शुक्रवार, 15 नवंबर 2024

शीर्ष से सतह तक की यात्रा

 

शीर्ष से सतह तक की यात्रा

सीढ़ियां चढ़कर मैं पहली मंजिल पर उनके कमरे के दरवाजे पर पहुंचा. दरवाजा बंद था. कमरे में टेलीविजन ऊंचे वाल्यूम में चल रहा था. कई बार खटखटाया, लेकिन कोई उत्तर नहीं . काफी प्रातीक्षा और प्रयास के बाद दरवाजा खुला. भाभी जी थीं. मुझे देखकर हत्प्रभ. "अन्दर आइये" कहकर पीछे मुड़ीं और उंची आवाज में बोलीं, "अरे देखो तो कौन आया है?" लेकिन उन्होंने सुना नहीं और आंखे टी.वी. पर गड़ाये रहे. भाभी जी ने टी.वी. धीमा कर दिया और बोलीं,"चन्देल जी आये हैं."

बनियाइन और पायजामे में वह लेटे हुए टी.वी. देख रहे थे. पत्नी के साथ मुझे देखकर तपाक से उठे और "अरे आप!" कहते हुए नीचे उतरे. चप्पलें नहीं मिलीं तो नंगे पैर मेरे पास आये, "सभी मुझे भूल गये." एक मायूसी उनके चेहरे पर तैर गयी, "चलिए आपने याद तो रखा." स्वर में शिकायत थी.

"आपने वायदा किया था कि नये घर में जाकर मुझे पता और फोन नम्बर देंगे."  आवाज कुछ ऊंची करके बोलना पड़ा. जबसे उनके मस्तिष्क में कीड़े हुए थे, उन्हें कम सुनाई देने लगा था. इसीलिए वह ऊंची आवाज में टी.वी. सुन रहे हैं, मैंने सोचा, लेकिन उनके यहां टी.वी. सदैव ऊंची आवाज में ही सुना जाता था. जब भी उनके विश्वासनगर वाले घर गया नीचे से ही टी.वी. की ऊंची आवाज सुनाई दे जाती थी. ऊपर पहुंचने पर कहना पड़ता कि टी.वी. धीमा कर दें.

मैं कमरे का जायजा ले रहा था. वह चौदह बाई दस का कमरा रहा होगा, जिसमें एक डबल बेड और तीन कुर्सियां, एक आल्मारी और कुछ अन्य सामान रखा हुआ था. सामने छोटी-सी रसोई और उससे आगे बाल्कनी, जिसपर उन्होंने टीन-शेड डलवा रखी थी. दिल्ली के लम्बे-चौड़े दो-मंजिला मकान में रहने वाले (जिसमें नीचे हिस्से में उनके प्रकाशन की पुस्तकों का भण्डार और कार्यालय था, और ऊपर रिहायश. उससे ऊपर भी एक कमरा था) श्रीकॄष्ण जी का जीवन नोएडा के उस छोटे-से जनता फ्लैट में सिमटकर रह गया था.

 

श्रीकृष्ण जी से मेरी पहली मुलाकात 1984 के आसपास हुई थी. मैं लेखन के शुरूआती दौर से गुजर रहा था. कभी-कभार पत्र-पत्रिकाओं में जाया करता. प्रायः शनिवार को. उस दिन हिन्दुस्तान टाइम्स में 'साप्ताहिक हुन्दुस्तान' में हिमांशु जोशी से मिलने गया था. हिमांशु जी उन दिनों वहां विशेष संवाददाता  के अतिरिक्त साहित्य भी देखते थे.

 

जब मैं हिमांशु जोशी जी के कमरे में पहुंचा उनके पास दो सज्जन पहले से ही बैठे हुए थे. एक सज्जन औसत कद, गोरे, स्लिम और दूसरे नाटे, सांवले और दुबले. मैं दोनों को ही नहीं जानता था. हिमांशु जी ने उनके परिचय दिए. गोरे सज्जन थे आबिद सुरती और दूसरे थे पराग प्रकाशन के श्री श्रीकृष्ण जी. परिचय के आदान- प्रदान के दौरान श्रीकृष्ण जी पूरे समय मुस्कराते रहे थे. बाद में पता चला कि श्रीकृष्ण जी ने हिमांशु जी का तब तक का लगभग पूरा साहित्य प्रकाशित किया था. कुछ लोगों के अनुसार साहित्य जगत में पुस्तकाकार रूप में उन्हें प्रकाशित करने वाले पहले प्रकाशक श्रीकृष्ण जी थे. जोशी जी की भांति नरेन्द्र कोहली के बहुचर्चित उपन्यास 'दीक्षा' आदि को सर्वप्रथम 'पराग' ने ही प्रकाशित किया था. बाद में हिमांशु जी ने अपनी पुस्तकें पराग से वापस ले ली थीं. एक समय ऎसा भी आया जब किसी बात पर उनके मध्य विवाद भी हुआ और जोशी जी ने पराग को वकील का नोटिस भी भेजा. श्री कृष्ण जी मुझे सब बताते और चाहते कि मैं मध्यस्थता करूं लेकिन मैं मध्यस्थता की स्थिति में न था. वकील की नोटिस से श्रीकृष्ण जी बहुत आहत थे. अन्ततः मध्यस्तता सत्येन्द्र शरत जी ने की थी और उसी रात श्रीकृष्ण जी ने मुझे फोन करके सारा प्रकरण बताने के बाद कहा था, "आज एक बहुत बड़े टेंशन से मुक्त हो गया हूं, लेकिन मैंने उनसे (हिमांशु जी) ऎसी आशा नहीं की थी." हिमांशु जी की तरह ही नरेन्द्र कोहली ने भी अपने उपन्यास पराग से लेकर दूसरे प्रकाशकों को दे दिए थे. एक विश्व पुस्तक मेला में भावना प्रकाशन में नरेन्द्र कोहली जी से मुलाकात हो गयी. वह वहां पहले से ही बैठे हुए थे. मैं और बलराम अग्रवाल साथ पहुंचे और कोहली जी के अगल-बगल कुर्सियों पर बैठ गए. बातचीत में श्रीकृष्ण जी का प्रसंग आया तो कोहली जी बोले, “जब मैंने अपने उपन्यास पराग से वापस लिए तब श्रीकृष्ण की पत्नी ने कहा, ’भाई साहब, हम आपके पहले प्रकाशक हैं, एक-दो उपन्यास हमारे पास भी रहने दें.’ उस मूर्ख औरत पर मुझे बहुत क्रोध आया. उसकी शिकायत मैंने योगेन्द्र कुमार लल्ला से की थी.”

