सोमवार, 10 अगस्त 2009

वातायन - अगस्त,२००९


हम और हमारा समय

भारतीय पुलिस : छवियां अनेक

एक सर्वेक्षण में दिल्ली में सर्वाधिक भ्रष्ट दिल्ली पुलिस विभाग को बताया गया था. यदि राष्ट्रीय स्तर पर यह सर्वेक्षण किया जाये तो भी इस बात के सच न होने की आशंका कम ही होगी. वास्तविकता यह है कि अपने कर्मचारियों के भ्रष्ट कारनामों से स्वयं पुलिस विभाग भी परेशान हैं. नीचे के लोग यह कह सकते हैं कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे की ओर चलता है. यदि एक मंत्री ईमानदार हो तो उसके विभाग के लोग कुछ भी गलत करने से पहले दस बार अवश्य सोचेंगे. लेकिन जब मंत्री ही भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाता है तब वह अपने अधीनस्थों पर नकेल कैसे कस सकता है ! शायद पुलिस विभाग के मामले में भी यही सच है.

जब हम पुलिस की बात करते हैं तब हमें उन मुठभेड़ों की याद हो आती है जिनमें खूंखार बदमाशों के साथ-साथ निर्दोषों की जान ली जाती है. या अपने आकाओं को खुश करने के लिए जघन्यतम कृत्य करने से पुलिस पीछे नहीं रहती. अलग राज्य के रूप में उत्तराखंड की मांग को लेकर आंदोलनकर्ताओं के देहरादून से दिल्ली मार्च के दौरान रात में महिलाओं, युवकों और वृद्धों पर उत्तर प्रदेश पुलिस ने जो बर्बरता प्रदर्शित की थी, उसके दाग तत्कालीन सरकार के नुमाइन्दों पर से अभी तक धुले नहीं हैं. कितने ही युवक आज तक अपने घर नहीं पहुंचे अर्थात वे पुलिस की बर्बरता का शिकार होकर अपनी जान गंवा बैठे थे. कितनी ही महिलाओं और युवतियों के साथ क्रूरतापूर्वक बलात्कार किया गया था. गोधरा कांड के बाद की गुजरात की मुठभेड़ों को भी याद किया जा सकता है. देश का शायद ही कोई कोना ऎसा हो जहां वास्तविक से कई गुना अधिक फेक मुठभेड़ें न होती हों और इनमें निर्दोषों की ही जान ली जाती है.

हाल में देहरादून में एक युवक रणवीर सिंह को उत्तराखंड पुलिस ने मुठमेड़ दिखाकर मौत के घाट उतार दिया था. ये कुछ बर्बरता की बेमिसाल मिसालें हैं. यह सब उन लोगों द्वारा किया जाता है जो वर्दीधारी हैं. जो वर्दी धारण करने की पंक्ति में खड़े हैं उनकी मानसिकता कम खूंखार नहीं दिखती. दिल्ली में जिन स्थानों पर सिपाहियों की भर्ती होती है, वहा लिखित परीक्षा देने के उपरांत अपने घरों को लौटते युवकों के समूहों को खुलेआम लड़कियों को छेड़ते और आम लोगों के साथ बदसलूकी करते देखा जा सकता है ( मैं स्वयं प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं ) . जब इस प्रकार विकृत मानसिकता के युवकों के शरीर पर पुलिस वर्दी झूलती है तब उनकी गतिविधियों का अनुमान लगाया जा सकता है.

लेकिन इस धूमिल पक्ष के बावजूद पुलिस का उज्वल पक्ष भी है. दिल्ली के बाटला हाउस और मुम्बई के आतंकी हमलों के दौरान पुलिस ने ही अपने जवान खोये. बाटला हाउस को लेकर धर्मनिरपेक्षता के अनेक ठेकेदारों ने उस पर प्रश्न चिन्ह लगाये और इंसपेक्टर एम. सी. शर्मा को अपने ही लोगों की गोली का शिकार बताया. लेकिन मानवाधिकार आयोग ने उनके प्रश्नचिन्हों पर स्याही पोत दी. हालांकि कुछ कट्टरपंथी बेशर्मी से मानवाधिकार की रपट को खारिज करने में तुले हुए हैं. लेकिन पुलिस ने वही किया जो देश की जनता की सुरक्षा के लिए उसे करना चाहिए था. हालांकि पुलिस के इस बहादुरीपूर्ण कार्य पर प्रश्नचिन्ह लगाने वालों में एक भूतपूर्व मंत्री जी भी थे, जो सदैव अपनी विवादित धर्मनिरपेक्ष छवि को चमकाने का प्रयत्न करते रहते थे. हकीकत यह है कि ऎसे लोग धर्मनिर्पेक्षता की ओट में धर्म की ही राजनीति कर रहे होते हैं. हद तो तब हुई जब भारतीय इतिहास में पहली बार किसी विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर ने आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त छात्रों की पैरवी के लिए विश्वविद्यालय का कोष खोल दिया और मंत्रालय ने उन्हें पुरस्कृत करते हुए उनके कार्यकाल को बढ़ा दिया. आज जब मानवाधिकार आयोग ने मान लिया है कि वे छात्र आतंकवादी थे तब विश्वविद्यालय कोष के धन का यदि कुछ दुरुपयोग किया गया है तो उसके लिए वाइस चांसलर साहब को जिम्मेदार ठहराते हुए उनके विरुद्ध उचित कार्यवाई की जानी चाहिए. आम आदमी यह जानना चाहता है, क्योंकि किसी भी केन्द्रीय विश्वविद्यालय को धन सरकार द्वारा प्रदान किया जाता है और वह आम आदमी का होता है.


बाटला हाउस आंतकवादी घटना की भांति मुम्बई आतंकी हमले पर मान्यवर अंतुले जी ने प्रश्न चिन्ह लगाया और जनता ने उसका उत्तर उन्हे दे दिया. आभिप्राय यह कि भारतीय पुलिस की जो छवियां हैं उनमें यदि भ्रष्ट और आंतकी छवि है तो खूंखार आतंकवादियों और बदमाशों से मोर्चा लेते हुए अपने जांबाजों को गंवाने की छवि भी है. लेकिन उसके पहली छवि के कारण आम आदमी उससे दूर रहना उचित समझता है. इस स्थिति को दूर करने के लिए गहन अध्ययन की आवश्यकता है. चयन प्रक्रिया के समय पुरानी पद्धति को अपनाने के बजाय वैज्ञानिक पद्धति अपनायी जानी चाहिए जिससे चयन से पूर्व अभ्यर्थी की मानसिकता का पता लगाया जा सके. प्रशिक्षण में भी उन विषयों को शामिल किया जाना चाहिए जिससे वे जनता के प्रति अधिक मानवीय हो सकें . उनकी कार्य-पद्धति को भी सुनश्चित करना चाहिए. यह कार्यपद्धति भी उनके स्वभावगत स्थितियों के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है.

वातायन का अगस्त, २००९ अंक किन्ही कारणों से कुछ विलंब से आप तक पहुंच रहा है. इस अंक में लियो तोल्स्तोय पर मैं अपना जीवनीपरक आलेख पुनः प्रस्तुत कर रहा हूं जो जनवरी २००८ के अंक में वातायन के प्रारंभिक दिनों में प्रस्तुत किया गया था. वातायन पर जब मैंने कार्य प्रारंभ किया था तब हिन्दी में लगभग दो हजार ब्लॉग थे, जिनकी संख्या अब लगभग दस हजार हो चुकी है. इस आलेख को पुनः देने का आभिप्राय उन पाठकों तक इसे पहुंचाना है जो इसे नहीं पढ़ सके थे. यह आलेख मेरे द्वारा अनूदित लियो तोल्स्तोय के उपन्यास ’हाजी मुराद’ की भूमिका के रूप में उपन्यास में सम्मिलित है. ’हाजी मुरा” लियो तोल्स्तोय का अंतिम उपन्यास था, जिसे उन्होंने १८९६ से १००४ तक लिखा था और उनके जीवन काल में यह प्रकाशित नहीं हुआ था. कारण शायद यह रहा होगा कि इसके सभी पात्र ऎतिहासिक हैं और यह भी संभव था कि उनमें से कुछ तब भी जीवित रहे हों. बहरहाल यह उपन्यास तोल्स्तोय के मरणॊपरान्त प्रकाशित हुआ और यह भी एक कारण रहा होगा कि हिन्दी में इसके विषय में प्रायः लोगों को जानकारी नहीं थी. मुझे इसके अनुवाद का और मेरे मित्र आलोक श्रीवास्तव को अपने प्रकाशन - ’संवाद प्रकाशन’ से इसे प्रकाशित करने का पहला गौरवपूर्ण अवसर प्राप्त हुआ. मेरे अनुवाद की सूचना के बाद मास्को से श्री अनिल जनविजय जी ने फोन पर बधाई देते हुए कहा कि वे दो वर्षों से इसका अनुवाद कर रहे थे, लेकिन किन्हीं कारणों से पूरा नहीं कर पाये. दो दिन पूर्व तक वह दिल्ली में थे और उन्होंने मुझसे फोन पर बात करने की इच्छा जाहिर की. मैंने ०८.०८.०९ को फोन किया तो उन्होंने बताया कि ’हाजी मुराद’ का मेरा अनुवाद मास्को में उनके पास है और उन्होंने पुनः उसकी प्रशंसा की. उन्होंने एक प्रस्ताव भी किया कि ’रचना समय’ (भोपाल से प्रकाशित होने वाली पत्रिका) का लियो तोल्स्तोय विशेषांक प्रकाश्य है और वह मेरे अनुवाद को उसमें शामिल करना चाहते हैं. लेकिन कुछ तकनीकी कारणॊं से मैं उन्हें ’रचना समय’ में ’हाजी मुराद’ के अपने अनुवाद को प्रकाशित करने की अनुमति नहीं दे पाया, जिसका मुझे खेद है. मुझे जानकर प्रसन्नता हुई जब अनिल जनविजय ने कहा कि तब उन्हें ही अपना रुका अनुवाद ’रचना समय’ के लिए पूरा करना होगा.

