मंगलवार, 8 सितंबर 2009

वातायन-सितम्बर, २००९


हम और हमारा समय

साहित्य, मुख्यधारा और अस्तित्व संकट

रूपसिंह चन्देल

आजकल साहित्य में एक शब्द प्रायः सुनाई देने लगा है -- ’मुख्यधारा’. यह शब्द मुझमें उसीप्रकार की उलझन पैदा करता है जैसे ’उत्तरआधुनिकतावाद’ करता रहा है. मुझे नहीं मालूम कि ’उत्तरआधुनिकतावाद’ की भांति ’मुख्यधारा’ बाहर से आयातित शब्द है या यह यहां ही कुछ लोगों (साहित्यकारों-आलोचकों) की खोज और मुझे यह भी नहीं मालूम कि इसका जन्म-श्रोत क्या है. यह किसी एक ही व्यक्ति की सोच का परिणाम है या कुछ लोगों की सोच का----- लेकिन इससे एक राजनैतिक गंध अवश्य महसूस होती है.

प्रायः राजनीतिज्ञों को उग्रवादियों के विषय में इस शब्द का प्रयोग करते सुना-पढ़ा है. कश्मीर, उल्फा और अब माओवादियों को मुख्यधारा से जोड़ने की बात की जाती है - की जाती रही है, क्योंकि वे भटके हुए और दिग्भ्रमित युवक हैं, जिन्हें देश-समाज की मुख्यधारा से जोड़कर उनकी सकारात्मक सक्रियता सुनिश्चित की जा सके. यहां दो धाराओं की बात समझ में आती है, लेकिन साहित्य में ’मुख्यधारा’ --- इसकी अवधारणा भ्रमात्मक है. क्या साहित्य में भी भटके हुए -दिग्भ्रमित लोग हैं ? साहित्य स्वयं में एक धारा है ---- सतत प्रवहमान और साहित्य लिखनेवाला हर व्यक्ति उस धारा में तैर रहा है. यह तो तैरनेवाले की क्षमता और कौशल पर निर्भर है कि वह डूबता है या अपने को बचा लेता है.

साहित्य में ’मुख्यधारा’ शब्द ने पहली बार मेरा ध्यान आकर्षित किया और सोचने के लिए विवश किया जब वरिष्ठ कथाकार कृष्ण बिहारी के अतिथि सम्पादन में प्रकाशित ’शब्द संगत’ के वरिष्ठ कथाकार रजेन्द्र राव पर केन्द्रित अंक में उनका सम्पादकीय पढ़ा. दूसरी बार गर्भनाल के सितम्बर अंक में कवयित्री-कथाकार सुधा ओम ढींगरा की रम्य रचना ’छाप तिलक की तलाश’ में इसकी चर्चा देखी.

’शब्द संगत’ के सम्पादकीय में कृष्ण बिहारी कहते हैं - "मुझे सोचना पड़ा कि साहित्य की मुख्यधारा कौन-सी है ? मैं यह भी सोचने के लिए विवश हुआ कि साहित्यकारों की यह कौन-सी जमात है जो अपने अलावा किसी अन्य को मुख्यधारा का रचनाकार मानने को तैयार नहीं या शायद गोलबंद होकर उनमें अपनी टीम के अलावा किसी अन्य साहित्यकार को देखने और सहने की भी शक्ति नहीं है. इस मामले पर हरि का कहना था कि ऎसा कुछ समय से अभियान के रूप में शुरू हुआ है. पहले भी ऎसा होता था लेकिन आज पहले से कुछ अधिक है. मुझे आश्चर्य इस बात पर हुआ कि जिन लोगों ने मेरे सामने राजेन्द्र राव को मुख्यधारा से बाहर का लेखक बताया, क्या वे जानते हैं कि वे स्वयं किस धारा में हैं ? बीस साल बाद किस धारा में रहेंगे ? क्या अपनी हकीकत उन्हें पता है ? क्या वे जानते हैं कि उनके पांवों के नीचे जो जमीन है वह कितनी ठोस है ? क्या उनका एकालाप उन्हें जिन्दा रख सकता है ? मेरा सवाल है कि क्या उद्योगपति साहित्यकार मुख्यधारा का है ? क्या प्रशासनिक पदों पर बैठे सुविधाभोगी साहित्यकार मुख्यधारा के हैं ? क्या साल में एक कार्यक्रम कराने वाले आयोजक साहित्यकार मुख्यधारा के हैं ? या किसी को निमंत्रित करके उसकी स्वीकृति पाने के बाद उसका नाम सूची में से काटकर अपनी मर्जी से उसके सार्वजनिक अपमान की इच्छा को हृदय में बसाकर पर पीड़ा में सुख पाने वाले तथाकथित साहित्यकार मुख्यधारा के हैं ? या किसी पत्रिका के प्रोपराइटर उर्फ़ संपादक बने वे लोग जो अपने को ही इस दुनिया का मुख्य कुम्हार मानकर संतुष्ट हैं वे मुख्यधारा के हैं ? कौन हैं वे लोग जो किसी का क़द तय करते हैं ? पेशेवर आलोचक या कि अनवरत घूमने वाला काल का पहिया -- समय ."

कृष्ण बिहारी के सम्पादकीय के इस अंश को उद्धृत करने का मात्र उद्देश्य यह है कि मेरे हिस्से की बहुत-सी बातें इसमें कही जा चुकी हैं.

’मुख्यधारा’ की बात करने वाले लोग भी जानते हैं कि यह केवल उनकी राजनीति है और काल का अनवरत घूमने वाला पहिया -- समय - ही सबसे बड़ा निर्णायक होता है.

जैसा कि मैंने कहा ’मुख्यधारा’ एक राजनैतिक शब्द है और मेरा अनुमान है कि साहित्य की राजनीति करने वालों ने इसे अपने को और अपने लोगों को स्थापित करने और दूसरों को ( जो वाद-विवाद और राजनीति से दूर रहकर लेखनरत हैं ) हाशिए पर डालने के लिए अपनाया है. ये लोग जब बेशर्मी से गांव पर केन्द्रित किसी उपन्यास (जिसमें गांव अपनी सम्पूर्णता के साथ उपस्थित हो ) के बारे में यह कहते हैं कि इसमें तो उन्हें कहीं गांव नजर ही नहीं आया तब आश्चर्य नहीं होता क्योंकि ऎसा कहकर ही उस उपन्यास को खारिज किया जा सकता है या उस उपन्यासकार को हाशिए पर डाला जा सकता है या उनके अनुसार मुख्यधारा से बाहर का लेखक सिद्ध किया जा सकता है.

वास्तविकता यह है कि मुख्यधारा की बात करने वाले लोग स्वयं के ’अस्तित्व संकट’ से ग्रस्त हैं . वे हड़हड़ी में हैं --- हड़बड़ी अपने को स्थापित कर लेने की . यह शब्द ऎसे ही लोगों के संगठित प्रयास का प्रतिफलन प्रतीत होता है. वे अपने गुट से बाहर वालों के बारे में या तो चुप्पी साध लेते हैं या ’वह लेखक मुख्यधारा का लेखक नहीं’ जैसे फतवे देते हैं. हिन्दी साहित्य के इन खोमैनियों के लिए समय स्वयं निर्णय करेगा.

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’वातायन’ के सितम्बर अंक में अपनी पुस्तक ’दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’ की भूमिका पुनः प्रकाशित कर रहा हूं. इसे पुनः प्रकाशित करना इसलिए आवश्यक लगा क्योंकि लियो तोल्स्तोय के अंतिम उपन्यास हाजी मुराद के अनुवाद ने मुझे एक अनुवादक की भी पहचान दी. हाल में उन पर उनके रिश्तेदारों, मित्रों, लेखकों और रंगकर्मियों के लगभग पैंतीस संस्मरणॊं (जो अनेक पत्र-पत्रिकाओं के साथ अंतर्जाल पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुए और हो रहे हैं ) के अनुवाद ने इस पहचान को और सुदृढ़ किया और ’दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’ के विषय में कुछ पाठकों को भ्रम हुआ. वे इस पुस्तक को भी मेरा अनुवाद मान बैठे. अतः यह बताना आवश्यक लगा कि यह पुस्तक मेरा मौलिक कार्य है . इस पर मैंने पूरे एक वर्ष कार्य किया था. विभिन्न पुस्तकालयों से सामग्री एकत्रित की और उस दौरान अन्य साहित्यिक कार्य स्थगित रखे. दॉस्तोएव्स्की के तीन प्रेम ’मारिया’, ’अपोलिनेरिया’ और ’अन्ना’ ही प्रसिद्ध हैं. दॉस्तोएव्स्की के बारे में अध्ययन करते समय उनके अन्य अनेक संबन्धों की जानकारी मुझे मिली और जब मैंने पुस्तकालयों को खंगाला तब उनके जीवन संबन्धी आश्चर्यजनक तथ्य उद्घाटित हुए. २३२ पृष्ठों की इस पुस्तक में उनके बचपन से लेकर मृत्यु तक के विवरण दर्ज हैं. उस महान लेखक के प्रेम संबन्धों पर केन्द्रित होते हुए भी यह एक जीवनीपरक पुस्तक है. प्रस्तुत आलेख उन पर संक्षिप्त प्रकाश डालता है.

