मंगलवार, 30 नवंबर 2010

वातायन-दिसम्बर,२०१०



हम और हमारा समय

२०१०-२०११ हिन्दी के चार महान कवियों के जन्म- शती के रूप में मनाया जा रहा है . ये कवि हैं अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल, बाबा नागार्जुन और शमशेर बहादुर सिंह. इनके साथ एक नाम और जुड़ता है फैज़ अहमद फैज़ का. फैज़ की लिपि भले ही उर्दू थी, लेकिन हम उन्हें हिन्दी का कवि ही मानते हैं . इसप्रकार यह काल पांच महान कवियों का जन्म-शती वर्ष है. लेकिन हिन्दी की दुर्भाग्यपूर्ण राजनीति के चलते कुछ आभिजात्य साहित्यकार केवल अज्ञेय और शमशेर की जन्म-शती ही मनाने की बात कर रहे हैं और शेष को हासिए पर डालने के उनके प्रयास जारी हैं. उनके दुरभिसंधिपूर्ण प्रयासों के बावजूद
देश के अनेक शहरों और कस्बों में नागार्जुन, केदार और फैज़ के चहेते अपने स्तर पर उन पर केन्द्रित कार्यक्रम कर रहे हैं. ऎसी स्थिति में सादतपुर कैसे पीछे रह सकता था, जहां जीवन के अंतिम दस-ग्यारह वर्षों तक नागार्जुन की आवाज गूंजती रही थी और जहां की गलियां उनके पगचिन्हों को आज भी अपने सीने पर सहेजे हुए हुए हैं. सादतपुर का हर घर बाबा का अपना घर था और गली नम्बर दो में उनका अपना मकान होते हुए भी कभी-कभी कई-कई दिन वह किसी साहित्यकार के घर बने रहते थे. उस घर के किचन से लेकर चौबारे तक बाबा का आधिपत्य होता था . प्रतिदिन सुबह आठ बजे आप
ना डंडा ले वह घर से निकलते और चित्रकार-साहित्यकार हरिपाल त्यागी के घर तक पांच गलियां मंझाते हुए सभी साहित्यकारों-पत्रकारों के दरवाजे पर दस्तक देते घूम आते. मन होता तब किसी के घर कुछ देर बैठ लेते. घर के सुख-दुख जानते-समझते और समझाते ,हंसते और हंसाते और चाय पीकर उठ जाते. सादतपुर रहते हुए बाबा का यह सिलसिला अबाध चलता रहता. शाम के समय बाबा को रमाकांत जी के पास बैठे देखा जा सकता था. वहीं कवि विष्णुचन्द्र शर्मा भी पहुंच जाते और दूसरे लोग भी .
यहां यह बताना आवश्यक है कि सादतपुर दिल्ली के उत्तर-पूर्व में बसी वह बस्ती है जहां १९७१ में सबसे पहले कथाकार स्व. रमाकांत आ बसे थे. रमाकांत जी ने अनेक साहित्यकारों और पत्रकारों को यहां आ बसने के लिए प्रोत्साहित किया. उनके बाद यहां आने वालों में हैं विष्णुचन्द्र शर्मा, सुरेश सलिल, महेश दर्पण, स्व.माहेश्वर, बाबा नागार्जुन, हरिपाल त्यागी, धीरेन्द्र अस्थाना, बलराम, वीरेन्द्र जैन, रामकुमार कृषक, सुरेन्द्र जोशी, अरविन्द सिंह -----यह सिलसिला आज भी जारी है. आलोचक मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह-रेखा अवस्थी , पत्रकार अजेय सिंह और कथाकार- चितंक भगवान सिंह ने भी यहां जमीनें खरीदीं थीं, लेकिन यहां बसे नहीं.

