रविवार, 29 जून 2014

वातायन-जुलाई,२०१४

हम और हमारा समय
अनुवाद भी रचनात्मक कर्म है

रूपसिंह चन्देल

डॉ. काशीनाथ सिंह की पुस्तक ’आलोचना भी रचना है’ (किताबघर- अब किताबघर प्रकाशन) पढ़ी थी. उनके आलेखों में वही गत्यात्मकता और पठनीयता विद्यमान है जो हमें उनके कथा-साहित्य में प्राप्त होती है.  डॉ. नामवर सिंह की ’दूसरी परम्परा की खोज’ पढ़ते हुए लगता ही नहीं कि हम आलोचना पढ़ रहे हैं. कहीं भाषाई विद्वता का प्रदर्शन नहीं---सब कुछ सहज-बोधगम्य. मैं दूसरे आलोचकों की दुरूहता की बात नहीं करूंगा जो शायद पाठक को अपनी भाषाई गरिष्ठता से ही चमकृत करते रहते हैं. यहां मेरा उद्देश्य आलोचना की आलोचना करना नहीं है. डॉ. काशीनाथ सिंह जिस प्रकार आलोचना को रचना मानते हैं उसी प्रकार किसी महत्वपूर्ण कृति का अनुवाद भी एक रचनात्मक कर्म है.  अनुवाद दो भाषाओं के मध्य सेतु का कार्य करता है.  अच्छा अनुवाद मूल भाषा का आस्वादन देता है और मूल भाषा का आस्वादन प्रदान करने के लिए अनुवादक को भाषा ज्ञान के साथ शब्दों के उपयुक्त प्रयोग और वाक्य विन्यास की ओर अधिक सतर्क रहने की उसी प्रकार आवश्यकता होती है जिस प्रकार वह अपनी रचना के प्रति रहता है यदि वह एक रचनाकार है. 

मेरा मानना है कि यदि अनुवादक स्वयं अपनी भाषा का रचनाकार है तब उसके अनुवाद में रचनात्मकता होनी ही चाहिए, बशर्ते कि उसके अनुवाद का आधार व्यावसायिकता न हो. ऎसा तभी संभव है जब कोई अपनी मन चाही कृति का अनुवाद करता है. 

अनुवादक तीन प्रकार के होते हैं. स्वैच्छिक, नौकरीपेशा और व्यावसायिक. व्यावसायिक से मेरा आभिप्राय उन लोगों से है जो प्रकाशकों या संस्थाओं द्वारा उपलब्ध पुस्तकों के अनुवाद करते हैं भले ही वे किसी भी विषय की क्यों न हों.  ऎसे लोगों के अनुवाद में रचनात्मकता खोजना मृगमरीचिका ही सिद्ध होगा. जबकि नौकरीपेशा अनुवादक की भाषा की भ्रष्टता खीज पैदा करने वाली होती है. एक समय था कि सरकारी कार्यालयों में हिन्दी को प्रोत्साहन देने के लिए ’केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो’ की स्थापना की गई थी. हर विभाग में बड़ी मात्रा में अनुवादक भर्ती किए गए. केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो से प्रशिक्षण पाकर वे अपने को महान अनुवादक मानने का भ्रम पालने लगे और जो अनुवाद वे परोसने लगे उसकी एक पंक्ति का भी सही अर्थ निकाल लेना एक अतिरिक्त विद्वत्ता की मांग करता है.

अमृत राय द्वारा अनूदित ’स्पार्टकस’ का अनुवाद ’आदि विद्रोही’  पढ़कर मैं चमत्कृत रह गया था. उसके पश्चात मैंने उनकी दूसरी अनूदित कृति ’अग्नि-दीक्षा’ (निकोलाई ऑस्त्रोवस्की) पढ़ी. तब तक मैंने छोटी रचनाओं के अनुवाद ही किए थे. मन में उन जैसा अनुवाद करने की आकांक्षा पैदा हुई. कुछ दिनों बाद वीरेन्द्र कुमार गुप्त द्वारा जैक लंडन के नोबुल पुरस्कार प्राप्त ’कॉल ऑफ दि वाइल्ड’ का अनुवाद ’जंगल की पुकार’ पढ़ा. वह अनुवाद वीरेन्द्र जी की रचनात्मकता का चरमोत्कर्ष है.  राजेन्द्र यादव के अनुवाद भी रचनात्मकता के उत्कृष्ट उदाहरण हैं. भैरप्पा के उपन्यासों के अनुवाद---- इस कड़ी में कितने ही विदेशी और भारतीय भाषाओं की कालजयी कृतियों के अनुवादकों के नाम  जुड़ते हैं.  

मेरे मित्रो में सूरज प्रकाश की एन फ्रैंक की डायरी और चार्ल चैप्लिन और सुभाष नीरव के पंजाबी से अनूदित कृतियों ने मेरी उक्त आकांक्षा को बढ़ाया. इन दोनों के अनुवादों में जबर्दस्त रचनात्मकता परिलक्षित है.  मैंने लियो तोलस्तोय के अंतिम उपन्यास ’हाजी मुराद’ और उन पर तीस संस्मरणों का अनुवाद ’लियो तोलस्तोय का अंतरंग संसार’ किया. इन अनुवादों ने अनुभूति दी कि यह अपनी रचनाओं की भांति ही एक रचनात्मक कर्म है. जिस प्रकार एक  रचना (कहानी हो या उपन्यास ---यहां तक कि अन्य कोई भी विधा)  एकाधिक बार कार्य करने की मांग करती है उसी प्रकार एक अच्छे अनुवाद की भी यही मांग होती है. मैंने हाजी मुराद को तीन बार दोहराया—मांजा. तोलस्तोय पर संस्मरणों के साथ भी यही किया और ’दॉस्तोएव्स्की के प्रेम’ पर भी तीन बार काम किया, जबकि वह शोधपरक मेरे द्वारा लिखित मौलिक जीवनी है

मेरा यह  मानना है कि हर उस रचनाकार को जो अनुवाद कर सकने की क्षमता रखता हो अपनी मन पसंद एक-दो पुस्तकों के अनुवाद अवश्य करने चाहिए. अनुवाद न केवल रचनाकार की भाषा को समृद्ध करते हैं बल्कि एक नई रचनात्मक दुनिया से परिचित करवाते हैं. ऎसे क्षण हम उस लेखक की दुनिया में उसके पात्रों के साथ जी रहे होते हैं. हाजी मुराद का अनुवाद करने के बाद यह ऎतिहासिक चरित्र लंबे समय तक मुझे आन्दोलित करता रहा था…ऎसे चरित्र एक रचनाकार को किसी नवीनतम रचना के लिए भी प्रेरित करते हैं. लेकिन अधिक अनुवाद मौलिक रचनात्मकता के लिए बाधक भी सिद्ध हो सकता है इस खतरे को भी समझना आवश्यक है. 

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इस बार वातायन में प्रस्तुत है युवा रचनाकार प्रज्ञा पाण्डे की रचनाएं. 

आशा है अंक आपको पसंद आएगा.
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संस्मरण
उन्होंने नहीं स्त्रियों ने  शोषण  किया है उनका

प्रज्ञा पाण्डे

मयूर विहार फेज़  १ के पास आकाशदर्शन अपार्टमेन्ट, फ्लैट नंबर एक  सौ  छिहत्तर   . कृष्ण बिहारी जी ने यही पता मुझे बताया था . मार्च का यह दूसरा हफ्ता है.दिल्ली भी लखनऊ की तरह गरम होने लगी है मगर अभी भी मौसम में  खुनक बाकी है.

मधुमास के होते हुए  भी कुछ पेड़ों पर पतझड़ जल्दी आ गया है .ज़मीन पर फैले  सूखे पत्तों की  महक के साथ  उनकी मरमराती   हुई  आवाज़ भी है . अपार्टमेन्ट के गेट पर उतरकर एक हाथ में रंग बिरंगे  फूलों का गुलदस्ता संभाले मैं सावधानी से एक एक नंबर देखती चली जा रही हूँ. हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव  के घर जाने की खुशी है.

कई   बार  सोचा था  कि  जाकर  मिलूँ  . लोग  उनका  इतना  नाम  लेते  हैं . कई  उनके  मित्र  हैं  तो  ऐसे  कि जान भी दे दे उनके लिए  और जो दुश्मन हैं वे उनका नाम लेते ही अपना तीखा कडुवा मतभेद  औपचारिकतावश भी   पूरी ताक़त से ज़ाहिर करने में नहीं चूकते  हैं मगर आश्चर्य भी होता हैकि   शिद्दत  से  उनकी  चर्चा  करना भी कम  नहीं करते . दोनों ही तरह के लोग मेरे अपने  हैं और  उनसे मिलकर आने की इच्छा बलवती होती ही गयी है. पिछले दिनों जब उनकी तवियत खराब हुई थी तो जाने क्यों मन बेचैन हो उठा था. यूँ तो दुनिया से सभी चले जाते हैं मगर कभी कभी लगता है कि अगर कोई ऐसा सम्पादक चला गया तो जैसे साहित्य की सारी रौनक ही चली जायेगी .सोचती जा रही हूँतो लग रहा है  कि  चिकोटी काटनेवाला, चिढाने वाला, जलानेवाला कितना ज़रूरी होता है ज़िंदगी में, कितना अहम् होता है . जाने कितने  ही लोगों को उन्होंने लिखने के लिए अपनी बात कहने के लिए उकसाया होगा.कितनी ही बार ऐसा मेरे साथ ही  हुआ है . हंस पढ़कर  मैंने प्रतिक्रिया करना और लिखना सीखा है . कितने ही लोगों ने तो गुस्से में भर भरकर अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं खुद मैंने भी .  आज यह अवसर मिला है कि मैं बेहद आसान रास्ते से होकर इस तरह उनके दरवाज़े पर आ गयी कि लगा  अगर आना इतना आसान था तो मैं अबतक क्यों नहीं आई थी . लेकिन क्या ख़ाक आसान था ! लोग उन्हें घेरे रहते हैं यही सुना था और मैं घोर संकोची .धरातल पर बाएं हाथ  मुड़ते ही   साफ़ सुथरा सीधा सादा  छोटा सा घर . बाहर एक गाड़ी जिस पर प्रेस लिखा देखकर मैंने अनुमान लगा लिया कि मैं सही जगह हूँ . उस समय तो  उनके घर पर एकदम सन्नाटा था घर में मुझे  किशन की  पत्नी और उनका नर्से मिला जो हॉस्पिटल से उनके लिए आया है.  

प्रतिष्ठित चर्चित और विवादित राजेन्द्र यादव जो अपने मौन और कुछ अलग सी मुखर  टिप्पणियों के कारण  चर्चा में होते हैं . ऐसे व्यक्ति के घर का रास्ता बहुत सुहाना और  सीधा सादा सा है  .दरवाज़ा भी एकदम शांत और सयंत.  दिन के ढाई  बजे उनसे मिलने गयी हूँ .उन्होंने फ़ोन करने पर  पांच बजे आने को कहा था  मगर उसी दिन  शाम को मेरी ट्रेन थी. मैंने जब इस विवशता का ज़िक्र किया  तब वे बोले कि ठीक है २.३० बजे तक आ जाओ . जब मैं पहुंची तब  राजेन्द्र  जी सो रहे थे .उनके नर्स जिसका नाम टिबिन है  ने उन्हें जगाया  मेरे कहने पर कि मैंने आपको डिस्टर्ब  किया बोले कि नहीं अच्छा लगा . मेरे पास काम ही क्या है . 

मैं उनसे इस तरह पहली बार मिल रही थी सो एक संकोच भी था  मगर उनके पास जाकर संकोच कहाँ ठहरने वाला . वह भाग गया क्योंकि राजेन्द्र  जी मेरे पहुंचते ही एक  बहुत ही आत्मीय सी शिकायत लेकर बैठ गए  वे टिबिन  की ओर इशारा करके बोले-यह मुझे बहुत सताता है. मैंने इसी की वजह से तुम्हें बारह बजे  के बाद आने को कहा  था .सुबह होते ही  ये तमाम दवाईयां और मशीनें लगा देता है . बहुत पहरे भी बिठा रखे हैं इसने  मुझपर .मैं कुछ विस्मित हुई . मुझे लगा उनके भीतर एक बच्चा   है कहीं न कहीं तभी तो वे तमाम शिकायतें तुरंत दर्ज कराना चाहते  है कोई मिले तो ज़रा .

