सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

वातायन - अक्टूबर, २०१०





3 अक्टूबर , 2010 के जनसत्ता में प्रकाशित वरिष्ठ कवि-पत्रकार राजेन्द्र उपाध्याय के आलेख - ‘हड़बड़ी में गड़बड़ी’’ पढ़कर पुराने दिनों की याद ताजा हो गयी । बात 1983 के प्रारंभिक दिनों की है । नवंबर, 1982 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा जी के निवास में मेरे संयोजन में एक सफल बालसाहित्य कार्यक्रम का आयोजन हुआ था । उससे मैं अत्यंत उत्साहित था । एक दिन दिल्ली के एक वरिष्ठ बालसाहित्यकार ने, जो एक बाल पत्रिका में कार्यरत थे, मेरे सामने एक योजना प्रस्तुत की। योजना आकर्षक थी ।
‘‘क्यों न हमलोग साहित्य अकादमी जैसी एक ‘केन्द्रीय बालसाहित्य अकादमी ’ स्थापित करें ।’’ उन्होंने कहा ।
मैं जानता था कि यह एक कठिन कार्य था, लेकिन उत्साह था । बालसाहित्य अकादमी कैसे स्थापित हो इस पर हमने घण्टों विचार किया । एक दिन जामा मस्जिद के सामने के सुभाष पार्क में कई घण्टे हम उसके प्रारूप पर चर्चा करते रहे और यह तय कर लिया कि कौन सचिव होगा और कौन अध्यक्ष । कितने और कितनी राशि के पुरस्कार दिए जाएगें और पुरस्कारों के निर्णय कैसे होगें । सरकार से किस प्रकार सहायता प्राप्त की जाएगी । लेकिन हस्र हमें पहले से ही ज्ञात था और सुभाष पार्क की बैठक के बाद न ही हम दोनों मिले और न ही फोन पर उस पर चर्चा की । बात आई गई हो गयी । लेकिन यह चर्चा कभी समाप्त नहीं हुई कि बाल साहित्यकारों के लिए साहित्य अकादमी जैसी कोई केन्द्रीय अकादमी अवश्य होनी चाहिए । पिछले दिनों जब यह सुना कि साहित्य अकादमी ने अब बाल साहित्य के लिए भी पुरस्कार देने का निर्णय किया है तब अच्छा लगा था । लेकिन राजेन्द्र उपाध्याय के आलेख ने इस पर जो प्रश्नचिन्ह लगाए हैं वे गंभीर और विचारणीय हैं । अपनी ओर से इस विषय में कुछ न कहकर मैं उस आलेख को वातायन के ‘हम और हमारा समय’ के अंतर्गत पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं ।
इसके अतिरिक्त इस अंक में प्रस्तुत है स्व. कन्हैयालाल नन्दन पर मेरा संस्मरण और बलराम अग्रवाल की कहानी ।
अंक पर आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी ।
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हम और हमारा समय

हड़बड़ी में गड़बड़ी

राजेन्द्र उपाध्याय

साहित्य अकादेमी ने पिछले दिनों अचानक बाल साहित्य की सुध ली । ताबड़तोड़ कई भाषाओं में बाल साहित्यकारों को पचास-पचास हजार के पुरस्कार देने शुरू कर दिए । जैसे ही पुरस्कार की योजना घोषित हुई - इसके लिए बंदरबांट, जोड़तोड़ शुरू हो गई । गुरु लोग अपने-अपने चेलों को पुरस्कृत करने के राष्ट्रव्यापी अभियान में लग गए । किसी अखबार में कोई सूचना नहीं, विज्ञप्ति नहीं कि अकादेमी ने बाल साहित्य के लिए पुरस्कार देने की योजना बनाई है । किसी को पता नहीं, किसी ने किताब भेजी नहीं । जिसको देना था उससे कह दिया कि किताब ‘सबमिट’ कर दो और ताबड़तोड़ तीन लोगों की समिति बना कर पुरस्कार दे दिए । जंगल में मोर नाचा किसने देखा ? किसी ने नहीं । असली हकदार को देना न पड़े इसलिए उनको निर्णायक बना दिया । जिसको देना है, उसको देने में पूरी सावधानी से शतरंज की गोटियां बिछा कर दे दिया ।
लबोलुआब यह कि बाल साहित्य के लिए भी वैसे ही गोटियां बिछाई गईं जैसे बड़ों के साहित्य के लिए बिछाई जाती हैं । वही प्रक्रिया अपनाई गई । तीन विद्वान किसी एक को चुन लेंगे । हिंदी का पहला बाल साहित्य का पुरस्कार साहित्य अकादेमी देने जा रही थी , उसे इस तरह स्कूली निबंध प्रतियोगिता की तरह निपटाना था ! राष्ट्रव्यापी बहस चलाई जाती । कौन बाल साहित्यकार अच्छा है , कौन नहीं । अखिल भारतीय बाल साहित्य परिषदें लगभग हर प्रदेष में हैं , उनसे पूछा जाता । उनसे सम्मति ली जाती । मतदान जैसा भी कुछ किया जा सकता था । राष्ट्रपति से मिल कर जो लोग राष्ट्रीय बाल साहित्य अकादेमी बनाने की बात कर चुके हैं उनसे भी कुछ सलाह-मशविरा किया जाता । सबको नाराज करके किसी एक को खुश करने की पहल साहित्य अकादेमी ने इस बार भी की और नतीजा अटपटा ही निकला ।
क्या बाल साहित्य के क्षेत्र में भी हम उपेक्षितों को उसी तरह गिनाते रहेंगे जैसे बड़ों के साहित्य में गिनाते हैं । श्रीप्रसाद हैं -- काशी में, न जाने कब से बच्चों के लिए कविताएं लिख रहे हैं । और कुछ कभी लिखा नहीं । बाल साहित्य के लिए जीवन खपा दिया । वे जोड़तोड़ नहीं करते, राजनीति नहीं करते । नारायणलाल परमार, निरंकारदेव सेवक, दामोदर अग्रवाल , रमेशचन्द्र पंत, उदय कैरोला, हरिकृष्ण देवसरे, राष्ट्रबंधु , कृष्ण शलभ ने अपना पूरा जीवन बालसाहित्य की क्या कम सेवा की है । कन्हैयालाल नंदन बच्चों के चाचा बरसों रहे । बच्चों की पत्रिका ‘पराग’ निकालते थे । कई महिलाएं हैं, जिन्होंने केवल बालसाहित्य लिखा और लिख रही हैं । प्रभा पंत, सरस्वती बाली, बानो सरताज, शशि शुक्ला । छोटे-छोटे कस्बों में रह कर लोग बच्चों के लिए बड़ी अच्छी कविताएं-कहानियां लिख रहे हैं । सतना, जबलपुर, भोपाल, विदिशा में लोग बैठे हैं , सहारनपुर, जालंधर में हैं । श्रीकृष्ण शलभ ने हिन्दी के एक सौ एक कवियों का पूरा सागर ही एक गागर में भर दिया है । अपने जी.पी.एफ. से पैसे निकाल कर छपवाया है । उनको पुरस्कार दे देते तो कुछ आर्थिक मदद भी हो जाती । रमेशचंद शाह ने बच्चों के लिए काफी लिखा है । रमेश थानवी हैं । प्रयाग शुक्ल, बालशौर रेड्डी , दिविक रमेश हकदार थे , इन्हें नहीं देना था तो निर्णायक बना दिया । दो कौड़ी की किताबें इनको भिजवा दीं । बाजी मारी प्रकाश मनु ने । हाल ही में ‘नंदन’ से सेवानिवृत्त हुए हैं । उनका ‘एक था ठुनठुनिया’ पुरस्कृत उपन्यास कितनों ने पढ़ा है और कहां से छपा है कौन जानता है ?
पहला पुरस्कार था तो ढंग की किताबें मंगवाते । किताब पर न देकर समग्र योगदान पर हिन्दी बाल साहित्य का पुरस्कार श्रीप्रसाद , शेरजंग गर्ग या राष्ट्रबंधु को देते । बनारस से लेकर भुवनेश्वर तक, लखनऊ से लेकर दूर-दूर उत्तराखंड के पहाड़ों तक, दक्षिण में भी लोग हैं, साहित्य की अलख जगाए हुए हैं -- सबको आपने दरकिनार कर दिया और बाल साहित्य का भला करने चले हैं । ऐसे तो और वैमनस्य पैदा होगा ।
बांग्ला में कई चोटी के बाल साहित्यकार हैं । वहां तो तब तक किसी को साहित्यकार नहीं माना जाता, जब तक वह बच्चों के लिए नहीं लिखता । हिन्दी में बाल साहित्य लिखना बच्चों का काम है । छपाक-छपाक, ठमाक-ठमाक करने वाले की हंसी उड़ाई जाती है । हिन्दी में सींग कटा कर बछड़ों में शामिल होने वाले कई स्वनामधन्य लेखक हैं । जिसे बड़ों के लिए लिखना चाहिए वह बच्चों के लिए लिख रहा है, जिसे बच्चों के लिए लिखना चाहिए वह बड़ों के लिए लिख रहा है ।
इस बार अकादेमी ने असमिया में गगनचंद्र अधिकारी और बांग्ला में सरल दे को बाल साहित्य में समग्र अवदान के लिए सम्मानित किया है तो हिन्दी में ऐसा क्यों नहीं किया गया ? क्या हिन्दी में कोई साहित्यकार समग्र अवदान के लायक नहीं-- बल्कि कई दावेदार हैं । गुजराती, कश्मीरी, मणिपुरी और संस्कृत के पुरस्कार बाद में घोषित किए जाएंगे तो हिन्दी में ही ऐसी कौन-सी जल्दी थी ।
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(राजेन्द्र उपाध्याय आका”ावाणी , नई दिल्ली में वरिष्ठ सम्पादक हैं)
(जनसत्ता से साभार)

