शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

कविता



योगेन्द्र कृष्णा की कविताएं

(कवियों-बौध्दिकों के विरुद्ध एक गोपनीय शासनादेश)

देखते ही गोली दागो

धवस्त कर दो
कविता के उन सारे ठिकानों को
शब्दों और तहरीरों से लैस
सारे उन प्रतिष्ठानों को
जहां से प्रतिरोध और बौद्धिकता
की बू आती हो...
कविता अब कोई बौद्धिक विलास नहीं
रोमियो और जुलिएट का रोमांस
या दुखों का अंतहीन विलाप नहीं
यह बौद्धिकों के हाथों में
ख़तरनाक हथियार बन रही है...
यह हमारी व्यवस्था की गुप्त नीतियों
आम आदमी की आकांक्षाओं
और स्वप्नों के खण्डहरों
मलबों-ठिकानों पर प्रेत की तरह मंडराने लगी है
सत्ता की दुखती रगों से टकराने लगी है...
समय रहते कुछ करो
वरना हमारे दु:स्वप्नों में भी यह आने लगी है...
बहुत आसान है इसकी शिनाख्त
देखने में बहुत शरीफ
कुशाग्र और भोली-भाली है
बाईं ओर थोड़ा झुक कर चलती है
और जाग रहे लोगों को अपना निशाना बनाती है
सो रहे लोगों को बस यूं ही छोड़ जाती है...
इसलिए
कवियों, बौद्धिकों और जाग रहे आम लोगों को
किसी तरह सुलाए रखने की मुहिम
तेज़ कर दो...
हो सके तो शराब की भट्ठियों
अफीम के अनाम अड्डों और कटरों को
पूरी तरह मुक्त
और उन्हीं के नाम कर दो...
सस्ते मनोरंजनों, नग्न प्रदर्शनों
और अश्लील चलचित्रों को
बेतहाशा अपनी रफ्तार चलने दो...
संकट के इस कठिन समय में
युवाओं और नव-बौद्धिकों को
कविता के संवेदनशील ठिकानों से
बेदखल और महरूम रखो...
तबतक उन्हें इतिहास और अतीत के
तिलिस्म में भटकाओ
नरमी से पूछो उनसे…
क्या दान्ते की कविताएं
विश्वयुद्ध की भयावहता और
यातनाओं को कम कर सकीं...
क्या गेटे नाज़ियों की क्रूरताओं पर
कभी भारी पड़े...
फिर भी यकीन न हो
तो कहो पूछ लें खुद
जीन अमेरी, प्रीमो लेवी या रुथ क्लगर से
ताद्युश बोरोवस्की, कॉरडेलिया एडवार्डसन
या नीको रॉस्ट से
कि ऑश्वित्ज़, बिरकेनाऊ, बुखेनवाल्ड
या डखाऊ के भयावह यातना-शिविरों में
कविता कितनी मददगार थी!
कवि ऑडेन से कहो, लुई मैकनीस से कहो
वर्ड्सवर्थ और कीट्स से कहो
कि कविता के बारे में
उनकी स्थापनाएं कितनी युगांतकारी हैं!
पोएट्री मेक्स नथिंग हैपेन...
ब्यूटि इज़ ट्रुथ, ट्रुथ ब्यूटि...
पोएट्री इज़ स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पावरफुल फ़ीलिंग्स...
मीनिंग ऑफ अ पोएम इज़ द बीइंग ऑफ अ पोएम...
बावजूद इसके कि कविता के बारे में
महाकवियों की ये दिव्य स्थापनाएं
पूरी तरह निरापद और कालजयी हैं
घोर अनिश्चितता के इस समय में
हम कोई जोखिम नहीं उठा सकते...
कविता को अपना हथियार बनाने वालों
कविता से आग लगाने वालों
शब्दों से बेतुका और अनकहा कहने वालों
को अलग से पहचानो...
और देखते ही गोली दागो
****

सलाखों के इधर और उधर

पिछले दिनों रात के अंधेरे में
हमारे देश का एक
साफ शफ्फ़ाफ़ सम्मानित शख्स
कारागार में वर्षों से बंद
दोषसिद्ध एक निर्दोष क़ैदी से मिलने गया था...
कैदी से हुई उसकी लंबी और स्याह बातचीत को
सार्वजनिक कर देना देशहित में नहीं था
अदने से उस संतरी के हित में भी नहीं
जिसने इस मुलाक़ात के लिए उससे
सिर्फ पच्चास रुपए लिए थे...
इसीलिए मित्रो
अपने देश की अत्यंत साधारण सी
इस घटना की क्लोज़-अप तस्वीर दिखाते हुए
साहसी उस छायाकार ने
आपसे भी कुछ सवाल किए थे...
जवाब देने के पहले
और भी कुछ अनदेखी अनकही पर
ग़ौर कर लेना ज़रूरी था...
तस्वीर में जो चीज उन्हें
एक-दूसरे से अलग करती थी
वह केवल लोहे की मोटी सलाखें थीं
जिसकी एक तरफ़ वह कैदी
और दूसरी तरफ़ वह शख्स था...
जो चीज उन्हें खुद से भी अलग करती थी
वह उनका सार्वजनिक चेहरा था
इसलिए बहुत कठिन था
तस्वीर से यह निष्कर्ष निकाल पाना
कि उन दोनों में आख़िर
बाहर कौन और भीतर कौन था...
लेकिन मित्रो
जो चीज उन्हें
एक-दूसरे से गहरे जोड़ती थी
वह उनकी बातचीत नहीं
बल्कि बातों के दौरान
अतीत के अंधेरे तलघरों से
उनके शब्दों के बीच
बार-बार कौंधता
सघन संतप्त एक मौन था...
क्या देशहित में आप
अब भी नहीं बता सकते
कि क़ैदी से मिलने गया
वह आदमी कौन था...
या वर्षों से सज़ा काट रहा
वह क़ैदी आखिर क्यों
अंतिम सुनवाई के दौरान भी
कटघरे में खड़ा मौन था...
*****