उन्होंने बताया कि पाइप तो छूट गया . छूट क्या गया वे भूल ही चुके  हैं उसे .जिस पाइप  का निशान  हमेशा के लिए उनके चेहरे में  उनके होंठो से निकलकर सीधे ठुड्डी तक अपनी तस्वीर छाप  गया है उसे वे भूल गए हैं ! यह वक़्त ही कर सकता है  कोई और नहीं .वक़्त को उन्होंने बहुत आसानी से संभाला .  तभी यह कहते हुए वे उतने ही सहज थे .अच्छा लगा भले ही   मजबूरी में लेकिन यदि कोई नशा छूट जाए तो ऐसा ही सहज भाव होना चाहिए जिसमें कोई पछतावा नहीं . तवियत कैसी है यह पूछने पर बोल पड़े -' मैं तो जाने को तैयार बैठा हूँ .यह तो जीवन का सच है और मैं इस सच में विश्वास करता हूँ'. मैंने कहा - आप ऐसा न कहें अभी तो आपको कम से कम दस सालों तक हंस का सम्पादकीय लिखना है'.बोले - यह तो तुम लोगों का प्यार है तुम मेरा हौसला बढाने के लिए कह रही  हो  . मैंने उनसे मार्च अंक के  सम्पादकीय की तारीफ़ करते हुए  कहा कि अस्वस्था में भी आपने इतना अच्छा सम्पादकीय लिखा देखकर खुशी तो मिली आश्चर्य भी हुआ कि आप इतने सजग हैं. वे बोले- हाथ कांपता है लिख नहीं पाया  इसलिए मैंने डिक्टेट किया .मैं खुद नहीं लिख सका इसलिए संतुष्ट नहीं हुआ.   छोटे छोटे कई   सवाल  उन्होंने मुझसे ही पूछ डाले .कहाँ  रहती  हो  यहाँ  कैसे  आई  . आने  में  कोई  दिक्कत  तो  नहीं  हुई  . बच्चे कितने बड़े हैं . बताया तो बोले 'अरे इतने बड़े हो गए हैं तुम्हारे बच्चे' ! किसी स्त्री की इससे  बड़ी तारीफ़ और क्या होगी . कोई भी मुरीद हो जाए . . "आजकल स्त्री विमर्श पर जो लिखा जा रहा है उसपर तुम क्या सोचती हो ". जो मेरी समझ में आया मैंने कहा उन्हें क्या लगा ये तो वे ही जाने . लेकिन स्त्री विमर्श की बात आने पर तुम्हें किसका नाम याद आता है उनके इस सवाल पर  अनायास ही मैंने कहा - प्रभा खेतान .

" क्यों?"

 "क्योंकि उन्होंने ईमानदारी और  बेबाकी  से  कडुआ सच लिखा है  .आपकी तो वे बहुत प्रिय थीं . कुछ बताईये .उन्होंने प्रभा खेतान को याद  करते हुए  बताया कि जब वह १२ वर्ष की  थीं तभी से मेरे घर आती थी . और यह भी कि मन्नू  भी उसका बहुत ख़याल रखतीं थीं और भी कई  बातें उनके बारे में . बातचीत के बीच में उन्होंने कई बार मन्नूजी का नाम लिया . कुछ रिश्तों  की आत्मीयता और अधिकार भाव  कभी नहीं छूटते .  तभी वे बोल पड़े क्या लोगी. चाय लोगी? मैंने कहा -आप लेंगे तो मैं भी ले लूंगी. थोड़ी ही देर में किशन की पत्नी चाय और नमकीन बिस्कुट रख गयी. पहले उन्होंने पीने से मना किया लेकिन मेरे कहने से तुरंत ही मान  गए और  आधी  प्याली  चाय पी  . मैंने उनकी विनम्रता और उनका दोस्ताना ढंग देखा . उम्र का कोई बंधन या कोई औपचारिकता वहाँ नहीं थी.  

क्या लिखती हो. मैंने बताया कि कविता से शुरू किया था पर कहानी पर आ गयी हूँ. वे बोले कि सभी ऐसा ही करते हैं . फिर कहा कि कोई अपनी कविता याद हो तो सुनाओ . स्त्री से जुडी एक कविता याद थी तो सुना दिया . शायद कुछ नयापन मिला उन्हें बहुत पसंद आई या  उनकी हौसला अफजाई  थी .नहीं पता .  मैंने अपनी कहानी के बारे में बताया कि हंस में स्वीकृत हो गयी है और मुझे उसके आने का इंतज़ार है तो तुरंत हंस के दफ्तर फ़ोन लगाकर उसके जल्दी ही आने की खबर दी मुझे .यह सरलता है उनमें.  कोई लाग लपेट नहीं इतनी ऊँचाई पर हंस को पहुंचाना और उसे बनाये रखना कोई आसान काम तो नहीं है  . प्रेमचंद के बेटे भी इस काम को न कर सके जिसे राजेन्द्र यादव ने कर दिखाया लेकिन कोई गुरूर नहीं है उनमें .मुझे उनमें यह बात बहुत बड़ी लगी . 
हंस की वसीयत की चर्चा करते हुए बोले कि कुछ लोग मुझसे नाराज़ हैं कि मैंने उन्हें हंस में कुछ नहीं दिया कुछ नाम भी लिए  . अजय नावरिया की बहुत तारीफ़ करते रहे  . बोले कि बहुत अच्छा लड़का है और बहुत अच्छी कहानियां लिखता है. मैंने कहा कि हाँ उनकी कहानियां मैंने पढीं हैं . जयश्री रॉय और विवेक मिश्र के प्रकरण पर भी चर्चा हुई मगर वे खुलकर नहीं बोले . निश्चित रूप से वे भावों में बहकर भी  फैसले लेते हैं .

हर व्यक्ति में कुछ न कुछ  कमजोरियां होतीं हैं . कुछ लोग अपनी मानवीय कमियों के साथ  जीते हैं , कुछ लोग उसे छुपाकर और कुछ लोग भगवान् हो जाने की चेष्टा के साथ . जो भी हो  यादव जी तो मुझे छोटे बच्चे की खुली किताब लगे . इस मुलाक़ात के दौरान वे एक शरारत करते रहे जिसका खुलासा करना बेहद ज़रुरी है. 

मैं तो मिट गयी उनकी इस अदा पर. उनकी जेब में चोरी की एक सिगरेट थी जिसे मेरे वहाँ होने के दौरान उन्होंने तीन बार पिया और हर बार वे सिर्फ एक या दो  कश लेकर अच्छी तरह बुझाकर वापस जेब में रख लेते थे .बल्कि उसे बुझाने में मैंने भी उनकी मदद की क्योंकि मुझे  डर  लग रहा था कि कहीं उनकी कमीज़ की जेब न जल जाए .तीसरी बार पीने के लिए वे बोले एक घूँट और ले लूं ? मैंने कहा जी ज़रूर मगर अब तो यह ख़त्म हो गयी है .मुझे मालूम होता तो मैं लेकर आई होती . उन्होंने बताया कि  किस तरह यह उनतक पहुंचती है और इसमें उनके  सहायक कौन लोग हैं. वे शरारती बच्चे की तरह बोल रहे थे  कि मन्नू  और रचना पता लगाते रहते हैं कि कोई मुझ तक ये  प्रतिबंधित  चीज़ें पहुंचा तो नहीं रहा.   पूछा कि तुम पीती हो ? मैंने कहा अच्छी तो बहुत लगती है पर पीती नहीं हूँ . 
"क्यों ? वही संस्कार "?

मैंने कहा -"जी हाँ वही संस्कार जिन्होंने  मुझे बर्बाद किया" इस पर वे हंस पड़े मैं भी  ' . मैंने कहा- कि  राजेन्द्र जी के पास बैठकर किसी  ग्रामीण परिवेश में पली बढी स्त्री का  यह कह  पाना  क़ि हाँ मुझे सिगरेट बहुत अच्छी लगती है ये संस्कार तो आपसे आया . अपनी बात क्यों न कही जाए यह संस्कार भी हंस पढ़कर आया है'. कोई कुछ भी कह ले राजेन्द्र यादव जी ने स्त्रियों को हंस के बहाने एक मजबूत   प्लेटफार्म तो  दिया ही है नहीं तो इतने आग्रह से स्त्रियों की हिमायत कौन करता.जो कुछ हंस में  छपा वह कहीं और नहीं छपा बल्कि यह कहना गलत नहीं कि जो कहीं और अनुचित था वह हंस में जगह पा गया  . जिन लोगों ने हंस को अपने परिवार की पत्रिका बनाने में परहेज किया उनलोगों ने इसे छुपकर भी पढ़ा . आखिर सबके मन का ही तो यहाँ छपा.  

बहुत से लोगों से बहुत सी बातें सुनी हैं .उन्होंने रिश्तों का शोषण किया स्त्रियों का भी शोषण किया है आदि आदि  मगर मुझे लगता है कि कहीं न कहीं  स्त्रियों ने उनका शोषण किया है . वे भावुक हैं जिसका लाभ स्त्रियों ने बखूबी उठाया है। 

यहाँ यह कहना ज़रूरी है हंस की उड़ान में  स्त्रियों  की उड़ान शामिल है.उनके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करती मैं उनसे विदा लेकर लौट आई यह वायदा करके जल्दी ही फिर आऊंगी .सचमुच मैं जल्दी ही फिर उनसे मिलने जाउंगी.

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प्रज्ञा पाण्डे की दो कवितायें

(१)
पहले मनुष्य हूँ  

सिर्फ स्त्री  हूँ  मैं'
यह जो परिभाषा उकेरी
 कागजों में तुमने
 अभिमान में सरपट अपनी अंगुलियाँ दौडाते
कभी भोज पत्र पर लिखा तो
कभी स्क्रीन  पर ।
 लिखने के पहले क्या सोचा
तुम्हारा लिखा मैं क्या कभी न पढूंगी .
 तुमने बना दी
मेरी तमाम असहमतियों से  नियमावलि 
 मुझे माँ  बहन  सखी
कहा
 पत्नी और अपनी प्रेयसी
 अपनी नज़रों से बार बार मुझे परखा
और लिख दिया जो भी
कभी मुझसे पूछा खुद के बारे में
 क्या ख़याल रखती हूँ मैं।
मैं तो भूल ही गयी अपना होना।
मुझे एक बार फिर  वही जाना होगा
जहाँ से तुमने भोजपत्रों पर  मुझे उकेरना शुरू किया
तुम्हारे सारे अक्षर मिटाकर मैं फिर से लिखूंगी
 खुद को याद कर कर।  याद आता है कि
पहले मनुष्य हूँ  उसके बाद हूँ मैं  स्त्री
वह भी   अपनी  .
 
(२)
समय के प्रवाह की सबसे ज़रूरी  लहरें

अगली बार तुम स्त्री बनकर जन्म लेना। 
तब समझ पाओगे 
स्त्री की देह में एक जो  गर्भाशय  है
वह उसका मान  उसकी थाती है .
हर जोर जुल्म से वह बचाना चाहती है उसे .
 क्योंकि उसमें वह रचती है  
 समय के प्रवाह की सबसे ज़रूरी  लहरें।
 जाने-अनजाने उस के लहू में उस  दायित्व की अस्मिता बहती है।
 जब भी स्त्री सौपती हैं स्वयं को पुरुष को ,
 अपनी गरिमामय सम्पूर्णता में
  अपने मान से लबरेज वह सिर्फ देह नहीं सौपती प्रेम में .
वह सौंप देती है अपनी थाती , धरती को बसाने का स्वप्न .
उसके साथी के लहू में गर्भ की
अस्मित-उष्णता का प्रवाह नहीं
प्रकृति ने पथिक को वह भार  सौपा नहीं।
 वह तो चलता रहता  है  नए प्रेम की खोज में
अपनी  नयी दुनिया के उत्स की खोज में । 
स्त्री ब्रम्हांड  को बसाने का स्वप्न लिए गाती है गीत
 मिलन के, बिछोह के
 बसाव के, उजाड़ के ।
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कहानी                                       
जीने से पहले

प्रज्ञा पाण्डे

 सांझ का झुटपुटा था. गांव के पश्चिमी  कोने के पीपल की सबसेऊंची फुनगी से उतरकर सूरज पोखरे की ओट जा रहा था. पोखरे के पानी में उसकी किरणें ऐसे उतर रही थीं जैसे दिनभर की थकी-हारी निरुद्देश्य वे वहीँ जाकर डूब मरेंगी. अंधेरा बस छाने ही वाला था. मनीषा और मैं दोनों तेज़ कदमों से जल्दी-जल्दी बगीचे से घर की ओर लौट रहे थे. तभी मैं जोर से चिल्लाई-"वो देखो सुखना बो."

