शनिवार, 11 फ़रवरी 2023

अंग्रेजी बाल कहानी

 दो खण्डों में नीलकंठ प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली से ’श्रेष्ठ बालकानियों’ के रूप में प्रकाशित मेरी सम्पूर्ण बाल कहानियों में संग्रहीत कहानी

डिक ह्विटिंगन और उसकी बिल्ली

अंग्रेजी – पी.एच.म्योर

अनुवाद -रूपसिंह चन्देल

पृष्ठ - 124, मूल्य-400/- सजिल्द 

 

क्रेसी के युद्ध के बाद जब एडवर्ड तृतीय इंग्लैंड का राजा बना, उन दिनों एक अनाथ गरीब लड़का एक गांव में रहता था. उसका नाम डिक ह्विटिंगन था. उसके पास अपना घर नहीं था. उसने सुना था कि लंदन की सड़कें सोने से पटी रहती हैं, इसलिए उसने गांव छोड़कर लंदन जाने का निर्णय किया. वह देखना चाहता था कि उस जैसा गरीब लड़का छोटे गांव की खराब जिन्दगी से अच्छी जिन्दगी जी सकता है या नहीं. उसके पास जो भी थोड़ा-सा सामान था उसे एक पोटली में बांध पोटली को डण्डे के सहारे कंधे से लटका वह लंदन के लिए चल पड़ा.

पृष्ठ - 120,मूल्य-400/- सजिल्द


जब वह गांव के बाहर सड़क पर पहुंचा, उसे एक चौपहिया गाड़ी दिखाई दी जिसे आठ घोड़े खींच रहे थे. उसने गाड़ीवान से गाड़ी में बैठाने के लिए अनुरोध किया. गाड़ीवान उस सुन्दर लड़के का साथ पाकर प्रसन्न हुआ और डिक यह जानकर प्रसन्न हुआ कि गाड़ी लंदन जा रही थी. उसने गाड़ीवान को अपनी योजना के विषय में उत्साह से बताया. गाड़ीवान चुप रहने वाला व्यक्ति था, इसलिए वह कुछ नहीं बोला. लेकिन जब उसने लंदन की सड़कों का सोने से पटा हुआ होना सुना तब वह हंसे बिना नहीं रह सका, लेकिन वह लड़के का उत्साह भंग नहीं करना चाहता था इसलिए चुप रहा.

जैसे ही वे लंदन पहुंचे, लड़के का धैर्य चुक गया और वह गाड़ीवान को धन्यवाद दिए बिना ही तेजी से गाड़ी से उतर गया. लड़के को जाता देख गाड़ीवान को अफसोस नहीं हुआ, हालांकि वह एक दयालु हृदय व्यक्ति था और उस लड़के के लिए कुछ करने के विषय में मन में सोच रहा था, क्योंकि लंदन जैसे शहर में उस लड़के का कोई नहीं था.

बेचारा डिक. उसे लंदन की सड़कों पर सोने के बजाय कीचड़ और धूल दिखी. वह दुखी हुआ. उसने कहीं काम पाने की बहुत कोशिश की, लेकिन असफल रहा और उसे पेट भरने के लिए भीख मांगने के लिए विवश होना पड़ा. गांव की अपेक्षा उसने अपने को लंदन में अधिक ही दयनीय स्थिति में पाया. 

कई रातें फुटपाथ पर या जो भी जगह उसे मिली वह वहां सोया. एक हलके ठण्ड वाले दिन फुटपाथ पर बिताकर शाम को डिक एक सुन्दर मकान के दरवाजे पर पहुंचा और रात में खाने के लिए रोटी का एक टुकड़ा मांगा. दरवाजा घर के मालिक फित्जवॉरेन ने खोला जो धनी व्यापारी और लंदन शहर का मेयर था. जब उसने डिक को रात खाने के लिए रोटी का एक टुकड़ा मांगते सुना वह क्रुद्ध हो उठा.

“यह शर्मनाक है.” वह बोला, “तुम जैसा मजबूत लड़का भीख मांग रहा है. तुम्हें जीने के लिए काम करना चाहिए.”

श्रीमान जी.” डिक ने उत्तर दिया, “मैंने सब जगह काम तलाशा, लेकिन कोई भी मुझे रखने को तैयार नहीं हुआ. श्रीमान जी, मैं कुछ भी करने को तैयार हूं—वास्तव में कुछ भी.”

“मैं शीघ्र ही कुछ देखता हूं.” फित्जवॉरेन बोला, “घूमकर पिछले दरवाजे पर पहुंचो. मैं आदेश दूंगा कि तुम्हें किसी प्रकार का काम मिल जाए.”

डिक मकान के पिछले दरवाजे पर पहुंचा. कुछ ही देर बाद कठोर चेहरे वाली रसोइया ने दरवाजा खोला. जैसे ही उसने उसे देखा वह बड़बड़ाने लगी.

“बहुत सुन्दर” वह बोली, “अब मैं अपनी रसोई में सड़क का कूड़ा-कबाड़ भरूंगी. ऎ भिखारी बच्चे, अन्दर आओ और रात का खाना पाने से पहले कुछ काम करो.”

वह उसे बर्तन मांजने के स्थान पर ले गई, और  दिन भर की जूठी प्लेटें और थालियों के अंबार के सामने मांजने के लिए उसे बैठा दिया. डिक उस काम को देर रात से समाप्त कर सका. उसके बाद उसे थोड़ा बचा हुआ खाना दिया गया, जिसे उसने वहीं बैठकर खाया. उसे एक भूसा भरे बोरे पर सोने के लिए कहा गया. वह ढंग की नींद ले पाता कि इससे पहले ही रसोइया ने चीखते हुए झकझोरकर उसे उठा दिया और काम करने के लिए कहा.

प्रतिदिन उसकी यही दिनचर्या बन गयी. डिक सूर्योदय से पहले उठ जाता. रात देर तक काम करते हुए थककर चूर हो भूसा के बोरे पर सो जाता. वह बहुत परिश्रम करता था, लेकिन रसोइया उसे डांटती, दुर्व्यवहार करती और खाने के लिए बहुत कम देती थी. उसकी एक ही मित्र थी, एक बिल्ली, उसीकी भांति भूखी और घिसटकर चलने वाली, जिसे उसने भोजन के डस्टबिन के पास पाया था. डिक बिल्ली को उठा लाया और उसे खिलाया, हालांकि रसोइया बड़बड़ाती रही थी. वास्तव में घर में बड़ी मात्रा में चूहे-चुहिया थे. जब डिक के खिलाने से बिल्ली मजबूत हो गयी उसे घर में रहने दिया गया.

डिक रसोइया के दुर्व्यवहार से अत्यधिक दुखा था. उसने सोचा कि लंदन आकर उसने गलती की थी. उसने गांव की अपनी पिछली जिन्दगी को याद किया जहां यद्यपि जीवन कठिन था, तथापि वहां खेतों में सारा दिन रहना अधिक अच्छा था बजाए बर्तन मांजनेवाली जगह के. हालांकि वहां भी उसे घास-फूस पर ही सोना होता था, लेकिन वह जगह लंदन से कहीं अधिक बेहतर थी.

उसने अपनी योजना बिल्ली को बतायी. जब सभी सो रहे थे, उसने अपना सामान एक बार फिर पोटली में बांधा, उसे डण्डे में टांग कंधे से लटकाया और बिल्ली को साथ लेकर अपने गांव लौटने के लिए तैयार हुआ. उस दिन उसने पहले की तरह जमकर काम किया था,  इसलिए कुछ दूर जाने के बाद ही वह थक गया. जैसे ही वह लंदन के बाहर पहुंचा उसे घास के चट्टे पर आरामदेह कोना मिला. उसने बिल्ली को साथ लेटाया और गर्माहट पाकर सो गया.

अगली सुबह उसे रसोइए के कठोर हाथों के बजाए सूर्य की किरणों के स्पर्श ने जगाया. उसने बचाकर लयी रोटी और चीज का नाश्ता किया और बिल्ली ने मैदान में अपने नाश्ते के लिए कुछ चूहों का शिकार किया. पास तेज बहते झरने में उन्होंने पानी पिया और दोनों यात्री ताजादम हो आगे बढ़े.

