगला है, चारों तरफ तरह-तरह के फूल पत्तों वाले हरे लॉन हैं, बड़ी-सी कोठी का चौड़ा बराण्डा है, वहां संध्या के झुटपुटे में सामने के मोर-पंखी और पॉपलर पेड़ों पर अस्त होती सुनहली धूप देखता चिड़ियों की टिवट-टिवट सुनता सारी चिन्ताओं से मुक्त अरामकुर्सी पर आंख मूंद कर लेटा, बीच-बीच में शराब की चुस्कियां लेता सम्भ्रान्त सम्पन्न वह व्यक्ति है जो मन की आंखों के सामने डैफोडिल्स के खिले हुए विस्तार का आनन्द ले रहा है, ला-हैमसेन्स मरसी के रोमानी वातावरण में नायक द्वारा झटके से उठाकर घोड़े पर बैठा ली गयी सुन्दरी को क्षितिज के पार धुन्ध में जाते हुए देख रहा है, 'चार्ज आफ दा लाइट ब्रिगेड' के आधा-आधा लीग तय करते हमलावर घोड़ों की हांफनी सुन रहा है, कुबलाई खां के अफीमी सपनों की सैर कर रहा है या रबि बिन अजरा में अपने आप को किसी चाक पर रखे बर्तन की तरह आकार देते अदृश्य हाथों की दार्शनिकता में डूबा है. कितनी आन्तरिक शान्ति मिलती है स्कूल-कॉलेज के किशोर दिनों से मन पर मंडरती इन परछाइयों में फिर-फिर घूमना----.

उसके काव्य सौन्दर्य को पूजा भाव से जीने वाला अतीत के सांस्कृतिक वैभव में पला साम्राज्यवाद की कृपा से निश्चिन्त और आधुनिक होता हुआ कुलीन है. यह कालिदास के काव्य का आनन्द भी उसी गहराई से ले सकता है. इसे आधुनिक स्त्रोतों से बौद्धिक सन्तुष्टि और प्राचीन से आध्यात्मिक शान्ति दोनों की जरूरत है. यह राष्ट्रीयता का भी विरोधी नहीं है, मगर राष्ट्रीयता उसे उतनी ही चाहिए कि साहब लोगों का लोकतन्त्र बर्दाश्त कर सके, यानी खुद अपने लिए खतरनाक न हो जाए.

रूपसिंह चन्देल : क्या साहित्य आपको लोकोत्तर आनन्द में नहीं पहुंचाता ?

राजेन्द्र यादव : जरूर पहुंचाता है. मैं इस लोकोत्तर आनन्द के सौन्दर्य शास्त्र को ही समझने की कोशिश करना चाहता हूं. क्या यह सार्वभौमिक और निरपवाद रूप से सभी के साथ ऎसा करता है या एक चुना हुआ फुरसती, निश्चिन्त वर्ग है जिसे यह सम्बोधित है. कुछ चीजें जो संशयहीन भाव से मेरे गले नहीं उतरतीं मैं उन्हें दुबारा आज के व्यापक सन्दर्भों में जांचना चाहता हूं.

रूपसिंह चन्देल : पिछले दिनों 'हंस' में आपने साम्प्रदायिकता का सवाल उठाया था----.

राजेन्द्र यादव : मैं पूछता हूं कि भेड़-चाल से अलग होकर एक बुद्धिजीवी की तरह क्यों नहीं सोचना चाहिए? हंस में मैंने कह दिया कि काश्मीर की समस्या साम्प्रदायिक नहीं, क्षेत्रीय स्वायत्तता की समस्या है. पाकिस्तान और हिन्दुस्तान दोनों देश अपनी इस राजनीतिक दुश्मनी को भरसक साम्प्रदायिक बना रहे हैं. वहां हिन्दू और मुसलमान दोनों ही मर रहे हैं, दोनों ही विस्थापित हैं. वहां सिर्फ हिन्दू लाशों को गिनकर साम्प्रदायिक रंग देना हिन्दुत्ववादी दन्धापन है जो सारे देश को आपस में दुश्मन बना रहा है. अब तो वहां से अधिकाशंअ हिन्दू विस्थापित हो चुके हैं, मरने वाले तो जादातर काश्मीरी मुसलमान ही बचे हैं. इसी सन्दर्भ में मैंने यह भी पूछा था कि श्रीलंका में जो लाखों लोग विस्थापित हो रहे हैं, हजारों मर रहे हैं--- सिंहली, बौद्ध, नमिल सभी -- वह क्शेत्रीय स्वायत्तता का सवाल है या साम्प्रदायिकता का? पूर्व पाकिस्तान में जो हजारों लोगों को भून डाला गया, वे सब मुसलमान बुद्धिजीवी थे---- जिन लाखों लोगों को विस्थापित होना पड़ा , वे भी मुसलमान ही थे. साम्प्रदायिकता की समस्या बंगलादेश बनने के बाद आई - जिस पर तस्लीमा नसरीन ने लिखा. आसाम का उग्रवाद भी क्या साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीय स्वायत्तता, जातीय अस्मिता के सवालों को अलग-अलग करके समझ तो सकते हैं. मुम्बई सूरते में हुए साम्प्रदायिक विस्फोट ठीक वही नहीं हैं जो काश्मीर और आसाम में हो रहे हैं.