 मनीषा मेरे चिल्लाने पर एकबारगी चौंक गई और अगले ही पल  उसने मेरी बेवकूफी भरी हरकत पर मुझे जोर से एक  धक्का दे दिया. मैं गिरते-गिरते बची थी. दरअसल मुझे गलतफहमी हुई थी. मेरे बगल से एकदम सटती हुई कोई औरत निकली थी जो कद-काठी में हूबहू सुखना बो जैसी थी. आप सोच रहे होंगे ये सुखना बो कौन है जो मेरे मन पर इस क़दर छाई हुई है कि किसी भी साए में दिखाई देती है.

क्या बताऊं मैं...! वैसे सच तो ये है किमैं सुखना बो को खुद भी ठीक से नहीं जानती. किसी इंसान को जान पाना आसान होता है क्या, वो भी एक औरत. ज़िन्दगी और मौत के छोटे-छोटे एहसासों के बीच बार-बार जीने-मरने से अजीब पहेली बन जाती है वह. कब वह नदी होती है और कब ठहरा हुआ तालाब का पानी, कब वह सितारों में चलती है और कब कुएं के भीतर रास्ता तलाशने लगती है- यह सब कुछ वह जानकर भी नहीं जान पाती है. अंधेरे हों या उजाले दोनों ही उससे आंखमिचौनी खेलते हैं और वह ज़िंदगी के हंसोड़ होने का भ्रम पाले रहती है.मां के साथ मैं गर्मियों में ननिहाल गई हुई थी. अंधेरा ढलने के बाद घर की लड़कियों- औरतों का घर से बाहर होना यहांपरिवार की परम्परा के बेहद खिलाफ था. उस समय तो मनीषा और मैं बस इतना ही जान रहे थे कि घर पहंचने में जो थोड़ी भी देर हो जाएगी तो हमारी बहुत कुटम्मस होगी. मनीषा डरती थी मेरी मामी से और मैं उसकी बुआ से. हम दोनों ममेरी-फुफेरी बहनें थीं लेकिन उससे भी पहले मनीषा मेरी पक्की सहेली थी.हम दोनों एक-दूसरे का जूठा  खा लेते, कपड़ों की अदला-बदली करते, कच्ची-पकी इमलियों को आपस में बांटते, रोमांचित और भयभीत होने परएक-दूसरे का हाथ पकड़ लेते... और इसी तरह बड़े होते गए .

 मुझे वह ढलती सांझ बहुत भा रही थी. आसमान का एक पूरा कोना बहुत लाल था और पेड़ों की फुनगी की हरी-हरी पत्तियां ललछौंह हो गई थीं. चारों ओर फैली उस लाली में रोमांच के अलावा दूर-दूर तक अगर कुछ था तो वे थीं हमारे तेज़ कदमों की ऊबड़खाबड़ आवाजें. हम लगभग दौड़ रहे थे. मेरा दम फूल रहा था. फिर भी सुखना बो चौड़ी मांग भरे और छपेली साड़ी पहने बार-बार नज़र के सामने आ रही थी. मुझे लगा कि अगर वह इस दुनिया में थी तो जरूर आज वह भी मुझे याद कर रही होगी या यह केवल मेरे मन का स्वप्न था.

 मुझे चार-पांच वर्ष पुरानी अपने बचपन के उस दिन की वह घटना अनायास याद हो आई और मैंने मनीषा से पूछ ही लिया- "ए मनीषा, उस दिन सुखना बो इतना किसलिए रो रही थी जिस दिन नाना तेजवा को मारने उठे थे. तुमको याद है न...और अम्मा और मामी उस समय किसलिए सुखना बो को इतना ढाढ़स दे रही थीं. मुझे लगता है कि उस दिन कुछ बात तो जरूर थी."

 फिर से सुखना बो की बात छेड़ देने पर मनीषा ने कुछ झल्लाकर कहा, "तुम भी न गड़े मुर्दे उखाड़ने में जुटी रहती हो. आज उसकी इतनी याद क्यों आ रही है तुम्हें. अभी कुछ न पूछो... मैं तो अब घर पहुंचकर ही दम लूंगी, नहीं तो आज तुम फुआ से फिर पिटोगी." उसने ताना मारते हुए कहा.

उसके इस तरह झल्लाने पर मैं चुप रह गई थी और उसको हमेशा की तरह अधिक समझदार मानते हुए अपनी चाल तेज़ कर दी थी.

 घर की देहरी से भीतर आते ही हम दालान के घने अंधेरे को पार कर बड़े आंगन में पहुंचे. आंगन के चारों ओर बने खमिया अंधेरे में डूबे हुए थे. पूरब वाली खमिया में एक बल्ब ढिबरी की तरह टिमटिमा रहा था. हर ओर मद्धिम अंधेरे का राज पसरा था, फिर भी बड़े-बड़े चौकोर पत्थरों से बने पुराने ढंग के उस आंगन में चारखानी आकृतियां अपने पथरीलेपन के साथ चांदनी रात में और उभर रही थीं. सिलबट्टे की खटर-पटर उस दो-चार प्राणियों वाले घर में जीवंत थी. मामी रसोयईवाले बरामदे के एक कोने में मसाला पीस रही थीं और चूल्हा मद्धिम सुलग रहा था. बटलोई में दाल खदबदा रही थी. मां चूल्हे के पास बैठी थी. मुझे शादी-ब्याह के समय खचाखच भरा रहने वाला वह मेले जैसा आंगन याद आ रहा था जब एक चारपाई बिछाने के लिए भी जगह बचानी पड़ती थी और सुखना बो मेरे लिए जगह रोके मेरा इंतज़ार करती थी. पहुंचते ही चहकती थी- "साम्हारा बबुनी अब हम जात हईं..."
दालान की ऊंची चौखट पार कर हम हाथ-पांव धोने बखरी के अंधेरे की ओर चल दिए. गलियारा पार करने के बाद अंधेरे में आंखें दिप-दिप जल रही थीं.

सुखना बो के ख्यालों में डूबी हुई मैं बोली- "इतनी कम रोशनी में मुझे कुछ भी दिखाई नहीं देता है. शायद अब अंधेरे में भी देखने की आदत डालनी होगी."

पचीस वाट का एक बल्ब अकेले ही बखरी के विशाल अंधेरे से लड़ता रहता था. उतने बड़े उस घर में बखरी में एकमात्र हैण्डपम्प था जो छूते ही बेसुर में ही सही मीठे पानी का सोता था. वह बखरी घर की स्त्रियों के नहाने-धोने के लिए इस्तेमाल होती थी. वहां किसी भी पुरुष का प्रवेश सर्वथा वर्जित था.

आंगन से बखरी की ओर जाने के बीच जो गलियारा था वह दो कमरों की दीवार के बीचोबीच खुद-ब-खुद बन गया था. उस गलियारे में पहुंचते ही अनाजघर से अनाजों की मिली-जुली सोंधी खुशबू आती थी जिसमें धूल की महक ऐसे सनी होती थी जैसे कीचड़ में पानी. जिस कमरे में मेरा जन्म हुआ था उस कमरे की दीवार उस गलियारे से लगी हुई थी. वहां पहुंचते ही मैं सुकून से भर उठती थी. दिन के उजाले में सुखना बो का घर बखरी में बने लोहे की छड़ वाले जंगले से साफ़ दिखाई देता था. वह गलियारा मेरा और मनीषा का अड्डा था जहां हम दोनों मां और मामी की हिदायतों से बच कर दुनिया जहान की झुरमुटी हरियालियों में खो जाते थे.

मैं सुखना बो के कटे-फटे मन पर लगे पैबन्दों की गवाह थी. लेकिन अदभुत था तो उसका रूप जहां उसके दुखों की पूर्ण अनुपस्थिति थी जैसे सूर्योदय के बाद अंधेरे की. ननिहाल पहुंच मेरी आंखें सबसे पहले उसकी ही खोजखबर लेती थीं. उसकी लाल-पीली छपेली साड़ी, माथे पर टिकुली, टटकी भरी हुई मांग, सफ़ेद चौड़े दांत, हल्दी में दूध-केसर मिला गोरा रंग और उतनी ही चौड़ी उसकी हंसी. सब कुछ बहुत रिझाता था मुझे. उस बार भी जब मैं गांव पहुंची और थोड़ी देर तक सुखना बो नहीं दिखाई दी तो मैं मामी से पूछ बैठी- "मामी सुखना बो कहां है?"

 "वह तो कहीं गायब हो गई!" मनीषा पहले ही बोल पडी.
 "कहां?"

लेकिन तब तक मामी ने मनीषा को डपट कर चुप करा दिया था. मां की चुप्पी से मुझे लगा कि शायद मां को पहले से मालूम था. उसने मुझे क्यों नहीं बताया था, यह पूछकर मैं भी मनीषा की तरह डांट नहीं खाना चाहती थी. थोड़ीही देर में मैं और मनीषा उसी सुरक्षित गलियारे में पहुच गए.

"वह कहां चली गयी मनीषा?" मैंने पूछा.

"मुझे तो डाउट लगता है कि तेजवा ने ही कुछ इधर-उधर कर दिया है." मनीषा बोली.

"वही तेजवा जो नाना के पास रहता था मजूरी के लिए?"

"हां वही जो दक्खिन टोले का है...लम्बा-तगड़ा भूत जैसा. सुखना बो अम्मा से कहती थी कि वह उसको खेत-खलिहान में भोर, दुपहरिया, सांझ, रात जब भी मिल जाता था बहुत तंग करता था. जब वह सबेरे बरसीम काटने निकलती थी और खांची मेड़ पर रखती थी तो तेजवा उसकी खांची लेकर खेत में चला जाता था कि वह खेत में जब खांची लेने के लिए तेजवा के पीछे आए तो..."

अचानक मनीषा बोलते-बोलते रुक गई. मैंने उत्सुकता में पूछा -'आए तो...?

मनीषा  खनखना के हंसी और बोली, "एकदम पगली हो, खेत में ही पकड़ के मौज करने के लिए और क्या!"
"अरे बाप रे ऐसा भी होता है क्या..."

"लो होता क्या नहीं है यहां. खुद को न बचाओ तो इन हरे-भरे खेतों में क्या न हो जाए. सुखना बो कितनी ही बार खांची छोड़कर बिना घास लिए ही लौट आई है. " वह फिर थोड़ा रुक कर बोली, "लेकिन इन बातों की किसी को कानोकान खबर नहीं होने पाती. बस दो-चार औरतें आपस में फुसफुसाकर चाहे जितनी बात कर लें घर के मर्द तक बात नहीं जाती."

"क्यों?"

"फसाद कौन कराए. मारी तो आखिर औरत ही जाएगी न." मनीषा शांत पानी के नीचे का हालचाल अक्सर यूं ही बयां कर देती है.

"लेकिन `एक बात जानती हों..."

"क्या?"

"फंसी तो वह तेजवा से ही थी...."

मैं चौंक गई और उसकी बात काट कर बोली- "अच्छा बताओ, अगर उसका चक्कर तेजवा से था तो इस बाबत वह उस दिन मामी से उसके बारे में भौहें चढ़ाकर इतनी शिकायत क्यों करती कि जैसे उसे तेजवा मिल जाए तो उसे कच्चा ही खा जाएगी."

मनीषा को अपनी कही बात पर वैसे ही ऐतबार रहता था जैसे बनिए को अपनी तौल पर होता है. बेहद बेफिक्री से बोली, "ये मुझे  नहीं मालूम मगर जो मैं बता रही हूं वह राई रत्ती सच है."