’वातायन” के इस अंक में प्रसिद्ध कवयित्री , लेखिका और वेब पत्रिका ’लेखनी’ की सम्पादिका सुश्री शैल अग्रवाल जी की पांच कविताएं और वरिष्ठ रचनाकार डॉ.सतीश दुबे की कहानी प्रकाशित हैं. डॉ. दुबे हिन्दी लघुकथा साहित्य के शीर्षस्थ लेखकों में हैं . उन्होंने पर्याप्त कहानियां भी लिखी हैं. प्रस्तुत कहानी उनके सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह ’धुंध के विरुद्ध’ से उद्धृत की गई है
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जीवनीपरक आलेख

किसानों के हमदर्द लेखक : लियो तोल्स्तॉय
रूपसिंह चन्देल
‘युद्ध और शांति’, ‘अन्ना कारेनिना’, ‘पुनरुत्थान’, और ‘हाजी मुराद’ उपन्यास, तीन आत्मकथात्मक उपन्यास – ‘बचपन’, ‘किशोरावस्था’, और ‘कज्ज़ाक’, ‘फ़ादर सेर्गेई’, ‘इवान इल्यीच की मृत्यु’, ‘क्रुट्ज़र सोनाटा’ (लंबी कहानी), ‘घोड़े की कहानी’, ‘बाल नृत्य के बाद’ आदि कहानियाँ, ‘अंधकार की सत्ता’ तथा ‘जीवित शव’ नाटक सहित लगभग पचीस कृतियों के लेखक, चिन्तक, विचारक, दार्शनिक, शांतिवादी और शैक्षिक सुधारक लियो निकोलएविच तोल्स्तॉय का जन्म कास्को से दो सौ किलोमीटर दूर तूला नगर के यास्नाया पोल्याना नामक जागीर में एक समृद्ध तथा उच्च कुलीन परिवार में 28 अगस्त (नये कलेंडर के अनुसार 9 सितम्बर) 1828 को हुआ था। उनके पिता का नाम निकोलई इल्यिच ताल्स्तॉय और मॉं का नाम मारिया निकोनिकोलएव्ना था। उनकी मॉं प्रतिष्ठित वोल्कोन्स्की परिवार से थीं और महाकवि पुश्किन की दूर की रिश्तेदार थीं। लियो तोल्स्तॉय जब दो वर्ष के थे, उनकी मॉं की मृत्यु हो गयी थी।बच्चों की शिक्षा के उद्देश्य से निकोलई इल्यिच तोल्स्तॉय ने मास्को जाने का निर्णय किया। 10 जनवरी, 1837 को यास्नाया पोल्याना से उनकी यात्रा सात स्लेजों में प्रारंभ हुई, जिन्हें उनके अपने और किराये के घोड़े खींच रहे थे। लियो की वृद्धा दादी एक अलग स्लेज में थीं। मास्को में प्ल्यू्श्चिखा में शेर्बाचेव का मकान किराये पर लिया गया, जहॉं वे अठारह महीनों तक रहे थे। निकोलई ने बच्चों की शिक्षा के लिए फ्योदोर एवानोविच नामक शिक्षक नियुक्त किया था। लेकिन इन्हीं दिनों एक दुर्घटना घटी थी। एक सम्पत्ति विवाद के सिलसिले में निकोलई इल्यिच तोल्स्तॉय को अकस्मात तूला जाना पड़ा था। 19 जून, 1837 को उन्होनें
(पत्नी सोफिया के साथ तोल्स्तोय)
मत्यूशा नामक शिकारी, जो उनका नौकर भी था, के साथ तूला के लिए प्रस्थान किया और 24 घंटों से भी कम समय में लंबी यात्रा तय कर 21 जून को वह वहां पहुंचे थे। वह किसी से मिलने जा रहे थे कि रास्ते में गिर गये थे और उनकी मृत्यु हो गयी थी। 25 मई, 1838 को लियो तोल्स्तॉय की दादी प्रिन्सेज गोर्चाकोवा की भी मृत्यु हो गयी थी। पिता की मृत्यु के समय लियो मात्र 9 वर्ष के थे। उनके, उनके भाइयों और बहन के पालन-पोषण की जिम्मेदारी उनकी एक आंट अलैक्जैड्रां इल्यिनिच्ना ने संभाली लेकिन 1841 में उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी दूसरी आंट तात्याना अलैक्जाड्रोंव्ना ने उनके पालन-पोशण का भार संभाला था।
प्रारंभिक शिक्षा के बाद लियो तोल्स्तॉय कज़ान विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए गये। उस समय उनकी आयु 13 वर्ष थी। उनके साथ उनका निजी नौकर वन्यूशा था जो बालक ही था और जो बाद में उनकी काकेशस यात्रा के समय उनके साथ रहा था। कज़ान में वह एक अवकाश प्राप्त कर्नल युश्कोव के घर में रहे थे। पढ़ाई की दृष्टि से तोल्स्तॉय अच्छे छात्र नहीं थे। उनकी पत्नी ने अपने संस्मरण में इस विषय में लिखा है, ‘‘वह अच्छे विद्यार्थी नहीं थे और गणित सीखने में उन्हें बहुत कठिनाई होती थी…।" उन्होंने कज़ान विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या विभाग में प्रवेश लिया, किन्तु एक वर्ष पश्चात् ही वह पढ़ाई छोड़कर उन्होनें विधि शास्त्र विभाग में प्रवेश ले लिया था। लेकिन मन यहॉं भी उनका नहीं रमा। वहॉं उनके प्रोफेसर थे-डी. आई. मेयर, जो बहुत अच्छे व्यक्ति थे। वह तोल्स्तॉय में विशेष रुचि ले रहे थे। उन्होंने उन्हें एक विषय पर तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का कार्य सौंपा। लेकिन, तोल्स्तॉय वह कार्य नहीं कर पाये थे। बहुत वर्षों बाद पी. पेकार्स्की ने डी. आई. मेयर पर एक संस्मरण लिखा था, जो 1859 में प्रकाशित एक पुस्तक में संकलित हुआ था। उसमें उन्होंने प्रो0 का कथन उद्धृत किया था। प्रो0 मेयर ने कहा था, ‘‘मैनें आज उसकी परीक्षा ली, और देखा कि पढ़ने की उसकी बिल्कुल इच्छा नहीं है। खेद का विषय है। उसकी ऐसी अभिव्यंजक मुखाकृति और बुद्धिमानों जैसी आंखें हैं कि मैं यह मानता हूँ कि सद्भावना और स्वतंत्रता से एक असाधारण व्यक्ति के रूप में वह अपना विकास कर सकता है।"तोल्स्तॉय ने स्वेच्छया दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया, जिसने उनके भावी लेखन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। बाद में उन्होंनें बाइबिल, अरब की लोक कथाएं, प्राचीन रूसी साहित्य, और ऐसा साहित्य जिसके लेखकों के नाम लोग भूल गये थे, अठारहवीं शताब्दी का साहित्य और भूले-बिसरे जर्नल्स खोजकर पढ़े थे। उन्होंने पुश्किन को बार-बार पढ़ा, और रूसो को बचपन में ही पढ़ डाला था। उन्होंने जिप्सी संगीत से भी बहुत कुछ सीखा था।लियो तोल्स्तॉय के घर में प्रस्कोव्या इसाएव्ना नाम की एक नौकरानी थी, जो बचपन में उन्हें कहानियां सुनाया करती थी। कभी वह उनके दादा, जो सेना में जनरल थे, के बहादुरी के किस्से सुनाती तो कभी लोक-किस्से। कहा जा सकता है कि दादी-नानी की बचपन में सुनी कहानियों की भांति इसाएव्ना की कहानियों ने लियो के बचपन में ही एक महान लेखक की बुनियाद रख दी थी। उसके विषय में तोल्स्तॉय को ज्ञात हुआ था कि वह फोका नामक खानसामा को प्यार करती थी, और उसके साथ शादी की अनुमति चाहती थी। लेकिन उनके दादा ने उसे शादी की अनुमति नहीं दी थी।