रूपसिंह चन्देल : हंस के सम्पादक के रूप में आप पर प्रायः यह आरोप लगाया जाता है हि आप कुछ रचनाकारों को विशेष महत्व देते हैं--- विशेषकर महिला रचनाकारों को ?

राजेन्द्र यादव : इन आरोपों के जवाब में यह बातें बहुत बार कही जा चुकी हैं. देखो, चालीस-पचास साल से मैं साहित्य में हूं. जाहिर है मेरी कुच रुचियां हैं, कुछ समझ भी है, कुछ सम्पर्क, सम्बन्ध भी हैं, और जब ये सब चीजें होती हैं तो चुनाव भी होता है. रेलवे प्लेटफार्म या गोदाम और ड्राइंगरूम में अन्तर है. गोदाम में दुनिया की सारी अच्छी -बुरी चीजें जमा होती हैं. ड्राइंगरूम में आप वही रखना चाहते हैं जो उस जगह की जरूरत है. वहां चुनाव है. यही चुनाव मुझे हंस में भी करना पड़ता है. हंस रीडर्स डाइजेस्ट नही है, जहां दुनिया की छोटी-बड़ी चीजें संकलित हों. हर रुचि के आदमी को जो चाहिए वहां है. चुनाव में आप पक्षपाती भी हो सकते हैं. कुछ चीजें मुझे ज्यादा पसन्द हैं, कुछ कम पसन्द हैं , कुछ वैचारिक दृष्टि से मुझे जरूरी लगती हैं----- हो सकता है कि बहुत पसन्द न हों. इस सबमें पक्षपात भी लग सकता है. यह पक्षपात हर सोचने समझने वाले के साथ होता है. जब आप इस चुनाव को पसन्द नहीं करते तो उसे गुटबाजी कहते हैं. आप 'तेरे पैर पैर, मेरे पैर चरण' की स्थिति में रहते हैं. कभी बडे़ महान लोगों का 'सरस्वती मण्डल' था . उसमें शिकायत थी कि वहां अयोध्याप्रसाद उपाध्याय जैसे लेखक को घास नहीं डाली गयी. रामचन्द्र शुक्ल से हमेशा लड़ाई होती रही. इसलिए इस बात को मैं नहीं मानता कि मैंने कोई खास गिरोह या मण्डली जैसा कुछ बना रखा हो. मेरी रुचि और पसन्द के लेखक अधिक हों, यह स्वाभाविक है. उस रुचि में भी तीन बातें हैं-- बल्कि चार बातें हैं---- एक तो कुछ लेखक हैं, जिनके प्रति सम्मान है. कुछ जो मेरे समकालीन रहे हैं. वह लिहाज है. अगर भीष्म साहनी की कहानी मुझे अच्छी भी न लगे लेकिन चालीस-पचास साल से भीष्म का साथ है--- अपने लेखन के लिए वे जिम्मेदार हैं. कुछ समकालीनता से जुड़े हैं, कुछ परम्परा से. यानी परम्परा और समकालीनता में मेरे चुनाव हैं. तभी मुझे लगता है कि मेरी पसन्द से ज्यादा ---- वैचारिक, सामाजिक स्थितियों के हिसाब से, साहित्यिक विकास के लिहाज से कुछ जरूरी हो सकते हैं. चौथी चीज है---- किसी लेखक की रचना --- उसकी ताजगी. आपने पहली बार किसी प्रतिभा को खोजा और उसको मंच दिया---- यह संतोष छोटा नहीं है. लिखना तो बहुत शुरू करते हैं, मगर रह कुछ लोग ही जाते हैं. पन्द्रह साल में मैंने 'हंस' में सैकड़ों-हजारों लेखक छापे. कुछ में दम था, वे चले. तो खोजने में एक दृष्टि यह भी होती है कि आप कहीं गलत आदमी को तो प्रोत्साहन नहीं दे रहे. बहरहाल इसे अहंकार भी कह सकते हो कि 'ही इज माई क्रियेशन' या 'आई हैव डिस्कवर्ड हर' सन्तोष देता है. चलो क्रियेशन यहां बकवास शब्द है उसे मैं वापस लेता हूं. मेरा ख्याल है कि कम से कम एक डेढ़-दो दर्जन लोग ऎसे होंगे, जिनकी पहली रचना हंस में ही छपी. उनके प्रति अतिरिक्त मोह होना स्वाभाविक है. इस कमजोरी को आप कुछ लोगों के प्रति खास मोह भी कह सकते हैं. और एक बात है जिसे मैं चाहता हूं कि तुम अण्डर लाइन करो. हो सकता है कि अपनी सीमाओं के कारण मेरी निगाह से कुछ बहुत प्रभाशाली और अच्छे लेखक छूट गये हों, या जितना वे समझते हैं या दूसरे समझते हैं उनको उतना महत्व मैंने न दिया हो. लेकिन जिनको रेखांकित किया है, क्या उनका लेखन कमजोर है? आगे जो पूरी की पूरी पीढ़ी