तब तक  मामी ने आवाज़ लगाई और हम दोनों उठकर चल दिए. मामी के छोटे-छोटे घरेलू काम मैं और मनीषा ही निपटाते थे. सबेरे ही सुहाग की पूजा के लिए जब हम लोग मां की बचपन की सहेली मनु मौसी को बुलाने उनके घर जा रहे थे तब मनीषा ने अचानक मुझे रोक लिया.

"देखो यही तो है वह कुआं जिसमें सुखना बो अपनी सास से गुसियाई हुई खीझकर कूदी थी."

 "अच्छा!" मैंने अचरज जताया तो वह बोली, "सास-ननद से झगड़कर और आदमी से मार खाकर औरतें इसी कुएं में तो आकर कूदती हैं, इसमें पानी नहीं है ना!"

वह हंसने लगी.

उसकी यही आदत मुझे अच्छी नहीं लगती थी. कितनी खीज और क्रोध में भरकर किस मजबूरी में वे औरतें ऐसा करती होंगी यह मनीषा नहीं समझती.

मैंने झांक कर देखा. पानी तो था नहीं उसमें, लेकिन खरपतवार से पटा होने के बाद भी उसकी गहराई कम नहीं थी.  कुएं की पुरानी दीवार से फूटते पेड़ों की जड़ें पतली शाखाओं के रूप में फैली हुई थीं.

"सांप बिच्छू  क्या कम होंगे इसमें . एक अजगर भी तो यहीँ कही रहता है मनीषा, सुना है कि  बहुत पुराना है एकदम काला   ." अरे ..छोड़ उसे इस गाँव में बड़े बड़े अजगर हैं जो मैं बता रही हूँ वह सुन". 

उसने मेरा हाथ पकड़ लिया

मनीषा ने बताया- "गांव के मनचले सुखना बो को बहुत चिढ़ाते थे कि भौजी तुम्हारा पेटीकोट उठ  गया था जब तुम कुएं में गिरी थीं...तुमको कुछ होश है कि नहीं." मनीषा ने बताया कि यही वो बात है कि सुखना बो का नाम आते ही गांव भर के रसिक मर्द क्यों मुस्कराने लगते हैं और औरतें आंचल में चेहरा छुपाकर क्यों हंसती हैं.

मनीषा को गांव भर का बहुत कुछ मालूम था, कि किसको किससे गर्भ ठहरा, कौन किससे साथ किसकी कोठरी में कौन-सा गुनाह करते पकड़ा गया.  किसकी चिट्ठी का कौन डाकिया है. टिकोरा लेने के लिए घरनू बढ़ई की चौदह साल की अधपगली बेटी किस तरह चरन मास्टर के बेटे के साथ दुपहरिया बिताकर आई और घरनू बढ़ई ने फिर उसको किस तरह मारा कि तीन दिन हल्दी-प्याज बांधे घर में पड़ी रही. कभी-कभी मुझे उसकी बताई बातें एक रहस्य की तरह लगतीं. क्या उसे लगता था कि मैं उसकी बातों में कहानी का रस ढूंढ़ती हूं इसलिए वो बातों की कहानी बनाती थी?

वो एक सफल किस्सागो थी, और मैं एक उत्सुक श्रोता थी.

 मेरी बांह पर पतलो  से    चीरा लगा और खून बह आया. ऐसे झाड़-झंखाड़ के रास्ते जाने क्यों ले आती है मनीषा.
 सुखना बो के कुएं में जा कूदने वाली  मसालेदार  चर्चा में  उसके आंसुओं से किसी को कोई लेना देना नहीं था  वैसे ही जैसे अनपढ़ को अक्षरों से नहीं होता  . यह बात हर  संवेदना  से  परे होकर बालक से किशोर होते लड़कों  तक ऐसे पहुँचती जैसे पुरुषोचित आन बान  बिना सिखाये रक्त में बहती है  टोले के लड़के जब जुटते और सुखना बो जो दो गली छोड़कर भी निकले तो ख़ास किस्म के ठहाकों की गूंज सुखना बो के होने को पूरनमासी के मेले में बिकने वाले खिलौना बना डालती. कुएं वाली घटना के बाद अपने जीवित बचे रहने पर वह बहुत पछताती थी और बार-बार गांव के दक्खिन बने ताल के किनारे जा पहुंचती थी लेकिन जीवन के प्रति मोह का कोई अदृश्य तंतु उसे फिर वापस ले आता था. मुझे लगता था कि ऐसे मौकों पर जरूर उसे द्रौपदी का चीरहरण याद आता होगा और दुर्योधन का अपनी जांघों पर हाथ फेरना.

मनीषा ने बताया कि सुखना बो उस दिन इन्हीं बातों को लेकर रों रही थी और मामी और मां उसको ढाढ़स दे रही थीं. फिर उसने मुझे ताना दिया, "देखना कहीं तुम न रोने लगना."

सुखना बो की जिन्दगी का सूत-सूत कातते हुए मनीषा बोली, "उस मैदे की लोई का उस काले-कलूटे बदसूरत सुखना से भला कोई मेल था!  ऊपर से जानती हो कि उम्र में वह कितनी छोटी थी सुखना से?.....खुद ही देख लो कि सुखना की कमर झुक गयी है...जबकि अभी पांच ही महीने तो हुए उसे गायब हुए. खुद ही अंदाजलगा लो उसकी उम्र का." "कहां गई वह?" मैं अधीर थी.

"मुझे क्या पता... मुझे तो बस यह याद है कि जब वह एकदम जवान थी यह तब भी इतना ही बूढा था."

 मुझे याद आया वह जेठ की दुपहरिया थी और उस बड़े से घर के बड़े से आंगन में सांय-सांय सन्नाटा था. जिस कोने में छांह थी सुखना बो के साथमैं वहीँ बैठी थी. मेरे पांवों में अजनबी-सा दर्द था. उसने मेरे पांव धोये और मालिश के लिए तेल लेकर बैठ गई. मुझे मालूम था कि उसके दर्दों के आगे मेरे पैर का दर्द तो कुछ भी नहीं था. वह केले के पत्ते-सी फटी हुई थी, फिर भी मैंने उससे पूछ  ही लिया, "ए सुखना बो, सुखना तुमसे उम्र में इतना बड़ा है तो तुमने शादी क्यों कर ली उससे... बोलो?"

सुखना बो ऐसे चुप हो गई जैसे काठ की हो. उसका चेहरा देख मुझे लगा कि मैंने पूछ कर कोई बड़ी गलती कर दी है. मेरा सवाल बहुत स्पष्ट था...शायद बहुत उघड़ा हुआ, पर जाने क्यों मुझमें जैसे जवाब पाने की जिद आ गयी थी, "बोलो न,  तुम्हारी मां को पसंद था क्या सुखना... या कि तुमको?"

सिर झुकाए रही सुखना बो! फिर आंखें नीची किए ही बोली, "बाप थे नहीं थे हमारे.  माई निपट अकेली थी तो खाली रोती थी! उसको हमारे ब्याह की बड़ी चिंता थी. एक भाई था तो वह तो और भी नासमझ था."

 "पिता को क्या हो गया था?"

"हारी बीमारी तो लगी ही रहती थी उनको बबुनी,  देह से बहुत कमज़ोर हो गए थे.  हमारी शादी से साल भर पहले ही एक रात अचानक ख़त्म हों गए." इतना कहकर वह सिर झुकाकर पांव दबाती रही. मैं चुप रही.

थिर बैठी वह वह फिर बोल पडी, "माई को किसी भी तरह से हमारी शादी करनी थी.

लड़की को खाना-कपड़ा मिले इतना ही देखा बस और कुछ न माई ने देखा  न वह जानती ही थी."
"क्या उम्र थी तुम्हारी तब सुखना बो?"

उसकी छतरीली पलकें बादल बन गईं और आंखें डबडबाई घटा, जिनसे मैं भीग गई. उस चुप बंजर दोपहर में हमारे बीच अनकही आत्मीयता का फूल खिल गया था. जैसे तितली के पंखो को छूने पर उनके रंग उंगलियों में उतर आते हैं उसी तरह का कुछ. फिर जब भी वह घर में आती थी एक नज़र मुझको जरूर देखती थी. "का हो बबुनी".... मैं उत्तर में सिर्फ मुस्करा देती. उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में काजल की सधी हुई पतली धार होती, जैसे म्यान में काले रंग की कोई अनोखी तलवार हो. मुझे उसकी निरीहता में खुद्दारी की एक झलक दिखाई देती.

उससे दोस्ती होने के बाद एक सांझ घूमते-घामते मैं और मनीषा उसके घर उससे मिलने गईं. उस दिन वह मामी के पास नहीं आई थी...पर यह तो एक बहाना था. मुझे तो सुखना को देखना था. गांव में पक्के खड़ंजे से लगकर एक चौड़ी नाली जाती है. उसी खड़ंजे से लगी हुई सुखना बो की फूस की एक छोटी-सी झोंपड़ी थी. अन्दर मिट्टी की दीवारों पर खड़े दो कमरे, दुआर पर बंधी एक गाय, गाय की हौदी और हौदी में पड़ा हरा चारा, जिसके लिए सुखना बो अपनी ज़िंदगी को मरुस्थल बनाए रहती थी और इस खेत से उस खेत हरियाली खोजती रहती. हम दोनों को देखते ही एकदम खिल गई, "आव बबुनी आव!"

उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में ममता उतर आई थी. जल्दी से गुड़-पानी लेकर आ गई और हमारे लिए खटिया बिछा खुद जमीन पर बैठ गई. इतनी आवभगत. मनीषा ने जल्दी जाने की जिद न पकड़ ली होती तो वह भला मुझे आने देती.  उसी रोज मैंने सुखना को देखा था. सामने से टूटे दो दांत और सफेद बालों वाला वह सच में उसका पिता ही लग रहा था.

औरतें बहाव की उलटी धारा में पतवार डाल नहीं उतरतीं, लेकिन सुखना बो कुछ अलग थी. बार-बार की चोट के बाद भी उसमें अपने वजूद की एक जिद थी. इसी जिद के जरिए वह अपनी पीड़ाओं से जूझती थी. यह जिद उसका प्रतिरोध थी. कोई बात बुरी लग जाए तो बगैर खाए-पिए कितने ही दिन गुजार देती थी. बात-बात पर रूठती थी. शायद खुद से नाराज़ रहती थी या फिर कौन जाने इस दुनिया से ही नाराज़ थी वह. फिर भी सघन बंसवारी की तरह आकर्षक और रहस्यमय थी. तभी तो सबसे अलग नज़र आती थी.  एक दिन उसकी डबाडब आंखें देखीं तो मैंने पूछा, "अरे क्या हुआ..."

वह गुस्से में थी. बोली, "देखो आज बूढा ने कितना बड़ा इलज़ाम लगा दिया हमपर." वो अपनी सास को बूढ़ा कहती थी. बोली, "कहती हैं कि कूड़े में रखा सारा गुड़ क्या हुआ. जब हमने कहा कि हम क्या जानें तो कहतीं हैं कि तुम ही खा गई हो सब." वह तमतमाई हुई थी. उसका आत्मअभिमान कुचले हुए फन-सा था.

बोली, "बबुनी हम क्यों खाएं उनका गुड़...हमें तो गुड़ पसंद ही नहीं. फिर ए बबुनी हम तो बिना खाए रह जाएं पर उनका कुछ न छुएं. तब भी वह ऐसी बात करती हैं कि मन होता है कि जाकर मर जाऊं कहीं." उसकी आवाज़ कभी पाताल से तो कभी आसमान से आती लग रही थी.

मैंने कहा, "अरे इतनी-सी बात पर मर जाओगी? तुम्हें पूरा हक है वहांखाने-पीने का." उसकी आंखों में जो भाव उभरा उसे देख कर मैं सहम गई. उसने प्रतिवाद किया, "नहीं बबुनी हम तो जितना खटते हैं उतना खाते हैं...हम हराम का नहीं खाते. झट से उसने अपने ब्लाउज़ की बांह ऊपर चढ़ा ली और अपनी गोरी बांह पर पड़े नीले निशान दिखाने लगी.

"यह क्या हुआ? "  मैं उसकी गोरी सुघड़ बांह पर बना चोट का निशान देखने लगी.

वो बोली, "सबेरे मनुआ के काका ने पकड़ कर जोर से ऐंठ दिया."
"अरे क्यों...?"