संस्मरण



संस्मरण

प्रखर प्रतिभा के धनी थे नन्दन जी

रूपसिंह चन्देल

आठवें दशक के मध्य की बात है । धर्मयुग के किसी अंक में हृदयखेड़ा के एक सज्जन पर केन्द्रित रेखाचित्र प्रकाशित हुआ । हृदयखेड़ा मेरे गांव से तीन मील की दूरी पर दक्षिण की ओर पाण्डुनदी किनारे बसा गांव है, जहां मेरी छोटी बहन का विवाह 1967 में हुआ था । वर्ष में दो-तीन बार वहां जाना होता । रेखाचित्र जिसके विषय में था उन्हें मैं नहीं जानता था, लेकिन उसके लेखक के नाम से परिचित था । वह धर्मयुग के सहायक सम्पादक कन्हैंयालाल नन्दन थे । तब नन्दन जी के नाम से ही परिचित था, लेकिन उस रेखाचित्र ने मुझे इतना प्रभावित किया कि उसने नन्दन जी के प्रति मेरी उत्सुकता बढ़ा दी । मैंने बहनोई से पूछा । उन्होंने इतना ही बताया कि नन्दन जी उनके पड़ोसी गांव परसदेपुर के रहने वाले हैं । परसदेपुर का हृदयखेड़ा से फासला मात्र एक फर्लागं है । कितनी ही बार मैं उस गांव के बीच से होकर गुजर चुका था । मेरे गांव से उसकी दूरी भी तीन मील है.......बीच में करबिगवां रेलवे स्टेशन ...... यानी रेलवे लाइन के उत्तर मेरा गांव और दक्षिण परसदेपुर ।
इस जानकारी ने कि नन्दन जी मेरे पड़ोसी गांव के हैं उनके बारे में अधिक जानने की इच्छा उत्पन्न कर दी । उन दिनों मैं मुरादनगर में था और साहित्य से मेरा रिश्ता धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बनी और सारिका आदि कुछ पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने तक ही सीमित था । मैंने नन्दन जी के बारे में अपने भाई साहब से पूछा ।
‘‘तुम नहीं जानते ?’’ उनके प्रश्न से मैं अचकचा गया था । चुप रहा ।
‘‘रामावतार चेतन के बहनोई हैं । मुम्बई में रहते हैं .... परसदेपुर में सोनेलाल शुक्ल के पड़ोसी हैं ।’’ और वह करबिगवां स्टेशन में कभी हुई नन्दन जी से अपनी मुलाकात का जिक्र करने लगे ।
मैं अपनी अनभिज्ञता पर चुप ही रहा । सोनेलाल शुक्ल से कई बार मिला था, क्योंकि वह मेरे गांव आते रहते थे । मेरे पड़ोसी कृष्णकुमार त्रिवेदी उनके मामा थे और चेतन जी की कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ता रहा था ।
हिन्दी साहित्य की दो हस्तियां मेरे पड़ोसी गांव की थीं, इससे मैं गर्वित हुआ था ।
नन्दन जी से यह पहला परिचिय इतना आकर्षक था कि मैं उनसे मिलने के विषय में सोचने लगा, लेकिन यह संभव न था । कई वर्ष बीत गए । एक दिन ज्ञात हुआ कि नन्दन जी ‘सारिका’ के सम्पादक होकर दिल्ली आ गए हैं, लेकिन मित्रों ने उनकी व्यस्तता और महत्व का जो खाका खींचा उसने मुझे हतोत्साहित किया । मैं उनसे मिलने जाने की सोचता तो रहा, लेकिन कुछ तय नहीं कर पाया । तभी एक दिन एक मित्र ने बताया कि नन्दन जी मुरादगर आए थे.....कुछ दिन पहले ।
‘‘किसलिए ?’’
‘‘हमने काव्य गोष्ठी की थी उसकी अध्यक्षता के लिए ।’’
‘‘और मुझे सूचित नहीं किया !’’
मित्र चुप रहे । शायद मुझे सूचित न करने का उन्हें खेद हो रहा था ।
‘‘मैं मिलना चाहता था ।’’ मैंने शिथिल स्वर में कहा ।
‘‘इसमें मुश्किल क्या है ! कभी भी उनके घर-दफ्तर में जाकर मिल लो । बहुत ही आत्मीय व्यक्ति हैं । मैं दो बार उनसे उनके घर मिला हूं .....।’’
मित्र से नन्दन जी के घर का फोन नम्बर और पता लेने के बाद भी महीनों बीत गए । मैं नन्दन जी से मिलने जाने के विषय में सोचता ही रहा ।
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अंततः अप्रैल 1979 के प्रथम सप्ताह मैंने एक दिन आर्डनैंस फैक्ट्री के टेलीफोन एक्सचैंज से नन्दन जी को फोन किया । अपना परिचय दिया और मिलने की इच्छा प्रकट की ।
‘‘किसी भी रविवार आ जाओ ।’’ धीर-गंभीर आवाज कानों से टकराई ।
‘‘इसी रविवार दस बजे तक मैं आपके यहां पहुंच जाऊंगा ।’’ मैंने कहा ।
‘‘ठीक है ....आइए ।’’
नन्दन जी उन दिनों जंगपुरा (शायद एच ब्लाक) में रहते थे । मैं ठीक समय पर उनके यहां पहुंचा । पायजामा पर सिल्क के क्रीम कलर कुर्ते पर उनका व्यक्तित्व भव्य और आकर्षक था । सब कुछ बहुत ही साफ-सुथरा ....आभिजात्य । नन्दन जी सोफे पर मेरे बगल में बैठे और भाभी जी हमारे सामने । हम चार धण्टों तक अबाध बातें करते रहे । तब तक किसी बड़े साहित्यकार-पत्रकार से मेरी पहली ही मुलाकात इतने लंबे समय तक नहीं हुई थी । गांव से लेकर शिक्षा , प्राध्यापकी, पत्रकारिता, साहित्य आदि पर नन्दन जी अपने विषय में बताते रहे । शायद ही कोई विषय ऐसा था जिस पर हमने चर्चा न की थी । जब उन्होंने बताया कि उन्होंने ‘भास्करानंद इण्टर कालेज नरवल’ से हाईस्कूल किया था तब मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा था । मैंने उन्हें बताया कि मैंने भी उसी कालेज से हाईस्कूल किया था ।
