गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

वातायन-अक्टूबर,२०११

इंडिया गेट में अन्ना हजारे समर्थकों का प्रदर्शन
चित्र : बलराम अग्रवाल

हम और हमारा समय


क्रूर समय का सच
रूपसिंह चन्देल

देश की आजादी से पहले और उसके बाद आम-भारतीय के लिए जीवन कभी सहज नहीं था. लेकिन आज शायद वह समय के सर्वाधिक क्रूर दौर से गुजर रहा है. सर्वत्र अराजकता की स्थिति है. भ्रष्टाचार और अपराध ने आम व्यक्ति का जीवन नर्क बना दिया है. इस स्थिति के लिए केवल और केवल देश की राजनीति जिम्मेदार है. आजादी के बाद जनता के स्वप्नों को जिसप्रकार राजनीतिज्ञों ने रौंदा और सब्जबाग दिखाते हुए उसे जिसप्रकार वोट बैंक में तब्दील कर अरबों के घोटाले किए वह अब छुपा रहस्य नहीं रहा. लेकिन इस उद्घाटित रहस्य के बावजूद जनता अपने को विवश पाती रही है. अण्णा के आंदोलन ने उसमें जाग्रति उत्पन्न की है, लेकिन सत्ता के अहम में चूर राजनीतिज्ञों ने आखों में पट्टी बांध ली है. जन लोकपाल बिल के विषय में वे वक्तव्य दे रहे हैं कि सरकार की गरदन पर पिस्तौल रखकर बिल पास नहीं करवाया जा सकता. राजनीतिक निरकुंशता का नग्न स्वरूप सत्ताधीशों के काले कारनामों में देखा जा सकता है. नवम्बर, १९८४ का दिल्ली, कानपुर या अन्य शहर रहा हो, या गोधरा के बाद का गुजरात इनके पीछे राजनीतिक षडयंत्र ही थे. वैसे इस देश में हर साम्प्रदायिक दंगा राजनीतिक कारणॊं से जन्मता रहा और उसे लेकर घड़ियाली आंसू बहाने वाले भी वही रहे. लेकिन पिछले दिनों राजनीति का जो विद्रूप चेहरा जनता के सामने उजागर हुआ उसने देश को कम से कम पचीस वर्ष पीछे अवश्य धकेल दिया है. कामनवेल्थ गेम्स, टू जी जैसे अनेक घोटाले हुए और अरबों की लूट हुई. इस लूट में राजनीतिज्ञों के साथ बहती गंगा में ब्यूरोक्रेट्स ने भी जमकर हाथ धोये. ब्यूरोक्रेट्स ने पहली बार ऎसा किया ऎसा नहीं----ब्रिटिश हुकूमत के समय से वे ऎसा करते आ रहे हैं. लेकिन अब वे मुक्तभाव से कर रहे हैं. जनता विवश देख रही है. ये देश की सम्पदा लूटने तक ही सीमित नहीं हैं. इनके खूनी पंजे विवश महिलाओं की इज्जत तार-तार कर रहे हैं. हाल में राजस्थान की नर्स भंवरी देवी कांड इसका ज्वलंत उदाहरण है. अपने काले कारनामों की सीडी बनाकर उन्होंने भंवरी देवी की आवाज बंद कर दी. लेकिन जब उनके ब्लैकमेलिंग से परेशान उसने सीडी का रहस्य सार्वजनिक करने की बात कही उसका अपहरण हो गया. (शायद हत्या भी) जो मंत्री संदेह के घेरे में हैं वह अब अपनी जाति का शक्ति प्रदर्शन कर यह संदेश देने का प्रयास कर रहे हैं कि उनपर हाथ डालने की गलती न की जाए, क्योंकि उनके पीछे उनकी जाति की शक्ति विद्यमान है. गांधी, सुभाष, नेहरू और भगतसिंह का देश कहां से कहां पहुंच गया----बलात्कार और हत्या के बाद राजनीतिज्ञ अपनी जाति के वोट बैंक की ओट लेकर अपने को बचा ले जाने की जुगत बना ले पाने में सफल हो रहे हैं, जो किसी चमत्कार से कम नहीं कहा जाएगा. दुनिया में पहले से ही भारत चमत्कारों के देश के रूप में चर्चित रहा है. दूसरे चमत्कार हों या न हों लेकिन राजनीति के अपराधीकरण ने जिसप्रकार चमत्कारी चोला पहना है वह बेहद घृणास्पद है.

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वातायन के इस अंक में प्रस्तुत है सोफिया अंद्रेएव्ना तोल्स्तोया की डायरी के उन अंशों की अगली किस्त जो उन्होंने अपने पति लियो तोल्स्तोय को केन्द्र में रखकर लिखे थे. (डायरी के ये अंश मेरी शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक – ’लियो तोल्स्तोय का अंतरंग संसार’ में संग्रहीत हैं) और पंजाबी की वरिष्ठ और चर्चित लेखिका राजिंदर कौर की कहानी.

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सोफिया अंद्रेएव्ना की डायरी



मार्च २, १८९४

क्या ही चमकदार धूपवाला दिन था. यह देख लेव निकोलायेविच ने विशेष उत्साहित भाव से दुनायेव के साथ मशरुम खरीदने बाजार के लिए प्रस्थान किया. उन्होंने बताया कि वह किसानों को मशरूम, शहद, करौंदा आदि बेचता हुआ देखना चाहते थे.


सोफिया अंद्रेएव्ना तोल्स्तोया




जून १, १८९७

लेव निकोलायेविच कला के विषय में एक आलेख लिख रहे हैं और मैं डिनर के समय से पहले उनसे मुश्किल से ही मिल पाती हूं. तीन बजे उन्होंने मुझे घुड़सवारी पर चलने के लिए आमन्त्रित किया----- दुन्यायेव के साथ हम जसेका के खूबसूरत ग्राम्यांचल से होकर गुजरे. हम एक बेल्जियन कम्पनी द्वारा परिचालित अयस्क खदान के निकट रुके, और पुनः एक परित्यक्त बंजर स्थान (’डेड किंगडम’ ) पर ठहरे, और दर्रा से नीचे उतरे और फिर ऊपर चढ़े. लेव निकोलायेविच असाधारणरूप से मेरे प्रति सहृदय और भद्र थे.

जून ७, १८९७

लेव निकोलायेविच ने ----- तान्या द्वारा नियमित मंगायी जाने वाली कला पत्रिका ’सैलोन’ में ड्राइंग देखते हुए प्रसन्नतापूर्वक शाम व्यतीत की.