"उसकी मां को हमने पट से जवाब जो दे दिया था. उन्हें बर्दास्त नहीं हुआ इसलिए..."

"क्या कहा तुमने?"

" बस यही कि चुप रहो बूढा! तुम ही खा गई हो सारा गुड़. जब कर नहीं तो डर कैसा....जो गलत करे वो डरे. बोलो बबुनी, क्या गलत कहा हमने...पूरा दिन बूढा गुड़ ही खातीं हैं तभी तो गांव भर के लड़के उनको चिउटा   बुलाते हैं और वो चिढ़कर हलकान होती हैं!"

मुझे जोर की हंसी आ गई. सुखना बो के होंठ फैल कर थोड़े टेढ़े हो गए. कम से कम क्रोध करने का तो उसे पूरा हक था. उसकी सास को पूरा गांव चिउटा बुलाता है यह तो मुझे मालूम था लेकिन क्यों बुलाता था यह सुखना बो से पता चला था. सुखना बो अपने ऊपर लगे ऐसे इलज़ाम से आहत लग रही थी और इतने गुस्से में थी कि अपने आक्रोश को बयान करते समय उसकी मुट्ठी भर की नाज़ुक कमर झुक जा रही रही थी. मैं उसकी खुद्दारी देखकर परेशान हो गई थी.    यह गांव उसकी खुद्दारी को कितना सहेगा मेरे मन में यह एक बड़ा सवाल था. सुखना बो के कुएं में कूदने वाली बात के बारे में मामी से पूछा तो मामी ने भी वही बताया था जो मनीषा ने बताया था.

"लेकिन सूखे कुएं में क्यों…?"

मनीषा बोली, "अरे जिसको मरने का मन हो जाए वह सूखे कुएं में क्यों गिरेगा! सुखना बो कम नाटक नहीं करती."
मुझे उसका यह बोलना बिलकुल अच्छा नही लगा. मामी ने बताया, "सुखना ने उसको बच्चा न जन पाने के लिए बहुत कोसा था. इतना ही नहीं यह भी कहा था कि अगर मुझमें कमी है तो दिनभर तो खेत-खेत घूमती है किसी और से ही जन्मा के दिखा दे. यह बात सुखना बो बर्दाश्त नहीं कर पाई और जाके सूखे कुएं में ही कूद गई.

सुखना बो काम करते-करते दर्दीली आवाज़ में विवाह के गीत, फगुआ,  धान के गीत, ओसावन के गीत गाती. जैसा मौसम हो वैसा गीत. गाते-गाते रोना उसके लिए बेहद सहज था. वह हरदम रोती थी या हरदम गाती थी समझना बहुत कठिन होता था, पर उसकी दर्द भरी आवाज़ बताती थी कि अंधेरी रातों में जरूर उसकी छाती लोहार की भट्ठी की तरह दहकती होगी.

एक बार भीतर वाला दालान गोबर से लीपती वह बतियाती रही. मैं उसकी हथेलियों के सधेपन को मुग्ध हो देख रही थी. एक ही बार में गोबर का पूरा लेप समेटती वह पीछे खिसकती जाती थी. बात करते-करते मैं बोली, “ए सुखना बो,  तुम्हारी अम्मा तुम्हें किस नाम से पुकारती थी हो..."

वह शर्माने लगी. "अपना नाम बताने में काहे की शर्म!" मैंने उसे कुरेदा तो बोली, "अरी बबुनी जब नैहर ही छूट गया तो अब वह नाम जानकर क्या करोगी?”

बार-बार पूछने पर लजाते हुए बोली, "बबुनी नाम तो हमारा बहुत सुन्दर था…कन्याकुमारी."

मैं अचंभित उसका मुंह देखती रह गई.

"इतना सुन्दर नाम भूलकर सुखना बो बनी हो!" मैं खुद को बोलने से रोक न पाई.

"अरे बबुनी धरम पर तो चलना ही है. पति के नाम के आगे हमारा नाम थोड़े रहेगा हमारी पहचान तो उन्हीं से है ना."

 सबेरे-शाम घास काटना, दोनों समय खाना बनाना, सास और सुखना को खिला-पिलाकर सो जाना. अपनी देह में हरहराते यौवन को वह किस थपकी से सुला देती थी यह तो वही जाने. मैं असहाय हो उससे पूछती, "ए सुखना बो, कभी अपने नैहर क्यों नहीं जाती हो? जाकर थोड़ा घूमघाम आओ न.”

  "कहां जाएं बबुनी... वहां अब ठौर कहां! एक भाईभौजाई हैं... इतने बरसों में कितने तीज-त्यौहार आए पर कुएं में धकेलकर कभी झांकने भी तो नहीं आए वो ..... क्या तीज खिचड़ी का भी हमारा हक नहीं है?” उसके सवाल उसकी अस्मिता से झरते थे. मैं निरुत्तर हो जाती थी.

"सुखना बो हम ज़रा ट्यूबबेल घूम आएं... तुम चलोगी?”

"ना बबुनी बहुत काम है." वह फिर अपने काम में जुट जाती. कभी मामी के लिए मसाला पीसना, कभी मामी के कपड़े अलगनी से बटोर लाना, तो कभी गोइठा रखकर बोरसी जलाना. इन्हीं कामों में अस्त-व्यस्त सुखना बो खुद को भी सुलगाती धुआं हो रही थी और ऐसे छीज रही थी जैसे फसल कटने के बाद खेत  छीजते हैं.

ऐसे में अगर तेजवा को सुखना बो का छीजना मालूम था तो कोई क्या करता और अगर तेजवा की नज़र सुखना बो पर गड़ी थी तो गांव क्या करता!

सुखना बो देह की लाज ढांपती मरती जा रही थी लेकिन दूसरी ओर द्रौपदी बनकर जीवित भी हो रही थी. राख के नीचे आग ज़िंदा थी यह मुझे नहीं मालूम था लेकिन क्या उसे मालूम था. सांझ को जब सुखना बो मामी का चूल्हा सुलगाने में जुटी होती आंगन में पड़ी खाट पर लेटी गोधूलि में धुंधलाते हुए तारों में आसमान निहारती हुई मैं सुखना बो के लिए कोई चमकीला तारा खोजती थी और सोचती थी कि काश, मैं सुखना बो के लिए कुछ भी कर पाती.

सुखना बो के गांव से अचानक चले जाने के बाद गांव में रहनेवालों की व्यस्तता बढ़ गयी थी! जिसकी कल्पना जहां तक जाती थी वह वहां तक अपनी अटकलें दौड़ाता था. दो-चार लोग जहां खड़े हो जाएं वहीं सुखना बो की बातें होने लगती थीं. कुछ लोग कहते कि तेजवा ने बहला-फुसला कर उसको किसी दलाल के हाथ बेच दिया और उसका बच्चा भी गिरवा दिया. कोई कहता कि उसने ले जाकर सुखना बो को कहीँ किसी गड़हे-पोखरे में धकेल दिया. कोई कुछ तो कोई कुछ. सुबह शाम दोपहर लोग आपस में इस विषय पर बतियाते रहते. औरतें काम धाम ख़त्म कर एक-दूसरे के घरों में हवा की तरह दबे पांव जातीं और उसके बारे में एक से एक नई-नई कहानियां सुनाने लगतीं.

एक बार गर्मियों में जब मैं गांव गई थी तब मैंने भी सुखना बो को तेजवा से खूब हंस-हंस कर बातें करते देखा.  उसकी दुबली-पतली काया तब भरी हुई लगी थी. तब सुखना बो में मुझे एक दूसरी सुखना बो दिखाई दी थी.

सुखना बो के गांव से अचानक चले जाने के बाद जब पहली बार सुखना ने तेजवा का नाम लेकर उस पर उंगली उठाई थी तो दबंग तेजवा के घर के लोगों ने सुखना को गरियाकर उसकी सातों पुश्तें तार दी थीं. उस दिन जो चुप हुआ सुखना तो आज तक उसको बोलते-हंसते किसी ने नहीं देखा. दो रोटी सेंक कर देनेवाली उसके बुढापे की लाठी और घर की इज्जत अब घर में नहीं थी.

सुखना बो एक बार जो गई तो नहीं लौटी पर तेजवा उसी दिन सांझ होते-होते गांव लौट आया. तो आखिर सुखना बो कहां चली गई! किसी को कुछ पता नहीं था. दरअसल तेजवा ने सबको यही बताया कि उस दिन वह तो अपनी बहन के ससुर की तेरहीं पर उसके गांव गया था. लेकिन दबंग तेजवा पर किसी को भरोसा नहीं था. वह तो अपनी जवानी के ख़म से पूरे गांव को हांकता था.

सुखना बो कहां गई, उसका क्या हुआ- यह एक रहस्य था.

बाद में मनीषा ने इस रहस्य पर से परदा उठाया था. मुझे नहीं मालूम कि उसे यह सब कैसे पता था, पर उसके और मेरे लिए इस कहानी के सुखांत में एक संतोष था. मनीषा ने बताया :  "गांव तो उसको बांझ मानता ही था, सास भी दिन भर जली-कटी सुनाया करती थी. पर उस दिन सुखना की यह बात उसने मन से लगा ली कि- बंसहीन बांझ किसी और से ही जन्मा के दिखा दे न...! तब सुखना बो पोर-पोर से जागी. बरसों बाद उसकी देह की कसक, जिसे वह भुला चुकी थी, उसके भीतर फुफकार उठी. उसकी देह गोइठा की तरह एकतार सुलगने लगी. वह कई-कई रात जागती रही. सच तो यह था कि न सुखना यह कहता और न ही सुखना बो तेजवा की होती.

"एक निर्जन दोपहर में घाम की तरह तपती हुई वह खुद ही तेजवा के दरवाज़े के सामने जाकर खडी हो गई और बेहिचक उसकी कोठरी के केवाड़ खटखटा दिए.

"तेल पी हुई लाठी जैसे गठीले बदन वाले तेजवा पर कोई भी औरत भला क्यों न मर जाती! वह तो सुखना बो थी जो इतने दिनों तक खुद कोसाधे रही. उसमें भी अगर सुखना ने उसके औरतपने को न ललकारा होता तो वह भला
तेजवा को घास डालती कभी! गांव जानता था कि सुखना बो के मुंह लगने की हिम्मत खाली तेजवा में थी, जो गुंडई मोहब्बत और गिड़गिड़ाने के सारे कौशल जानता था.

"बूढ़ा की आंखें, जिनमें मोतियाबिंद होने के बाद भी गजब की चालाकी थी, कई दिनों से सुखना बो के रंग-ढंग में कुछ अलग किस्म के लक्षण देखने लगी थीं. एक दिन बूढा ने उसको उल्टियां करते देखा तो बोली,

“तुम्हारे लच्छन हमें  ठीक नहीं लगते. कहां गई थी बोल... किस पोखरे का पानी पी आई तू?" सुखना बो अपने स्वभाव के विपरीत अपराधिनी-सी उसे देखती रही. बूढ़ा के पांव के नीचे की सारी जमीन ही मानो धसक गई. बूढा चिल्लाई, ‘खर-खानदान धरम-लाज सब ले जाकर सरयू जी में बोर दिया तूने.’ जितनी गालियां अबतक उसकी म्यान में थीं उन सबको बूढ़ा ने सुखना बो पर अस्त्र की तरह चलाया. अपनी नाक पूरी हिफाज़त से आंचल के नीचे ढापे-ढापे ही बूढ़ा ने उसके सातों जन्मों का हिसाब किया. सुखना बो पहले तो चुपचाप गालियां सुनती रही फिर दहाड़ कर बोली, ‘बच्चा मैं भी जन सकती हूं बूढा! ...अब मान गईं न.. अब मेरी छाती पर मूंग न दलना.’ उसके चेहरे पर विजयिनी मुस्कान आई और आंखों में काजल की तलवार बेहद धारदार हो गई. वह अब एक नई सुखना बो थी. गर्वोन्नत, गर्वीली!

"यह सब होने के बाद भी बूढा सुखना बो शरण देने के लिए तैयार थी, लेकिन तब सुखना का पौरुष अधिक बलशाली हो गया था. कुछ भी हो जाए वह जूठी औलाद नहीं संभालेगा!

