गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

वातायन-अक्टूबर,२०१२


अपनी बात

रूपसिंह चन्देल

संस्मरणों पर केन्द्रित अक्टूबर,२०१२ का ’वातायन’ प्रस्तुत करते हुए प्रसन्नता हो रही है. इसमें ’हम और हमारा समय’ के अंतर्गत प्रस्तुत है नवें विश्वहिन्दी सम्मेलन पर आधारित इला प्रसाद का आलेख –’समय की शिला पर---’.  आलेख विश्वहिन्दी सम्मेलनों के आयोजन, प्रयोजन, औचित्य, कार्यविधि आदि अनेक संदर्भों पर ध्यानाकर्षित करता है.  सितम्बर,२०१२ में दक्षिण अफ्रीका के जोहन्सबर्ग में सम्पन्न हुआ सम्मेलन जिस प्रकार प्रश्नों के घेरे में रहा, उसका स्पष्ट संकेत इस आलेख में विद्यमान है.

हिन्दी की वरिष्ठ और चर्चित कथाकार सुधा अरोड़ा के पिताश्री रामलुभाया अरोड़ा जी एक साहित्य प्रेमी व्यक्ति ही नहीं एक लेखक भी हैं. राजेन्द्र यादव पर उनका  संस्मरण - खुदी को कर बुलंद इतना... - एक यारबाश हरफनमौला इंसान’ एक अविस्मरणीय संस्मरण है. सुधा अरोड़ा जी की कहानियां ही नहीं उनके संस्मरण भी अत्यंत जीवंत और यादगार होते हैं.  वरिष्ठ कथाकार आबिद सुरती पर उनका  संस्मरण ’जिंदादिली का दूसरा नाम - आबिद सुरती’ पाठक को लेखक के जीवन के अज्ञात पहलुओं से साक्षात करवाता है .

इन सबके साथ प्रस्तुत है मेरे द्वारा अनूदित महान रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की द्वारा लियो तोलस्तोय पर लिखी गई कुछ टिप्पणियां. ये टिप्पणियां मेरे द्वारा अनूदित और संवाद प्रकाशन से प्रकाश्य पुस्तक ’लियो तोलस्तोय का अंतरंग संसार’ में संकलित हैं.

आशा है अंक आपको अवश्य पसंद आएगा. आपकी बेबाक टिप्पणी की प्रतीक्षा रहेगी.

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हम और हमारा समय

समय की शिला पर---
इला प्रसाद


विश्व हिन्दी सम्मेलन मेरे लिए एक सर्वथा नए किस्म का अनुभव था । 

२००२ में अमेरिका आने के बाद यह पहला अवसर था जब मैं हिन्दी भाषा से जुड़े किसी कार्यक्रम में शरीक हो रही थी और वह भी विश्व स्तर का । ढेर सारी आशाएँ मन में -इस  साहित्यकार से मिलूँगी , उससे वार्तालाप करूँगी , और आशंकाएँ भी "मुझे पहचानता ही कौन है।" सरीखी । जाऊँ न जाऊँ का असमँजस बना ही रहता अगर स्नेही डा. अन्जना संधीर ने यह न बतलाया होता कि इस सम्मेलन में अमेरिका के साहित्यकारों की पुस्तकों के विमोचन का कार्यक्रम भी है और मेरी  सद्यप्रकाशित पुस्तकें भी उन्होंने सूची में डाल दी हैं ।

अब, तमाम विसंगतियों के बावजूद - जो मैंने सम्मेलन के दौरान झेलीं , महसूस कीं , यह कह सकती हूँ कि मेरे मन की शिला पर कुछ तो अमिट अंकित हुआ ही । कटुता का भी अपना स्वाद होता है और धुर की सीमा वस्तुत: वही तय करता है।

सम्मेलन की पूर्व संध्या को ही नरेन्द्र ( मेरे पति ) मुझे  संयुक्त राष्ट्र संघ की भव्य इमारत दिखा लाए थे , तब भी वहाँ से सोलह मील दूर होटल में रुके हम अगले दिन जार्ज वाशिंगटन पुल  की  भव्य संरचना को सराहते , वहाँ के ट्रैफ़िक जाम को कोसते , सम्म्लेन में आधा घंटा देर से ही पहुँच पाए। सम्मेलन समय पर शुरू  हो गया था और बहुतों की अनुसार यह एक खास बात थी । पूरा हॉल खचाखच भरा हुआ था । बालकनी की कुछ ही कुर्सियाँ खाली जिन पर शायद किसी ने बैठना पसन्द न किया होगा । उनमें से एक मुझे नसीब हुई और तुरंत ही मुझे भी अपनी गलती समझ में आ गई । सामने और दूसरी ओर जो क्लोज सर्किट टी.वी स्क्रीन लगाए गए थे , मेरी कुर्सी उनके भी पीछे की तरफ़ थी । सुन तो सकती थी लेकिन कुछ भी देखना नसीब नहीं हो रहा था । अंतत, कुछ ही मिनटों के बाद मैंने बालकनी में सबसे पीछे , जहाँ प्रबंधक समिति के सदस्य खड़े थे , जाकर खड़ा होना उचित समझा ।

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून का अपने भाषण में " नमस्कार, क्या हाल-चाल है" कहना था कि हर हिन्दी प्रेमी की छाती चौड़ी हो गई जैसे । हाल में तालियाँ बज उठीं । भारत का सूर्य उठान पर है ऐसा महसूस हुआ लेकिन अपने देश में ही भाषा की जो दशा और दुर्दशा है, हिन्दी के नाम की रोटी खानेवाले किस तरह हिन्दी के रास्ते की बाधा हैं इस पर भी बाद में , छोटी छॊटी मंडलियों में चर्चारत लोगों को देखा । आनंद शर्मा ने स्मारिका का विमोचन किया और हमारी समझ में यह नहीं आया कि इन दो स्मारिकाओं के अतिरिक्त जो स्मारिका  विदेश विभाग के अनुमोदन से अमेरिका से प्रकाशित हुई थी उसे इस विमोचन से क्यों अलग रखा गया । खैर , बड़े- बड़े लोग वहाँ थे और आप जानते हैं बड़े लोगों की बड़ी बातें होती हैं जो मुझ जैसे नाचीज की समझ में न आनी थी सो न आई ।
उदघाटन समारोह के बाद का सारा कार्यक्रम फ़ैशन इंस्टीट्यूट आफ़ टेक्नोलाजी में था । डा. अन्जना संधीर , बाल  शौरी  रेड्डी  और कुछ अन्य जनों को मिलने के बाद मैं भी  बाहर निकली। अचानक आवाज सुनी -- "इला " ! यह बिन्दु दी( बिन्दु भट्ट) थीं । उन्होंने गले लगा लिया।  वे अच्छी कवियित्री हैं और कोलम्बिया युनिवर्सिटी . में लाइब्रेरियन हैं । उनके साथ सीमा खुराना थीं । येल् युनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ाती हैं - लेखिका और कवियित्री ।  लेकिन यह दूरी बसों में तय होनी थी । हम रास्ते भर बातें करते गए। जो प्रतिभागी भारत या अन्य देश  से आए थे उनका पंजीकरण पहले ही हो गया था किन्तु हमें फ़ैशन इन्स्टीट्यूट पहुंचते ही कतार में खड़ा होना पड़ा । हमारा पंजीकरण होना था ।  यह कष्ट भी खुशी में  तब बदल गया जब  बड़े से बैग में अपनी स्मारिका  "विश्व मंच पर हिन्दी - नए आयाम ; अमेरिकी हिन्दी साहित्य और साहित्यकार, अन्य सीडी आदि के साथ हमें दी गई । खुश होना इसीलिए भी स्वाभाविक था कि  इस स्मारिका में मेरा भी एक लेख है ।

भारत से आए तमाम लोग - जिनमें साहित्यकार भी थे - होटल पेन्सिलवानिया की व्यवस्था से असंतुष्ट दिखे । किन्तु  ऊँची ऊँची इमारतों वाले मैनहट्ट्न जैसे मंहगे शहर में शायद इतने बजट में इतनी ही व्यवस्था सम्भव थी । इस होटल की खास बात यह थी कि यह फ़ैशन इन्स्टीट्यूट से बहुत नजदीक था - आप कुछ दस मिनट पैदल चलकर वहाँ पहुंच सकते हैं । मैनहट्ट्न में फ़ुटपाथ अच्छे हैं  और पैदल चलना आसान है। अगर मैं मैनहट्ट्न की निवासी होती  तो "रोड टेस्ट" कहानी कभी न लिखी गई होती । वहाँ बसों /ट्रेनों की व्यवस्था भी अच्छी है और बहुत सारे लोग इन्हीं में सफ़र करते हैं और कार चलाने की जहमत नहीं उठाते । टैक्सियाँ बहुत मंहगी हैं और शायद उन्हीं  सब को ध्यान में रखकर जनता निजी कारों से यथा सम्भव सड़क को खाली रखती है। शायद आप इशारा समझ गए --  मैन हट्ट्न और न्यूयार्क शहर में ऐक्सीडेन्ट बहुत होते हैं।

पंजीकरण के बाद सफ़र से थके हारे लोग कैफ़ेटेरिया में जमा हो गए । भोजन अच्छा था किन्तु यहाँ भी लम्बी लाइन थी । अपनी दोनों मित्र लेखिकाओं - बिदु भट्ट और सीमा खुराना के साथ मैंने पहले ही एक टॆबल हथिया ली थी -  इस कार्य में वह बड़ा बैग काम आया । फ़िर अनिल प्रभा कुमार - वे हमारी सीनियर, एक अच्छी कवियित्री  और लेखिका हैं  भी हमारे साथ आ गईं । हम सबने एक दूसरे को पढ़ा था , फ़ोटॊ देखी थी और अभी व्यक्तिगत रूप से मिल रहे थे । हमने भोजन शुरू ही किया था कि हमारी टेबल पर एक छॊटी-सी , दुबली-पतली महिला अपनी प्लेट लेकर आ बैठीं । जो तस्वीरें देखीं थीं याद आ रही थीं लेकिन  फ़िर भी.... पूछा । वे बोलीं "मृदुला गर्ग।" बस फ़िर क्या था । हमारी मंडली उत्साह में आ गई । अपनी टेबल पर मृदुला गर्ग । हम तो विशिष्ट हो गए । फ़िर चित्रा मुद्गल और सूर्यबाला भी आ गईं ।  बातें की । फ़ोटॊ खींचे हमने । वे हमारे बचपने पर मुस्कराती रहीं ।