बीच-बीच में नन्दन जी फोन सुनने के लिए उठ जाते, लेकिन उसके बाद फिर उसी स्थान पर आ बैठते । बीच में एक बार लगभग आध घण्टा के लिए वह चले गए तब भाभी जी से मैं बातें करता रहा, जिन्हें दिल्ली रास नहीं आ रहा था । वह मुम्बई की प्रशंसा कर रही थीं, जहां लड़कियां दिल्ली की अपेक्षा अधिक सुरक्षित अनुभव करती थीं ।
उस दिन की उस लंबी मुलाकात की स्मृतियां आज भी अक्ष्क्षुण हैं ।
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यह वह दौर था जब मैं कविता में असफल होने के बाद कहानी पर ध्यान केन्द्रित कर रहा था । मेरी पहली कहानी मार्क्सवादी अखबार ‘जनयुग’ ने प्रकाशित की, और लिखने और प्रकाशित होने का सिलसिला शुरू हो गया था । एक कहानी ‘सारिका’ को भेजी और कई महीनों की प्रतीक्षा के बाद सारिका कार्यालय जाने का निर्णय किया । तब तक मैं दिल्ली शिफ्ट हो चुका था ।
मिलने के लिए चपरासी से नन्दन जी के पास चिट भेजवाई । तब सारिका के सम्पादकीय विभाग के किसी व्यक्ति से मेरा परिचय नहीं था , इसलिए चपरासी के बगल की कुर्सी पर बैठकर प्रतीक्षा करने लगा । दस मिनट की प्रतीक्षा के बाद नन्दन जी ने मुझे बुलाया । कंधे पर लटकते थैले को गोद पर रख मैं उनके सामने किसी मगही देहाती की भांति बैठ गया ।
‘‘कहें ?’’ फाइलों पर कुछ पढ़ते हुए नन्दन जी ने पूछा ।
‘‘यूं ही दर्शन करने आ गया । ’’ मेरी हर बात पर देहातीपन प्रकट हो रहा था , जिसे नन्दन जी ने कब का अलविदा कह दिया था .... शायद गांव से निकलते ही ।
‘‘हुंह ।’’ उस दिन मेरे सामने बैठे नन्दन जी घर वाले नन्दन जी न थे । हर बात का बहुत ही संक्षिप्त उत्तर ....और कभी-कभी वह भी नहीं । लगभग पूरे समय फाइल में चेहरा गड़ाए वह कुछ पढ़ते-लिखते रहे । मेरे लिए चाय मंगवा दी और ,‘‘ मैंने अभी-अभी पी है ’’ मुस्कराते हुए उन्होंने कहा, ‘‘आप पियें ...तब तक मैं कुछ काम कर लूं ।’’ वह फाइल में खो गए थे ।
इसी दौरान अवधनारायण मुद्गल वहां आए । नन्दन जी से उन्होंने कुछ डिस्कस किया और उल्टे पांव लौट गए । नन्दन जी के संबोधन से ही मैंने जाना था कि वह मुद्गल जी थे ।
मैंने उठने से पहले अपनी कहानी की चर्चा की ।
‘‘देखूंगा....।’’ फिर चुप्पी ।
‘अब मुझे उठ जाना चाहिए ।’ मैंने सोचा और ‘‘अच्छा भाई साहब ।’’ खड़े हो मैंने हाथ जोड़ दिए ।
नन्दन जी ने चेहरा उठा चश्मे के पीछे से एक नजर मुझ पर डाली, मुस्कराए, ‘‘ओ.के. डियर ।’’
सारिका को भेजी कहानी पन्द्रह दिनों बाद लौट आयी और उसके बाद मैंने वहां कहानी न भेजने का निर्णय किया । इसका एक ही कारण था कि मैं दोबारा कभी किसी कहानी के विषय में नन्दन जी से पूछने से बचना चाहता था और वहां हालात यह थे कि परिचितों की रचनाएं देते ही प्रकाशित हो जाती थीं, जबकि कितने ही लेखकों को उनकी रचनाओं पर वर्षों बाद निर्णय प्राप्त होते थे । एक बार रचनाओं के ढेर में वे दबतीं तो किसे होश कि उसे खंगाले । नन्दन जी तक रचना पहुंचती भी न थी ।
और नन्दन जी के कार्यकाल में मैंने कोई कहानी सारिका में नहीं भेजी । सारिका में जो एक मात्र मेरी कहानी प्रकाशित हुई वह ‘पापी’ थी, जिसे मुद्गल जी ने उपन्यासिका के रूप में मई,1990 में प्रकाशित किया और इस कहानी की भी एक रोचक कहानी है, जो कभी बाद में लिखी जाएगी ।
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फरवरी 1983 या 1984 की बात है । कानपुर की संस्था ‘बाल कल्याण संस्थान’ ने उस वर्ष बालसाहित्य पुरस्कार का निर्णायक नन्दन पत्रिका के सम्पादक जयप्रकाश भारती को बनाया था। 1982 से उन्होंने मुझे संस्थान का संयोजक बना रखा था । प्रधानमंत्री इंदिरा जी के निवास में 19.11.1982 को अपने संयोजन में मैं संस्थान का एक सफल आयोजन कर चुका था और केवल उसी कार्यक्रम का संयोजक था , लेकिन संस्थान दिल्ली से जुड़े मामलों का कार्यभार ‘‘मैं संस्था का संयोजक हूं...इसे संभालूं’’ कहकर मुझे सौंप देता ।
उस अवसर पर भी दिल्ली के साहित्यकारों से संपर्क करना, एकाध के लिए रेल टिकट खरीदना आदि कार्य मुझे करने पड़े । जयप्रकाश भारती ने पुरस्कार के लिए जिन लोगों को चुना वे उनके निकटतम व्यक्ति थे, लेकिन सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह कि संस्थान के बड़े पुरस्कार के लिए उन्होंने हिन्दुस्तान टाइम्स समूह में कार्यरत अपनी परिचिता महिला पत्रकार का चयन किया । यह पुरस्कार बहुत विवादित रहा था । उस महिला और भारती जी को लेकर अनेक प्रकार की कुचर्चां थी (आज दोंनो ही जीवित नहीं इसलिए उसपर बस इतनी ही ), लेकिन जिस बात के लिए मैंने इस प्रसंग की चर्चा की वह नन्दन जी से जुड़ी हुई है ।