तोल्स्तॉय ने किसानों के जीवन का निकट से गहन अध्ययन किया। वह उनकी दयनीय जीवन-स्थितियों से दुखी और व्यवस्था के प्रति विक्षुब्ध थे। उन्होंनें यास्नाया पोल्याना में खेती के कार्यों में अपने को व्यस्त कर लिया था। यह कज़ान से लौट आने के बाद की घटनाएं थीं। उन्होंनें एक थ्रेशिंग मशीन बनायी, जिसका वर्णन उन्होंनें ‘जमींदार की एक सुबह’ में किया है। इस मशीन ने भारी शोर किया था, सनसनाई थी और दम तोड़ दिया था। उन दिनों तोल्स्तॉय 18 वर्ष के थे। थ्रेशिंग मशीन द्वारा किसानों के श्रम को कम करने का उनका सपना टूट गया था। फरवरी, 1849 में वह अपनी मास्टर्स डिग्री के लिए सेंट पीटर्सबर्ग गये थे। जुआ खेलने की लत उन्हें वहीं लगी थी। वह कर्ज में इतना डूब गये थे कि मार्च 1849 में उन्होंने सेर्गेई को लिखा था कि वह उनके घोड़े और कुछ जमीन बेचकर पैसे भेजे। उन्होंनें अपने कारिन्दा को जंगल बेचने के लिए लिखा था। उन्होंनें सेर्गेई को पुन: लिखा और कहा कि वह ‘खरीदारों से किसी भी शर्त‘ पर सौदा करके उन्हें पैसे भेजे। ‘हाजी मुराद‘ और ‘कज्ज़ाक‘ में उन्होंने अपने इस अनुभव का लाभ उठाया है। उसके बाद उन्होंनें विदेश यात्राएं कीं। वह उन स्थानों पर गये, जहॉं कभी रूसो रहे थे और जहॉं उन्होंने नयी शिक्षा पद्धति का स्वप्न देखा था। यात्रा के अंत में तोल्स्तॉय भी रूस में पब्लिक विद्यालय शिक्षा के विषय में सोचने लगे थे।यास्नाया पोल्याना लौटकर तोल्स्तॉय ने किसानों के लिए एक स्कूल की स्थापना की थी। यह उनके एक आलेख – ‘पब्लिक विद्यालयों के प्रबन्धन के लिए योजना का प्रारूप‘ से स्पष्ट है। विद्यालय को सरकारी मान्यता प्राप्त न थी। यहॉं युवा तोल्स्तॉय अपने किसानों के बच्चों को पढ़ाते थे। उनका पुराना नौकर फोका इस कार्य में उनकी सहायता करता था। उनके काकेशस चले जाने के बाद यह कार्य बाधित हुआ था, लेकिन वहॉं से लौटने के बाद उन्होंनें पुन: विद्यालय प्रारंभ कर दिया था। तब स्कूल चलाने के लिए उन्होंनें मास्को के ग्यारह विद्यार्थियों का चयन किया था। इन्हीं दिनों उन्हें किसानों और जमींदारों के बीच मध्यस्थता करने के लिए पब्लिक आर्बिट्रेटर चुना गया था। परिणामत: किसानों के बच्चों के लिए उस क्षेत्र में अनेक स्कूल खुले थे, लेकिन यास्नाया पोल्याना का स्कूल उनके लिए था।
लियो तोल्स्तॉय के परिवार में सैन्य सेवा की सुदीर्घ परम्परा रही थी। उनके पिता ने 1812 में नेपोलियन के विरुद्ध युद्ध किया था। तोल्स्तॉय के बड़े भाई निकोलई सेना में भर्ती हुए थे। 1851 में तोल्स्तॉय भी उनके साथ गए और एक बाहरी व्यक्ति के रूप में सेना के लिए अपनी सेवाएं अर्पित की थीं। उस समय उनकी आयु बाईस वर्ष थी। सेना में वह लगभग पांच वर्ष रहे थे। कमीशन प्राप्त करने के लिए उन्हें बहुत प्रयास करना पड़ा था। परिवार के उच्च संपर्कों का सहारा लेना पड़ा था। उन्होंने काकेशिया, डेन्यूब और क्रीमिया की लड़ाइयों में भाग लिया था। सैन्य अभियानों में उनकी सक्रिय भागीदारी, भले ही एक बाहरी व्यक्ति के रूप में, उन्हें काकेशिया तथा सेवस्तोपोल के युद्धों से संबन्धित कहानियों और ‘कज्ज़ाक‘ , ‘युद्ध और शांति’ तथा ‘हाजी मुराद’ जैसे उपन्यासों के सृजन में सहायक सिद्ध हुई थी। उनकी पत्नी सोफिया अन्द्रेएव्ना ने अपने संस्मरण में लिखा है, ‘‘वह प्राय: मुझसे यह कहते थे कि उनकी सबसे सुखद स्मृतियां काकेशिया से जुड़ी हुई हैं। उन दिनों उन्होंनें बहुत पढ़ा, स्टेर्न की रचनाओं का अनुवाद किया। यहीं उन्होंने ‘बचपन’ और ‘किशोरावस्था’ की रचना की थी।"
वैसे तोल्स्तॉय ने पहली रचना, 1841 में हुई अपनी बुआ की मृत्य के बाद कविता के रूप में लिखी थी।काकेशिया प्रवास भावी लेखक तोल्स्तॉय के लिए वरदान सिद्ध हुआ था। वास्तविकता यह थी कि वह सोची-समझी योजना के बाद ही सैन्य सेवा में गये थे, क्योंकि न केवल वह सैन्य अभियानों को निकट से देखना चाहते थे, बल्कि उस पूरे प्रांत का बहुआयामी अध्ययन भी करना चाहते थे। ‘कज्ज़ाक’ और ‘हाजी मुराद’ इसका प्रमाण हैं। काकेशस में लिखी गयी उनकी रचना ‘बचपन’ उस समय की प्रमुख साहित्यिक पत्रिका ‘सोव्रेमेन्निक‘ (समकालीन) में प्रकाशित हुई थी। तोल्स्तॉय ने इसमें लेखक के रूप में अपना नाम नहीं दिया था। लेकिन जब पाठकों और आलोचकों ने ‘बचपन’ की प्रशंसा की तब उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा था। इस विषय में उन्होंनें अपनी डायरी में लिखा, ‘‘मैं इसे पढ रहा था, प्रशंसा के कारण अभिभूत हुआ जा रहा था और मेरी छाती गर्व से फटी जा रही थी।" इस पत्रिका के सम्पादक थे प्रसिद्ध कवि और लेखक नेक्रासोव। नेक्रासोव ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा था, ‘‘ लेखक हमें हमारे लिए सर्वथा नयी दुनिया में ले जाता है… उनमें पात्रों को समझने और उनके स्वरूप के विषय में गहरी सचाई अभिव्यक्त हुई है… ।"काकेशिया में रहते हुए ही तोल्स्तॉय ने एक लेखक के रूप में प्रसिद्धि पा ली थी। जब वह वहां से नवम्बर 1855 में पीटर्सबर्ग लौटकर आये, तब उस समय के महान रूसी रचनाकारों, आस्त्रोव्स्की, चेर्नीशेव्स्की, तुर्गनेव और गोंचारोव ने उनका एक बड़े लेखक के रूप में स्वागत किया था। तुर्गनेव ने तोल्स्तॉय की बहन मारिया को लिखा था, ‘‘हम सब की राय में लेव निकोलएविच हमारे सर्वश्रेष्ठ लेखकों की पांत में आ गये हैं और अब तो उन्हें कोई ऐसी चीज लिखनी चाहिए कि वह प्रथम स्थान प्राप्त कर लें जिसके योग्य वह हैं और जो उनकी प्रतीक्षा कर रहा है।" यहां यह उल्लेख करना अनुचित न होगा कि लेखक तुर्गनेव और तोल्स्तॉय की बहन मारिया के मध्य प्रेम संबन्ध थे। मारिया ने अपने पति से तलाक ले लिया था। वह तुर्गनेव से विवाह करना चाहती थी, जिसे तुर्गनेव लंबे समय से टालते आ रहे थे। तोल्स्तॉय के लिए यह एक अप्रिय स्थिति थी। तुर्गनेव के प्रशंसक होने के बावजूद कुछ विषयों में तोल्स्तॉय का उनसे मतवैभिन्य था। उस पर मारिया के संबन्धों का मामला। दरअसल, तुर्गनेव मॉलिन वर्डोट को प्यार करते थे, जिसके मकान में वह रहते थे। लेकिन सुश्री वर्डोट से तुर्गनेव को अपने प्रेम का उत्तर नहीं मिला था। तुर्गनेव के एक पुत्री थी, जिसके पालन-पोषण के लिए वह विशेष चिन्तित रहते थे और सुश्री वर्डोट उस बच्ची की देखभाल करती थीं। लेकिन तोल्स्तॉय मारिया के विषय में चिन्तित थे। 1861 के वसंत में कवि अफानसी फेट की जागीर स्तपनोव्का में एक सुबह नाश्ते के दौरान तुर्गनेव और तोल्स्तॉय की मुलाकात हो गयी थी। किसी विषय पर दोनों में झड़प हुई थी और बहन को लेकर तोल्स्तॉय के मन में जमी क्षुब्धता फूट पड़ी थी। इस सबके बावजूद तोल्स्तॉय के हृदय में तुर्गनेव के विरुद्ध दुर्भाव न था। तुर्गनेव ने अपने किसानों को स्वतंत्र कर दिया था और दुर्भिक्ष के दौरान गरीब किसानों के सहायतार्थ विभिन्न जागीरों की यात्रा करते समय तोल्स्तॉय ने पाया था कि तुर्गनेव के किसानों की स्थिति अन्य जमींदारों के किसानों से बहुत अच्छी थी।