जून १७, १८९७

आज मरणासन्न मुझिक कोन्स्तान्तिन को देखने लेव निकोलायेविच दो बार गये थे.

जून १९, १८९७

हम लोग लेव निकोलायेविच से मिले, क्योंकि वह उस व्यक्ति से मिलने जा रहे थे, जिसे खोद्यान्का दुर्घटना** पर कविता लिखने के लिए जेल में डाल दिया गया था. लेव निकोलायेविच व्यग्रतापूर्वक कला पर अपना आलेख लगातार लिख रहे हैं और उसे वे लगभग समाप्त कर चुके हैं. वह दूसरा कुछ भी नहीं कर रहे. शाम को रेव्यू ब्लैंच (Revue Blanche) से उन्होंने हमें एक फ्रेंच कॉमेडी पढ़कर सुनाई.

(** खोद्यान्का दुर्घटना १८ मई , १८६६ को घटित हुई थी. खोद्यान्सकोये के दलदले मैदान में निकोलस द्वितीय के राज्याभिषेक के अवसर पर उपहार प्राप्त करने के लिए हजारों की संख्या में एकत्रित लोग दलदले मैदाने में खराब बनी छत के ढह गिरने से कुचलकर मारे गये थे.)


जुलाई १५, १८९७

इस समय सुबह के दो बजे हैं और मैं लगातार नकल (पाण्डुलिपि की ) तैयार कर रहीं हूं. यह भयानक रूप से थकाऊ और श्रमसाध्य कार्य है. बड़ी बात यह कि जो कुछ भी मैं आज नकल करूंगी, निश्चित ही उसे खारिज कर लेव निकोलायेविच कल पूरी तरह उसका पुनर्लेखन करेंगे. वह कितना धैर्यवान और अध्यवसायी हैं----- यह आश्चर्यजनक है.

अगस्त १, १८९७

आज लेव निकोलायेविच ने तीन घण्टे तक रुचिपूर्वक लॉन टेनिस खेला, फिर घोड़े पर कोज्लोव्का चले गये. वह अपनी बाइसिकल पर जाना चाहते थे, लेकिन वह टूटी हुई थी. हां, आज उन्होंने बहुत लिखा, और सामान्यतया फुर्तीले, प्रसन्न और स्वस्थ प्रतीत हो रहे थे. वह कितने असाधारण हैं.

अगस्त ५, १८९७

शाम . लेव निकोलायेविच घोड़े पर ग्यासोयेदोवो उन परिवारों को पैसे देने गये जिनके घर जल गये थे. इन दिनों वह कसात्किन, गिन्त्सबर्ग, सोबोलेव, और गोल्डेनवाइजर के लिए कला पर अपना आलेख पढ़ रहे हैं.

दिसम्बर २१, १८९७ (मास्को)

आज सुबह लेव निकोलायेविच ने हमारे बगीचे की बर्फ की सफाई की और स्केटिगं की, फिर वह घोड़े पर सवार होकर वोरोब्वायी हिल्स और उससे आगे गये. किसी कारण वह काम करने की मनः स्थिति में नहीं हैं.


दिसम्बर २९, १८९७

डिनर के बाद लेव निकोलायेविच और मैंने शुबर्ट का ट्रैजिक सिम्फनी बजाया . पहले उन्होंने कहा कि संगीत नीरस और निरर्थक है. फिर उन्होंने आनंदपूर्वक बजाया, लेकिन जल्दी ही थक गये.

जनवरी ६, १८९८

लेव निकोलायेविच अभी तक भी काकेशस के जीवन और भौगोलिक स्थितियों ----- सभी कुछ का अध्ययन कर रहे हैं. शायद काकेशस सम्बन्धी कुछ लिखना चाहते हैं.

जनवरी ८, १८९८

कल रात रेपिन ने हमारे साथ भोजन किया और पेण्टिंग के लिए कोई विषय सुझाने के लिए लेव निकोलायेविच से कहते रहे. उन्होंने कहा कि वह चाहते हैं कि मृत्यु से पहले अपने में बची ऊर्जा का वह भरपूर उपयोग पेण्टिंग के लिए करें और कुछ ऎसा महत्वपूर्ण करें जो उनके श्रम की सार्थकता सिद्ध कर सके. लेव निकोलायेविच अभी तक उन्हें कोई सुझाव नहीं दे पाये लेकिन उस विषय में निरंतर सोच अवश्य रहे हैं.

जनवरी २१, १८९८

सोन्या ममोनोवा, लेव निकोलायेविच और मैं पूरे दिन साधारण जन के लिए एक ग्रामीण समाचार पत्र के विषय में चर्चा करते रहे. समाचार पत्र का उद्देश्य उनके पढ़ने के लिए कुछ रुचिकर सामग्री देना होगा. लेव निकोलायेविच ने इस विचार को इतनी गंभीरता से लिया कि उन्होंने सितिन (लोकप्रिय और पुनर्मुद्रित पुस्तकों के प्रकाशक) को आमन्त्रित किया कि आकर वह उस कार्य को सम्पन्न करने के लिए वित्तीय सहायता पर चर्चा करें.

जनवरी २६, १८९८

अभी लेव निकोलायेविच आये और बोले, "मैं तुम्हारे साथ बैठना चाहता हूं," उन्होंने सात पाउण्ड के दो ’वेट’ दिखाये जिन्हें उन्होंने जिमनास्टिक व्यायाम के लिए आज ही खरीदा था. वह बहुत उदासीन हैं और कहते रहे ,"मैं एक सत्तर वर्षीय व्यक्ति जैसा अनुभव करता हूं." सच यह है कि वह अगस्त में सत्तर वर्ष के हो जायेगें, यही , अब से छः महीने बाद. आज अपरान्ह उन्होंने बर्फ साफ की और स्केटिंग किया. लेकिन मानसिक कार्य से वह थकान
अनुभव करते हैं, और यही सर्वाधिक उनकी चिन्ता का कारण है.