कार्यक्रम कानपुर के चैम्बर आफ कामर्स में था । नन्दन जी कालका मेल से ठीक समय पर वहां पहुंचे । अध्यक्षता की और जब वह अध्यक्षीय भाषण दे रहे थे तब उन्होंने कहा ,‘‘ मैं जयप्रकाष भारती जी को संस्थान द्वारा उनकी पत्नी को पुरस्कृत किए जाने के लिए बधाई देता हूं ।’’
भारती जी और उनके द्वारा चयनित पत्रकार-बालसाहित्यकार मंच पर ही थे । मैं भी मंच पर नन्दन जी के बगल में बैठा था । नन्दन जी के यह कहते ही भारती जी का चेहरा फक पड़ गया और उस पत्रकार , जो अपनी संगमरमरी शरीर और सौन्दर्य के लिए आकर्षण का केन्द्र थीं, ने नन्दन जी की ओर फुसफुसाते हुए कहा , ‘‘आपने यह क्या कहा ?’’
भारती जी भी कुछ बुदबुदाए थे, जो किसी ने नहीं सुना था, क्योंकि दर्शक-श्रोता तो नहीं, लेकिन उपस्थित साहित्यकारों के ठहाकों में उनकी आवाज दब गई थी ।
नन्दन जी प्रत्युत्पन्नमति व्यक्ति थे । तुरंत बोले, ‘‘मेरा आभिप्राय भारती जी की पत्नी स्नेहलता अग्रवाल जी से है ... जिन्हें कुछ दिन पहले एक संस्थान ने ...’’ कुछ रुककर बोले, ‘‘ एन.सी.आर.टी. ने बालसाहित्य के लिए पुरस्कृत किया है ।’’ (नन्दन जी उस पुरस्कार के निर्णायक मंडल में रहे थे ) ।
बात आई गई हो गई । लेकिन इसने सिद्ध कर दिया कि नन्दन जी की नजर हर ओर हरेक की गतिविधि पर रहती थी .... सही मायने में वह पत्रकार थे और एक प्रखर पत्रकार थे । इसी भरोसे टापम्स समूह ने उन्हें सारिका के बाद पराग और फिर दिनमान का कार्यभार सौंपा था । अपने समय के वह एक मात्र ऐसे पत्रकार थे जो एक साथ तीन महत्वपूर्ण पत्रिकाएं देख रहे थे ।
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उसके बाद साहित्यिक कार्यक्रमों में प्रायः नन्दन जी से मुलाकात होने लगी थी ।
‘‘कैसे हो रूपसिंह ? ’’ मेरे कंधे पर हाथ रख वह पूछते और , ‘‘ठीक हूं भाई साहब ।’’ मैं कहता ।
मेरा मानना है कि पत्रकारिता की दुनिया विचित्र और बेरहम होती है । कब कौन शीर्ष पर होगा और कौन जमीन पर कहना कठिन है । नन्दन जी के साथ भी ऐसा ही हुआ । एक साथ तीन महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के सम्पादक और बड़े हालनुमा भव्य कमरे में बैठने वाले नन्दन जी को एक दिन नवभारत टाइम्स के ‘रविवासरीय’ का प्रभारी बनाकर (जो एक सहायक सम्पादक का कार्य होता है ) 10, दरियगंज से टाइम्स बिल्डिगं में एक केबिन में बैठा दिया गया । निश्चित ही उनके लिए यह विषपान जैसी स्थिति रही होगी , लेकिन उन्होंने उस विष को अपने चेहरे पर शाश्वत मुस्कान बरकरार रखते हुए पी लिया । कई महीने वह उस पद पर रहे । सारिका से बलराम और रमेश बतरा भी उनके साथ गए थे । तब तक इन दोनों से मेरी अच्छी मित्रता हो चुकी थी ।
1988 की बात है । सचिन प्रकाशन के लिए मैंने ‘बाल कहानी कोश’ सम्पादित किया , जिसके लिए दो सौ कहानियां मैंने एकत्र की थीं । नन्दन जी से कहानी मांगने के लिए मैं टाइम्स कार्यालय गया । बलराम ने नन्दन जी से कहा , ‘‘रूपसिंह मिलना चाहते हैं ।’’
‘‘पिछले वर्ष मैंने तुम्हारे एक दोस्त के लिए सिफारिश की थी...अब ये भी....।’’ नन्दन जी को भ्रम हुआ था ।
बलराम ने कहा , ‘‘नहीं, चन्देल किसी और काम से आए हैं ।’’
बहर आकर बलराम ने मुझे यह बात बताई और हंसने लगे । दरअसल नन्दन जी उन दिनों हिन्दी अकादमी दिल्ली के सदस्य थे और शायद पुरस्कार चयन समिति में थे । बलराम के जिस मित्र की सिफारिश की बात उन्होंने की थी, वह मेरे भी मित्र थे । खैर, मैं नन्दन जी से मिला । एक बार पुनः आत्मीय मुलाकात । उन्होंने ड्राअर से निकालकर अपनी बाल कहानी ‘आगरा में अकबर’ मेरी ओर बढ़ा दी ।
दुर्भाग्य कि वह ‘बाल कहानी कोश’ आज तक प्रकाशित नहीं हुआ , क्योंकि दिवालिया हो जाने के कारण सचिन प्रकाशन बन्द हो गया था और पाण्डुलिपि की कोई प्रति मैंने अपने पास नहीं रखी थी ।
इस घटना के कुछ समय बाद ही नन्दन जी सण्डे मेल के सम्पादक होकर चले गए । उन्होंने उसे स्थापित किया । उनके साथ टाइम्स समूह के अनेक पत्रकार भी गए थे । 1991 में मेरे द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन ‘प्रकारान्तर’ किताबघर से प्रकाशित हुआ । हिन्दी में तब तक जितने भी लघुकथा संग्रह या संकलन प्रकाशित हुए थे, सामग्री और साज-सज्जा की दृष्टि से वह अत्यंत आकर्षक था । यह संकलन मैंने तीन लोंगो - कन्हैयालाल नन्दन, हिमांशु जोशी, और विजय किशोर मानव को समर्पित किया था।
