
हम और हमारा समय
मैं क्यों लिखता हूं
तेजेन्द्र शर्मा
बहुत घिसा पिटा सा लगता है यह कहना कि लेखन मुझे विरासत में मिला है. लेकिन यह सच भी है कि मेरे पिता श्री नंद गोपाल मोहला नागमणी उर्दू में लिखा करते थे. उन्होंने उपन्यास, अफ़साने, ग़ज़लें, नज़में, गीत सभी विधाओं में लिखा. वे पंजाबी भी उर्दू लिपि में ही लिखा करते थे. अफ़सोस मैं उर्दू लिपि नहीं पढ सकता. लेकिन लिपि चाहे कोई भी हो रचनाशीलता का मूल तत्व तो एक ही होता है.
जब मैं युवा था तो अंग्रेज़ी में लिखता था. उन दिनों सोचता भी अंग्रेज़ी में ही था. बायरन और कीट्स पर लिखी मेरी किताबें ख़ासी लोकप्रिय भी हुई थीं. फिर इंदु जी के संसर्ग में आने पर हिन्दी में लिखने लगा. सोच अंग्रेज़ी की लेखन हिन्दी में - सीधा सीधा अनुवाद जैसा लगता था. इंदु जी ने मूलमंत्र दिया - अंग्रेज़ी के स्थान पर पंजाबी में सोचा करिये और हिन्दी में लिखा करिये, आहिस्ता आहिस्ता हिन्दी में सोचने लगेंगे. और वही हुआ भी - आज मैं सपने भी हिन्दी में ही देखता हूं. अंग्रेज़ी और पंजाबी कहीं हाशिये पर चली गई हैं.
यह सवाल बहुत बार पूछा जाता है कि आप लिखते क्यों हैं. सभी से पूछा जाता है. महान् लेखकों से लेकर साधारण लेखक तक सबके अपने अपने कारण होते होंगे लिखने के. मेरे लिखने का कोई एक कारण तो नहीं ही है. दरअसल मेरे आसपास जो कुछ घटित होता है वह मुझे मानसिक रूप से उद्वेलित करता है. तब तमाम तरह के सवाल मेरे ज़हन में कुलबुलाने लगते हैं. उन सवालों से जूझते हुए सवाल जवाब का एक सिलसिला सा चल जाता है. तब मेरी लेखनी स्वयंमेव चलने लगती है. मेरे तमाम पात्र मेरे अपने परिवेश में से ही निकल कर सामने आ जाते हैं और फिर पन्नों पर मेरी लडाई लडते हैं. कहीं किसी प्रकार का भी अन्याय होते देखता हूं तो चुपचाप नहीं बैठ पाता. अन्याय के विरूध्द अपनी आवाज़ को दबा नहीं पाता. हारा हुआ इन्सान मुझे अधिक अपना लगता है. उसका दु:ख मेरा अपना दु:ख होता है. जीतने वाले के साथ आसानी से जश्न नहीं मना पाता जबकि हारे हुए की बेचारगी अपनी सी लगती है.
हमारी पीढ़ी ने जितने बदलाव इन्सानी जीवन में देखे हैं, वे अचंभित कर देने वाले हैं. मैं उस गांवनुमा रेल्वे स्टेशन पर भी रहा हूं जहां रात को लैम्प या मोमबत्ती जलानी पड़ती थी. हमारी मां ने वर्षों कोयले की अंगीठी और मिट्टी के तेल का स्टोव जला कर खाना बनाया है. हमारी पीढ़ी ने बिजली से चलने वाली रेलगाड़ी भी देखी है, जम्बो जेट विमान और कान्कॉर्ड भी, हमारी जीवन काल में मनुष्य चांद पर कदम भी रख आया. हमारे ही सामने दिल बदलने का आपरेशन हुआ और बिना शल्य चिकित्सा के आंखों का इलाज. हमारी ही पीढ़ी ने कैसेट, वीडियो कैसैट,सी.डी., डी.वी.डी., एम.पी.3 इत्यादि एक के बाद एक देखे. हमने अपने सामने भारी भरकम फ़ोटो-कॉपी मशीन से लेकर आज की रंगीन फ़ैक्स मशीनों तक का सफ़र तय किया. हमारी पीढ़ी मोबाईल फ़ोन एवं कम्पयूटर क्रांति की गवाह है. हमारी पीढ़ी क़े लेखक के पास लिखने के इतने विविध विषय हैं कि हमारे पुराने लेखकों की आत्मा हैरान और परेशान होती होगी. वे दोबारा इस सदी में आकर लिखना चाहेंगे.
