हम और हमारा समय
लड़कियां और सामन्ती सोच
रूपसिंह चन्देल
आजादी के पश्चात देश
में बहुत कुछ बदल गया और बहुत कुछ बदल रहा है. विकास रथ तेजी से दौड़ रहा है और देश
के कर्णधार समय-समय पर यह घोषणा करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते कि आगामी तीस-पैंतीस वर्षों
में भारत दुनिया का शीर्षस्थ विकसित देश होगा. हालांकि यह कहते हुए उनकी आवाज मंद अवश्य
हो जाती है क्योंकि यह आश्वस्ति उन्हें नहीं कि ऎसा होगा. आजादी के ६६ वर्ष पश्चात
देश ने भ्रष्टाचार के क्षेत्र में जो प्रगति
की है दुनिया उससे परिचित है और यह घटने के बजाए बढ़नी ही है जबकि इतने वर्षों में जो
प्रगति हो जानी चाहिए थी उसका पचास प्रतिशत भी नहीं हो पायी है. देश का एक बड़ा भू-भाग
बिजली-पानी बिना जीवन यापन कर रहा है. वहां पहुंचने के कोई साधन नहीं हैं---वहां के
लोग मध्यकालीन भारत में ही जी रहे हैं. आबादी
का बहुत बड़ा भाग भूखा और अधपेट जीने के लिए आज भी अभिशप्त है और हमारे कर्णधार देशवासियों
को स्वप्न बाट रहे हैं देश के सर्वशक्तिमान हो जाने के. क्या कारण है कि भारत से बाद
में आजाद हुआ चीन आज अमेरिका के समकक्ष खड़ा दिखाई दे रहा है….भ्रष्टाचार वहां भी है
लेकिन अनुपात इतना कम और सजा इतनी कठोर कि लोग वैसा करने से पहले हजार बार सोचते अवश्य
होंगे, जबकि यहां भ्रष्टाचारियों को सलाखों के पीछे जाने में बीस-पचीस वर्ष लग जाते
हैं. मौत की सजा की कल्पना करना व्यर्थ है.
भ्रष्टाचार के मामले
में देश का जितना पतन हुआ है उससे अधिक पतन लड़कियों के प्रति समाज की सोच में हुआ है.
एक समय था जब लड़कियों को जन्मते ही मार दिया जाता है. राजस्थान जैसे राज्यों में यह
आज भी किसी हद तक जारी है, लेकिन आज उससे कहीं अधिक भयानक सोच समाज में पैदा हो चुकी
है. आज ऑनर जिसे डिसऑनर कहना अधिक सही होगा, के लिए जिस प्रकार लड़कियों की हत्याएं
की जा रही हैं वह किस समाज की ओर संकेत करता है! स्पष्ट है कि इस मामले में समाज आदिम
युग की ओर लौट रहा है. ऎसा अशिक्षित या अर्द्धशिक्षित समाज में हो रहा है, ऎसा नहीं
है. सभ्य कहे जाने वाले पढ़े-लिखे लोग भी ऎसा कर रहे हैं. कुछ मामले प्रकाश में आते
हैं और कुछ नहीं आ पाते. आरुषि हत्याकांड इसका ज्वलंत उदाहरण है.
आरुषि हत्या का समाचार अखबार में पढ़ते ही मेरी पहली प्रतिक्रिया
थी कि उसे उसके मां-पिता ने ही अंजाम दिया. मैं अपराध विज्ञान विशेषज्ञ या विश्लेषक
नहीं हूं. हां, मेरी सबसे पहली बड़ी पुस्तक अपराध विज्ञान की ही थी –“अपराध: समस्या
और समाधान” (१९८३) . संभव है वैसा सोचने के पीछे उस पुस्तक को तैयार करने के लिए किया
गया मेरा अध्ययन रहा हो. लेकिन मेरी तरह देश के लाखों और लोग भी सोच रहे थे और उसका
कारण उस हत्या से जुड़े वे तथ्य थे जिन्हें तलवार दम्पति ने छुपाए या पुलिस को उनके
संबन्ध में भटकाने का प्रयास किए. विद्वान जज ने दोनों को उम्रकैद की सजा के छब्बीस आधार बताए हैं. उन पर पुनः बात करने का यहां कोई अर्थ
नहीं हैं. मुख्य बात यह कि आरुषि, जिसने जीवन के केवल चौदह बसंत ही देखे थे, से उसका
जीवन केवल इस आधार पर छीन लेना कि पिता ने उसे नौकर के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देख
लिया था, एक क्रूरतम अपराध था. नौकर और बेटी को मारने से पहले एक बार उस व्यक्ति ने
स्वयं के जीवन के बारे क्यों नहीं सोचा! स्वयं मौज-मस्ती की जिन्दगी जीने वाले व्यक्ति
ने यदि एक बार भी यह सोच लिया होता कि जो कुछ भी वह देख रहा था उसके लिए आरुषि नहीं
स्वयं वे दोनों—पति-पत्नी ही जिम्मेदार थे तो शायद वह जघन्य कृत्य करने से वे अपने
रोक पाते. लेकिन हकीकत यह कि जिन मां-पिता बेटी की मौत का मातम तक नहीं मनाया. नौकरानी
भारती के बयान से स्पष्ट है कि उसने दोनों को भावहीन देखा था—स्पष्ट करता है कि दोनों
सामान्य प्रकृति के नहीं थे. क्रूरता उनके अंदर पहले से ही विराजमान थी---अवसर मिलते
ही वह अपनी बेटी पर ही टूट पड़ी.
खाप पंचायतों के निर्णयों
के पश्चात परिजनों द्वारा मौत के घाट उतारी गई लड़की और उसके प्रेमी से तलवार दम्पति का मामला कतई भिन्न नहीं है. यहां
दोनों ही खाप के स्थान पर निर्णय ले रहे थे. संभव है कि हत्या से पहले नूपुर तलवार
पति की सोच का हिस्सा न रही हों लेकिन हत्योपरान्त पति के साथ खड़ी, सारे सुबूत मिटाने
में सक्रिय भूमिका निभाने वाली नूपुर का अपराध पति से किसी भी रूप में कम नहीं था.
कोई मां इतनी कठोर हृदया हो सकती है सोचकर आश्चर्य होता है. वह एक मात्र उस घटना की
प्रत्यक्षदर्शी थी. आखिर कौन-से ऎसे कारण रहे कि उसने पति का साथ दिया. नूपुर तलवार
एक मात्र ऎसा उदाहरण नहीं. हजारॊं ऎसी महिलाएं हैं जो पतियों के आपराधिक मामलों में उनके साथ खड़ी रहती हैं. सामन्ती समय में महिलाओं
की प्रताड़ना-हत्या आदि में पुरुषों के साथ महिलाएं भी शामिल रहती थीं. वह सोच आज घटने
के स्थान पर बढ़ी है.
भले ही तलवार दम्पति
द्वारा किया गया यह जघन्य अपराध पहला अपराध था लेकिन जिस प्रकार उन्होंने उसे अंजाम
दिया उससे यह सिद्ध होता है कि उनके अंदर पहले से ही एक आपराधिक व्यक्ति मौजूद था.
व्यक्ति अच्छाइयों और बुराइयों का समुच्चय होता है, लेकिन ये दोनों-गुण-अवगुण सभी में
समान नहीं होते. कुछ में कोई अधिक प्रभावी होता है और जिसका प्रभाव व्यक्ति में अधिक
होता है समय-समय पर वह उसका प्रदर्शन करता रहता है. मुझे नहीं मालूम कि इस दम्पति के
अपने नौकरों, सहयोगियों आदि के साथ आचार-व्यवहार आदि की छान-बीन की गई या नहीं, लेकिन
एक अनुमान मैं लगा सकता हूं कि नौकरों और अधीनस्थों के साथ उनका व्यवहार बहुत बेहतर
नहीं रहा होगा.
यदि यह मान भी लिया
जाए कि क्षणिक उत्तेजना में यह अपराध किया गया, लेकिन उसके बाद के उनके व्यवहार यही
सिद्ध करते हैं कि उनके अंदर एक शातिर इंसान और आपराधिक प्रवृत्ति उपस्थित थी. एक और
बात विचारणीय है कि अपने पेशे और वर्गीय कारणों
से जो त्यधिक व्यस्त रहते थे…सूत्रों के अनुसार
दो-तीन दिन घर नहीं आते थे उन्होंने घर में महिला नौकर न रखकर पुरुष नौकर क्यों रखा!