नन्दन जी की प्रति देने मैं सण्डे मेल कार्यालय गया । नन्दन जी प्रसन्न, लेकिन उस दिन भी वह मुझे उतना ही व्यस्त दिखे, जितना सारिका में मेरी मुलाकात के समय दिखे थे । यह सच है कि वह समय के साथ चलने वाले व्यक्ति थे .... अतीत को लात मार भविष्य की सोचते और वर्तमान को जीते ....और भरपूर जीते।
सण्डेमेल की उस मुलाकात के बाद गाहे-बगाहे ही उनसे मिलना हुआ । मुलाकात भले ही कम होने लगी थी , लेकिन कभी-कभार फोन पर बात हो जाती । बात उन दिनों की है जब वह गगनांचल पत्रिका देख रहे थे । मेरे एक मित्र उनके लिए कुछ काम कर रहे थे । उन दिनों मैंने (शायद सन् 2000 में) कमलेश्वर जी का चालीस पृष्ठों का लंबा साक्षात्कार किया था । उसका लंबा अंश मेरे मित्र ने गगनाचंल के लिए ले लिया । ले तो लिया, लेकिन अंश का बड़ा होना उनके लिए समस्या था । ‘‘मैं नन्दन जी से बात कर लेता हूं ’’ मैंने मित्र को सुझाव दिया । फोन पर मेरी बात सुनते ही नन्दन जी बोले , ‘‘रूपसिंह , पूरा अंश छपेगा ...... उसे दे दो । मैं कमलेश्वर के लिए कुछ भी कर सकता हूं ।’’
6 जनवरी 2001 को कनाट प्लेस के मोहन सिंह प्लेस के इण्डियन काफी हाउस’ में विष्णु प्रभाकर की अध्यक्षता में कमलेश्वर जी का जन्म दिन मनाया गया । हिमांशु जोशी जी ने मुझे फोन किया । वहां बीस साहित्यकार -पत्रकार थे । नन्दन जी भी थे और बलराम भी । कार्यक्रम समाप्त होने के बाद नन्दन जी ने मेरे कंधे पर हाथ रख पूछा , ‘‘रूपसिंह, क्या हाल हैं ?’’
‘‘ठीक हूं भाई साहब ।’’
‘‘तुम्हे जब भी मेरी आवश्यकता हो याद करना ।’’ लंबी मुस्कान बिखेरते हुए वह बोले, ‘‘यह घोड़ा बूढ़ा बेशक हो गया है , लेकिन बेकार नहीं हुआ ...।’’ उन्होंने बलराम की ओर इशारा करते हुए आगे कहा , ‘‘उससे पूछो ।’’
मैं बेहद संकुचित हो उठा था । कुछ कह नहीं पाया, केवल हाथ जोड़ दिए थे । नन्दन जी मेरे प्रति बेहद आत्मीय हो उठे थे और उनकी यह आत्मीयता निरंतर बढ़ती गई थी । शायद उन्हें इस बात का अहसास हो गया था कि कानपुर के नाम पर उनसे बहुत कुछ पा जाने वाले या पाने की आकांक्षा रखने वाले लोगों जैसा यह शख्श नहीं है । उनके प्रति इस शख्श का आदर निःस्वार्थ है । बीस-बाइस वर्षों के परिचय में इसने उनकी सक्षमता से कुछ पाने की चाहत नहीं की । और यह सब कहते हुए भी वह जानते थे कि यह व्यक्ति शायद ही कभी किसी बात के लिए उनसे कुछ कहेगा । वह सही थे । और यही कारण था कि उनका प्रेम मेरे प्रति बढ़ता गया था ।
न्यूयार्क में होने वाले विश्व हिन्दी सम्मेलन की स्मारिका के सम्पादन का कार्य उन्हें करना था । एक पत्र मिला , जिसमें डा. ”शिवप्रसाद सिंह के उपन्यास ‘अलग-अलग वैतरिणी’ पर निश्चित तिथि तक आलेख मुझे लिख भेजने के लिए उन्होंने लिखा था । उन दिनों मैं लियो तोल्स्तोय के उपन्यास ‘हाजी मुराद’ के अनुवाद को अंतिम रूप दे रहा था । मेरे पास शिवप्रसाद जी के उपन्यास ‘नीला चांद’ पर अच्छा आलेख था । मैंने नन्दन जी को लिखा कि ‘अलग -अलग वैतरिणी’ के बजाय मैं ‘नीला चांद’ पर लिख भेजता हूं । उनका तुरंत पत्र आया ,‘‘ एक सप्ताह का अतिरित समय ले लो, लेकिन लिखो ‘अलग-अलग वैतरिणी’ पर ही ।’’ मुझे उनकी आज्ञा का पालन करना ही पड़ा था । बाद में एक दिन शाम सवा पांच बजे उनका फोन आया ।
‘‘रूपसिंह कैसे हो ?’’
‘‘आपका आशीर्वाद है भाई साहब ।’’
कुछ इधर-उधर की बातें और अंत में ,‘‘आज तुम पर प्रेम उमड़ आया ...... तुम्हें प्रेम करने का मन हुआ ....।’’ और एक जबर्दस्त ठहाका ।
मैं भी ठहाका लगा हंस पड़ा था ।
‘‘अच्छा प्रसन्न रहो ।’’ आशीर्वचन ।
और उनके पचहत्तरहवें जन्म दिन का निमंत्रण । इण्डिया इण्टरनेशनल सेण्टर में आयोजन था । लगा पूरी दिल्ली के साहित्यकार-पत्रकार उमड़ आए थे । नन्दन जी के कुछ मित्र बाहर से भी आए थे । उस दिन नन्दन जी बहुत ही बूढ़े दिखे थे । बीमारी ने उन्हें खोखला कर दिया था । डायलिसस पर रहना पड़ रहा था । 1933 में परसदेपुर (जिला - फतेहपुर (उत्तर प्रदेश ) में जन्मे इस प्रखर पत्रकार -साहित्यकार ने 25 सितम्बर , 2010 को नई दिल्ली के राकलैण्ड अस्पताल में तड़के तीन बजकर दस मिनट पर 77 वर्ष की आयु में इस संसार को अलविदा कह दिया ।
अत्यंत सामान्य परिवार में जन्में नन्दन जी का जीवन बेहद उथल-पुथलपूर्ण रहा । प्रेमचंद से प्रेरित हो उन्होंने अंतर्जातीय विवाह किया , जिसके बारे में उन्होंने अपने एक आलेख में लिखा था । उनके जाने से पत्रकारिता और लेखन जगत को अपूरणीय क्षति हुई है ।
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कहानी