फरवरी १, १८९८

कला पर बात करते हुए आज लेव निकोलायेविच ने बहुत से कामों का उल्लेख किया जिन्हें वह महत्वपूर्ण मानते हैं. उदाहरण के लिए ---- शेव्जेन्को का ’दि सर्वेण्ट गर्ल’ , विक्टर ह्यूगो के उपन्यास , क्राम्स्काई की मार्च करती हुई सेना और खिड़की से उसे देखती एक युवा स्त्री, बच्ची और धाय की ड्राइंग, साइबेरिया में सोते हुए अपराधियों और उनके साथ जाग रहे एक वृद्ध की सुरीकोव की ड्राइंग, और उन्ही की एक अन्य ड्राइंग जिसे उन्होंने लेव निकोलायेविच की कहानी ’गॉड नोज दि ट्रुथ’ के लिए बनाया था. उन्होंने एक मछुआरे की पत्नी की कहानी -- मुझे याद नहीं किसकी --- संभवतः ह्यूगो की -- का भी उल्लेख किया जिसके स्वयं अपने पांच बच्चे थे, लेकिन जिसने एक दूसरे मछुआरे की पत्नी के जुड़वां बच्चों को पालन-पोषण के लिए लिया था, प्रसव के दौरान जिसकी मृत्यु हो गयी थी. जब उस भली महिला का पति घर आया और उसकी पत्नी ने उन बच्चों की मां की मृत्यु के विषय में उसे बताया, वह बोला, "अच्छा , हमें उन बच्चों को घर ले आना चाहिए." उसके बाद उसकी पत्नी ने पर्दा हटाते हुए उसे दिखाया कि यह काम वह पहले ही कर चुकी थी. चर्चा में उन्होंने बहुत-सी अन्य बातों का उल्लेख किया.

फरवरी १६, १८९८

शाम लेव निकोलायेविच ने शिलर का ’रॉबर्स’ पढ़ा, और उसे लेकर बहुत उत्साहित थे.

मार्च १४, १८९८

कल एस.आई. तानेयेव हमारे यहां आए-------उन्होंने सुन्दर स्वर संगति के साथ पियानो बजाया और उसके विषय में लेव निकोलायेविच की राय जाननी चाही. बहुत गंभीरता और आदर के साथ लेव निकोलायेविच ने उनसे कहा कि उनकी स्वर-संगति में, जैसा कि सभी नये संगीत में है, राग, लय अथवा संगति का भी तर्क-संगत विकास नहीं है. कोई जैसे ही राग पर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास करता है, वैसे ही वह टूट जाता है, जैसे ही कोई लय पकड़ता है, वह बदल जाती है. व्यक्ति हर समय असंतोष अनुभव करता रहता है, जब कि वास्तविक कला में व्यक्ति ऎसा अनुभव नहीं करता. प्रारंभ से ही पदबन्ध अनिवर्य होता है.

अप्रैल १५, १८९८

लेव निकोलायेविच ने घोषणा की इल्या के साथ रहने के लिए वह परसों देहात के लिए प्रस्थान करेंगे, क्योंकि शहरी जीवन उन्हें कष्टप्रद लगता है और यह कि जरूरमंद लोगों में बांटने के लिए उनके पास १४०० रूबल हैं.

अप्रैल २१, १८९८

शाम के समय तानेयेव आ गये और उन्होंने और लेव निकोलायेविच ने अनेक दिलचस्प विषयों पर जीवंत बातें की. त्रुबेत्स्कोई भी आ मिले. उन्होंने कला, संगीत-शिक्षालय संबन्धी मामलों, जीवन की संक्षिप्तता और समय प्रबन्धन की योग्यता जिससे भले कामों में प्रत्येक मिनट का उपयोग हो सके और लोग और कार्य लाभान्वित हों सकें आदि विषयों पर चर्चा की.

जून १२, १८९८

शाम के समय, लेव निकोलायेविच ने , जो बाल्कनी में बैठे हुए थे, हल करने के लिए हमें एक पहेली दी. उन्होंने अपनी मन पसंद घास काटने वाली समस्या दोहराई. वह इस प्रकार है :

घास के दो मैदान हैं. एक बड़ा और एक छोटा. घास काटने वाले बड़े मैदान में पहुंचे और पूरी सुबह घास काटते रहे. अपरान्ह समय, आधे काटने वालों को छोटे मैदान में भेज दिया गया. दिन समाप्त होने तक बड़ा घास का मैदान पूरी तरह काट दिया गया था, जबकि छोटे घास के मैदान में एक व्यक्ति के लिए पूरे एक दिन का काम शेष था.

तो कितने घास काटने वाले थे ? उत्तर है -- आठ. ३/४ काटने वालों ने बड़े और ३/८ ने अर्थात २/८ और १/८ ने, दूसरे शब्दों में, एक आदमी ने, दूसरे मैदान को काट लिया. यदि एक व्यक्ति १/८ है तब कुल आठ व्यक्ति होने चाहिए.

यह लेव निकोलायेविच की मनपसंद पहेली है और वह सभी को उसे हल करने में लगा देते हैं.

अगस्त २२, १८९८

शाम लेव निकोलायेविच ने हम लोगों को ’दि मदर’, ’दि कूपन’, ’कुज्मिक - अलेक्जेण्डर प्रथम’ जैसे कहानी के विषय सुनाकर अत्यंत सजीव और प्रभावशाली ढंग से मनोरंजन किया.

अगस्त २२, १८९८

सुबह लेव निकोलायेविच ने ’रेसरेक्शन’ पर काम किया और आज के अपने काम से बहुत प्रसन्न थे. जब मैं उनके पास गयी वह बोले, "वह उससे शादी नहीं करेगा.मैंने इसे समाप्त कर दिया. मैं निष्कर्ष के विषय में सुस्पष्ट हूं और इससे मुझे अच्छा अनुभव हो रहा है."

सितम्बर ११, १८९८

लेव की बहन मारिया निकोलायेव्ना बहुत खुशमिजाज, स्नेही, सहृदय, और जिन्दादिल इंसान हैं. शाम बहुत देर पहले वह और लेव निकोलायेविच यहां अपने बचपन को याद कर रहे थे. वह बहुत मनोरंजक था. मारिया ने हमें बताया कि एक बार, जब लेव १५ वर्ष के थे, वे पिरोगोवो जा रहे थे और केवल प्रदर्शन के लिए वह ५ वर्स्ट (वेर्स्त) तक गाड़ी के पीछे दौड़ते रहे थे. घोड़े दौड़ रहे थे और लेव पिछड़े नहीं थे. जब उहोंने गाड़ी रोंकी तब उनकी सांस इस प्रकार फूल रही थी कि उन्हें देख मारिया फूट-फूटकर रो पड़ी थीं.