मन में कभी यह आशंका नहीं पैदा हुई कि कुछ गलत हो सकता है और जब कुछ गलत होता देखा
तब उसे बर्दाश्त नहीं कर पाए. यह घटना दूसरे दम्पतियों के लिए एक सबक भी है. यदि दोनों
सामान्य मानसिक स्थिति के रहे होते तो जिसकी सजा वे आज भुगत रहे हैं वह न भुगत रहे
होते. आरुषि भी इस संसार में होती और हेमराज का परिवार भी दाने-दाने को मोहताज न होता.
-0-0-0-0-
इस बार वातायान का
यह अंक हिन्दी लघुकथाओं पर केन्द्रित है. इसमें प्रस्तुत हैं लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार
प्राण शर्मा, माधव नागदा, बलराम अग्रवाल, सुभाष नीरव और मधुदीप की की तीन-तीन लघुकथाएं
और उन लघुकथाओं पर उनकी रचना प्रक्रिया.
-0-0-0-0-
प्राण शर्मा की तीन लघु कथाएँ
अहिंसावादी
सुनीति
राय अपने प्रिय जनों में बड़ा शांति प्रिय समझा जाता है। कभी वह किसी झगडे में
नहीं
पड़ता है। झगड़ने वालों को शांत रहने का उपदेश देता है। अंदर - बाहर देख कर चलता है
,
कहीं
उसके पांवों के नीचे आ कर कोई चींटी नहीं मर जाए। सच्चा गांधीवादी है। गांधी की तरह
उसकी
भी मानना है कि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारता है तो दूसरा गाल भी थप्पड़ खाने के
लिए
उसके आगे कर देना चाहिए।
आज शाम वह परिवार के साथ चाय पीने के लिए बैठा ही है कि एक बिच्छु उसकी चारपाई
पर
कहीं से आ जाता है। बहन देखती है तो काँप कर बोल उठती है - ` भैया , आपकी चारपाई पर
बिच्छु
है। मार गिराइये। `
`
मुझ अहिंसावादी को कहती हो कि मार गिराइए। इसको भी जीने का हक़ है। `
बिच्छु अकस्मात् अपना रंग दिखाता है। वह सुनीति राय के पाँव पर ऐसा ज़ोर से डंक
मारता
है कि वह चिल्ला उठता है। देखते ही देखते उसका चेहरा लाल - पीला हो जाता है। उसके
भागने
से पहले वह गर्म - गर्म चाय से भरा प्याला उस पर दे मारता है।
बिच्छु तड़पता है और पल में ही ढेर हो जाता है।
गुलामी
सोने से पहले पत्नी ने पति से पूछा - ` आप मुझ से कितना प्यार करते हैं ? `
बहुत
ज़्यादा। ` पति ने पत्नी को बाहों में भर कर कहा।
आप
के वे विचार मुझे बहुत अच्छे लगते हैं।
कौन
से विचार ? ` पति ने जिज्ञासा में पूछा
स्त्री और
पुरुष की बराबरी के विचार।
जब
से मैंने होश सम्भाला है तब से मेरे यही विचार हैं। पति और पत्नी जीवन के तराजू
के
दो
बराबर पलड़े हैं।
आपके
मुंह में घी - शक्कर। मेरी एक छोटी सी बात है। क्या आप मानेंगे ?
बोल
वो छोटी सी बात क्या है ?
मैं
आपको ` आप ` कह कर बुलाती हूँ। बुलाती हूँ न ?
हाँ
आप
भी मुझे आप कह कर बुलाया करें।
वो
क्यों ?
आप
शब्द में शिष्टता है।
तू
शब्द में भी शिष्टता है। ईश्वर या देवी - देवताओं के लिए क्या तू शब्द का उपयोग नहीं
किया
जाता है ?
सो
तो ठीक है लेकिन मैं आपको ` आप ` कहूँ और आप मुझे ` तू ` कहें , ये मुझे अच्छा नहीं
लगता
है। तू में उपेक्षा भाव महसूस होता है। आपको अगर मैं तू कह कर बुलाऊँ तो
आपको
कैसा लगेगा ?
तो
तू चाहती है कि मैं तुझे आप कह कर बुलाया करूँ ?
जी।
मेरे
दोस्तों में क्या मेरी नाक कटवाएगी ? सब कहेंगे कि मैं जोरू का गुलाम बन गया हूँ।
न
बाबा न , ये गुलामी मुझ से नहीं होगी।
गर्माहट
सर्दी का प्रकोप था। बूढ़े शरीर को ठण्ड कुछ
ज़्यादा ही लगती है। 75 वर्ष की सीता देवी
भी
ठण्ड के मारे रिजाई में दुबकी थी। रिजाई में मुँह ढके - ढके वह ठिठुरती आवाज़ में बेटे
से
बोली - ` एक और रिजाई मुझ पर डाल दे , जिस्म ठंडाठार है। `
इतने
में बेटा बोला - ` अम्मा , अम्मा , देखिये आपका पोता सिंगापुर से लौट आया है। `
अम्मा ने तुरंत चेहरे से रिजाई हटा कर देखा। सामने पोता ही था।
उसने झट से
रिजाई को परे फैंक दिया और उठते ही पोते को अपनी बाहों में भर लिया।
अम्मा की सारी ठण्ड काफूर हो चुकी थी।
इन
लघुकइन लघुकथाओं की रचना प्रक्रिया
अब तक मैं लगभग
200 गज़लें , 12 कहानियाँ और 100 लघु कथाएँ लिख चुका हूँ। उनमें अहिंसावादी ,
गुलामी और गर्माहट
जैसी लघु कथाएँ भी हैं। ये लघु कथायें हाल ही में लिखी गयी हैं।
कबीर दास की बानी है -
तू
कहता कागद की लेखी
मैं
कहता आंखन की देखी
उक्त बानी को अपने लेखन में उतारने की कौशिश मैं करता हूँ। यह बानी अहिंसावादी , गुलामी
और
गर्माहट
में भी देखी जा सकती है। रचनाओं में कल्पना का समावेश भले ही हो लेकिन वे सचाई
के
नज़दीक
लगनी चाहिए। उनमें पाठकों को अपना - अपना जीवन नज़र आये तो बात तभी बनती है। मेरे
अनुभव
के आधार पर ही अहिंसावादी , गुलामी और गर्माहट का सृजन हुआ है।
चूँकि मैंने पंचतत्र और हितोपदेश की छोटी -
छोटी कहानियों की लीक पर चल कर बहुत कुछ सीखा है इसलिए
मेरी
कोशिश रहती है कि मेरी लघु कथाओं में दुःख - दर्द भी हो , हास भी हो , उल्लास भी हो
और कुछ
ख़ास
भी हो।
मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपनी लघु कथाओं में कुछ नया दूँ इसीलिये -
जब
भी बाज़ार से गुज़रता हूँ
कुछ
न कुछ मैं तलाश करता हूँ
अगर पाठक को अहिंसावादी , गुलामी और गर्माहट में कुछ भी नया नज़र आता है तो मैं अपने
लेखन
को सार्थक मानूँगा।
संपर्क प्राण शर्मा - 08977000348
-0-0-0-
माधव नागदा की तीन लघुकघाएं
परिवार की लाड़ली
एक साथ तीन पीढ़ियां गांव के बस स्टेण्ड पर बस का इंतजार कर
कही थीं| दादी,मां,पिता, बेटा और उसकी नई-नवेली बहू| बस स्टेण्ड हाइवे के किनारे
था|हालांकि यातायात की कमी नहीं थी लेकिन लोकल बसों की कमी थी|फलस्वरूप लोगों को
घंटों इंतजार करना पड़ता था|
समय गुजारने
के लिये बेटे ने एक तरीका ढूंढ निकाला|वह आते-जाते ट्रकों के पीछे की लिखावटों को
पढ़ने लगा |जरा जोर से ताकि सब सुन लें|कोई रोमांटिक सी बात होती तो बहू की ओर देख
कर और जोर से बोलता | बहू घूंघट कुछ ऊपर उठाती नीचे का ओंठ दांतों तले दबाती और
सबकी नजरें बचाते हुए पति की ओर आंखें तरेरती|पति को पत्नी के चेहरे की यह लिखावट
ट्रक की लिखावट से भी ज्यादा रोमांचित कर देती|उसे इंतजार में भी अनोखा आनंद आने
लगा|
अभी-अभी मार्बल से
लदा एक ट्रक गुजरा था| ओवरलोड| धीमी रफ्तार| दर्द से कराहता हुआ सा| लिखा था,
‘परिवार की लाडली’|बेटे ने कहा, वो देखो परिवार की लाडली जा रही है और बड़े लाड़
से पत्नी को निहारा|
“हुंह,इतना तो बोझा
लाद रखा है और परिवार की लाड़ली|” पत्नी ने व्यंग्य किया|
