मंगलवार, 3 नवंबर 2009

संस्मरण

यास्नाया पोल्याना में तोल्स्तोय के साथ एक दिन

आई.आई. मेक्नीकोव
(मेक्नोकोव, इल्या इल्यिच (१८४५-१९१६) : प्रतिष्ठित रूसी प्राणी-विज्ञानी और जीवाणु विज्ञानी और पेरिस में पास्तर इंस्टीट्यूट के निदेशक थे )

अनुवाद : रूपसिंह चन्देल

१९०९ की वसंत की एक भोर, मैं अपनी पत्नी के साथ यास्नाया पोल्याना पहुंचा था. जैसे ही हम जमींदार के एक पुराने और कुछ-कुछ उपेक्षित घर के हॉल में दाखिल हुए, मैंने सफेद कुर्ते में, जिसे बेल्ट से बांधा गया था, तोल्स्तोय को सीढ़ियों से नीचे आते देखा. उनकी भेदक आंखें मुझ पर जमी हुई थीं और आते ही उन्होंने सबसे पहली जो बात कही वह यह कि उन्होंने मेरी जो तस्वीर देखी थी मैं उसके सदृश नहीं था. स्वागत में कुछ शब्द कहने के बाद अपने बच्चों के साथ हमें छोड़कर वह काम करने के लिए ऊपर चले गये, जैसा कि उनकी आदत थी. लंच के समय अच्छी मनः स्थिति में वह नीचे आये और अनेक विषयों पर प्रसन्नतापूर्वक बातचीत की. उन्होंने अपने लिए विशेषरूप से तैयार किया गया भोजन किया : अण्डा, दूध और शाकाहारी चीजें. लंच के बाद उन्होंने थोड़ी-सी सफेद शराब पानी मिलाकर ली.

डायनिगं मेज पर वह सकारण महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा से बच रहे थे, और उन पर तब बात करना चाहते थे जब हम दोनों अकेले हों. अकेले होने का अवसर लंच के बाद मिला, जब वह चेर्त्कोव से मिलने गये, जो बगल की जागीर में रहते थे और एक घोड़ा गाड़ी में वह मुझे भी साथ लेते गये जिसे वह स्वयं हांक रहे थे. मुश्किल से हम गेट से बाहर निकले थे कि उन्होंने बोलना प्रारंभ कर दिया और मेरा अनुमान था कि उसे उन्होंने पहले से ही अपने दिमाग में तैयार कर रखा था :

मेक्नीकोव के साथ तोल्स्तोय ( मई १९०९ )

"मुझे इस बात के लिए गलत दोषी ठहराया जाता है कि मैं विज्ञान और धर्म विरोधी हूं." उन्होंने कहना प्रारम्भ किया, "दोनों दोषारोपण अनुचित हैं. इसके विपरीत, मैं गहरी आस्था वाला व्यक्ति हूं, लेकिन चर्च जिस रूप में धर्म को विकृत करते हैं, मैं उसके विरुद्ध हूं. यही बात विज्ञान के संबन्ध में सत्य है, जिसका गहरा संबन्ध मानव की खुशी और भवितव्यता से है , लेकिन मैं भ्रांतिजनक विज्ञान का शत्रु हूं जो यह कल्पना करता है कि उसने शनि और उसी प्रकार के अन्य चीजो के वजन का अन्वेषण कर ज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण और उपयोगी योगदान किया है."

उनकी बात समाप्त होने के बाद मैंने कहा कि जिन समस्याओं को वह अत्यावश्यक समझते हैं विज्ञान उनकी अवहेलना नहीं कर सकता. बल्कि इसके विपरीत, वह उसे सुलझाने का प्रयास करता है. कुछ शब्दों में उन्हें मैंने अपना दृढ़ विश्वास प्रस्तुत किया, जो इस प्रकार था, कि मनुष्य एक जानवर है जिसे बहुत अधिक दुख देने वाली कुछ संघटनात्मक विशेषताएं वंशानुक्रम में प्राप्त हुई हैं. यही कमियां उसके संक्षिप्त जीवन और मृत्युभय का कारण हैं. विज्ञान की उपलब्धियों ने मनुष्य के लिए यह संभव बना दिया है कि वह विवेकपूर्ण ढंग अपना कर अपना संपूर्ण जीवन जी ले. ऎसी स्थिति में बीमारी, वृद्धावस्था, मृत्यु और उनसे संबद्ध अन्य मामलों की चिन्ता उसे नहीं रहेगी और मनुष्य अपने को पूरी तरह और शांति-पूर्वक कला और विशुद्ध विज्ञान को समर्पित कर सकता है.