एक और समय अंकल युश्कोव की जागीर पानोवो के गांव कजान गुबेर्निया में कुछ युवा स्त्रियों को दिखाने के लिए कपड़ों सहित ही उन्होंने तालाब में छलांग लगा दी थी. अचानक उन्हें पता लगा कि पानी उनके सिर से बहुत ऊपर था और यदि किसी घसियारन ने अपना रस्सा डालकर उन्हें नहीं बचाया होता तो निश्चित ही वह डूब गये होते.

सितम्बर २८, १८९८

मिखाइल स्ताखोविच ----- लेव निकोलायेविच ऑरेल से साथ आये. लेव निकोलायेविच अपने उपन्यास ’रेसरेक्शन’ के सम्बन्ध में वहां एक जेल देखने गये थे. वह उसमें गहनता से तल्लीन हैं. पाण्डुलिपि पर निरंतर काम कर रहे हैं और अनुवाद के लिए उसके अनेक अध्याय विदेश भेज चुके हैं. आज उन्होंने एक कट्टर धार्मिक व्यक्ति से लंबी बातचीत की, जिसे एक बार हड़ताल में भाग लेने के कारण देश से निकाल दिया गया था और चार महीने उसने जेल में काटे थे. लेव निकोलायेविच उसकी कहानियों से मंत्रमुग्घ थे.

नवम्बर १४, १८९८

अपने पति के कार्य के विषय में मैंने उनसे लंबी वार्ता की-----उन्होंने कहा कि ’युद्ध और शांति’ के बाद वह अपने अच्छे ’फार्म’ में नहीं हैं और ’रेसरेक्शन’ से बहुत अधिक संतुष्ट हैं.

दिसम्बर १६, १८९८

लेव निकोलायेविच ने पुनः हमें जेरोम के. जेरोम (Jerome K. Jerome) पढ़कर सुनाया, और हंसे. हमने लंबे समय से उन्हें हंसते हुए नहीं देखा था.
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कहानी