श्रीमती श्रीकृष्ण जी के बारे में कोहली जी का उद्गार सुनकर मैंने और बलराम अग्रवाल ने एक दूसरे की ओर देखा था. आश्चर्य था. श्रीमती श्रीकृष्ण की बात में ऎसा आपत्तिजनक क्या था कि कोहली जी उनके बारे में अपमानजन भाषा में बात कर रहे थे. कोहली जी अहंकारी व्यक्ति थे. वह कभी भी और कहीं भी किसी का भी अपमान कर देते थे. उन्होंने इतिहास और पुराणों का केवल पिष्टपेषण किया है. व्यवहार और लेखन से वह बड़े लेखक नहीं थे.    

श्रीकृष्ण जी से परिचय के समय तक मेरी दो पुस्तकें - एक बाल कहानी संग्रह और एक अपराध विज्ञान की पुस्तक ही प्रकाशित हुई थीं, ऎतिहासिक कहानियों का संग्रह ’पेरिस की दो कब्रें’ की पाण्डुलिपि किताबघर के पास प्रकाशनार्थ था.  हिमांशु जी के कार्यालय में श्रीकृष्ण जी से परिचित होने के बाद उनसे अगली मुलाकात 1986 या 87 में हुई. मैं किसी के साथ  उनके घर कर्ण गली, विश्वासनगर गया था. उन दिनों तक 'पराग प्रकाशन' हिन्दी के महत्वपूर्ण प्रकाशकों में अपनी अलग पहचान बना चुका था. पराग को ही अमृता प्रीतम की 'रसीदी टिकट' प्रकाशित करने का पहला अवसर मिला था, जिसकी बहुत चर्चा हुई थी. नरेन्द्र कोहली के रामचरित मानस पर आधारित उपन्यास भी चर्चा बटोर चुके थे. पराग प्रकाशहन की स्थिति यह थी कि अधिकांश युवा लेखक वहां छपना चाहते और पराग ने अनेकों को छापा भी था. लेकिन कुछ लेखकों ने उन्हें बाद में परेशान भी किया था. उन दिनों श्रीकृष्ण जी ने जिससे भी - स्थापित या नये लेखकों से पाण्डुलिपियां मांगी, शायद ही किसी ने उन्हें निराश किया था. उसका सबसे बड़ा कारण था उनका 'प्रोडक्शन'. एक बार चर्चा के दौरान उन्होंने बताया था कि उनके प्रोडक्शन से राजकमल प्रकाशन की शीला सन्धु इतना प्रभावित थीं कि उन्होंने प्रकाशन के वरिष्ठ अधिकारी श्री मोहन गुप्त को पराग के कवर दिखाते हुए कहा था - "मोहन जी इस मामले में हमें श्रीकृष्ण जी से सीखना चाहिए. अकेले दम पर प्रकाशन चला रहे हैं और प्रोडक्शन इतना गजब का !" पराग प्रकाशन को प्रोडक्शन के लिए पहला राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला था. 1995 के आसपास उन्हें अपने प्रकाशन का नाम बदलकर ’अभिरुचि प्रकाशन’ रखना पडा था. दरअसल उन्होंने उसका अपने नाम से रजिस्ट्रेशन नहीं करवाया था. वह नाम किसी अन्य प्रकाशक ने अपने नाम से रजिस्टर्ड करवा लिया था.      

मेरे मन में भी पराग से प्रकाशित होने की ललक मुझे उनके यहां तक खींच ले गयी. बहरहाल,  उनसे मिलने का सिलसिला चल निकला और कई मुलाकातों के बाद मैंने उनसे अपना कहानी संग्रह प्रकाशित करने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने सहजता से स्वीकार कर लिया. 1990 में 'आदमखोर तथा अन्य कहानियां' प्रकाशित हुआ. उसके पश्चात श्रीकृष्ण जी की जो आत्मीयता मुझे मिली उसे व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं. रॉयल्टी को लेकर मुझे कभी उनसे शिकायत नहीं रही. उन्हीं दिनों मेरा परिचय उनके मित्र श्री योगन्द्रकुमार लल्ला से हुआ. लल्ला जी 'रविवार' पत्रिका में संयुक्त सम्पादक थे. लल्ला जी ने बताया  कि उन्होंने और श्रीकृष्ण जी ने अपने कैरियर की शुरुआत एक साथ ’आत्माराम एण्ड सन्स’ से की  थी. दोनों ही मेरठ से थे और बच्चों के लिए लिख रहे थे.

श्रीकृष्ण जी बहुत उत्साही व्यक्ति थे. प्रकाशन की डांवाडोल स्थिति के बावजूद वह मोटी -मोटी पुस्तकें प्रकाशित कर रहे थे. उन्होंने मेरा कहानी संग्रह ’एक मसीहा की मौत’ 1995 में प्रकाशित किया. 1996 में  एक दिन फोन करके मुझे बुलाया और बोले- "आपसे एक काम करवाना चाहता हूं." पूछने पर बताया कि वह सभी विधाओं पर शताब्दी का उत्कृष्ट साहित्य प्रकाशित करना चाहते हैं और चूंकि मैंने आंचलिक कहानियां और उपन्यास लिखें हैं अतः मुझसे 'बीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां' का सम्पादन करवाना चाहते हैं. मैंने सहर्ष स्वीकृति दे दी. 1997 में दो खण्डों में वह कार्य 800 पृष्ठों में प्रकाशित हुआ जिसकी न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी चर्चा हुई. उन्होंने मुझे सम्पादक के रूप में बारह हजार से अधिक रॉयल्टी दी थी, जिसकी कल्पना मैं किसी बड़े प्रकाशक से नहीं कर सकता था.