दोपहर के समय वे हाई गेट हिल पर चढ़े. उस समय सुर्य तेज चमक रहा था और बहुत गर्मी थी. डिक सड़क के किनारे एक पत्थर पर आराम करने के लिए बैठ गया और बिल्ली अपने पंजों पर बैठ गयी. पहाड़ी पर से वह हाई गेट और लंदन के बीच खड़े भर-भरे चारागाह को देखने लगा. उसने शहर के दुर्ग और मीनारों पर सुर्य को चमकते देखा, बो चर्च को भी देखा, जिसके पास मिस्टर फित्जवॉरेन का घर था. जब उसने उस शहर पर नजर डाली जिसने उसके साथ क्रूर व्यवहार किया था, उसने सदैव के लिए उस शहर की ओर से पीठ कर लेने के विषय में सोचा तभी उसे बो चर्च के स्टील के घण्टे की घनघनाहट हवा में तैरकर आती सुनाई दी और उसके दिमाग में यह शब्दध्वनि गूंजरित हुई—

“एक बार फिर लौटो ह्विटिंगटन,

तुम हो योग्य अभिजन,

तीन बार बन मेयर

रहोगे तुम लंदन.”

डिक ने बिल्ली की ओर देखा और देखा कि उसके कान भी उस ध्वनि को सुन बहुत उत्तेजित हो रहे हैं.

“क्या तुमने भी इसे सुना?” डिक ने बिल्ली से पूछा.

“म्याऊं.” बिल्ली बोली, जिसका अर्थ डिक ने ’हां’ में लगाया.

“अच्छा, हमें क्या करना चाहिए!” डिक ने फिर बिल्ली से पूछा.

लेकिन बिल्ली पहले ही पीछे मुड़कर देखती हुई कि डिक उसके पीछे आ रहा  है या नहीं पहाड़ी से नीचे उतरने लगी थी.

(वस्तुतः हाई गेट पहाड़ी पर अभी भी एक पत्थर है जिसे ह्विटिंगटन पत्थर कहा जाता है. उस पत्थर ने उस दृश्य को देखा था.)

 

फित्जवॉरेन के घर में डिक की अनुपस्थिति से उत्तेजक वातावरण था.

मेयर की पत्नी कुछ वर्ष पहले मर गयी थी और उसके घर की मालकिन उसकी प्यारी बेटी एलिस थी. मेयर फित्जवॉरेन उस रात नगर के कुछ धनी व्यापारियों को प्रीतिभोज दे रहे थे और एलिस ने रसोइए को भोजन की अच्छी व्यवस्था देखने और यह पक्का करने के लिए कहा कि सब कुछ दुरस्त है.

“सब कुछ ठीक है मिस एलिस.” रसोइया ने कहा जो अपनी मालकिन के प्रति बहुत ही विनम्र और आदरास्पद थी, जबकि बेचारे डिक के प्रति वह उतनी ही क्रूर थी, “लेकिन वह किशोर फटीचर जिसे आपके पिता ने कुछ दिन पहले रसोई में काम करने के लिए रखा था वह भाग गया है. ऎसी कृतघ्नता मैंने कभी नहीं देखी. उस बर्तन मांजने वाले लड़के की सहायता के बिना मैं सब कुछ कैसे कर पाऊंगी.” रसोइया ने कहा.

“अच्छा.” मिस एलिस ने कहा, “तुम जितना संभव हो करो, और अगर वह बर्तन मांजने वाला लड़का आ जाए तो उसे तुरंत मेरे पास भेज देना, मैं उसे थोड़ी नसीहत दूंगी.”

जब डिक वापस आया, वह चाहता था कि छुपकर निकल जाए, लेकिन रसोइया तो उसीकी प्रतीक्षा में थी. उसने उसके कान उमेठे और उसे तुरंत मालकिन के पास भेज दिया. मिस एलिस बहुत नाराज हुईं लेकिन डिक चुप सुनता रहा.

“अच्छा नौजवान,” मिस एलिस ने कहा, “तुम्हें अपने बारे में क्या कहना है! तुम्हारी यह कामचोरी—जबकि मेरे पिता ने कृपापूर्वक तुम्हें नाली से बाहर निकालकर जीवन यापन का सुनहरा अवसर दिया था.”

डिक ने अपने पिता की मृत्यु से लेकर लंदन के लिए प्रस्थान करने और रसोइया के सख्त व्यवहार की कहानी मिस एलिस से कह दी, जिसके कारण उसे अंततः वहां से जाने के लिए विवश होना पड़ा था.

मिस एलिस उसकी कहानी सुन दुखी हुई और रसोइया की क्रूरता से आहत. “तुम दरिद्र बच्चे” वह बोली, “फिर यहां लौटकर तुम आए ही क्यों?”

डिक क्षणभर के लिए हिचकिचाया, लेकिन उस सुन्दर लड़की की आंखों में दयार्द्रता थी. वह मुस्करा रही थी. अतः उसने बो चर्च के घण्टे के ध्वनि की बात बता दी. एलिस उस दरिद्र, भोंडे, विरूप लड़के के इस सोच पर हंसी कि वह महान नगर लंदन का भावी मेयर बनने की कल्पना कर रहा है.

“डिक.” वह बोली, “जब तुम रसोइया के सहायक के रूप में अधिक काम नहीं कर सकते तब तुम अपना भविष्य इतना उज्वल करने की आशा कैसे कर रहे हो!”

“मुझे नहीं मालूम मिस.” डिक बोला, “मैं केवल एक अवसर चाहता हूं और आप देखेंगी कि मैं क्या कर सकता हूं.”

“हां, डिक.” एलिस बोली, “मेरे पिता आज रात कुछ धनी व्यापारियों को प्रीतिभोज दे रहे हैं और वे व्यापारिक जहाजों का बड़ा बेड़ा अफ्रीका भेजने की तैयारी कर रहे हैं. मेरे पिता उसमें भागीदारी के लिए सभी को एक अवसर देना चाहते हैं और उसमें बहुत लाभ भी होगा. तुम्हारा क्या विचार है? क्या तुम भाग्य आजमाने के लिए कुछ जोखिम उठाना चाहोगे? तुम्हारे लिए यह एक बड़ा अवसर है.”

“हां मिस.” डिक गंभीरतापूर्वक बोला, “लेकिन मेरे पास भाग्य आजमाने और जोखिम उठाने के लिए कुछ है नहीं. कोई भी वस्तु नहीं है.”

“मैंने तुम्हारी बात समझ ली है डिक.” एलिस बोली, “क्या मैं तुम्हें कुछ रुपए दे सकती हूं और तुम मुझे वह लौटा सकते हो जब जहाज वापस लौट आएगा.”

“आपकी बहुत-बहुत मेहरबानी मिस.” डिक बोला, “मैं आपको अपनी बिल्ली सौंपना चाहता हूं. यह बहुत चालाक बिल्ली है जो चूहों को कुशलता से पकड़ती है. रसोइया भी इस बात को जानती है.”

एलिस मुस्कराई. उसने उसकी मदद के लिए एक योजना सोच ली. “बहुत अच्छा डिक.” वह बोली.

 

जब उसके पिता घर आए उसने उस विषय में उन्हें बताया. बिल्ली बेंचकर डिक के भाग्य आजमाने की बात पर वह खिलखिलाकर हंसे, लेकिन एलिस ने उनसे कहा कि वह चाहेगी कि उस अभियान के लाभ का आधा भाग डिक को मिले, और यह डिक को बता देना होगा कि वह उसकी बिल्ली के बेंचने से ही आएगा.

जहाज के कप्तान को बिल्ली को बेंचकर अच्छे लाभ की कोई आशा न थी, लेकिन वह उसे प्रसन्नतापूर्वक जहाज में ले जाने के लिए तैयार हो गया, क्योंकि जहाज में बहुत चूहे थे और उसे बिल्ली की आवश्यकता थी.