इसके अतिरिक्त प्रस्तुत है वरिष्ठ गीतकार - कवि राजेन्द्र गौतम की रचनाएं और युवा कहानीकार अरविन्द कुमार सिंह की कहानी.

आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.

आलेख

फ्योदोर मिखाइल दॉस्तोएव्स्की


रूपसिंह चन्देल

उन्नीसवीं शताब्दी के रूसी लेखक फ्योदोर मिखाइलोविच दोस्तोएव्स्की न केवल महान रचनाकार थे, बल्कि वह एक असाधरण व्यक्ति और प्रेमी भी थे। उनका सम्पूर्ण जीवन उथल-पुथलपूर्ण था और उसके लिए परिस्थितियों के साथ वह स्वयं भी जिम्मेदार थे।दोस्तोएव्स्की के विषय में यह कहा जाता है कि वह मनोमुग्धकारी कथाकार थे। उनके उपन्यासों ने उनकी मनोवैज्ञानिक अंतदृ‍र्ष्टि और दार्शनिक गहनता के कारण आधुनिक पाठकों में उन्हें प्रिय बना दिया था। वे अनूठे कथानकों, विलक्षण पात्रों, अविस्मरणीय स्थितियों और आश्चर्यजनक अंतो से परिपूर्ण हैं। फिर भी, उनका कोई भी कार्य शायद ही इतना चौंकानेवाला हो, जितना उनका स्वयं का जीवन… विशेषरूप से वेश्याओं, आदर्शवादी विवाहिता महिलाओं, आकर्षक और स्वतंत्र-उन्मुक्त औरतों और कामुक युवतियों के साथ बिताया गया उनका जीवन था। यही नहीं, जुआ उनकी विशेष कमजोरी था।दोस्तोएव्स्की की दूसरी पत्नी अन्ना और उनकी पुत्री ल्यूबोव ने उनके विषय में लिखते हुए ऐसे अनेक तथ्यों के उल्लेख से अपने को बचाया जो उस महान लेखक के जीवन पर नकारात्मक प्रकाश डालते। उन्होंने दोस्तोएव्स्की की छवि एक पवित्र और सच्चरित्र व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया। यही नहीं, अन्ना ने स्वयं को उनके कृष्णपक्ष के उल्लेख से बचाने के साथ ही उनके पत्रों और अन्य दस्तावेजों के अनेक उन अंशों पर काली स्याही पोत दी जिन्हें वह खतरनाक, लज्जास्पद और आपत्तिजनक मानती थी। इसके अतिरिक्त दूसरों से अपने को ‘रिजर्व’ रखने की दोस्तोएव्स्की की प्रकृति ने भी किसी हद तक हम तक पहुँचने वाली उनकी जटिलताओं और रत्यात्मक अनुभवों की झूठी तस्वीर प्रस्तुत की। अपने पत्राचारों, और यहॉं तक कि वार्तालाप में, वह अपने अंतरंग विचारों और कार्यों के प्रति इतनी सावधानी बरतते थे कि अनेक दृष्टान्तों में हमें सचाई की केवल एक आकस्मिक झलक ही प्राप्त होने का अवसर प्रदान करते हैं। उन्होंनें लंबे समय तक अपनी मिरगी की बीमारी को मित्रों से छुपाए रखा था। एक उदाहरण पर्याप्त है। उनके मित्र डा0 स्टिपेन द्मित्रीएविच’ यनोव्स्की ने एक स्थान पर लिखा था, ‘‘ जब हम गहरे मित्र बन गये थे, दोस्तोएव्स्की ने अपने कष्टकर और उदास बचपन की स्थितियों के विषय में बताया था। अपनी माँ, बहनों और भाइयों के विषय में वह बहुत गहन भावुकता के साथ बताते थे। लेकिन अपने पिता के विषय में बात करना पसंद नहीं करते थे और अनुरोध करते थे कि उनके विषय में कोई प्रश्न न करूं।" (स्टीपेन दिमत्रीएविच यनोव्स्की ( 1817 - 1897 ) गृहमंत्रालय के सरकारी मेडिकल वितरण विभाग में डाक्टर था, जहाँ से 1871 में उसने अवकाश ग्रहण किया था। 1877 में वह स्विट्जरलैण्ड चला गया था जहाँ वह मृत्युपर्यन्त रहा था। दोस्तोएव्स्की से उसकी मुलाकात 1842 में हुई थी। जल्दी ही वे अच्छे मित्र बन गये थे।)
कहना अनुचित न होगा कि दोस्तोएव्स्की एक रहस्यमय व्यक्ति थे। युवावस्था में (साइबेरिया में सश्रम कारावास की सज़ा के लिए भेजे जाने से पहले) बारह वर्षीया एक बच्ची के साथ उनके बलात्कार की घटना का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। लेकिन उनके जीवन के रहस्यमय पक्षों और उनके चर्चित तीन प्रेम प्रसंगों (मारिया, अपेलिनेरिया और अन्ना) के विषय में उनके जीवनीकारों और अन्य विद्वानों ने पर्याप्त प्रकाश डाला है। वह एक ऐसे दुर्धर्ष लेखक भी थे जो दो उपन्यासों पर एक साथ कार्य करना चाहते थे। जोसेफ फ्रैंक और डेविड आई गोल्डस्टीन के अनुसार ‘ दि गैम्बलर’ और ‘ क्राइम एण्ड पनिषमेण्ट’ वे उपन्यास थे और तुर्गनेव का उपहास उड़ाते हुए वह कहते कि ‘‘ वह यह सोचकर ही पागल हो जायेगा।" यहाँ यह विचारणीय है कि तुर्गनेव वह व्यक्ति थे जिन्होंनें दोस्तोएव्स्की की आर्थिक सहायता की थी। यह भी कम आश्चर्यजनक बात नहीं कि लियो तोल्स्तॉय और दोस्तोएव्स्की समकालीन होते हुए भी एक दूसरे से मिलने से बचते रहे। लेकिन इससे अधिक महत्वपूर्ण और विचारणीय बात यह है कि ऐसे कौन-से कारण रहे जिससे दोस्तोएव्स्की का जीवन पतनोन्मुख बना।
फ्योदोर दोस्तोएव्स्की पाँच भाई और दो बहनें थे। परिवार में पिता का कठोर अनुशासन था जो मास्को के ‘मारिन्स्की’ अस्पताल में डाक्टर थे। वह गर्म मिजाज, चिड़चिडे़ और शंकालु स्वभाव के थे। वह अपनी पत्नी को निरंतर प्रताड़ित करते रहते थे। ऐसा माना जाता है कि पिता द्वारा माँ की प्रताड़ना से आहत और आत्मकेन्द्रित दोस्तोएव्स्की कालांतर में मिरगी की बीमारी का शिकार बन गये थे। घर में पिता का ऐसा आतंक था कि दोस्तोएव्स्की बंधुओं को किसी से प्रेम करने का अवसर युवावस्था तक नहीं प्राप्त हुआ था। उन्हें कभी-कहीं स्वयं जाने की अनुमति न थी और न ही कभी उन्हें जेब खर्च प्राप्त होता था। सत्रह वर्ष की आयु तक फ्योदोर दोस्तोएव्स्की को निजी खर्च के लिए एक भी पैसा नहीं दिया गया था। शायद यही कारण था कि जीवन में पैसों के मूल्य को वह समझ नहीं पाये थे। हजारों रूबल की रायल्टी वह पानी की तरह बहा देते थे। संकीर्णता, निरंकुशता और चिड़चिड़ाहट फ्योदोर मिखाइलोविच दोस्तोएव्स्की को अपने पिता से विरासत में प्राप्त हुई थी।दोस्तोएव्स्की की माँ की मृत्यु युवावस्था में 1837 में हो गयी थी। पिता ने फ्योदोर और उनके भाई माइकल को पीटर्सबर्ग के ‘मिलटरी इंजीनियरिंग’ कॉलेज में भर्ती करवा दिया था। यह विद्यालय उच्च शैक्षिक स्तर के लिए प्रतिष्ठित था। सीनियर छात्र फ्योदोर को प्राय: परेशान करते रहते थे। दोस्तोएव्स्की के साथ पढ़ने वाले एक छात्र कोन्स्तान्तिन त्रतोव्स्की, जो बाद में एक कलाकार और शिक्षाविद के रूप में विख्यात हुआ था, के अनुसार, ‘‘ 1838 में दोस्तोएव्स्की दुबले और बेढंगे दिखते थे, क्योंकि उनके कपड़े उनके शरीर पर बोरे की भाँति लटकते रहते थे। व्यवहार में वह चिड़चिड़े और प्रकट में परेशान दिखाई देते थे ।… वह लोगों से मिलने से बचते थे। लोगों के साथ कैसे व्यवहार किया जाये, वह यह नहीं जानते थे और महिलाओं के बीच वह बुरी तरह घबड़ा जाते थे।"