"अपनी देह को सुलगाकर उसी से पूरी ज़िन्दगी को सेंकती और उठती भापों को पीती सुखना बो की आंखें अपनी कोख के जाये का मुंह देखने के लिए चकोर हो गई थीं. खुद पर कोई बस न रहा. बच्चे के लिए ही वह तेजवा से मिली थी इसका ज़रा भी अंदाजा तेजवा को नहीं था. उससे बच्चा गिरवाने का मशविरा सुन कर सुखना बो का हौसला टूटने लगा था. कैसे निकले वो इस मझधार से! कोई रास्ता नज़र नहीं आता था."

मनीषा बता रही थी, मैं सुन रही थी. उसने बताया कि सुखना बो की जिंदगी में सुखना और तेजवा के अलावा कभी एक और भी शख्स आया था जिसे वो बिसरा चुकी थी. लेकिन इस मुश्किल घड़ी में उसे उसकी याद आई. उसका नाम महीप था.

"बरसों पहले महीप के मनप्राण में उतर कर सुखना बो तिरछी हो गई थी.  कभी न निकलने के लिए. बरसों से वैसी की वैसी वो आज भी वहां थी.

संयोग ही  था कि जब वह ब्याहकर पहली बार टमटम से सुजानपुरा उतरी थी उसी सुबह महीप भी शहर से सुजानपुरा लौटा था. चटक लाल साड़ी की गठरी बनी सुखना बो सुखना के पीछे-पीछे अभिमंत्रित-सी चली आ रही थी. भोर की हवा  उसके घूंघट से छेड़खानियां कर रही थी. महीप अपनी गहरी निगाहों में जिज्ञासा भरे हुए घूंघट सहेजती सुखना बो की गोरी-गोरी और पतली उंगलियों को देखने में सब कुछ भूला हुआ था. ऐसी पतली-पतली उंगलियां उसने आज तक नहीं देखी थीं. तभी हवा ने सुखना बो का घूंघट हटा दिया था. महीप की पानीदार आंखों से एक जोड़ी बेचैन मछलियां जाने किस तरह टकराईं कि उसके कलेजे में उसी दिन उतर गईं और वह जन्म-जन्मान्तर के लिए उसी का होकर रह गया. तब से वह सड़क-सड़क शहर-शहर घूमा पर कोई और उसे भायी ही नहीं.

"महीप हर साल गांव आता, सुखना बो को एक निगाह देखता और बिना कुछ बोले फिर शहर वापस हो जाता था. गांव के मेले में सुखना बो अक्सर महीप को अपनी ओर देखते हुए देखती थी.

 "उस दिन सुखना बो जब नीम के पेड़ के नीचे निमौरियों की तरह ही गिरी पडी थी. घास काटकर निढाल हो गयी थी. गांव घर समाज उसके खिलाफ लाठी उठाए था...वह घर कैसे जाए! घर अब उसका ठिकाना  नहीं रहा गया था.
“महीप हर बार की तरह इस बार भी  सुखना बो को देखता निकल गया. मैं तुम्हारा ही हूं- हमेशा की तरह ऐसा ही कुछ था उसकी आंखों में. उस रोज सुखना बो पहली बार उसकी आंखों का ये पैगाम पढ़ पाई. रेगिस्तान में अचानक ढेर-सा पानी कि पीने के बाद भी बच जाए. निढाल और उदास सुखना बो को लगा कि महीप ने कुछ पूछे बिना भी उसका हालचाल पूछा है. उसका वहां से गुज़रना सुखना बो को पेड़ की छाया की तरह महसूस हुआ. विचित्र से आह्लाद से भर कर वह उठी और उसी घर की ओर चल दी जहां खाने के लिए थाली में गालियां थीं औरहर निवाले में ताने थे.

“उस रोज के बाद महीप उसे रोज़ सपनों में दिखाई देने लगा. वह चौंक कर जाग जाती. पूरी-पूरी रात जागती! उसे केवल महीप याद आता है. कुछ भी तो नहीं कहा उसने फिर यह कैसा ऐतबार!...

   “उस दिन खेत में घास काटते वक्त महीप उसको दूर से आता हुआ दिखा. उधर ही ताकने लगी. प्रतीक्षा जैसे उम्मीद में बदल रही हो. तभी देखा तो महीप ने उसको इशारे से अपने पास बुलाया. उसके पास जाकर खडी हो गई.  अंकुरितसमय कुछ पलों के लिए जहां का तहां ठहर गया. 

महीप ने गंभीर आवाज़ पूछा, ‘कहां जा रही हो?’कांपती आवाज़ में वह बोली, ‘कहीं नहीं, बस जरा बरसीम काटने...’शाम को यहीं मिलोगी मुझसे?’ और यह कहने के बाद बगैर जवाब का इंतज़ार किए जल्दी से चला गया महीप. मगर सुखना बो बारिश में भीगी हुई थरथराती हुई गौरय्या की तरह अपनी धड़कन को सहज करती अपने गर्भ के शिशु को सहेजने लगी और वहीँ मेंड़ पर बैठ गई. उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में आंसुओं की बाढ़ आ गईऔर मन का सारा बंजर उसमें डूब गया. उसने पीछे मुड़कर देखा तो जाते हुए महीप ने भी मुड़कर देखा.

“उसी शाम अरहर के खेत जहां ख़त्म होते थे उसी जगह महीप सुखना बो से मिला. फुसफुसाहटों ने चर्चा को इतना आम बना दिया था कि चहकती हुई चिड़िया हो या सियार की हुआ-हुआ हो, रात के निचाट में उल्लू का बोलना या चांद की रोशनी में हवा का बहना...सब एक ही बात कहते थे कि सुखना बो के पेट में तेजवा का बच्चा है. यह बात महीप को भी मालूम थी. महीप ने सुखना बो को बिना छुए हुए कहा, ‘कल सुबह चार बजे एकदम भोर में मेरी ट्रेन है. मेरे साथ  चलना है तो पूरब वाली बंसवारी चली आना, मैं वहीँ मिलूंगा.’

सुखना बो निःशब्द उसको देखती रही. उसने महीप से अपने आंसुओं को छुपाना चाहा लेकिन छिपा नहीं सकी. उसकी आंखें डबडबा कर छलक गईं. महीप ने सीधे उसकी ओर देखते हुए कहा, ‘किसने तुम्हें छुआ और किसने नहीं. मुझे यह सब नहीं मालूम. तुम तो आज भी मेरे लिए अक्षत यौवना और कुंआरी हो जैसी तुम तब थीं जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा था.’

"सुखना बो भरी हुई आंखों से रात भर सोचती रही. इतने कांटे थे इस गांव में कि  कोई भी राह बिना धूप के नहीं थी. इतने बरस हो गए महीप भी तो यहीं था... फिर मैंने आखिर महीप के प्यार की इस  घनी छांव को पहले कभी क्यों नहीं देखा. वह रातभर सिर्फ छलक-छलक कर रोती रही. एक पल के लिए भी नहीं सो सकी.

“पूरा गांव जब चैन की नींद सोकर सुबह जागने के लिए आंखें मिचमिचा रहा था... चमकता सुकवा उगे उससे भी पहले सुखना बो पूरब वाली बंसवारी पहुंच गई. महीप उसको वहां से ले गया....अब वह महीप के साथ बहुत सुख-चैन से रहती है."

मनीषा जब बता चुकी तो मैंने पाया कि उसके चेहरे पर संतोष की एक आभा थी.

मुझे लगा, यकीनन सुखना बो जहां भी होगी सुख से होगी. हम दोनों के चेहरों पर एक इच्छित खुशी थी.

बरसों बाद मामी की बरसी पर मैं और मनीषा मिले थे. गलियारा सूना पड़ा था. गलियारे के लोहे की छड़ वाले जंगले तक जाकर हमारी निगाहें आपस में टकराई थीं. मैंने सोचा, मनीषा को अपनी ही सुनाई कहानी पता नहीं याद होगी भी या नहीं. इस बार मिलने पर मनीषा ने मुझसे सुखना बो के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा. मैं उससे पूछना चाहती थी कि सुखना बो की जो कहानी उसने मुझे बताई क्या उसे गांव के दूसरे लोग भी जानते हैं. पर मैंने पाया कि खुद मेरे मन में एक डर था कि कहीं यह झूठी कहानी न हो. मुझे यकीन है कि सुखना बो ने सचमुच गांव छोड़ने के लिए और अपने आने वाले बच्चे के लिए उसी तरह महीप के कन्धों का सहारा लिया होगा जिस तरह गर्भ के लिए तेजवा का. लेकिन एक सवाल फिर भी परेशान करता है कि जिस सुखना बो की खुद्दारी इस गांव में न अंट सकी तो क्या महीप उसे सहेज पाया होगा. सोचती हूं वह कभी मिले तो उससे जरूर यह पूछूंगी.

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आलेख
खेत और अन्न नहीं तो हम कहाँ !

अपना देश तो गांवों का देश है . लेकिन अब शहर उनमें अनाधिकार बल्कि  जबरन चले आये हैं .   गाँव ख़त्म होने लगे हैं .अब वहाँ सरसों   और होली के  खिलखिलाते  रंग  बदरंग होकर  खो  गए हैं. खेत कम हो गए  हैं और कंक्रीट जियादा है  . पतली   पगडंडियों  और  मेड़ों  के  सोंधेपन  को  चार  पहिया वाहनों  ने    अधिकृत  कर  लिया है ताकि  शहर आसानी  से   घुसपैठ   कर सकें  .बैल  गाड़ियों  और  इक्कावालों  का  तो अब दूर  दूर  तक  पता  भी  नहीं चलता है .

 खेतों से ही तो गाँव थे  उन्हीं से पशु थे . परस्पर साझे की एक संस्कृति थी. अब बाज़ार के नाम पर बड़े बड़े जगमगाते हुए मॉल  हैं जिनमे पैकेट बंद आटा  मिलता है. वहाँ चावल अलग अलग स्वाद और कीमत के भरे पड़े हैं पर ताज़ा धान से निकले चावल का गीला गीला मीठा भात खाने के लाले पड़े हैं .बच्चे गेहूं और धान अब जानते ही नहीं. इतना ही नहीं  अब तो वे कच्ची धरती की नरमी भी नहीं जानते .यह सब कुछ जो अब नहीं बचा या जो मिटने की कगार पर  है   मनुष्य  की अमिट इच्छाओं और अतृप्त कामनाओं  के नाम हो गया है.

अब वह सोंधा सोंधा गाँव  तो रहा नहीं मगर उसकी याद उसी सोंधेपन के साथ मन के सघन वन  में मय अपनी  सुगंध  के   उपस्थित है. गावं की याद आती है तो सबसे पहले गुड में बने गुलगुले याद आते हैं . महुवे में  सान कर बनाया गया पुआ और उसकी सबसे अलग तीखी ध्यान खींचती  महक याद आती  है.  महुए का टप टप वह  टपकना जैसे बारिश के बाद  किसी अटकी हुई बूँद का यदा कदा हौले से  टपक जाना याद आता है . ताज़ा गन्ने का रस, जो  कोल्हू के   दो बैलों के खींचने से   पेरकर निकाला  जाता था,  उसमे दही मिलाकर पीने का अजब स्वाद याद है .वही गाँव है पर अब  गाँव में कोल्हू नहीं दिखाई देता . गन्ने की खोय्यिया से आग जलाकर  बड़े से छिछले  थालनुमा  कडाहे  में पकता हुआ  गुड  अब कहाँ  मिलेगा. गुड का रंग गहरे भूरे या कत्थयी से बदलकर अब  नारंगी हो गया है. उसमें से आती गन्ने के बेहद नजदीक वाली  महक जिससे गुड सराबोर रहता था  वह अब ढूंढें   नहीं मिलती कहीं. 

हमारे घर के दरवाज़े पर तो महुए का एक भरा पूरा पेड़ ही था . मेरा पहला प्यार था वह . अबतक याद है . पहला प्यार नहीं भूलता न ! उसकी लम्बी लम्बी हरियाई और धूप में  सवलायी हुई  डालों को  मैं अक्सर  सांझ होने पर अपनी छत के एक  कोने  से  निहारा करती थी .तन्हाई का साथी वह  सहेली की  तरह लगता था . हवा के सहलाने पर उसकी पत्तियों की  आपसी सरसराहट  से बजती सरगम  जैसे सखी कान में कोई रस भरी  मीठी बात बोल गयी हो .किशोर  वय की भ्रमित और  ऊहापोह  भरी  उन  शामों को महुए के उस पेड़ ने सुखद आश्रय दिया . मैं उसकी शुक्रगुजार हूँ.