फरवरी, 1862 में पब्लिक आर्बीट्रेटर के पद से त्यागपत्र देकर तोल्स्तॉय 12 मई 1862 को मास्को चले गये थे। उनके साथ उनके शिष्य वसीली मोरोजोव, और इगोर चेर्नोव थे और था पुराना नौकर अलेक्सेई ओरेखोव जो सेवास्तोपोल में उनके साथ रहा था। मास्को में उन्होनें बेहर्स परिवार के साथ रात व्यतीत की थी। उनकी भावी पत्नी सोनिया बेहर्स (सोफिया अन्द्रेएव्ना) ने पहली बार उस ग्रामीण युवक को देखा था। मास्को से तोल्स्तॉय त्वेर चले गये थे। जिन दिनों वह यास्नाया पोल्याना से बाहर थे, अधिकारियों ने उनके स्कूल में छापा मारा था। उससे स्कूल को इतनी क्षति हुई थी कि स्कूल उससे उबर नहीं पाया था।लियो निकोलएविच तोल्स्तॉय लगभग चौंतीस वर्ष के हो चुके थे, लेकिन अविवाहित थे। काकेशस से लौटने के बाद वह एक किसान युवती अक्सीनिया बजीकिना के प्रेम में पड़ गये थे। वह उन दिनों ‘कज्ज़ाक‘ लिख रहे थे। लेकिन उन्हीं दिनों त्युचेवा नामक युवती से भी उनके प्रेम संबन्ध थे। उन दिनों वह नियमित डायरी लिखते थे। 14 जनवरी, 1858 को उन्होनें लिखा, ‘‘त्युचेवा हर समय मेरे दिमाग में रहती है। सच, इससे मुझे खीज होती है, क्योंकि वास्तव में यह प्रेम नहीं है।" 26 जनवरी, 1858 को उन्होंनें लिखा, ‘‘वह ठंडी, तुच्छ और अभिजातवर्गीय है जबकि चिचेरिना सुन्दर है।" लेकिन अक्सीनिया के विषय में वह लिखते हैं, ‘‘अक्सीनिया को एक दृश्टि देखा। वह बहुत सुन्दर है। मैनें इतने दिन व्यर्थ ही गंवा दिए। आज पुराने बड़े जंगल में, वहां उसकी भाभी भी थी, और मैं मूर्ख हूँ… मैं उसके प्यार में पड़ गया हूँ। ऐसा जीवन में पहले कभी नहीं हुआ था। मेरे मस्तिष्क में दूसरा कोई विचार नहीं है। मैं संतप्त हूँ।"कुछ लोगों का कहना है कि अक्सीनिया से उन्हें एक पुत्र भी था। लेकिन अक्सीनिया से पूर्व अन्य युवतियों से भी उनके प्रेम संबन्ध थे। कोकेशस जाने से पूर्व वह एक जिप्सी युवती के प्रति आकर्षित थे। उनका भाई सेर्गेई लंबे समय तक एक जिप्सी युवती के साथ रहने के पश्चात् उससे विवाह कर चुका था। उसने तोल्स्तॉय को भी उस जिप्सी युवती से, जिसके प्रति तोल्स्तॉय आकर्षित थे, विवाह के लिए प्रेरित किया था। बाद में, तोल्स्तॉय बलेरिया असे‍र्नीवा के प्रेम में पड़े थे, जिसके साथ संबन्ध विच्छेद करते हुए उन्होंनें 14जनवरी, 1857 को उसे एक पत्र लिखा था, ‘‘प्रिय अलेरिया व्लादीमीरोव्ना, मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं अपने प्रति कसूरवार हूँ और भयानक रूप से आपके प्रति भी कसूरवार हूँ… मैं शीघ्र ही पेरिस के लिए रवाना हूँगा और कब रूस वापस लौटूंगा, ईश्वर ही जानता है।" वलेरिया व्लादीमीरोव्ना असे‍र्नीवा अपने मां-पिता को खो चुकी थी। वह सुदाकोवो, जो यास्नाया पोल्साना के निकट था, में रहती थी और अच्छे रहन-सहन के बावजूद धनवान न थी। लेकिन काले बालों वाली, संगीत पसंद वह एक सुदर्शना युवती थी। असे‍र्नीवा के साथ तोल्स्तॉय के संबन्ध बहुत गहराई तक स्थापित हो चुके थे। उन्होंनें अपनी बुआ, भाई ओर मित्रों से उसका परिचय करवाया था। उसे सोलह पत्र भी लिखे थे, लेकिन किन्हीं अज्ञात कारणों से उन्होंनें उससे विवाह नहीं किया था।
तोल्स्तॉय जब तीस के थे, वह त्युचोवा के विषय में सोचते थे, ‘‘मैं उससे बिना प्यार के निश्चय ही शांतिपूर्वक विवाह के लिए अपने को तैयार कर रहा था, लेकिन उसने जान-बूझकर ठंडेपन के साथ मेरा स्वागत किया।" अंतत: उन्होंनें उससे भी विवाह का विचार त्याग दिया था। 1 जनवरी, 1859 को उन्होंनें डायरी में लिखा, ‘‘ मैं या तो इस वर्ष विवाह कर लूंगा अथवा कभी नहीं करूंगा।" उन दिनों की उनकी डायरी से ज्ञात होता है कि विवाह को लेकर वह कितना उलझन में थे। लगातार वह अक्सीनिया का उल्लेख करते हैं। अंतत: बेहर्स परिवार से उनकी निकटता ने उन्हें सोनिया के निकट ला दिया था। वास्तव में, डाक्टर अन्द्रेई इव्स्ताफीविच बेहर्स अपनी बड़ी बेटी लिजा का विवाह तोल्स्तॉय के साथ करना चाहते थे। लेकिन 6 मई, 1862 को तोल्स्तॉय ने अपनी डायरी में लिखा, ‘‘मैनें बेहर्स परिवार में सुखद दिन व्यतीत किया, लेकिन लिजा के साथ विवाह का साहस मुझमें नहीं है।" वह बेहर्स की छोटी बेटी सोनिया, जो उनसे सोलह वर्ष छोटी थी, को पसंद करते थे और 24 सितम्बर, 1862 को सोनिया के साथ उनका विवाह हुआ था। डाक्टर बेहर्स लिजा के साथ तोल्स्तॉय के विवाह न करने से इतना नाराज थे कि उन्होंनें सोनिया को दहेज के रूप में कुछ भी नहीं दिया था।
सोफिया अन्द्रेएव्ना के साथ शादी के पश्चात् तोल्स्तॉय के जीवन का नया अध्याय प्रारंभ हुआ। सोफिया निश्चित ही उनकी एक कुशल संगिनी सिद्ध हुई थीं। वह उनकी पत्नी, सहायिका, निजी सचिव आदि विभिन्न रूपों में उनके रचनात्मक कार्यों में सहायता करती थीं। वह उनकी प्रत्येक रचना की पहली पाठक ही नहीं होती थीं, बल्कि वह उन्हें अपनी सलाह भी देती थीं। वह उनकी रचनाओं को फेयर करती थीं। शादी के पश्चात् लंबी अवधि तक तोल्स्तॉय कुछ नहीं लिख पाये थे। ‘कज्ज़ाक’ (1852-1862) लिखकर वह पर्याप्त यश पा चुके थे। लेकिन, लगभग दो वर्षों तक कुछ न लिख पाने के दौरान वह एक बड़े विषय पर कार्य करने के लिए अपने को तैयार कर रहे थे। उन्होंनें 1865 में ‘युद्ध और शांति’ पर कार्य प्रारंभ किया, जिसे 1869 में पूरा किया था। यह उपन्यास राजनीतिक, सामाजिक, कूटनीतिक, धार्मिक, दार्शनिक, सामरिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक अर्थात् जीवन के लगभग सभी पक्षों पर प्रकाश डालता है। इस उपन्यास ने तोल्स्तॉय को विश्व के महान लेखकों के मध्य आसीन कर दिया। सामरसेट माम ने उनके विषय में लिखा, ‘‘ संसार का सबसे बड़ा उपन्यासकार बाल्जाक था, किन्तु ‘युद्ध और शांति’ संसार का महान उपन्यास है।" तोल्स्तॉय ने इस उपन्यास को लिखने में अथक श्रम किया था। इस दौरान उन्होनें दो छोटी रचनाएं ‘काकेशस में एक युद्धबंदी’ (1872) और ‘फादर सेर्गेई (1873) लिखा। लेकिन वह कुछ और महत्वपूर्ण लिखने की योजना बना रहे थे। यह उपन्यास था ‘अन्ना कारेनिना’ जिसे उन्होंनें 1875-77 में लिखा था। यह उपन्यास सुन्दर अन्ना, कूपमंडूक और सीमित जीवन दृष्टि रखने वाला उसका कुलीन पति कारेनिन, जो उम्र में अन्ना से काफी बड़ा था और अन्ना को प्रेम करने वाले जवान काउंट व्रोन्स्की की कहानी है । उपन्यास का अंत अन्ना की आत्महत्या में होता है। इसमें मुख्य कथा के साथ लेविन और कीटी की प्रेम कथा भी है। लेविन के विचार तत्कालीन रूस की विविध समस्याओं पर तोल्स्तॉय के विचारों को व्याख्यायित करते हैं। इस उपन्यास के विषय में रोमा रोलां का कथन है, ‘‘अन्ना कारेनिना पूरा एक संसार है जिसकी निधि अकूत है।"