हमारी पीढ़ी में लेखकों की एक नई जमात भी पैदा हुई है - प्रवासी लेखक. वैसे तो अभिमन्यु अनत बहुत अर्से से मॉरीशस में रह कर हिन्दी साहित्य की रचना कर रहे हैं. लेकिन एक पूरी जमात के तौर पर प्रवासी लेखक हाल ही में दिखाई देने लगे हैं. भारत के आलोचक समीक्षक कभी भी प्रवासी लेखन को गंभीरता से नहीं लेते थे. उसके कुछ कारण भी थे. अधिकतर प्रवासी लेखक नॉस्टेलजिया के शिकार थे. उनके विषय भारत को ले कर ही होते थे. मज़ेदार बात यह थी कि जिस भारत के बारे में वे लिखते थे, वो भारत उनके दिमाग़ क़ा भारत होता था, भारत जहां से वे विदेश प्रवास के लिये आये थे. उसके बाद भारत में जितने बदलाव आये उनसे वे बिल्कुल भी परिचित नहीं थे. इसलिये उनका लेखन किसी को छू नहीं पाता था. और उनके अपने आसपास का माहौल उन्हें नहीं छू पाता था. अभिमन्यु अनत के बाद न्युयॉर्क की सुषम बेदी पहली ऐसी लेखिका बनीं जिन्होंने अपने आसपास के माहौल को अपने लेखन का विषय बनाया. आज तो यू.के. में लेखकों की एक पूरी जमात है जो कि अपने आसपास के विषयों को अपनी कविताओं, कहानिया, लेखों और व्यंग्यों का विषय बना रही है.
इसीलिये मेरी कहानियों में ग़ज़लों में कविताओं में मेरे आसपास का माहौल,घटनाएं और विषय पूरी शिद्दत से मौजूद रहते हैं. मैं अपने आप को अपने आसपास से कभी भी अपने आप को अलग करने का प्रयास नहीं करता. इसीलिये मेरी कहानियों में एअरलाईन, विदेश, प्रवासी, रिश्तों में पैठती अमानवीयता और खोखलापन, अर्थ से संचालित होते रिश्ते, महानगर की समस्याएं सभी स्थान पाते हैं. कहानी काग़ज़ पर शुरू करने से पहले बहुत दिनों तक कहानी का थीम मुझे मथता रहता है.
मैं स्टाईल या स्ट्रक्चर को लेकर पहले से कुछ तय नहीं करता. विषय, चरित्र, घटनाक्रम सभी को अपने आप अपना रूप तय करने का मौका देता हूं. इस का अर्थ यह कदापि नहीं कि कथ्य और शिल्प के स्तर पर जो बदलाव कहानी लेखन में आ रहे हैं, मैं उनसे बचता फिर रहा हूं. मेरी कहानियों में आपको वो सभी तत्व भी मिलेंगे, लेकिन मेरे लिये यह सब एक अच्छी कहानी कहने के औज़ार हैं, कहानी से अधिक महत्वपूर्ण नहीं. कई बार मेरे चरित्र मुझ से बातें करते हैं और अपना स्वरूप, अपनी भाषा, स्वयं तय कर लेते हैं. मैं अपनी भाषा कभी अपने चरित्रों पर नहीं थोपता. यदि आवश्यक्ता होती है तो वे पंजाबी, मराठी, गुजराती या अंग्रेज़ी का उपयोग अपनी पृष्ठभूमि के अनुसार ख़ुद ही तय कर लेते हैं. मेरी अपनी कोशिश रहती है कि मैं भी चरित्रों की भाषा को अपने पर न हावी होने दूं. अपनी भाषा को उनसे बचाए रखने का प्रयास करता हूं.