पत्नी की मृत्यु के पश्चात् डाक्टर दोस्तोएव्स्की ने नौकरी छोड़ दी थी और अपनी रखैल कैथरीन अलेक्जैण्ड्रोव्ना, जो मास्को में उनकी नौकरानी थी, के साथ गाँव जाकर रहने लगे थे, जहॉं उन्होंनें छोटी-सी जागीर खरीद रखी थी। वह अत्यधिक पीते और मामूली कारणों से कृषि-दासों और घरेलू नौकरों पर कोड़े बरसाते थे। गाँव के किसान उनसे घृणा करते थे। उन लोगों ने अलेक्जैण्ड्रोव्ना के चाचा एफिम मैक्सिमोव के साथ मिलकर डाक्टर दोस्तोएव्स्की की हत्या कर दी थी।पिता की मृत्यु ने भी फ्योदोर दोस्तोएव्स्की को गहराई तक प्रभावित किया था। अत: कहा जा सकता है कि दोस्तोएव्स्की के व्यक्तित्व निर्माण में अनेक बातें सहायक थीं। पालन-पोषण के समय पिता द्वारा संयम की शिक्षा, मर्यादित और संतुलित आदत का दबाव, माँ की मृत्यु, पिता की नशाखोरी, रखैल सौतेली
माँ, किसानों और नौकरों के प्रति पिता का क्रूर व्यवहार , किसानों की पिता के प्रति घृणा , उनके अपने प्रति लोगों का व्यवहार, ये सभी एक प्रकार से प्रारंभिक दुर्व्यवस्था के उद्भव के कारक थे और भावी भयंकर खतरे की चेतावनी इनमें छिपी हुई थी। विद्यालय जीवन काल में एक बार फ्योदोर ने अपने भाई माइकल से कहा था, ‘‘मेरे पास एक योजना है… पागल हो जाने की।"1841 में दोस्तोएव्स्की को जूनियर सेकेण्ड लेफ्टीनेण्ट बनाया गया। 1843 में वह सेकेण्ड लेफ्टीनेण्ट के रूप में स्नातक बने और उन्हें इंजीनियरिगं विभाग में सरकारी नौकरी मिल गयी थी। एक अधिकारी के रूप में उन्होंने बहुत संक्षिप्त समय ही कार्य किया। 1844 में उन्होंने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया था। त्यागपत्र देने के बाद उन्होंने अपने भाई माइकल को लिखा था, ‘‘अपने महत्वपूर्ण वर्षों को बरबाद क्यों करूं? अब मैं स्वतंत्र हूँ। एक शैतान की भांति काम करूंगा।"दरअसल दोस्तोएव्स्की लेखक बनना चाहते थे। उन दिनों वह बाल्जाक के उपन्यासों के अनुवाद कर रहे थे और अपने उपन्यासों की योजना बना रहे थे। जीवन के प्रति बहुत ही लापरवाह थे। सदैव कर्ज में डूबे रहते थे। वह माइकल के जर्मन मित्र डा0 रीसेन्कैम्प के मकान में रहते थे। एक बार उन्हें अपने प्रकाशक से एक हजार रूबल प्राप्त हुए, लेकिन ठीक दूसरे दिन सुबह ही वह डाक्टर को आश्चर्यचकित करते हुए उससे पाँच रूबल मांग रहे थे। 1 फरवरी, 1844 को दोस्तोएव्स्की को प्रकाशक से एक और बड़ी राशि (संभवत: एक हजार रूबल) प्राप्त हुई, लेकिन शाम तक उनके पास मात्र एक सौ रूबल ही बचे थे। शेष राशि उन्होंने बिलियर्ड और डोमिनोज (ताश के एक प्रकार के खेल) में नष्ट कर दिये थे।
दोस्तोएव्स्की के अंदर प्रेम पाने की उत्कट अभिलाषा हिलोरे लेने लगी थी। अपने आत्मकथात्मक लघु उपन्यास ‘‘ह्वाइट नाइट्स" जो ‘पुअर फॉक’ के तुरंत बाद लिखा गया था और 1848 में प्रकाशित हुआ था, दोस्तोएव्स्की ने एक ऐसे नौजवान का चित्रण किया है जो राजधानी की सड़कों में प्यार के प्रतिदान की प्रतीक्षा में भटकता है। लेकिन उसका प्यार केवल कल्पना में ही होता है। दोस्तोएव्स्की महिलाओं के विषय में सोचते, लेकिन उनके सामने पड़ने पर उनसे बचने का प्रारंभ में प्रयत्न भी करते रहे थे।‘पुअर फॉक’ की सफलता से सेण्ट पीटर्सबर्ग के बंद दरवाजे दोस्तोएव्स्की के लिए खुल गये थे। इवान पानेव के घर में 15 नवम्बर, 1845 को उनका परिचय पानेव की पत्नी अवदोतिया (ईडोक्सिया) से हुआ। उन्होंने 16 नवम्बर, 1845 को माइकल को लिखा, ‘‘कल मैं पहली बार पानेव के घर गया था और मैं सोचता हूँ कि मैं उसकी पत्नी को प्यार करने लगा हूँ।"अवदोतिया ने अपने संस्मरण में लिखा था, ‘‘यह स्पष्ट था कि वह भयानक रूप से विकल और अतिसंवेदनशील युवक थे… मेरे यहाँ उपस्थित साहित्यकार किसी न किसी विवाद में दोस्तोएव्स्की को खींचकर उनके विषय में ऐसी चुभती हुई बातें करते, जिससे उनका अहम आहत होता था। वह चिड़चिड़ा उठते थे। तुर्गनेव उनमें सबसे आगे होते थे। ‘‘यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि ऐसा उस महिला की उपस्थिति में होता था जिसे वह प्यार करते थे, लेकिन जो उनके प्रति केवल अपमानजनक विनम्रता ही प्रदर्शित करती थी। शायद यही करण रहा होगा कि दोस्तोएव्स्की और तुर्गनेव के सम्बन्ध आगे मधुर नहीं रहे थे।
अधिकांश मिरगी के शिकार लोगों की भांति दोस्तोएव्स्की में वासनात्मक उत्तेजकता का आधिक्य था। देह के प्रति यह आकर्षण पानेवा के प्रति सम्मोहन के रूप में उनमें नहीं प्रकट हुआ था, बल्कि वेश्यागमन और गंदी बस्तियों में सहजरूप से उपलब्ध होने वाली महिलाओं के कारण था। लेकिन नौजवान दोस्तोएव्स्की प्रेम और शारीरिक सुख में भेद करना समझने लगे थे। संभव है कि पानेवा पर शारीरिक अधिकार पाने की असफलता उन्हें वेश्यालयों और पीटर्सबर्ग की गंदी बस्तियों की महिलाओं तक खींच ले गई हो। उन्होंने माइकल को लिखे 16 नवम्बर के पत्र में आगे लिखा था, ‘‘मैं इतना बिगड़ गया हूँ कि सामान्य ढंग से नहीं रह सकता," उन दिनों दोस्तोएव्स्की जिस समाज में विचरण करते थे, उसमें उनकी शामें प्राय: वेश्यालयों में व्यतीत होती थीं। उन्होंने स्वयं एक स्थान पर यह स्वीकार किया था कि वह अपने मित्रों के साथ रंग-रेलियाँ मनाया करते थे। यह भी विश्वसनीय नहीं प्रतीत होता कि मधुशालाओं में शामें बिताने वाले दोस्तोएव्स्की वेश्याओं से बचे कैसे रह सके थे जैसा कि उनकी पत्नी और पुत्री ने कहना चाहा था। अपने जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने ओपोचिनिन से कहा था कि वासना किस प्रकार मनुष्य को विचलित करती है और किस प्रकार वह यौनेच्छा के वशीभूत हो जाता है। उन्होंने यह भी कहा था कि देहेच्छा की मानसिक उत्तेजना स्वयं पाप से भी अधिक बदतर होती है। क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिए अपनी गिरफ्तारी के बाद 1849 में जेल से उन्होंने माइकल को लिखा था, ‘‘ बंदी जीवन ने पूरी तरह मेरी दैहिक आवश्यकताओं, जो कि पूरी तरह परिशुद्ध नहीं थीं, को अब तक लगभग नष्ट कर दिया है।"
दोस्तोएव्स्की माइकल पेत्राशेव्स्की बुराशेविच के सम्पर्क में आये थे, जो एक क्रान्तिकारी दल का नेता था। अफवाह थी कि खुफिया पुलिस को जार के विरुद्ध एक षडयंत्र का पता चला था, जो कि एक दल समाजवाद, नागरिक अधिकारों और किसानों की मुक्ति के लिए क्रान्तिकारी गतिविधियों में संलग्न था। बीस लोगों को गिरफ्तार किया गया था, जिनमें दोस्तोएव्स्की भी थे। उन्हें 23 अप्रैल 1849 गिरफ्तार करके पीटर्सबर्ग की ‘सेण्ट पीटर एण्ड पाल’ किले की एक काल कोठरी में बंद कर दिया गया था। सभी को मृत्यु दण्ड की सजा सुनाई गई थी। 22 दिसम्बर 1849 को उन्हें मृत्यु दण्ड दिया जाना था। लेकिन जार ने मृत्युदण्ड की सजा बदल दी थी। दोस्तोएव्स्की को चार वर्ष की साइबेरिया में सश्रम कारावास की सजा दी गई थी। उसकी समाप्ति के पश्चात् चार वर्षों तक उन्होंने सेना के अधीन कार्य करना था।