यूं  तो  गाँव शाम होते ही  अंधेरों की खोहों में छुप जाते हैं.  वे  दुनिया में दीन की तरह होते हैं . निरीह निर्धन हर सुविधा से वंचित एकांत और निरक्षर . यह सच भी है कि  जगमगाते शहरों के आस पास के गांवों तक भी  आज तक बिजली नहीं पहुंची है. रात उतरने के बाद गावं के गाँव   पुआल की ढेरी  में तब्दील हो जाते हैं .टिमटिमाती ढिबरी भी कितनी देर जले . लोग जल्दी ही सो जाते हैं.
                     
मऊनाथ भंजन से गोरखपुर को जाते राष्ट्रीय राजमार्ग  पर बसा  अपना गाँव मुझे बेहद  याद आता है . वर्षों  पहले से ही हमारा  गाँव विकास की राह पर था.हमारे गाँव में आज से पचास साल पहले बिजली आ गयी थी. यह अलग बात है कि तब इक्का दुक्का घरों में ही थी जैसा कि आमतौर पर  होता है. गाँव के  समर्थ लोगों के घर सबसे पहले बिजली आई थी  बाकी घरों में आपसी  सौहार्द के चलते वक़्त ज़रुरत बिजली  तार से  खींच कर  पहुंचाई जाती थी . तब किरासिन तेल  हर छोटी बड़ी दुकान पर उपलब्ध था .बल्ब हर जगह नहीं मिलता था . तब जिनके घरों में शादी ब्याह का आयोजन होता था  लोग तिलक और द्वारपूजा के  अवसर पर दो सौ वाट  का बल्ब अपने दरवाजे पर सजा लेते थे . उसी चकमच रोशनी में दूल्हे  को डोली से उतारा जाता था . तब गाँव में चार पहिये की मोटर का आना बहुत बड़ी बात थी. नए नए बल्ब के  दिप दिप उजाले में परछन और द्वारपूजा के बाद ब्याह बैठता था. कोरे हरे पतले पतले नौ  बांसो और आम के पल्लवों से सजा हुआ मंडप ज़िंदगी के तीर्थ सा लगता था. मंडप के बीच हरीस लगाई जाती थी (हल में लगी  हुई   लकड़ी )मंडप की सजावट के लिए आज की तरह  न कोई फूल ना ही कोई अन्य आडम्बर होता था.  भाई  मामा और परिवार की आजी काकी चाची पिता चाचा  और बाबा के आशीर्वाद में गुंथा हुआ मंडप हल्दी अक्षत रोली और महावर में रच बस जाता था.धान को मिटटी के चूल्हे  पर मिटटी की  बड़ी सी हांडी में आग पर भूनकर उसका लावा निकाला जाता था और विवाह के समय पर भाई उससे बहन का आँचल  भर  देता था . ये दृश्य बड़े कारुणिक और बेहद भावपूर्ण  होते थे . अब भी यह रस्म निभायी तो जाती है मगर अब रिश्तों की संवेदनाओं  से भरी ऊष्मा नहीं मिलती क्योंकि घर की ज्यादा स्त्रियाँ ब्यूटी पार्लर्स में तैयार होती रहतीं हैं और जो मौजूद  होती हैं उन्हें अपने मेकअप  की चिंता मारे डालती है. चूल्हे के पास कौन जाए.

 तब  गाँव भर की औरतें एक जुट होकर मंगलाचरण, ब्याह के गीत और गाली गातीं थीं  .औरतें यह सोच कर भी एक दूसरे के घर जाकर ज़रूर गातीं थी कि कल के दिन उनके घर के  कार-परोज में भी औरतें गाने आये.लड़कियां कभी कभी पड़ोस की काकी चाची का मुंह भी ताकती रहतीं थी और न गानेवाली चाची काकी  की चुगली उस घर की मालकिन तक पहुंचा आतीं थीं .लड़कियों की शादी में लोग खाना नहीं खाते थे. जिस गाँव में गाँव की बेटी ब्याही होती  थी लोग उस गाँव के कुएं का पानी   नहीं पीते थे . गाँव की बेटी का ब्याह का मतलब पूरे गाँव की इज्ज़त  होती थी .उस मौके पर  हर जाति का  महत्त्व था.गाँव में जाति की व्यवस्था बहुत सुदृढ़ थी .  बढई  कुम्हार नाई चमार कहार गोड़ डोम  ब्राह्मण चूड़ीहारिन  सभी  बेहद महत्वपूर्ण थे .दौरी खांची लेकर डोम आते थे तब उनका भी परछन करके उनको नेग स्वरुप कपडे और  रुपये पैसे दिए जाते थे.  चमार का महत्व ब्रह्मण से कम  नहीं था .चमार ब्याह में नगाड़े और तुरही बजाने का काम करते थे और नेग लेते थे    बढई मंडप में बैठने के लिए दूल्हा दुल्हन के लिए ब्याह का पीढा  बनाता था.उसको केवल इतना बताया जाता था कि अमुक तिथि को ब्याह है .उसके बाद पीढ़ा पहुंचाने की  जिम्मेदारी उस की ही  होती थी . बढई जब पीढ़ा लेकर आता था उस समय भी गीत गाकर स्वागत होता था और बढई को नेग स्वरुप कुछ दिया जाता था न कि पीढ़े के मूल्यस्वरुप . कुम्हार ब्याह की तिथि के पहले ही कलश और दिए पहुंचा देता था . नाई सारे शुभ कार्यों को करने के  अतिरिक्त गाँव भर को विवाह का न्योता देता था. तब कार्ड का रिवाज नहीं था. उस  की जगह हल्दी की गाँठ भेजी जाती थी . जो बहुत नजदीकी होते थे वे नाई के बुलावे पर रूठते भी थे और घर के मुखिया के न्योतने पर ही मानते थे .इतनी सुनिश्चित भागी दारी होने के बावजूद जाति व्यवस्था की विकृति  के रूप में  ऊच नीच का बहुत बड़ा भेद था.
                               
 किशोरियां जिनका बचपन कछारों में छूट गया होता था,  जो लाजवंती नायिका में परिवर्तित हो चुकी होतीं थी  और दूसरी ओर  किशोर से युवा होते लडके  शादी ब्याह के मौके पर इकट्ठा होते थे.  नज़रें चार हुआ करतीं थी और तब  महाप्रेम का खेल शुरू होता था  जो दबा छुपा कली की महक सा भीतर ही भीतर रह जाया करता था . चाचा दादा और मुस्टंड कमाऊ  भाईयों के साए में प्रेम दर्दीली टीस बनकर सदा के लिए आँखों में रह जाया करता  था .कुछ सालों बाद लड़की की शादी तय होती थी .वह अपनी ससुराल जाती थी और लड़का बारातियों को पानी पिलाने उनकी खातिरदारी करने आदि  कार्य करके  अपने पवित्र प्रेम  का क़र्ज़ उतारने में लग जाता था.विदाई के समय लड़की का मर्मान्तक रुदन कलेजा हिला देता था उसके रुदन में  दिल के भीतर बैठे चोर प्रेमी से सदा के लिए बिछुड़ने के आंसू कुछ और खारे होकर बहा  करते थे  .गाँव का प्रेमी  कभी कभार लड़की के ससुराल से आने पर यूं ही एकाध मुस्कानों के आदान प्रदान के अलावा बाक़ी कोई और साक्ष्य कहीं नहीं छोड़ता था. अब तो मोबाइल हैं जितनी कालें हैं उतने ही प्रेम हैं और उतने ही प्रेमी भी हैं  .प्रेम  सही मायने में नित नूतन तो अब हो गया है .अब प्रेम बेहद विकसित तरीके से टेक्नीकल है सोच समझ कर किया जाता है. निभा तो निभा नहीं तो नंबर चेंज हो जाता है.
                                           
पहले शादी  ब्याह में गाँव की लड़कियाँ और स्त्रियाँ  मिलकर पूरी बरात के लिए पूरियां बेलने का काम करती थीं . सबके घर से चकला बेलन आता था और रस्म और जिम्मेदारी के  साथ पूरी बेलने का काम   संपन्न किया जाता था. क्योंकि सबको एक दूसरे की ज़रुरत थी .कल उनके घर भी किसी दिन ब्याह पड़ना ही था. गोड़, कहारों का काम बरात भर का आटा  गूंथना और तरकारी काटना होता था . तिलक चढ़ जाने के बाद रात में खाना पीना निपटाकर गाँव की औरतें   ब्याह  वाले  घर में आकर गीत गाती थी.बेटे की बरात में गाँव भर के पुरुष जब बारात चले जाते थे तब औरते  रात भर जाग कर जलुआ नामका नाटक खेलती थीं जिसमें कोई वैद्य बनती थी कोई बीमार और किसी को प्रसव होता था .पुरुषों के चले जाने पर रात भर जागकर घर की रखवाली करने के अलावा  यह मनोरंहन का साधन भी  था जिसमें स्त्रियाँ एक दूसरे से  कामुक मज़ाक और छेड़ छाड़ किया करतीं थीं .इसे  सेक्स पर खुली बातचीत  कहना जियादा उपयुक्त होगा . तमाम कुंठाएं  इस रूप में द्रवित होतीं थी  गांठें खुलती थीं और स्त्रियाँ एक दूसरे की बेहद ख़ास और अपनी हो जातीं थीं .इन मौकों पर किशोरियों को भी आवश्यक जानकारियाँ हासिल हो जाती  थीं जो उनके विवाह के बाद उनके जीवन के लिए सहायक साबित होतीं थीं जिसे आजकल सेक्स एजुकेशन कहा जाता है और कोर्स में शामिल करने की जद्दो जहद हो रही है.
           
गावों  में औरतों पर  बहुत शिकंजे   थे फिर भी गाँव की बहू बेटी पर कोई हाथ नहीं डाल सकता था . अब औरतें बहुत  आज़ाद हैं पर उतनी ही असुरक्षित  हैं .पहले    गावों  में  शौच की  व्यवस्था का रिवाज ही नहीं था उसके लिए खेत हुआ करते थे. आज भी कई पिछड़े गाँव इस संकट को सहते हुए असामान्य ढंग से जी रहे हैं .यह समस्या विषम रूप से औरतों के जीवन को प्रभावित करती थी ,दिन ढलने के बाद या एक ब्रम्ह्मुहूर्त में   ही वे शौच के लिए जा पातीं थीं.  नतीजा यह होता था कि वे बहुत सी बीमारियों का शिकार होती थीं . औरतें जब  शाम ढले हाथ में टोर्च लेकर शौच के लिए निकलती थीं तभी उनकी मुलाक़ात एक दूसरे से होती थी.  बहुओं को  परदे में रहना पड़ता था .गर्भ निरोधक आदि की कोई व्यवस्था तब गावों में नहीं थी.औरते अपनी जवानी भर लरकोरी बने रहने के लिए अभिशप्त थीं .कुछ स्त्रियाँ प्राकृतिक ढंग से दैहिक व्यवस्था के चलते बच्चे को अपने स्तनों का दूध पिलाने की समयावधि  भर गर्भवती होने से बची रहतीं थीं और पांच पांच साल की उम्र तक आकर भी बच्चे माँ की छातियों से लगे रहते थे. चार  चार बच्चों की माँ बनने के बाद भी  पति को उजाले में  पहचानना उनके लिए दूभर होता  था .  विवाहेतर सम्बन्ध भी खूब चलते थे . देवर से भाभी का बहुत अपनापे का रिश्ता होता था . औरतें अपने दुःख सास से या फिर देवर से कहतीं थीं .खासकर  देवर  चुलबुली  और  खूबसूरत  भाभियों  के  लिए  बिंदी  से  बाडी  तक  की व्यवस्था  चुपके  से  करते  थे  और  भाभियाँ  आँखों  में  स्नेह का समंदर  भरकर  उनकी  दाल  में  दो  की  जगह  चार  चम्मच  घी  का तड़का लगा देतीं थी  .(अब  तो  यह  प्यार  पचेगा  ही  नहीं.
                             