डिक ने यह समाचार बिल्ली को बताया और कहा कि हालांकि वह उससे अलग होने से दुखी है, लेकिन उम्मीद करना चाहिए कि अच्छा ही होगा. बिल्ली ने आंखें झपकायीं, अपनी मूंछें हिलायीं और बुद्धिमानी के साथ देखा. दूसरों की भांति वह भी आश्वस्त नहीं थी कि उस अभियान में बिल्ली भेजना अच्छा निवेश है. फिर भी वह दुनिया देखना चाहती थी और वह अपने मालिक के लाभ के लिए अपनी आंखें खुला रखना चाहती थी.

डिक जहाज को रवाना होता देखने के लिए बन्दरगाह पर था और उसके दिल का एक हिस्सा उनके साथ था,केवल इसलिए नहीं कि वह बिल्ली को बहुत चाहता था, बल्कि उसे आशा थी कि जहाज उसका सौभाग्य लेकर लौटेगा.

उन दिनों पोतयात्री अपना जीवन गदोली पर रखकर पोतयात्रा करते थे. दिशाओं और भूगोल की जानकारी बहुत कम होती थी और तब न तो वायरलेस थे और न ही मौसम का पूर्वानुमान होता था. एक भयानक तूफान के दौरान डिक का जहाज भटक गया और जहाज के पाल और दूसरे साज-सामान को इतना नुकसान हुआ कि कप्तान ने जो भी पहला बन्दरगाह दिखा उसे मरम्मत के लिए रोक दिया.

यह अफ्रीका के दूरवर्ती समुद्र तट पर बसा एक राज्य था, जिसके निवासी काले थे और उन्होंने कभी गोरे लोगों को नहीं देखा था, लेकिन वे बहुत सहृदय और मददगार थे. कप्तान और नाविक दल तट पर उतरे, और जब इन विदेशियों के पहुंचने का समाचार राजा के कानों तक पहुंचा, उसने आदेश दिया कि उन्हें उसके सामने लाया जाए. कप्तान और उसका साथी जहाज के माल से कुछ अच्छे उपहार लेकर राजमहल में गए. इसके परिणाम-स्वरूप वे सारा माल ऊंचे दामों में बेंचने में सफल रहे. उसमें बहुत-सी चीजें ऎसी थीं जिन्हें उस धनी राजा ने कभी देखा नहीं था और उन्हें पाकर वह अत्यंत प्रसन्न हुआ.

कुछ सप्ताह में जहाज की मरम्मत का काम पूरा हो गया और स्थानीय लोगों से बहुत सस्ता खरीदा माल जहाज में भरकर कप्तान इंग्लैण्ड लौटने के लिए तैयार हुआ. लेकिन राजा ने कहा कि उसके लौटने से पहले वह उसे और उसके नाविकों को प्रीतिभोज देना चाहता है. इसकी व्यवस्था की गई और जब अतिथि आए, मेजें सुन्दर खाद्य पदार्थों से भरी हुई थीं. लेकिन जैसे ही वे खाने के लिए बैठने लगे चूहे और चुहियों का दल आया, मेजों पर चढ़ा, कुछ खाना खाया और अधिकांश कुतरकर और उछलकर खराब कर दिया.

राजा और उसके दरबारी चुपचाप देखते रहे, लेकिन कप्तान और उसके आदमी आश्चर्यचकित थे. राजा उनके प्रति बहुत सहृदय था. कप्तान ने कुछ दरबारियों से बहुत होशियारी से जानकारी प्राप्त की और वह यह जानकर विस्मित हुआ कि उहोंने कभी बिल्ली नहीं देखी थी, बल्कि वे यह समझने के लिए भी तैयार नहीं थे कि उस तरह का कोई जानवर भी होता है. इसलिए वह राजा के पास गया और बोला कि जहाज में उसके पास एक ऎसा जानवर है जो चूहों से निबट सकती है. हालांकि राजा को कठिनाई से उस पर विश्वास हुआ. फिर भी उस जानवर को देखने के लिए वह अधीर हो उठा. कप्तान ने अपने एक साथी को जहाज से डिक की बिल्ली लाने के लिए भेजा.

राजा और रानी अत्यधिक आनन्दित और विस्मित हुए जब उन्होंने बिल्ली को चूहा-चुहियों को झपटकर मारते और कुछ का पीछा करते देखा.

“अब” राजा बोला, “अपना सबसे बड़ा खजाना तो आपने आखीर के लिए रख छोड़ा था और मुझे संदेह है कि मेरे राज्य का सम्पूर्ण धन भी इस चमत्कारी जीव को खरीदने के लिए पर्याप्त होगा.”

“आप ठीक कह रहे हैं श्रीमान!” चतुर कप्तान बोला, “मेरे देश में भी इस प्रकार के जानवर दुर्लभ और बहुमूल्य हैं. लेकिन यात्रा के दौरान बिल्ली के कुछ बच्चे हुए थे और यदि पर्याप्त ऊंची कीमत मिले तो उनमें से एक मैं आपको बेंच सकता हूं.”

अंत में कप्तान ने राजा को बिल्ली के सभी बच्चे बेंच दिए और उसके लिए इच्छित धन पाया. वह यह सोचकर प्रसन्न हुआ कि मिस्टर फित्जवॉरेन के रसोई में काम करने वाला गरीब लड़का कितना धनी हो जाएगा.

उसके तुरंत बाद उन्होंने जलयात्रा प्रारंभ कर दी और अनुकूल हवा पाकर वे शीघ्र ही सुरक्षित इंग्लैण्ड पहुंच गए. दूसरे जहाज बहुत पहले ही वापस लौट आए थे और उन्हें घाटा हुआ था. मिस्टर फित्जवॉरेन को तुरंत सूचना भेजी गयी और वह अपने क्लर्क के साथ कप्तान के स्वागत और माल और हिसाब-किताब देखने के लिए आ पहुंचे.

उनके सामान की सभी गांठों पर ’फ’ अक्षर अंकित था, लेकिन एक गांठ में उन्होंने ’व’ लिखा पाया.

“पोत के प्रधान चालक कप्तान, एक बात जानना है,” वह बोले, “यह गांठ किसकी है?”

कप्तान ने उसे बिल्ली की आश्चर्यजनक कहानी कह सुनाई और फित्जवॉरेन उस गरीब लड़के के सौभाग्य से अत्यधिक आनन्दित हुए, जिसकी उन्होंने सहायता की थी. जब वह घर पहुंचे, उन्होंने डिक को बुलाया. चेहरे को लंबा खींच वह उससे बोले, “अपने को दुखद सूचना के लिए तैयार करो डिक, मेरे बच्चे. गुम हुआ जहाज वापस आ चुका है. तुम्हारी बिल्ली उसमें वापस लौट आयी है.”

लेकिन डिक पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई. वह शांत रहा. कुछ देर बाद वह बोला, “मुझे प्रसन्नता हुई. मुझे अपनी बिल्ली खोकर बहुत दुख होता और हालांकि वह एक चतुर बिल्ली है, मैं अनुमान नहीं लगाता कि यदि कप्तान उसे बेंचता तो मुझे अधिक धन मिल पाता. वह कहां है?” 

एलिस, जो पास ही खड़ी थी, डिक की अपेक्षा अधिक दुखी हुई. उसकी इच्छा थी कि उसके पिता पहले उससे बात करते तब वह उनको व्यवस्था की याद दिला सकती थी. अब वह दूसरे ढंग से डिक की सहायता करने की बात सोच रही थी, लेकिन उस जैसे गर्वीले लड़के के लिए यह आसान न था.

मि. फित्जवॉरेन ने उन दोनों को कुछ क्षण तक देखा तब उन्होंने वह सब बता दिया जो वास्तव में घटित हुआ था कि डिक को अपनी बिल्ली भी वापस मिल गयी और मोलभाव में बड़ी मात्रा में खजाना भी मिला.

उन दोनों को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. अगली सुबह तक प्रतीक्षा की घड़ियां बहुत कठिन प्रतीत हुईं जब उन्हें समुद्र तट पर ले जाया गया और उन्होंने माल-गोदाम में सारा दिन उस खजाने के निरीक्षण में बिताया, जिसे जहाज का कप्तान बिल्ली के बच्चों के बदले लेकर आया था.