22 दिसम्बर, 1849 के बाद दोस्तोएव्स्की ने माइकल को लिखा, ‘‘ … हां, यह पूरी तरह सच है कि मस्तिष्क जो रचनात्मकता का आदी हो, जो जीवन की उच्चतम कलात्मकता में जीता हो, और जो आत्मा की उच्चाकांक्षाओं का अभ्यस्त हो, वह मस्तिष्क मेरे स्कंध से कट गया है… ऐसा हो सकता है कि मैं कभी पेन न पकड़ सकूं ? … हाँ , यदि मेरे लिए लिखना असंभव हुआ तो मैं मर जाऊंगा। कारावास की कालकोठरी के पन्द्रह वर्ष अच्छे लेकिन हाथ में पेन हो… विदा !…।"माइकल को विदा कहने के दो दिन बाद, क्रिसमस की पूर्वसंध्या को, दोस्तोएव्स्की के पैरों में आठ पौण्ड की बेडि़यां डालकर स्लेज में बैठा दिया गया था जो एक राजनैतिक अपराधी के रूप में युरोस्लाव और निनी नावगोरोद के रास्ते दो हजार मील दूर उन्हें सश्रम कारावास हेतु साइबेरिया ले जाने वाली थी। आगामी चार वर्ष का समय उन्होनें ओमस्क बंदीगृह में कठोर सजा के रूप में काटे थे, जिसके विषय में उनका कथन था कि ताबूत का ढक्कन उन पर जड़ दिया गया था और उन्हें जीवित ही दफ्न कर दिया गया था। बंदीगृह में वह हत्यारों, चोरों, हिसंक और विक्षिप्त लोगों से घिरे हुए थे। उस भीड़ के मध्य एकाकी ही उन्होनें वह सजा काटी थी।फरवरी, 1854 में दोस्तोएव्स्की को जेल से रिहा करके सेमीपलातिन्स्क की साइबेरियन इन्फैण्ट्री रेजीमेण्ट में निजी तौर पर कार्य करने के लिए भेज दिया गया था। कुछ दिनों बाद उन्हें कस्बे के एक छोर में वीरान स्थान में एक निजी झोपड़ी किराये पर लेकर रहने की अनुमति मिल गयी थी। उनकी मकान मालकिन एक सैनिक की विधवा थी और उसकी प्रतिष्ठा खराब थी। उसकी छोटी बेटी अत्यंत सुन्दर थी और दोस्तोएव्स्की के उसके साथ संबन्ध स्थापित हो गये थे। कठोर दण्ड और संयम की बाध्यता के पश्चात् अत्यन्त सम्मोहक रूप से वह महिलाओं की ओर खिंचे थे और हर नयी महिला से उनकी मुलाकात का उन पर गहन प्रभाव पड़ता था। उन्होंने सत्रह वर्षीया लिजान्का नेवारोतावा से भी मित्रता गांठ ली थी, जो बाजार में एक स्टॉल पर सफेद पाव रोटी बेचती थी। सेमीपलातिन्स्क आने के कुछ महीनों बाद वह अलेक्जेण्डर इसाएव और उसकी पत्नी मारिया से मिले थे। इसाएव उन दिनों बेकार था। शराब ने उसे बर्बाद कर दिया था। खराब स्वास्थ्य और कमजोर इच्छाशक्ति के कारण शराबियों और बदमाशों का साथ उसे भाने लगा था। दोस्तोएव्स्की ने इसाएव से मित्रता कर ली थी। वह मारिया के प्रति आकर्षित थे। मारिया का पति घर की मधुशाला में रहना पसंद करता था, या नशे में धुत्त दीवान पर पसरा होता था, जबकि मारिया फ्योदोर के साथ अकेली होती थी। 1855 में इसाएव को कर-निर्धारक के रूप में सेमीपलातिन्स्क से पाँच सौ मील दूर कुजनेत्स्क में पुन: नौकरी मिल गयी थी। कुछ समय पश्चात् ही इसाएव की मृत्यु हो गयी थी। दोस्तोएव्स्की मारिया के प्रति अत्यधिक आसक्त थे और उससे विवाह करना चाहते थे। अतंत: मारिया विवाह के लिए तैयार हो गयी थी। लेकिन मारिया के साथ उनका वैवाहिक जीवन सफल नहीं रहा था। इसके अनेक कारण थे,
जिनके विषय में मेरी पुस्तक (‘दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’ संवाद प्रकाशन, आई–499, शास्त्रीनगर, मेरठ – 250 004, पृ0 232, मूल्य : 200/– पेपर बैक और 350/– हार्ड बाउण्ड) में वर्णन किया गया है।मारिया के जीवित रहते ही दोस्तोएव्स्की जिस युवती के प्रेम में पड़ गये थे- वह थी अपोलिनेरिया। वह उसके प्रति भी चुम्बकीय रूप से आकर्षित हुए थे, लेकिन वहाँ भी वह असफल रहे थे। इस असफलता के लिए वह अपनी बीमारियों को दोष देते थे। वह मिरगी और बवासीर का शिकार तो थे ही… अस्थमा का प्रकोप भी कभी-कभी उन्हें झेलना पड़ता था। इतना सब होने के बावजूद जुआ और शराब की लत से वह अपने को मुक्त नहीं कर पाये थे। प्राय: कर्जदार रहते थे।मारिया की मृत्यु और अपोलिनेरिया के असफल प्रेम के बाद वह अन्य युवतियों के प्रति भी आकर्षित हुए थे, जिनमें उनके मित्र डाक्टर स्टीपेन द्मित्रीएविच यनोव्स्की की पत्नी ए. आई शुबर्ट भी थी, लेकिन उन्हें वहाँ भी सफलता नहीं मिली थी। इससे पहले वह मार्था ब्राउन नाम की युवती के साथ लगभग डेढ़ वर्ष तक रहे थे। उनके विषय में उनके मित्र और उनके प्रथम जीवनीकार एन. एन. स्त्राखोव ने लियो तोल्स्तॉय को 28 नवबंर,1883 के अपने पत्र में लिखा था कि, ‘‘वह (दोस्तोएव्स्की) पाशविक कामुकता वाले व्यक्ति थे।" यहां बताना अनुपयुक्त न होगा कि समकालीन होते हुए भी तोल्स्तोय और दॉस्तोएव्स्की एक दूसरे कभी नहीं मिले थे। दॉस्तोएव्स्की की मृत्यु पर तोल्स्तोय ने लिखा – ‘‘मेरा कितना जी चाहता है कि दॉस्तोएव्स्की के बारे में मैं जो कुछ महसूस करता हूँ वह सब बयान कर सकूं।…मैं उनसे कभी नहीं मिला और न ही उनसे मेरा कभी कोई संपर्क रहा, लेकिन उनके मर जाने के बाद मेरी समझ में आया कि वह मेरे कितने निकट, कितने प्रिय और मेरे लिए कितने आवश्यक व्यक्ति थे। … मैं उन्हें अपना मित्र समझता था और मैनें सोचा कि यह संयोग की ही बात है कि मैं उनसे अब तक नहीं मिल सका, पर कभी न कभी अवश्य मिलूंगा। एक दिन दोपहर का भोजन करते समय- मैं अकेला ही भोजन कर रहा था, क्योंकि मुझे देर हो गयी थी- मैंने पढा : वह मर गये। मेरे अंदर जैसे कोई आधार सहसा टूट गया। मुझे गहरा आघात पहुंचा, और फिर यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गयी कि वह मुझे कितने प्रिय थे, और मैं रो पड़ा, और अब तक रो रहा हूँ।"
जीवन के पैंतालीसवें वर्ष में अन्ना ने उनके जीवन में प्रवेश किया था। अन्ना तब बीस वर्ष की थी। ज़िन्दगी भर वह इस कुंठा का शिकार रहे कि वह अन्ना को दैहिक सुख प्रदान करने में अक्षम थे। इस कारण वह पूर्वापेक्षा अधिक ही चिड़चिड़े हो गये थे। लेकिन वास्तविकता बिल्कुल इसके विपरीत थी। अन्ना उनके प्रति पूर्णरूप से समर्पित थी। मारिया और अपोलिनेरिया ने गृहस्थ जीवन के प्रति जहां अरुचि दिखाई थी, वहीं अन्ना ने एक सद्गृहणी के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वाह किया था। उसने पति को नियंत्रित करने का प्रयत्न किया था। वह कितना सफल रही थी, कहना कठिन है। लेकिन उसने उनकी पुस्तकों के प्रकाशन, रॉलल्टी और विवरण की व्यवस्था संभाल ली थी। एक समय ऐसा आया जब उनके सम्पूर्ण साहित्य के, जिसमें से अधिकांश गार्जियन के पास था, प्रकाशन का कार्य उसने स्वयं संभाल लिया था। अन्ना से लियो तोल्स्तोय की पत्नी सोफिया अन्द्रेएव्ना ने प्रेरणा ग्रहण करते हुए तोल्स्तोय का साहित्य स्वयं प्रकाशित करना प्रारंभ कर दिया था। यद्यपि दॉस्तोएव्स्की और तोल्स्तोय आजीवन एक दूसरे नहीं मिले थे लेकिन सोफिया अन्द्रेएव्ना से दॉस्तोएव्स्की की अच्छी मित्रता थी। अन्ना ने अपने संस्मरणों में यह उल्लेख किया है कि सोफिया प्राय: दॉस्तोएव्स्की से मिलने आया करती थीं और उनसे सलाहें भी लिया करती थीं।कहना उचित होगा कि अन्ना ने दॉस्तोएव्स्की के अराजक जीवन को किसी हद तक संभाल लिया था।

’दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’

संवाद प्रकाशन

मुम्बई/मेरठ

गीत


वरिष्ठ गीतकार-कवि राजेन्द्र गौतम के गीत


(१)
पथरा चुकीं झींलें
कभी मौसम के पड़ें कोड़े
कभी हाकिम जड़े चांटे
खाल मेरे गांव की
कब तक दरिंदों से
यहा खिंचती रहेगी
दूर----तक
जो भूख से सहमे हुए
सीवान ठिठके हैं
कान में उनके सुबकतीं
पथरा चुकी झींलें
रेत के विस्तार में
यों ठूंठ दिखते हैं करीलों के
ज्यों ठुकीं
गणदेवता की
काल-जर्जर देह में कीलें

खुर्पियों को कब इज़ाजत
धूप में भी
रुक सकें पल-भर
जाड़ियां भिंचती अगर हैं प्यास से
भिंचती रहेंगी
चांदनी पीकर अंधेरा
गेंहुआ-सा तानता फन
झोपड़ी भयभीत सिमटी
चाहती इज्जत बचाना
वक्त का मद्यप दरोगा
रोज आकर डांट जाता
टपकता खूनी नजर से
जब इरादा कातिलाना
रक्त अब तो
बूंद भर
बूढ़ी शिराओं में बचा होगा
क्यारियां इनके गुलाबों की
इसी से ही सदा सिंचती रहेंगीं.


(२)
सपनों में घुलता जहर है
रात अभी यह
तीन पहर है
बर्फ हुई
गर्मी धूनी की
पौ-फटनी है दूर
मुड़ी-तुड़ी काया
रल्दू की
ठिठुरन को मजबूर
रोम-रोम में
शीत-लहर है
मुखिया खिला-खिला
रहता था
क्या-क्या खबरें बांच
तब रल्दू के
सपनों में भी
कौंधा करती आंच
अब सपनों में
घुला जहर है

औसारे में
सबद-रमैनी-आल्हा
गुमसुम हैं
बुझे हुए
चूल्हों में पिल्ले
तोड़ चुके दम हैं
पाला ढाता
ग़ज़ब कहर है.
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डॉ- राजेन्द्र गौतम
- सितम्बर १९५२ को बराह कलाँ, जींद, हरियाणा में जन्म.
- दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनन्द कॉलेज में सह प्रोफेसर (हिन्दी)
- बीस से अधिक गीत-कविता और आलोचना पुस्तकें प्रकाशित.
- अनेक संस्थाओं से सम्मानित/पुरस्कृत.
सम्पर्क : बी-२२६, राजनगर-१, पालम, नई दिल्ली -११००७७
ई मेल :
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फोन नं. ०११-२५३६२३२१
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कहानी

सती
अरविन्द कुमार सिंह
दरवाजे की ओट से झांकती उसकी आंखें देख हमारी बांछें खिल उठीं. पढ़ाई-लिखाई और दूसरे काम-धाम से हमारा मन उचट गया था. हम ताक में थे कि कैसे बिल्लियों जैसी उन आंखॊं के साथ हो लें. भाई पर सख्त नजर रखी जा रही थी, उस साल उनकी हाईस्कूल की पढ़ाई थी. वे शरारती तो माने ही जाते थे. भाई ने इशारा किया. मेरे नजरंदाज करने पर वे मुझे मनाने लगे. उनकी इच्छा का मुझे चुपचाप पालन करना पड़ा - झांकने वाले लड़के को बाग की तरफ ले गया. पीछे भाई भी आ गये.

उस लड़के का नाम नक्कू था.यह नाम उसे जन्म से ही मिला होगा. उसकी नाक पैदाइशी जो आधी थी. हमारे घर से नक्कू को और भी कुछ उपनाम मिले थे. ये नाम उसे और उसके घर को नहीं, हमारे लोगों को मन बहलाने वाली हंसी और सुकून देते थे. ’हंडिया’ कहने से उसका निकला हुआ पेट सामने दिखाई देता. ’नकबहने’ से होठ तक झूलती नाक. कलुआ और नट्टू उसके रंग और कद को जाहिर करते हुए नाम थे. हाथ-पैर पतले होने से मां उसे सीका कहतीं. वह बतातीं , सींका यानी नक्कू अब ज्यादा दिन नहीं जियेगा, उसे सूखा रोग है. हालांकि वह हमारे ही हलवाहे का भतीजा था. उसकी मां बगैर नागा हमारे घर जानवरों का गोबर उठाने आती. फिर भी, मां उन दोनों से घृणा करती थी.