ध्यानपूर्वक मेरी बातें सुनने के बाद तोल्स्तोय ने टिप्पणी की कि आगे चलकर हमारे विचार समान होंगे, लेकिन वह आध्यात्मवाद पर कायम रहे, जबकि मैं भौतिकवाद पर. उस समय तक हम चेर्त्कोव के यहां पहुंच गये थे और हमारी बातचीत दूसरी ओर मुड़ गयी थी. भले ही हमारी बातचीत के विषय कुछ भी क्यों न थे, लेकिन एक बात स्पष्ट थी कि हम सामान्य समस्याओं पर चर्चा करने के लिए उत्कंठित थे. इस संबन्ध में अनेकों प्रयास के बाद तोल्स्तोय ने मानवीय अन्याय के विषय में बोलना प्रारंभ कर दिया, कि यह कितना असह्य है कि एक नौकर अपने मालिक के लिए मेज पर अत्यधिक भोजन सामग्री परोसता है और खुद उसके जूठन से अपना पेट भरता है.

जब बातचीत ऎसे विषय की ओर मुड़ गयी तब अधिक नहीं चली. चेर्त्कोव परिवार के सभी सदस्य पूरी तरह से शाकाहारी थे और वे और तोल्स्तोय अपने एक प्रिय विषय पर उत्सुकतापूर्वक चर्चा करने लगे. लेव निकोलायेविच बहुत ही सजीवता के साथ उस विषय की व्याख्या कर रहे थे.

बातचीत में हिस्सा लेते हुए मैंने कहा कि यद्यपि मैंने अपने जीवन में कभी एक भी गोली नहीं दागी और न ही कभी किसी जानवर का शिकार किया, फिर भी शिकार करने में मुझे कुछ भी गलत नहीं प्रतीत होता. जानवरों को विरले ही अपनी पूरी जिन्दगी जीने का अवसर प्राप्त होता है. उनकी मृत्यु प्रायः हिंसा द्वारा ही होती है जैसे ही वे बड़े होने लगते हैं वे दूसरे जानवरों का शिकार बन जाते हैं. दूसरे जानवरों द्वारा अथवा भिन्न प्रकार के परजीवियों द्वारा मार दिया जाना किसी शिकरी की गोली द्वारा मारे जाने की अपेक्षा अधिक दर्दनाक होता है. यदि शिकार पर रोक लगा दी जाये तो शिकारी जानवरों की संख्या में वृद्धि हो जायेगी और यह मनुष्यों के लिए ही हानिकर होगा.

"मान लो " तोल्स्तोय ने प्रतिरोध किया, "यदि हम सभी चीजों को भावशून्य तर्कों से जांचेगें तो हम बेतुके निष्कर्ष पायेंगे. इस कारण हम नरभक्षण में औचित्य पायेगें."

इसके उत्तर में जब मैंने कहा कि मध्य अफ्रीकी देश कांगो में, नीग्रो आदिवासी अपने युद्ध बंदियों को खाते हैं, और विस्तार में बताया कि वे ऎसा कैसे करते हैं. तोल्स्तोय बहुत अधिक उत्तेजित हो उठे और मुझसे पूछा कि उन नीग्रों लोगों की कोई धार्मिक धारणा है ? वे पुरखों की उपासना को मानते हैं.उनका धर्म अन्य बर्बर आदिवासियों के समान है और कांगों के आदिवासियों का नरभक्षण बिलकुल अनैतिक और बुरा नहीं माना जाता. उन आदिवासियों की अपेक्षा जो अपने साथियों को नहीं खाते. मध्य अफ्रीका के बारे में अन्वेषकों का दावे के साथ कहना है कि नरभक्षण त्सेत्से (नगाना (Nagana ) , का परिणाम है, यह एक ऎसी बीमारी है जो उस क्षेत्र में दूर-दूर तक फैली हुई है और जानवरों के लिए यह इतनी खतरनाक है कि इसने जानवरों की अभिवृद्धि असंभव बना दिया है . इसीलिए आहार में मांस की मूलप्रवृत्तिक मांग के कारण नीग्रो लोग अपनी ही जाति के भक्षण का सहारा लेते हैं.

इस विषय में तोल्स्तोय ने इतनी अधिक दिलचस्पी ली कि उन्होंने मुझे उसका विस्तृत विवरण भेजने के लिए कहा. विदा होते समय उन्होंने मेरी पत्नी को सामग्री भेजने के लिए मुझे याद दिला देने के लिए कहा था.

पेरिस लौटने के तुरंत बाद प्रांसीसी अन्वेषकों द्वारा कांगों के विषय में लिखे गये अनेकों आलेख मैंने उन्हे भेजे थे.