फ़ोटॊ खींचने का कार्यक्रम चल रहा था कि एक अन्य महिला आ खड़ी हुईं । मेरा परिचय हुआ - इला कुमार । हम सम्मेलन में आने के दो दिन पहले से फ़ोन पर बातें कर रहे थे । अब उनसे भी व्यक्तिगत परिचय हो गया।

भोजन के बाद पुस्तक प्रदर्शनी का उदघाटन होना था । बार -बार कैफ़ॆटेरिया में विदेश मंत्री महोदय द्वारा उद्घाटन  की घॊषणा के बावजूद काफ़ी लोग बैठे रहे । लोगों की दिलचस्पी पुस्तकों में थी , अपना नेट्वर्क बनाने में थी लेकिन उद्घाटन में नहीं थी । बाद में तीन दिन लोग पुस्तक मेले और विभिन्न सत्रों में पाए भी गए  किन्तु एक वर्ग वह भी था जो आधे दिन के कार्यक्रम के बाद ही अमेरिका दर्शन पर निकल गया । बाद में यह भी जाना कि इस सम्मेलन में इस बार हिन्दी साहित्य से जुड़े शिक्षाविदों , लेखकों , विद्वानों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी और सरकारी अफ़सरों की ज्यादा । लेकिन यह भी तो है कि यह सम्मेलन सरकार की तरफ़ से आयोजित होता है!

खुद मैं, अपनी बचपन की परिचित लेकिन अभी गुजरात की प्रतिनिधि के रूप में आई कवियित्री नलिनी पुरोहित को मिलने , उनकी कविता पुस्तक लेने ,होटल पेन्सिल्वानिया चली गई ।  कुछ समय बाद खयाल आया - पुस्तक विमोचन शाम साढ़े छह बजे तय है । अमेरिका में गर्मियों में सूर्यास्त बहुत देर से होता है - आठ - साढ़े आठ के करीब इसीलिए घड़ी देखे बिना कई बार समय का अन्दाजा नहीं होता ।

रास्तों के मामले में मैं बहुत कच्ची हूँ । मुझे चेहरे याद रह्ते हैं , रास्ते याद नहीं रहते । नलिनी दी ने बतलाया था, तब भी अपने सामने एक दम्पति को देखा जो सम्मेलन में दिखे थे और अभी विपरीत ( यह मैने बाद में जाना ) दिशा में जा रहे थे । अपनी बुद्धि पर भरोसा न कर उनके ही पीछे चल पड़ी । काफ़ी दूर जाने पर भी जब फ़ैशन इन्स्टीट्यूट के दर्शन न हुए  तो उन्हें रोका " आप  सम्मेलन में आए हैं न? " "जी हाँ ।" उत्तर मिला ।  "फ़ैशन इन्सिट्यूट जा रहे हैं ? " " वहाँ क्यों जाना चाहती हैं आप?  अभी वहाँ कुछ नहीं है । कवि सम्मेलन है - रात में ।" उन्होंने मुझे हैरानी से देखा । मेरे चेहरे पर बेचारगी तैर आई होगी जब मैंने कहा - "मुझे जाना है । आप रास्ता बता दीजिए । वहाँ अभी पुस्तक विमोचन होनेवाला है।"  क्या रखा है पुस्तक विमोचन में - का भाव उनके चेहरे पर । जाहिर है वे पत्नी के साथ हवाखोरी पर निकले थे , तब भी मेरी मूर्खता पर तरस खाते हुए उन्होंने कहा - " जाइए ।"  उँगली से इंगित किया रास्ते की ओर । सीधे विपरीत दिशा में लौटी मैं ।

अभी समय था । विभिन्न सत्र चल रहे थे ।

हेफ़्ट आडिटोरियम में जो सत्र चल रहा था वहां स्टेज  पर रवीन्द कालिया , मृणाल पान्डे  आदि । मैंने झांका और जाकर बैठ गई । बहस जारी थी ।  टी वी वाले हिंगलिश परोस रहे हैं । भाषा के साथ खिलवाड़ हो रहा है । हम अपनी अगली पीढ़ी को क्या देने जा रहे हैं , वगैरह - वगैरह । बोलने के लिए मात्र दो- तीन मिनट । अब कोई रिहर्सल करके तो लोग आए नहीं होंगे सो हर व्यक्ति तीन मिनट की सीमा पार कर जाता और संचालक महोदय बीच में ही बैठने का अनुरोध करने लगते ।

बाद में जाना कि यह भी कोई खास बात नहीं थी , ऐसा ही होता है । तमाम सत्रों में यह स्थिति आती रही । लेकिन यदि आप इन सत्रों में उपस्थित हों तो बहुत सारे कायदे के सवाल उठाए जाते हैं , गंभीर विषयों पर परिचर्चा होती है और यदि आप सचमुच हिन्दी प्रेमी हैं , अपनी भाषा से जुड़े प्रश्नों से सरोकार रखना चाहते हैं तो आपके मष्तिष्क को पर्याप्त खूराक मिल जायेगी ।

हर रोज सम्मेलन -समाचार भी प्रकाशित होता रहा । जो कुछ छूट गया, उसकी जानकारी आप सम्मेलन समाचार से ले लीजिए ।

यह सम्भव भी नहीं था कि आप सारे सत्रों में भाग लें क्योंकि एक ही समय में दो समानान्तर सत्र भी चल रहे थे ।

खैर यह तो हुआ...

शाम के भोजन  के बाद जब मैं अन्य लेखिका , शशि पाधा के साथ कैफ़ेटेरिया से भागने की तैयारी में थी - पुस्तक विमोचन के लिए - कि हमारी टेबल पर सुनीता जैन आईं । हमने उन्हें देखते ही पहचान भी लिया । इतनी तस्वीरें देखीं थीं ! वे हमें अपनी प्रवासी-निधि योजना के बारे में बता गईं । तभी कमला - शिंघवी आईं ।  मीठी मुस्कान । हम धन्य हो गए।  फ़िर से एक बार  फ़ोटॊ सेशन और सुनीता जैन आदि सुषम बेदी के साथ । हम भाग लिए ।

पुस्तक विमोचन कार्यक्रम ने इतिहास रचा ।  अमरीका से एक साथ  पच्चीस रचनाकारों की सैंतीस पुस्तकों का विमोचन । विदेश मंत्री पधारे - अपने सहयोगियों के साथ । जिन पुस्तकों का विमोचन होना था , उनका एक आकर्षक पोस्टर मंच पर लगा था । इससे पहले मंत्री जी अमरिकी रचनाकारों की पुस्तकॊं की प्रदर्शनी का भी अंतत: उद्घाटन कर आए थे । एक तरफ़ वरिष्ठ लेखिकाएँ , सुनीता जैन , सुषम बेदी, अन्जना संधीर , सुरेन्द्र गंभीर , रेखा मैत्र  आदि दूसरे हम नवागत - शशि पाधा, देवी नांगरानी, अमरेन्द्र कुमार, अभिनव शुक्ल  आदि  - सब एक मंच पर , एक साथ । यह एक अविस्मरणीय घटना थी ।

तीन बहु प्रचारित प्रदर्शनियों के अतिरिक्त , एक पुस्तक प्रदर्शनी - अमरीकी रचनाकारों की २०० से अधिक  पुस्तकों  की , जहाँ रचनाकारों के चित्रों के अतिरिक्त अमरीका में  होती रही विभिन्न  गतिविधियों (१९६० से अबतक)  को - चित्रों में दर्शाया गया था, दर्शनीय थी ।  यहाँ से प्रकाशित तमाम पत्र- पत्रिकाओं को उपलब्ध कराया गया था , उनकी पत्रिकाओं की प्रतियाँ मुफ़्त में वितरित भी की गईं । इस  आयोजन को देखने वाले बाद में अतिथि पुस्तिका में पठनीय प्रतिक्रियाएँ छॊड़ गए ।  स्मारिका - अमेरिकी साहित्यकारों के लेख सहित । तमाम साहित्यकारों के परिचय और उनकी कृतियों  का लेखा - जोखा प्रस्तुत करती हुई । अमेरिका के उन विश्व विद्यालयों की सूची भी है इसमें - जहाँ हिन्दी पढ़ाई जाती है।

काफ़ी हो गया । हमने विश्व मंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज करने में कोई कसर नहीं छॊड़ी ! अब आपको नकारना ही है , तो नकारें वरना डा. अन्जना संधीर ने , इस सारे आयोजन की परिकल्पना उन्हीं की थी और परिश्रम भी उन्हीं का, आखिरी मेहनत की थी। हम सबने उन्हें धन्यवाद दिया और आडीटोरियम से वापस हुए ।

कवि सम्मेलन रात गए हुआ । मैं वहाँ नहीं थी । लोगों ने आनन्द लिया । उनमें डा कर्ण सिंह भी थे यह हमें अन्तिम दिन उनके समापन भाषण से पता चला । डा. कर्णसिंह का समापन भाषण मनोरंजक और विद्वता पूर्ण था - हमेशा की तरह । बहुत अच्छे वक्ता हैं वे , अच्छे इन्सान भी । उन्होंने  स्वरचित कविता और रामायण की चौपाइयाँ भी सुनाई । श्रोता मुग्ध । देर तक तालियाँ बजती रहीं ।

अन्तिम दिन तक मैं अपने प्रिय कवि सुरेश  ऋतुपर्ण, आदरणीय डा. राम चौधरी , कनाडा से आए श्याम त्रिपाठी , लंदन से उषा राजे सक्सेना आदि को मिल चुकी थी ।  अमेरिका के विभिन्न कवि- लेखक मित्रों को भी ।

बाकी मनीषियों से चाहे व्यक्तिगत परिचय न हुआ, उन्हें देखा - सुना ।

बहुत सारे मित्रों - प्रिय परिचित लेखकों / पत्रकारों की अनुपस्थिति खली ।

कुछ को न जानने की, न मिल पाने की पीड़ा रह गई ।....