सासूजी सुन
रही थी | उन्होंने तिरछी निगाहों से अपने पति व सास की तरफ देखा,फिर बोली, “इतना
बोझा लाद रखा है तभी तो परिवार की लाड़ली है|वरना.....|” बहू ने महसूस किया कि
सासूजी की आवाज घुट कर रह गई है|
दादी, कहानी
सुनाओ ना
“दादी|” गोलू दादी की गोद में बैठ गया, उसके गलबैंया डाली और
गाल चूम लिए|
“मेरा अच्छा बेटा| ले सो जा मेरी गोद में|” दादी ने टीवी पर अपनी नजरें गड़ाए
रखीं| उसका पसंदीदा नाटक ‘ बालिका वधू’ जो आ रहा था|
“कहानी सुनाओ ना दादी|” गोलू मचला|
“ हां, बेटा| अभी सुनाती हूं| वो देख आनंदी| मेरे राजा बेटा
के लिए आनंदी जैसी बहू लाऊंगी| अब सो जा|” दादी थपकी देते हुए बोली|
“पहले कहानी सुनाओ| वो राजा वाली|”
“सुनाती हूं बेटा| बस थोड़ी देर में नाटक खतम होने वाला ही है|” दादी गोलू को गोद
में सुलाकर घुटनों से झुलाने लगी|
गोलू की पलकें बोझिल हो गईं| उसने अधमुंदी पलकों से दो-तीन बार कहा, ‘दादी कहानी
सुनाओ ना’ और गहरी नींद सो गया| दादी चेनल बदल चुकी थी|
मेरी बारी
जब आमंत्रित वक्ता वैश्वीकरण तथा खुली अर्थव्यवस्था
के फायदे गिना चुके और छात्रगण इस बात पर पुलकित होते हुए कक्षाओं में रवाना हो
गये कि हमारे पास एक अरब डालर का विदेशी मुद्रा भण्डार है तभी एक लड़का
सहमता-सकुचाता विस्मयबोधक चिह्न की भाँति विद्यालय के मुख्य द्वार में प्रविष्ट
हुआ| उसे इस तरह दबे पाँव विद्यार्थियों की भीड़ में शामिल होने की कोशिश करते देख
कुन्दनजी ने धर दबोचा|
“अच्छा,अच्छा! लेट,
वो भी विदाऊट युनिफॉर्म और ऊपर से चोरी-चोरी| चल इधर आ|”
दो-चार पड़नी तो थी
ही|
“ऐसा काबर-तीतरा
शर्ट क्यों पहनकर आया?”
लड़का चुप| इस
चुप्पी को ‘तड़ाक्’ की आवाज ने तोड़ा|
“जा वापस| स्कूल का
शर्ट पहनकर आ|”
“कल पहनूंगा सर| आज
नहीं पहन सकता|”
‘सामने बोलता है|
क्यों नहीं पहन सकता बता?’ कहकर कुन्दनजी ने एक बार फिर लड़के का खैरमक्दम फरमाया|
“आज मेरा भाई पहनकर
गया है| पास की मिडल स्कूल में पढ़ता है|”
“तो क्या तुम दोनों
के बीच एक ही...|” कुन्दनजी के गले में मानो कोई फांस अटक गई|
“जी,सर| हम दोनों
भाई बारी-बारी से मार खाते हैं| आज मेरी बारी है|” लड़के के चेहरे पर बीजगणित का
कोई मुश्किल सा सवाल चस्पा हो गया| वह नजरें झुकाकर धरती पर पैर के अंगूठे से
लकीरें माँडने लगा|
इन
ल्घुकथाओं की रचना प्रक्रिया
मेरे साथ प्रायः यह होता है कि किसी स्थिति को
देखकर लघुकथा एक स्फुरण की तरह मन में एकाएक कौंधती है| अर्थात् कथ्य और रूप दोनों
एक साथ साक्षात् होते हैं| क्षण मात्र के लिए| एक कच्चे माल के रूप में| फिर
धीरे-धीरे चीजें मन में पकती हैं, परिवेश आकार लेता है, संवाद व्यवस्थित होते हैं,
आरंभ और अंत की खींच-तान चलती है और अंततः रचना कागज पर उतरती है| कुछ दिन इसे
पड़ी रहने देता हूं| फिर लाल स्याही का पेन लेकर बैठता हूं| शब्दों के सटीक
स्थानापन्न, संभव हो तो कोई बिंब या मुहावरा, वार्तालाप का चुटीलापन,
पात्र का कोई एक्शन या भावाभिव्यक्ति| अर्थात् जो भी कमी दिखाई देती है वहां
लाल स्याही का प्रहार| फिर कुछ दिनों बाद रचना की ‘फेयर’ प्रति तैयार करता हूं|
पहले हाथ से ही लिखता था, अब कम्प्युटर पर टंकण करना सीख गया हूं|
‘मेरी बारी’ का थीम
मन में उस समय चमका जब प्रार्थना सभा के पश्चात् कक्षा दस के एक विद्यार्थी ने
झिझकते हुए विद्यालय में प्रवेश किया| उसकी पेंट तो स्कूल युनिफॉर्म वाली ही थी
मगर शर्ट दूसरा था| ‘परिवार की लाड़ली’ मन में कौंधी गांव के स्टेंड पर बस
का इंतजार करते हुए| बहू हो या सास , परिवारजनों को तभी तक अच्छी लगती हैं जब तक
कि वे घर-गृहस्थी के बोझ से दबी हुई हों| ‘दादी कहानी सुनाओ ना’ टी.वी. देखते समय
दादी पोते के संवाद सुनते हुए उमगी| मीडिया क्रांति ने सब कुछ उलट-पलट दिया है|
इसने नई पीढ़ी को ही नहीं पुरानी पीढ़ी को भी बदला है जिससे परिवारों में दादी-पोता
जैसे आत्मीय रिश्ते में भी एक संवादहीनता की स्थिति बनती जा रही है|
संपर्क माधव
नागदा - 09829588494
-0-0-0-
बलराम अग्रवाल की तीन लघुकथाएँ
सियाही
“अम्मा, वो फटा हुआ गमछा अभी रखा है न?” नल के पास रखे कपड़ा धोने वाले साबुन
के टुकड़ों को हाथ-पैरों पर रगड़ते मंगल ने अम्मा को हाँक लगाई।
“रखा है।” अम्मा भीतर से ही बोली,“निकालकर दूँ क्या?”
“उसमें से एक बड़े रुमाल जितना कपड़ा फाड़ लो।”
“क्यों?”
“कल से रोटियाँ उसी में लपेटकर देना अम्मा।” उसने कहा,“अखबार में मत लपेटना।”
“हाँ, उसकी सियाही रोटियों पर छूट जाती होगी।” अम्मा ने ऐसे कहा जैसे उन्हें
इस बात का अफसोस हो कि यह बात खुद-ब-खुद उनके दिमाग में क्यों नहीं आई।
“सियाही की बात नहीं है अम्मा।” नल के निकट ही एक अलग कील पर लटका रखे काले पड़
गए तौलिए से मुँह और हाथ-पैरों को पोंछता वह बोला,“वह तो हर साँस के साथ जिन्दगी-भर
जाती रहेगी पेट में... काम ही ऐसा है।”
“फिर?”
“खाने बैठते ही निगाह रोटियों पर बाद में जाती है अम्मा,” वह दुःखी स्वर में
बोला,“खबरों पर पहले जाती है। लूट-खसोट, हत्या-बलात्कार, उल्टी-सीधी बयानबाजियाँ, घोटाले...इतनी
गंदी-गंदी खबरें सामने आ जाती हैं कि खाने से मन ही उचट जाता है...।”
अम्मा ने कुछ नहीं कहा। भीतर से लाए अँगोछे के फटे हिस्से
को अलग करके उसमें से उन्होंने बड़े रुमाल-जितना कपड़ा निकाल लिया। फिर, साबुन से धोकर
अगली सुबह के लिए अलगनी पर लटका दिया।
पीले पंखोंवाली तितलियाँ
बेटे के बस्ते से स्कूल की डायरी निकालकर नमिता ने आज का पन्ना पढ़ा। बेटा खिड़की
के सहारे खड़ा हो, पार्क की हरियाली और फुलवारी देखने में डूबा था।
“पहले स्कूल-वर्क पूरा करो नंदू।” नमिता ने बाँह पकड़कर उसे अपनी ओर खींच लिया।
फिर अपने सामने बिठाती हुई बोली,“बाहर बाद में झाँकना।”
यह रोज़ का किस्सा है। बच्चा चुपचाप बैठ गया। नमिता उसकी कॉपी में पेंसिल से डॉट्स
लगाने लगी। तभी, खिड़की के रास्ते पीले पंखों वाली दो तितलियाँ एक-दूसरे का पीछा करती
कमरे में आ घुसीं। बच्चे की आँखों में चमक आ गई। उसको वे छुई-छुआ खेलती-सी लगीं। उनके
साथ-साथ वह भी मन-ही-मन किलकने-कूदने लगा।
“कल ए फॉर एप्पल लिखा था, याद है?” एकाएक मॉम का स्वर सुनकर वह चैंका।
“यस मॉम।”
“आज बी फॉर बटरफ्लाय लिखना है। ओ॰ के॰?”