कहानी

आदमी के बारे में सोचते लोग
बलराम अग्रवाल
यार लोग तीन-तीन पैग गले से नीचे उतार चुके थे। यों शुरू से ही वे चुप बैठे हों, ऐसा नहीं था, लेकिन तब उनकी बातों का केन्द्र बोतल में कैद लालपरी थी, सिर्फ लालपरी। उसे पेट में उतार लेने के बाद उन्हें लगा कि पीने-पिलाने को लेकर हुई सारी बातें और बहसें बहुत छोटे और ओछे लोगों जैसी थीं। अब कुछ बातें बड़े और ऊँचे दर्जे के दार्शनिकों जैसी की जानी चाहिएँ।
कमरे की एक दीवार पर एक मशहूर शराब-कम्पनी का फुल-लैंथ कैलेंडर लटका था, जिसमें छपी मॉडल की मुद्रा उत्तेजक तो थी ही, धर्म का मुखौटा चढ़ाकर घूमने वाले पंचसितारा सामाजिकों के लिए इतनी अश्लील भी थी कि उसे मुद्दा बनाकर अच्छा-खासा बवाल मचाया जा सके। कैलेण्डर के सामने वाली दीवार पर तीन फ्रेम फिक्स थे—नीचे से देखो तो चढ़ते क्रम में और ऊपर से देखो तो उतरते क्रम में सीढ़ीनुमा। सिवा कुछ रंगों के, बुद्धिमान-से-बुद्धिमान आदमी के लिए उनमें से किसी भी फ्रेम के बारे में यह बता पाना असंभव था कि आकृति की दृष्टि से उसमें बना क्या है? और इन दोनों के बीच वाली दीवार पर एक फुल-साइज एल सी डी चस्पाँ था। कोने में रखी मेज पर म्यूजिक-सिस्टम था, बहुत ही धीमे वॉल्यूम में मादक धुन बिखेरता हुआ। ट्यूब्स ऑफ थीं और सीलिंग में जड़े एल ई डी बल्बों में से दो को ऑन करके कमरे को हल्के नीले प्रकाश से भरा हुआ था। सीलिंग फैन नहीं था, ए सी था जिसको ऑन रहना ही था।
“मुझे लगता है…ऽ…कि यह दे…ऽ…श एक बार फिर टूटेगा…आजकल के नेताओं से…ऽ… सँभल नहीं पा रहा है।” संदीप ने बात छेड़ी।
“सँभल नहीं पा रहा है?” संजू ने चौंककर कहा,“अबे…ऽ…देश में नेता ऐसा कोई बचा ही कहाँ है जो देश को सँभालने की चिन्ता पालता हो?…साले दल्ले हैं ज्यादातर ।”
राजेश को क्योंकि पढ़ने का बहुत शौक था, इसलिए बोलने को उसके पास बाकी दोस्तों के मुकाबले ज्यादा और व्यापक बातें रहती थीं। उससे रहा नहीं गया। बोला,“या…ऽ…र , मेरी बात को तुम लिखकर रख लो—जब तक समाजवाद को नहीं अपनाया जाएगा, तब तक न देश का भला होगा और न दुनिया का।”
“ऐ…ऽ…ऐसी बात है…ऽ…तो सबसे पहले हमीं…क्यों न उसे अपनाएँ!” गिर-गिर जाती गरदन को कंधे पर टिकाए रखने की कोशिश करते राजीव ने अटक-अटककर कहा,“दुनिया के लिए न सही…देश के लिए तो हमारी…कुछ न कुछ जिम्मेदारी…है…ऽ… ही।”
“यार, मेरा खयाल है…ऽ…कि किसी चीज को…ऽ…जाने-समझे बिना अपना-लेना…ऽ…बाल-बराबर भी…ऽ…ठीक नहीं है।” संदीप ने टोका। उसकी गरदन तो काबू में थी लेकिन पलकें साथ नहीं दे रही थीं। किसी तरह उन्हें झपकने से रोकते हुए बोला,“जब तक समाजवाद के मतलब मेरी समझ में साफ नहीं हो जाते, तब तक कम से कम मैं तो…ऽ…।”
“मतलब मैं समझाता हूँ तुझे…!” उसके कंधे को थपककर तेजिन्दर ने कहा और चौथा पैग तैयार कर रहे संजू से बोला,“मेरा वाला थोड़ा लाइट ही रखना…बस इतना…ठीक। हाँ, तो समाजवाद उस खूबसूरत दुनिया को देखने का सपना है मेरे बच्चे, जिसमें घोड़ियाँ बकरों के साथ, बकरियाँ ऊँटों के साथ, ऊँटनियाँ कुत्तों के और कुत्तियाँ घोड़ों के साथ यों-यों कर सकेंगी।” अपनी बात के आखिरी शब्दों को कहते हुए उसने दाएँ हाथ की मुट्ठी को मेज के समान्तर हवा में चलाया—आगे-पीछे। पैग बनाकर संजू ने इस बीच गिलास को उसके आगे सरका दिया था। उसने गिलास उठाया और सिप करते ही कड़वा-सा मुँह बनाकर संजू से बोला,“अभी भी हैवी है यार, थोड़ा पानी और डाल।” पानी डलवाकर उसने एक बार फिर सिप किया। बोला,“अब ठीक है।”
समाजवाद की उसकी इस व्याख्या पर राजेश के अलावा सभी हँस पड़े।
“क्या सही समझाया है…” संदीप हँसते-हँसते बोला,“मान गए!”
“आज मैं अपना दिमाग खजूर के पेड़ पर लटका न छोड़कर साथ बाँध लाया हूँ न, इसलिए।” अपनी पगड़ी पर थपकी देकर तेजिन्दर बोला। इस बात पर एक-और ठहाका लगा। राजेश इस बार भी नहीं हँसा। बाहर से झुलसा हुआ आदमी एकबारगी मुस्करा सकता है, लेकिन भीतर से झुलसे हुए आदमी का मुस्कराना मुमकिन नहीं। यों भी, जो लोग अपने आसपास से थोड़ा ज्यादा पढ़ या गुन जाते हैं उनके बीच हजारों में से कोई एक ही ऐसा निकलता है जो अपने आसपास की दुनिया से पटरी बिठाए रखने में यकीन करता है और वैसा करने में कामयाब भी रहता है।
“जो लोग चाँदी का चम्मच मुँह में लेकर पैदा होते हैं, समाजवाद उनकी समझ में आने वाला सिद्धांत नहीं है।” सब ठहाका लगा चुके तो झुलसे हुए राजेश ने बोलना शुरू किया,“जिनके पेट भरे हुए हैं, गरीबी और भुखमरी से जूझने की उनकी बातें वोट बटोरने वाली राजनीति के अलावा कुछ-और सिद्ध हुई हैं आज तक? इस ए सी रूम में इंगलिश-वाइन डकारकर समाजवाद पर चिन्तन चला रहे हैं—वाह! पेट भरा हो तो आदमी को आदमी—आदमी नहीं कुत्ता नजर आता है, साँप-बिच्छू-नाली का कीड़ा नजर आता है। पेट भरने के लिए जब रोटी बेस्वाद लगने लगे और जीभ रह-रहकर डोमिनो के पीज़ाज़ की ओर लपलपाने लगे तब आदमी के बारे में सोचते हुए हमें डर लगने लगता है…।” मेज पर पैग रखते हुए उसने हिच्च की और नजरें दोस्तों पर गड़ाईं।
यार लोगों को उससे शायद ऐसे ही किसी वक्तव्य की उम्मीद थी, इसलिए सब-के-सब दम साधे उसका बयान सुनते रहे। जहाँ तक उसका सवाल था—या तो उसका काम तीसरे पैग में ही तमाम हो गया था या फिर चौथा कुछ हैवी हो गया था; क्योंकि जैसे-जैसे वह उसे खत्म करता जा रहा था वैसे-वैसे उसकी आवाज में भारीपन आता जा रहा था।