लोधी गार्डेन



हमिंग बर्ड

राजिंदर कौर

मैं अपने भाई तेज के पास लॉस ऐंजल्स (कैलिफोर्निया, अमेरिका) पाँच बरस पहले गई थी। जिस अहाते में वह रहता है, उसके बाहर लिखा हुआ है - 'विसप्रिंग फाल्ज़'।
'अहाता' शब्द का प्रयोग मैंने इसलिए किया है कि वह आजकल की ऊँची इमारतों जैसा नहीं है। मध्य में खुली जगह है, दोनों तरफ फ्लैट हैं। अहाते के बीचोबीच पत्थरों का एक चबूतरा बना हुआ है जिसके बीच एक झरना है जो दिनभर बहता रहता है। उसका मद्धम संगीतमयी सुर पैदा करता पानी पत्थरों के साथ हल्का-हल्का रगड़ते हुए सर-सर की ध्वनि पैदा करता है। इस झरने के आसपास विभिन्न प्रकार के फूल खिले हुए हैं, बीच में एक दरख्त है छोटा-सा। दायें हाथ तार से पेड़ की एक टहनी पर फीडर टंगा हुआ था। उस फीडर में 'हमिंग बर्ड' के लिए लाल रंग का नेक्टर(शर्बत) भरा हुआ था। हमिंग बर्ड अक्सर ही उस फीडर में से नेक्टर पीने के लिए आते रहते थे।
उस दरख्त पर चिड़ियों की चहचहाट भी प्राय: सुनाई देती। तेज के फ्लैट में एअर कंडीशनर नहीं लगा हुआ था, इसलिए उसकी खिड़कियाँ हर समय बन्द करने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। जिस कमरे में मैं सोया करती थी, वहाँ खिड़की में से वो झरना, वो फूल-पौधे, वो दरख्त सब दिखाई देते थे।
सुबह-सवेरे चिड़ियों का चहचहाना भी सुनाई दे जाता था। अमेरिका के उत्तरी भाग में जहाँ मैं कुछ अरसा रह कर आई थी, वहाँ वातानुकूलित घरों के कारण दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द रहते थे और पंछियों की कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती थी।
इस अहाते का मालिक एक चीनी था जो अपनी बुजुर्ग़ माँ के संग वहीं एक फ्लैट में रहता था। आसपास के फ्लैटों में कोई बच्चा नज़र नहीं आता था। किसी घर में एक अकेली औरत थी, किसी में एक अमेरिकन माँ-बेटी थे। उनके साथ वाले फ्लैट में शारलेट रहती थी। घर से बाहर आते-जाते वह अक्सर मिल जाती। उसकी कुर्सी दरख्त के नीचे पड़ी होती। वह वहाँ बैठकर कुछ न कुछ पढ़ती रहती। उसके इर्दगिर्द दरख्त पर चिड़ियाँ उछल-कूद मचाती रहतीं। तेज ने बताया कि चिड़ियाँ उसके हाथ में से दाना लेकर खाती रहती हैं।
तेज ने मेरा परिचय शारलेट से करवा दिया तो मेरा बहुत सारा समय उसके साथ बीतने लग पड़ा। उसने बताया था कि वह लोगों की आत्मकथायें अथवा जीवनियाँ पढ़ने में बहुत रुचि रखती है।
उसकी बांहों का माँस ढल गया था। चेहरा देखकर लगता था कि कभी वह बहुत सुन्दर रही होगी। उसके कान में सुनने वाली मशीन लगी हुई थी। मैं जब भी उसके पास जाकर बैठती, वह कॉफी बनाकर ले आती।
सभी बातों का विषय होता - मौसम, किताबें या कैलीफोर्निया। एक दिन कहने लगी, ''इस शहर में 49 प्रतिशत चीनी हैं, 30 प्रतिशत लातीनी है। अब तो तुम्हारे देश से भी बहुत लोग इधर आ गए हैं।''
''अमेरिका की ज्यादातर आबादी बाहर से ही आकर बसी हुई है। तेरे बड़े-बुजुर्ग़ भी किसी अन्य देश से आकर यहाँ बसे होंगे?'' मैंने पूछा।
''हाँ, वे वेल्ज़ (इंग्लैंड का एक हिस्सा) से आए थे। यहाँ आकर उन्हें आरंभ में बहुत मुश्किलें झेलनी पड़ीं। मेरी माँ बताया करती थी कि मेरा नाना बड़ा शराबी था। मेरी नानी कपड़े सिलकर गुजारा करती थी। मेरा नाना शराब पीकर कहीं भी पड़ा रहता। मेरे मामे उसको उठाकर घर लाते। मेरी माँ को इस बात का बहुत दु:ख था कि वह पढ़ नहीं सकी थी। मेरे माता-पिता दोनों बड़े आदर्श जोड़ों में से थे। मेरा बाप समुद्री जहाजों पर काम करता था। बहुत मेहनती था। वह शराब को हाथ नहीं लगाता था। मेरा दादा भेड़ें खरीदता और बेचता था। तब ज़िन्दगी आसान नहीं थी। सबको बहुत संघर्ष करना पड़ा।''
मैं उसकी बातों का हुंकारा भरती रही। कुछ देर की चुप के बाद वह बोली, ''मैं दो साल की थी, जब मेरे माँ-बाप कोलाराडो से कैलीफोर्निया में आए थे। अब मैं पिचयासी साल की हूँ। तब कैलीफोर्निया अब जैसा नहीं था। मेरे देखते ही देखते क्या कुछ बदल गया है। तकनीकी तौर पर दुनिया कितनी आगे निकल गई है। मेरी ज़िन्दगी भी कोई सरल नहीं रही।'' मेरी ओर देखती हुई वह बोली।
''हर पीढ़ी को संघर्ष तो करना ही पड़ता है, उसका रूप बदलता रहता है।'' मैंने कहा।
''तू ठीक कह रही है।'' वह कमरे के अन्दर जाकर कुछ फोटो उठा लाई।
''यह मेरा पति जैक।'' वह मेरे आगे एक फोटो रखती हुई भावुक होकर बोली।
''बहुत सुन्दर और स्मार्ट है।'' मैंने कहा।
''उसका मेरा साथ सिर्फ़ छह साल का था।''
''सिर्फ़ छह साल? वह क्यों?'' मैंने हैरानी के साथ पूछा।
वह जैक की फोटो दिखाते दिखाते बोली, ''बहुत नेक आदमी था, बेहद प्यार-मुहब्बत करने वाला। हमारा बेटा रैंडी अभी चार साल का ही था कि जैक यह दुनिया छोड़कर चला गया। हम बस इतने वर्ष ही साथ साथ रहे।''
''ओह! बहुत बुरा हुआ।'' मैं उसके लिए दुख महसूस कर रही थी।
''क्या हुआ था, जैक को?''
''उसकी किडनियों में कुछ समस्या थी। नौ महीने वह अस्पताल में रहा। 19 दिसम्बर 1953 में उसका निधन हो गया।''
उसके चेहरे की झुर्रियाँ उदासी में और ज्यादा ढलक गईं।
''न वह सिगरेट पीता था, न शराब। डॉक्टर पूछते थे कि कोई एक्सीडेंट हुआ था। मेरे सामने तो कुछ नहीं हुआ था। पर जैक बताया करता था कि उसका बाप उसको खूब पीटा करता था। जैक से फार्म पर काम करवाता। वह जैक की माँ को भी मारा-पीटा करता था। फार्म में फलों के बहुत सारे पेड़ थे। माँ सारा दिन फार्म पर मिट्टी के संग मिट्टी हुए रहती। माँ गन्दे कपड़े पहने रखती। जैक कहता - माँ कपड़े बदल ले। कालेज से मेरे दोस्त आ रहे हैं, पर माँ मानती ही नहीं थी। जैक का बाप उसे कालेज से लेने जाता, मैले-कुचैले कपड़े पहनकर पुरानी खटारा कार लेकर। जैक पढ़ लिखकर अध्यापक बनना चाहता था, पर जैक कालेज की पढ़ाई पूरी न कर सका। उसका बाप अचानक चल बसा तो बहन और माँ की पूरी जिम्मेदारी उसके कंधों पर आ गई...।''
शारलेट ने सारी फोटो सहेज कर एक तरफ रख दीं। कुछ देर चुप रही, फिर बोली, ''जैक की माँ भी जल्दी ही गुजर गई। वह पीछे बहुत बड़ा घर छोड़ गई थी। जैक ने बहन का विवाह किया। वह फार्म और घर बेचकर आधा हिस्सा बहन को देकर लॉस ऐंजल्स आ गया और यहाँ नौकरी करने लग पड़ा।”
एक दिन बातों ही बातों में मैंने कहा, ''शारलेट, अमेरिका में तो औरतें अक्सर ही दोबारा, तीबारा विवाह कर लेती हैं। तूने दोबारा विवाह क्यों नहीं किया?''
वह बोली, ''एक आदमी मिला था पर वह पक्का शराबी था। बहुत सिगरेट पीता था। मैंने विवाह का ख़याल ही छोड़ दिया।''
बातों ही बातों में मेरा ध्यान हमिंग बर्ड की ओर चला गया। वह फीडर में से रस पी रहा था। हमिंग बर्ड मैंने उत्तरी अमेरिका में देखे थे। मेरे बेटे ने अपने घर फीडर लगा रखा था। पूरी गर्मियों में वे पंछी वहाँ रस पीने आते थे। मैंने उन्हें आपस में लड़ते भी देखा था। लेकिन सर्दियाँ शुरू होते ही उनका वहाँ आना बन्द हो गया था। शारलेट ने बताया था, ''यहाँ वे बारह मास रहते हैं। ठंडे प्रदेशों से गरम प्रदेशों की ओर चले जाते हैं। उड़ते हैं तो 'घूं-घूं' की, गुनगुनाने-भिनभिनाने की आवाज़ें आती हैं। रंग-बिरंगे, लम्बी-तीखी चोंच वाले छोटे से पंछी फलों का रस चूसते हैं।'' उसने पेड़ पर लटकती बोतल की तरफ मेरा ध्यान दिलाया।
''ये मेरे से नहीं डरते। मैं दिन का बहुत सारा वक्त यहीं गुजारती हूँ। वे चुपचाप आते हैं और रस पीकर चले जाते हैं। चिड़ियाँ भी मेरी सहेलियाँ हैं।''
एक दिन मैं चाय बनाकर बाहर दरख्त के नीचे ले गई। उसने मेरे लिए भी वहाँ एक कुर्सी रख दी थी। उसने चाय के लिए मेरा धन्यवाद किया।
''तेरा भाई टी.जे.(तेज) बहुत अच्छा व्यक्ति है। बहुत नेक। जब भी कोई ज़रूरत पड़ती है, वह मदद के लिए आ जाता है।''
''एक पड़ोसी को दूसरे पड़ोसी के काम तो आना ही चाहिए।''
''इस पड़ोस में सिर्फ़ टी.जे. ही मेरे सबसे करीब है। उसमें मुझे अपना बेटा नज़र आता है।''
यह सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई।
''तुम्हारे बच्चे कहाँ रहते हैं?'' मैंने पूछा।
''मेरा एक पुत्र है, एक पोता। वे सैनडियागो में रहते हैं। पर यहाँ गरमी बहुत पड़ती है।''
''तुम इकट्ठे क्यों नहीं रहते?''
''मेरे बेटे को यह भीड़-भाड़वाला शहर पसन्द नहीं। वहाँ उसका फार्म है। उसी फार्म पर रहता है। मैं ही उसके पास कई बार जाती हूँ। कुछ समय रहकर आ जाती हूँ। वहाँ उन दोनों के लिए खाना बनाती हूँ। उसका घर ठीकठाक करती हूँ। उसके बर्तन मांज देती हूँ। पोता पच्चीस साल का है। वह अभी विवाह नहीं करवाना चाहता। वह कहता है कि पहले वह अच्छी तरह सैट हो जाए, तभी विवाह करायेगा। बहुत सुन्दर है मेरा पोता।'' वह फ्रेम की हुई उसकी फोटो उठा लाई। सचमुच ही, लड़का बहुत सुन्दर और सुडौल था।
''मेरा पोता मुझे बहुत प्यार करता है।'' वह बड़े गर्व से बोली।
''वे तो चाहते हैं कि मैं उनके संग ही रहूँ, पर वहाँ एक तो गरमी बहुत है, दूसरा यहाँ मेडिकल सुविधायें अधिक हैं। तीसरा, मेरी कितनी ही सहेलियाँ हैं यहाँ। कितने सालों से मैं इस शहर में हूँ। फिर मैं किसी पर निर्भर नहीं होना चाहती।''
'मैं किसी पर निर्भर होकर नहीं रहना चाहती या चाहता' यह जवाब यहाँ आकर बड़े बुजुर्ग़ लोगों से सुना है। वे अपनी स्व-निर्भरता से हाथ नहीं धोना चाहते। यह रुझान अब हिंदुस्तान में भी आ रहा है।
शारलेट ने कहा था कि उसका पोता अपने पिता की भाँति गलती नहीं करना चाहता। मुझे उसका मतलब समझ में नहीं आया था। मैं पूछे बगैर न रह सकी।