“ओ॰ के॰ मॉम।”
“ये लो।” कॉपी-पेंसिल उसकी ओर बढ़ाती हुई वह बोली,“मेरे बनाए हुए डॉट्स पर पेंसिल
घुमाकर बी बनाओ और जोर-जोर से बोलते जाओ-बी फॉर बटरफ्लाय।”
बच्चे ने कॉपी को घुटने पर टिकाया और डॉट्स को मिलाना शुरू कर दिया। तितलियाँ
कभी किसी दीवार की ओर उड़तीं, कभी किसी दीवार की ओर। वह चोर निगाहों से उनकी ओर देख
लेता और जोर से किलकता-‘बी फॉर बटरफ्लाय’।
नमिता बस्ते से निकालकर उसकी दूसरी कॉपी देखने लगी। क्लास-टेस्ट में एक से पाँच
तक के अंग्रेजी अंक लिखने को दिये गये थे। चार तक तो नंदू ने ठीक लिखे, लेकिन पाँच
के अंक को उलटा बना रखा था। इस गलती के कारण उसको एक नम्बर कम मिला था। पाँच में से
चार! मॉम का पारा जोरों से चढ़कर सिर के ऊपरी हिस्से से जा टकराया-ठक्।
नंदू की निगाह एकाएक खिड़की के रास्ते ही कमरे में आकर उन तितलियों की ओर बढ़ती
एक छिपकली पर पड़ी। उसका दिल जोरों से धड़क उठा। चेहरे पर पीलापन छा गया। मन किया कि
दौड़कर जाए और छिपकली को बाहर भगा दे, लेकिन वह काफी तेज निकली। सधी चाल से आगे बढ़ते
हुए उसने उल्लासभरी उन तितलियों में से एक को अपने जबड़े में गपच लिया। नंदू पीड़ा से
कराह उठा-“मॉम, छिपकली...!”
यह बोलते-बोलते ही झन्नाटेदार एक झापड़ उसके गाल पर पड़ा-तड़ाक्!
वह इसका कारण न समझ सका। गाल पर हाथ धरे आँसू-भरी असहाय आँखों से कमरे में बदहवास-सी
चकराती अकेली रह गई दूसरी तितली को ताकता रहा। पहली को गपच जाने के बाद छिपकली अब उसकी
ओर बढ़ रही थी।
आहत आदमी
आधे-अधूरे चाँद वाली अँधियारी-सी रात। फिल्मी, गैर-फ़िल्मी तर्जों पर गढ़ी हुई
माँ भगवती के गुणगान वाली भेंटें। हाइ-डेन्सिटी स्टीरियोज़। फुल वॉल्यूम।
जागरण-स्थल के निकट से गुजरता हुआ संदीप अभी सौ-दो सौ कदम ही आगे गया था कि एक
कृशकाय बुजुर्ग को बंद दुकान के चबूतरे पर बैठकर ऊँघते-हाँफते देखा!
“नींद आ रही है?” सहानुभूतिवश उसने कहा,“घर क्यों नहीं चले जाते?”
“घर ही से आकर तो यहाँ बैठा हूँ।” वृद्ध बोला।
“क्यों?”
“दिल का मरीज हूँ और रक्तचाप का भी।”
“तो?”
“तो यह कि घर के एकदम बराबर में जोरोशोर से महामाई का गुणगान चल रहा है। पिछले
पाँच सालों से चैत और क्वार-दोनों ही नवरात्रों में करने लगे हैं यह धूम-धड़ाका। धीमी
आवाज़ को वह जैसे सुनती ही न हो!” बूढ़ा तमतमाए स्वर में बोला।
“आपने आयोजकों को बताई अपनी परेशानी?”
“सब-के-सब कसाई हैं साले...!” वह क्षुब्ध स्वर में बोला।
“क्या कहते हैं?”
‘‘कहते हैं कि भगवान का नाम बुरा लगता है सुनने में, इसीलिए बीमार रहता है तू।”
“पुलिस में कम्प्लेंट की?”
“वहाँ भी वही-ढाक के तीन पात। कहने लगे कि धार्मिक मामलों में पुलिस कुछ नहीं
कर सकती, खुद ही एडजस्ट कर लो। ...किसी न किसी नेता को बुला लेते हैं मुख्य अतिथि बनाकर,
सो कहीं भी कोई सुनता ही नहीं है।”
“ध्वनि-प्रदूषण विभा...ऽ...”
“तू जहाँ जा रहा है जा यार,” इस बार उसका वाक्य पूरा होने से पहले ही बूढ़ा उस
पर गरज उठा,“नाहक दिमाग न चाट।” फिर अपने-आप में बुदबुदाया,“उधर के शोर से बचकर आया
तो इधर यह चला आया परेशान करने!”
“सीधी-सादी बातें भी इसे चुभ रहीं हैं!” लतियाया हुआ-सा संदीप आगे बढ़ते हुए बुदबुदाया,“कमाल
का आदमी है!”
इन लघुकथाओं
की रचना प्रक्रिया
मेरा मानना है कि लघुकथा
आम आदमी की विधा है। बावजूद इसके, मैं स्वीकार नहीं पाता कि उसे नितांत सीधा सपाट या
नितांत कौंध तक सीमित रहना चाहिए क्योंकि मुझे लगता है कि सीधे सपाट रहकर आप कुछ घटनाएँ
और कौंध तक सीमित रहकर कुछ रोमांच तो पाठक तक पहुँचा सकते हैं, वह नहीं जिसके जरिए
पाठक में साहित्य से जुड़ने की चेतना जाग्रत होती है। मैं कला कला के लिए का समर्थक
नहीं हूँ, लेकिन उसकी हत्या का, सिरे से ही उसके नकार का भी हिमायती नहीं हूँ। तात्पर्य
यह कि मेरी दृष्टि में, लघुकथा को कबीर की साखी-जैसा ऐसा होना चाहिए कि वह अनपढ़ आदमी
को जीवन का रस दे और साहित्यिक समझ के विद्वान को कला का। अत: कोशिश करता हूँ कि मेरी
लघुकथाएँ एक साथ, सरल और कलात्मक दोनों गुणों से संपन्न रहें। अन्य लघुकथाकारों की
भी वैसे गुणों से संपन्न लघुकथाएँ मुझे तोष प्रदान करती हैं।
यहाँ प्रस्तुत मेरी लघुकथाओं में ‘सियाही’
पर आता हूँ। यह एक बहुअर्थी शीर्षक है। फटा हुआ गमछा भी फेंका नहीं गया, हाथ-पैर धोने
के लिए नहाने वाले साबुन के नहीं, कपड़ा धोने के साबुन के (बचे हुए) टुकड़े हैं, उसकी
भी पूरी या अधूरी टिक्की नहीं रख सकता—इस स्तर का परिवार है, हर साँस के साथ विष की
तरह ‘सियाही’ पीता हुआ। इसमें यह कहने की कोशिश की गई है कि चारों ओर से हमला कर रही
इस अवांछित ‘सियाही’ के घनत्व को कम करने की इतनी कोशिश तो आज का सामाजिक कर ही सकता
है कि अखबार को (यह भी यहाँ प्रतीक मात्र ही है) फटे-पुराने कपड़े से ही सही, रिप्लेस
कर दे, हटा दे।
‘पीले
पंखोंवाली तितलियाँ’ शैक्षिक उत्थान के बहाने हमारी कोमल संवेदनाओं पर हावी हो चुकी
यांत्रिक चिंतन प्रक्रिया को सामने लाने की दृष्टि से लिखी गयी है। शैशव को बाहरी दुनिया
और पार्क की हरियाली से काटकर कमरे और किताबों में कैद करना आज आम और खास सभी माँ-बाप