“अच्छा डिक” मि. फित्जवॉरेन जब वे बच्चों को बग्घी में लेकर घर लौट रहे थे, बोले “अपने इस विशाल खजाना से तुम क्या करने की सोच रहे हो?”

“श्रीमान, मैंने इसके विषय में सोचा है,” डिक बोला, “मैं चाहता हूं कि आप वह खजान बेंच दें और मेरे लिए रुपए जुटा दें.”

“तब तो तुम मुझसे अधिक धनवान हो जाओगे.” मिस्टर फित्जवॉरेन बोले.

“ओह डिक” एलिस बोली, “तब तुम कितने महान बन जाओगे.”

“मेरे लिए सब बराबर है श्रीमान,” डिक बोला, “मैं नहीं जानता कि रुपयों का भी मैं क्या करूंगा.”

“अच्छा, मैं इस पर सोचूंगा.” मिस्टर फित्जवॉरेन ने कहा, “और मैंने जो सोचा है, वह कल शाम घर लौटने पर तुम्हें बताऊंगा.”

 

अगली शाम उन्होंने डिक से कहा, कि वे उस पैसे को अपने व्यवसाय में लगाएगें और उसका सही हिसाब-किताब रखेंगे. इस दौरान डिक ने सदैव के लिए रसोई छोड़ दी. वह सुन्दर कपड़े पहनने लगा और उसके पास अपनी एक गाड़ी हो गयी. वह अभी भी मिस्टर फित्जवॉरेन के यहां ही रहता रहा. जब वह इक्कीस वर्ष का हुआ फित्जवॉरेन ने उससे कहा कि वह उसे अचंभित करना चाहते थे---उन्होंने उसे अपने व्यवसाय में भागीदार बना लिया था.

डिक ने उन्हें गर्मजोशी से धन्यवाद दिया, लेकिन उतनी गर्मजोशी से नहीं जितनी की फित्जवॉरेन अपेक्षा कर रहे थे.

“आओ डिक,” वह बोले, “यह क्या है? क्या और भी कुछ ऎसा है जो तुम चाहते हो?”

“हां श्रीमान” डिक निर्भीकतापूर्वक बोला, “मैं एलिस से विवाह करना चाहता हूं.”

“एलिस का इस विषय में क्या विचार है!” पिता ने पूछा.

“वास्तव में मैंने उससे पूछा नहीं है.” डिक बोला.

“मैं नहीं सोचता और न हमें ऎसा संदेह है कि जब तुम उससे पूछोगे तब वह कोई और उत्तर देगी.”

और एक दिन डिक ने मिस्टर फित्जवॉरेन की सुन्दर बेटी से विवाह कर लिया. बो चर्च की घण्टी का संदेश पूरा हो चुका था. डिक वास्तव में लंदन शहर का तीन बार मेयर बना और बाद में सर रिचर्ड ह्विटिंगन नाम से प्रसिद्ध हुआ. वह गरीब और उन बच्चों के प्रति सदैव सहृदय रहा जो अपना भाग्य आजमाने लंदन आते थे और यदि वे वास्तव में गंभीर और कठोर परिश्रमी होते  तो वह उनकी सहायता अवश्य करता था.

वह वहां के राजा हेनरी चतुर्थ का मित्र बना और लंबी आयु तक जीवित रहा. मृत्यु के समय उसने अपनी सारी सम्पत्ति धर्मार्थ कार्यों के लिए दान दे दी थी.

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शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

आलेख - जेल में कैद ज़िन्दगी

 

जेल में कैद ज़िन्दगी

कमलेश जैन


भारत
 की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का संवेदनशील‚ भावुक कर देने वाला सर्वोच्च परिसर में दिया जाने वाला भाषण मुझे बहुत कुछ याद दिला गया। जब राष्ट्रपति को गवर्नर बनाया गया तो उन्हें उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के साथ वार्ता करने का मौका जब मिला–तो उन्होंने जेल में बंद पड़े कैदियों की हालत पर बातचीत की। छोटी–छोटी धाराओं में लोग जेलों में बंद हैं‚ पर उनकी जमानत नहीं होती। होती भी है तो रिहाई नहीं हो पाती। कभी–कभी तो मुकदमे से बरी हो जाने पर भी जेल अधिकारी उन्हें जेल से निकालना भूल जाते हैं।

न तो घर पर कोई है–वकील को रखने वाला और न ही किसी के पास पैसा है‚ वकील को देने के लिए। इन्हीं वजह से‚ थोड़ी–थोड़ी गलती पर लोग जेलों में जिंदगी बिता देते हैं। पीछे पूरा परिवार तबाही और शोषण का शिकार। इसी प्रकार‚ वकालत की शुरुआत ही में मैं जब अपने सीनियर नागेश्वर प्रसाद जी के साथ पटना लोअर कोर्ट जाती तो देखती कोर्ट रूम के बगल वाले रूम में कैदी बैरक में बैठे होते। मूत्रालय न होने की वजह से जो उसी बैरक में मूत्र त्याग करते। बदबू से परिसर गच्चीत रहता। कोर्ट चलते रहते–पीठाधीश‚ वकील‚ मुवक्किल सब क्या करते ॽ

सन् 1945 की एक बात है। दरभंगा के गांव का 16 वर्षीय एक लड़का बोका ठाकुर हत्या के एक मामले में पकड़ा गया। उसके पास एक गाय थी जिसकी हत्या गला रेत कर रात में कर दी गई थी पड़ोसी द्वारा। सुबह बोका जब सोकर उठ कर उसे देखने गया तो गाय का सिर धड़ से अलग था। हंसिया भी पास ही पड़ा था। पता लगा कि यह काम उसके पड़ोसी का था।

गाय को मातृवत प्यार करने वाला बोका शांत न रह सका और उसने पड़ोसी का गला उसी हंसिए से काट डाला। बोका को पकड़ लिया गया। उसकी पैरवी करने वाला कोई नहीं था। लिहाजा‚ वह इस जेल से उस जेल जाता रहा पर उसकी ट्रायल बिना पैरवी के नहीं चलनी थी‚ सो नहीं चली। इतने में पता चला जाति से बढ़ई बोका अपने काम में बड़ा माहिर था। उसे पागल घोषित कर कांके मेंटल हॉस्पिटल ले जाया गया जहां वह 07.09.1945 से रहने लगा। वहां वह ताबूत बनाने लगा। उसके बनाए ताबूत अत्यंत महंगे दामों में बिकने लगे। इस तरह वह 37 वर्षों तक कांके मानसिक अस्पताल में रहा। उसे सोने की जगह नहीं दी जाती थी, वह खड़े–खड़े सोता था और न ही पहनने को चप्पल दी जाती थी । वह इशारों से अपनी बात कहता। मुझे उसने कहा–उसकी पत्नी भी थी। मैंने उसकी खबर अखबार में पढ़ी। विश्व के उस सबसे पुराने अंडर ट्रायल कैदी को मैंने पटना हाई कोर्ट से छुड़ाया। अच्छे चाल–चलन पर 14 वर्षों में उम्रकैद खत्म हो जाती है लेकिन ये व्यक्ति उम्र कैद का ढाई गुणा ये भी ज्यादा यानी 37 साल जेल में रहा।


उसी समय खबरों में रुदल साह‚ उम्र 70 वर्ष‚ मुजफ्फरपुर के रहने वाले की खबर छपी कि वह 1947 से जेल में था। उसकी जेल से रिहाई 16 वर्षों बाद भी नहीं हुई थी। उस पर पत्नी की हत्या का मुकदमा था पर 21 वर्ष ट्रायल चलने के बाद उसकी रिहाई हो गई। उसके भी 16 वर्ष बाद 1982 में उसकी रिहाई मैंने पटना हाई कोर्ट से करवाई। दोनों मुकदमे विश्व के 26 देशों के अखबारों में पहले पेज पर बॉक्स में छपे। तो क्या हुआ ॽ ‘न्यायपालिका कसौटी पर’ मेरी पुस्तक छपी–पार्लियामेंट एनेक्सी में लाल कृष्ण आडवाणी और नीतीश कुमार द्वारा रिलीज की गई 2001 में। तो क्या हुआ ॽ आज भी जेलों के हालात जस के तस हैं।