उनके अति-उत्साह, बढ़ती उम्र और बिक्री की समुचित व्यवस्था के अभाव (क्यॊंकि वह अकेले थे--- उनके सात बेटियां थीं  और सभी की शादी हो चुकी थी) के कारण प्रकाशन चरमरा रहा था. उनके आर्थिक संकट में फंसने का एक कारण और भी था. उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह जी के नेतृत्व में पहली भाजपा सरकार बनी तब रामकुमार भ्रमर नामके के लेखक ने दिल्ली के कितने ही प्रकाशकों को वहां पुस्तकें खरीद करवाने का सब्जबाग दिखाकर उनसे मोटी रकमें ली थीं. उन्होंने सभी प्रकाशकों को कहा कि उनकी पहुंच ऊंचे तक है और वह उनकी लाखों रुपयों की पुस्तकें वहां खरीद करवा देंगे. वह धन रिश्वत के रूप में न लेकर अपनी बेटी के विवाह के बहाने उधार के रूप में लिया. श्रीकृष्ण जी ने किसी से एक लाख रुपए उधार लेकर उस लेखक को दिए थे. परिणामस्वरूप उन पर कर्ज का बोझ बढ़ गया था, लेकिन पुस्तकें प्रकाशित करने के उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आ रही थी. बिक्री की समुचित व्यवस्था नहीं थी. उन्होंने मेरठ के अपने दामाद को कुछ समय के लिए अपने व्यवसाय से जोड़ा लेकिन उसमें भी उन्हें सफलता नहीं मिली.

आर्थिक संकट के बावजूद वह लगातार एक के बाद दूसरी योजनाएं बना रहे थे प्रकाशन भी कर रहे थे.  'मेरी तेरह कहानियां' नाम से कहानी संग्रहों की एक श्रृखंला प्रारम्भ की और कई लेखकों को छाप डाला. अंतिम कड़ी में, कमलेश्वर, प्रेमचन्द, और मुझ सहित पांच लेखकों को प्रकाशित किया. लेकिन इसी दौरान वह भयंकर बीमारी का शिकार होकर लम्बे समय तक शैय्यासीन रहे. उनके मस्तिष्क में कीड़े हो गये थे, जो आज एक आम बीमारी होती जा रही है. कहते हैं बन्ध-गोभी खाने वालों को इस बीमारी का शिकार होने की अधिक सम्भावना होती है.

अन्ततः स्थिति यह हुई कि श्रीकृष्ण जी को प्रकाशन बन्द करना पड़ा. यही नहीं उन्हें मकान भी बेच देना पड़ा. एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया और मेरी पुस्तकों की बची प्रतियां मेरी गाड़ी में रखवा दीं, जिसमें 'मेरी तेरह कहानियां' की तीस प्रतियां और 'वीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां' की लगभग 44 प्रतियां थीं. "इतनी पुस्तकों का मैं क्या करूंगा.?" पूछने पर सहज- भाव से बोले थे, "मित्रों में बांट दीजिएगा."

उन्होंने मकान बेचने की बात बताते हुए कहा था, "जाने के बाद आपको नयी जगह का पता और फोन नम्बर दूंगा. आप जैसे कुछ ही लेखक हैं जो निस्वार्थ मुझसे सम्पर्क बनाए रहे--- उन्हें कैसे भूल सकता हूं." लेकिन या तो वह अपनी असाध्य बीमारी के कारण भूल गये या उन्हें अपना नया पता बताने में संकोच हुआ था. बात जो भी हो. व्यस्तता के चलते एक वर्ष तक मैं भी उनसे सम्पर्क नहीं कर सका. मुझे इतनी जानकारी थी कि नोएडा में कहीं जनता फ्लैट लेकर वह रह रहे हैं. एक वर्ष बाद किसी कार्यवश मुझे नोएडा जाना पड़ा. उनका पता किससे मिल सकता है यह सोचता रहा. उनकी सबसे बड़ी बेटी श्यामलाल कॉलेज,दिल्ली में हिन्दी प्राध्यापक थीं, लेकिन उनका फोन नंबर मेरे पास नहीं था. बलराम अग्रवाल से पूछा, उन्होंने कहा कि डॉ हरदयाल मेरी सहायता कर सकते हैं. डॉ. हरदयाल से श्रीकृष्ण जी का पता लेकर मैं जब नोएडा के उनके जनता फ्लैट में पहुंचा तब उन्हें देखकर विश्वास ही नहीं हुआ कि यह वही श्रीकृष्ण जी थे जो कभी हिन्दी प्रकाशन जगत में छाये हुए थे. कहां विश्वासनगर में उनका बड़ा मकान और कहां जनता फ्लैट!

मैं लगभग डेढ़ घण्टा उनके साथ रहा था. वह गदगद थे. उस हालत में भी उनका लेखन कार्य चल रहा था. बच्चों के लिए कुछ लिख रहे थे. उनकी लगभग पचास पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं, जिनमें 14 पुस्तकें बड़ों के लिए थीं. उन्हें देखकर मैं सोचने के लिए विवश हुआ कि ईमानदारी और बिना छल-छद्म के प्रकाशन व्यवसाय चलाने वाले व्यक्ति का भविष्य श्रीकृष्ण जैसा हो सकता है. मुझे 1982-83 के आसपास  भीष्म साहनी जी की साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित कहानी याद हो आयी जिसमें लेखक की स्थिति तो नहीं बदलती--- वह जैसा होता है वर्षों-वर्षों लिखने के बाद भी वैसा ही बना रहता है, जबकि एक प्रकाशक कुछ वर्षों में ही पूंजीपति हो जाता है. लेकिन ऎसे प्रकाशकों के मध्य अपवादस्वरूप श्रीकृष्ण जी जैसे प्रकाशक भी थे, जो अपनी ईमानदारी के कारण वह जीवन जीने के लिए विवश थे जिसकी उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी. लेकिन वह इस बात से दुखी नहीं थे---उनका दुख इस बात का था कि प्रकाशन जगत में भ्रष्टाचार गहराई तक फैल चुका था. उन्होंने कहा, “चन्देल जी, आज बड़े -बड़े प्रकाशक नये लेखकों से पैसे लेकर पुस्तकें छाप रहे हैं. कुछ ऎसे भी हैं जो अप्रवासी हिंदी-पंजाबी लेखकों की अनभिज्ञता का लाभ उठाकर उनसे मोटी रकमें लेकर उनकी पुस्तकें प्रकाशित कर रहे हैं. उनके बल पर विदेश की यात्राएं कर रहे हैं. खरीद में बैठे अधिकारी का कुछ भी छाप रहे हैं. ऎसे अधिकारी मालामल भी हो रहे हैं और लेखक भी बन रहे हैं. परिणामतः हिन्दी साहित्य का स्तर गिर रहा है.”