कुछ मित्रों को उलाहना दिया, कुछ से फ़ोन पर बातें होकर रह गईं ।

हर रोज रात को सांस्कृतिक कार्य क्रम होते रहे । नॄत्य - संगीत के । लोगों ने भरपूर आनन्द उठाया ।

समय की शिला पर मधुर - अप्रिय चित्र बने ! मन की शिला पर भी .......

अब आप पूछेंगे कि हिन्दी का क्या हुआ? तो जो प्रस्ताव पारित हुए सम्मेलन के अन्त में उनकी खबर हर समाचार पत्र , बेब पत्रिका में छप चुकी है।  पढ़ लीजिए ना ।  हिन्दी का भविष्य इन सम्मेलनों से वास्तव में तय होता है क्या ?


( नवें विश्व हिन्दी सम्मेलन, न्यूयार्क पर आधारित संस्मरण जो गर्भनाल में प्रकाशित हुआ था)
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संस्मरण

                                            दौड़ती साइकिल  पर राजेन्द्र यादव(जमशेदपुर -चिल्का झील के रास्ते-1955)  


खुदी को कर बुलंद इतना... - एक यारबाश हरफनमौला इंसान

 रामलुभाया अरोड़ा

सन् 1954 । कलकत्ता । राजेंद्र यादव से मेरा पहली बार परिचय कमलाकांत द्विवेदी के माध्यम से हुआ । कमलाकांत बेहद ज़हीन शालीन, मितभाषी लड़का था। उसका चचेरा भाई श्रीराम द्विवेदी मेरा लंगोटिया यार था । कानपुर से उसके पिता कलकत्ताा आये थे और बड़ा बाज़ार में उनकी थोक में साबुन बेचने की एक लंबी सी दूकान थी जहां बाहर की ओर घंटी बजा बजाकर, चार आने सेर की हांक लगाकर साबुन बेचा जाता था । तब तक मेरी साबुन की लक्ष्मी सोप फैक्टरी थोक क्रेताओं में काफी चलती थी । एक तो हमारा साबुन सस्ता होता था और क्वालिटी दूसरों के मुकाबले बहुत अच्छी थी । फैक्टरी से निकलने के बाद मैं जब श्रीराम की दूकान पर आता तो थोड़ी देर वहीं बैठ जाता । श्रीराम कानपुर के स्कूल से सातवीं-आठवीं पास कर पढ़ाई छोड़ चुका था । मैं स्कॉटिश चर्च कॉलेज से बी.कॉम पास करके पंजाब नेशनल बैंक में कुछ महीने नौकरी करने के बाद अपने व्यवसाय में रम गया था । पढ़ाई की असमानता के बावजूद हम दोनों में दांत काटी रोटी का रिश्ता था । कुछ साल बाद श्रीराम के पिता ने कलकत्ता छोड़कर इटावा में बसने का निर्णय ले लिया । जाते जाते श्रीराम ने मेरी पहचान अपने चचेरे भाई कमलाकांत से करवा दी जो आई.ए.एस. की तैयारी कर रहा था । कमलाकांत उम्र में मुझसे छोटा था और मुझे लुभाये भैया कहकर संबोधित करता था । कमलाकांत के पिता टाटानगर में ऊंची पोस्ट पर नौकरी कर रहे थे और कमलाकांत कलकत्ता के खिदिरपुर इलाके में डायमंड हार्बर रोड की एक बाई लेन के मोड़ पर किराये के एक छोटे से फ्लैट में कृष्णाचार्य के साथ रहता था। जब राजेंद्र  ( यादव ) सन् 1954 में कलकत्ता आया तो वह भी उन दोनों बैचलर के साथ टिक गया। पहली बार जब राजेंद्र को देखा, वह ऊंची पेशानी वाला काफी तेजस्वी युवक था । खूब सारा देशी विदेशी साहित्य उसने पढ़ रखा था और उसकी बातें किया करता था । राजेंद्र का तब तक एक उपन्यास छप गया था और हिन्दी साहित्य के लोगों में वह एक जाना माना नाम था । मेरी भी साहित्य में रुचि थी । विशाल भारत, चांद, हंस, विप्लव सभी पत्रिकाएं मेरे पास आती थीं । हम लोग इधर उधर की खूब बातें करते । कृष्णाचार्य और यादव ही इस साहित्य चर्चा में ज़्यादा हिस्सा लेते, मैं और कमलाकांत तो श्रोता की ही भूमिका अदा करते । कृष्णाचार्य को कुछ महीनों बाद नेशनल लायब्रेरी के हिन्दी विभाग के निदेशक की सरकारी नौकरी मिल गई थी ।

एक घटना आज भी मेरे दिमाग़ में पूरे विस्तार से दर्ज़ है । कमलाकांत के छोटे भाई कृष्णकांत का टाटानगर में यज्ञोपवीत संस्कार था । श्रीराम अपने परिवार का प्रतिनिधि बनकर टाटा जाने से पहले कलकत्ता आये । वह कमलाकांत के साथ टाटा जाने वाला था । कहने लगा - तुम दोनों भी चलो । मुझे चिल्का लेक देखने का चाव था । राजेंद्र भी साथ हो लिया । उन दिनों राजेंद्र कई बार बिल्कुल उखड़ा उखड़ा सा दिखाई देता था । एक दिन मैंने और श्रीराम ने जब घेर घार कर उसे पूछा तो उसने बताया कि पिछले कई सालों से एक लड़की से उसकी बड़ी घनिष्ठता चल रही थी । पढ़ाई के दौरान ही उसने उससे शादी के सपने देखे थे । पर इस बीच एक हादसा हो गया । राजेंद्र को स्पोर्ट्स से बहुत लगाव था । हॉकी, क्रिकेट उसके पसंदीदा खेल थे । एक दिन हॉकी खेलते समय उसने एक गोल कर दिया । दूसरी टीम के लड़के ने भागते हुए राजेंद्र की एक टांग पर हॉकी स्टिक से जोर का वार किया । पैर की हड्डी टूट गई थी । तब राजेंद्र अपने किसी चाचा या ताऊ के पास पढ़ाई के लिये टिके हुए थे । चाचा वैसे ही खेल कूद में इतना समय बर्बाद करने के लिये जब तब प्रवचन देने बैठ जाते थे । डर के मारे राजेंद्र ने अपने पैर की तकलीफ के बारे में बताया ही नहीं । टूटे हुए पैर के साथ बाहर जाना मुश्कि था ही । सो घर में बैठकर पढ़ाई करते रहे । इधर टांग सूजती चली गई । अब सबकी निगाह पड़नी ही थी । जब पैर खूब सूज गया तो पिता को बुलाया गया । राजेंद्र के पिता डॉक्टर थे । उन्होंने हड्डियों के एक बड़े विषेषज्ञ को दिखाया लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी । डॉक्टर ने बताया कि टांग की हड्डी का एक हिस्सा पूरी तरह गल चुका है और या तो एक टांग काटनी पड़ेगी या वह हड्डी  निकाल दी जाएगी । टांग तो बचा ली गई पर हड्डी के पूरे गले हुए हिस्से का ऑपरेशन कर उसे निकाल दिया गया । एक पैर छोटा हो गया । ठीक होने के बाद एक बैसाखी का सहारा लेना पड़ा । जब उस बैसाखी के सहारे अपनी दोस्त तक पहुंचे तो उसने शादी से इन्कार कर दिया । बस , फिर उस शहर में राजेंद्र का मन नहीं लगा और वह कलकत्ता चला आया । हम सबके मन में राजेंद्र के प्रति दोहरी सहानुभूति पैदा हो गई । तब मालूम नहीं था कि टाटानगर की यात्रा के दौरान हमारा साबका एक और दुर्घटना से पड़ने वाला है ।

       सुधा अरोड़ा के पिता रामलुभाया अरोड़ा जी, बहन इंदु और सुधा अरोड़ा 


कमलाकांत के साथ हमलोग टाटानगर पहुंचे । मैंने पहली बार यज्ञोपवीत संस्कार का इतना भव्य आयोजन देखा था । यह भी मैने पहली बार देखा कि उस आयोजन से पहले लड़के को गव्यामृत पीना पड़ता था । पंचामृत तो मैंने सुन रखा था पर गव्यामृत गाय के गोबर, गोमूत्र, दूध, दही और गाय के दूध से बने घी को मिलाकर बनाया जाता था । मैंने भी वह चखा । आयोजन धूमधाम से संपन्न हुआ । इसके बाद हमलोग शहर देखने के लिये रवाना हुए । हम तीनों - राजेंद्र , श्रीराम और मैंने तीन साइकिलें उठाईं और चिल्का झील देखने निकल पड़े । मैंने दोनों हाथ छोड़कर पहली बार इतनी दूर तक ऐसी रफ्तार में साइकिल चलाई । ताज्जुब की बात यह कि एक टांग छोटी होने के बावजूद राजेंद्र कई बार साइकिल रेस में मुझसे आगे निकल जाता । उसमें गज़ब का जीवट था । हमलोगों ने साइकिल से लंबा रास्ता तय किया । चिल्का लेक बहुत शानदार लंबी-चैड़ी और खूबसूरत झील है । हमने रास्ते भर खूब मस्ती की। लौटते समय जंगल में रुक गये । श्रीराम ने इटावा में एक रिवॉल्वर खरीदा था और उसके पास ऑल इंडिया लेवल का लाइसेंस था । रास्ते में जब सुस्ताने के लिये रुके तो उसने वह पिस्तौल निकाल कर दिखाई । फिर राजेंद्र से उसने कहा - चलो , एक निशाना लगा कर देखो । राजेंद्र ने कहा - हटाओ ,यह सब क्या देखना है । उसने पिस्तौल मुझे थमा दी । फिर कहा - पेड़ पर निशाना लगाओ । मैंने तने पर निशाना लगाया और धांय की आवाज़ के साथ गोली छूटी । मैंने पास जाकर देखा तो पेड़ के तने पर छेद हो गया था और तने की छाल उधड़ गई थी । गोली अंदर कहीं धंस गई होगी पर उस छेद के साथ उधड़ी हुई छाल पर एक लंबी फांक सी बन गई थी और अगल बगल गुलाबी लाल सा रंग फैल गया था । गुलाबी रंग ने मुझे पहली बार इस तरह डराया । उसे छूकर देखते हुए मेरे हाथ कांप गये । मुझे लगा, जैसे मैंने उस पेड़ की हत्या कर दी है । श्रीराम अब दूसरे निशाने के लिये उस पिस्तौल को तैयार कर रहा था । मैं जैसे ही वापस पहुंचा, उसने पिस्तौल मेरे हाथ में थमायी - ले लुभाया , अब दूसरा निशाना लगा । मैंने कहा - बस , एक ही बहुत है , मुझे नहीं लगाना । उसने राजेंद्र से पूछा । राजेंद्र ने कुढ़ कर कहा - साले , अपने रकीब पर आजमाना, बेचारे पेड़ को क्यों छलनी कर रहे हो ! हमलोग साइकिल चलाते हुए वापस घर आ गये ।

