शुक्रवार, 29 जून 2012

वातायन-जुलाई,२०१२







अरुण प्रकाश








हम और हमारा समय

संस्मरण
एक ईमानदार और खुद्दार लेखक थे अरुण प्रकाश

रूपसिंह चन्देल

एक कहानीकार के रूप में अरुण प्रकाश से मैं बहुत पहले से परिचित था, लेकिन व्यक्तिगत परिचय तब हुआ जब मैं  अभिरुचि प्रकाशन के लिए बीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां’ सम्पादित कर रहा था.  यद्यपि एक कहानीकार के रूप में समकालीन कहानीकारों में अरुण का नाम शीर्ष पर था और उनकी कई कहानियां बहुचर्चित थीं, लेकिन वह अचानक उस दिन और अधिक चर्चित हो उठे थे जब अच्छी-खासी हिन्दी अधिकारी की अपनी नौकरी से त्यागपत्र देकर वह कमलेश्वर  के साथ दैनिक जागरण में आ गए थे. इसके दो कारण हो सकते हैं –पहला यह कि उन्हें सरकारी नौकरी रास नहीं आ रही थी, जैसा कि प्रायः लेखकों को नहीं आती  और दूसरा कारण कि वह पत्रकारिता में  अपनी प्रतिभा का अधिक विकास देख रहे थे. सही मायने में अरुण प्रकाश से मेरा यह पहला परिचय था. मैं उन्हें एक आदर्श के रूप में देखने लगा था. आदर्श इसलिए कि जिस सरकारी नौकरी को उन्होंने छोड़ दिया था उसे छोड़ने के उहा-पोह में मैं 1980 से  था.  1980 के अक्टूबर माह में नौकरी छोड़ने के इरादे से  मैंने हिन्द पॉकेट बुक्स’ में पहला साक्षात्कार दिया था, लेकिन तब तक न मेरा कोई अधिक साहित्यिक अवदान था और न ही कहीं सम्पादन का अनुभव. मुझे साक्षात्कार के लिए केवल इस आधार पर बुलाया गया था कि मैं कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में शोधरत था और कुछ अच्छी कहानियां भी मेरे खाते में थीं.