“एक तरफ हम हैं…हम, जो अंग्रेजी शराब के इस महँगे ब्राण्ड का पहला-दूसरा या तीसरा नहीं, चौथा पैग चढ़ा रहे हैं…।” मेज पर रखी वाइन की बोतल को हाथ में उठाकर दिखाता हुआ वह बोला,“कहाँ तो बाहर चल रही लू से बचने की जुगत में किसी नीम या पीपल के साये में बैठकर ठर्रे के साथ लोग उँगली से नमक चाट-चाटकर काम चला रहे हैं, और कहाँ हम—जो नमकीन के नाम पर तले हुए मसालेदार काजुओं की प्लेट बीच में रखे हुए इस ए सी रूम में बैठे हैं। एक तरफ मेहनत कर-करके हर तरह से थके और हारे वो लोग हैं जिन्हें शाम को भरपेट भात भी मयस्सर नहीं। वे अगर शराब भी पीते हैं तो पाँच-सात-दस रुपए में काँच का एक छोटा गिलासभर कच्ची…जिसे पीने के बाद उन्हें इतने गजब का नशा होता है कि गिरने के बाद वे कभी उठ भी पाएँगे या नहीं, वे नहीं जानते…और दूसरी ओर…।”
“इस आदमी के साथ यार यही खराबी है।” उसकी बात को बीच में ही काटकर तेजिन्दर तुनककर बोला,“ये बातें कम करता है भाषण ज्यादा झाड़ता है…उतार के रख देता है सारी की सारी…।” कहते-कहते वह राजेश की ओर घूमा और व्यंग्यपूर्वक बोला,“इस साले पर मसीहा बनने का जुनून सवार है। अबे…ऽ… वाइन के दौर चल रहे हैं, छत में सितारे जगमगा रहे हैं, सामने अप्सरा पड़ी है…” कैलेण्डर की ओर इशारा करते हुए उसने बात को जारी रखा,“और तू है कि फिलॉसफी झाड़ने को बैठ गया! ओए, तू क्या चाहता है कि भूखे-नंगों को भी मैक्डूवेल मिलने लगे?”
“तुम लोग इस थ्योरी को समझ ही नहीं पाओगे।” तेजिन्दर की ओर ताकते हुए राजेश क्षुब्ध-स्वर में बोला,“…और तू तो कभी भी नहीं।”
“ओए थ्योरी गई तेल लेने…” तेजिन्दर आँखों को पूरी खोलकर उसपर गुर्राया,“और मेरी समझ में वो क्यों नहीं आएगी, मैं सरदार हूँ इसलिए?”
“बात को मजाक में उड़ाने की कोशिश मत कर।” राजेश गम्भीरतापूर्वक बोला,“तू अच्छी तरह जानता है कि मैं सरदार और मोना नहीं मानता…और ना ही ऊँच और नीच!”
“फिर?” तेजिन्दर ने पूर्व अन्दाज में ही पूछा।
“फिर यह…कि तेरा पेट भरा है और भेजा खाली है…।”
“अभी-अभी तो तू कह रहा था कि तू सरदार और मोना नहीं मानता…और अभी-अभी तू मेरा यानी कि एक सरदार का भेजा खाली बताकर उसका मजाक बना रहा है?” तेजिन्दर तड़का।
उसकी इस बात पर राजेश ने दोनों हाथों में अपना सिर थाम लिया। बोला,“ओए, कोई इसे चुप रहने को कहो यार। यह अगर इसी तरह बेसिर-पैर की हाँकता रहा तो…।”
“अब—‘बेसिर-पैर’…देख, तू लगातार मुझे ‘सरदार’ वाली गालियाँ दे रहा है…” इस बार आवेश के कारण वह कुर्सी से उठकर खड़ा हो गया,“देख, दोस्ती दोस्ती की जगह है और इज्जत इज्जत की जगह…अब अगर एक बार भी सरदारोंवाला कमेंट मुँह से निकाला तो ठीक नहीं होगा, बताए देता हूँ…”
तेजिन्दर की इस मुद्रा पर सब-के-सब गम्भीर हो गए। अच्छा-खासा ठण्डक-भरा माहौल एकदम-से इस कदर उबाल खा जाएगा, किसी ने सोचा नहीं था। राजेश हथेलियों में सिर को थामे जस-का-तस बैठा रहा। चारों ओर सन्नाटा पसर गया…साँस तक लेने की आवाज सुनाई देने लगी!
कुछेक पल इसी तरह गुजरे। फिर एकदम-से जैसे बम फटा हो—तेजिन्दर ने जोर का ठहाका लगाया—हा-हा-हा-हा…ऽ…!
“इन साले भरे-भेजे वालों की शक्लें देख लो…।” ठहाका लगाते-लगाते ही वह बोला,“ऐसे बैठे हैं, जैसे मुर्दा फूकने आए हों मादरचो…। अबे, मेरे एक छोटे-से मजाक को तुम नहीं समझ सकते तो मुझे किस मुँह से बेअकल बता रहे हो खोतो?”
“ओ छोड़ ओए।” राजीव लगभग गुस्से में बोला,“ये भी कोई मजाक था? डरा ही दिया हम सबको…।”
“ओए डराने वाली तो कोई हरकत मैंने की ही नहीं!” तेजिन्दर बोला।
“अबे डराने के लिए तुझे अलग से कोई हरकत करने की जरूरत नहीं होती।” राजीव बोला,“तू सरदार है और तेरा गुस्से में खड़े हो जाना ही हमें डराने के लिए काफी होता है।”
“और अगर बिना गुस्से के खड़ा हो जाए तो…तब तो नहीं न डरोगे?” तेजिन्दर ने तुरन्त पूछा।
“ओए तेरी तो…” उसकी इस बात पर राजीव ने उस पर झपट्टा मारा, लेकिन तेजिन्दर खुद को बचा गया।
“ओए ये हुड़दंगबाजी छोड़ो, काम की बात पर आ जाओ यार।” संजू उन्हें रोकता हुआ बोला,“इस राजेश की सारी बात मेरी समझ में आ गई। इसके कहने का मतलब ये है कि समाजवाद सिर्फ उसकी समझ में आ सकता है, जिसका पेट भले ही खाली हो, लेकिन दिमाग खाली न हो !”
“बिल्कुल ठीक।” राजीव बोला। राजेश चुप बैठा रहा, जला-भुना सा।
“हाँ, उसमें चाहे गोबर ही क्यों न भरा हो।” तेजिन्दर ने फिर चुटकी ली। उसकी लगातार की चुटकियों से राजेश इस बार उखड़ ही गया।
“तुझ हरामजादे के कमरे पर आना और फिर साथ बैठकर पीना…लानत है मुझपर!” खाली गिलास को मेज पर पटककर वह उठ खड़ा हुआ।
“यह बात तो तू हमारे साथ वाली हर मीटिंग में कहता है।” तेजिन्दर होठों और आँखों में मुस्कराता उससे बोला,“आने वाली मीटिंग में भी तू यही कहेगा।”
“माँ की…स्साली आने वाली मीटिंग की…धत्…” क्रोधपूर्वक खड़े होकर राजेश ने अपनी कुर्सी पीछे को फेंक दी और तेजी के साथ कमरे से बाहर निकल गया।
उसके निकलते-ही तेजिन्दर बनावटी-तौर पर मुँह लटकाकर संजीदा आवाज में संजू से बोला, “समाजवाद तो उठकर चला गया…अब हमारा क्या होगा कालिया?”
उसकी इस हरकत पर बहुत तेज एक-और ठहाका उन रईसजादों के कण्ठ से निकलकर कमरे में गूँज उठा। इतना तेज कि कमरे की एक-एक चीज हिल गई, पारदर्शी साड़ी के एक छोर से नितम्बों को ढके उल्टी लेटी अप्सरा भी।
“एक बात बताऊँ?” संदीप बोला,“मैंने जानबूझकर छेड़ी थी देश और नेताओं वाली बात।”
“वह तो मैं तेरे बात छेड़ते ही समझ गया था।” राजीव बोला।
“अबे मैं ड्रामे ना करता तो उसे अभी और-बोर करना था हमें।” तेजिन्दर बोला,“मैंने भी तो सोच-समझकर ही माहौल क्रिएट किया उसे भगाने का।…ला, एक-एक हल्का-सा फाइनल पैग और बना।”
संजू ने पैग बनाए। सबने फाइनल दौर के अपने-अपने गिलास उठाए, चियर्स किया और गले में उँड़ेल गए। उसके बाद उन्होंने अपने-अपने सिर कुर्सियों पर पीछे की ओर टिकाये, टाँगें मेज पर पसारीं और आँखें मूँदकर संगीत की धुन पर पाँवों के पंजे हिलाने शुरू कर दिए—ला…ऽ…ला-ला-ला…ऽ…लालला…ऽ…लालला…ऽ…।