दिल्ली के नक्शे में भले ही सादपुर खोजना कठिन हो लेकिन यह एक ऎसी बस्ती है जो पूरे देश में ही नहीं दुनिया के कुछ अन्य देशों में भी साहित्यकारों-पत्रकारों की बस्ती के रूप में जानी जाती है. यह दिल्ली के साहित्यिक-सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में प्रख्यात है. साहित्यिक गोष्ठियों और समाराहों की मजबूत परम्परा रही है यहां और आज भी व्यस्ततम जीवनचर्या के बावजूद यहां साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता रहता है. साहित्यिक मेल-मिलाप का जो सिलसिला रमाकांत जी के समय से प्रारंभ हुआ था वह आज भी चल रहा है. ऎसी ही एक बैठक के दौरान हरिपाल त्यागी, रामकुमार कृषक और महेश दर्पण
ने यह निर्णय लिया कि सादतपुर में नागार्जुन जन्मशती समारोह का आयोजन किया जाना चाहिए . इन तीनों ने ही इस कार्यक्रम के सफल आयोजन के लिए अथक प्रयास किए , जिसमें यहां के सभी साहित्यकारों-पत्रकारों का इन्हें भरपूर सहयोग मिला. हरिपाल त्यागी ने बाबा की कविताओं (बांग्ला कविताओं सहित) के २८ पोस्टर और बाबा का एक तैलचित्र बनाया.

२१ नवम्बर,२०१० (रविवार) को अंततः सादतपुर के जीवन ज्योति हायर सेकण्डरी स्कूल में दोपहर दो बजे से शाम सात बजे तक यह समारोह सम्पन्न हुआ, जिसमें बनारस से वाचस्पति
बरेली से सुधीर विद्यार्थी सम्मिलित हुए. दिल्ली के कोने-कोने से ही नहीं गाजियाबाद, बिजनौर, फरीदाबाद, गुड़गांव आदि दूरस्थ स्थानों से भी साहित्यकार –पत्रकार आए .

प्रस्तुत है समारोह की विस्तृत रपट और साथ में बाबा नागार्जुन की छः कविताएं .
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नागार्जुन-जन्मशती समारोह - एक रपट

सुबह सात बजे का समय. सादतपुर की गली नं. २ का ’यात्री निवास’ --- बाबा नागार्जुन का घर जहां आज उनके पुत्र श्रीकांत रहते हैं . हमें वहां एकत्र होना था. दस मिनट के अंदर सादतपुर
और उसके आस-पास क्षेत्र में रहने वाले सभी साहित्यकार-पत्रकार, आमजन, बड़ी संख्या में किशोर और बच्चे एकत्र हो गये . सवा सात बजे “’अमल-धवल गिरि के शिखरों पर, बादल को घिरते देखा है , सादतपुर की इन गलियों ने , बाबा को चलते देखा है.” नारे की अनुगूंज के साथ प्रभातफेरी प्रारंभ हुई. इस नारे की पहली दो पंक्तियां बाबा की एक कविता की हैं, जिनके साथ बाद की दो पंक्तियां राककुमार कृषक ने अपनी जोड़ दी हैं.

बाबा की एक अन्य कविता की तीन पंक्तियां लेकर एक और नारा अकाश में गूंज रहा था –
"नए गगन में , नया सूर्य जो चमक रहा है, मेरी भी आभा है इसमें.”

तीसरा नारा था रामकुमार कृषक द्वारा निर्मित पंक्तियां :

“दुनिया कहती दुनिया-भर के , मैं कहता सादतपुर के हैं, बाबा अधुनातन पुरखे हैं.”


उपरोक्त तीनों नारे लगभग दो घण्टे तक सादतपुर की गलियों को गुंजायमान करते रहे. प्रभातफेरी का कारंवा आगे बढ़ता रहा और नए चेहरे जुड़ते रहे. पूरे सादतपुर का चक्कर लगाकर प्रभातफेरी का समापन ’यात्री निवास’ में हुआ.