जेलों में दिन भर का भोजन‚ नाश्ता 20 रुपये के भीतर बनता है। एक बैरक में रहना पड़ता है। शौचालय अंदर से भीतर तक मल से भरे रहते हैं। जेलों की बाउंड्री वाल के ईद–गिर्द हल्का होना पड़ता है। क्यू में लगे रहना पड़ता है। सबको सोने की जगह नहीं मिलती‚ बिस्तर भी नहीं मिलता। तीन कंबलों में 2-3 कैदियों को जाड़े की रात बितानी होती है। गंदा‚ अपचित खाना‚ मार खाना आम बात है और बिताने पड़ते हैं वर्षों‚ दशकों का जीवन इस आशा में कि कब बाहर का सूरज देखेंगे‚ खुली हवा में रहेंगे‚ परिवार शायद देखने को ही न मिले। महिला कैदियों को आवश्यक दिनों में कपड़े नहीं मिलते‚ नहाने को नहीं मिलता‚ दवा नहीं मिलती। यह सब गरीबों‚ आदिवासियों‚ पिछड़ी जातियों का नसीब है। आज आदिवासी‚ अति संवेदनशील‚ भावुक महिला राष्ट्रपति भी न्याय के दरवाजे पर‚ सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को यही कुछ कह रही हैं–और गेंद जजेज के पाले में डाल कह रही है–अब सब आपके हाथों में है। पुलिस‚ जेल व्यवस्था‚ कानून‚ अदालत‚ वकील‚ न्यायाधीश चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं–इस पार या उस पार।

(कमलेश जैन सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं। ये उनके निजी विचार हैं)


 कमलेश जैन सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ एडवोकेट हैं. चार दशकों से भी ज्यादा समय से कमलेश जैन देश के तकरीबन सभी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमों की पैरवी कर चुकी हैं। महिलाओं के अधिकार और कैदियों को लेकर वे हमेशा मुखर रही हैं। वह केवल वरिष्ठ एडवोकेट ही नहीं हैं हिन्दी की वरिष्ठ लेखिका भी हैं. देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कानून से संबन्धित उनके आलेख प्रकाशित होते हैं.  उनकी पहली पुस्तक 1998 में प्रकाशित हुई थी .तब वह पटना हाई कोर्ट में प्रैक्टिस कर रही थीं. अंग्रेजी और हिन्दी में उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.   

गुरुवार, 16 जुलाई 2020

वातायन - १६ जुलाई,२०२०

संस्मरण

बालकृष्ण बलदुवा

कानपुर की सिरकी मोहाल की पतली गली. संभवतः पन्द्रह फुट चौडी. जब हम घंटाघर की ओर से बिरहनारोड की ओर जाते हैं  नयागंज चौक पड़ता है. उन दिनों चौक के सीधे टक्कर पर एक हलवाई की दुकान हुआ करती थी, शायद आज भी हो. चौक से सीधे जाने पर बिरहनारोड की चौड़ी सड़क, सड़क के दोनों ओर भव्य भवनों की कतार है, चौक से बायीं ओर की गली सिरकी मोहाल को जाती है. उस गली में मुड़ते ही बाईं ओर एक और हलवाई की दुकान थी. उक्त दोनों ही दुकानों में दिनभर बड़े कड़ाहों में दूध गर्म होता रहता. वे कुल्हड़ों में गर्म मलाई वाला दूध देते. ऎसी ही दुकानें घण्टाघर से नयागंज के शुरूआत में भी हैं. उनकी लस्सी भी स्वादिष्ट होती है.  पहले भी सिरकी मोहाल की उस गली से साइकिल से निकला था, लेकिन उस दिन मैं पैदल था. यह १९८० की बात है, कब की आज याद नहीं.  उन दिनों मैं बाबू प्रतापनारायण श्रीवास्तव के जीवन परिचय के लिए उनके समय के हर बुजुर्ग साहित्यकार से मिलने पहुंच रहा था, इस आशा में कि संभव है उनसे उनका कुछ संबन्ध रहा हो और वह उनके जीवन पर कुछ प्रकाश डाल सकें. इसी आशा में मैं उस दिन बुजुर्ग साहित्यकार बालकृष्ण बलदुवा के घर जा रहा था.

बलदुवा जी का घर चौक से कुछ दूर पर दायीं ओर था.  लगभग दो सौ वर्गगज में बना हुआ कई मंजिल का मकान जो अपनी भव्यता खो चुका था. जब मैं मकान में प्रविष्ट हुआ, चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था. समझ नहीं आ रहा था कि मकान में कोई था भी या नहीं. देर तक मैं मकान के प्रांगण में खड़ा रहा, तभी कोई दिखाई पड़ा और मैंने उससे बलदुवा जी के विषय में पूछा. ज्ञात हुआ कि वह पहली मंजिल में रहते हैं. पहली मंजिल के नीम अंधेरे कमरे में बूढ़ी काया, सांवले, दुबले-पतले, मध्यम कद--- पचहत्तर पार के सज्जन मिले. वही बलदुवा जी थे. सामने सिंगल सोफे पर बैठने का इशारा किया उन्होंने. सिरकी मोहाल की उस गली के दोनों ओर ऊंची अट्टालिकाओं वाले मकान हैं, इसलिए नीचे सूरज का प्रकाश वहां कभी नहीं पहुंचता. संभव है  मकानों की छतों पर उसके दर्शन होते हों. बलदुआ जी का कमरा सड़क की ओर था, जिसे मैं गली कह रहा हूं. कमरे के साथ पतली-सी बालकनी और नीचे घर का छोटा-सा प्रांगण. वहां से छनकर जो प्रकाश हम तक पहुंच रहा था वह पर्याप्त न था. लेकिन इतना था कि हम एक-दूसरे की शक्लें देख पा रहे थे. 

बलदुवा जी ने बताया कि उनका परिचय श्रीवास्तव जी से नहीं था. मैं लगभग एक घण्टा उनके पास बैठा और अधिकांश समय वह अपने साहित्यिक संस्मरण सुनाते रहे थे. वह लघुकथाएं लिखते थे और उन्हें पॉकेट बुक्स साइज में स्वयं ही प्रकाशित करवाते थे. अफसोस यह है कि कानपुर ने उन्हें भुला दिया है और लघुकथाकारों को उनकी जानकारी नहीं. जानकारी होते हुए भी रावी को लघुकथा के इतिहास में याद नहीं किया जाता, जबकि सातवें दशक में उनकी खासी चर्चा थी. ऎसी स्थिति में बलदुवा जी को कौन याद करता जो अपनी दुनिया में सीमित रहते थे. दूसरी बार मैं बलदुवा जी से १९८३ में कभी मिला था.  दोनों ही अवसरों पर उन्होंने अपनी बेटी डॉ. ममता बलदुवा का उल्लेख गर्व से किया था, जो उन दिनों जबलपुर में किसी डिग्री कॉलेज में अंग्रेजी लेक्चरर थीं. ममता बलदुवा  कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में गोल्ड मेडलिस्ट थीं और शायद जबलपुर में पढ़ाते हुए पी-एच.डी. की थी.  लेकिन १९८१ में एक हादसा में उनकी मृत्यु हो गयी थी. बलदुवा जी द्वारा २८.१.८२ को मुझे लिखे गए पत्र में इस ओर अस्पष्ट संकेत मिलता है. उन दिनों अक्सर स्टोव से आग लगने से महिलाओं की मृत्यु के समाचार अखबारों में छपते थे. डॉ. ममता बलदुवा की मृत्यु उसी प्रकार हुई बतायी गयी थी. डॉ. ममता बलदुवा की शादी भवानी शंकर से हुई थी. समाचार पत्रों ने लगातार उनकी मृत्यु के समाचार प्रकाशित किए थे. कुछ ने खुलकर उनकी मृत्यु का जिम्मेदार उनके पति को बताया था और यह लिखा था कि किसी अन्य महिला से उनका प्रेम प्रसंग ममता बलदुवा की मृत्यु का कारण बना था.  मैं यहां बलदुवा जी का वह पत्र उद्धृत कर रहा हूं. 