जब मैं चलने लगा तब उन्होंने पूछा, “बलराम जी से आपका संपर्क है?”

“है क्यों नहीं. कई बार उनसे नवभारत टाइम्स में मिलने जाता हूं.”

“वह भी मेरे प्रिय हैं. उन्हें कहेंगे कि एक दिन समय निकालकर मिलने आ जाएं.”

मैंने बलराम को उनका संदेश दिया. उनकी मृत्यु के बाद जब मैंने बलराम से उनसे मिलने जाने के बारे में पूछा तब उन्होंने खेद व्यक्त करते हुए कहा कि व्यस्ततावश वह जा नहीं पाए थे.

श्रीकृष्ण जी मेरे मिलने जाने के बाद बलराम अग्रवाल उनसे मिलने गए थे. उनसे मिलने के बाद बलराम अग्रवाल ने अपने ब्लॉग ’अपना दौर’ में लिखा, “मिलने आने वालों की बात चली तो पति-पत्नी दोनों को मात्र एक नाम याद आया—योगेन्द्र कुमार लल्ला जी का। रजनी (उनकी बेटी) ने भी कहा कि लल्ला जी अंकल कभी-कभार आते हैं। श्रीकृष्ण जी ने कहा—‘जिस-जिस की भी अपने भले दिनों में खूब मदद की थी, उनमें से कोई नहीं मिलने आया। किसी और की क्या कहूँ, खुद मेरा सगा भाई भी अभी तक मुझे देखने नहीं आया है। ठीक ही कहा है कि जो पेड़ कितने ही परिन्दों को आश्रय और पथिकों को छाया व फल देता है, बुरे वक्त में वे सब उसका साथ छोड़ जाते हैं। आप लोग मिलने आ गये, यह बहुत बड़ी बात है…कौन आता है!…नरेन्द्र कोहली कहते थे कि मेरा नाम पराग प्रकाशन की देन है, लेकिन अब वे भी…।

ब्लॉग के अन्तिम पैरा में बलराम अग्रवाल ने लिखा"प्रकारान्तर से रामकुमार भ्रमर का नाम भी उनकी जुबान पर आया। बहुत तरह से पति-पत्नी बहुत लोगों को याद करते हैं। उनके अनुसार, हिमांशु जोशी आदि अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों के वे प्रथम प्रकाशक रहे हैं। अतीत की बातें सुनाते हुए कभी वे खुश होते हैं, कभी उदास हो जाते हैं.''

 

मेरे मिलने जाने के कुछ दिनों बाद श्रीकृष्ण जी का स्वास्थ्य अधिक खराब हो गया था. वह पास में रहने वाली अपनी बेटी रजनी के पास शिफ्ट हो गए थे. रजनी और उनका परिवार ही नोएडा उनके शिफ्ट होने के बाद उनकी देखभाल कर रहा था. लेकिन अब वह बेटी के पास ही शिफ्ट हो गए थे. बलराम अग्रवाल उनसे मिलने वहां गए थे. वहीं उनकी मृत्यु 7 दिसम्बर,2011 को हुई थी, लेकिन उनकी मृत्यु से साहित्य जगत लंबे समय तक अनभिज्ञ रहा था. 15 अगस्त,2012 को उनकी धर्मपत्नी श्रीमती कमला देवी भी संसार से विदा हो गयी थीं.

 

श्रीकृष्ण जी



श्रीमती कमला देवी




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सोमवार, 3 जुलाई 2023

शख्सियत

 

 

उपलब्धि की सार्थकता दूसरों की सहायता में हैडॉ. राकेश जैन

                                                           बाएं से -नवनीत मिश्र और डॉ. राकेश जैन

(वरिष्ठ कथाकार नवनीत मिश्र के साथ डॉ.राकेश जैन की बातचीत)

         दिव्यांगता किसी की भी तरह की हो,मनुष्य को तोड़ने वाली होती है। भरे-पूरे लोगों और पूरमपूर दुनिया के बीच उसे अपना आप ही असहनीय लगता रहता है। सारे लोग उसे अपनी ही ओर देखते और उसी के बारे में बातें करते जान पड़ते हैं। दया और करूणा प्रकट करने वाली  च् च् च् की आवाजें और धीमी आवाज में बोले गए सहानुभूति जताते वाक्य उसे अपने मन में भर गए दयनीयता के भाव से उबरने ही नहीं देते। ऐसी घिसटती हुई जिन्दगी में ईश्वर और भाग्य को कोसते रहने के अलावा जैसे उसके पास करने को कुछ और रह ही नहीं जाता।