‘अन्ना कारेनिना’ के बाद तोल्स्तॉय का लेखन निरंतर चलता रहा। 1882 में उन्होंनें – ‘एक स्वीकारोक्ति’, ‘मेरा धर्म’ (1884) , ‘घोड़े की कहानी’ (1864 में – पुन: 1886 में), ‘इवान इल्यीच की मृत्यु’ (886) , ‘एक व्यकित को कितनी जमीन की आवश्यकता है?’ (1886) , ‘अंधकार की सत्ता’ (ड्रामा –1886), ‘क्रुट्जर सोनाटा’ (1889 – लंबी कहानी), ‘पुररुत्थान’ (1889–99), ‘हाजी मुराद’ (1896 – 1904) जैसी कालजयी रचनाएं लिखीं। ‘पुररुत्थान’ में तोल्स्तॉय ने भूदास प्रथा के बाद की रूसी सामाजिक जीवन की विसंगतियों को गंभीरता से अभिव्यक्त किया है। यद्यपि इस उपन्यास का नायक नेखल्युदोव है, तथापि वास्तविक नायक आम-साधारण लोग हैं जो नेखल्युदोव के माध्यम से अपने वास्तविक रूप में पाठकों के समक्ष प्रकट होते हैं।‘हाजी मुराद’ तोल्स्तॉय का ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें हाजी मुराद ही नहीं अधिकांश अन्य पात्र वास्तविक हैं। उन्होंनें इस उपन्यास को लगभग पचास वर्ष पश्चात् लिखा था, जबकि वह यास्नाया पोल्याना के स्कूल के अपने छात्रों को प्राय: हाजी मुराद की वीर गाथाएं सुनाया करते थे। ‘क्रुट्जर सोनाटा‘ के विषय में कुछ विद्वानों का कहना है कि उन्होंने अपनी पत्नी सोफिया अन्द्रेएव्ना से ईर्ष्या के कारण उसे लिखा था। ऐसा माना जाता है कि सोफिया अन्द्रेएव्ना और उस समय के प्रसिद्ध संगीतकार सेर्गेई इवानएविच तानेएव, जो तोल्स्तॉय का अच्छा मित्र था, के मध्य यास्नाया पोल्याना अथवा मास्को में प्रेम संबन्ध स्थापित हुआ था लेकिन शायद वह सोफिया का एकपक्षीय प्यार था। वह यह नहीं जानती थी कि तानेएव उसे प्यार नहीं करता। वह यह सोचती थी कि वह उसके पति से भयभीत था। लेकिन वह प्रत्येक संगीत समारोहों में जाती थीं और तानेएव के बगल में बैठती थीं। एक बार तानेएव कीव गया और वहां मस्कोव परिवार के साथ ठहरा। सोफिया अन्द्रेएव्ना भी उसकी पीछे कीव गयी थीं। वह पहले अपनी बहन तातियाना से मिलीं, फिर मस्लोव परिवार की मेहमान बनी थीं। इस परिवार से उनके पुराने संबन्ध थे। अगले दिन वह सभी के साथ जंगल घूमने गयीं, जहां सोफिया के चित्र खींचे गये थे। जब वह मास्को लौटीं तब उन्होंने तोल्स्तॉय का तनावग्रस्त खिंचा हुआ चेहरा देखा था। तोल्स्तॉय ने अपनी भाभी को एक पत्र लिखा था, जिसमें दुखी मन से उन्होंने लिखा था कि “आखिर अब मैं सत्तर वर्ष का बूढ़ा जो हूँ।" उन्होंनें पांच पृष्ठों का एक लंबा पत्र सोफिया को लिखा था, जिसे उन्होंनें ‘एक संवाद’ कहा था। उसमें उन्होंनें सोफिया से कीव यात्रा और तानेएव के प्रति उनके सम्मोहन के विषय में स्पष्टीकरण मांगा था। पत्र पढ़कर सोफिया आग बबूला हो उठी थीं और चीखती हुई बोली थीं, ‘‘आप कमीने हैं, आप एक जानवर हैं ! और मैं एक अच्छे, सहृदय व्यक्ति को प्यार करती हूँ, न कि आपको। आप एक पशु हैं !"
वास्तव में तानेएव और सोफिया का प्रेम वास्तविक नहीं था। निश्चित् ही पारिवारिक असंतोष और प्रेम की आंकाक्षा के कारण वह उसकी ओर आकर्षित हुई थीं, लेकिन वह एकपक्षीय था। ऐसी स्थिति में तोल्स्तॉय की मानसिक स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है।सोफिया अन्द्रेएव्ना ने यास्नाया पोल्याना में घर बनवाया, उसे सजाया, और वहां रही भी थीं। लेकिन वास्तविकता यह थी कि ग्राम्य जीवन को वह स्वीकार नहीं कर पायी थीं। परिवार के लिए समर्पित और बच्चों के भविष्य की चिन्ता में डूबी रहने वाली उस अथक परिश्रमी महिला को पति का किसानों के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण, सामाजिक कार्यों में उनकी संलिप्तता और व्यवस्था का मुखर विरोध पसंद नहीं था। वह तोल्स्तॉय को एक काउंट की भांति… एक अभिजातीय वर्ग के व्यक्ति की भांति देखना चाहती थीं। जबकि तोल्स्तॉय किसानों जैसा सामान्य जीवन जीना पसंद करते थे। 28 जून, 1881 को तोल्स्तॉय ने अपनी डायरी में लिखा, ‘‘मैं एक गरीब आत्मा को देखने गया था। वह एक सप्ताह से बीमार है। उसे दर्द और कफ है। पीलिया बढ़ रहा है। कुर्नोसेन्कोव को पीलिया था। कोन्द्राती उसी से मरा था। गरीब लोग पीलिया से मर रहे हैं। वे फलाला से मर रहे हैं।" वह आगे लिखते हैं, ‘‘उसकी पत्नी की गोद में एक बच्चा है, तीन लड़कियां हैं और भोजन नहीं है। चार बजे तक उन्हें भोजन नहीं मिला था। लड़कियां सरसफल तोड़ने गयी थीं और वही उनका भोजन था।"तोल्स्तॉय ने आगे लिखा कि उस घर में स्टोव इसलिए जलाया गया कि बच्चे को लगे कि कुछ पकाया जा रहा था और वह चीखे नहीं। गरीबी का यह भयावह दृश्य तत्कालीन रूस की स्थिति का वास्तविक बयान है। उन्होंने पुन: लिखा, ‘‘ हम शैम्पेन के साथ अच्छा रात्रिभोज करते हैं ।… प्रत्येक बच्चे को खर्च के लिए पांच रूबल दिए जाते हैं। गाडि़यां तैयार हैं, जिनमें वे पिकनिक के लिए जाएगें। उनकी गाडि़यां कठिन श्रम से थके-मांदे किसानों की गाडि़यों के पास से गुजरेगीं… ।"तोल्स्तॉय की रचनाएं ही नहीं समय-समय पर उनकी डायरी में दर्ज की गई बातें रूस की उस समय की सामाजिक ओर आर्थिक विद्रूपता को उद्घघाटित करती हैं। तुर्गनेव की भांति उन्होंने भी अपने किसानों को स्वतंत्रता दे दी थी। लेनिन ने उनके विषय में अपने आलेख – ‘‘लेव तोल्स्तॉय रूसी क्रांति के दर्पण में" में लिखा था, ‘‘तोल्स्तॉय के विचारों में विरोधाभास वस्तुत: उन विरोधाभासपूर्ण परिस्थितियों का दर्पण है जिनमें किसान समुदाय को हमारी क्रांति में अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा करनी पड़ी थी।"