वह बोली, ''मेरे बेटे की तो किस्मत ही खराब थी। चार साल का था कि पिता का साया न रहा। मैं नौकरी करने लग पड़ी। बच्चे को नर्सरी स्कूल में डाल दिया। मेरे पड़ोसी बहुत ही अच्छे थे। रैंडी स्कूल से घर आता तो मुझे फोन कर देता। फिर कपड़े बदलकर, खा-पीकर पड़ोसियों के घर चला जाता। मेरा बेटा पढ़ाई में बहुत अच्छा था, पर हाई स्कूल में उसे ड्रग्स की आदत पड़ गई। वे बहुत कठिन दिन थे, उसके लिए भी और मेरे लिए भी। बड़ी मुश्किल से उसको इस नशे की आदत से बाहर निकाला। अभी कालेज में पढ़ता ही था कि एक लड़की उसके पीछे लग गई। मैंने उसे बहुत समझाया कि तू पढ़ाई पूरी करके विवाह करना। और मुझे वह लड़की इसके लिए ठीक नहीं लगती थी। लेकिन उस लड़की ने तो इसे पागल ही कर दिया था। मेरा बेटा था भी बहुत सुन्दर। तुमने फोटो देखा ही है।''
वह उदास हो उठी।
''फिर क्या हुआ?''
''फिर क्या होना था। उन्होंने विवाह करवा लिया। वही हुआ जिसका मुझे भय था। वह लड़की अमीर बाप की बेटी थी। उसकी मांगों का कोई अन्त नहीं था। हर समय लड़ाई-झगड़ा। शीघ्र ही उनके बेटा हो गया। खर्चा और बढ़ गया। बेटे की नौकरी भी कोई बहुत बढ़िया नहीं थी। जितनी मदद हो सकती थी, मैं करती रही। लेकिन वह लड़की खुश न होती। एक दिन अपने चार वर्षीय बेटे को लेकर अपने बाप के घर चली गई। मेरे बेटे रैंडी का दिल टूट गया। बहुत रोता था। उसने अपने बेटे की कस्टडी अपने ऊपर ले ली। लेकिन उसने दुबारा विवाह नहीं करवाया।''
मुझे लगा, शारलेट का गला भर आया था। वह चुप हो गई।
''बहुत बुरा हुआ। तलाक अपने पीछे जो ज़ख्म छोड़ जाता है...।''
उसने मेरी बात बीच में ही काटते हुए कहा, ''उस लड़की को कोई फ़र्क नहीं पड़ा। उसने चार बार शादी की। अब चौथी शादी अपने से छोटी उम्र के आदमी से की है। सुना है, वह उस पर बहुत रौब डाले रखती है।''
''अमेरिका में तलाक बहुत होते हैं।'' मैंने कहा।
''मेरे परिवार में भी बहुत तलाक हुए हैं। मेरी ननद ने तीन शादियाँ की। अब जिस आदमी के संग रहती है, वह विवाह करने को कहता है, पर वह मानती नहीं। वह आदमी मेरी ननद की जी-हुजूरी करता रहता है। उसकी पहली शादी से दो बेटे हैं। बहुत नेक हैं। मेरे संग बहुत मोह करते हैं। मुझे अपने पास बुलाते रहते हैं।''
एक दिन उसने बताया कि उसकी एक सहेली बहुत साल पहले एक मिशनरी दल के साथ कलकत्ता गई थी। उसकी सहेली का कहना था कि भारत में दो ही वर्ग हैं - एक बहुत अमीर और दूसरा बहुत गरीब।
''तेरी सहेली कब गई थी, वहाँ?''
''यह 1945-46 की बात है।''
''उन दिनों हम अंग्रेजों के गुलाम थे। उन्होंने हमें गरीब बनाया। हमें लूटते रहे। 1947 में हम आज़ाद हुए थे। अब वहाँ मध्य वर्ग, उच्च मध्यवर्ग आदि सभी तरह के लोग हैं। धीरे-धीरे वहाँ तरक्की हो रही है।''
''तू 1947 की बात कर रही है। 1947 में मैं जैक से मिली थी। छह महीने हम मिलते रहे, फिर विवाह करवा लिया।''
''शारलेट, तेरा जन्मदिन कब होता है?''
''मैं 12 जुलाई 1917 में पैदा हुई थी।''
उम्र तो उसके पूरे शरीर पर लिखी हुई थी। उसके हाथों की झुर्रियाँ, बांहों का ढलकता माँस, झुकी कमर... लेकिन उसके व्यक्तित्व में अभी भी कितना आर्कषण था। उससे मिलकर एक सुखद अहसास होता था।
वह घर के अन्दर गई और फोटो से भरा हुआ एक लिफाफा ले आई।
''यह देख! जब मैं 80 साल की हुई थी तो मेरा बेटा और पोता मुझे एक बहुत बड़े होटल में डिनर पर ले गए थे। यह ड्रैस भी उन्होंने ही लेकर दिया था। वे दोनों मुझे बहुत प्यार करते हैं। पर ज़िन्दगी कोई बहुत सुखद नहीं रही। जैक के मरने के बाद सरकार ने मुझे पेंशन नहीं दी। कहते - वह ड्यूटी करता हुआ नहीं मरा। मैंने एक वकील कर लिया। उसने मुझे पेंशन दिलवाई। अब तो सब ठीक है। पेंशन है, सोशल सिक्युरिटी है। मुझे रैंडी की बहुत मदद करनी पड़ी। हजारों डॉलर। जब उसकी बीवी भाग गई। मेरा बेटा सदमे की हालत में था। बड़ा मुश्किल दौर था।''
''रिटायर होने के बाद भी मैं बहुत काम करती रही हूँ। किसी को बेबी सिटर चाहिए होती या किसी के घर के बीमार व्यक्ति की देखभाल करनी होती, मैं पहुँच जाती। इस तरह मैं पैसे जमा करती रही। तब मैं कार चला सकती थी। चार साल पहले मेरे दिल का आपरेशन हुआ है। उसके बाद घुटने का। अब मैं कार नहीं चला सकती। पर किसी को ज़रूरत हो तो अभी वे ले जाते हैं, छोड़ जाते हैं।''
बीच बीच में कभी कभी वह मेरे बारे में, मेरे परिवार के बारे में भी बातें पूछने लग जाती। मैंने अपने भाइयों के बारे में बताया तो कहने लगी-
''मुझे अपने भाई का भी बहुत सहारा था। उसकी पहली शादी तो सफल नहीं हुई। दूसरी पत्नी भी बहुत सुहृदय नहीं थी, पर तीन बच्चे हो गए। मेरे भाई के दिल का भी आपरेशन हो चुका था। उस रात भाई को फोन किया तो वह तकलीफ़ में था। मैंने भाभी से कहा कि वह उसे डॉक्टर के पास ले जाए। सवेरे मैं अपने लिए कॉफी बना रही थी कि सामने देखा, भतीजा खड़ा था। मेरा माथा ठनका। इतनी सवेरे, वह क्यों आया है अचानक! मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई। कहीं भाई तो नहीं?...''
''भतीजे ने 'हाँ' में सिर हिलाया। सदमा नहीं सहन कर सकी। उसी समय बेहोश हो गई। हाथ पैरों की पड़ गई। एम्बूलेंस बुला ली गई। भाई का सहारा भी गया। मेरा दिल टूट गया। ज़िन्दगी बहुत कठोर है!'' उसका गला भर आया था।
''कितने साल हो गए?'' मैंने उसको बातों में लगाने के लिए पूछा।
''चार साल।'' उसकी आँखों में से आँसू टप-टप बहने लगे। ''पर छोटा भतीजा और भतीजी बहुत मोह करते हैं। भाभी तो कभी फोन भी नहीं करती।''
शारलेट सप्ताह में दो बार अस्पताल में कसरत करने जाती थी। उसे अस्पताल से एक गाड़ी लेने आती थी। हफ्ते में एक दिन घर का सामान लेने जाती थी। घर के सारे काम स्वयं करती थी। शनि-इतवार का अख़बार पढ़ती थी। टी.वी. पर गिने चुने प्रोग्राम देखती थी।
जिस दिन मुझे वहाँ से चलना था, मैं उससे मिलने गई। उसने कसकर मुझे गले लगाया। हमने दोनों ने एक-दूसरे का धन्यवाद किया। हमने एक-दूसरे के पते और फोन नंबर लिए-दिए।
हिंदुस्तान आकर मेरा शारलेट के साथ कोई खास सम्पर्क न हो सका। तेज फोन पर बताता कि तुम्हें वह बहुत याद करती है। मैंने उसे एक बार फोन किया, पर अधिक बातचीत न हो सकी। तेज ने बताया कि वह बहुत खुश थी कि मैं उसे भूली नहीं थी।
चार वर्ष बाद मैं फिर तेज के पास लॉस ऐंजल्स गई। दरख्त के नीचे उसकी कुर्सी पड़ी थी, पर वह खुद वहाँ नहीं बैठी थी। हमिंग बर्ड का फीडर भी उसी जगह बरकरार था। दरख्त पर चिड़ियाँ भी चहक रही थीं। तेज ने बताया कि अब शारलेट बिलकुल नहीं सुन सकती।
मैं उसको मिलने गई तो वह गले लग लगकर मुझसे मिली। खुशी से उसकी आँखें भर आईं। वह पहले से भी ज्यादा झुक गई थी। उसकी झुर्रियाँ और गहरी हो गई थीं। वह एक कागज और पैन ले आई। उसने कहा, ''मैं अब मशीन की मदद से भी नहीं सुन सकती। तू यह कागज और पैन ले ले। तू जो भी बात करना चाहती है, इस पर लिख दे। मैं पढ़कर जवाब दे दूँगी।''
मैंने लिखा- ''मेरा भाई बता रहा था कि तुम इस शहर से दूर जा रही हो ?''
''हाँ। मेरा छोटा बेटा और पोता सानडियागो छोड़कर अब हवाई चले गए हैं। मेरे पोते की गर्लफ्रेंड वहीं की है। अब वो दोनों भी वहीं रहेंगे। तुझे पता है, हवाई को गार्डन आईलैंड कहे हैं। हवाई में एक और छोटा द्वीप है- कवाई। समुन्दर के किनार पर है। मेरा बेटा और पोता वहाँ अपना घर बना रहे हैं। वे वहाँ बहुत खुश हैं। उन्होंने वहाँ एक सर्फ-बोट खरीद ली है। वे समुन्दर की लहरों का भरपूर आनन्द ले रहे हैं। वे चाहते हैं कि मैं भी अब यह शहर छोड़कर उनके संग रहूँ। उन्होंने लिखा है कि वहाँ बहुत ही लुभावने प्राकृतिक दृश्य हैं। एक तरफ पहाड़, दूसरी तरफ समुन्दर। अब मैं 89 साल की हो गई हूँ। पोते की गर्लफ्रेंड एक डॉक्टर है। पर मैं पोते के संग नहीं रहूँगी। उनकी अपनी ज़िन्दगी है। मैं बेटे के संग रहूँगी। वहाँ मेरा अलग कमरा होगा। जाने से पहले यहाँ मुझे बहुत से काम करने हैं। यहाँ का सारा सामान निकालना है, कुछ बेचूँगी, कुछ दान में दे दूँगी। कुछ अपने रिश्तेदारों, परिचितों से कहा है कि जो ले जाना चाहें, ले जाएँ।''
शारलेट मेरा हाथ पकड़कर मुझे सभी कमरों में ले गई। वहाँ अल्मारियों में पड़ा सामान, क्रोकरी, दराजों में पड़े जेवर-गहने सब दिखाती गई। अल्मारियों में टंगे कपड़ों की तो कोई गिनती ही नहीं थी।
''तुझे कुछ चाहिए तो ले जा। मुझे खुशी होगी।''
मैंने उसके हाथ दबाकर शुक्रिया कर दिया।
''मेरे पास माँ, नानी, दादी की दी हुई बहुत कीमती चीज़ें हैं। उनके साथ मेरा भावुक रिश्ता है लेकिन मैं क्या-क्या ले जाऊँ। फोटो की एल्बमें ही बहुत सारी हैं। वे तो मैं यहाँ नहीं छोड़ सकती। फिर मेरे पति की यादें हैं, उन्हें देखकर कभी मैं रो लेती हूँ, कभी हँस लेती हूँ। ज़िन्दगी के वे छह साल मेरी ज़िन्दगी के बेहतरीन साल थे, जो मैंने अपने पति के साथ बिताये। इतना प्यार देने वाले आदमी को पता नहीं ईश्वर ने इतनी जल्दी क्यों बुला लिया।''
बातें करती करती वह उठकर रसोई में चली गई और कॉफी बनाकर ले आई।
''टी.जे. मेरी बहुत मदद कर रहा है, सब कामों में। तेरा भाई बहुत नेक है। वहाँ जाकर मैं इसे बहुत मिस करूँगी।''
''वह तुम्हें भी बहुत मिस करेगा। अगली बार मैं यहाँ आऊँगी तो तुम नहीं मिलोगी। यह अहाता तेरे बगैर सूना हो जाएगा। ये हमिंग बर्ड, ये चिड़ियाँ तेरी याद में उदास होकर घूमेंगी।''
शारलेट ने मेरा हाथ पकड़ कर दबाया। पर बोली कुछ नहीं। मुझे ऐसा लगा जैसे उसकी आँखें भर आई थीं।
इसबार मैं तेज के पास सिर्फ़ एक सप्ताह ही रही। शारलेट अपने घर के सामान को बेचने, बांटने और बांधने में बहुत व्यस्त हो गई थी। चलने से पहले मैंने उसका हवाई का पता पूछा तो कहने लगी, ''तू टी.जे. से ले लेना।''
उससे बिछुड़ते समय मैं बहुत ही भावुक हो गई थी।