मस्तिष्क पक्षाघात (Cerebral Palsy) और उससे जुड़ी और कठिनाइयां किसी भी प्रकार की अन्य दिव्यांगताओं में सबसे अधिक दुस्सह और दारूण होती हैं। मस्तिष्क पक्षाघात से ग्रस्त व्यक्ति आंखें खुली होने पर भी कुछ नहीं देखने के लिए विवश रहता है| उसके लिए कोई भी आवाज कोई अर्थ नहीं रखती, सामने किसी के भी आकर खड़े हो जाने से उस पर कोई असर नहीं होता क्यों कि उसके शरीर में केवल प्राण तत्व मौजूद है जिसके कारण उसे जीवित कहा जा सकता है,बस। उसको अपनी दशा पर दया तक नहीं आती क्योंकि प्रकृति ने यह काम उसके बेबस तीमारदारों को सौंप दिया होता है। वहीं एक नेत्रहीन उच्च मनोबल की अपनी सफेद छड़ी के सहारे कितने ही दुर्लंघ्य कंचनजंघा सर कर लेता है। दृष्टिबाधित व्यक्ति की दुनिया भले ही आवाजों,गंधों और स्पर्शों तक सीमित होकर रह जाती है लेकिन धीरे-धीरे उनका अपना एक संसार तो बन ही जाता है जिसमें वे विचरण करने लगते हैं। यह जरूर है कि उनके संसार में आवाजें होती हैं पर कोई चेहरा सामने नहीं होता, गंध होती है लेकिन उसका स्रोत ओझल रहता है और स्पर्श से कोई आकृति नहीं उभरती . . . उनकी चेतना में सूर्योदय की लालिमा और फूलों के रंगों की कोई अवधारणा नहीं होती। उनका मानस सिर्फ एक ही रंग जानता है और वह होता है काला रंग, लेकिन वह काला रंग काली घटाओं का,काले बालों का या काली रोशनाई का नहीं होता। वह कालापन होता है उसके सामने फैले दृष्टिपथ में कुछ भी होने से निचाट रह गए संसार का।

इस अंधेरी दुनिया के निवासी सारा जीवन भटकते और निराशा में डूबकर मृत्यु की प्रतीक्षा ही करते रह जाते अगर संसार के तमाम दृष्टिहीनों ने दृष्टिबाधिता पर विजय प्राप्त करके संसार के अपने जैसे दिव्यांगों के सामने उम्मीद की नयी मशालें प्रज्ज्वलित की होतीं और दिव्यांगता को शिकस्त देने का हौसला बुलन्द किया होता।

जरूर ही दिव्यांगों को सामान्य जीवन जीने के लायक बनाने में ऐसे लोगों का योगदान कम नहीं रहा होगा जिन्होंने चाहे किसी भी भाषा में दृष्टिबाधित लोगों को यह कहकर सांन्त्वना दी होगी और उनका हौसला बढ़ाया होगा कि-

तुझमें कोई कमी नहीं पाते

 तुझमें कोई कमी नहीं मिलती।

जिनको पता है कि जन्मांध सूरदास को हिंदी साहित्य का सूर्य कहते हुए किसी ने कहा है कि,

सूर सूर तुलसी ससी उदगन केसवदास या जो जानते हैं कि शेक्सपीयर के बाद अंग्रेजी साहित्य के सबसे बड़े माने जाने वाले नेत्रहीन कवि  जॉन मिल्टन ने केवल पंद्रह हजार शब्दों में अपनी काव्य-यात्रा पूरी कर ली जबकि शेक्सपीयर ने यह यात्रा पूरी करने में तीस हजार शब्द व्यय किये थे या जिनके दिलों में फ्रांस के उन लुई ब्रेल के प्रति हमेशा कृतज्ञता का भाव रहता है जिन्होंने ब्रेल लिपि का आविष्कार करके नेत्रहीनों को एक ऐसा उपहार दे दिया जिससे वे जीवन में कभी उऋण नहीं हो सकेंगे,ऐसे डा0 राकेश जैन से भेंट करना बहुत दिलचस्प रहा जो अपनी दिव्यांगता पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद सफलता के शिखर पर लोगों के लिए  मन के हारे हार है मन के जीते जीत का अप्रतिम उदाहरण और प्रेरणा की मूर्ति बन कर खड़े मिले -

नवनीत मिश्र - डाक्टर जैन हमें अपने और अपने परिवार के बारे में कुछ बताइये।

राकेश जैन -मेरा जन्म राजकोट में 1963 में हुआ। मेरे पिता जी आकाशवाणी में इंजीनियर थे और मां गृहणी।

मि -   आपके पिताजी का शुभ नाम? यह सवाल इसलिए भी और एक विशेष लगाव के कारण क्योंकि मैंने भी जीवन का एक बड़ा हिस्सा आकाशवाणी की सेवा में बिताया है।

राकेश जैन -यह जानकर अच्छा लगा। उनका नाम है स्वर्गीय जीवन प्रकाश जैन।

मि -   आपकी जो दृष्टिबाधिता है वह जन्म से है या किसी दुर्घटना के कारण?

राकेश जैन - मैं जब छः महीने का था तब मेरे पिताजी दिल्ली में थे। खामपुर, जहां आकाशवाणी के ट्रांस्मीटर हैं वहां मेरे पिताजी काम करते थे। उन्हीं दिनों मेरी आंखों से पानी गिरने लगा। चार-पांच वर्षों तक एम्स के डाक्टरों ने इलाज किया। उन्होंने बताया कि ग्लूकोमा की शिकायत है और आप्टिकल र्वस में खून की आपूर्ति रूक गई है। 27-28 बार आपरेशन हुए लेकिन नजर लगातार कमजोर होती जा रही थी। तभी किसी ने बताया कि संगरूर में कोई बाबा जी हैं जो भभूत देते हैं जिससे ऐसे मरीजों को बहुत फायदा होता है। चूंकि सब लोग निराश हो चुके थे इसलिए अन्तिम उपाय के रूप में मुझे संगरूर के उन बाबाजी के पास ले जाया गया। बाबाजी ने आंखों में लगाने के लिए भभूत जैसा कुछ दिया। उस भभूत को लगाने से दिन भर आंखें जलती रहीं और दस साल की उम्र में मुझे जो थोड़ा-बहुत दिखाई दे रहा था वह भी बन्द हो गया। फिर यही निर्णय लिया गया कि मुझे दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के स्कूल में भर्ती करा दिया जाए।

मि -   क्या आज आपको लगता है कि अगर बाबाजी की भभूत का प्रयोग किया गया होता तो शायद परिणाम कुछ और होता?

राकेश जैन -         नहीं। देखिये इतने दिनों के इलाज के बाद यह तो तय हो गया था कि दृष्टि पूरी तरह से  वापस नहीं लौटेगी अगर बाबा की भभूत का इस्तेमाल किया गया होता तो हो सकता था कि कुछ रोशनी कुछ दिनों तक और बची रहती। जब आंखों की रोशनी बिलकुल ही चली गई तब यह निर्णय किया गया कि मेरी आगे की पढ़ाई ब्रेल लिपि से ही होगी।

मि -   तो ब्रेल लिपि से आपने किस क्लास तक की शिक्षा प्राप्त की?