कर रहे हैं। स्थितियों और चरित्रों की विवशता, कर्कशता, क्रूरता को समझाने के लिए इसमें
दो कथाएँ समांतर चलाई गई हैं; इस दृष्टि से कि कमरे के भीतर कैद होकर भी बालक की कोमल
भावनाएँ अक्षुण्ण रहती है लेकिन बाहरी दबाव उस पर छिपकली-से वहाँ भी हावी हैं। मैं समझता हूँ कि बिम्ब का यह प्रयोग क्लिष्ट नही
हुआ, सरल ही रहा है।
‘आहत
आदमी’ में आदमी से तात्पर्य व्यक्ति है, पुरुष नहीं। रहीम ने कहा है—कह रहीम कैसे निभे
बेर-केर कौ संग, वे झूमत रस आपने इनके फाटत अंग। अर्थात् बेर की मस्ती केले के पेड़
यानी उसके पत्तों के लिए घातक होगी ही; लेकिन इससे बेर को क्या!!! धार्मिक अनुष्ठान
के बहाने व्यक्ति आज इतना संवेदनहीन और गैर-सामाजिक हो चुका है कि बीमार पड़ोसी के हित
को भी वह नजरअन्दाज करने का अभ्यस्त हो गया है। हमारी विधि और न्याय व्यवस्था भी इस
‘आहत आदमी’ को न्याय नहीं दिला पा रही—यह कष्ट हर नागरिक को है लेकिन कर वह कुछ नहीं
सकता, सिवा सलाह देने या गाल बजाने के।
संपर्क बलराम अग्रवाल – मो.08826499115
-0-0-0-
सुभाष नीरव की तीन लघुकथाएँ
बारिश
आकाश पर पहले
एकाएक काले बादल छाये, फिर बूँदे पड़ने लगीं। लड़के ने इधर-उधर नज़रें दौड़ाईं। दूर तक
कोई घना-छतनार पेड़ नहीं था। नये बने हाई-वे के दोनों ओर सफेदे के ऊँचे दरख़्त थे और
उनके पीछे दूर तक फैले खेत। बाइक के पीछे बैठी लड़की ने चेहरे पर पड़ती रिमझिम
बौछारों की मार से बचने के लिए सिर और चेहरा अपनी चुन्नी से ढककर लड़के की पीठ से
चिपका दिया। एकाएक लड़के ने बाइक धीमी की। बायीं ओर उसे सड़क से सटी एक छोटी-सी झोंपड़ी
नज़र आ गई थी। लड़के ने बाइक उसके सामने जा रोकी और गर्दन घुमाकर लड़की की ओर देखा।
जैसे पूछ रहा हो - चलें ? लड़की भयभीत-सी नज़र आई। बिना बोले ही जैसे उसने कहा -
नहीं, पता नहीं अन्दर कौन हो ?
एकाएक बारिश तेज़ हो गई। बाइक से उतरकर
लड़का लड़की का हाथ पकड़ तेज़ी से झोंपड़ी की ओर दौड़ा। अन्दर नीम अँधेरा था। उन्होंने
देखा, एक बूढ़ा झिलंगी-सी चारपाई पर लेटा था। उन्हें देखकर वह हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ।
“हम कुछ देर… बाहर बारिश है…” लड़का
बोला।
''आओ, यहाँ बैठ जाओ। बारिश बन्द हो
जाए तो चले जाना।'' इतना कहकर वह बाहर निकलने लगा।
''पर तेज़ बारिश में तुम...?'' लड़के ने
पूछा।
''बाबू, गरमी कई दिनों से हलकान किए
थी। आज मौसम की पहली बारिश का मज़ा लेता हूँ। कई दिनों से नहाया नहीं। तुम बेफिक्र
होकर बैठो।'' कहता हुआ वह बाहर खड़ी बाइक के पास पैरों के बल बैठ गया और तेज़ बारिश
में भीगने लगा।
दोनों के लिए झोंपड़ी में झुककर खड़े
रहना कठिन हो रहा था। वे चारपाई पर सटकर बैठ गए। दोनों काफ़ी भीग चुके थे। लड़की के
बालों से पानी टपक रहा था। रोमांचित हो लड़के ने शरारत की और लड़की को बांहों में जकड़
लिया।
''नहीं, कोई बदमाशी नहीं।'' लड़की छिटक
कर दूर हटते हुए बोली, ''बूढ़ा बाहर बैठा है।''
''वह इधर नहीं, सड़क के पार देख रहा
है।'' लड़के ने कहा और लड़की को चूम लिया। लड़की का चेहरा सुर्ख हो उठा।
एकाएक, वह तेजी से झोंपड़ी से बाहर
निकली और बांहें फैलाकर पूरे चेहरे पर बारिश की बूदें लपकने लगी। फिर वह झोंपड़ी
में से लड़के को भी खींच कर बाहर ले आई।
''वो बूढ़ा देखो कैसे मज़े से बारिश का
आनन्द ले रहा है और हम जवान होकर भी बारिश से डर रहे हैं।'' वह धीमे से फुसफुसाई
और बारिश की बूँदों का आनंद लेने लगी।
लड़की की मस्ती ने
लड़के को भी उकसाया। दोनों बारिश में नाचने-झूमने लगे। बूढ़ा उन्हें यूँ भीगते और
मस्ती करते देख चमत्कृत था। एकाएक वह अपने बचपन के बारिश के दिनों में पहुँच गया।
और उसे पता ही न चला, कब वह उठा और मस्ती करते लड़का-लड़की के संग बरसती बूँदों को
चेहरे पर लपकते हुए थिरकने लग पड़ा।
लाजवंती
प्रोफेसर साहब छड़ी
उठाकर सुबह की सैर को निकले तो वह भी उठकर काम में लग गईं। कमरों में झाड़-पोंछ की
और बिखरी पड़ी वस्तुओं को उठाकर करीने से रखा। झाड़ू-पौंचे, बर्तन मांजने और कपड़े
धोने के लिए प्रोफेसर साहब ने महरी लगा रखी है। आज उन्होंने उसकी प्रतीक्षा नहीं
की और धीरे-धीरे सिंक में पड़े बर्तन मांजे, रसोई साफ की, कमरों में झाड़ू लगाया तो
थक-सी गईं। बाकी काम महरी के लिए छोड़ दिया। नहाकर अच्छी-सी साड़ी पहनी। शायद दो-तीन
बार ही किसी विवाह समारोह में इसे पहना होगा। फिर आईने के सामने खड़ी हो गईं। आईना
बढ़ी उम्र की चुगली कर रहा था। उन्होंने मांग में हल्का-सा सिंदूर लगाया और माथे पर
बिंदी। पूजा-अर्चना करके उठीं तो प्रोफेसर साहब लौट आए। पत्नी को आज सुबह-सुबह यूँ
सजा-धजा देखकर मुस्कराये और बोले, ''क्यों, कोई खास बात है?''
''नहीं,
कोई ख़ास बात तो नहीं। बस, यूँ ही। साड़ियाँ सन्दूक में पड़ी-पड़ी सड़ ही रही हैं। सोचा,
एक-एक करके इस्तेमाल करती रहूँ, घर पर ही।'' कहते हुए उन्होंने कुछ क्षण पति की ओर
देखा, इस उम्मीद से कि शायद उन्हें कुछ याद आ जाए।
पर
वहाँ कुछ नहीं था।
तभी,
महरी आ गई। मालकिन को यूँ बने-संवरे देख वह भी विस्मित हुई। पूछा, ''बीबी जी, कहीं
जाना है?''