५७/१५०, सिरकी मुहाल, कानपुर-१

फोन ५२६३८

दिनांक २८.१.८२ – प्रातः ७ बजे

प्रियवर चन्देल जी,

आपकी सान्त्वना यथासमय मिल गई थी और मेरे घाव पर मरहम करने में उसने भी अपना योग प्रदान किया. आशा तो बंध चली है कि अब घाव नासूर बनने से बच जाएगा---वैसे नासूर भी अपने कहे को भुगतने ही पड़ते हैं अपने-अपने जीवन में.

ममता की असामयिक मृत्यु में कोई विसंगति नहीं है. होनी थी. किसी बहाने हो गई. अन्यथा, सिनेमा देखकर लौटकर बच्चों को दूध पिलाकर सुलाने के बाद स्वयम पति-पत्नी के खाना खाने को बैठने पर ठंडा साग गरमाने आकर स्टोव पर, पल्लू में आग क्यों लग जाती और वह भी ऎसी कि मौत का कारण बने. 

होनी टलती नहीं और जो हो गया, वह अनहोना नहीं. इसकी जानकारी रखते हुए भी जीवन में कुछ क्षण ऎसे आते ही हैं प्रायः अधिकांश के, जब भावुकता की बाढ़ में ज्ञान होश खो बैठता है और परिणामस्वरूम मन बेहाल और अस्तव्यस्त हो उठता है. समय की औषधि देर-सबेर ज्ञान को फिर संज्ञा देती है अवश्य, किन्तु कभी-कभी मन का घाव बिना भरा ही रह जाता है, जो टीसता रहता है. कुछ ऎसा ही हो रहा है इस समय मेरे साथ मेरे में. इसी कारण  आपको उत्तर देने में देर हुई. बाह्य संतुलन कायम रखने में सफलता-प्राप्ति की कीमत एकांत में और मन में चुकानी पड़ रही है, इसका कोई गिला नहीं है मुझे, पर इतना तो अभी कुछ समय के लिए हो ही गया समझिए कि समय से शायद ही कोई काम हो पाता है. 

आप सदृश कई बंधुओं की तरुणाई से जो प्रकाश मिल रहा है, उसकी ऊर्जा निश्चय ही मन को गर्माकर स्वस्थ बना देगी, ऎसा विश्वास है मेरा.

कानपुर आने पर दर्शन मिलेंगे ही आपके. तब और भी मन की बातें करेंगे –आप भी और मैं भी.

सस्नेह

बा.कृ.बलदुवा

जब मैं दूसरी बार बलदुवा जी से मिला तब तक वह काफी सामान्य हो चुके थे, लेकिन शरीर से पहले की अपेक्षा कहीं अधिक कमजोर—एक प्रकार से जर्जर. पिछली मुलाकात में बेटी की गर्वित प्रशंसा के समय जो प्रसन्नता उनके चेहरे से टपक रही थी दूसरी मुलाकात के समय वहां उदासी थी, क्योंकि बेटी की यादें ही वहां शेष थीं और थी सामने दीवार पर फ्रेम में लटकता  डॉ. ममता बलदुवा का चित्र जिसमें वह अपने कन्वोकेशन के समय अपनी डिग्री थामें हुई थीं. 

बलदुवा जी का दूसरा पत्र मुझे २७ मार्च,१९८४ में मिला था. उसके बाद न मेरी मुलाकात हुई और न ही पत्राचार रहा. शायद कुछ समय पश्चात ही उनकी मृत्यु हो गयी थी.

प्रियवर रूपसिंह जी,

कृपा कार्ड यथा समय प्राप्त हो गया था. उसके दो-तीन दिन पहले राष्ट्रबंधु जी ने आपका संदेश मुझे पहुंचाया था. आपको उत्तर देने में देर हो गई. स्वास्थ्य और मन की अस्तव्यस्तता ही के कारण.

“सारिका का वह अंक तो मुझे देखने को मिला नहीं. वैसे मेरी लघु कथाएं अधिकांश में ’हिन्दू पंच’, मतवाला’ (कलकत्ता), महारथी (दिल्ली) आदि में ही प्रकाशित हुई हैं. इनकी फाइलें सुरक्षा के लिए रामगंज में एक पुस्तकायल में रखवा दी थीं, किन्तु एक ट्रस्टी (जो अब दिवंगत हैं) की कृपा से पुस्तकालय रातोंरात गायब हो गया और उनके भाई साहब का मकान वहां तैयार हुआ. अतएव पुरानी लघुकथाएं तो इन पत्रों की फाइलों में ही मिल सकेंगी.  इनमें से एक ’विश्वास पर’ (शायद) ’कथा-यात्रा’ (सम्पादक – कमलेश्वर) के किसी अंक में ’परम्परा’ स्तंभ में उद्धृत भी हुई है, जिसमें हिन्दू पंच का उल्लेख है. ये सब २५/३० ई. के आसपास प्रकाशित हुई थीं. अपनी रचनाओं की नोट बुकें काशी नागरी प्रचारिणी सभा को संरक्षणार्थ दे चुका हूं. ’मेरी यादें’ नाम से एक संस्मरण संग्रह शायद अप्रैल तक प्रकाशित हो जाएगा उसमें एक निबंध है ’हिन्दी जगत का तीसरा-चौथा दशक और मेरा साहित्यकार’. निबन्ध में याददाश्त के बल पर इन लघुकथाओं का भी जिक्र है. कुछ के नाम भी दिए हैं. 

बाद में (पांचवे दशक  के  बाद) प्रकाशित लघुकथाऒं में से कुछ मेरे रजिस्टर में चिपकी हुई हैं, अन्य रचनाओं के साथ---दीमकों की कृपा के कारण ऎसा करना पड़ा. दो चार शायद अप्रकाशित भी पड़ी हैं.
इस बार कानपुर आएं तो दर्शन देने का कष्ट करें. रजिस्टर में देख लीजिएगा.

प्रसन्नता की बात है कि प्रतापनारायण जी पर आपका शोध प्रबन्ध आपने वि.वि. में प्रस्तुत कर दिया है. आशा है शीघ्र ही आपके नामके आगे “डाक्टर” (दवाओं के नहीं) लगा देखने को मिलेगा.

शेष सब कुशल है. तन-मन दोनों अस्त-व्यस्त से रहते हैं इस समय, पर बीमारी-सहेलियां साधारण स्वागत सत्कार से ही संतुष्ट हो जाती हैं –शायद मंहगाई देखते हुए. 

यदि इतनी कृपा उसकी हुई कि मैं एक बार आगरा, दिल्ली, जबलपुर,लखनऊ,इलाहाबाद, वाराणसी आदि पुराने/नये साथियों के पास जा पाया (जाने के पहले) तो समझूंगा कि एक अच्छा (मन का) काम हो सका—देखिए-- संभव होता है या नहीं---कारण अकेले यात्रा कर पाना संभव नहीं है मेरे लिए और साथी समय पर मिल ही जाएगें साथ चलने वाले यह निश्चित नहीं कह सकता.

शेष सब कुशल है. पत्रोत्तर के साथ-साथ कभी-कभी अपनी गतिविधियों की सूचना देते रहें, तो मुझे प्रसन्नता देंगे. 

सस्नेह—

बा.कृ.बलदुवा    
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शनिवार, 13 जुलाई 2019

वातायन-जुलाई,२०१९









कहानी
बस अब अंत

रूपसिंह चन्देल

दोनों देर से उठे. आठ बजे से पहले दोनों नहीं उठते. आते ही हैं रात ग्यारह बजे ऑफिस से. खाना वहीं  खा लेते हैं. बहु-राष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वाले अधिकांश की दिनचर्या यही है. बारह बजे ऑफिस पहुंचना और देर रात घर लौटना और देर से सोना. उठते ही कांचना किचन में जा पहुंचती है अपने और पुनीत के लिए चाय बनाने. उनसे नहीं पूछती. प्रारंभ में, जब ब्याहकर आयी थी, एक-दो बार पूछा था, और उन्होंने मना कर दिया था.  क्योंकि वह सात बजे तक अपने लिए ग्रीन टी बनाकर पी चुके होते थे. लेकिन कभी-कभी कांचना को चाय बनाता देख उनका मन करता कि उसे अपने लिए भी बनाने के लिए कहें, लेकिन चुप रहते यह सोचकर कि वह यह न कह दे कि “पापा इतनी जल्दी दूसरी चाय---? आप अपनी ग्रीन टी तो पी चुके हैं!” एक बार उन्होंने बेटे से कहा था कि वह कांचना को उनके लिए भी बनाने के लिए कह दे तब यही उत्तर उसने दिया था. 