 फिर भी स्त्री पर बहुत संकट थे . प्रसव घर में ही हुआ करते थे . कुशल दाईयाँ तो पेट देख कर कितने महीने कितने दिन का गर्भ है  यह तक बता देतीं थी. गर्भवती के चलने के ढंग से भ्रूण का लिंग निर्धारण हो जाता था . अनिच्छित गर्भ के लिए चमायिने  होतीं थीं जो पेट मलकर गर्भपात करा देतीं थी. स्त्री का जीवन और मृत्यु बहुत पास-पास हुआ करते थे . बहुत सी स्त्रियों की मृत्यु प्रसव के दौरान हो जाती थी . दुनिया भर की औरतों के दुःख एक जैसे ही थे.  
         
छोटी से छोटी लड़ाई में भी गाँव दो गोल में अपने आप ही बाँट जाते थे .लड़ भिड कर सारा रोष निकाल लेते थे और बाद में किसी भी मौके पर बोझे में हाथ लगाकर दोस्ती कर लेते थे . शादी ब्याह के अवसर पर दुश्मनी कोई मायने नहीं रखती थी . लोग एक दूसरे के दुआर पर जाकर ज़रूर  खड़े होते थे .होलिका दहन के समय लोग एक साथ होते थे और एक महीना पहले से ही होली के गीत द्ववार द्वार पर होने लगते थे . होली के दिन सबके दरवाज़े पर जाकर थोड़ी थोड़ी देर तक ढोलक झांझ मजीरे बजाकर पुरुष होली के गीत गाते  थे.उस दिन कैसी भी दुश्मनी हो  बिसरा दी   जाती थी . कच्चे पक्के खाने के विशेष रिवाज़ की अहमियत आज भी गावों में बरकरार है . आज भी गावों में  कच्चा खाना हित- नात के अलावा जो घर के खासमखास  हैं    वही खाते हैं .कच्चा खाना पक्के रिश्ते की पहली तस्कीद हुआ करती थी .जिन घरों में आपसी आना  जाना बहुत था उन घरों को जाति देखे बिना कच्चे खाने में शामिल किया जाता था .अब शादी ब्याह में सारा खाना घालमेल में होता है और उसी तरह   रिश्तो की ऊष्मा भी होती है .

गाँव में आग माँगने का एक बहुत ही  ऊष्मापूर्ण  और प्रेम भरा रिवाज था .शाम को स्त्रियाँ  दूसरे के घर  आग माँगने जाती  थी  . यह शायद तब की परंपरा हो जब सभ्यता के  शुरुआती दौर में मनुष्य  ने आग जलाना सीखा था और वह आग बचाकर रखता था . गाँव में शाम होते ही औरतें हाथ में गोबर का गोईठा  लेकर पड़ोस के घर के चूल्हे से आग लेने जातीं थीं जिसका चूल्हा जलता होता था उसके चूल्हे में वह कंडी लगा दी जाती थी और सुलगने पर पड़ोसन को दे दी जाती  थी. इस तरह एक चूल्हे की आग से  लगभग हर घर का चूल्हा जल जाता था . अब तो  घर घर गैस के या गोबर गैस के चूल्हे हैं अब किसे किसकी ज़रूरत है .

कच्चे मकान बेहद ठंढे होते थे आज ए  सी में वह शीतलता खोजे नहीं मिलती है. कच्चे घर गर्मियों में बेहद ठंढे और जाड़ों में गर्म हुआ करते हैं .घर की कच्ची ज़मीन को   गोबर से लीपने का रिवाज था .गाय का गोबर एंटिसेप्टिक होता है .तब घर में कथा सुनी जाती थी जिस  में गाय का गोबर तुलसी के पत्ते गाय के दूध की दही और उसका ही दूध इस्तेमाल किया जाने का रिवाज था जो अब भी थोड़े परिष्कार के साथ मौजूद है . रुढियों से हटकर देखा जाए तो यह सब कुछ प्रकृति की रक्षा का प्रतीक है .तभी तो गोधन को सबसे बड़ा धन कहा जाता था. 

 तब मुसलमान और हिन्दुओं के बीच कोई खाई  नहीं थी जबकि हिन्दू घरों में उनके खाने पीने के बर्तन अलग हुआ करते थे.तब रिश्तों का राजनीतिकरण इस तरह से नहीं हुआ था . लोग घर जलाकर हाथ सेंकने का काम नहीं करते थे बल्कि एक घर पर संकट आये तो पूरा गाँव गोलबंद होकर दुश्मन पर टूट पड़ता था.

आज से बीस साल पहले जो गाँव था अब तो वह ढूंढें भी नहीं मिलने वाला है .गाँव जो राजमार्गों पर थे वे अब कस्बों में तब्दील हो गए हैं . कच्चे  घरों की जगह अब ईंट और सीमेंट की छतों वाले घर हैं . बिजली हो या न हो कूलर और पंखे अमूमन हर घर में ज़रूर टंगे मिलते हैं. शहर की ओर भागनेवाले नवयुवकों को अब गाँव रास नहीं आता है . उनके लिए रोजगार के जितने अवसर शहरों में मौजूद हैं उतने अवसर गावों में नहीं हैं . फिर गाँव में गलिओं  की धूप और धूल  फांकने में अब उन्हें वह सुकून नहीं मिलता है जो उनके बाप दादों को अपनी विरासतमें मिली किसानी  संभालने में मिलता था . भूमि का मालिक होने की चाहत को दरकिनार करके नयी पीढी सुविधाओं की गुलाम होना जियादा पसंद करने लगी है और  जिन्दगी को योजनाबद्ध तरीके से बांधकर अपने स्वप्नों को पूरा करने की जद्दो जहद में सारे सुख चैन.कुर्बान करने लगी है. खेती जो हमारे गावों कि पहचान है आज भी हमारे देश क़ी सत्तर प्रतिशत आबादी के  गावों में होने के बावजूद हंमारी सरकारों ने किसानों के जीवन का ख़याल नहीं किया है. खेती मुश्किल व्यवसाय ही साबित हुआ है. जिनके पास छोटे भूमिखंड हैं वे तो  बमुश्किल जीवन यापन कर पाते हैं . बड़ी संख्या में किसानों की आत्महत्या के मामले जितने इधर के वर्षों में बढे उतने तो कभी नहीं थे . इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हमारे देश का किसान हर हाल में बेहाल ही रहा है.धूप जाड़ा गरमी के प्रति बेपरवाह किसान खेतों में रात दिन अपना श्रम पसीने की मानिंद बहा देता है पर उसके श्रम की कोई कीमत नहीं आकी जाती है.मेहनत के बाद भी वह मौसम के रहम-ओ-करम पर जीता है . मुख्यतया महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में  किसानों ने  बड़ी संख्या में आत्महत्या की। इन राज्यों में ज्यादातर इलाकों में किसानी वर्षाजल से होने वाली सिंचाई पर निर्भर है। इन राज्यों(खासकर महाराष्ट्र) के आत्महत्या करने वाले किसान नकदी फसल  मसलन,  कपास (खासकर महाराष्ट्र), सूरजमुखी, मूंगफली और गन्ना (खासकर कर्नाटक) उगा रहे थे।

उत्पादन की बढ़ी हुई लागत के कारण किसानों को निजी हाथों से भारी मात्रा में कर्ज लेना पड़ा।मौसम की उपेक्षा के बाद हुई फसल की हानि और ऊपर से सरकार से लिया हुआ क़र्ज़ दोनों ने मिलकर किसान के हाथों से उसका जीवन ही ले लिया . सरकार का आवश्यक हस्तक्षेप  आता तो है पर किसान  सर्वाहुति के बाद आता है. बहुत सी विसंगतियों के बीच संघर्ष करता हुआ किसान थक रहा है . कारपोरेट सेक्टर का अधिग्रहण खेती पर ग्रहण    सा बढ़ता जा रहा है जिसका खामियाजा आने वाली पीढ़ियों को उठाना ही पड़ेगा. खेत के खेत बिकते जा रहे हैं किसान खेती बन्द करके अपनी ज़मीने कारपोरेट सेक्टरको देने के लिए विवश हैं  .नतीजा यह है कि जहाँ अन्न उगता था वहाँ  हवा में बात करती बहुमंजिला इमारतें खडी हैं .हम ज़मीन को निचोड़ कर खुद जल से ज़मीन से आबो हवा से और इस हरी भरी पृथ्वी से महरूम होते जा  रहे हैं .देव और राक्षस का युद्ध जारी है पर राक्षस हार रहे हैं और  चारों ओर सफ़ेद पोश देवों की जयजयकार है .सबकुछ बेहद पीडादायक है .ऐसे में भस्मासुर की कथा याद आती है .उत्सव मनाते हुए आत्मकेंद्रित और  आत्म मोहित हम अपने ही सिर पर हाथ रखकर नष्ट होने की कगार पर आ खड़े हुए  हैं .

सरकारी नीतियाँ गावं तक नहीं पहुंचती .सरकारी स्कूल  भी  बहुत खुले हैं पर शिक्षा के नाम पर वहाँ भी राजनीति है. दबंग घर बैठे बिना पढाये  तनख्वाह लेते हैं और स्कूल नहीं जाते.कुल मिलाकर स्थिति     बिगड़ी हुई ही दिखायी  देती हैं .आंकड़ें कुछ भी कहें आरक्षण के बाद भी जातिगत ऊंच नीच बरकरार है .जिनके पास रोटी नहीं वे शिक्षा का जुगाड़ कहाँ से करें बस दलित और सवर्ण की  परिभाषाएं बदल गयीं हैं.राजनीति ने वोटों की बंदरबांट में हिन्दू मुसलमान को अलग अलग तराजुओं पर खूब चढ़ाया और उतारा है .राजनीति का हल्कापन गांवों में भी सिर चढ़ कर बोलता है अब. बड़ा से बड़ा राजनेता गाँव के छोटे छोटे चुनाव में अपनी पार्टी का दखल रखता है अब .रसूख वाली वे बातें अब गावों में नहीं रहीं .अब वहाँ भी सिर्फ पैसा बोलता है. 

हाँ इधर के वर्षों में मीडिया की सक्रियता काफी बढ़ गयी है .जिसका लाभ गावों को और विशेषकर महिलाओं को मिला है. उनकी शिक्षा और सामाजिक हिस्सेदारी बढी है .ऐसे क़ानून बने हैं की वे भी आवाज़ उठाने के काबिल हो गयीं हैं .घरों के अन्दर होने वाले बलात्कारों से अबकमोबेश राहत हो गयी है .  पर्दा से भी निजात मिली है उन्हें .अकेले आने जाने और रहने की छूट  मिलने से  उनके  हौसले  बढे हैं .विवाह के आगे अब नौकरी करना और घर चलाने में हिस्सेदारी रखती हैं स्त्रियाँ .अब गावों में भी अंतरजातीय विवाह होंने लगे हैं .पढी लिखी  नयी पीढी अब ब्रह्मण और ठाकुर होने को उतनी तवज्जो देती नज़र नहीं आती.

अब भी गाँव जाने पर पुराने रिश्तों में वही आंच बाक़ी मिलती  है .आज भी गावं की चाचियाँ भाभियाँ मायके न पहुँच पाने पर"दो दिन की भी  फुर्सत नहीं मिलती'"?सरीखे मीठे  उलाहने और ताने देतीं हैं और हम हैं कि   हमें फुर्सत ही नहीं होती .इन्ह्नी रिश्तों की गर्मायियों में थोड़ा  गाँव मिल जाता है बाक़ी तो अब सब कुछ  कंक्रीट ही बचा है . हम भी अब इस पृथ्वी पर अधिक दिनों के मेहमान नहीं हैं . खेत और अन्न नहीं तो हम कहाँ ! 
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प्रज्ञा पाण्डेय
जन्म -३० जून १९६२ 
स्थान - लखनऊ 
कुछ कहानियां प्रकाशित , पहली कहानी' हंस मुबारक पहला क़दम' में आई। 
कवितायें  समीक्षाएं एवं लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय समय पर  प्रकाशित।
 सम्प्रति- स्वतंत्र व्यवसाय  
हिंदी की साहित्यिक पत्रिका 'निकट 'में कार्यकारी संपादक।