किसानों के जीवन परिवर्तन के विषय में तोल्स्तॉय जैसा सोचते थे क्रांतिकारी भी वैसा ही सोच रहे थे। शायद इसीलिए उन्होंनें कहा था, ‘‘ क्रांति अपरिहार्य है।" वह दूसरी क्रांति की प्रतीक्षा कर रहे थे, जो किसानों की जीवन स्थितियां बदल देने वाली थी। लेकिन दूसरी ओर वह क्रांति से भयभीत भी थे। ऐसी ही अनेक बातों में हमें उनका विरोधाभास प्रकट होता दिखता है।उन्होंने 13 मई, 1908 से 15 जून, 1908 तक एक आलेख पर कार्य किया, जिसका शीर्षक था, ‘‘मैं चुप नहीं रह सकता"। इस आलेख ने पूरी दुनिया में तहलका मचा दिया था। सेंसर किये जाने के भय से तोल्स्तॉय ने इसे लेटिश (Lettish) में प्रकाशित करवाया था। उसके बाद यह तूला के एक गुप्त छापाखाने से पूरा प्रकाशित हुआ। दुनिया के लगभग सभी देशों में इसे प्रकाशित किया गया और आश्चर्यजनक रूप से जर्मन के दो सौ अखबारों में यह एक साथ प्रकाशित हुआ था। इस लेख का प्रारंभ इस प्रकार होता है, ‘‘सात मौत की सजाएं। दो सेण्ट पीटर्सबर्ग में, एक मास्को में, दो पेन्जा़ में, दो रिगा में। चार फांसियां – दो खर्सन में, एक विल्नो में और एक आडेसा में।" इस लेख में आगे कहा गया कि 1880 के दशक में देश में एक जल्लाद था, लेकिन 1908 में अनेकों दिवालिया दुकानदार जल्लादी काम के लिए अपनी सेवाएं दे रहे हैं और बदले में सैकड़ों रूबल पाकर अपने व्यवसाय को पुन: स्थापित कर रहे हैं। इन जल्लादों में होड़ गची हुई है। परिणामस्वरूप वे कुछ कम पैसों में, अनेक केवल पचास रूबल में ही हत्या के लिए तैयार हैं।तोल्स्तॉय के इस आलेख से सरकार हिल उठी थी। लेकिन वह उस महान लेखक के विरुद्ध कुछ कर नहीं सकती थी, जिसे जनता का अपार स्नेह प्राप्त था। इस आलेख को पढ़कर अमेरिका में रह रहे भारतीय क्रांतिकारी तारकनाथ दास ने तोल्स्तॉय को 24 मई 1908 को भारत की स्थिति के विषय में एक पत्र लिखा था। तोल्स्तॉय ने उन्हें उत्तर दिया था। इसके पश्चात् महात्मा गांधी ने उन्हें पत्र लिखे, जिनके उत्तर ‘एक भारतीय के नाम पत्र’ के रूप में यास्नाया पोल्याना के पुस्तकालय में सुरक्षित हैं। महात्मागांधी को लिखे तोल्स्तॉय के पत्र अत्यंत महत्वपूर्ण हैं जो भारत की पराधीनता के विषय में उनके दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हैं।तोल्स्तॉय तिहत्तर वर्ष के थे। उनका स्वास्थ्य खराब था। वह याल्टा जाना चाहते थे। 5 सितम्बर, 1901 को सेवेस्ताप जानेवाली ट्रेन में उनके लिए एक विशेष कोच की व्यवस्था की गई थी। जब ट्रेन खार्कोव स्टेशन पहुँची, जनता का हुजूम अपने उस महान लेखक की एक झलक पाने के लिए उमड़ पड़ा था। विश्व के शायद वे एक मात्र ऐसे लेखक थे जिनकी एक झलक पाने के लिए स्टेशनों पर हजारों की भीड़, एक बार लगभग पचीस हजार की भीड़, एकत्र होती थी।
याल्टा में उनसे मिलने वालों में चेखव थे। चेखव ने गोर्की को सितम्बर 1901 के अंत के पत्र में तोल्स्तॉय के चिन्ताजनक स्वास्थ्य के विषय में लिखा था। लेकिन तोल्स्तॉय स्वस्थ होकर घर लौटे थे। उसके पश्चात् उन्होंनें ‘हाजी मुराद' पूरा किया था। अन्य रचनाएं लिखी थीं। इस दौरान वसीयत को लेकर पारिवारिक विवाद प्रारंभ हो गया था। तोल्स्तॉय अपने बेटों से असंतुष्ट थे। वह बेटी मारिया को अधिक चाहते थे। सम्पत्ति का बंटवारा सबमें करना चाहते थे। जबकि सोफिया अन्द्रेएव्ना की चिन्ता पूरे परिवार से जुड़ी हुई थी। वह तोल्स्तॉय के साहित्य का प्रकाशन दॉस्तोएव्स्की की पत्नी अन्ना की भांति स्वयं करना चाहती थीं, (और उन्होंनें यह कार्य सफलतापूर्वक किया भी था) और सम्पूर्ण साहित्य पऱ अधिकार चाहती थीं, जबकि तोल्स्तॉय 1885 के पश्चात् के अपने साहित्य को स्वतंत्र कर देना चाहते थे, जिसे कोई भी प्रकाशित कर सकता था। विवाद गहरा था। परिणामत: 28 अक्टूबर 1910 को सुबह पांच बजे तोल्स्तॉय ने घर छोड़ दिया था। उस क्षण उनकी जेब में 39 रूबल थे और उनके साथ यात्रा करने वाले मकोवित्स्की के पास तीन सौ रूबल थे। वह अस्तापे पहुँचे थे, जहां 7 नवम्बर, 1910 (नये कलेण्डर के अनुसार 20 नवम्बर) को इस महान लेखक ने सुबह छ: बजकर पांच मिनट पर इस संसार को अलविदा कह दिया था।रूसी सरकार ने अपने इस लेखक के दर्शनार्थ जानेवालों के लिए विशेष ट्रेनें चलायी थीं। रूस की जनता ने जितना प्यार अपने इस महान लेखक को दिया वह अद्भुत था। गोर्की ने उनके विषय में लिखा, ‘‘तोल्स्तॉय एक पूरा जगत हैं … उन्होंने सचमुच एक विराट कार्य किया है… पूरी शताब्दी का निचोड़ पेश किया है।" अपने लेख ‘लेव तोल्स्तॉय’ में गोर्की ने लिखा था, ‘‘ जब तक यह व्यक्ति इस धरती पर विद्यमान है, मैं यतीम नहीं हूँ।"गोर्की की उपरोक्त बात अब तोल्स्तॉय के साहित्य के संदर्भ में कही जा सकती है।(लेखक द्वारा अनूदित लियो तोल्स्तॉय के हिन्दी में अब तक अप्रकाशित उपन्यासहाजी मुराद‘ में दिया गया संक्षिप्त जीवन परिचय। उपन्यास ‘हाजी मुराद‘ संवाद प्रकाशन,मुम्बई/ मेरठ से प्रकाशित।)

