सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

वातायन - फ़रवरी ’२००९

चित्र : तेजेन्द्र शर्मा
हम और हमारा समय

प्रिण्ट से वेब तक का सफर
रूप सिंह चन्देल
कल तक साहित्यकारों की रचनाओं के प्रकाशन का मुख्य आधार मुद्रित पत्र-पत्रिकाएं थीं. वे आज भी हैं, लेकिन तकनीकी क्रान्ति ने रचनाकारों के लिए एक नई दुनिया के द्वार खोल दिए और आज मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं के साथ इंटरनेट की समझ रखने वाले साहित्यकार अपनी रचनाओं को वेब और ब्लॉग पत्रिकाओं में प्रकाशित देखना चाहते हैं. अभिव्यक्ति, अनुभूति (पूर्णिमा वर्मन), सृजनगाथा (जयप्रकाश मानस),लेखनी (शैल अग्रवाल ), साहित्य शिल्पी (राजीव रंजन), कृत्या(रति सक्सेना) आदि वेब पत्रिकाओं ने इस दिशा में चमत्कारिक कार्य किए हैं. कुछ ब्लॉग धारकों ने अपने ब्लॉग्स को निजी प्रचार और भड़ास से अलग रखते हुए वेब पत्रिकाओं के कार्य को आगे बढ़ाते हुए साहित्य प्रकाशित करना प्रारंभ किया. इस दिशा में श्लाघनीय पहल करते हुए कवि-कथाकार सुभाष नीरव ने 'सेतु साहित्य' के रूप में दस्तक दी . 'गवाक्ष' वाटिका, और 'साहित्य सृजन' प्रस्तुत कर उन्होंने इस दिशा में साहित्य के प्रति अपनी गंभीरता और सपर्पण को स्पष्ट किया. आज अन्य अनेक ब्लॉग ऎसे हैं जो अन्य रचनाकारों की रचनाएं प्रकाशित कर हिन्दी साहित्य के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं .

आज 'हंस' ,'नया ज्ञानोदय' ,'वागर्थ', आदि हिन्दी पत्रिकाएं देश-विदेश में बैठे उन पाठकों तक पहुंचने के लिए, जिन्हें प्रकाशित पत्रिका उपलब्ध नहीं हो पाती , अपने अंकों को वेब पर जारी कर रही हैं. अमेरिका में सुधा ओम ढींगरा 'हिन्दी चेतना' को पहले ही वेब पर जारी करती आ रही हैं. आभिप्राय यह कि जिस प्रकार हर रचनाकार अपने ढंग से अपने समय को अपनी रचनाओं में व्याख्यायित कर रहा है (वह चर्चा में है या नहीं यह इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि चर्चा के कारण आज रचना की उत्कृष्टता से बिल्कुल अलग होते हैं) उसी प्रकार मुद्रित पत्र-पत्रिकाओं के साथ आज वेब परिकाएं और ब्लॉग्स अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं.

जिस प्रकार लघु पत्रिका प्रकाशित करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है उसी प्रकार वेब पत्रिका का कार्य भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है. ब्लॉग्स में साहित्य प्रकाशित करने में भी भरपूर श्रम और साधन की दरकार होती है.इससे आर्थिक लाभ की कल्पना नहीं कर सकते, लेकिन हिन्दी के प्रति उन लोगों का प्रेम और समर्पण उन्हें इसके लिए प्रेरित करता है. वे जो कार्य कर रहे हैं उसे हल्के तौर पर नहीं लिया सकता. व्लॉग्स और वेब पत्रिकाओं पर साहित्य प्रकाशित करने वालों के प्रति अगंभीर दृष्टिकोण रखनेवालों की सोच पर तरस ही खाया जा सकता है. इसके दो कारण हो सकते हैं - उनकी अज्ञानता या कुण्ठा . आज हिन्दी में लगभग सात हजार ब्लॉग्स हैं. यहां मैं उनकी चर्चा नहीं कर रहा जो एक-दूसरे पर अपनी कुण्ठा -भड़ास निकालते हैं, और असाहित्यिक और असभ्य भाषा का प्रयोग करते हैं ( ऎसा वे अपने या अपने किसी चहेते को महान साहित्यकार समझे जाने का दबाव बनाने के भाव से शायद करते हैं ) या अपने ब्लॉग्स में केवल और केवल अपनी और अपने साहित्य की चर्चा करते हैं . उनकी अपनी सीमाएं हैं----लेकिन सात हजार में कुछ ब्लॉग्स तो ऎसे हैं ही जो उल्लेखनीय कार्य कर रहे है.