है और जिसके लिए मुझ पर पक्षपात का आरोप लगाया जाता है---- क्या मैंने उनकी कमजोर रचनाएं छापीं या वे लेखक कमजोर थे? ठीक है नरेन्द्र कोहली या निर्मल मेरी पसन्द के लेखक नहीं हैं. बहुत बड़े लेख हैं. लेकिन उनकी तरह की सोच के लेखकों के लिए अगर 'हंस' का मंच सुलभ नहीं है तो मेरा ख्याल है कि मैं गलत नहीं हूं. महिलाओं के सवाल को मैं दलितों के साथ मिलाकर रखना चाहता हूं. एक ओर तो सिद्धान्त रूप से मंचों से सभी कहते हैं कि महिलाओं को आना चाहिए--- महिलाओं को लाया जाना चाहिए, लेकिन जब वे आने लगती हैं तब हमें बेचैनी-टेन्शन होने लगते हैं, हमारे संस्कार फड़फड़ाने लगाते हैं. शायद महिला हमारा डर और अंकुश दोनों है. कार्यालयों में महिलाओं की उपस्थिति वातावरण को थोड़ा अनुशासित रखती है. मगर सच यह भी है कि महिलाएं जब आने लगती हैं तो आदमी सहज रूप से असहज हो जाता है. सबसे ज्यादा बेचैनी तब होती है जब वे बोलने लगती हैं. जैसा हम चाहें वैसा बोलें तब तक तो ठीक है---- अच्छा है---- शी इज ए वेरी गुड कम्पनी वगैरह-वगैरह. लेकिन जब वह अपनी बात अपनी तरह बोलने लगती है पुरुष अहंकार फुफकारने लगता है. कहीं भी देख लो, अगर औरत अपने ढंग से ऎसा कुछ बोलने लगे जो आपको बहुत सुविधाजनक या समर्थन में न लगता हो तो कुढ़कर कहते हैं कि साली चल घर, देखता हूं. कहने का मतलब यह है कि महिलाएं हमारी इच्छा से दिखाई दें, बोलें या लिखें तो ठीक है, मगर उनकी उपस्थिति हमारी इच्छा के अनुरूप ही हो. वे हमारे वर्चस्व को तोड़ती हैं. वर्ना आप मुझे बताइए कि एक अंक में बीस-बाईस पुरुषों के बीच एक या दो महिलाएं क्यों परेशानी पैदा करती हैं. यह तो अच्छा है कि बहुत वैचारिक और बहुत आलोचनात्मक लिखनेवाली महिलाएं नहीं हैं वर्ना और मुसीबत होती . महिलाओं पर अतिरिक्त ध्यान वे लोग देते हैं---- मैं नही. दूसरा आरोप, यह कि जब-जब महिला---- चाहे वह राजनीति में आये या साहित्य में आये, उसके ऊपर तो यह आरोप हमेशा ही लगता है कि इसमें खुद तो दम नहीं है, इनके संरक्षक-गॉड फादर हैं इन्हें उछाल रहे हैं. यह मानसिकता आज की नहीं है. जिसे हम 'बंग महिला' कहते हैं उनको और रामचन्द्र शुक्ल को लेकर महावीर प्रसाद द्विवेदी ग्रुप ने हमेशा ऎसे ही आरोप लगाए थे कि इनका (शुक्ल जी का) अतिरिक्त मोह उस महिला से है. जब मन्नू ने लिखना शुरू किया तो बहुत दिनों तक यही होता रहा कि ये तो राजेन्द्र ही लिखते हैं . बहुत बाद में जब मन्नू के दो-चार कहानी संग्रह - उपन्यास आ गये तब लोगों ने माना. ठीक है, मैं उसकी रचनाएं देखता था, बातचीत करता था बल्कि कहानियों और उपन्यासों के शीर्षक मेरे ही दिए हुए हैं. आपसी सलाह की यह परम्परा उर्दू शायरी में हमेशा रही है. चीजें उससे इम्प्रूव होती हैं. मैं किसी का नाम दे देता हूं , किसी रचना का शीर्षक दे देता हूं---- या पढ़कर यह बता देता हूं कि यह शेर यहां इस तरह हो तो अच्छा हो जाएगा. यह सुझाव देना ही क्या पाप है? महिलाओं को लेकर यह शोरगुल मेरी समझ में कभी नहीं आता. दूसरी बात कि सारी महिलाएं न तो हेमामालिनी हैं, न ऎश्वर्य राय. मगर लांछन है कि आप उनके सौन्दर्य, पैसे या सत्ता के कारण उनका साहित्य छाप रहे हैं. अधिकांश सीधी-सादी घरेलू महिलाएं होती हैं. किसी में प्रतिभा दिखाई देती है तो आप रेखांकित कर देते हैं. इस सामने लाने को अगर अपाराध कहो तो मेरा ख्याल है कि जहां दस लेखकों का अपराधी हूं वहां एक लेखिका का भी हूं. वैसे मैं इसकी चिन्ता नहीं करता.