''नहीं,
तू अपना काम कर। आज घर में पौचा अच्छी तरह लगाना।''
महरी
काम में लग गई और प्रोफेसर साहब नहा-धोकर नाश्ता करके अखबार उठाकर बालकनी में चले
गए। दस साल हो गए उन्हें कालेज से रिटायर हुए। तब से यही दिनचर्या है उनकी। सुबह
सैर को जाते हैं, दूध-ब्रेड लाना होता है तो मार्किट से लेते आते हैं, नहा-धोकर
नाश्ता करते हैं, अखबार पढ़ते हैं, फिर कोई किताब लेकर बैठ जाते हैं।
दोपहर
के भोजन के बाद कुछ विद्यार्थी आ जाते हैं। शाम चार बजे तक उन्हें पढ़ाते हैं। फिर
शाम को छड़ी उठाकर टहलने निकल जाते हैं।
बेटा
राजेश दुबई में है और वहीं सैटिल हो गया है। बेटी शादी के बाद बंगलौर में रहती है।
देखते-देखते
रोज की तरह दिन यूँ ही बीत गया।
शाम
के समय प्रोफेसर साहब टी.वी. पर समाचार देख रहे थे तो वह पास आकर बैठ गईं। कुछ
कहना चाहती थीं, पर कह नहीं पा रही थीं। फिर, एकाएक बोली, ''कई दिन हो गए; न राजेश
का फोन आया और न ही रजनी का।'' जबकि वह कहना यह चाहती थीं कि देखो, आज के दिन भी
बेटा-बेटी का फोन नहीं आया।
''चलो,
तुम ही कर के हाल-चाल पूछ लो।''
उन्हें
पति का सुझाव ठीक लगा। पहले बिटिया को फोन किया, फिर बेटे को। कुछ देर बात की। पर
कानों ने वह नहीं सुना जो सुनना चाहे रहे थे।
''क्या
कह रहे थे? ठीक तो हैं?'' प्रोफेसर साहब ने पूछा।
''हाँ,
ठीक हैं। कह रहे थे, पापा का और अपना ध्यान रखा करो।''
रात
के भोजन के बाद उनसे रहा नहीं गया। वह रसोई में गईं। हथेली पर गुड़ के दो छोटे-छोटे
टुकड़े रखकर प्रोफेसर साहब के पास आकर खड़ी हो गईं। हथेली पर से एक टुकड़ा उठाकर
प्रोफेसर साहब के मुँह की ओर बढ़ाते हुए बोलीं, ''मिठाई तो नहीं है, चलो, गुड़ से ही
मुँह मीठा कर लो।''
प्रोफेसर
साहब ने हैरान-सा होकर पत्नी की ओर देखते हुए पूछा, ''बेटा या बेटी ने कोई खुशखबरी
सुनाई है क्या?''
''नहीं।
कोई खुशखबरी नहीं सुनाई। पर देखो, आज के दिन भी बच्चों ने विश नहीं किया। बच्चों
को छोड़ो, तुमने भी कहाँ किया?''
''विश?''
प्रोफेसर साहब कुछ सोचने लगे।
''आज
हमारी शादी को पूरे चालीस साल हो गए।'' और उन्होंने गुड़ का टुकड़ा प्रोफेसर साहब के
मुँह में ठूंस दिया।
''अरे!
मैं तो भूल ही गया।'' उन्होंने भी पत्नी की हथेली पर से गुड़ का टुकड़ा उठाया और
उसके मुँह की ओर बढ़ाते हुए कहा, ''शादी की वर्षगांठ मुबारक हो शालिनी...''
''तुम्हें
भी!'' कहते हुए उनकी वृद्ध देह छुईमुई की तरह लज्जा गई।
बाज़ार
साहित्य-समीक्षा की जानी-मानी
पत्रिका 'आकलन' के संपादक ने तीन दिन पहले मृणालिनी शर्मा के दो सद्य: प्रकाशित
कहानी संग्रह उन्हें पहुँचाए थे। इस अनुरोध के साथ कि वे इन पर यथाशीघ्र एक
विस्तृत समीक्षा लिखकर भेज दें। पहले भी वे 'आकलन' के लिए लिखते रहे हैं।
एक
सप्ताह में उन्होंने दोनों पुस्तकें पढ़ डाली थीं। आज सुबह वह लिखने बैठ गए थे।
लगातार तीन घंटे जमकर लिखा। दस
पृष्ठों की लंबी समीक्षा पूरी करने के बाद एक गहरी नि:श्वास छोड़ी। कागज़-कलम मेज़ पर
रख दिए। कुर्सी की पीठ से कमर टिका आराम की मुद्रा में बैठ गए और धीमे-से
मुस्कराए।
अभी
भी उनके भीतर बहुत कुछ उमड़-घुमड़ रहा था जिसे वे रोक नहीं पाए - 'कल की लेखिका, अपने
आप को जाने समझती क्या है ? केवल दो किताबें आई थीं -एक कहानी संग्रह और एक उपन्यास
- और बन बैठी देश की जानी-मानी हिंदी पत्रिका की संपादिका। पिता राजनीति में
अच्छी-ख़ासी हैसियत रखते हैं इसीलिए न! संपादिका क्या बनी, आकाश में ही उड़ने लगी!
दूसरे को कुछ समझती ही नहीं। मिलने के लिए
दो बार उसके ऑफिस गया और दोनों ही बार अपमानित-सा होकर लौटा। अगली ने समय ही नहीं
दिया, चपरासी से कहलवा दिया कि बिजी हूँ मीटिंग में। जब-जब रचना प्रकाशनार्थ भेजी,
तीसरे दिन ही लौट आई। चलो, समीक्षा के बहाने ही सही, ऊँट आया तो पहाड़ के नीचे!'
फिर,
वे कुर्सी से उठ खड़े हुए। दो-चार कदम कमरे में इधर-उधर टहले, फिर कमर सीधी करने को
दीवान पर लेट गए। तभी फोन घनघना उठा। ''कौन ?'' चोगा कान से लगाकर उन्होंने पूछा।
''अखिल जी बोल रहे हैं ?'' दूसरी तरफ से
मिश्री-पगा स्त्री स्वर सुनाई पड़ा।
''जी हाँ।''
''जी, मैं मृणालिनी, एडीटर - साप्ताहिक भारत।
कैसे हैं आप ?''
''ठीक हूँ। कहिए...।''
''अखिल जी, केन्द्रीय भाषा अकादमी वालों का फोन
आया था। वे इस बार अपना वार्षिक सम्मेलन गोवा में आयोजित करने जा रहे हैं। विषय है
- समकालीन महिला हिंदी लेखन। तीन विद्वानों के परचे पढ़े जाने हैं। मुझसे परामर्श
ले रहे थे कि तीसरा पर्चा किससे लिखवाया जाए। आपने तो हिंदी आलोचना में बहुत काम
किया है। सो, मैंने उन्हें आपका नाम रिकमंड कर दिया है। वे आपसे जल्द ही सम्पर्क
करेंगे। इन्कार न कीजिएगा। बाई एअर लाने-ले जाने और पंचतारा होटल में ठहराने की
व्यवस्था के साथ-साथ अच्छा मानदेय भी मिलेगा। बस, आप सम्मेलन में पढ़ने के लिए
पर्चा तैयार कर लें।'' कुछ रुककर उधर से मनुहारभरी मीठी आवाज़ पुन: आई, ''और अखिल
जी, साप्ताहिक भारत के पाठकों के लिए अपनी कोई ताज़ा कहानी फोटो और परिचय के साथ
दीजिए न!''