1982 तक मैं अपनी नौकरी से इस कदर ऊब चुका था कि किसी भी कीमत पर वहां से मुक्ति चाहने लगा था और एक मित्र की सलाह पर मैंने दिल्ली प्रेस को इस आशय का एक अंतर्देशीय पत्र भेज दिया था. दिली प्रेस मेरे नाम से  परिचित था. एक सप्ताह के अंदर वहां से परेशनाथ का पत्र आ गया. लेकिन इस मध्य मेरे हितैषी  मित्र डॉ. रत्नलाल शर्मा ने वहां का जो खाका खींचा था वह बेहद भयावह था. एक नर्क से छूटकर उससे भी बड़े दूसरे नर्क में फंसने जैसा---मैं नहीं गया. पन्द्रह दिन बाद परेशनाथ  का एक और पत्र आया, लेकिन न मैंने उत्तर दिया और न ही वहां गया. वहां नहीं गया, लेकिन नौकरी बदलने के प्रयत्न चलते रहे. कई महाविद्यालयों में साक्षात्कार दिए, लेकिन न मैं कच्छाधारी था और न ही घोषित मार्क्सवादी. दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रध्यापकी के लिए इनमें से एक का होना अनिवार्य था.  नौकरी मैं बदलना चाहता था लेकिन अपनी योग्यता के बल पर. हालांकि तब तक कितने ही ऎसे लोगों से मेरा सम्पर्क हो चुका था जो पत्रकारिता की दुनिया में ऎसी स्थिति में थे कि कहने पर मेरे लिए कुछ व्यवस्था अवश्य कर देते, लेकिन मुझे वह सब स्वीकार नहीं था. अस्तु ! मैं उसी नौकरी को करने के लिए अभिशप्त रहा. लेकिन नौकरी छोड़ने के अपने स्वप्न को मैंने कभी मरने नहीं दिया (अंततः नवम्बर,२००४ में मैं उसे अलविदा कह सका था) . लेकिन जब पता चला  कि अरुण प्रकाश ने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया है तब उनके उस निर्णय ने मुझे प्रभावित किया था. कमलेश्वर ने उनकी योग्यता को पहचाना और उन्हें अपनी टीम में शामिल किया था  और वह सदैव कमलेश्वर के अभिन्न रहे. कमलेश्वर ने स्वयं मुझसे उनकी प्रशंसा करते हुए उन्हें एक प्रतिभाशाली कथाकार कहा था. मालिकों से मतभेद होने के बाद जब कमलेश्वर जागरण से अलग हुए, उनकी टीम भी छिन्न-भिन्न हो गई थी. शेष लोगों की बात मैं नहीं जानता लेकिन कमलेश्वर अरुण को कभी नहीं भूले. जब भी उन्हें अवसर मिला अरुण प्रकाश को साथ रखा. लेकिन कितना ही ऎसा वक्त रहा जब अरुण को फ्रीलांसिग करनी पड़ी. फ्रीलांसिंग करना कितना कठिन है, यह करने वाला ही जानता है और उस व्यक्ति के लिए तो और भी कठिन है जो खुद्दार हो---घुटने न टेकने वाला और अपने श्रम के सही मूल्य के लिए अड़ जाने वाला हो.
बात 1996 की है. अरुण प्रकाश को मैंने उनकी एक आंचलिक कहानी के लिए फोन किया. बहुत ही धीर गंभीर आवाज में वह बोले, “चन्देल, कहानी तो तुम कोई भी ले लो---लेकिन मुझे पहले यह बताओ कि प्रकाशक कहानीकारों को दे क्या रहा है?”
“अरुण जी, प्रकाशक ने प्रत्येक कहानीकार को दो सौ रुपए और उस खंड की प्रति जिसमें लेखक की कहानी होगी.”
            “पहली बात यह कि पारिश्रमिक कम है---कम से कम पांच सौ होना चाहिए और दूसरी बात कि दोनों खंड ही लेखकों को मिलने चाहिए.”
“मैं आपकी बात श्रीकृष्ण जी तक पहुंचा दूंगा. फिर भी यह बता दूं कि पारिश्रमिक पर मैं पहले ही उनसे बहस कर चुका हूं. वह दो सौ से अधिक देने की स्थिति में नहीं हैं. यह बात तो मैं अपनी ओर से स्पष्ट कर ही सकता हूं. रही बात दोनों खण्ड देने की तो मुझे विश्वास है कि इस बात के लिए वह इंकार नहीं करेंगे.” मैंने कहा.
“मैंने तो लेखकीय हक की बात की. हम लेखकों को अपने अधिकार के प्रति जागरूक होने की आवश्यकता है.” क्षण भर के लिए अरुण प्रकाश रुके थे, शायद कुछ सोचने लगे थे, फिर बोले थे, “चन्देल, तुम जो कहानी चाहो वह ले लो---मैं श्रीकृष्ण की स्थिति जानता हूं. तुम्हे और उन्हें कहानी देने से इंकार नहीं कर सकता.जैसा चाहो करो.”

अरुण प्रकाश के साथ मेरी कोई ऎसी मुलाकात जिसे मैं निजी मुलाकात कहूं नहीं थी. प्रायः वह साहित्यिक कार्यक्रमों में मिलते और कई बार हंस कार्यालय में भी उनसे मिलने के अवसर मिले. लेकिन कभी लंबी बातें नहीं हुईं. मैंने सदैव उनके स्वभाव में एक अक्खड़पन अनुभव किया. इसे मैं उनकी लेखकीय ईमानदारी और खुद्दारी मानता हूं. जो मन में होता वह कह देते. वह स्वभाव से विवश थे.
मेरे उपन्यास ’पाथर टीला’ पर 12 मार्च, 1999 को गांधी शांति प्रतिष्ठान में गोष्ठी के दौरान डॉ. ज्योतिष जोशी और डॉ. कुमुद शर्मा ने जिन दो टूक शब्दों में मैत्रेयी पुष्पा को उसमें गांव न होने के उनके कथन पर उत्तर दिए थे वह तो उल्लेखनीय थे ही अरुण प्रकाश ने जो कहा उसने मैत्रेयी पुष्पा के गांव के ज्ञान पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया था.