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बलराम अग्रवाल : संक्षिप्त परिचय

जन्म : 26 नवम्बर, 1952 को उत्तर प्रदेश(भारत) के जिला बुलन्दशहर में जन्म।शिक्षा : एम ए (हिन्दी), अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।पुस्तकें : प्रकाशित पुस्तकों में कथा-संग्रह ‘सरसों के फूल’(1994), ‘ज़ुबैदा’(2004) तथा ‘चन्ना चरनदास’(2004)। बाल-कथा संग्रह ‘दूसरा भीम’(1997)। समग्र अध्ययन ‘उत्तराखण्ड’(2010)। ‘समकालीन हिन्दी लघुकथा : मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन’ (अप्रकाशित शोध)।

सम्पादन व अन्य : मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ(1997) व तेलुगु लघुकथाएँ(2010)। प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी आदि वरिष्ठ कथाकारों की चर्चित कहानियों के लगभग 15 संकलन। ‘वर्तमान जनगाथा’ का तीन वर्षों तक प्रकाशन/संपादन। ‘अण्डमान व निकोबार की लोककथाएँ’ का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद व पुनर्लेखन(2000)। ‘सहकार संचय’(जुलाई, 1997), ‘द्वीप लहरी’(अगस्त, 2001 व जनवरी, 2002), ‘आलेख संवाद’(जुलाई,2008) के लघुकथा-विशेषांकों का अतिथि संपादन। अनेक वर्षों तक हिन्दी-रंगमंच से जुड़ाव। कुछेक रंगमंचीय नाटकों हेतु गीत-लेखन भी।

हिन्दी ब्लॉग्स: जनगाथा(Link:http://www.jangatha.blogspot.com),
कथायात्रा(Link: http://kathayatra.blogspot.com)
लघुकथा-वार्ता(Link: http://wwwlaghukatha-varta.blogspot.com)

सम्प्रति : अध्ययन और लेखन।

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