लेकिन जब वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र यादव वेब पत्रिकाओं और ब्लॉग पत्रिकाओं पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं - "इनके कारण पत्रिकाओं को कूड़ा रचनाओं से निज़ात मिली" तब दुखद आश्चर्य होता है. (यह टिप्पणी उन्होंने हाल में एक कार्यक्रम के दौरान की थी). राजेन्द्र जी न वेब पत्रिकाएं देखते-पढ़ते हैं और न ब्लॉग पत्रिकाएं (जब मैंने 'वातायन' में उनका साक्षात्कार प्रकाशित किया और उनसे उसे देखने का अनुरोध किया तब उन्होंने कहा था कि वह नहीं देख सकते, क्योंकि उन्हें इस तकनीक की जानकारी नहीं है), फिर वे उनमें प्रकशित रचनाओं के विषय में कैसे जानते हैं कि उनमें क्या प्रकाशित होता है. वास्तविकता यह है कि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सभी रचनाएं उत्कृष्ट नहीं होतीं और वेब और ब्लॉग पत्रिकाओं की रचनाएं कूड़ा नहीं होती , जैसा राजेन्द्र जी की टिप्पणी से प्रकट होता है. बल्कि वास्तविकता यह है कि पत्र-पत्रिकाओं की अपेक्षा वेब और ब्लॉग पत्रिकाओं में कहीं अधिक बेहतर साहित्य प्रकाशित हो रहा है और दूसरी उल्लेखनीय बात यह कि वहां फिलहाल साहित्यिक राजनीति नहीं हो रही, जैसी पत्र-पत्रिकाओं में होती है.वेब और ब्लॉग पत्रिकाओं में प्रकाशन का मुख्य आधार रचनाकार नहीं रचना होती है.

अतः किसी पत्रिका के सम्पादक को वेब और ब्लॉग पत्रिकाओं को लेकर भ्रम की स्थिति में नहीं रहना चाहिए.

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वातायन के इस अंक में प्रस्तुत है रंजना श्रीवास्तव की कविताएं और कवि-कथाकार और पत्रकार सुधा ओम ढींगरा (यू.एस.ए.) की कहानी. इन रचनाओं पर सुधी पाठकों की निष्पक्ष राय की अपेक्षा रहेगी.

7 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

Priy Chandel jee,
Aapne bebaaq likha hai.
Aaj web patrkaaon mein achchhee
rachnaayen chhap rahee hain.Kya
Rajendra Yadav ye daawaa kar sakte
hain ki "Hans" mein chhapne waalee
har rachna achchhee hotee hai?
Vaastvikta to yah hai ki us mein
chhapne walee dus-barah kahanion
mein kewal ek-do kahanion ko hee
achchha kahaa jaa sakta hai.Yehee
haal gazlon kaa hain.Muddaton baad
koee achchhee gazal padhne ko miltee hai us mein.
Aaj Giriraj kishore,Raj kishore, Uday Prakash,Roop Singh
Chandel,Subhash Neerav,Balram
Aggarwal,Tejendra Sharma,Poornima
Verman,Shail Aggarwal,Suraj prakash,Kavita Vachaknavee,Jai
Prakash Manas,Sukesh Sahni anekanek
web patrikaaon se jude hue hain aur
patrakaarita ka nayaa aur swarnim
itihaas rach rahe hain.

बेनामी ने कहा…

वातायन में हम और हमारा समय रूप सिंह चंदेल जी का लेख पढ़ा. राजेन्द्र यादव जी की टिप्पणी पढ़ कर निराशा हुई . वैसे तो राजेन्द्र यादव जी की ऐसी टिप्पणियों के हम आदी हो चुकें हैं . वे समय -समय पर ऐसी टिप्पणियाँ दे कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते रहतें हैं , प्रवासी साहित्य पर भी उन की टिप्पणियाँ हम भूल नहीं पाते. दुःख इसी बात का है कि शीर्ष स्थान पर पहुँचकर जब दूसरों को तुच्छ समझने लगतें हैं तो इन्सान अपनी गरिमा खो देता है-चाहे राजेन्द्र यादव हों या कोई और. बहुत सी ई -पत्रिकाओं का ज़िक्र लेख में हो चुका है जो उच्च स्तर की रचनाएँ हिन्दी साहित्य को दे रहीं हैं. गर्भनाल ई -पत्रिका को आप किसी भी दिशा में कम नहीं आंक सकते और उत्तरी अमेरिका की पत्रिका हिन्दी चेतना तो पिछले दस बर्षों से श्याम त्रिपाठी प्रकाशित कर रहें हैं. हिन्दी के महान लेखकों को तो इनकी ख़बर भी नहीं होगी क्योंकि वे किसी गुट में नहीं हैं न ही हिन्दी की राजनीति के दाव पेंच जानतें हैं. एक साफ सुथरी पत्रिका निकालतें हैं जिसका उद्देश्य हिन्दी रचनाकारों को प्रोत्साहन करना है . देश सीमाओं का कोई बंधन नहीं. अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका निकलती है. दुनिया के किसी भी कोने में हिन्दी लिखने वाला हिन्दी साहित्य का सहयोगी है . भारत और विदेश के साहित्यकारों को साथ ले कर चलने वाली इस पत्रिका के बारे में टिप्पणियाँ देने वालों को तो पता भी नहीं होगा. पढ़ें तो पता चले कि विदेशों में कितना अच्छा साहित्य लिखा जा रहा है .
सुधा ओम ढींगरा