हम तीनों बाग में पहुंचे. भाई ने आम की एक ऊंची डाल नक्कू को पकड़ा दी और खुद अलग हटकर खड़े हो गये. नक्कू का सिर चकरा गया. फटी-फटी आंखों से वह जमीन को ताकने लगा. डर के मारे चेहरा काठ हो गया. वह लाश की तरह अधर में लटका हुआ था और हम मजा लेते हुए शोर मचा रहे थे, फिकरे कस रहे थे. हम उसके गिरने की प्रतीक्षा कर रहे थे. भाई के सब्र का बांध जल्दी टूट गया. तब उन्होंने डाल हिलाना शुरू कर दिया. ’धम्म’ की आवाज हुई और जक्कू जमीन पर आ गिरा . मगर वह फिर भी नहीं रोया. जबकि हमारी हंसी थक कर बेजान हो गयी.

ऎसी घटनाएं अक्सर घटती ही थीं और यह हमारा शगल हो गया था. कई बार हममें जालिमाना गुस्सा उतर आता. हम उसके बदन में कांटे चुभाते, आंखों में हरे नींबू का रस निचोड़ देते. कान ऎंठते. कभी-कभी मुर्गा भी बनाते. इसके बाद भी हम हार जाते. उसमें सिसकियां तक न उभरतीं, न ही आंसू आते.

भाई ने मान लिया था कि यह पिछले जनम में घाघ चोर था, पुलिस पीटते-पीटते थक जाती थी, फिर भी वह जुबान नहीं खोलता था. नक्कू अपने बारे में खुद भी बड़े चाव से सुनता.

उसकी मां मेरे भाई से चिढ़ती थी. उन्हें शैतान और बदमाश कहती थी. भाई नक्कू को पीटकर बदला ले लेते थे. उस समय उनका चेहरा गुस्से से तमतमाया होता. वे तय करते, एक दिन साले को रुलाकर ही रहूंगा. हमारी हरकत को मां अनदेखा कर जातीं. मां सोचती थी कि तंग आकर वह एक दिन घर आना छोड़ देगा. लेकिन नक्कू को हमारे घर से बची-खुची बासी रोटियां मिलती थीं. फटे कपड़े मिलते थे. पुराने-टूटे खिलौने और हमारा साथ. फिर उसका आना भला कैसे रुकता.

गर्मी की एक सुनसान दुपहरी. बाग का एकान्त. भाई ने पके आम की डाल हिलाई थी. अब आम को चूसकर हम दोनों गुठलियां खाट के नीचे डालते जाते थे. तभी किसी के आने की आहट हुई. पेड़ के पीछे से झांकती वही दो आंखें दिखाई दीं. ये वही आंखें थीं जो हमें हसरत से ताकतीं और हम समान रूप से उसे सताने में मजा लेते. भाई मुस्कराकर मुझे देख रहे थे. मैंने उसे नजदीक आने का इशारा किया. वह नहीं आया. उसकी लुका-छिपी कुछ देर तक चलती रही.

भाई ने आम खाना छोड़ पेड़ की तरफ निगाहें टिका दीं. बिल्लियों वाली आंखें जैसे ही दिखीं, भाई का अचूक निशाना नक्कू के मुंह पर था. वह एक खटैले पेड़ का ज्यादा पका हुआ आम था. जो उसके चेहरे पर छितरा गया था. हंसते हुए मैं पेड़ तक गया, नक्कू को घसीटते हुए मैंने उसे भाई के सामने लाकर खड़ा कर दिया.

वह सिर झुकाए जैसे हमारी अगली सजा की प्रतीक्षा करने लगा.

’भगा इसे, अब पेट खराब हुआ.’ भाई ने दिखावटी हिकारत से कहा.

भाई की आशंका में मां का डर दिखाई दिया.

पहले मैंने आम की गुठलियों की तरफ देखा, फिर आम से भरी बाल्टी को. कुछ भी छिपाना अब व्यर्थ था. नक्कू की निगाहें उन्हीं पर ठहरी थीं.

इन्हीं निगाहों में मां ने एक दिन इनसानी भूख और ’हाय’ देखी थी. फिर घृणा की गांठ हमेशा के लिए बांध ली. तभी से हम मां की चिंता, हिदायत और डांट सुनते आ रहे थे. खाते समय हमें नक्कू और उसकी मां की निगाहों से बचना होता. कभी घर के अन्दर उसका अचानक आना होता और हम खाते रहते तो अपनी-अपनी थाली उठा ओसारे या आंगन से कमरे के एकान्त कोने में भागते.

हमारी हरकत पर मां एक बार परेशानी में पड़ गई थीं. पड़ोस की एक बुआ घर में आयीं और हम थाली लेकर भागे. बुआ ने हमें और मां को भला-बुरा सब सुना दिया. मां ने उन्हीं के सामने मुझे और भाई को समझाया, ’मजदूरों’ की छूत और नजर से बचा करो.

भाई ने प्रश्न किया, ’सिर्फ उनसे ही क्यों ?’

बुआ भी अब मां के साथ थीं. भाई को डांटा, बड़ों से सवाल नहीं करते. मां ने कहा, ’वे दरिद्र और भूखे होते हैं. नक्कू और उसकी मां को ही देखो, कितनी तेज नजर है!’ जब भी हम बीमार होते , दस्त या उल्टियां होती, सर्दी-जुकाम या बुखार होता- मां गुस्सा करतीं, ’नक्कू और उसकी मां की नजर लग गई है.’ वे कहतीं.

नजर की काट भी मां के पास थी. पहले तो वे बस्ती की एक आजी से नजर झड़वातीं. फायदा होने में देर दिखती तो खुद भी टोना-टोटका करतीं. खड़े नमक के कुछ ढोंके ले चूल्हे की आग में डालते हुए कहतीं, ’अगनी माई, नकुआ और उसकी महतारी की नजर को जला दे.’ आग से पटाखे जैसी आवाजें होतीं, जो हमें अच्छी लगतीं. मां के साथ हम भी खुश होते, ’लो नजर जल गईं.’

अब हमारे यहां जब भी किसी को ऎसी बीमारी होती हम आग में नमक डालना शुरू कर देते. गांव में जिससे भी हमें घृणा होती, लड़ाई होती, हम उसका नाम आग के हवाले कर देते. कभी लड़ाई-झगड़े में भाई मेरा नाम लेते तो मैं भाई का. अम्मा गुस्सा करतीं तो हम उनका भी नाम लेते. यहां तक कि हम प्रदेश के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक को आग में जला चुके थे. अम्मा जान चुकी थीं कि पटाखे जैसी आवाजें सुनने के लिए ही हम तमाशा करते हैं. वे नमक का डिब्बा हमसे छिपाकर रखने लगी थीं.

आम देख नक्कू के मुंह में पानी आ चुका था. अब हमें उल्टी-दस्त या कुछ भी होने का डर था. मां कभी-कभी नक्कू की मां को बासी-बची रोटियां देकर उसकी भूख और बेबसी को दूर किया करती थीं. शायद भाई ने भी इसीलिए नक्कू से पूछा, ’आम लेगा?’ नक्कू की चुप्पी में से भी ’हां-ना’ के संकेत समझे जा सकते थे. जैसा चाहो, खुद तय कर लो.

भाई एक शर्त पर आम देने को तैयार थे, खाट के नीचे पड़ी गुठलियों को वह फिर से चाटे.

वह जमीन पर बैठ गया. फेंकी गयी गुठलियों को एक-एक कर उठाने लगा. हम मजे लेने के मूड में थे ही. बाल्टी से आम उठाते, आधा तिहाई चाटते और गुठलियां उसके आगे फेंकते जाते थे. बीच-बीच में भाई उसे डांट भी देते, ’पूरी तरह चाटा कर, हरामी.’

नक्कू की मां जाने कब आ गयी. गुठलियां चाटते हुए बेटे को उसने देख लिया था. हमारी बेफिक्री, मस्ती और शरारत को भी उसने देखा ही होगा. हालांकि हम चौकस हो गये थे और नक्कू को गुठलियां चाटने से मना करने लगे थे. फिर भी नक्कू नहीं मान रहा था. अपनी मां को भी वह नहीं देख पाया था.