राकेश जैन -वैसे तो मैंने कक्षा दो तक सामान्य विद्यार्थियों की तरह पढ़ाई कर ली थी लेकिन फिर जब मुझे ब्रेल लिपि के स्कूल में दाखिल किया गया तो मैंने नये सिरे से नर्सरी से पढ़ाई शुरू की।

मि -   आपने कहां तक शिक्षा प्राप्त की?

राकेश जैन -         मैंने अंग्रेजी में एम किया, पी एचडी की -

मि -   सब बे्रल से?

राकेश जैन -देखिये ब्रेल से तो बहुत लिमिटेड मैटीरियल उपलब्ध होता है। जब हम स्कूल में थे तब पूरी क्लास में एक किताब हुआ करती थी जो सबको बारी-बारी से मिलती थी कभी एक घंटे के लिए या कभी कुछ ज्यादा समय के लिए। उसके बाद जब हम यूनीवर्सिटी में आए तो किताबें सुनकर या लोगों से रिकार्ड कराकर, या मुख्य रूप से सुनकर और सुने हुए को याद रखकर ही काम करना पड़ता था क्योंकि ब्रेल लिपि में एक तो किताबें बहुत ही सीमित संख्या में होती थीं और जो होती थीं वह बहुत महंगी हुआ करती थीं।

मि -   तो परीक्षा में लिखने का काम कैसे होता था?

राकेश जैन -उसके लिए हम जैसे दिव्यांगों को राइटर मिलता है जो हमसे एक दो क्लास जूनियर होता है उसको हम लोग बोल-बोलकर लिखवाते हैं। हाई स्कूल, इण्टरमीडिएट और बीए एम तक इसी प्रकार डिक्टेटशन देकर काम चला, कॉपी लिखने के लिए नियमानुसार हम जैसे लोगों को आधा घंटा समय अधिक दिया जाता है।

मि -   फिर आपने पी एच डी कैसे पूरी की?

राकेश जैन -         पीएचडी के समय तक कम्प्यूटर चुका था। कम्प्यूटर पर टाइप करके थीसिस तैयार की।

मि -   आपकी पीएचडी का विषय क्या था ?

राकेश जैन -         मेरी पीएचडी आयरिश ड्रामा पर थी।

मि-    जिस समय आप क्लास में जाते थे आपके सहपाठियों का आपके प्रति व्यवहार कैसा होता था?

राकेश जैन -         बहुत अच्छा होता था। वास्तविकता तो यह है कि मेरे सहपाठियों ने कभी मुझे एक दिव्यांग के रूप में देखा ही नहीं। मैं पढ़ने-लिखने में थोड़ा अच्छा था तो मैं सबकी सहायता करता था। मैं जितनी मदद अपने सहपाठियों से लेता था उससे ज्यादा उनकी मदद करता था। मेरी अभिरूचि हर विषय में रहती थी। तकनीकी विषयों, देश दुनिया में क्या हो रहा है और आसपास की चीजों को जानने की उत्सुकता मुझमें रहती थी और आज मैं कह सकता हूं कि जानकारी रखने के मामले में और सामान्य आई क्यू सब लोगों से ज्यादा ही रहता था कम नहीं होता था।

मि -   ये बातें तो तब की हैं जब आप अपनी दिव्यांगता से तालमेल बैठा चुके थे लेकिन जब ये स्थिति शुरू हुई होगी तब तो बड़ा शॉकिंग रहा होगा?

राकेश जैन -         होता यह है कि कोई ऐसी स्थिति अगर अचानक पैदा हो जाए तो शॉकिंग होता है लेकिन जब स्थितियां धीरे-धीरे सामने आती हैं तो आदमी मानसिक रूप से उसके लिए तैयार होता जाता है और -

मि -   लेकिन छः बरस के बच्चे के लिए तो -

राकेश जैन -         जब बाबाजी वाली घटना हुई तो मैंने मान लिया कि नहीं दिखाई देता है तो नहीं दिखाई देता - एक हिसाब से कहें तो नयी स्थिति का सामना करने के लिए मैंने अपने आप को तैयार कर लिया था।

मि -   इस समय लखनऊ के जिस नेशनल पीजी डिग्री कालेज में बैठकर मैं आपसे बात कर रहा हूं वहां आप प्रोफेसर हैं। शुरू-शुरू में आपको नौकरी के लिए किस तरह का संघर्ष करना पड़ा ?

राकेश जैन -         देखिये जॉ के मामले में आम तौर पर लोगों के लिए यह एक्सेप्ट करना आसान नहीं होता कि एक दिव्यांग व्यक्ति जो देख नहीं पा रहा है वो किसी पद पर काम कर सकेगा। मैंने विश्वविद्यालय में अप्लाई किया लेकिन मेरी वहां नियुक्ति नहीं हुई पूरी क्वालिफिकेशन होने के बावजूद। फिर उत्तर प्रदेश में हायर एजुकेशन सर्विस कमीशन है वहां पर पोस्ट निकली थी प्रदेश के डिग्री कालेजों में नियुक्तियों के लिए। मैंने उसमें आवेदन किया। मैं र्स्ट डिवीजन एम था पीएचडी भी था। मुझे पीएचडी स्कॉलर के रूप में यूजीसी से जूनियर रिसर्च फेलोशिप फिर सीनियर रिसर्च फेलोशिप भी मिली। फिर मुझे डी लिट करने के लिए रिसर्च एसोसिएटशिप भी मिली लेकिन उस बीच में मुझे यहां जॉ मिल गई तो पूरा नहीं हो पाया वह प्रोजेक्ट। तो कमीशन में जब मैंने इन्टरव्यू दिया तो वहां मेरा सेलेक्शन हो गया। पूरे उत्तर प्रदेश की मेरिट लिस्ट में मेरा तेरहवां नंबर था और इसलिए जो कालेज मैंने चुना, जहां मैं काम करना चाहता था मुझे मेरी मेरिट के आधार पर वही कालेज मिल गया। यह कालेज मेरे घर के नजदीक है और मेरे लिए जरा सुविधाजनक है।

मि      तो विश्वविद्यालय में नियुक्ति होने का कोई अफसोस ?