खाली जगहें

ताजा हवा और रौशनी के लिए
जब भी खोलता हूं
बंद और खाली पड़ी
अपने कमरे की खिड़कियां
हवा और रौषनी के साथ
अंदर प्रवेश कर जाती हैं
जानी-अनजानी और भी कई-कई चीजें
दूर खिड़की के बाहर लटके
सफेद बादल
सड़क के किनारे कब से खड़े
उस विशाल पेड़ की षाखें व पत्तियां
और अंधेरी रातों में
आसमान में टिमटिमाते तारे भी
एक साथ प्रवेश कर जाना चाहते हैं
मेरे छोटे से कमरे में
और हमें पता भी नहीं होता
बाहर की यह थोड़ी सी कालिमा
थोड़ी सी उजास थोड़ी सी हरियाली
झूमती शाखों और पत्तियों का संगीत
कब का बना लेते हैं अपने लिए
थोड़ी सी जगह मेरे तंग कमरे में
हम तो उनके बारे में तब जान पाते हैं
जब कमरे में कई-कई रातें
कई-कई दिन रहने के बाद
अंतत: वे जा रहे होते हैं
छोड़ कर अपनी जगह...
*****

सुख की ये चिंदियां

कहीं भी बना लेती हैं अपनी जगह
वे कहीं भी ढूंढ़ लेती हैं हमें...
हमारी गहनतम उदासियों में
बांटती हैं
खौफ़नाक मौत के सिलसिलों के बीच भी
इस दुनिया में
ज़िंदा बचे रहने का सुख
और भी ढेर सारे नन्हे सुख
अपनी उदासियां...अपनी पीड़ाएं
अपनों को बता पाने का सुख...
बहुत अच्छे दिनों में
साथ-साथ पढ़ी गई
बहुत अच्छी-सी किसी कविता
या किसी जीवन-संगीत की तरह...
रिसते ज़ेहन पर उतरता है
अनजाना अप्रत्याशित-सा कोई पल
किसी चमत्कार की तरह...
गहन अंधकार में भी चमकती
सुख की ये नन्ही निस्संग चिंदियां
हमारी पीड़ाओं के खोंखल में
बना लेती हैं सांस लेने की जगह...
और इसीलिए
हां, इसीलिए हमारे आसपास ज़िंदा हैं
सभ्य हत्यारों की नई नस्लें
यातनाओं और सुख के अंतहीन सिलसिलों में
घालमेल होतीं इंसानियत की नई खेपें...
और जिंदा है
बहुत बुरे और कठिन समय में
किसी सच्चे दोस्त की तरह
जीवन से भरपूर कोई कविता...
हमारे संत्रास और दु:स्वप्नों को
सहलाता-खंगालता बहुत अपना-सा कोई स्पर्श...
****

योगेंद्र कृष्णा





A postgraduate in English Literature, writes poems, short stories and criticism in both Hindi and English. Has published articles, poems & short stories in literary magazines & journals like Kahani, Pahal, Hans, kathadesh, Vagarth, Sakshatkar, Gyanoday, Aksharparv, Pal Pratipal, Outlook, Aajkal, Kurukshetra, Lokmat, Purvagrah, Samavartan, etc. Published works include: Khoi Duniya Ka Suraag, Beet Chuke Shahar Mein (both poetry collections), Gas Chamber Ke Liye Kripya Is Taraf, Sansmritiyon Mein Tolstoy (translations in Hindi from foreign languages). Edited a collection of Nirmal Verma's writings under Collection Series for Tuebingen University, Germany. At present : 82/400, Rajvanshinagar,Patna 800023 Mobile : 09835070164 E-mail yogendrakrishna@yahoo.com yogendrakrishna55@gmail.com

4 टिप्‍पणियां:

बलराम अग्रवाल ने कहा…

पेड़-पौधे, पत्तियाँ जब तक तंग कमरे में जगह बनाते रहेंगे, मनुष्य जीवित रहेगा और जीवित रहेंगी जिन्दा रहने की उसकी ताकतें भी। सभी कविताएँ सकारात्मक हैं।

सुभाष नीरव ने कहा…

योगेन्द्र कृष्णा की कविताएं बड़े ध्यान से पढ़ने की मांग करती हैं। कविताएं जिस उद्वेलन बिन्दु की ओर ले जाती है, वहाँ सरसरी तौर पर इन कविताओं को पढने पर नहीं पहुँचा जा सकता। बेहद गम्भीर और सकारात्मक सोच की कविताएं हैं। भाई योगेन्द्र जी का परिचय अंग्रेजी में क्यों ? इसे हिन्दी में ही होना चाहिए।

PRAN SHARMA ने कहा…

YOGENDRA JEE KEE KAVITAAON KA EK-
EK SHABD KA TEVAR DEKHNE WAALAA
HAI.KAHIN -KABIR SHABD KHOOB CHOT
KARTE HAIN.KABEER KE VAANEE SE VE
KAM NAHIN HAIN.SASHAKT KAVITAAON KO
PADHWAANE KE LIYE DHANYAWAAD AAPKAA
ROOP JEE.

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

बहुत गंम्भीर और सोचने पर मजबूर करती कविताएँ.....
बढ़िया कविताएँ पढ़वाने के लिए रूप जी बधाई..