घर लौटकर हमलोगों ने चाय वगैरह पी । कमलाकांत द्विवेदी के घर की बैठक के एक लंबे सोफे पर हम तीनों बैठे थे । कमलाकांत भी पास आ बैठा । राजेंद्र ने जंगल में तो पिस्तौल को हाथ में लेने से इन्कार कर दिया था, अब श्रीराम को कहने लगा - ‘‘ बताओ , इसमें गोली कैसे भरते हैं । ’’ श्रीराम को अपनी नयी नयी चीज़ें दिखाने का शौक था । पिस्तौल ऐसे दिखा रहा था जैसे किसी बच्चे के हाथ में खिलौना हो । घुमा फिरा कर उसने गोली भरी, दिखाया कि ऐसे गोली भरते हैं और ये ..... । उसने ट्रिगर पर हाथ रखा ही था कि वह दब गया । जोर की आवाज़ आई और इसके साथ ही राजेंद्र की जोर की कराह - ‘‘अरे, मार डाला।’’ देखा तो गोली सोफे की लकड़ी को दो जगह से छीलती हुई राजेंद्र के पाजामे में छेद कर रही थी । उस जगह पर पायजामा लाल हो गया था पर ऐसा नहीं था कि खून के फव्वारे छूटे हों । राजेंद्र की टांग में गोली धंस गई थी । अभी पेड़ के तने पर पड़े छेद, उखड़ी हुई छाल और लकीर के आसपास के गुलाबी रंग की दहशत से निकला नहीं था कि यह हादसा हो गया । हम सब घबरा गये । कमलाकांत ने कहा - तुरंत अस्पताल चलो, गोली निकलवानी पड़ेगी । हम टैक्सी में बैठे तो मैंने कहा - यह तो पुलिस का मामला बन जाएगा, अगर तुमने सच कह दिया कि श्रीराम के हाथ से गोली चली । श्रीराम ने भी कहा - मेरा तो लाइसेंस कैंसल हो जाएगा, तुम यही कहना कि पिस्तौल को मैं देख रहा था कि अनजाने में घोड़ा दब गया । हम सब अस्पताल पहुंचे । पुलिस तो खैर राजेंद्र के बयान से एक ओर हो गई । जब डॉक्टर आया तो उसने हम लोगों को देखकर पूछा कि गोली लगी किसको है ? क्योंकि राजेंद्र न  कराह रहा था , न उसके चेहरे पर दर्द की कोई शिकन थी, सब मजे में बातें कर रहे थे । डॉक्टर ने जांच पड़ताल की तो पता चला कि गोली जांघ से सरकती हुई कूल्हे की हड्डी के नीचे जाकर रुक गई है । ऑपरेशन से गोली को निकाल दिया गया । हम लोगों ने राहत की सांस ली कि गोली ने हड्डी में कहीं कोई फ्रैक्चर नहीं किया था, जांघ के मांस में धंसकर वह जगह बनाती हुई कूल्हे तक जाकर रुक गई थी । डॉक्टर ने कहा कि गोली तो निकल गई है लेकिन कम से कम एक सवा महीने इस पैर को बिल्कुल हिलाना डुलाना नहीं है , सीढ़ियां भूल कर भी नहीं चढ़नी है । आखिर गोली ने मांस को इतनी दूर तक जो छीला है , वह घाव प्राकृतिक रूप से ही भरेगा इसलिये पांव पर कोई वज़न नहीं पड़ना चाहिये , ज्यादा से ज़्यादा उठ कर बाथरूम तक जा सकते हैं।

ऑपरेशन के बाद मैं और श्रीराम राजेंद्र को ऐसी हालत में ट्रेन में कलकत्ता तक ले आये । अब सवाल यह था कि उसे कहां ठहराया जाए। वह खिदिरपुर वाले जिस घर में था, वह भी दूसरे तल्ले पर था और वहां कोई देखभाल करने वाला भी नहीं था । मैं शंभुनाथ पंडित स्ट्रीट के रतन भवन के तीसरे तल्ले पर रहता था जो कहने को तीन तल्ले पर था पर उसकी सीढ़ियां इतनी ऊंची-ऊंची थीं कि उन्हें चढ़ना मुश्किल था, फिर हम आठ लोगों का परिवार था पर कमरे दो ही थे ।  एक लंबा बरामदा, कमरे जितनी लंबी रसोई जरूर थी पर वहां ठहराने का सवाल ही नहीं था । बहुत सोचने के बाद यह निर्णय लिया कि राजाबाज़ार की सोप फैक्ट्री में उसे ठहराया जाए , जहां एक दीवान भी है जिसपर बिस्तर बिछाया जा सकता है , बाथरूम का दरवाज़ा एकदम सटा हुआ है , कुछ कारीगर जनक सिंह और सीताराम वहीं फैक्टरी में ही रहते थे जो बाहर से बिस्किट नमकीन लाकर दे सकते हैं, चाय बनाकर पिला सकते हैं । मेरा खाना रोज़ घर से टिफिन में आता ही है , अब एक की जगह दो का खाना आ जाया करेगा । मैं सुबह दस बजे घर से निकलकर अपने कॉलेज स्ट्रीट वाले ऑफिस में जाता और वहां से करीब एक बजे राजाबाजार वाली फैक्ट्री में पहुंच जाता , जहां हम दोनों मिलकर घर से आया खाना खाते । हर तरह का खाना वह चटखारे ले लेकर उंगलियां चाट-चाट कर खाता । आटे के बिस्कुट और खारी के पैकेट वगैरह उसके पास पड़े रहते । सुराही में पानी भी था । रैक पर उसने किताबें और लिखने पढ़ने की सामग्री जुटा ली थी । यह राजेंद्र के लिये काफी मुश्किल समय था पर वह बहुत ज़्यादा अकॉमॉडेटिंग था । कैसे भी कमरे में, कैसे भी माहौल में वह हमेशा खुश ही दिखाई देता वर्ना राजाबाज़ार की फैक्ट्री में अंदर साबुन और बाहर चमड़े के कारोबार की वज़ह से कई बार जो गंध का भभका उठता था, उसकी मुझे तो खैर आदत हो गई थी पर बाहर के लोगों के लिये वहां बैठना आसान नहीं था । राजेंद्र सवा महीना वहां रहा और मुझे याद नहीं आता कि उसने कभी कोई षिकायत की हो । उसके पैर का घाव भर गया था । इसके बारे में विस्तार से उसने अपनी किताब ‘‘मुड़ मुड़ के देखता हूं’’ में लिखा है ।

सवा महीने फैक्ट्री में रहने के बाद उसे घर के (मेरी पत्नी वीणा जिसके हाथ का खाना आज भी सब याद करते हैं ) खाने का स्वाद लग गया था । पांव का ज़ख़्म ठीक होने के बाद उसका हमारे रतन भवन में आना बढ़ गया था । कम से कम हर इतवार को तो उसका आना तय था जब वीणा सोया आलू या गोभी के परांठे बनाती थी, मैं भी छुट्टी के दिन घर में होता था । अक्सर परांठों का स्वाद लेते हुए वह कहता - भाभी, मेरी शादी होगी तो बीवी को कुछ दिन तुम्हारे पास छोड़ जाऊंगा, उसे बिल्कुल ऐसे ही परांठे बनाना सिखा देना ! दोपहर का खाना खाने के बाद वह कुछ देर आराम करता, उसके बाद चाय पीकर हमलोग सपरिवार विक्टोरिया मेमोरियल की ओर निकलते । सूरज ढलने तक वहां रहते । कभी कभी परांठे टिफिन में डालकर विक्टोरिया के मैदान में ही दही के साथ खाते । पिकनिक हो जाती । बच्चे तब छोटे थे । दोनों जुड़वां बेटे तो तब पैदा ही नहीं हुए थे । प्रदीप गोद में था । बच्चे विक्टोरिया के मैदान में गेंद खेल रहे होते और राजेंद्र और मैं टहलते-टहलते बेंच पर जाकर बैठ जाते जहां राजेंद्र अक्सर दुनिया जहान की बातें करता रहता । वहीं पर उसने मुझे एक शेर सुनाया था:

खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तदबीर से पहले,
खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है !