राकेश जैन -         अफसोस, बिलकुल नहीं। मैं आज जहां तक पहुंच गया हूं वहां पहुंचकर मुझे लगता है कि विश्वविद्यालय में मेरा नहीं हुआ तो बहुत अच्छा हुआ। जो पहचान मुझे मिली और काम करने का जो अवसर मुझे नेशनल पीजी कालेज में मिला वह मुझे विश्वविद्यालय में नहीं मिलता। वहां में एक टीचर के सिवा और कुछ नहीं होता जबकि यहां मैं एक टीचर होने के साथ कालेज के पचासों काम देखता हूं। पॉलिसी लेवल से लेकर इम्लीमेंटेशन तक। यहां पर अपने अंग्रेजी विभाग के साथसाथ तीन पाठ्यक्रम और हैं जिनका मैं काआर्डिनेटर हूं।  बैंकिंग इन फाइनेंस का हमारे यहां पीजी प्रोग्राम चलता है,एक साफ्टवेयर डेवलप का कार्यक्रम चलता है इसके अलावा जर्नलिज्म इन मास कम्युनिकेशन का भी प्रोग्राम चलता है  मैं इन तीनों का कॉआर्डिनेटर हूं।

मि-    इतने सारे विभागों का काम संभालने के लिए  आपको कितना समय कालेज को देना पड़ता है ?

राकेश जैन-          मैं काम के घंटे नहीं देखता। हमारा कालेज टोनॉमस है तो ऐसे में यहां काम करने वालों की जिम्मेदारी अन्य कालेजों की अपेक्षा कुछ बढ़ जाती है। कालेज में कम्प्यूटर से संबन्धित जितना भी काम होता है वह सब मैं ही देखता हूं। रिजल्ट निकालना, परीक्षाएं करवाना, कालेज में प्रवेश परीक्षाएं करवाना, कालेज में जो भी खरीद आदि होती है वह मैं देखता हूं,एकेडमिक काउंसिल का मैं कन्वीनर हूं,फाइनेंस कमेटी का मैं मेम्बर हूं, कालेज के जितने लीगल मामले होते हैं सब मैं ही देखता हूं। टीचिंग के साथ-साथ मेरे पास और इतने सारे काम हैं कि पिछले बीस वर्षों से मैंने तो गर्मी की छुट्टियां ली हैं और सर्दियों की।

मि -   आपने इतने सारे काम गिना दिए जिनको सुनकर ही सांस फूलने लगी। इतने सारे काम निबटाने में दृष्टिहीनता हीं इसमें बाधा नहीं बनती ?

राकेश जैन -         देखिए एक लेवल पर आकर जब आप काम करने की स्थिति में होते हैं तो आप गाइड करते हैं अपने स्टाफ को और अपने साथ के लोगों को। आपको तो पहले समझना है और फिर समझाना है। आज एक तो टेक्नॉलॉजी इतनी विकसित हो चुकी है कि अगर कोई भी नहीं है तो कम्प्यूटर या मोबाइल के माध्यम से सबकुछ संभव है मेरे लिए। ऐसे साफ्टवेयर गए हैं जो बोल-बोलकर सब कुछ बता देते हैं। मैं सबकुछ पढ़ लेता हूं,समझ लेता हूं, लिख लेता हूं, ब्रेल का डिजिटल यंत्र है मेरे पास जिसके द्वारा मैं खुद ड्राफ्टिंग कर लेता हूं। जब आप खुद कोई काम करते हैं तब आपको किसी को गाइड करना या उससे काम लेना कठिन नहीं रह जाता।

मि -   आपका जीवन संघर्षों से भरा रहा। उन संघषों से  जूझने के लिए आपका प्रेरणा स्रोत कौन रहा ?

राकेश जैन -         मुझको लगता है मेरा परिवार मेरा प्रेरणा स्रोत रहा। देखिये इसमें दो चीजें होती हैं। आपको कान्फीडेंस लेवल कौन देता है? जब तक दूसरा व्यक्ति आपमें कांफीडेंस नहीं रखेगा तब तक आप कुछ नहीं कर पाएंगे। तो सबसे पहले मेरे परिवार ने मुझमें इतना भरोसा रखा कि दृष्टिबाधित होने के बावजूद मेरे माता-पिता सोच सके कि यह तो दिव्यांग है और सन्तानें होनी चाहिए लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं सोचा। मैं और मेरा छोटा भाई एक साथ पले-बढ़े। मेरे पिता ने मेरे अध्ययन में पूरी सहायता ही नहीं की पूरा प्रोत्साहन भी दिया। स्कूली शिक्षा के बाद वह चाहते तो स्नातक और स्नातकोत्तर पढ़ाई के लिए वो मुझे किसी हॉस्टल में भी रख सकते थे या कहीं और छोड़ सकते थे लेकिन उन्होंने मुझे घर में परिवार के बीच अपने साथ ही रखा और पढ़ने-लिखने में मेरी हर तरह से मदद की।

मि -   यहां इस कालेज में आने के बाद शुरू-शुरू का आपका अनुभव कैसा रहा?

राकेश जैन -         जब मैं इस कालेज में आया तो यहां के प्रिंसिपल थे प्रो0 एस.पी.सिंह। उन्होंने मुझे देखा, मेरी योग्यता को परखा कि मैं किस तरह से काम कर रहा हूं, किस तरह से मैं हर व्यक्ति की समस्या को अपने स्तर पर अपनी सामर्थ्य भर सुलझााने की कोशि करता हूं तो उनमें कांफीडेंस आया मुझे लेकर। उन्होंने मुझे काम दिया तो मेरे लिए वो भी प्रेरणा के एक स्रोत रहे। जब कोई आपमें भरोसा दिखाता है तो आपको अच्छा से अच्छा करके दिखाना होता है। जहां तक संघर्ष की बात है जो आपने कही, तो संघर्ष तो सभी के जीवन में होता है। अपने बारे में मैं कह सकता हूं कि मैंने अपने काम को जिया है, काम करने में आनन्द अनुभव किया है। लोग मुझसे कहते है कि आप इतने सारे काम लेकर बैठे हुए हैं,छोड़ क्यों नहीं देते तो मैं उनसे कहता हूं कि काम करना मुझे अच्छा लगता है।

मि-    आपका जीवन दर्शन क्या है ?