मुख्य समारोह दोपहर दो बजे गली नं. तीन स्थित जीवन ज्योति हायर सेकण्डरी स्कूल के प्रांगण में हुआ. बाबा कितने गहरे जन-सरोकारों वाले कवि थे यह समारोह इस बात को प्रमाणित कर रहा था. इस कार्यक्रम में न केवल नागार्जुन के रचनात्मक अवदान पर गंभीर चर्चा हुई, बल्कि उनकी रचनाओं को कला, संगीत, फिल्म, पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के माध्यम से भी उपस्थित किया गया. प्रभातफेरी से लेक शाम को फिल्म-प्रदर्शन तक चले इस शताब्दी समारोह का आयोजन ’सादतपुर साहित्य समाज’ ने किया था, जिसमें सादतपुर के नागरिकों तथा दिल्ली और दिल्ली के बाहर से आए अनेक सुप्रतिष्ठ लेखकों, कलाकारों और पत्रकारों ने भाग लिया.

कार्यक्रम की शुरुआत हरिपाल त्यागी द्वारा बनाए नागार्जुन के भव्य तैलचित्र और उनकी कविताओं के २८ पोस्टरों के उद्घाटन-अनावरण से हुई. अनावरण श्रीमती कमलिनी दत्त, कु. कणिका , डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी, डॉ. भगवान सिंह , वाचस्पति, उमेश वर्मा, कुबेरदत्त आदि के हाथों हुआ.

उद्घाटन-अनावरण के बाद नागार्जुन की कुछ कविताओं की स्वरबद्ध प्रस्तुति इस समारोह की विशॆष उपलब्धि रही. प्रस्तोता थीं लेडी श्रीराम कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक डॉ. प्रीति प्रकाश प्रजापति. उनका काव्य-गायन सभी के लिए अविस्मरणीय अनुभव रहा. इसके बाद सादतपुर के कुछ वरिष्ठ और युवा नागरिकों ने बाबा के साथ जुड़ी अपनी यादों को ताजा किया.

अगला सत्र था नागार्जुन का महत्व-मूल्यांकन . इसमें सर्वप्रथम बोलते हुए सुप्रसिद्ध समालोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि नागार्जुन की जन्मशती सारे देश में मनाई जा रही है. लेकिन सादतपुर में इसका मनाया जाना विषेष महत्व रखता है. यह
समारोह तरौनी(बाबा का गांव) में मनाए गए समारोह से कम महत्वपूर्ण नहीं है. उन्होंने कहा कि उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार करना आज की जरूरत है.बाबा का फोटो आपने किसी राजनेता के साथ नहीं देखा होगा. यहां आप यह विचार कीजिए कि आज जो प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं, वे किनसे मिलते हैं और नागार्जुन किनसे मिलते थे. बाबा को हिन्दी में साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं मिला. यह पुरस्कार की परंपरा और मान्यता पर गहरा व्यंग्य और कटाक्ष है. वे वंचितों के कवि थे. डॉ. त्रिपाठी ने ’अकाल और उसके बाद’ शीर्षक कविता के हवाले से कहा कि ’सामयिक’ को ’कालजयी’ कैसे बनाया जाता है, यह बाबा से सीखा जा सकता है. आज ऎसी कविता की बड़ी जरूरत है. उन्होंने कहा कि जनवादी संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए जनवादी शिल्प की जरूरत होती है. उसे साधना कठिन है, लेकिन इसे साधे बिना क्लैसिक कविता नहीं रची जा सकती. जनवादी साहित्य में क्लैसिक क्या है, यह नागार्जुन से सीखना होगा.