यह दो लाइनें मेरे दिमाग़ में जम कर बैठ गईं । मैं इन्हें कभी नहीं भूला । आज हमारे उस समय के सब लोग चले गये । सबसे पहले श्रीराम अचानक दिल के दौरे से चला गया । कृष्णाचार्य का जाना भी अचानक ही हुआ । कमलाकांत से मैं बहुत बाद में भी दिल्ली में मिलता रहा । पर राजेंद्र से मिलना तभी बंद हो गया, जब मन्नू से उसकी पहचान हुई ।  1957 में मन्नू ने अपने स्कूल में, जहां वह पढ़ाती थी, राजेंद्र को 1857 के सौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में बुलाया था । राजेंद्र का दायरा बहुत बढ़ गया था । वह नामचीन हो गया था । उसके बाद कौन पुराने दोस्तों को याद रखता है । अपनी शादी में भी उसने हम तीनों में से किसी को नहीं बुलाया । उसके बाद तो आधी सदी बीत गई । पचास साल बाद उसकी खबर मुझे सुधा से ही मिलती है या कभी टी.वी. पर देख लेता हूं । लेकिन यह ज़रूर मानूंगा कि वह एक यारबाश , ज़िंदादिल और हरफनमौला इंसान था जिसने अपनी खुदी को तो बुलंद किया ही , मुझे भी वे दो लाइनें ऐसे थमायीं जो मेरे जीवन का आज भी मूलमंत्र हैं और नब्बे साल पूरे करने के बाद भी मैं अपने आप को युवा महसूस करता हूं । 

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रामलुभाया अरोड़ाअरोड़ा निकेतन, नीलकोठी, 13, धीरेंद्र नाथ घोष रोड, भवानीपुर, कोलकाता - 700025 . फोन - 033 2454 7208 / 093397 65648 

        

संस्मरण

                                                                   आबिद सुरती

  जिंदादिली का दूसरा नाम - आबिद सुरती
 सुधा अरोड़ा

नमक काली मिर्च जैसे खिचड़ी बाल , बेतरतीब दाढ़ी , अडिदास या नाइकी की एक हेपटी शर्ट या टॉप , कमर पर कसी चैड़ी बेल्ट में अटका सनग्लास का वॉलेट , बिल्कुल नए ब्रैन्ड की घिसी फेडेड जीन्स पहने , एक खूबसूरत सा झोला लिए और पीठ बिल्कुल सीधी रखकर , सैलानी कैप लगाये , सत्रह साल के लड़के के अंदाज में झूमता हुआ चलता एक सत्तर पार का लहीम शहीम , कोई हरफनमौला शख्स नजर आ जाए तो समझ लें , वह आबिद सुरती है जिनके भीतर का ढब्बू जी हमेशा उनके साथ साथ इतराता चलता है ।

उन दिनों हिन्दी कथा साहित्य में कमलेश्वर जी के नेतृत्व में समांतर आंदोलन के बीज अंकुरित हो रहे थे । सभी भाषाओं के प्रतिनिधि लेखक समांतर में थे । आबिद सुरती को गुजराती के प्रतिनिधि के रूप में ही जाना जाता था। शुरु में वे गुजराती भाषा में ही लिखा करते थे , बाद में उन्होंने अपनी रचना का गुजराती से हिन्दी में अनुवाद करने की जगह सीधे हिन्दी में ही लिखना शुरु कर दिया । लेखक से ज्यादा वे चित्रकार और चित्रकार से ज्यादा कार्टूनिस्ट के रूप में जाने जाते थे क्योंकि तब तक उन पर प्रसिद्ध वृत्तचित्र निर्माता प्रमोद पति  आबिदनाम से एक डॉक्यूमेन्टरी बना चुके थे जो उस समय एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी । उधर धर्मयुग में कार्टूनिस्ट आबिद सुरती का ढब्बू जी का कार्टून कोना इतना लोकप्रिय हो चुका था कि पाठक धर्मयुग खरीद कर उसे उल्टा खोलते थे यानी पिछले पन्ने से और यह ढब्बू जी अपने रचयिता आबिद सुरती की शख्सियत के साथ इस कदर घुलमिल गया और उनके व्यक्तित्व का ऐसा अभिन्न हिस्सा बन गया कि वे आबिद सुरती कम और ढब्बू जी के रूप में ज्यादा पहचाने जाने लगे । पर वह सिर्फ चित्रकार , कार्टूनिस्ट , कथाकार - उपन्यासकार - नाटककार ही नहीं हैं , बच्चों के लिए चित्रकथाएं , छोटी छोटी कहानियां और मौलिक चुटकुले गढ़ना भी उनके दायरे में आता है । यह दायरा और भी आगे बढ़कर उन्हें एक जमीनी कार्यकर्ता भी बना देता है पर इसके बारे में बाद में ।

सत्तर के दशक में आबिद सुरती से पहली मुलाकात कमलेश्वर जी के घर पर हुई थी या फिर समांतर की किसी गोष्ठी में , याद नहीं । कमलेश्वर जी के घर के ड्राइंग रूम में ही आबिद सुरती की एक पेन्टिंग लगी थी जिसमें कुछ कटग्लास , कुछ कटिंग्स और कुछ चित्रकारी के मिश्रित अंदाज में एक खूबसूरत कोलाज था । मेरा मन होता कि आबिद भाई से उनकी कोई कलाकृति मांगूं , पर तब यह दुस्साहस ही समझा जाता । आज मेरे घर की दीवारों पर आबिद भाई के डिजाइन किए हुए स्टेनग्लास के दो शेड लगे हुए हैं ।
तब हम सात बंगला , वर्सोवा की सी क्रेस्टबिल्डिंग में रहते थे । कमलेश्वर जी और गायत्री भाभी के साथ हमने आबिद भाई के बान्द्रा मेडिकल के पास वाले ग्राउंड प्लोर के छोटे से घर में 1977 के साल की ईद मनाई और खिचड़ा खाया । वह एक यादगार शाम थी । फर्श पर लगे आसन पर बैठकर सामने चैकोर मेज पर हमने रात का खाना खाया था । खिचड़ी के पुलिंग नामकरण की भी कोई डिश होती है , मुझे नहीं मालूम था । तब शुद्ध शाकाहारी मैं , अपने पति की सोहबत में नयी नयी मुसलमान हुई थी । नॉनवेज खाना सीख रही थी , जिसके मेरे पति बेहद शौकीन थे , पर मेरे गले से जो नीचे नहीं उतरता था । आय.आय.टी. के प्रो. डॉ. हुसैन के यहां पहली बार मैंने सामिष खाना सामने परोसा हुआ देखकर शोरबा छुआ छुआ कर रोटी का कौर मुंह में डाला था फिर भी अपनी उबकाई को रोक नहीं पाई थी । वहां शाकाहारी कोई डिश थी ही नहीं और आय.आय.टी. के प्रोफेसर के लिए शायद यह अकल्पनीय था कि कोई पढ़ी लिखी लड़की इतने कट्टर तरीके से घास-फूसकी शौकीन भी हो सकती है । उसके बाद महीनों मैंने नॉन वेज नहीं छुआ । पर आबिद भाई की पत्नी मासूमा भाभी ने बड़े एहतियात के साथ मटन के टुकड़े हटाकर खिचड़ा मुझे परोसा । पहली बार मुझे वह डिश पसंद आई । वह मेरे लिए नॉनवेज को विधिवत स्वीकार करने की शुरुआत थी ।

तीखे नैन नक्‍श  वाली , बेहद दुबली पतली सी , मासूमा भाभी और आबिद भाई की जोड़ी बहुत बढ़िया दम्पति की फ्रेम जड़ी तस्वीर प्रस्तुत करती थी ।

एक बार मैंने आबिद भाई से पूछा - आपकी लव मैरेज थी या अरेंज्ड ?

सीधा जवाब तो वह कभी देते ही नहीं वर्ना आबिद सुरती कैसे कहलाते।

बोले - हमारी सरप्राइज मैरेज थी । एक दिन मैं घर लौटा तो सब लगे मुझे बधाई देने । मैंने पूछा - बात क्या है तो बोले - तुम्हारी सगाई हो गई है , उसकी बधाई दे रहे हैं । दरअसल आबिद तीस साल के हो चुके थे और जे.जे.स्कूल ऑफ आर्टस में पढाई के दौरान एक असफल प्रेम को लेकर सिर धुन रहे थे इसलिए शादी के लिए जितने भी रिश्ते आते , बिना तस्वीर देखे उन्हें रिजेक्ट कर देते । मासूमा भाभी पड़ोस में रहती थीं इसलिए उनकी तस्वीर दिखाने की जरूरत नहीं पड़ी । अम्मी ने पूछा कि वह लड़की जो रोज दिखती है , कैसी लगती है तो बेटे ने कहा - ठीक है , देखूंगा । बस , मना नहीं करने को स्वीकृति मानकर सगाई का ऐलान कर दिया गया और इस तरह शादी हो गई ।

मासूमा भाभी भी कम कलाकार नहीं थी । हर काम को अंजाम देने में उनका अपना एक सलीका दिखाई देता था । वे स्कूल में पढ़ाती थीं और उसके साथ साथ बान्द्रा के खैरवाड़ी के झोपड़पट्टी इलाके के बच्चों को भी खाली समय में प्रशिक्षण देती थीं । दोनों पति पत्नी खूब खुली खिली हंसी हंसते और चंद मिनटों में ही यह अहसास होता कि आप किसी बेहद आत्मीय के घर पर मौजूद हैं ।

1980 में हम कलकत्ता चले गए और मुंबई के सारे सम्पर्क हमसे छूट गए । 1991 में कलकत्ता से फिर मुंबई आकर जब हम बान्द्रा के माउंट मेरी रोड पर शिफ्ट हुए तो पंद्रह मिनट के पैदल रास्ते पर आबिद भाई का घर था । पर तब तक मैं भूल चुकी थी कि आबिद भाई भी बांद्रा में रहते हैं । 6 दिसंबर 1992 के दंगों के बाद राहत कार्य के दौरान मेरा परिचय प्रख्यात फिल्म निर्देशक बिमल राय की बेटी रिंकी से हुआ और मैंने उनकी हेल्पसंस्था में नियमित रूप से जाना शुरु कर दिया । 1993 में कार्टर रोड स्थित गोल्ड मिस्ट बंगले के पहले माले पर सामने वाले हिस्से में बासु दा ( भट्टाचार्य ) रहते थे और पिछले हिस्से में रिंकी भट्टाचार्य की हेल्पसंस्था का कार्यालय और रिंकी का घर था ।

एक दिन हेल्प के कार्यालय से बाहर निकली तो देखा - आबिद सुरती नीचे के फ्लोर पर बड़ी बड़ी मेजों पर कुछ ड्रॉइंग कर रहे हैं । मुझे अचानक देखा तो बोले - अरे , तुम यहां क्या कर रही हो ?

मैंने कहा - यही तो मैं आपसे पूछने जा रही थी । मैं रिंकी के साथ हेल्पमें हूं ।

एकदम दो कदम पीछे हटकर बोले - बाप रे !