हिंदुस्तान लौटने के बाद भी कितने ही दिन उस झरने की सर-सर करती आवाजें मेरे कानों में गूंजती रही।
तेज से पता चला कि वह हवाई जा चुकी है और वह उसको बहुत मिस करता है। जून के महीने में मैंने उसके 90वें जन्मदिन के लिए एक कार्ड खरीद लाई। तेज को मैंने फोन किया कि वह मुझे शारलेट का हवाई वाला पता बताये ताकि मैं उसको जन्मदिन का कार्ड भेज सकूँ।
तेज ने कहा, ''बहन जी, अब किसे भेजोगे कार्ड? वह तो पिछले महीने ही चल बसी थी। उसको शायद हवाई रास नहीं आया।''
''यह तो बहुत बुरी खबर है।'' मेरे मुँह से बस इतना ही निकला।
''बहन जी, शारलेट के हवाई चले जाने के बाद इस दरख्त पर हमिंग बर्ड ने आना बन्द कर दिया है। हमारे आँगन की रौनक ही खत्म हो गई है।'' भावुक होकर उसने फोन रख दिया।
मैं बहुत उदास हो गई। रात में अर्धनिद्रा की स्थिति में मुझे ऐसा अहसास हुआ मानो मेरी खिड़की के बाहर लॉस ऐंजल्स वाला वही झरना धीरे-धीरे बह रहा है और फुसफुसाकर कह रहा है - 'शारलेट, हम तुम्हें मिस करते हैं।''
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राजिंदर कौर