उनकी
समझ में न आया कि क्या जवाब दें इस मनुहार का। ''ठीक है, आपने कहा है तो...'' इतना
ही वाक्य निकल पाया कंठ से।
''अच्छा अखिल जी, फिर बात होगी, अभी
कुछ जल्दी में हूँ। बाय...।''
फोन बंद हो चुका था। चोगा अपनी जगह
पर टिक चुका था, परन्तु मिश्री-पगी स्वर-लहरियाँ उनके कानों में अभी भी गूँज रही
थीं।
एकाएक वे उठे, अपनी राइटिंग-टेबुल तक पहुँचे, खड़े-खड़े
एक नज़र कुछ समय पहले लिखी समीक्षा पर डाली, कलम उठाई और कुर्सी खींचकर बैठ गए।
इन लघुकथाओं
की रचना प्रक्रिया
लेखक के अवचेतन में
बहुत सी बातें, घटनाएँ जमा होती रहती हैं। ऐसा बहुत कम होता है कि अवचेतन में बैठीं
ये बातें, घटनाएँ तुरत फुरत बाहर आ गई हों। अधिकांश तो अंदर ही अंदर पकती और अपना आकार
लेती रहती हैं। और एक दिन कागज पर उतरने के लिए छटपटाने लगती हैं। मेरे साथ दोनों ही
बातें होती रही हैं, कुछ रचनाएँ तुरत-फुरत भी कागज पर उतरी हैं और कुछ ने बरसों, महीनों
बाहर आने का नाम नहीं लिया। पिछले वर्ष यानि जून 2012 के बाद अक्टूबर 12 एकाएक आठ लघुकथाएँ
कागज पर एक के बाद एक उतरती चली गईं - ‘बारिश’,
‘लाजवंती’, ‘तकलीफ़’, ‘बाज़ार’, ‘जानवर’, ‘सेंध’, ‘बर्फ़ी’ और ‘नेक काम’। ये सब कागज पर उतरीं अवश्य, पर यह भी तय है कि इनकी धुंधली
छायायें मेरे जेहन में पिछले कई वर्षों से मंडरा रही थीं, तस्वीरें अधिक साफ़ नहीं थी।
कईबार सोचता हूँ कि शायद तस्वीरें तो पहले से ही मौजूद होती हैं, हम बस उन पर से गर्द-धूल
साफ़ करके उन तस्वीरों को बाहर लाते हैं। पर नहीं, ऐसा हमेशा नहीं होता, तस्वीरें हमें
बनानी भी होती हैं। वास्तविक यर्थाथ को जब हम रचनात्मक यर्थाथ में तब्दील करते हैं
तो बहुत कुछ छोड़ना होता है, और बहुत कुछ जोड़ना। यह छोड़ना-जोड़ना लेखक की दृष्टि पर निर्भर
करता है। अब मेरी लघुकथा ‘बारिश’ को ही लें। धुंधली–सी तस्वीर यह थी कि युवक-युवती
को प्रेम, रोमांस के लिए सहज और सस्ती जगह का उपलब्ध होना। मुझे दिल्ली के पार्कों
में, आसपास हाई-वे की कई निर्जन, एकांत जगहों पर दिन और रात के समय युगलों की प्रेम
क्रीड़ाएँ खूब देखने को मिलीं। अब भी मिल जाती हैं। इन्हीं के आसपास की छायायें मेरे
जेहन में थीं, उन छायाओं में से ही मुकम्मल चित्र बनाना था। मैंने जो पहले ड्राफ़्ट
में चित्र बनाया, वह वास्तविक यर्थाथ के बहुत करीब था। उसमें हाई वे पर बारिश से बचने
के लिए एक बूढ़ा अपनी झोपड़ी वहाँ से गुज़र रहे एक युवा युगल को दे देता है और स्वयं बाहर
तेज बारिश में भीगता रहता है। और अंत में, बारिश रुकने पर वह इसकी एवज में कुछ बख्शीश
के रूप में पाना चाहता है। लेकिन जब अपने मित्रों से सलाह की तो पाया कि नहीं, जो यर्थाथ
मैं अपने आसपास देख रहा हूँ, उसको हू-ब-हू पेश करना ही लेखक का काम नहीं है, उसे रचनात्मक
यर्थाथ में ढालने की कवायद भी मुझे करनी पड़ेगी, नहीं तो यह एक साधारण लघुकथा बनकर ही
रह जाएगी। और फिर, बारिश को जीने का, तन के साथ-साथ मन के भी भीगने का जो भाव जेहन
में आया, उसने वर्तमान ‘बारिश’ लघुकथा को जन्म दिया। यह ‘हंस’ में प्रकाशित हुई। इसी
तरह ‘लाजवंती’ लघुकथा के पीछे वर्तमान दौर में वृद्ध जीवन के बेहद एकाकी हो जाने की
पीड़ा उमड़-घुमड़ रही थी। कुछ भी साफ़ नहीं था कि कागज पर क्या उतर कर आएगा सिवाय उपरोक्त
भाव के। पर जब कागज पर यह लघुकथा उतरी तो अपने आप को जैसे इसने मुझसे लिखवा लिया। मैं
खुद नहीं जानता था कि कागज पर उतरने के बाद इसका क्या रूप होगा। मेरे साथ ऐसा बहुत
बार हुआ है, बहुत-सी रचनाएं अपने आप को लेखक से लिखवा लेती हैं। यह लघुकथा ‘हरिगंधा’
में प्रकाशित हुई। तीसरी लघुकथा ‘बाज़ार’ को लेकर स्थितियाँ इतनी धुंधली नहीं थीं। बहुत
कुछ साहित्य में बाज़ार के रूप में देखने को मिल रहा है, जो एक ईमानदान सृजनकर्मी को
पीड़ा देता है। उसी को अपने ढंग से लघुकथा में अभिव्यक्ति देने की छटपटाहट बहुत दिनों
से मन में थी और जिस रूप में यह अपने पहले ड्राफ़्ट में कागज पर उतरी, उसमें अधिक छेड़छाड़
की गुंजाइश नहीं मिली। यह लघुकथा ‘कथादेश’ में प्रकाशित हुई।
संपर्क
सुभाष नीरव : मो. 09810534373
-0-0-0-
मधुदीप की तीन लघुकथाएं
समय का पहिया
घूम रहा है
शहर का प्रसिद्ध टैगोर थियेटर
खचाखच भरा हुआ है | जिन दर्शकों को सीट नहीं मिली है वे दीवारों से चिपके खड़े हैं
| रंगमंच के पितामह कहे जानेवाले नीलाम्बर दत्त आज अपनी अन्तिम प्रस्तुति देने जा रहे हैं |
हॉल की रोशनी धीरे-धीरे बुझ रही
है, रंगमंच का पर्दा उठ रहा है |
दृश्य : एक
तेज रोशनी के बीच मंच पर मुगल
दरबार सजा है | शहंशाहे आलम जहाँगीर अपने पूरे रौब से ऊँचे तख्तेशाही पर विराजमान
हैं | नीचे दोनों तरफ दरबारी बैठे हैं | एक फिरंगी अपने दोनों हाथ पीछे बाँधे, सिर
झुकाये खड़ा है | उसने शहंशाहे हिन्द से ईस्ट इंडिया कम्पनी को सूरत में तिजारत
करने और फैक्ट्री लगाने की इजाजत देने की गुजारिश की है | दरबारियों में
सलाह-मशविरा चल रहा है |
“इजाजत है...” बादशाह सलामत की
भारी आवाज के साथ दरबार बर्खास्त हो जाता है |
मंच की रोशनी बुझ रही है...हॉल की
रोशनी जल रही है |
दृश्य : दो
मंच पर फैलती रोशनी में जेल की
कोठरी का दृश्य उभर रहा है | भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जमीन पर आलथी-पालथी मारे
बैठे गम्भीर चिन्तन में लीन हैं | जेल का अधिकारी अन्दर प्रवेश करता है |
“भगत सिंह ! तुम जानते हो कि आज
तुम तीनों को फाँसी दी जानी है | सरकार तुम्हारी आखिरी इच्छा जानना चाहती है |”
“हम भारत को आजाद देखना चाहते हैं
| इन्कलाब जिन्दाबाद...” तीनों का समवेत स्वर कोठरी की दीवारों से टकराकर गूँज उठा
है |
रोशनी बुझ रही है, पर्दा गिर रहा
है |
दृश्य : तीन
धीरे-धीरे उभरती रोशनी से मंच का
अँधेरा कम होता जा रहा है | दर्शकों के सामने लालकिले की प्राचीर का दृश्य है |
यूनियन जैक नीचे उतर रहा है, तिरंगा ऊपर चढ़ रहा है |
लालकिले की प्राचीर पर पड़ रही
रोशनी बुझ रही है | मंच के दूसरे भाग में रोशनी का दायरा फैल रहा है | सुबह का
दृश्य है | प्रभात की किरणों के साथ गली-कूँचों में लोग एक-दूसरे से गले मिल रहे
हैं...मिठाइयाँ बाँट रहे हैं...आजादी का जश्न मना रहे हैं |
मंच का पर्दा धीरे-धीरे गिर रहा
है |
दृश्य : चार
तेज रोशनी के बीच मंच पर देश की संसद का दृश्य उपस्थित है | सत्तापक्ष और
विपक्ष के बीच एक अहम मुद्दे पर तीखी बहस हो रही है |
“देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने
के लिये हमें खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी-निवेश को इजाजत देनी ही होगी...”
सत्तापक्ष का तर्क है |
“यह हमारी स्वदेशी अर्थव्यवस्था
को नष्ट करने की साजिश है...” विपक्ष जोरदार खण्डन कर रहा है |
सभी सदस्य अपनी-अपनी मेज पर लगे
बटन को दबाकर अपना मत दे चुके हैं | लोकसभा अध्यक्ष द्वारा परिणाम घोषित किये जाने
की प्रतीक्षा है |
“सरकार का प्रस्ताव बहुमत से
स्वीकार हो गया है...” लोकसभा अध्यक्ष की महीन आवाज के साथ ही मंच अँधेरे में डूब
जाता है |
रोशनी में नहाया हॉल स्तब्ध है |
दर्शक ताली बजाना भूल गये हैं |
एकतंत्र
राजपथ के चौराहे पर अपार भीड़ जमा
है . सभी के हाथ में अपने-अपने डंडे हैं और उनपर अपने-अपने झंडे हैं . लाल रंग,
हरा रंग, नीला रंग, भगवा रंग और कुछ तो दो-दो, तीन-तीन तथा चार-चार रंग के झंडे भी
हैं . भीड़ में सभी अपने झंडे को सबसे ऊपर लहराना चाह रहे हैं .