शायद रिंकी का दबंग व्यक्तित्व उस पूरे इलाके में मशहूर था । बाद में पता चला कि नीचे के ग्राउंड फ्लोर में कोई खंडवानी स्टूडियो था जो एक एन.आर.आई व्यवसायी चलाते थे और स्टेन ग्लास पर डिजाइन बनवाकर एक्सपोर्ट करते थे । वहीं आबिद भाई स्टेनग्लास डिजाइनर विशेषज्ञ के रूप में महीने में अठारह घंटे बिल्कुल वी.आई.पी. की तरह काम करते थे । उनके साथ सहायक के रूप में हमेशा दो एक युवा लड़कियां रहती थीं जो ड्रॉइंग और डिज़ाइनिंग की शिक्षा ले रही होती थीं ।

1996 की बात है । जनसत्ता सबरंग में मेरी कहानी - ‘‘सत्ता संवाद’’ छपी थी । आबिद भाई हिन्दी के लेखक होते हुए भी हिन्दी लेखकों को कम ही पढ़ते हैं । सबरंग चूंकि अखबार के साथ फ्री आता था और दीपावली विषेशांक था, सो उन्होंने पढ़ा। कहानी भी छोटी सी थी।                        

पढ़कर बोले-‘‘अरे , तुम तो अच्छी खासी कहानियां लिख लेती हो ।’’ 

 मैं उनके इस जुमले से थोड़ा उखड़ी - ‘‘ कमाल है , आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे मेरा लिखा पहले कभी कुछ पढ़ा ही नहीं......।’’   

आबिद भाई की खिसियानी हंसी - ‘‘ क्या करूं , मैं तो तुम्हें हमेशा लेखक की बीवी ही समझता रहा कि अपने पति की देखा देखी थोड़ा लिख लिखा लेती होगी । मुझे क्या पता कि तुम भी सीरियस लेखिका हो ! ’’
मेरे भीतर की गंभीर लेखिका को उन्होंने कितना छलनी किया होगा , इसका अनुमान वे नहीं लगा सकते । खैर , उसके बाद से उन्होंने मेरी लिखी हर कहानी और हर आलेख को पढ़ना शुरु कर दिया और उस पर तारीफ के ऐसे पुल बांधने लगे कि जाहिर है , उनकी बेइंतहा तारीफ ने मुझ पर असर करना छोड़ दिया ।

इसका मतलब यह नहीं है कि वे सबकी तारीफ करते रहते हैं। अगर किसी का लेखन पसंद नहीं है तो वह कितना भी प्रभावशाली व्यक्तित्व हो , उसे नाराज करने का जोखिम उठाने को तत्पर रहते हैं । एक प्रतिष्ठित संपादक लेखक अपने साठ साल पूरे होने पर अपने पर एक अभिनन्दन ग्रंथ लिखवा रहे थे । अपनी अपॉएंट की हुई शिष्या के माध्यम से उन्होंने कई बार कहलवाया । आबिद भाई से अपने पर लेख लिखवाना चाहते थे । जब भी लंदन या दिल्ली से मुंबई आते तो एअरपोर्ट से ही फोन करते । खूब मीठा बोलते । बड़ी आत्मीयता से मिलते । पर आबिद सुरती ने नहीं लिखा तो नहीं ही लिखा । वह लेखक ऐसे नाखुश हुए कि अभिनंदन ग्रंथ के छपने के बाद दुआ सलाम करना भी भूल गए । आबिद भाई को कोई गिला शिकवा नहीं , हंसकर बोले -‘‘ ठीक है ! देर सबेर ऐसे लोगों का असली चेहरा सामने आ ही जाता है।’’

उनके मुंह से शब्द बाद में फूटते हैं , हंसी पहले झरने लगती है ।

एक समय था जब आबिद भाई का स्टूडियो वॉर्डन रोड पर था पर फिल्म बनाने की सनक में उन्होंने अपना करोड़ों का स्टूडियो बेच डाला और अपनी सारी जमा पूंजी लुटाकर फक्कड़ बन गए । एक नयी अभिनेत्री और नये अभिनेता को लेकर बनाई गई यह फिल्म डिब्बों में बंद पड़ी रही और आबिद भाई के सामने दो बेटों और एक बीवी को लेकर फाका काटने की नौबत आ गई । इस स्थिति से जूझना आसान नहीं था । मासूमा भाभी बीमार रहने लगी थीं । आबिद भाई ने तब तक एक आध्यात्मिक चोला धारण कर लिया था, अपनी बीवी को लेकर दो बार विपश्यना भी हो आए थे । बान्द्रा वाले हमारे घर में जब भी वे आते , यूनिवर्स और स्पेस , विपश्यना और मेडिटेषन के बारे में खूब विस्तार से बताते । मुझसे कहते कि जाकर विपश्यना का षिविर करके आओ , सोच की दिशा बदल जाएगी ।

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   एक दिन आबिद भाई हेल्प के दफ्तर के नीचे मिले तो अचानक बोले - घर आकर जरा मासूमा से मिलो ।

इस बार जो मासूमा भाभी को देखा तो मैं सकते में आ गई । उन्होंने बिस्तर का एक कोना पकड़ लिया था । उठकर बैठतीं भी तो दोनों घुटनों को बांहों में घेरे, खिड़की से लगे बिस्तर के एक कोने में सिमटकर । बहुत पूछा , बहुत पूछा - आखिर कोई कारण तो होगा जो इतने गहरे डिप्रेशन में चली गई हैं ।
कई बार आबिद भाई से भी पूछा लेकिन कभी वो कहें कि उसे पोते पोतियां खिलाने का बहुत शौक है और हमारे बेटे शादी में यकीन ही नहीं करते, वे लिव इन रिलेशन में है इसलिए मासूमा दुखी है । कभी कहें - दंगों से दहशत में चली गई है , उनकी बहन के साथ कुछ दुर्घटना हो गई थी शायद । मासूमा भाभी तो कुछ बोलती नहीं , उनसे बात करूं तो क्या । कहीं कुछ तो पता चले । एक दिन बहुत कुरेद कर पूछा तो जाने कैसे आबिद भाई के मुंह से निकल गया - पेन्टिंग करता हूं तो शागिर्द लड़कियां आती हैं , बस , मासूमा को शक की बीमारी है , कोई भी लड़की उसे फूटी आंखों नहीं सुहाती ।
मैंने तभी उनकी जबान पकड़ ली । मैंने कहा - आबिद भाई , ऐसा तो नहीं है । मुझसे तो कभी मासूमा भाभी ने कुछ नहीं कहा , मैं घर जाऊं तो बिना कुछ खिलाए वापस नहीं आने देतीं , आप ऐसे क्यों कह रहे हैं ।

खिसियाकर बोले - बस , तुम्हीं एक अपवाद हो । तुम्हारा आना उसे बहुत अच्छा लगता है । जब समय मिले , आ जाया करो और उसकी थोड़ी काउन्सिलिंग करो । मैंने उनके घर जाना शुरु किया । हेल्प से उनका घर पास ही था । आबिद भाई अक्सर घर पर नहीं होते । पर मासूमा भाभी तो ऐसी गुमसुम कि कि उनसे कुछ भी पूछो तो बस , चेहरे पर एक उदास मुस्कान बैठी रहें । उस फ्लैट के एक कमरे में कोने में लगा पतले से बिस्तर का एक कोना जो उन्होंने पकड़ा तो वह मीरा रोड जाने के बाद भी छोड़ा नहीं । पर हां , इतना फर्क जरूर आया कि मीरा रोड जाकर उन्होंने रसोई में घुसकर अपने लिये खाना बनाना शुरु कर दिया । एक दिन जब मैं अपने पिताजी के साथ उनके घर गई तो उन्होंने अपने हाथ से पकाया हुआ सादा सा पर स्पेशल खाना हम दोनों को बड़े प्यार से खिलाया ।


                                                       परिवार के साथ आबिद सुरती  

बान्द्रा वाला घर भी आबिद भाई ने मासूमा भाभी के कारण ही छोड़ दिया था ताकि माहौल बदलने से शायद उनकी तबीयत में कुछ सुधार आए । बाद में 2006 में जब मैं पूना गई और मासूमा भाभी से भी मिली तो देखा कि वे बिल्कुल सूखकर ठठरी सी रह गई हैं । मेरे भीतर जमकर बैठी नारीवादी काउंसिलर ने उन्हें उकसा कर बहुत पूछने की कोशिश की कि आखिर क्यों वे मीरा रोड वाला घर छोड़कर यहां बड़े बेटे के पास आकर रह रही हैं। मासूमा भाभी अपने पति आबिद की प्रतिरूप , बिल्कुल आबिदी अंदाज में हंसकर बोलीं - ‘‘ मजे कर रही हूं । शनीचर-इतवार बड़े बेटे अलिफ और अदिति के साथ आबिद भी आ जाता है । मिलना हो जाता है । तुम आकर मेरे पास रहो ना । बढ़िया खाना - एकदम सादा - बिना मिर्च मसाले का खिलाती हूं । कब आ रही हो ? ’’ अब वह मासूमा वहां नहीं है जो खाट के एक कोने में दोनों पांव सिकोड़कर बैठी रहती थीं और चार सवाल पूछने पर एक का जवाब - हां , हूं में देती थीं । अब अपनी आज़ादी का लुत्फ उठा रही हैं । आबिद भाई को भी आज़ाद कर दिया है ।

चित्रकारी और फिर स्टेनग्लास पेन्टिंग के सिलसिले में जब देखो तो आबिद भाई हमेशा अपने से आधी उम्र की महिला शागिर्दों के साथ नजर आते। बेखटके वे घर में भी आती जातीं । मासूमा भाभी ने मेरे बहुत पूछने पर भी कभी इस बात की शिकायत नहीं की । तब तक वे इन सबसे ऊपर उठ गई थीं शायद । हां , 1992-93 के हिन्दू मुस्लिम दंगों ने उन्हें गहरी चोट पहंचाई थीं और वे बरसों इस आघात से उबर नहीं पाईं । पर इसका भी उन्होंने कोई जिक्र नहीं किया । चेहरे पर सब ठीक हैवाला संतुष्टि का भाव हमेशा बना रहता है ।