लेव निकोलायेविच घोड़े पर यास्नाया पोल्याना लौटे. वह आसानी से घोड़े पर सवार हुए और एक नौजवान की भांति उन्होंने घोड़ा दौड़ा दिया था. यह ऎसा था जैसे वह बीस वर्ष के नौजवान हो गये थे.

जब वह और मैं उनकी स्टडी की सीढ़ियां चढ़ रहे थे, निर्निमेष मेरी ओर देखते हुए उन्होंने कहा :

"मुझे बताओं किस कारण से तुम्हारा आना हुआ ?"

प्रश्न से जरा-सा पीछे जाते हुए मैंने कहा विज्ञान को लेकर उनकी जो आपत्ति थी उसे स्पष्ट करने और उनके साहित्य के प्रति मेरी जो गहन श्रद्धा है उसे व्यक्त करने के लिए , जो उनके दार्शनिक विषयक कार्य की तुलना में कहीं अधिक श्रेष्ठ है. मैंने उन्हें अनेकों उदाहरण दिए जहां कला ने जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव डाला था.

"चूंकि तुम मेरे साहित्य के विषय में इतनी उच्च भावना रखते हो इसलिए मैं तुम्हे बताऊंगा कि इन दिनों मैं रूस की हाल की क्रान्तिकारी गतिविधियों के विषय में एक उपन्यास पर कार्य कर रहा हूं, लेकिन मैं अनुरोध करता हूं कि इस विषय में किसी को भी नहीं बताना. मुझे डर है कि यह फॉस्ट (Faust) के दूसरे भाग की भांति कुछ कमजोर बन सकता है. जब मैंने कहा कि गोएथ के वृद्धावस्था के इस कार्य में मुझे कलात्मक सौन्दर्य प्राप्त हुआ था, तोल्स्तोय ने संदेह व्यक्त करते हुए कहा कि बहुत से अनावश्यक दृश्यों में सुन्दरता हो सकती थी. तब मैंने उन्हें कहा कि , मेरे विचार में, गोएथ (Goethe) ने इस भाग में एक वृद्ध व्यक्ति के प्रेमासक्ति की अपनी त्रासदी को चित्रित करना चाहा था. लेकिन हास्यास्पद होने के भय से , अपने विषय को असंख्य अवगुंठनों से ढक दिया और बहुत अधिक दृश्य जोड़ दिए जो वास्तव में अनावश्यक थे, और पाठक को उसके संपूर्ण एकीकृत प्रभाव को प्राप्त करने से दूर रखा. तोल्स्तोय को मेरा विचार दिलचस्प प्रतीत हुआ और बोले कि उनके आखिरी दिनों के समय के रचनात्मक साहित्य में दैहिक प्रेम ने कोई भूमिका अदा नहीं की लेकिन फिर भी वह फॉस्ट (Faust) को निश्चय ही पुनः पढ़ना चाहेंगे. मैंने वायदा किया कि मैं अपनी पुस्तक ’Essais optimistes उन्हें भेज दूंगा., जिसमें फॉस्ट के विषय में मेरे विस्तृत विचार दिए गये है.....’

जब हम, शाम बहुत देर बाद अलग हो रहे थे, लेव निकोलायेविच ने बहुत ही मित्र-भाव से ’गुडबाई’ कहा और घोषणा की कि वह प्रसन्नतापूर्व्क सौ वर्षों तक जीवित रहेंगे और यदि ऎसा हुआ तो वह किसी न किसी रूप में मुझे अनुग्रहीत करेंगे. अभी हम गाड़ी में चढ़े ही थे कि वह बालकनी में प्रकट हुए और हाथ हिलाकर उन्होंने ’शुभ यात्रा’ की कामना की थी.
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3 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

आई.आई. मेक्नीकोव के साथ तोल्स्तोय की बातचीत बहुत महत्वपूर्ण है, विशेषकर 'धर्म' और 'विज्ञान' को लेकर तोल्स्तोय के विचार। अनुवाद बहुत सहज और सरल है, कहीं अवरोध उत्पन्न नहीं होता पढ़ने में जैसा कि ऐसी चीजों के अनुवाद में प्राय: होता है। अनुवाद ऐसा ही होना चाहिए। अगर पाठक को न बांध पाए या उसकी समझ में न आए तो अनुवाद किस काम का ? मेरी बधाई स्वीकार करो,

सुरेश यादव ने कहा…

भाई चंदेल जी ऐसे सजीव अनुवाद के लिए आप को बधाई.

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

पहली पंक्ति से ही मैं बंध गई और पूरा पढ़ कर ही हटी..सहज और सरल अनुवाद के लिए बधाई..पहले भी कह चुकी हूँ फिर कहूँ गी कि मुझे कहीं नहीं लगा कि अनुवाद पढ़ रही हूँ ..
बधाई.