रविवार, 29 नवंबर 2009

वातायन - दिसम्बर २००९



हम और हमारा समय

बचेगें अंततः शब्द ही.....

रूपसिंह चन्देल

मेरा आलेख ‘‘स्मृति पुरस्कारों का मायाजाल’ जब वातायन में और फिर कमर मेवाड़ी द्वारा सम्पादित ऐतिहासिक पत्रिका ‘सम्बाधन’ में प्रकाशित हुआ , कुछ साहित्यकार मुझसे नाराज हो गए . उसके बाद जब ‘साहित्य ’शिल्पी’ में मेरा साक्षात्कार (साक्षात्कर्ता - अमित चैधरी) प्रकाशित हुआ , कुछ लोगों ने तब भी प्रत्यक्ष और परोक्षरूप से अपना विरोध दर्ज किया . ये वे लोग थे जो किसी न किसी रूप में किसी न किसी पुरस्कार से संबद्ध थे और आज भी हैं . मैं अपनी बात पर आज भी कायम हूं और मानता हूं कि हिन्दी में निजी स्तर पर दिए जाने वाले पुरस्कारों में ‘पहल’ सम्मान एक मात्र ऐसा सम्मान था , जिस पर विवाद की गुंजाइश नहीं . लेकिन भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार , जिसे कल तक निर्विवादित माना जाता था , पर वरिष्ठ कवि-आलोचक विष्णु खरे के आलेख ने बहुत कुछ उद्घाटित कर दिया है . मैं अपने इस विचार पर आज भी कायम हूं कि ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ पुरस्कार पर भी प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता , जबकि बिरला फाउण्डेशन का व्यास सम्मान श्रीलाल शुक्ल के बाद अपनी गरिमा खोता गया है . हिन्दी साहित्य में बातें पानी की भांति बहती सभी कोनों-कोतरों तक पहुंच जाती हैं . जब इतने बड़े संस्थानों के पुरस्कार प्रभावित होते हैं तब उन स्वयंभू पुरस्कारों के विषय में अनुमान लगाया जा सकता है , जो एक व्यक्ति द्वारा तय किए-दिए जाते हैं , जिसका वह स्वयं बादशाह , वजीर और गुलाम होता है .
हिन्दी में सरकारी और गैर सरकारी पुरस्कारों की संख्या सैकड़ों में है और उन साहित्यकारों की संख्या भी कम नहीं है जिनकी दृष्टि न केवल पुरस्कारों पर टिकी होती है बल्कि वे उस प्रतिभा को अर्जित कर चुके होते हैं जिसके बल पर वे निरंतर पुरस्कार पाने में समर्थ रहते हैं . जिस कृति पर उन्हें पुरस्कार झटकना होता है , उसकी ओर पुरस्कार देने वाली संस्था का ध्यान आकर्षित करने के लिए किसी भी छल -छद्म का सहारा लेने के गुण में उन्हें प्रवीणता हासिल होती है . वे स्वयं ही कृति पर मुकदमा दर्ज करवाने से लेकर उसकी प्रतियां जलवा देते हैं . कुछ जेबी पत्रकारों से अपने सताये जाने की रिपोर्टिगं करवा देते हैं . संस्थाएं यदि इससे भी प्रभावित नहीं होतीं तब वे अपने किसी परिचित के माध्यम से संस्थाओं को प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं और सफल रहते हैं . ‘पुरस्कार साहित्यकार से बड़े नहीं होते या पुरस्कार किसी के बड़ा साहित्यकार होने की गारण्टी नहीं होते ’ जैसे आदर्श वाक्यों को वे कूड़दान में फेक देने योग्य समझते हैं . पत्र-पत्रिकाओं से बातचीत के दौरान पुरस्कारों की राजनीति और उनके पतन की भर्सना करने वालों में वे ही सबसे आगे होते हैं .
निःसंदेह साहित्य अकादमी , हिन्दी अकादमी (दिल्ली) , उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान आदि सरकारी संस्थाओं का इस मामले में जितना पतन हुआ है , वह आश्चर्यकारी है . हिन्दी अकादमी के एक सचिव के कार्यकाल में एक अपुष्ट सूचना के अनुसार कुछ पुरस्कारों के लिए कमीशन तय किए जाते थे . लेकिन निजी स्तरों पर दिए जाने वाले पुरस्कारों में अनेकों की पुष्ट सुचनाएं हैं कि पुरस्कृत व्यक्ति को जो चेक दिया जाता है वह उसीका होता है या उतने का चेक या राशि उससे पहले ही ले ली जाती है . सच यह है कि हर दिन पत्र-पत्रिकाओं में पुरस्कारों की सूचनाएं प्रकाशित होती हैं , लेकिन आम पाठक की क्या बात शायद ही साहित्यकार उन पर दृष्टि निक्षेपण करते हों . स्पष्ट है कि साहित्यिक पुरस्कारों की बाढ़ और उन्हें पाने और देने के लिए किए जाने वाले पतनोन्मुख प्रयासों से भयानकरूप से साहित्यिक पुरस्कारों का अवमूल्यन हुआ है . मित्र ज्ञान प्राकाश विवेक के शब्दों में कहना चाहता हूं कि - ‘‘बचेगें अंततः शब्द ही .........किसी भी रचनाकार का मूल्यांकन उन्हीं से होगा न कि उसे प्राप्त पुरस्कारों से ....’’
अतः प्रतिबद्ध लेखक को पुरस्कारों की दौड़ से दूर केवल रचना पर विश्वास करना चाहिए . अनेक उदाहरण हैं कि पुरस्कारों को झपटने की दौड़ में कल तक शामिल कितने ही साहित्यकार औधें मुंह गिरे और आज तक उठ नहीं पाए . जो आज दौड़ रहे हैं उनका क्या होगा कहने की आवश्यकता नहीं . समय ही सबसे बड़ा निर्णायक होता है .
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वातायन के इस अंक में प्रस्तुत है - वरिष्ठ कथाकार द्रोणवीर कोहली से आजकल की सम्पादक सीमा ओझा की बातचीत और युवा कवि राधेश्याम तिवारी की कविताएं .
आशा है अंक आपको पसंद आएगा .
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6 टिप्‍पणियां:

बलराम अग्रवाल ने कहा…

नि:संदेह, बचेंगे अंतत: शब्द ही। लेकिन शब्दों का मायाजाल भी उतना विश्वसनीय नहीं है, जितना कि आपने या भाई ज्ञानप्रकाश ने सोचा है। मैंने आज ही एक पुस्तक में एक साक्षात्कार पढ़ा है और मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि अपने-आप को महान् साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित करने की नीयत से उक्त महाशय ने स्वयं ही प्रश्न लिखे और स्वयं ही उनके उत्तर भी। दुर्भाग्य की बात यह है कि आज न तो उक्त साक्षात्कर्ता जीवित हैं और न ही उक्त महान साहित्यकार; आरोप सिद्ध कैसे हो? एक इसलिए चुप रहा कि बिना श्रम के ही नाम छप गया, दूसरा इसलिए कि मन की कुण्ठा निकल गई। ऐसे छद्म साक्षात्कारों का चिह्नांकन कैसे होगा? प्रचलित पुरस्कारों में से भी बहुतों की कहानी ऐसी ही निकल सकती है यानी कि न तो कुछ लिया गया और न ही दिया, लेकिन नाम लेने वाले और देने वाले--दोनों का हो गया!

PRAN SHARMA ने कहा…

UK MEIN KABHEE-KABHEE SUNNE MEIN
AATAA HAI KI AMUK RACHNAKAR KEE PRASIDDH
KRITI KO PURASKRIT KIYAA GAYAA HAI
LEKIN BHARAT KEE HAR PATRIKA AUR
AKHBAAR MEIN ANAAM KRITIYON PAR
PURASKAAR PAANE WAALON KEE LAMBEE-
CHAUDEE SOOCHEE DEKHEE JAA SAKTEE
HAI.JAB KABHEE MAIN ISKE KHILAAF
AAWAAZ SUNTAA HOON TO MERE DIL KO
TASALEE HOTEE HAI KI CHALO ,KOEE
TO HAI IS GANDGEE KO DOOR KARNE
WAALAA. AAPKEE AAWAAZ BULAND HO.

सुभाष नीरव ने कहा…

भाई चन्देल, तुमने पुरस्कारों के पीछे की गंदी राजनीति पर पहले भी लिखा है और अब फिर एक बार नए ढंग से इनके पीछे के सच को खंगालने की कोशिश की है। नि:संदेह अब लगभग हर छोटा बड़ा पुरस्कार/सम्मान शक के घेरे में है। इन पुरस्कार कमेटियों में बैठे स्वमानधन्य निर्णायक अपने अपनों को रेवड़ियाँ बांटते नज़र आते हैं। लेकिन भाई समय अच्छे अच्छों को किनारे लगा देता है,तिकड़मों और जोड़तोड़ से स्वय को और अपनी कृतियों को पुरस्कृत करवा लेने वालों की तो बिसात ही क्या है।
मैं भाई बलराम अग्रवाल की टिप्पणी से भी सहमत हूँ। उनकी बात में दम है।

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

इतिहास के पृष्ट पलटें तो सम्मानों की राजनीति बहुत पुरानी है.

सुरेश यादव ने कहा…

भाई चंदेल जी,पुरुस्कारों पर आप की टिप्पड़ी किसी भी प्रकार ख़ारिज नहीं की जा सकती है.सत्य के बहुत नजदीक.सत्य प्रायः कडुआ होता ही है इस लिए बहुतों की नाराजगी स्वाभाविक है.इन्हीं कुछ कारणों से भारी संख्या में नकली लेखक मैदान में उतर पड़े हैं और विदेश यात्राओं तथा पुरुस्कारों में सबसे आगे हैं.हिंदी साहित्य में विश्वसनीयता को ऐसे ही लोगों ने ख़त्म किया है.अच्छा लेखन तो आज भी कम नहीं हो रहा है.सार्थक बहस के लिए बधाई.

प्रदीप जिलवाने ने कहा…

भाई चंदेलजी,
नमस्‍कार
पुरस्‍कार को लेकर जो स्थिति अन्‍य क्षेञों में है लगभग वही हाल अब हिंदी में भी देखने को मिल रहा है. संभवतः इसीलिए पुरस्‍कार अपना महत्‍व और सम्‍मान खोते जा रहे हैं. लगभग शालीन आक्रोश और तार्किक शब्‍दावली में लिखा यह लेख उम्‍दा है. मेरी बधाई स्‍वीकारें.
- प्रदीप जिलवाने, खरगोन