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मित्रो पर वैसे आबिद भाई की खास इनायत रहती है । किसी को भी अपनी किताब भेंट करेंगे तो उसके नाम का पहला अक्षर यूं----- ऊपर से नीचे तक इतनी रूमानी अदा में लिखेंगे कि अगर खुदा न खास्ता भेंट किसी महिला मित्र को दी गई और उसके पति ने देख लिया तो जल भुन कर कबाब हो जाएगा । फिर उसके किस्से भी इतने मजे ले लेकर सुनाएंगे कि मन होने लगे कि जाकर मासूमा भाभी से कहें - क्यों भले आदमी पर शक करती हो ! दोस्तों से ऐसी चुहलबाजी करना - इनके दाल चावल खाने जैसी आदत में शुमार है , फिर चाहे वह दोस्त हो या दोस्त की बीवी ।

एक घटना याद आ रही है - मीरा रोड में इनके पड़ोसी थे डॉ. विनय और निरूपमा सेवती । ओशो के मुरीद आबिद भाई ने देखा कि निरूपमा भी ओशो आश्रम में रह चुकी थी , जेन पर किताब लिख चुकी थी और अध्यात्म पर बहस कर लेती थीं । आबिद भाई का निरूपमा से दोस्ती हो जाना स्वाभाविक था । एकबार एक किताब निरूपमा को भेंट की तो उन्होंने उसमें अपने उसी रूमानी स्टाइल में ‘‘एन’’ को ऊपर से नीचे तक खींचकर नीरू लिख दिया । किताब उसे भेंट कर इत्मीनान से अपने घर आ गए ।

कुछ दिनों बाद आबिद भाई ने देखा कि जब वे उनके घर जाते हैं तो डॉ. विनय या तो उनसे कन्नी काट रहे हैं या अतिथि , तुम कब जाओगे ?‘ वाला सुलूक कर रहे हैं । यह सिलसिला कई दिनों तक चला । डॉ. विनय के घर की हवा में आबिद भाई खुश्की महसूस करते रहे और जब इस खुश्क माहौल का कोई सिरा पकड़ में न आया तो अपने दोस्त विनय से पूछ बैठे - ‘‘ यार , क्या हो गया , इतने उखड़े उखड़े क्यों हो , कोई गलती हो गई मुझसे ? ’’ 
अब डॉक्टर साहब बोले -‘‘ हां , बिल्कुल गलती की है तुमने ! आखिर तुमने निरुपमा को नीरू लिखने की जुर्रत कैसे की ? उसे इसे नाम से सिर्फ मैं बुलाता हूं ।’’  
तब जाकर आबिद भाई की ट्यूबलाइट जली कि यह सारी करामात उस नीरू संबोधन की है जिसने डॉक्टर विनय को अविनय बना दिया था ।

                                                       सुधीर तैलंग की दृष्टि में आबिद  सुरती

अनजाने में आबिद भाई इस तरह के बेढब कारनामे कर जाते थे । चूंकि इरादे नेक थे इसलिए बेचारे आबिद भाई को समझ में नहीं आता था कि भाईसाब, चाहे लेखिका हो , है तो आखिर औरत ही और उसका एक अदद पति भी - चाहे कितना प्रगतिशील हो , है तो आखिर पुरुष ही । तथाकथित प्रोग्रेसिव पति को लगता कि उसकी बीवी को लाइन मारी जा रही है । सो रचनाकार में से जागे हुए पति डॉ. विनय और उनकी नीरूके घर के दरवाजे पर आबिद भाई को ‘‘ प्रवेश निषिद्ध ’’ का बोर्ड लगा मिला । निरुपमा सेवती को नीरूलिखने का ऐसा खामियाजा भुगतना पड़ा कि फिर किसी लड़की के नाम को आधा या छोटा कर लिखने की उन्होंने वाकई जुर्रत नहीं की ।

शायद तब तक हंसमें उनकी कोरा कैनवासजैसी विवादास्पद कहानी छप चुकी थी और लेखक कलाकार आबिद सुरती के बारे में यह भ्रम टूटने लगा था कि उनके इर्द गिर्द मंडराती लड़कियां उनकी शिष्याएं मात्र हैं । इस कहानी ने उनके व्यक्तित्व के उलट देहवादी मानसिकता का जो रूप उजागर किया , वह निश्चय ही उनके लिये डैमेजिंग था ।
मैंने उनसे कहा - आबिद भाई , ऐसी कैसी अश्लील चीजें लिख रहे हैं कि बेचारे संपादक को अपने संपादकीय में एक लंबे चौड़े स्पष्टीकरण के साथ कहानी छापनी पड़ रही है ।
आबिद भाई बिफर पड़े - बेचारासंपादक किस बात का ! उन्होंने ही तो लिखवाई है कहानी मुझसे ।
मैंने कहा -‘‘ वाह वाह , यह क्या बात हुई ! कोई हाथ पकड़कर तो आपसे कहानी नहीं लिखवाता । ’’

आबिद भाई के पचहत्तरवें जन्मदिन पर ‘शब्दयोगपत्रिका की ओर से हिन्दुस्तानी प्रचार सभा में एक आयोजन था । मुझे भी बोलने के लिये आमंत्रित किया गया था । मैं जितना जानती थी , मैंने कहा । माइक पर से हटते हटते मुझे लगा , मैंने तो आबिद भाई की तारीफ में बहुत सारे कशीदे पढ़ दिये उनकी कहानी - कोरा कैनवासकी तो खिंचाई की ही नहीं सो मैंने समापन करते हुए आखिरी वाक्य कहा - ‘‘ आबिद भाई , सच तो यह है कि  आप हमेशा ढब्बू जी के लिये याद किये जाएंगे , अपने कार्टून और चुटकुलों के लिये , अपने कोलाज और पेन्टिंग्स के लिये भी याद किये जाएंगे पर कोरा कैनवासके लिये आपको कोई याद नहीं करेगा, ये याद रखियेगा । ’’..... कहकर मैं वापस अपनी जगह पर आकर बैठ गई । जब आबिद भाई माइक पर आये तो बोले - ‘‘ मैं बहुत खुश हो रहा था कि सुधा ने बहुत अच्छा अच्छा बोला पर जाते जाते वह ऐसा ज़ोर का तमाचा मेरे मुंह पर जड़ गई कि उसकी झनझनाहट मैं अब भी महसूस कर रहा हूं ।’’

मुझे लगा - मैंने आबिद भाई को नाराज़ कर दिया है । दूसरे दिन बोले - नहीं , जो सच है , वही बोलना चाहिये । कड़वा हो तो भी चलेगा ! और उस जुमले के साथ फूटता वही ख्यात हंसी का फव्वारा ! यह अलग बात है कि उसके बाद से कभी कभी मुझे आंटी जीकहने लगे हैं ।

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     बाबरी मस्जिद के ढहने के बाद आबिद भाई ने अयोध्या की पृष्ठभूमि पर खासा शोध कार्य करके एक छोटा सा उपन्यास -कथावाचक लिखा जिसे कोई प्रकाशक छापने को तैयार नहीं था ।
खैर , उनके एक मित्र नचिकेता देसाई ने छाप तो दिया पर उसे बेचे कौन ? तो वितरण के लिए उन्होंने ‘‘ वसुंधरा ’’ पर इनायत की । किताबें हमने ले तो लीं पर हम जब अपनी प्रकाशित की हुई किताबें ही नहीं बेच पाए तो उनकी क्या बेचते । और कोई होता तो गर्दन पकड़ लेता कि अगर बेच नहीं सकते थे तो किताबों की जिम्मेदारी ली क्यों , पर आबिद भाई ने कभी शिकायत नहीं की । हां , धीरे धीरे कर कुछ बंडल वापस लेते रहे और खुद दोस्तों को भेंट देते रहे ।

    अपनी लिखी हुई या अपनी पसंदीदा किताबें खुले दिल से बांटने का आबिद भाई को बहुत शौक है ।  हमारे यहां का पीर-बावर्ची-भिश्ती देवा , जिसने बाईस साल तक घर के काम से लेकर हमारी गाड़ी भी चलाई और वसुंधरा की किताबों की देखरेख भी की , ‘‘आबिद साहब’’ की शख्सियत और लेखन का बहुत बड़ा फैन है । उनकी सारी किताबें ढूंढ ढूंढकर पढ़ता है । वे गर्व से कहते हैं - देख लो , मेरे पाठक कहां कहां हैं । मैं मज़ाक में कहती हूं , कहां कहां नहीं , बस , वहीं वहीं हैं । आबिद भाई ठहाका लगाते हैं  । सही अर्थों में हरफनमौला हैं वे  !

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    26 जुलाई 2005 का हादसा कौन भूल सकता है भला ? पूरी मुंबई बाढ़ में डूबी थी । ग्राउंड फ्लोर वाले ज्यादातर घरों में पानी भर गया था और हर घर में सामान का काफी नुकसान हुआ था । आबिद भाई ने बताया कि उनकी पेन्टिंग्स और किताबें सब भीग गई थी । लेकिन उनका बताने का अंदाज यह था - रात को खाना वगैरह खाकर सोए और अच्छी खासी नींद ले रहे थे कि एक बढ़िया सा सपना आया । सपने में देखा कि वे समुद्र में तैर रहे हैं । पानी के समन्दर में पूरी खाट लहरों पर हिलोरें खा रही थी । खाट बार बार दरवाजे से खट से टकराती और फिर पानी में तैरने लगती । जब पानी मुंह तक आने लगा और सांस गड़बड़ाने लगी तो पता चला कि सपने में नहीं , हकीकत में पानी का समुद्र उनके घर के अंदर उन्हें खाट समेत झूला झुला रहा है । उठे और देखा कि उनके ग्राउंड फ्लोर के फ्लैट में पानी में घर का पूरा सामान तैर रहा है । कई कैनवास खराब हो गये । किताबों का ढेर , कागज़ों के पुलिंदे सब इस कमरे के अंदर चली आई बाढ़ के हत्थे चढ़ गये । अपने बड़े से बड़े नुकसान को जज्ब करने का हौसला और अंदाज उनका अपना है । पता नहीं , यह विपश्यना की देन है या ओशो की कि बड़े से बड़ी त्रासदी का वह हंसकर बयान करते हैं और अपने भीतर के दुख को हमेशा हंसी में उड़ा देते हैं । उनके लिये कहा जा सकता है - हर फिक्र को हंसी में उड़ाता चला गया ...... !   
                                