उसकी मां को हमारी हरकत बुरी लगी. आंखों में घृणा और गुस्से की आग जलने लगी. तो भी हम डरे नहीं, शातिर अपराधियों की तरह बेशर्मी से तने रहे. उसे चिढ़ाने के लिए फिर से गुठलियां फेंकने लगे.

उसकी मां बर्दाश्त नहीं कर सकी और नक्कू पर पिल पड़ी, ”भूखा दरिद्दर है, तो मिट्टी खा ले. घास-गोबर खाया कर.’ उसने नन्नू के कान उमेठते हुए दो-तीन झापड़ लगा दिये. बेटे को ठोंकने-पीटने के बाद वह कमजोर पड़ गयी. लेकिन हमारे प्रति उसका गुस्सा वैसा ही बना रहा, ’दो जून रोटी मिलने लगी है तो राजा मत समझो खुद को. बड़े-बड़े को बिलाते देखा है हमने. बड़े घर के दुलरुआ हो तो अपनी औकात में रहो, हमसे मत लगो.’ भाई ने आज शराफत दिखाई और गुस्सा नहीं किया. पीछे मां जो आ खड़ी थी. मां का चेहरा खिंच गया ’चमारिन का जात, तू हमें औकात बतायेगी ? औकात में तू रहना सीख. भूखा दरिद्दर नहीं है तो क्यों लाती है इसे अपने साथ !’

मां अब नक्कू की मां की सफाई और आरोप को भी सुनने को तैयार नहीं थी. दोनों में कुछ देर तक वाकयुद्ध चलता रहा. आखिर में पता नहीं मां जीती कि वह. मां सबक सिखाने की धमकी देते हुए घर की ओर मुड़ी. वह भी रोते और बड़बड़ाते चली गयी. जाते-जाते यह पैसला भी सुना गयी थी कि कोई दूसरी गोबर उठाने वाली ढूंढ़ लेना.

पहली बार हमारे घर में उसकी जरूरत को समझा गया. शाम को दोपहर वाली घटना का जिक्र मां ने पिताजी से किया. पिताजी पहले नक्कू की मां पर ही क्रोधित हुए. मजदूरों की अकड़ वे भी सह नहीं पाते. उन्होंने हमें भी नसीहतें दीं, कल से गोबर खुद उठाओगे तो सारी शेखी और लफंगई निकल आयेगी. मां ने हमारा पक्ष लिया तो पिताजी ठंडे पड़ गये. उनकी चिन्ता अगले मजदूर को लेकर थी, जिसका तुरत-फुरत मिल पाना मुश्किल लग रहा था.

’यही सोचकर तो चुप कर गई. नहीं तो आज उसका मुंह चप्पल से न पीट देती.’ मां का बचा-खुचा गुस्सा था या अपनी गलती का एहसास -उनके उखड़े स्वभाव से यह तय कर पाना संभव नहीं था. मैं और मेरा भाई मां के साथ चिपके खड़े थे. ’कल से नहीं आती तो न आये, हमारी बला से. हम खुद गोबर उठा लेंगे.---- उस दिन दवा के लिए पैसे मांग रही थी, अच्छा हुआ नहीं दिए.’ भाई ने सुकून की सांस ली लेकिन मां तनकर बोली, ’पैसे! वह खाट पर तड़पती रहे तो भी न दूं.’

अगली सुबह हमारी आंखों मे हैरत थी. विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि वह काम करने फिर से चली आयेगी. हमने दौड़कर घर में मां को सूचना दी, नक्कू की मां आ गई है. वह तो दो दिन भी हमारे बिना नहीं रह सकती.

मां चुप ही रही. सिर्फ एक ठंडी निगाह मुझ पर डालकर अपने काम में लग गईं. हम निराश हुए-- साथ में नक्कू नहीं था. भाई ने कहा, पूछ नक्कू के बारे में. लेकिन मेरी हिमत नहीं हुई . अब नक्कू कभी नहीं आता. हमारी शरारतें तो जैसे उसी के लिए थीं, धीरे-धीरे वे कम होने लगीं. हमने नक्कू की परवाह करनी ही छोड़ दी.
***

जाड़े की एक शाम. हमारे घर में उदासी घिर आई. पिताजी दुखद सूचना लेकर आये थे. पहले उन्होंने मां को बुलाया, जैसा कि उनकी आदत थी. फिर उस दुख और संकट का खुलासा किया जिसका सबंध हमारे घर से था. क्षण भर के लिए हम सभी काठ से बने रहे. पिता की खबर बेचैन करने वाली थी-- नक्कू का बाप मर गया था और मां सती होने जा रही थी.

’सती?’ मां का मुंह खुला रह गया. विस्मय से पिताजी को देखा.

पिताजी ने फिर अपनी बात दुहरा दी. सती होने की बात मां को कबूल नहीं हुई, सफेद झूठ लग रही थी. वह घाट-घाट का पानी पी चुकी है, फिर कैसी पतिव्रता ? किसके लिए सती हो रही है वह ? क्यों मरने जा रही है ?’ मां की तकलीफ उपहास के रूप में प्रकट हो रही थी.

’वह कहां मरने जा रही है, उसे तो मारा जा रहा है .’ पिताजी की आवाज में तल्खी थी.

’क्यों?’ मां ने हैरानी और उत्सुकता के साथ पूछा . नक्कू के बाप को छूत की बीमारी थी. इसका इलाज ही नहीं था. ट्रकों पर बेलदारी की. जाने किस शहर से यह बीमारी ले आया. औरत को भी दे गया है. विधवा जवान शरीर, कल जाने किसको यह बीमारी वह दे बैठे. उसका घर पास-पड़ोस, टोला-- सभी तो सती होने को उसे मजबूर कर रहे हैं. गांव में और भी कई लोग साथ हैं.’

’कोई रोक नहीं रहा ?’ मां ने पूछा.

’सब तमाशा देखना चाहते हैं, सभी तो जिंदगी से ऊबे हुए हैं.’

’गांव में सब हिजड़े ही हैं, तो वह क्यों नहीं जुबान खोलती. वह तो गरब और गरूर की भी तेज थी.’ मां की आवाज पहली बार सख्त होती हुई दिखी.

’उसे धतूरे का बीज खिला दिया गया. होश में नहीं है.’ पिताजी ने गहरी सांस ली. धीरे-धीरे पिताजी भी असहाय और निरीह होते दिखाई दिये. उनका भी कहना था कि उसका मर जाना ही ठीक है. अब है कौन उसका ! कल को लोग मारें, पीछे ताने कसें और दस लांछन लगाएं.

’तो क्या उसे जिंदा आग में झोंक दोगे ?’ मां ने हिकारत से पिताजी को देखा.

पिताजी ने कोई जवाब नहीं दिया. चुपचाप बैठे रहे. फिर कल की चिंता करने लगे, ’माघ का महीना है. जेठ से पहले कोई गोबर उठाने वाली तो मिलने से रही.’

’तो इस साल उपले भी नहीं बनेंगे. मैं नहीं पाथने वाली.’ मां गुस्से में उठीं. उनका गुस्सा पता नहीं उसके सती होने को लेकर था या पिता की कमजोरी और तटस्थता पर या गोबर उठाने वाली के न मिल पाने से.

आधी रात को मां कसमसा कर बैठ गईं. नदी वाले बाग से आवाजें आने लगीं थीं. ढोल और नगाड़ों की आवाज सुनाई दी. जयकारे, हलचल और हल्ले में बदल गए.

मां ने आप ही से कहा, ’वह सती हो गई है.’

स्तब्ध, खामोश और मूर्ति जैसी जड़ मुद्रा में मां के कान उठ रहे शोर की तरफ लगे रहे. फिर न जाने क्या हुआ, वह घुटने में सिर डालकर सुबकने लगीं. मां के टूटने में सिर्फ मोह ही नहीं, अतीत की गलतियां, वर्तमान का सच और भविष्य की चिंता ही रही होगी. हमारी भी नींद टूट चुकी थी और हम मां से सटे हुए उनके चुप होने का इन्तजार कर रहे थे. भाई ने मुझे छेड़ते हुए कहा, ’कल से गोबर तुझे उठाना है.’ मैंने इनकार कर दिया. फिर मां से पूछा, ’अम्मा तुम भी सती हो जाओगी?’