Sudha Om Dhingra
919-678-9056 (H)
919-801-0672(C)
Visit my Hindi blog at : http://www.vibhom.com/blogs/
Visit my Web Site at : http://www.vibhom.com

सुभाष नीरव ने कहा…

इसमें दो राय नहीं कि चन्देल ने प्रिंट मीडिया बनाम नेट पत्रिकाओं को विषय बनाकर "हम और हमारा समय" के अन्तर्गत अपने शब्दों में बहुत गहरी बात कह दी है। जो लोग बिना पढ़े-देखे सार्वजनिक तौर पर टिप्पणियाँ करते हैं और अपने आप को बड़ा और महान सिद्ध करते हुए दूसरों के काम को नकारने का काम करते हैं, दर असल वे किसी गलतफ़हमी में जी रहे होते हैं। सुधाओम ढ़ींगरा जी ने जो कहा है अपनी टिप्पणी में वह एक कटु सच्चाई है। भाई चन्देल, ऐसे विषय पर वातायन में लिखने के लिए बधाई !

बेनामी ने कहा…

dear chandelji,
thanks for vatayan and other links.your comments on rajendra yadav and short description of hindi writing available on the internet are quite pertinent. i would like to be familiar with the work being done through this medium with the help of your inputs, specially when i am back in delhi by the third week of this month. i could'nt view recent issues of hans and vagarth which may have published my articles -one of which is in some way related to the 26/11 attack about which you have also written.

in one of the links provided by you,i enjoyed reading some nice laghukathayen. thanks a lot-

ajitkumar.

p.s.could you tell me about some link/agency providing unicode typing facility based near pitampura.-a.k.

बेनामी ने कहा…

mene apka lekh pada jo log ise nakarte hain ve abhi bhi purane dharre se jude huai hain jiske karan ve isski mahatta ko naa samajne ki bhool kar rahe hain aaj patr-patrikaon ke sath blog par prakashit rachnaon ka dayra kaphi bad chuka hai iss ke dawara vo log bhi jude hain jo kinhi karno se patrikaon se jud nahi pate chandel jee ne apne lekh ke dawara achche sawal uthain hain ve badhai ke patr hain

ashok andrey

बलराम अग्रवाल ने कहा…

आपने रचना के 'प्रिंट से वेब तक का सफर' को सर्वथा उचित स्वर दिया है। मेरे विचार से यह बताने की लेशमात्र भी जरूरत नहीं है कि स्तरहीन रचनाओं का प्रतिशत कहाँ कम और कहाँ ज्यादा होता या हो सकता है,क्योंकि कोई भी विवेकशील सिर्फ मित्रता निभाने के लिए किसी स्तरहीन को लगातार पढ़ना या छापना नहीं चाहेगा। उल्लेखनीय बात यह है कि ब्लॉग और वेब पत्रिकाओं ने प्रिंट मीडिया की मोनोपोली को न सिर्फ तोड़ा बल्कि ध्वस्त कर दिया है। यादवजी के उक्त वक्तव्य की चर्चा कुछेक अखबारों में भी पढ़ने को मिली थी। लेकिन मुझे उनके वक्तव्य में चर्चा करने जैसा कुछ लगता नहीं है। वस्तुत: कोई विचारक जब स्वयं से अलग के हर सिद्धान्त को नकारने की आदत डाल ले तो वह 'नया' नहीं पुराणपंथी कहलाने लगता है। इंटरनेट की बात छोड़ दीजिए, यादवजी को सम्भवत: अब कुछ गिनी-चुनी चीजें ही दिखाई देती हों। गलती उनकी नहीं है। समाज के धार्मिक, राजनीतिक, साहित्यिक…यानी कि हर क्षेत्र में पसरे पड़े तत्सम्बन्धी मेंढ़क का अपना एक अलग कुआँ है और उसमें से जितना उसे नजर आता है उतने को ही वह सारा आकाश समझता है।

महावीर ने कहा…

तकनीक की जानकारी के अभाव में राजेन्द्र यादव जब वेब पत्रिकाएं और ब्लॉग-पत्रिकाएं नहीं देख पाते हैं तो वे किस आधार पर कहते हैं कि 'इनके (वेब पत्रिकाएं और ब्लॉग पत्रिकाएं) कारण पत्रिकाओं को कूड़ा रचनाओं से निजात मिली'। एक वरिष्ठ कथाकार की लेखनी से ऐसी अनिश्चित और अस्पष्ट टिप्पणी देखकर उनकी बुद्धिमता और प्रज्ञान पर
प्रश्न-चिन्ह लग जाता है।