       इधर सुधीर तैलंग का बनाया आबिद भाई का कार्टून - हाथ में प्लम्बिंग के औजार लिये -  खासी चर्चा में हैं । एक वन मैन एन.जी.ओ. भी आबिद भाई ने शुरु किया -‘‘ड्रॉप डेड ’’ के नाम से । मुंबई शहर में पानी की इतनी किल्लत है पर घरों में अक्सर नलों से एक एक बूंद पानी टपका करता है । इस एक एक बूंद से रात भर में बाल्टी भर जाती है और फिर पानी मोरी में बहता रहता है । ज्यादातर घरों के नल ठीक से बंद नहीं होते और इस काम के लिए कोई प्लम्बर को नहीं बुलाता । सो आबिद भाई ने अपने मीरा रोड के इलाके में यह फ्री सर्विस शुरु की कि हर घर में मुफ्त में नल चेक किया जाएगा और नल की मरम्मत की जाएगी । सालों से यह मुहीम जारी है । मीरा रोड के हजारों मकानों के नलों की मरम्मत इस नेक काम के तहत हो चुकी है । शाहरुख खान से आमीर खान तक ढब्बू जी के इस नये कायाकल्प के मुरीद हो चुके हैं ।

 प्लम्बर , इलेक्ट्रिशिअन , पानवाला , बाल काटने वाला , मोची , अखबार बेचनेवाला - बस , क ख ग पढ़ना जानता हो , आबिद भाई न सिर्फ उसको साक्षर बनाएंगे बल्कि उसे पढ़ने की लत लगाए बगैर नहीं मानेंगे । हमारे पुस्तक केंद्र वसुंधरा को सैरगाह मानकर इन सबको तफरीह करवाने मीरा रोड से पवई ले आया करते थे । इस खब्त का ताजा शिकार एक धोबी है । बेचारा आया था कपड़े प्रेस करने और अब कपड़े न हों तो भी कोई बात नहीं , पत्रिकाएं लेने चला आता है । आबिद भाई को शागिर्द पालने की आदत है , फिर चाहे वह 24 साल का हो या 74 साल का । बस , यह अघोषित एडल्ट एजुकेशन प्रोग्राम उनकी बहुत सारी स्वान्तः सुखाय योजनाओं का हिस्सा है ।
  
       ऐसे ही एक रविवार - छुट्टी के दिन - आबिद भाई अपने एक शागिर्द के साथ वसुंधरा में जाने के लिए हमारे घर आए और उन्हें वसुंधरा ले जाकर दिखाने की हड़बड़ाहट में बाथरूम के बाहर फैले हुए पानी में पैर फिसलने से मेरे पति अपने दाहिने हाथ की कुहनी से कलाई के बीच की हड्डी तोड़ बैठे। उन्हें अस्पताल में एडमिट करवाया । डॉक्टर ने फौरन अगले दिन सुबह ऑपरेशन की तैयारी में ठेठ व्यवसायी लहज़े में यह तक पूछ लिया कि अंदर जो स्टील प्लेट डाली जाएगी , वह इंपोर्टेड डाली जाए या देसी ? साथ ही यह अग्रिम सूचना भी कि हाथ को ठीक से काम करने लायक होने में छह महीने लग जायेंगे । इत्तफाक से उस दिन वसुंधरा में महिलाओं की एक मीटिंग थी जिसमें मुझे जाना था । मुझे अपनी मित्रों को बताना पड़ा कि मेरे पति के हाथ में फ्रैक्चर हो गया है तो मीटिंग संभव नहीं है। वसुंधरा आने के बजाय , मेरे पति को देखने , वे अस्पताल आ गईं और अगले दिन के ऑपरेशन के बदले विकल्प के तहत कुर्ला का एक हाड़वैद्य बताया जिसने बीस मिनट में हाथ खींचकर ऐसे हड्डी जोड़ी और देसी प्लास्टर लगा दिया कि अगले दिन हाथ की उंगलियां सामान्य रूप से काम करने लगीं । यह घटना मैं लगभग सभी मित्रों को बता चुकी थी । अखबार में भी इसकी रिपोर्ट दे चुकी थी । नागपुर से प्रकाशित लोकमत समाचारमें इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया गया था । एक स्थानीय अंग्रेजी अखबार में भी इन हाड़ वैद्य कुर्ला वाले चाचा के बारे में छपा ।

          इस घटना को छह महीने भी नहीं बीते थे कि एक शाम आबिद भाई का फोन आया , हंसकर हांक लगाते बोले -‘‘अरे सुनो भई ,मैं अस्पताल में हूं , मेरे हाथ में फ्रैक्चर हो गया है!’’ जैसे हाथ तुड़वाकर अस्पताल में भरती होकर पता नहीं कौन सा तीर मारा है । आवाज में चहक ऐसी - जैसे किसी आयोजन में लखटकिया पुरस्कार जीत आने का एलान कर रहे हैं । सड़क पर चलते हुए एक साइकिल के धक्के से उनके हाथ की हड्डी टूट गई थी । मित्रों का तांता बंधा तो किसी से कहा - मोटर साइकल ने मार दिया , किसी से कहा - गाड़ी से टक्कर हो गई , किसी से कहा - बैल से टकरा गए । जब दो मित्र आपस में बात करने लगे तो उन्हें लगा आबिद को मतिभ्रम हो गया है और सफाई मांगी गई कि आखिर टक्कर हुई तो किससे ? बोले - अब एक ही कहानी सबको सुना-सुना कर बोरियत होती है न इसलिए कहानी में वेरिएशन लाने के लिए ये तब्दीलियां बयान करना जरूरी था !  

       मीरा रोड के अस्पताल का डॉक्टर बिल्कुल वैसा ही ऑपरेशन कर अंदर स्टील की प्लेट डालने का इलाज बता रहा था । रात के दस बजे वे मीरा रोड से और हम दोनों पवई से कुर्ला पहुंचे । उन्हीं  यूनानी हकीम हाड़वैद्य - जो कुर्ला वाले चाचा के नाम से उस इलाके में मशहूर हैं - से इलाज करवाया । आधे घंटे में आबिद भाई के हाथ की हड्डी जुड़ गई । उस दिन के वे आज भी एहसानमंद हैं ।

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सन् 2006 । मैंने आबिद भाई को फोन किया कि मुझे विपश्यना का पता ठिकाना दें , मैं इगतपुरी जाना चाहती हूं । उन्होंने कहा - नहीं , विपश्यना अभी तुम्हारे बस का नहीं है - मौन रहना - कागज कलम भी नहीं ले जाना - तुमसे सधेगा नही । अभी पूना जाओ । वहां एक ज्ञानदेव हैं । वर्कशॉप लेते हैं । उनसे मिलकर आओ । मैं पूना गई । बेहद अस्तव्यस्त मानसिकता में । वाकई ज्ञानदेव ने जीने के जो टोटके थमाए , लौटकर मैंने आबिद भाई को फोन किया कि आपने मुझे सही जगह भेजा था । अपने हाथ की हड्डी जुड़वाने का आपने कर्ज उतार एक बड़े भाई का रोल अदा किया ।

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 आबिद भाई के परिवार की अगली पीढ़ी उनसे भी इक्कीस ही है । उनका छोटा बेटा अलिफ - अपने बाप से भी दो कदम आगे है । हमेशा सुर्खियों में रहता है । अलिफ और अदिति का पहला बेटा पैदा हुआ । उसका बर्थ सर्टिफिकेट लेने के लिए फॉर्म भरना पड़ा , अलिफ अदिति ने उसमें रिलीजन के आगे की जगह खाली छोड़ दी । फॉर्म लौटा दिया गया कि बच्चे का धर्म लिखकर दीजिए । दोनों ने कहा - ‘‘ यह तो बच्चा बड़ा होकर तय करेगा कि वह मां का हिन्दू धर्म लेगा या बाप का मुस्लिम धर्म ! हमलोग उसका धर्म तय करनेवाले कौन होते हैं ।’’

‘‘ तब तो बर्थ सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा ।’’ - बात म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन से होती हुई कोर्ट कचहरी तक पहुंची । कैमरा टीम के साथ अलग अलग चैनल वालों ने घर को घेर लिया । आखिर एक कमिश्नर ने सुझाव दिया कि हिन्दू , मुस्लिम , सिख , ईसाई , बौद्ध के साथ साथ एक कॉलम में अदर्श होता है । आप अदर्श लिख दें । खाली जगह पर अदर्श लिखा गया । तब जाकर बर्थ सर्टिफिकेट हासिल हुआ । सारा दिन न्यूज चैनल पर यह खबर बार बार दिखाई जाती रही । मुझे खुशी हुई कि पूरे ताम झाम और मीडिया की गहमागहमी के बीच मासूमा भाभी का दादी बनने का सपना पूरा हुआ ।                                                                      

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पिछले दो साल से आबिद भाई को नहीं देखा । यायावर हैं । मुंबई में कम और भारत के छोटे बड़े कस्बों में ज्यादा रहते हैं । शहर में हुए तो छठे छमाही कभी फोन कर लेते हैं । फिल्म फेस्टिवल और थिएटर फेस्टिवल में ज़रूर दिख जाएंगे । या कभी चौपाल में । मैं भी महीनों फोन नहीं करती पर जब भी मेरा मन हंसने को करता है तो मैं आबिद भाई को फोन कर लेती हूं । हंसी का खजाना हैं आबिद भाई - जो आज के जमाने में दुर्लभ होता जा रहा है ।

आबिद भाई का एक बेहद प्रिय वाक्य है -‘‘ यू हैव मेड माय डे !’’ जो खास तौर पर प्रशंसिकाओं से बोला जाता है । उन्हें यह नहीं मालूम कि उनकी प्रशंसिकाएं आपस में भी कभी-कभी बात कर उनके राज़ खोल देती हैं । इस आलेख को लिखकर जब समाप्त कर रही हूं तो आबिद भाई का यह पचासों बार दोहराया गया जुमला मेरे कानों में बज रहा है । मुझे पता है - पढ़ने के बाद वह अपनी खुली खिली हंसी में ‘‘एक लेखक की बीवी’’ से यही जुमला दोहराएंगे ।

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