पिछले एक महीने से ये सभी झंडे
शहर की प्रमुख सड़कों पर मार्च-पास्ट करते हुए देखे जाते रहे थे . अजीब-सा कोलाहल
और छटपटाहट शहर की हवाओं में फैली रही थी . कोई झंडा दूसरे झंडे से ऊँचा न उठ जाए,
इस पर सभी पक्ष बेहद सचेत और चौकस थे . आखिर माराकाटी प्रतियोगिता के बाद यह फैसला
लाकरनुमा सुरक्षित कमरों में बंद कर दिया गया था कि कौनसा झंडा सबसे ऊँचा लहराएगा .
दो दिन की मरघटी नीरवता के बाद आज
कोलाहल फिर हवाओं में तैरने लगा है . लाकरनुमा कमरों में बंद परिणाम आज राजपथ पर
उद्घोषित किया जा रहा है . प्रत्येक उद्घोषणा के बाद डंडों और झंडों का रंग बदलता
जा रहा है . कभी लाल ऊपर तो कभी नीला . कभी भगवा तो कभी हरा . कहीं कोई स्थिरता या
ठहराव नहीं है .पल-प्रतिपल धुकधुकाहट बढ़ती जा रही है . झंडों का ऊपर-नीचे होना
निरन्तर जारी है .
दोपहर बीतते-बीतते भीड़ का लगभग
आधा हिस्सा अपने-अपने झंडे-डंडे लेकर राजपथ से वापिस लौट गया है . उन्होंने मान
लिया है कि वे अपना झंडा और अधिक नहीं फहरा सकते .
भीड़ थोड़ी छंटी अवश्य है लेकिन शोर
अभी थम नहीं रहा है . कोई भी एक झंडा पूरी ताकत से ऊपर नहीं पहुँच पा रहा रहा है .
बेचैनी और अकुलाहट बढ़ती जा रही है . अनेक रंगों के झंडे अभी भी हवा में लहरा रहे
हैं .
राजपथ पर अब शाम उतर चुकी है .
हल्का-सा धुंधलका भी छाने लगा है . चारों दिशाओं में फैला कोलाहल एकाएक शान्त हो
गया है . एक विचित्र-सा षड्यंत्री सन्नाटा फैलने लगा है .
एक अध-बूढ़ा व्यक्ति अपनी हथेली को
माथे पर टिकाए उस सन्नाटे में दूर तक देखने की कोशिश कर रहा है ----- झंडों के रंग
एक-दूसरे में गडमड होते जा रहे हैं . वह उन रंगों को अलग-अलग पहचानने का भरसक
प्रयास कर रहा है मगर अब उसे वे सारे झंडे एक ही रंग के नजर आ रहे हैं . स्याह
काले रंग ने सभी रंगों को अपने में सोख लिया है .
अध-बूढ़ा व्यक्ति जनपथ से राजपथ को
जोड़नेवाले चौराहे पर घबराया-सा खड़ा सोच रहा है, “यह कैसे हो सकता है ? कहीं उसकी
आँखों की रोशनी तो नहीं चली गई है !”
अबाउट टर्न
अक्तूबर का अन्त है . शहर पर
गुलाबी ठण्ड पसरने लगी है . सुबह के नौ बज चुके हैं . पार्क में सुबह घूमने
आनेवालों की भीड़ छँट चुकी है .
रामप्रसादजी एक बेंच पर गुमसुम
बेठे हैं . उनके सभी साथी जा चुके हैं मगर उनका मन घर जाने का नहीं है . घर पर कौन
उनकी प्रतीक्षा कर रहा है ! दो वर्ष पहले जब वे सेवामुक्त हुए तो कैंसर से पीड़ित
उनकी पत्नी भी साथ छोड़ गई .बेटा है, बहू है मगर वे दोनों नौकरी पर चले जाते हैं.
वे सारा दिन अपनी ‘स्टडी’ में किताबों में गुम बैठे रहते हैं .
‘ ढम...ढम...’ सामने मिलट्री
ग्राउंड में हो रही सैनिकों की परेड में बज रही ड्रम की आवाज उनके सिर पर हथौड़े की
तरह बज उठती है .
“बात मदद करने की नहीं है, बल्कि
सच यह है कि आप हमारा अधिकार उस महरी को देना चाहते हैं ...” बेटा यहीं पर नहीं
रुका था, “ आप महरी से जुड़ते जा रहे हैं ,,,”
आगे कुछ नहीं सुन सके थे वे, सन्न
रह गए थे .
बात कुछ भी नहीं थी मगर तूल पकड़ती
चली गई थी . वे घर की महरी की लड़की की शादी में कुछ आर्थिक मदद करना चाह रहे थे
मगर बेटे की नजर में उन्हें इसका कोई अधिकार नहीं था . वे समझ नहीं पाए थे कि उनका
बेटा उनपर ऐसा घटिया लांछन क्यों और कैसे
लगा गया ! क्या उन्हें खुद की कमाई इस दौलत में से अपनी मर्जी से कुछ भी खर्च करने
का अधिकार नहीं है ?
सूरज थोड़ा और ऊपर आ गया है . तपिश
भी बढ़ने लगी है .
‘अबाउट टर्न...’ सामने मिलट्री
ग्राउंड में सेनानायक की तेज आवाज गूँज उठी है .
वे उठे और उनके पाँव पार्क से
निकलकर ‘अनुभव घर’ वृद्धाश्रम की ओर मुड़ गये .
इन लघुकथाओं की रचना-प्रक्रिया
अपनी
लघुकथाओं पर कुछ भी लिखना मेरे लिए हमेशा ही उलझनभरा रहा है; मगर संपादक-मित्र का आग्रह
सिर-माथे पर रख मैं इन तीनों लघुकथाओं की रचना-प्रक्रिया पर कुछ लिख रहा हूँ।
'समय
का पहिया घूम रहा है' मेरे मस्तिष्क में तब से दस्तक देती रही है जब खुदरा व्यापार
में विदेशी पूँजी निवेश का बिल संसद में पास हो रहा था। मैंने इसे मुगल बादशाह जहाँगीर
द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में व्यापार करने की अदूरदर्शी इजाजत देने के परिप्रेक्ष्य
में देखा है। इसमें मैंने बिल्कुल नये शिल्प का प्रयोग करते हुए पूरे चार सौ वर्ष के
इस्तिहास को समेटा है। इसे अद्भुत लघुकथा मानकर मैं स्वयं ही आत्ममुग्ध भी हूँ, बाकी
सही निर्णय तो पाठक ही करेंगे।
'एकतन्त्र'
के माध्यम से मैंने सांझा सरकारों की परतें खोलने का प्रयास किया है। यह लघुकथा पूरी
तरह प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से अपनी बात पाठकों तक पहुँचाती है। मैं सांझा सरकारों
को देश के राजनीतिक और कूटनीतिक विकास के लिए घातक तथा वोटर के विश्वास के साथ ठगी
मानता हूँ। सांझा सरकारें ब्लैक मेलिंग और लूट का कारण बनती जा रही हैं। जब किसी दल
की विशेष नीतियों के कारण वोटर उस दल को वोट देता है और वह दल उसके धुर-विरोधी दल का
समर्थन करने लगता है तो वह ठगा रह जाता है। आज 'एकतन्त्र' भारतीय जनतन्त्र की सचाई
बन गया है।
'अबाउट
टर्न' बिल्कुल अलग विचार की लघुकथा है। अप्रैल 2010 में सेवानिवृत्ति के बाद एक सुबह
मैं पार्क में बैठा था और वहीं पर मैंने एक बुजुर्ग की आपबीती सुनी जो तीन वर्ष तक
मेरे मस्तिष्क को मथती रही। आखिर मैं भी तो उस दौर में प्रवेश कर चुका था। सच तो यह
है कि इस लघुकथा में मात्र शब्द ही मेरे हैं, व्यथा तो उस बुजुर्ग की ही है। मैं इस
पर अधिक न कहकर इसे पाठकों का दिमाग मथने के लिए छोड़ रहा हूँ।
लिखना
मेरे लिए हमेशा ही अपने विचारों और मान्यताओं को पाठकों के समक्ष रखने का माध्यम रहा
है। सहमति अथवा असहमति पाठकों-आलोचकों पर निर्भर करती है; मगर इससे मेरी अपनी घुटन
तो अवश्य ही कम हो जाती है।
संपर्क मधुदीप – मो. नं. 09312400709
-0-0-0-