वरिष्ठ कवि विष्णुचन्द्र शर्मा ने इस अवसर पर नागार्जुन शीर्षक अपनी कविता का पाठ किया और सुप्रसिद्ध समालोचक मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने बाबा के कुछ संस्मरण सुनाते हुए कहा कि एक बार दिनकर जी ने मुझसे कहा कि बाबा उनसे मिल लें. मैंने बाबा से जब यह कहा तो वे बहुत नाराज हुए और पूछा कि तुमने दिनकर को क्या जवाब दिया ? मैं चुप. बाद में जब दिनकर जी ने बाबा की नाराजगी के बारे में जाना तो वे खुद उनसे मिलने आए और उनसे माफी मांगी. उन्होंने कहा कि यह एक जनकवि का स्वाभिमान था. मुरली बाबू ने बाबा की कविता में विवधता पर भी प्रकाश डाला और उनकी प्रगतिशील प्रयोगवादिता पर भी. रेखा अवस्थी का कहना था कि वर्ग चेतना के नाते बाबा ने जो रास्ता दिखाया है, उस पर हमें ध्यान देना चाहिए. वरिष्ठ व्यंग्य लेखक प्रदीप पंत ने कहा कि ’अज्ञेय’ जहां अपने लेखन और साहित्य में अभिजात हैं, वहीं नागार्जुन उनसे एकदम दूर खड़े दिखाई देते हैं .यह एक ही समय में मौजूद दो कवियों का ध्यान देने योग्य अंतर है.

क्रान्तिकारी आंदोलन की शोध-खोज करनेवाले सुपरिचित लेखक सुधीर विद्यार्थी ने अपने मार्मिक संस्मरण सुनाते हुए कहा कि बाबा में दूसरी भाषाओं और दूसरों से सीखने की जो अद्भुत ललक थी, उसमें वे बच्चों से भी सीखते थे. उन्होंने जो कुछ रचा, वह बंद कमरों में बैठकर नहीं रचा. सुप्रसिद्ध चितंक और कथाकार भगवान सिंह ने नागार्जुन की कविताओं का उल्लेख करते हुए उन्हें हमारे काव्येतिहास का अत्यंत महत्वपूर्ण कवि कहा. बाबा के परम आत्मीय रहे लेखक-प्राध्यापक वाचस्पति ने उनकी घुमक्कड़ी के कुछ दिलचस्प संस्मरण सुनाए. कथाकार संजीव ने बाबा के वात्सल्य भाव और उनकी जीवंतता को लेकर संस्मरण सुनाए. कहा कि बाबा सबको डांटते जरूर थे, पर स्वयं भी डांट खाने का अवसर जुटा लेते थे. लेकिन इसके पीछे उनके व्यक्तित्व की विशिष्टताएं ही थीं. घन्नासेठों की तो परछाईं तक से वे बचते थे.

समारोह के अंतिम चरण में नागार्जुन केन्द्रित दो महत्वपूर्ण फिल्मों का प्रदर्शन किया गया. इनमें से एक का निर्माण साहित्य अकादेमी और दूसरी का एन.सी.ई.आर.टी ने किया है. समारोह के विभिन्न सत्रों का संचालन क्रमशः रामकुमार कृषक और महेश दर्पण ने किया.

इस समारोह में बड़ी संख्या में लेखकों ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई. उनमें से कुछ नाम हैं – वरिष्ठ कवि दिनेश कुमार शुक्ल (गुड़गांव) , वरिष्ठ कथाकार रमेश उपाध्याय, कवि गिरधर राठी , बली सिंह , भारत भारद्वाज, त्रिनेत्र जोशी, प्रकाश मनु (फरीदाबाद), दिविक रमेश (नोएडा), भारतेन्दु मिश्र, रमेश प्रजापति, दरवेश भारती, मधुवेश, सुधीर सुमन, प्रेम जनमेजय, श्याम सुशील, वरुण कुमार तिवारी, क्षितिज शर्मा, संजीव ठाकुर (गाजियाबाद) , रमेश आजा़द, आचार्य सारथी, मणिकांत ठाकुर, प्रकाश प्रजापति, अनुराग, आशीष, पूर्वा दत्त, सीमा ओझा, जितेन्द्र जीत, रेखा व्यास, दिलीप मंडल आदि.

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कविताएं





नागार्जुन की छः कविताएं


जेष्ठ पूर्णिमा, १९११ - ५.११.१९९८
(१)

कालिदास

कालिदास, सच-सच बतलाना !
इंदुमती के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोए थे ?
कालिदास, सच-सच बतलाना

शिवजी की तीसरी आंख से
निकली हुई महाज्वाला में
घृतमिश्रित सूखी समिधा-सम
कामदेव जब भस्म हो गया
रति का क्रंदन सुन आंसू से
तुमने ही तो दृग धोए थे ?
कालिदास, सच-सच बतलाना
रति रोई या तुम रोए थे ?