राकेश जैन -         मेरा जीवन दर्शन यह है कि आपकी सफलता आपकी अपनी उपलब्धियों में नहीं है। आपकी उपलब्धियों की कीमत तभी तक है जब आप अपनी उपलब्धियों का उपयोग दूसरों की सहायता करने में करते हैं। जैसे धन को ही ले लें तो आपके पास जितनी भी धनराशि हो उसका तब तक कोई मूल्य नहीं है जब तक आप जरूरतमंद के लिए उस धनराशि का उपयोग कर सकें। थोड़े शब्दों में कहूं तो आपकी उपलब्धि की सार्थकता दूसरों की सहायता करने में है।

मि-    कालेज में अध्यापन के अलावा आप और क्या करते हैं ?

राकेश जैन-          जैसा कि पहले बताया कि कालेज का काफी काम मेरे पास होता है जिसमें मेरी बहुत व्यस्तता रहती है लेकिन मुझे किताबें पढ़ने का,किताबें सुनने का बहुत शौक है।

मि-    किताबे सुनने से आपका क्या मतलब है ?

राकेश जैन -~डियो बुक्स। हम लोगों के लिए पढ़ना तो संभव हो नहीं सकता लेकिन डियो बुक्स हम दृष्टिबाधित लोगों का बहुत बड़ा सहारा हैं। डियो बुक्स की एक बहुत बड़ी दुनिया है जिसमें बहुत सारी किताबें मिल जाती हैं। इसके अलावा हम लोगों के लिए स्पेशल लाइब्रेरीज हैं जैसे डीबल डॉ कॉ एमेजान का है, स्टोरी टेल के नाम से है इसके अलावा बुक शेयर करके एक अमरीकी लाइब्रेरी है जिसमें लाखों की संख्या में किताबें उपलब्ध हैं दिव्यांग जनों के लिए। आपको बताना चाहूंगा कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कई समझौते हुए हैं जिसके तहत एक देश दृष्टिबाधितों के लिए जो किताबें तैयार करता है वे किताबें दूसरे देशों को उपलब्ध कराई जाती हैं। 

मि-    यह बड़े सन्तोष की बात है कि दृष्टिबाधितों के लिए कई स्तर पर निरन्तर प्रयास जारी हैं

राकेश जैन -         आजकल एक नया ट्रेण्ड चला है। नया क्या, है तो पुराना लेकिन अब धीरे-धीरे पापुलर हो रहा है, वह है आडियो डिस्क्राइब्ड मूवीज।

मि -   इसके बारे में कभी सुना नहीं।

राकेश जैन -         पिक्चर में क्या होता है? डायलॉग्स होते है लेकिन बहुत से सीन ऐसे होते हैं जिनमें कोई संवाद नहीं होता है खाली एक्शन होता है तो जब एक्शन हो रहा होता है तो हमें नहीं पता चल पाता कि क्या हो रहा है तो उसके लिए आडियो डिस्क्रिप्शन होता है। जहां पर खाली सीन है कोई डायलॉ नहीं है तो उस ट्रैक के लिए  डियो रिकार्ड किया जाता है कि इस समय स्क्रीन पर क्या हो रहा है। तो हिंदी में ऐसी कई फिल्में आईं जैसे धोबी घाट,तारे जमीं पर और शोले जैसी कई फिल्में हैं। ये फिल्में हमारे एन जी द्वारा तैयार की जाती हैं। नेटफ्लिक्स पर आप जितनी सीरीज देखेंगे उनमें आडियो डिस्क्रिप्शन होता ही होता है, यह एक इन्टरनेशनल रूल है।

मि -   इस क्षेत्र में आपने भी कुछ काम किया है ?

राकेश जैन -         हमने डियो बुक्स तैयार करने का काम किया है। हमारी एक एन जी है जिसका नाम है रिहैबिलिटेशन सोसायटी आफ दि विजुअली एम्पेयर्ड। उसमें हमारे पास एक स्टूडियो है जिसमें हम आडियो बुक्स तैयार करते हैं। छात्रों के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए किताबें, कोर्स की किताबें और पाठ्य पुस्तकों को रिकार्ड करने पर हमारा खासतौर पर जोर रहता है। इसके अलावा हमने बहुत सारे उपन्यास,कहानियां आदि रिकार्ड किए हैं

पिछले पंद्रह वर्षों में। इंडिया में हमें बेस्ट रिकार्डिंग का नेशनल अवार्ड भी मिला है।

मि -   क्या कभी आपने आत्म कथा लिखने पर विचार किया?

राकेश जैन - नहीं।

मि-    क्यों ?

राकेश जैन -         क्योंकि मुझे नहीं लगता कि मैंने जीवन में ऐसा कुछ विशेष किया है जो और लोग नहीं कर सकते।

मि-    अब एक आखिरी सवाल। आपका विवाह हुआ ?

राकेश जैन -         जी मेरा विवाह हुआ। मेरी पत्नी उमा जैन से मेरा परिचय हुआ फिर 1997 में हम दोनों ने शादी कर ली।

मि -   क्या वह भी दिव्यांग हैं ?

राकेश जैन -         नहीं। वह एकदम सामान्य हैं। हमारे दो बेटे हैं। एक एच डी एफ सी बैंक में काम करता है और दूसरा नोइडा में बी.टेक कर रहा है।

नवनीत मिश्र -    आपसे बात करके बहुत अच्छा लगा डाक्टर राकेश। आपने अपनी तमाम व्यस्तताओं के बीच हमसे बात करने के लिए समय निकाला इसके लिए मेरा आभार स्वीकार करें। आप प्रकाश स्तम्भ की तरह जगमगाते हुए लोगों को राह दिखाने के लिए सक्रिय रहें यही कामना है।

राकेश जैन -         आपको भी धन्यवाद।             

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नवनीत मिश्र                                      

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