कविता

शैल अग्रवाल की पांच कविताएं
(१)
आकुल नभ
नीरव रात का मौन
और बूँद-बूँद
पानी की यह टिपटिप
सिहरता रहा आकुल नभ
और बेचैन उँगलियाँ
मिटाती गइँ बारबार
सुनहरा एक अक्स
पानी की सतह पर
थिरकता और नाचता
झिलमिल वो चादर
लहर-लहर बिंधीं-गुथी
तारों-जड़ी धाती नभकी
पलभर को भी ना अपनी
ललक की डोर पे
डोल आया नटी मन---
सँधे पैर फिर काँपे
आसाँ तो नहीं होता
पलट के लौट पाना
मन में छुपी हसरतें
और अँजुरियों में
उकेर लाना----
***

2)
क्यों
वक्त के लिफाफे में
बन्द यह जिन्दगी
और उड़े हम
आवारा बादलों से
लेकर देश देश की भाप
नदी-नदी का पानी
जान ना पाए पर कभी
किस देश किस गली
किस घर या किस बगिया पर
बेबस ही बरस जाना है
पूछा है रोज ही अब तो
अंतस के इस अँधियारे ने .
कैसा था वह देश
जिसे तुम यूं छोड़ आए
क्या कमी थी उस अपनेपन में
वापस जो न तुम्हें खींच पाई
बूँद बूँद तैरीं फिर आँखों में
चमक उठी फिर वही
बिजली एक पुरानी है
बांध सकता था जो नदियों को
मोड़ सका क्यों न उनका ही रुख
कैसी है यह मरुधर सी जिन्दगी
प्यासी ही जो हमें भटकाती
प्यार तो नम एक लचीली धार
शिलाएँ ना जिसके आगे टिक पार्इं
प्यार तो नम एक लचीली धार
शिलाओं को कैसे भिगो पाती--?
***
3)
पुल नहीं है जीवन
पुल नहीं है जीवन
अहसास और अरमानों का
बगुला खड़ा रहजाता
गंदले पानी में
और फिसलती जातीं मझलियाँ
ताक और आस के जाल से
सीपियाँ ये धंसी पडी
भटकते पैरों के चन्द
वे गंदले निशान
पुल नहीं है जीवन
रीते बेजान हम
बेबस से देखते
दूर बहुत दूर
सुनहरी चमकती लहरें
सवार जिनपर बहते
टूटे फूटे बुदबुदे
सोती आँखों का
जागता सपना
पुल हो भी तो क्या
आने वाला कल
मिलता नहीं कभी
इस आज से-------
अलग है यह
अलग है वह
देखते रहजाना
इसे तो बस
यूँ ही
खड़े-खड़े---
****

4)
एक और सच
माना कि सच है आजभी
आकाश में खेलता चँदा
फूल-फूल इतराती तितली
और बन्द आँखों में
रचे-बसे धुत् वे सपने------
पर रोज ही तो निकलता है
चाँद को निगले हुए
झुलसाता हुआ सूरज
और लस्त तितली
बिखरे पँखों सँग
घास पर तिनके-तिनके
लुढ़की नजर आती है
ले उड़ा है आजफिर क्यों
टूटा-काँपता जर्जर मेरा मन
एक तेज हवा का झोंका
और एक और सच
जिन्दगी सा
सामने बिखरा पड़ा
एक अधलिखी चिठ्ठी
एक अधपढ़ी किताब
मन की झूठी प्याली पर
कल की प्यास के कुछ
आधे-अधूरे निशान
और थके होठोंकी
वही पुरानी अथक
एक मुस्कान----
****

5)
काश्
तुम मेरे पीछे क्या सोचते हो
क्या करते हो---------
मैं सब जान लेना चाहती हूँ
काश् इस अनदेखी हवा-सी
साथ-साथ चलकर मैं भी तुम्हारे
दिल और दिमाग में उतर पाती
साँसों सी तुम्हारी एक जरूरत
एक मजबूरी बन पाती
पर ऐसा कुछ भी तो नही होता
क्योंकि गुलाम हैं हम सब
अपनी-अपनी आदतों के
न टूटने वाले नियमों के
खुद पर लादी हुई
सैकड़ों जरूरतों के
वैसे भी तो जिन्दगी में
हर अच्छी चीज के संग
कुछ अनचाहा सा
जरूर ही जुड़ा होता है
छिलके मे बन्द जैसे केला
रसीले आम में छुपी गुठली
या फिर जीवन का
अँतिम वह सच
साँसों के रथ पे चढ़ा
पलपल नजदीक आता
बीतजाते यूँ ही
जिसके इँतजार में
वर्ष, मास, दिन और पल
चाहा-अनचाहा हर जीवन
अच्छा ही तो है
जो मन
सब ना ही जाने !
****
शैल अग्रवाल
जन्म वाराणसी, भारत, शिक्षा एम.ए. अँग्रेजी साहित्य।
रुझान--- दार्शनिक,कलात्मक व मानवीय संवेदनाओं से भरपूर। रुचि- जीवन, मृत्यु और बीच का सबकुछ। जिज्ञासा-उसके बाद क्या? संक्षेप में सत्यं शिवं और सुन्दरम् के साथ जीने की चाह। देश विदेश की विभिन्न, मान्य व प्रतिष्ठित पत्रिकाओं और संकलनों में प्रकाशित। कुछ रचनाएं, दूराभाष, दूरदर्शन और इन्द्रजाल पर भी। समय समय पर कला और साहित्यिक आयोजनों में सहयोग व भागीदारी। विधा-- कहानी, कविता, लेख। चन्द कहानियाँ मराठी और नेपाली भाषा में अनुवादित व संकलित। कुछ पर क्षात्रों द्वारा शोधकार्य।
प्रकाशित पुस्तकें---
समिधा ---(81 कविताएँ) काव्य संग्रह (रेवती प्रकाशन-2003) जोधपुर। साहित्य अकादमी और अक्षरम के संयुक्त अलंकरण- ‘श्री लक्ष्मीमल सिंघवी अंतर्राष्ट्रीय कविता सम्मान-2006’ से सम्मानित।ध्रुवतारा- ( 17 कहानियाँ) कहानी संग्रह (रेवती प्रकाशन-2003) जोधपुर।लंदन पाती---(29 सामयिकी निबंध) निबंध संग्रह ( रेवती प्रकाशन सहयोग विश्वनाथ प्रकाशन-2007वाराणसी)।
उपन्यास –शेष अशेष व काव्य संग्रह- नेति-नेति( 81 कविताएँ) शीघ्र प्रकाश्य)
ब्रिटेन और भारत के बीच साहित्यिक व सांस्कृतिक समन्वय हेतु मार्च मार्च 2007 से ' लेखनी.नेट’ नामक द्विभाषीय ( हिन्दी व अँग्रेजी) की मासिक साहित्यिक ई.पत्रिका का सम्पादन व प्रकाशन।
www.lekhni.net
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘ विदेश में हिन्दी प्रचार व प्रसार सम्मान- वर्ष2007’ से सम्मानित।


कहानी

किरचे-किरचे जिन्दगी

डॉ० सतीश दुबे

"अतीत को एक-दूसरे के सामने दोहराने की बजाय, अपने तक सीमित रखा जाए, आपके इस विचार से सहमत होते हुए भी, मेरा यह मानना है कि भविष्य के सम्बन्धों में तरलता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि कुछ प्रमुख घटना-क्रम को जान लिया जाए."

अनुशा ने चित्रांश के मुस्कुराते हुए चेहरे की ओर गौर से देखा और अपने प्रस्ताव पर उसकी प्रतिक्रिया जाने बिना चर्चा को गति देते हुए बोली - "सच मानिए, वैवाहिक रस्में पूरी होने के पूर्व परिवार ही नहीं हम दोनों के बीच भी सहमति और सोच का सौहार्दपूर्ण माहौल बना था. सब कुछ निबटा भी वैसे ही किन्तु एक-डेढ़ साल पश्चात सन्तान, बिजनेस-सेंटर पर भागीदारी, शैक्षणिक प्रतिभा के प्रति हिकारत, बाबा आदम के जमाने की रूढ़ियों को सलाम जैसी उमंग की अनेक उलट-पुलट मंशाएं इसकी वजह बनीं. दरअसल, एक तो, कई बातें मेरी मानसिकता के अनुकूल नहीं थीं, दूसरे लगातार कम्प्रोमाइज और समय-बेसमय उसकी ’आंखों की भाषा’ को मान देते-देते मैं महसूस करने लगी कि, मेरा वजूद शायद समाप्त होता जा रहा है. नतीजतन, असहमतियां, वाद-विवाद या डांट-फटकार में तब्दील होने लगी. विचलित कर देने वाली ऎसी स्थितियों के बीच एक दिन जब उसने हाथ उठाकर शारीरिक प्रताड़ना देने का नया अध्याय शुरू करने की कोशिश की तो मैंने प्रतिकार करते हुए उसकी कलाई कसकर थाम ली तथा दो-चार खरी-खरी बातें कहकर, मां-बाबूजी के पास अपने घर लौट आई."

वह कुछ और कहना चाह रही थी कि चित्रांश ने हंसी भरे ठसके के साथ उसकी ओर देखा --"गजब, ये हाथ उठाने और कलाई पकड़ने के किस्से यू.एस.ए. में तो कॉमन हैं, यहां भी ऎसा होता है ?"