सुबह चार बजे उठ जाने की उनकी आदत बहुत पुरानी है---युवा अवस्था से ही. हालांकि दोनों के ऑफिस से लौटने तक वह जागते रहते हैं. पत्नी थी तब वह जागती उनके लिए दरवाजा खोलने के लिए, लेकिन एक साल पहले उसके न रहने पर यह जिम्मेदारी उन पर आ पड़ी थी. जबकि सुबह जल्दी जागने के लिए पत्नी के रहते वह ठीक दस बजे बिस्तर पर चले जाते थे. चार बजे उठकर साढ़े चार बजे  सैर के लिए निकल जाया करते थे. सैर के बाद पार्क में कुछ समय बिताकर वह छः बजे घर लौटते. उनके लौटने के समय पत्नी जागती. कई बार उन्होंने उसे सलाह दी थी कि वह भी सुबह जल्दी उठ लिया करे और सैर के लिए जाया करे, लेकिन उसके पास एक ही बहाना था कि बेटा-बहू दफ्तर से देर से आते हैं और इसलिए वह देर से जागती है. वह नहीं जा सकती. उन्होंने समझाया था कि बढ़ती उम्र में बीमारियां जल्दी पकड़ती हैं. लेकिन वह अपनी बात पर अडिग रही थी. जब बेटा और बेटी छोटे थे उसके पास उनके स्कूल की तैयारी करने, उन्हें स्कूल भेजने और उनके दफ्तर जाने से पहले नाश्ता और लंच तैयार करने का बहाना था. वह कहते कि वह दिन में कुछ देर की झपकी ले लिया करे, और वह लेती, लेकिन उसने  सुबह की सैर या योग में कभी रुचि नहीं ली. और न केवल शुगर की मरीज बनी थायोराइड भी उसे जबर्दस्त हुआ और कई सालों तक बीमारी झेलते एक साल पहले---. लेकिन उसकी मृत्यु से पहले वह बेटी का विवाह कर चुके थे. अपनी बीमारी भूल अनीता बेटी के हाथ पीले करने की चिन्ता में डूबी रहती थी और उसीने निर्णय दिया था कि बड़ा होते हुए भी बेटी के विवाह के बाद ही बेटे की शादी करेगी वह और ऎसा ही हुआ. पुनीत के शादी के दूसरे माह ही उसने उनका साथ छोड़ दिया था. 

उस दिन सुबह की सैर से लौटने के बाद ग्रीन टी पीते हुए वह देर तक अनीता के विषय में सोचते रहे थे. उसके रहते वह कितना निश्चिंत थे. बच्चों से लेकर उनकी हर सुख-सुविधा की जिम्मेदारी उसने अपने सिर ले रखी थी. कहीं घूमने जाने के विषय में उसने एक-दो बार ही कहा और जब उन्होंने उसे समझाया कि बच्चों की जिम्मेदारी से मुक्त होकर और नौकरी से अवकाश लेने के बाद वह देशाटन ही करेंगे. उसने हंसकर कहा था, “बीमारी इतनी फुर्सत देगी तब न---!” और वह अंदर तक हिल उठे थे. 

शादी से पहले बेटा और बेटी दोनों ही नौकरी में आ गए थे---दोनों ही बहु राष्ट्रीय कंपनियों में. वह प्रसन्न थी. यह उसीकी इच्छा थी कि बहू भी नौकरीवाली लाएगी . “पढ़-लिखकर भी मैं कुछ नहीं कर सकी. घर से बंधी रही---.” अपनी इच्छा बेटी में तो पूरी देख ही रही थी, बहू में भी देखना चाहती थी.

अनीता को नौकरी न कर पाने का पश्चाताप था.  ऎसे समय वह उसे यह समझाकर सांत्वना देते कि उसके कारण ही बेटी और पुनीत आज उच्च शिक्षा पाकर ऊंचे पदों पर बड़ी कंपनियों में काम कर रहे हैं. जब वह नौकरीपेशा बहू लाने की बात करती तब वह सोच में पड़ जाते. तब वह कहती, “पुनीत के पापा, समय बदल गया है---मंहगाई और शौक---आज जब दोनों कमाएगें तभी समाज में सही जीवन जी सकेंगे.”

“लेकिन संतानों को कैसे संभालेंगे?” वह चिन्ता व्यक्त करते.

“बहुत-सी कंपनियों ने यह सुविधा दे रखी है. पुनीत के ऑफिस की ओर से क्रेच की सुविधा है---वहीं ऑफिस बिल्डिंग में. और सौ बात की एक बात मेरा समय और था. आज कोई भी पढ़ी-लिखी लड़की घर बैठना पसंद नहीं करेगी. और बैठे भी क्यों? पढ़ाई की है तो उसे अपने व्यक्तित्व के विकास के अवसर मिलने ही चाहिए. “
वह चुप रह जाते थे अनीता के तर्कों के सामने. लेकिन उसके जाने के बाद वह खोए से रहने लगे थे. पुनीत और कांचना एक-दो वाक्यों से अधिक उनसे बातें नहीं करते थे. सुबह जाते तब ’पापा जी, दरवाजा बंद कर लें’ और आते तब बेटा हर दिन  पूछता ,”अरे आप अभी तक सोए नहीं?” और वह चुप रह सोचते, ’कैसा मूर्खतापूर्ण प्रश्न. मैं सो जाता तब दरवाजा कौन खोलता और इसे पता है कि उन दोनों के आने की चिन्ता में वह सो भी नहीं सकते. आखिर पैंतालीस किलोमीटर की दूरी तय करके आते हैं वे गुरुग्राम से---दिल्ली की सड़कें--रात का समय---बेलगाम ट्रैफिक---उनकी जान उन दोनों पर अटकी रहती है.’ 

पहले इस दुश्चिन्ता को अनीता झेलती थी. अब वह. 

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वह बेटा और बहू की व्यस्तता समझते थे.  लेकिन विचित्र तब लगता जब शनिवार और रविवार वे दोनों दस बजे के लगभग सोकर उठते. सुबह दस बजे तक उन्हें नाश्ता चाहिए होता. अनीता नौ बजे नाश्ता डायनिंग मेज पर लगा दिया करती थी. जब वह नौकरी में थे तब और उसके बाद भी. लेकिन उसके जाने के बाद उन्हें अपने को बदलना पड़ा था. अब वह बेटा-बहू के दस बजे ऑफिस के लिए निकलने के बाद नाश्ता करते थे. कांचना उनके लिए नाश्ता और लंच बना देती. अपने और पति के लिए नाश्ता निकालकर अपने कमरे में चली जाती लेकिन न उनके लिए नाश्ता निकालकर डाइनिंग मेज पर रखती, जबकि सास को वैसा करते उसने देखा हुआ था, और न ही उन्हें नाश्ता करने के लिए कहती. दोनों के ऑफिस जाने के बाद दरवाजा बंद करके वह स्वयं नाश्ता निकालते और अपने लिए दूसरी चाय बनाते. शाम के भोजन के लिए दोनों ने मेड लगा देने के लिए पूछा था, लेकिन उन्होंने मना करते हुए कहा था, “तुम दोनों चिन्ता न करो. मैं खुद कुछ कर लिया करूंगा. और वह कभी दलिया तो कभी खिचड़ी पका लेने लगे थे. मेड सुबह नौ बजे आती थी बर्तन मांजने और झाड़ू-पोचा करने के लिए. 