बहुत भटकाव के बाद अरुण प्रकाश  को पत्रकारिता के क्षेत्र में कुछ करने का अवसर तब मिला जब वह साहित्य अकादमी की पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य’ के सम्पादक नियुक्त हुए थे. वहां उनकी नियुक्ति उन लोगों को हजम नहीं हुई थी जो स्वयं उस सीट पर बैठना चाहते थे. अरुण पर कीचड़ उछालने के लिए कुछ समाचार पत्रों का दुरुपयोग किया गया था. लेकिन अरुण प्रकाश ने उस सबको गंभीरता से नहीं लिया था. केवल इतना कहा था, “ खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे वाली  कहावत चरितार्थ हो रही है. होने दो.  अपनी पूरी क्षमता और ऊर्जा के साथ अरुण ने पत्रिका के अंक निकाले और नये मानदंड स्थापित किए. उनकी नियुक्ति तीन वर्ष के लिए हुई थी और अकादमी के नियम के अनुसार साठ वर्ष से कम आयु के व्यक्ति को ही तीन वर्ष के लिए आगामी नियुक्ति मिलनी थी. अरुण शायद साठ के निकट थे या पूरे कर चुके थे. उन्हें तो नियुक्ति नहीं मिली, लेकिन उनके हटते ही अकादमी ने अपने नियमों में परिवर्तन किए  थे…. आयु सीमा बढ़ा दी  थी.
एक बार अरुण प्रकाश पुनः संघर्ष-पथ पर चल पड़े थे. लेकिन यह पथ उस ओर उन्हें ले जाएगा जहां से कोई वापस नहीं लौटता शायद उन्होंने भी कल्पना नहीं की होगी. भयंकर बीमारी के बाद भी  कर्मरत रहते हुए उन्होंने नई पीढ़ी के लिए  यह संदेश दिया कि न टूटो और न झुको---विपरीत परिस्थियों में भी कर्मरत रहो. बिहार के बेगूसराय में 22 फरवरी 1948 को जन्मे इस विशिष्ट कथाकार की देह का अवसान 18 जून, 2012 को दिल्ली के पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट में हो गया. हिन्दी ने एक प्रखर प्रतिभा और आन-बान के धनी साहित्यकार को खो दिया जिसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं है.
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अरुण प्रकाश पर केन्द्रित इस अंक में प्रस्तुत है उन्हें श्रृद्धाजंलि स्वरूप वरिष्ठ आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी  का आलेख, वरिष्ठ कथाकार और कवि डॉ. बलराम अग्रवाल का संस्मरण, वरिष्ठ कथाकार सूरज का संस्मरण और अरुण प्रकाश के प्रथम कहानी संग्रह ’भैया एक्सप्रेस’ से उनकी बहुचर्चित कहानी ’कफन-१९८४.  अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.
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२६ जून,२०१२ को हिन्दी के वरिष्ठ लेखक और पत्रकार अमर गोस्वामी हमारे बीच नहीं रहे. उन्हें विनम्र श्रृद्धाजंलि.


प्राण शर्मा जी ने सूचित किया कि यू.के. के वरिष्ठ साहित्यकार गौतम सचदेव का आज सुबह (२९ जून,२०१२) १ बजे हृदयगति रुकने से निधन हो गया. दो दिन पहले ही मेरा उनसे पत्राचार हुआ था. उनके निधन के समाचार से मैं हत्प्रभ हू. वातायन परिवार की ओर से उन्हें हार्दिक श्रृद्धाजंलि.   
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5 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

अरूण प्रकाश पर केन्द्रित 'वातायन' का अंक निकाल कर तुमने इस लेखक को सच्ची श्रद्धांजलि दी है। अरूण प्रकाश एक सरल और सच्चे इन्सान थे, खरी बात कहने में विश्वास ही नहीं रखते थे, उसे कहने का माद्दा भी रखते थे। अरुण प्रकाश ने अपने ढ़ंग की हिंदी कथा साहित्य को कहानियां दी हैं जिस पर हिंदी साहित्य को गर्व होगा…

ashok andrey ने कहा…

Arun prakash jee se kabhi koee mulakat kabhi bhee nahiin huee,unhen sirph unki rachnaon ke madhyam se hii jana bhar hai.unka asmay hee chale jana vakei ham sab ke liye kaphi dukhad samachar rahaa hai.sahitya ke chetr me unki kami hamesha khalegii.main unke privar ke liye ishwar se prarthna karta hoon ki is dukhad ghadi men unhen takat de taki ve is ghatna se ubhar saken.

ashok andrey ने कहा…

Arun prakash jee se kabhi koee mulakat kabhi bhee nahiin huee,unhen sirph unki rachnaon ke madhyam se hii jana bhar hai.unka asmay hee chale jana vakei ham sab ke liye kaphi dukhad samachar rahaa hai.sahitya ke chetr me unki kami hamesha khalegii.main unke privar ke liye ishwar se prarthna karta hoon ki is dukhad ghadi men unhen takat de taki ve is ghatna se ubhar saken.

PRAN SHARMA ने कहा…

BHAAV BHEENEE SHRDDHANJLI .

बेनामी ने कहा…

विजयासती जी की यह प्रतिक्रिया मुझे पत्र के रूप में मिली जिसे बेनामी के रूप में यहां प्रकाशित कर रहा हूं.

चन्देल

आदरणीय चंदेल जी
अभी अभी वातायन का नया अंक देखा - अरुण प्रकाश जी पर ऐसे सामग्री संचयन को देख कर मैं विस्मित रह गई
हार्दिक आभार और शुभकामना
विजया