आंसुओं से भीगा मां का चेहरा ऊपर उठा, ’आग लगे तेरी जुबान को.’ उन्होंने कहा.

दूसरे दिन वही हुआ जिसकी शंका पिता को पहले से थी. धुंध छंटने से पहले वे घर छोड़ चुके थे. यही हाल गांव के हर मर्द का था. कुछ दिनों के लिए औरतें ही घर की मुखिया थीं. यह भी सबको पता ही था कि पुलिस, प्रशासन और नेताओं का ड्रामा कुछ दिन तक चलेगा ही.

गांव का वातावरण धीरे-धीरे बदल रहा था. पुलिस की उपस्थिति अब जलने की जगह तक सीमित रह गई थी. धूप में खाट डाले दो-चार सिपाही गप में लगे रहते. उनकी तरफ से सिर्फ़ जयकारों की मनाही थी. हालांकि उसका भी बीच-बीच में उल्लंघन होता रहता था. दर्शनार्थियों के लिए सती महान थी. दूर-दूर से लोग दर्शन करने आ रहे थे. पिता जी भी दर्शन कर आये थे.

एक सुबह मां जल्दी उठीं. हमें भी नहाकर तैयार होने को कहा. हमारी जानने की उत्सुकता पर मां डांट लगा देती. हमें इतना ही पता था कि कहीं घूमने जाना है. फिर भी हम उत्साह में थे. भाई ने मां के मन की बात पकड़ ली. मेरे कान में बता, ’नक्कू की मां जहां सती हुई है, आज हम वहीं चलेंगे.’ कौतूहल अब और बढ़ गया. मां ने नयी साड़ी पहनी. बिन्दी और सिंदूर लगाया. हमने भी धुले कपड़े पहने. मां ने एक थाली में लाल कपड़े के नीचे कुछ चीजें रखीं. वह फूल, अगरबत्ती, लौंग, कपूर, सिन्दूर, बताशा और नारियल था. मां ने भाई को देखने के लिए कहा, कुछ भूल तो नहीं रही. भाई ने एक-एक कर सबका फिर नाम लिया. माचिस की याद भाई ही ने दिलायी. मां वह केला भी उठा लाई; जिसे पिछली शाम हमारी नजर से बचाकर जाने कहां रख छोड़ था. अब हम दौड़ते हुए नदी वाली बगिया की तरफ जा रहे थे, जहां नक्कू की मां सती हुई थी.

वहां पहुंचकर हमारा कौतूहल अब ठंडा पड़ चुका था. वहां जलती हुई चिता नहीं थी. समाधि के नाम पर चार-छह ईंटें जोड़ दी गई थीं, जिसके नीचे राख दबी रही होगी. ऊपर ढेर सारा चढ़ावा. हमें पता चला कि पुलिस यहां समाधि नहीं बनाने दे रही है. कुछ दूरी पर गड़े बांस के ऊपरी सिरे पर बंधा एक लाल कपड़ा दिखाई दिया. जिसे हम मंदिर की मुंडेरों पर देखा करते थे. कीर्तनिया पार्टी ने फिर भजन गाना शुरू कर दिया था. उनकी पुलिस के साथ नोक-झोंक चल रही थी. पुलिसवाले चिता से पांच सौ मीटर दूर बैठने को कह रहे थे. गांव के ही एक पंडित जी मिले. मां को एक परची देते हुए बोले, ’माता जी, दो रुपया दान में दीजिए. यहां सती के लिए मंदिर बनेगा.’

मां ने साड़ी की टोंग से दो रुपया निकालकर पंडितजी के हवाले किया और परची को टोंग में बांध लिया. मां समाधि के साथ बैठ गईं. अगरबत्ती जलायी. एक खुली ईंट को सिंदूर का टीका लगा दिया. लौंग, फूल और बताशा चढ़ाये, फिर नारियल तोड़ा. मां के होंठ कुछ क्षण तक बुदबुदाते रहे. उठने से पहले मां ने सामाधि पर फिर से सिर नवाया. हमें भी ऎसा करने को कहा. हमने भी मां के साथ समाधि के चक्कर लगाये. कुछ भी बोलने और पूछने के लिए मां पहले ही मना कर चुकी थीं. चलने से पहले मां ने समाधि की मिट्टी का टीका मुझे, भाई और खुद को भी लगा लिया.

दूर धूप में बैठा हमें नक्कू दिखा. वही झांकने वाली आंखें, बुझा चेहरा, मुंड़ाया हुआ सिर और शरीर से कमजोर. सूखा रोग जैसे धीरे-धीरे उसमें बढ़ रहा था. उसके सामने बिछे अंगोछे पर फल, बताशे और घी में तली टिकरियां थीं. कुछ मूंगफली के दाने भी थे. जिसे दयावश लोग डाल गये थे. हमारे पीछे मां भी आ गईं. मां ने थाली से प्रसाद का केला उठाकर उसके अंगोछे पर रख दिया. साड़ी की टोंग खोली, एक सिक्का नक्कू के हाथ में दिया. पैसा देख भाई की आंखें चमक उठीं. मां की नजर बचा भाई ने नक्कू के सिर पर एक मुक्का दे मारा. क्षण भर में ही सिक्का भाई की मुट्ठी में था. लेकिन, तभी एक हैरत भरी घटना हुई, जो हमारी उम्मीद और नक्कू के स्वभाव के विपरीत थी. रुंधे स्वर में दर्द से कराहते हुए नक्कू ने भाई की ओर देखा. विक्षोभ में आंखें सिकुड़ गईं. होंठ फिर हिले - शब्द अंदर ही घुटते हुए. शरीर उसका कांप रहा था. अचानक पागलों जैसी सनक उठी . मां का दिया हुआ केला उठाकर उसने समाधि की ओर फेंक मारा. अंगोछे को उठाकर हवा में उछाल दिया. सब कुछ बिखर चुका था -- टिकरियां, मूंगफली के दाने, फल और बताशे.


हम डरे-सहमे नक्कू को देख रहे थे. वह रुका तो हमने राहत की सांस ली. लेकिन वह फिर हिंस्र जानवर की तरह भाई की तरफ पलटा. भाई चीख उठे. भाई की हथेली पर नक्कू ने अपने दांत गड़ा दिये थे. सिक्का अब नक्कू की मुट्ठी में था और भाई की हथेली पर खून.

सिक्का हाथ में आते ही नक्कू शांत और स्थिर हो गया. अब वह हमसे दूर जा बैठा. वह लगातार सिक्के को घूरे जा रहा था.

चोट खाए, हतप्रभ खड़े भाई बदला लेने के लिए आगे बढ़ते, किन्तु मां ने रोक दिया. मां ने शंकित होकर अगल-बगल देखा. हम किसी की नजर में नहीं थे. मां ने प्रसाद की थाली मुझे दी . फिर हम दोनों की बाहें पकड़े हुए मां हमें घर की तरफ ले जाने लगी.

मां अब वहां एक क्षण भी रुकने को तैयार नहीं थीं ....’नक्कू की हरकत हमारे लिए अपशकुन है. सब सती मैया का कोप है. जल्दी चलो.’

मां ने एक बार फिर समाधि की ओर देखा, ’सती मैया, मेरे बच्चों की रक्षा करो.’ मां की आंखों में आंसू आ गये.

चिंता, बेचैनी और भय से हम सभी के चेहरे मलिन थे.
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अरविन्द कुमार सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिला के बरवारीपुर गांव में ११ जुलाई, १९६२ को हुआ था.
हिन्दी में स्नाकोत्तर अरविन्द की कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. अब तक उनके दो कहानी संग्रह १. बिरादरी का कटघरा और २. उसका सच प्रकाशित हुए हैं.
’दिशा’ पत्रिका का कुछ समय तक सम्पादन और स्व. मान बहादुरसिंह की कविताओं का सम्पादन -’आदमी का दुख’ शीर्षक से किया है.
पुरस्कार/सम्मान : ’सती’ कहानी पर रमाकान्त स्मृति पुरस्कार.
सम्प्रति : एच.सी.एल.इन्फोसिस्टम्स लि. (नोएडा) से सम्बद्ध.
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