जन्म - 02-12-1936, लायलपुर(फ़ैसलाबाद), पाकिस्तान।

सम्प्रति - सेवानिवृत्त इतिहास अध्यापिका।
प्रकाशित पुस्तकें & पंजाबी में
सतरंगी कल्पना, आपणा शहिर,
सत्ते ही कुआरियाँ, दख़ल दूजे दा, तेरे जाण तों बाद,
धुंद दे उस पार, तख्ता पलट, चौणवियां कहाणियाँ(सभी कहानी संग्रह)
परतां, किस पछाता सच(उपन्यास)
बगीचे दा भूत, जादू दी सोटी(बाल कहानी संग्रह)
पाँच योध्दे(ऐतिहासिक जीवनियाँ-बच्चों के लिए)
बाल कुमारी(बच्चों के लिए)

हिंदी में
अपने लोग, शून्य का शोर(कहानी संग्रह)
कहानियाँ ज्ञान की(बाल कहानियाँ)
बाल कुमारी(बच्चों के लिए)

सम्मान/पुरस्कार- 'दख़ल दूजे का' संग्रह पर पंजाबी अकादमी, दिल्ली( वर्ष 1988)
'धुंद दे उस पार' पर पंजाबी अकादमी,दिल्ली(वर्ष 1997)
संत निधान सिंह केसर, बैंकाक सम्मान(वर्ष 1988)
प्रिंसीपल सुजान सिंह कहाणी पुरस्कार(वर्ष 1997)
डॉ. जसवंत कौर गिल्ल, ढूडीके पुरस्कार(वर्ष 2006)
'परतां' उपन्यास पर पंजाबी अकादमी, दिल्ली का पुरस्कार।

पता - एच-355, नारायणा विहार
नई दिल्ली-110028
फोन - 011-25797948, 98689-77525(मोबाइल)
ई मेल & rajinderb@hotmail.com
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