वह अधिक से अधिक अपने को पढ़ने में खपाने लगे थे. दिन में कुछ समय के लिए टी.वी. देख लेते थे. सोसाइटी में किसी से परिचय नहीं बना पाए थे. यह स्वभाव ही नहीं था उनका. वास्तव में लोग जिस प्रकार की दुनियादारी की बातें करते वह उन्हें पसंद नहीं था. अधिकांश सरकारी कर्मचारी थे सोसाइटी में. सोसाइटी ही थी केन्द्रीय कर्मचारियों की. उन्होंने भी आवेदन किया और उन्हें भी नोएडा की उस सोसाइटी में एम.आई.जी. फ्लैट मिल गया था. सरकारी कर्मचारियों के पास दो ही विषय होते बातचीत के---मंहगाई भत्ता और राजनीति पर चर्चा. उनकी तरह अवकाश प्राप्त लोगों के पास एक और विषय होता---भारत सरकार द्वारा स्वास्थ्य के विषय में जारी किए गए आदेश---जो समय समय पर भारत सरकार जारी करती रहती है.  नौकरी में थे तब भी बाबुओं को इन्हीं सब बातों में गर्क देखते थे और हर दिन वही बातें सुनकर वह ऊब अनुभव करते और इसीलिए सोसाइटी में शिफ्ट होने के बाद भी उन्होंने किसी से जान-पहचान नहीं बनायी.

’पुस्तकों से अच्छा कोई मित्र नहीं’ वह सोचते, लेकिन कहीं कुछ ऎसा था जो दरक रहा था. कुछ था जो उन्हें उन पुस्तकों के अलावा परेशान करता.  एक इंसान कब तक मुंह बंद करके रह सकता है. सप्ताह के पांच दिनों में बेटा-बहू की ओर से संवाद के हर दिन केवल दो वाक्य और अवकाश के दिनों में भी कोई संवाद नहीं. उन दिनों तो दरवाजा बंद करने और खोलने की भी बात नहीं थी तो वे दो वाक्य सुनने के लिए उन्हें सोमवार का इंतजार करना होता. उन दिनों वह शाम को छः बजे के लगभग पार्क में चले जाते थे जहां बच्चों को खेलते देखते रहते. कभी पुनीत और बेटी को भी वह हर शनिवार और रविवार सुबह और शाम पार्क में ले जाया करते थे और उनके साथ बैडमिंटन खेला करते थे. कभी गेंद उछालते और तीनों उसे पकड़ने के लिए दौड़ा करते थे. अब वह सोसाइटी के बच्चों को खेलता देख उन दिनों को पुनः जीने का प्रयास करते. यादें---बहुत-सी यादें. गर्मी की छुट्टियों में वह दोनों बच्चों को पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने बनी दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी  ले जाते थे. बेटा आठवीं कर चुका और बेटी छठवीं जब वह पहली बार दोनों को लेकर गए थे. दोनों को पुस्तकालय की सदस्यता भी दिला दी थी उन्होंने. दोनों वहां के बाल विभाग में घण्टों व्यतीत करते. वह बड़ों के सेक्शन में अपनी मन पसंद पुस्तकें खोज लेते और बच्चों के चलने के लिए कहने तक पढ़ते और तीनों अपने लिए पुस्तकें इश्यू करवाकर लौटते.  चार-पांच बार बच्चों के साथ वह गए थे. उसके बाद दोनों स्वयं जाने लगे थे. 

दिल्ली का किराए का मकान छोड़ जब वह सोसाइटी के मकान में नोएडा गए दिल्ली पब्लिक पुस्तकालय की सदस्यता छोड़नी पड़ी थी. जब तक नौकरी में रहे केन्द्रीय सचिवालय पुस्तकालय के सदस्य रहे  और अब पुस्तकें खरीदनी पड़तीं. खरीदते पहले भी थे, लेकिन अब अधिक संख्या में खरीदते. जब तक पढ़ते सब भूले रहते, लेकिन कितना पढ़ सकते थे---दो घण्टे—चार घण्टे. उसके बाद---खाली समय खाने को दौड़ता. ’इंसान संवाद के बिना कब तक रह सकता है” वह प्रायः सोचने लगे थे. ’विकल्प क्या है?’ एक दिन उन्होंने सोचा था. ’विकल्प है.  मोहमुक्त होने और साहस दिखाने की आवश्यकता है.’ अंदर से आवाज उठी थी.
’तुम कभी मोह-मुक्त नहीं हो पाओगे. तुम्हारी तरह कितने ही हैं जो ऎसे ही जीने के लिए अभिशप्त हैं.’ दूसरी
आवाज थी. 

’बहुत से लोग हैं जिन्होंने ऎसी स्थितियों में आशियाना खोज लिया है. मुझे ठीक-ठाक पेंशन मिलती है. तुम चिन्ता न करो.’ 

’ओह!’ और उसदिन के बाद से वह निरंतर उसी विषय में सोचने लगे थे. 

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और आज. 

पुनीत कंधे पर बैग लटकाए हाथ में नाश्ते की प्लेट थामे डायनिंग रूम में आया. उसके आने के पांच-सात मिनट पहले ही अमेरिका से उनके एक मित्र का फोन आया था. वह मोबाइल पर उनसे बातों में मशगूल थे. पुनीत डायनिंग रूम  में,जो ड्राइंग रूम से सटा हुआ है, डाइनिंग मेज के इर्द-गिर्द उत्तेजित-सा चक्कर काटने लगा था. उन्होंने एक बार उसकी ओर देखा और बातों में व्यस्त हो गए थे. पुनीत प्लेट थामे हुए ही अपने कमरे की ओर गया पैर पटकता हुआ. उन्होंने उसे उधर जाते देखा और घड़ी की ओर देखा. दस बज चुके थे. पुनीत उसी प्रकार पैर पटकता किचन में गया और नाश्ता की प्लेट जोर से सिंक में पटकी और पैर पटकता फिर डायनिंग मेज के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा. बातें करते हुए उन्होंने पुनः एक नज़र बेटे पर डाली. उसके चेहरे पर तनाव था और चेहरा लाल हो रहा था. उन्होंने अस्पष्ट-सी फुंकारने की सी आवाज भी उसकी नाक से निकलती अनुभव की. लेकिन लगभग एक साल बाद वह मित्र से बातें कर रहे थे, जो बी.ए. में उनका सहपाठी रहा था और इनकम टैक्स विभाग से बड़े पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद न्यू जर्सी में अपने बेटा के पास रह रहा था. वह वहां की अपनी समस्याएं बता रहा था. उसकी समस्या उनसे भिन्न न थी और इसीलिए वह बातचीत में अधिक ही डूबे हुए थे. तभी उन्हें बेटे की चीखने की आवाज सुनाई दी थी.
“यह क्या ढंग है कि हमारे जाने के समय अक्सर आप फोन पर बातें करने लगते हैं”.

बेटे के चीखने की आवाज से वह सकते में आ गए . मशीनी गति से हाथ ने मोबाइल को कान से दूर किया लेकिन तब भी उन्होंने उधर से मित्र की आवाज सुन ली थी, “क्या हुआ? यह आवाज कैसी थी?” लेकिन उन्होंने झटके से फोन बंद कर दिया और अचकचाकर इसप्रकार उठ खड़े हुए मानो कोई अपराध करते हुए पकड़े गए थे. तभी अपने कमरे से परफ्यूम उड़ाती कंधे पर लैप-टॉप का बैग लटकाए और हाथ में लच बैग थामे कांचना प्रकट हुई और “क्यों चीख रहे थे?” पति से बोली, “सॉरी, आज दस मिनट लेट हो गए---कोई नहीं—“ और वह दरवाजे की ओर लपकी. पुनीत भी उनकी ओर बिना देखे और बिना ’दरवाजा बंद कर लें पापा जी’ कहे दरवाजा खोल बाहर गैलरी में निकल गया था.
वह देर तक उसी स्थिति में खड़े रहे थे. उनका दिमाग उड़ रहा था.


’बस अब अंत.’ उन्होंने दृढ़तापूर्वक सोचा और अपने कमरे की ओर बढ़ गए  अपना सामान समेटने के लिए.
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