( राजेन्द्र यादव के साथ मेरी यह लम्बी बातचीत उनकी पुस्तक 'जवाब दो विक्रमादित्य', वाणी प्रकाशन , २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली-११०००२

******
राजेन्द्र यादव का जन्म २८ अगस्त, १९२९ को आगरा (उत्तर प्रदेश) में हुआ था. उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से १९५१ में हिन्दी में एम०ए० किया.

राजेन्द्र जी की प्रकाशित पुस्तकें :

* कहानी संग्रह : देवताओं की मूर्तियां (१९५१), खेल-खिलौने (१९५३), जहां लक्ष्मी कैद है (१९५७) , अभिमन्यु की आत्महत्या (१९५९), छोटे-छोटे ताजमहल (१९६१), किनारे से किनारे तक (१९६२), टूटना (१९६६), चौखटे तोड़ते त्रिकोण (१९८७), श्रेष्ठ कहानियां, प्रिय कहानियां, प्रतिनिधि कहानियां, प्रेम कहानियां, चर्चित कहानियां, मेरी पच्चीस कहानियां, अब तक की समग्र कहानियां, यहां तक: पड़ाव-१, पड़ाव-२ (१९८९).

*उपन्यास : सारा आकाश (१९५९ - प्रेत बोलते हैं, के नाम से १९५१ में), उखड़े हुए लोग (१९५६), कुलटा (१९५८), शह और मात (१९५९), अनदेखे अनजाने पुल (१९६३), एक इंच मुस्कान (मन्नू भंडारी के साथ - १९६३), मंत्र-विद्ध (१९६७).

*कविता-संग्रह: आवाज तेरी है (१९६०)

*समीक्षा-निबन्ध : कहानी : स्वरूप और संवेदना (१९६८), प्रेमचंद की विरासत (१९७८), अठारह उपन्यास (१९८१), औरों के बहाने (१९८१), कांटे की बात (दस खंड - १९९४), कहानी अनुभव और अभिव्यक्ति (१९६६), उपन्यास : स्वरूप और संवेदना (१९९८), आदमी की निगाह में औरत (२००१), वे देवता नहीं हैं (२००१), मुड़-मुड़के देखता हूं(२००२) .

इसके अतिरिक्त अनेक पुस्तकों का सम्पादन. तुर्गनेव, लर्मन्तोव , चैखव और कामू की पुस्तकों के अनुवाद.

'हंस' मासिक का सम्पादन.

सम्पर्क : अक्षर प्रकाशन प्रा०लि०, २/३६, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२ .
फोन : ०११-२३७२७०३७७, ०११-४१०५००४७
E-mail :
info@hansmonthly.com

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

रूप सिंह जी,
वातायन का यह अंक भी पठनीय है । आप अच्छी सामग्री दे रहे हैं ।
इला