वर्षा रितु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घन-घटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर
चित्रकूट के सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके ही द्वारा संदेशा
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़नेवाले
कालिदास,सच-सच बतलाना
परपीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थककर औ’ चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर, तुम कब तक सोए थे ?
रोया यक्ष कि तुम रोए थे ?
कालिदास, सच-सच बतलाना

(१९३८)



(२)

बहती है जीवन की धारा

बहती है जीवन की धारा !
मलिन कहीं पर विमल कहीं पर,
थाह कहीं पर अतल कहीं पर .
कहीं उगाती, कहीं डुबोती,
अपना दोनों कूल-किनारा .

बहती है जीवन की धारा !

तैर रहे कुछ सीख रहे कुछ
हंसते हैं कुछ, चीख रहे कुछ.
कुछ निर्भर हैं लदे नाव पर
खेता है मल्लाह बिचारा.

बहती है जीवन की धारा !

सांस-सांस पर थकने वाले,
पार नहीं जा सकने वाले .
उब-डुब उब-डुब करने वाले ,
तुम्हें मिलेगा कौन सहारा .

बहती है जीवन धारा !
(१९४१)



(३)

सिन्दूर तिलकित भाल

घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल !
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल !
कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिए न समाज ?
कौन है वह एक जिसको नहीं पड़ता दूसरे से काज ?
चाहिए किसको नहीं सहयोग ?
चाहिए किसको नहीं सहवास ?
कौन चाहेगा कि उसका शून्य में टकराय यह उच्छ्वास ?
हो गया हूं मैं नहीं पाषाण
जिसको डल दे कोई कहीं भी
करेगा वह कभी कुछ न विरोध
करेगा वह कुछ उअहीं अनुरोध
वेदना ही नहीं उसके पास
फिर उठेगा कहां से निःश्वास
मैं न साधारण, सचेतन जंतु
यहां हां—ना—किन्तु और परन्तु
यहां हर्ष-विषाद-चिंता-क्रोध
यहां है सुख-दुःख का अवबोध
यहां हैं प्रत्यक्ष औ’ अनुमान
यहां स्मृति-विस्मृति के सभी के स्थान
तभी तो तुम याद आतीं प्राण,
हो गया हूं मैं नहीं पाषाण !
याद आते स्वजन
जिनकी स्नेह से भींगी अमृतमय आंख
स्मृति-विहंगम की कभी थकने न देगी पांख
याद आता मुझे अपना वह ’तरउनी’ ग्राम
याद आतीं लीचियां, वे आम
याद आते मुझे मिथिला के रुचिर भू-भाग
याद आते धान
याद आते कमल, कुमुदिनि और तालमखान
याद आते शस्य-श्यामल जनपदों के
रूप-गुण-अनुसार ही रक्खे गये वे नाम
याद आते वेणुवन वे नीलिमा के निलय, अति अभिराम

धन्य वे जिनके मृदुलतम अंक
हुए थे मेरे लिए पर्यंक
धन्य वे जिनकी उपज के भाग
अन्न-पानी और भाजी-साग
फूल-फल औ’ कंद-मूल, अनेक विध मधु-मांस
विपुल उनका ऋण , सधा सकता न मैं दशमांश
ओग, यद्यपि पड़ गया हूं दूर उनसे आज
हृदय से पर आ रही आवाज-
धन्य वे जन, वही धन्य समाज
यहां भी तो हूं न मैं असहाय
यहां भी व्यक्ति औ’ समुदाय

किन्तु जीवन-भर रहूं फिर भी प्रवासी ही कहेंगे हाय !
मरूंगा तो चिता पर दो फूल देंगे डाल
समय चलता जायगा निर्बाध अपनी चाल
सुनोगी तुम तो उठेगी हूक
मैं रहूंगा सामने (तस्वीर में) पर मूक
सांध्य नभ में पश्चिमांत-समान
लालिमा का जब करुण आख्यान
सुना करता हूं, सुमुखि उस काल
याद आता तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल !

(१९४३)

(४)

कांग्रेस तो तेणे कहिए-----

कांग्रेसजन तो तेणे कहिए, जे पीर आपणी जाणे रे
पर दुःख में अपना सुख साधे, दया भाव न आणे रे
तीन भुवन मां ठगे सभी को, शरम न राखे केनी रे
टोपी-कुर्ता-धोती खद्दर, धन-धन जननी तेनी रे
समदर्शी बनी लज्जा त्यागे, सुदृढ़ तिरंगी ढाले रे
जिह्वा थकी, सत्य ना बोलै, पर धन अपनो माने रे
माया-मोह न छूटे छन-भर, लोभ बस्यो जेहि मनमां रे
जैसे-तैसे वोट बटोरे, पिछली कीर्ति बखाणै रे
बड़े-बड़े सेठन के हितमां, अपणा हित पहचाणे रे
भूखे रखि-रखि लाख जनन को, हौले-हौले मारे रे
भण नर सैंया कमा-कमा नित कुल इकहत्तर तारे रे
कांग्रेसजन तो तेणे कहिए-----

१७ दिसम्बर, १९५१







(५)

आओ, इसे जिन्दा ही कब्र में गाड़ दें !

शांति का हिरन, अहिंसा की गाय –
बाघ ने दोनों को दबोच लिया हाय !
किसका हिरन, किसकी गाय ?
नेहरू का हिरन, गाय गांही की थी हाय !
कौन था बाघ, कौन था खूंखार ?
माओ-चाओ-शाओ की कम्युनिस्ट सरकार !
दुख हुआ मार्क्स को, स्टालिन मुसकाया !
गांधी के मुंह पर फीकापन छाया !!

चेहरा तिलक-सुभाष का तमतमाया---
भगतसिंह की आंखों में खून उतर आया !

लहू की सिंचाई है, अमन की खेती है---
लेनिन की लाश जंभाई नहीं लेती है !
सपने इन्कलाब के यहां-वहां भर गया ;
वो माओ कहां है ? वो माओ मर गया !!
यह माओ कौन है ? बेगाना है यह माओ !
आओ, इसको नफ़रत की थूकों में नहलाओ !!

आओ, इसके खूनीं दांत उखाड़ दें !
आओ, इसे जिंदा ही कब्र में गाड़ दें !!

(धर्मयुग, २६ जनवरी, १९६३)

(६)

भारत-भूमि में प्रजातंत्र का बुरा हाल है

लालबहादुर नीचे, ऊपर कामराज है
इनक़िलाब है नीचे, ऊपर दामराज है
दम घुटता है लोकसभा के मेंबरान का
बन जाए न अचार कहीं इस संविधान का !
लौह-पुरुष के चार शीश हैं, आठ हाथ हैं
देख रहा वह कोटि-कोटि जन कहां साथ हैं
अन्न-संकट में अस्सी प्रतिशत म्ख कुम्हलाए
इन आंखों की चमक कौन फिर वापस लाए !
जंतर-मंतर में नेहरू की रूह कैद है
पता न चलता क्या काला है, क्या सुफ़ेद है !
कहां गया मेनन, मुरार जी क्यों हैं गुमसुम
वह उंगली क्या हुई, कहां है गीला कुमकुम ?

कामराज क्या दामराज है ?
दामराज क्या रामराज है ?
रामराज क्या कामराज है ?
कामराज क्या दामाराज है ?

क्या चक्कर है –
जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊं ?
जनकवि हूं मैं साफ़ कहूंगा, क्यों हकलाऊं ?
नेहरू को तो मरे हुए सौ साल हो गए
अब जो हैं वो शासन के जंजाल हो गए
गृह-मंत्री के सीने पर बैठा अकाल है
भारत-भूमि में प्रजातंत्र का बुरा हाल है !

(जनशक्ति, २१ फरवरी १९६५)