"होता है, पर केवल उन कुछ परिवारों में जहां उमंग जैसे एबनॉर्मल व्यक्ति रहते हैं." कसैले और विद्रूप भरे शब्दों में प्रत्युत्तर देकर अनुशा, ’शालीमार कैफे’ के भव्य नजारे की ओर आंखें दौड़ाकर रेलेक्स होने की कोशिश करने लगी.

अचानक टेबल पर रखे हाथ की छुअन ने उसे चौंका दिया - "कहां खो गई, मैंने कहा था ना, अतीत को याद कर टेंशन मत लो . यूं ही मूड़ खराब कर लिया. चलो हो जाए हंसी का एक जाम. अब ये बताओ इंटरनेट पर मेरा एड आपने देखा था किसी और ने ?"

"मैंने ही, फैशन-डिजायनिंग में हासिल महारत का उपयोग करते-करते जब थक जाती हूं तो कम्प्यूटर स्क्रीन पर या तो वीडियो-गेम में अपनी गाड़ी को दूसरी से टकराने से रोकती हूं या फिर सर्फिगं पर जीवन-मरण के आसान तरीके बताने वाली वेबसाइट को खोजती रहती हूं---- बस ऎसी ही खोजबीन में आपका एड देख लिया."

एड के सब डिटेल्स एकदम जम गए या कुछ सोचना पड़ा."

मुस्कान दे पूरे हावभाव के साथ चित्रांश ने अनुशा की आंखों में झांका.

"सोचा कुछ ज्यादा नहीं. वैसे सब कुछ क्लीअर तो था. मुझे जीवित पति ने और आपको दिवंगत पत्नी ने वियोग-सन्यास दिया था और दोनों को संन्यास-श्राप से मुक्ति के लिए लाइफ-पार्टनर की जरूरत थी. रहा सवाल आपके बेटे का तो ऎसे मुआमलों में कुछ तो कम्प्रोमाइज करना पड़ता है. जुबान की कैफियत दो टेबल पर लकीरों में अंकित कर रही अंगुलियों को विराम देते हुए अनुशा ने सिर ऊंचा कर चित्रांश की ओर देखा.

"और हां, ये तो बताइए, मां-बाबूजी, भैया-भाभी के साथ मौज में रहते हुए, ये पार्टनर का एड खोजबीन करने की जरूरत क्यों हुई?"

"आपकी इस जिज्ञासा का जवाब --- आप सब जानते हैं कि हमारे परिवारों में निर्धारित उम्र के बाद बेटी सामान्यतः पिता के परिवार का हिस्सा नहीं मानी जातीं. यही सोच बेटी को पिता के घर से निकलने के स्वप्न और विशेष परिस्थियों में एड देखने के लिए मजबूर करती है."

एकदम पसरे मौन को भंग तथा चित्रांश को मुखरित करने के लिए अनुशा मुस्कुराकर बोली-"एक बात कहूं, ये पुरुष नामधारी प्राणी बहुत चालाक होता है, औरत की भावुकता का लाभ लेकर उसके बारे में, उसी से सबकुछ जान लेता है, किन्तु अपने बारे में----."

अनुशा के चेहरे की ओर देखते हुए उसके तर्कों को सुन रहे चित्रांश ने वाक्य पूरा होने के पूर्व ही जोरों से हंसी का ठस्का लगाते हुए कहा - "आप आकर्षक तो हैं ही चालाक भी---- अनुशा, मेरी जिन्दगी में है ही क्या जो आपको बताऊं. दोनों परिवारों के बीच हुई चर्चा में हमारी पृष्ठभूमि आप जान ही चुकी हैं, मेरा अधिकाश अतीत भी भविष्य के साथ जुड़ी वर्तमान की जो प्रक्रिया है वह है -- औरंगाबाद में आई.टी. सेण्टर चालू कर कारोबार शुरू करना. हम यू.एस. से लौटे कुछ मित्रों की इच्छा है, एस.एच.क्षेत्र में कुछ ऎसा विकसित किया जाए जो अमेरिका की सिलिकॉन वैली से टक्कर ले सके. यह तो हो गई बिजनेस की बात . घर-गृहस्थी बसाने के लिए, ढेरों आए प्रस्तावों में से आप पर मन आ गया. दरअसल सांवली-सलोनी, खुशमिजाज, बोल्ड और सबसे अधिक महत्वपूर्ण, अपने संस्कारों और संस्कृति से फैशन को डिजाइन करने वाली आपकी जैसी ही पार्टनर की कल्पना मेरे दिमाग में थी."

"मतलब यह कि बिना मेरी सहमति जाने आपने मुझे लाइफ-पार्टनर मान लिया." अनुशा की हंसती हुई आंखों ने चित्रांश की ओर देखा.

"हंडरेड परसेंट, और तैयारी यह भी है कि इंकार करने की स्थिति में आपको किडनेप कर लिया जाए." समवेत खिलखिलाहट के साथ चित्रांश ने प्रश्न किया -"अब तो ये बताओ अगला प्रोग्राम कैसे तय हो. मेरी इच्छा है सब कुछ आपकी मंशानुसार हो."

"ऎसे मुआमलों में औरत की जो एक बार इच्छा होती है मेरे लिए वह मर चुकी है. मेरा मतलब यह कि नग्रह देवता, सात फेरे आदि साक्षी तो बनते हैं पर वचनबद्धता के लिए मजबूर नहीं करते. मेरा मन है, यह सब रिपीट नहीं हो. क्या ऎसा नहीं हो सकता कि, हम अच्छे जीवन-साथी के रूप में साथ रहें." टेबल पर अंगुली से प्रश्न-चिन्ह बनाते हुए , अनुशा ने चित्रांश की ओर देखा.

प्रस्ताव सुनकर, चित्रांश रोमांचित हो उठा. उसे कल्पना भी नहीं थी कि सामने बैठी सरल, सौम्य चेहरे वाली इस लड़की की ऎसी सोच भी हो सकती है. उसकी भावनाओं पर कुछ देर मनन करने के बाद अपनी आवाज का वॉलूम, धीरे से तेज करते हुए वह बोला - "अनुशा ऎसा हो तो सकता है, पर ऎसे रिश्तों को समाज तथा कानून निगेटिव मानकर, न तो मान्यता देता है न अच्छी दृष्टि से देखता है.यह स्टेप-कॉन्सेप्ट हमारे देश में ही नहीं विदेशों में भी है. लीगल, इल्लीगल के न जाने कितने फंडे---- हम चाहे तो रिंग सेरेमनी का अधिकार पैरेन्ट्स को देकर शादी कोर्ट में कर सकते हैं. इससे हमारे सम्बन्धों पर सामाजिक और वैधानिक मुहर तो लगेगी साथ ही हम भी मानसिक रूप से जुड़ाव महसूस करेंगे. ठीक है ना ?"

"आप जो भी कहेंगे, मेरे लिए ठीक ही होगा."

बरसों पश्चात आत्मीय विश्वास से लबालब अनुशा के शब्द सुनकर चित्रांश अभिभूत हो गया. सामने पसरी उसकी हथेली पर हाथ रखकर वह भाव-विह्वल होकर बोला-"अनुशा, मेरी बिखरी हुई किरचे-किरचे जिन्दगी को तुम जो सहेजने आ रही हो उसके लिए थैंक्स बहुत छोटा और औपचारिक शब्द होगा."

चित्रांश की मनःस्थिति से जुड़ कर आंसुओं के रूप में प्रवाहित होने को आतुर भावों के वेग पर पाल बांधकर अनुशा ने खिलखिलाती आंखों से उसकी ओर देखकर प्रश्न किया - "मैं भी यदि ऎसे ही शब्द दोहराऊं तो ?"

"तो वह डिबेट का विषय हो जाएगा---- बेहतर यह होगा कि हम इस विषय पर तर्क करने की बजाय इस एम्ब्रेला-टेबल को छोड़कर आज के यादगार क्षणॊं का समापन फ्लावर्स हट में चलकर डिनर के साथ करें . कम ऑन."

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डॉ. सतीश दुबे
जन्म : १२ नवम्बर १९४० (इन्दौर)
एम.ए. (हिन्दी/समाजशास्त्र) पी-एच.डी.

अब तक एक उपन्यास, चार कहानी संग्रह, पांच लघुकथा संग्रह, बच्चों तथा प्रोढ़-नवसाक्षरों के लिए छः कथा-पुस्तकें तथा एक कविता संग्रह प्रकाशित. लगभग २०० समीक्षाएं. अनेक भाषाओं में रचनाओं के अनुवाद.

अनेक विशिष्ट गैर शासकीय संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत/सम्मानित.
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन.
सम्पर्क : ७६६, सुदामा नगर, इन्दौर (म.प्र. ) भारत.
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