कभी कभी किसी का कहा गया एक वाक्य ही कहानी बन जाता है. कभी कोई घटना नहीं होती है लेकिन कहानी होती है. आज की कहानी में से घटना आहिस्ता आहिस्ता गायब होती जा रही है . लेकिन फिर भी मेरा एक प्रयास रहता है कि कहानी में कहानीपन हमेशा बना रहे. केवल शब्दों की जुगाली या शब्दों के साथ अय्याशी मुझे एक लेखक के तौर पर मंज़ूर नहीं है. वहीं मेरा प्रयास घटना सुनाना कभी भी नहीं रहता. मेरे लिये घटना के पीछे की मारक स्थितियां कहीं अधिक महत्वपूर्ण रहती हैं. एक लेखक के तौर पर मुझे कहानी दिखाने में अधिक आनंद मिलता है. मुझे लगता है कि कहानी सुनाना पुरानी कला बन गया है. मैं दिमागी तौर पर अपने चरित्रों की सभी भावनाओं को जी लेना चाहता हूं, जीता हूं, तभी उन्हें काग़ज़ पर उतारता हूं.
वहीं कविता या ग़ज़ल के लिये तरीका अलग ही है. उसके लिये मैं कुछ नहीं करता. सब अपने आप होने लगता है. कविता या ग़ज़ल एक सहज प्रक्रिया है जिसमें प्रसव काल छोटा होता है लेकिन प्रसव पीड़ा सघन. जबकि कहानी के लिये लम्बे समय तक एकाग्रता बनाए रखनी पड़ती है.
मुझे और लेखकों का तो मालूम नहीं किन्तु जब कभी मेरी कलम से कोई अच्छी कहानी, ग़ज़ल या कविता निकल जाती है, तो मुझे ख़ुद मालूम हो जाता है। मैं यह बात कभी नहीं कह पाऊंगा कि मुझे अपनी सभी कहानियां एक जैसी प्रिय हैं।
क़ब्र का मुनाफ़ा, काला सागर, ढिबरी टाईट, एक ही रंग, तरक़ीब, कैंसर, अपराध बोध का प्रेत जैसी कहानियां लिख कर जो सुख मिला शायद वो कुछ अन्य कहानियां लिख कर नहीं मिला। इसलिये यह कहना कि मेरी कहानियां मेरी औलाद की तरह हैं और इन्सान को अपने सभी बच्चों से एकसा प्यार होता है – यह मेरे लिये एक क्लीशे से बढ़ कर कुछ भी नहीं है। हां यह सच है कि लेखक अपनी हर रचना के साथ एक सी मेहनत करता है, लेकिन नतीजा हर बार अलग ही निकलता है। यह किसी भी सृजनात्मक कला के लिये कहा जा सकता है, चाहे संगीत, पेन्टिंग, फ़िल्म बनाना या फिर लेखन। वैसे तो बहुत सी कहानियों के साथ बहुत सी यादें जुड़ी हैं, लेकिन मैं अपनी कहानी देह की कीमत के बारे में विस्तार से चर्चा करना चाहूंगा।
देह की कीमत अपनी कुछ अन्य कहानियों के साथ मेरी प्रिय कहानियों में से एक है। इस कहानी की एक विशेषता है कि मैं इस कहानी के किसी भी चरित्र के साथ परिचित नहीं हूं। लेकिन मैं तीन महीने तक एक एक किरदार के साथ रहा और उनसे बातें कीं और उनकी भाषा और मुहावरे तक से दोस्ती कर ली।
एम.ए. में मेरे एक दोस्त पढ़ा करते थे – नवराज सिंह। वह उन दिनों टोकियो में भारतीय उच्चायोग में काम कर रहे थे। टोकियो से दिल्ली फ़्लाईट पर आते हुए उनकी मुलाक़ात मुझ से हुई। उन दिनो मैं एअर इंडिया में फ़्लाइट परसर के पद पर काम कर रहा था। बातचीत के दौरान उन्होंने मुझे तीन लाईन की एक घटना सुना दी, "यार की दस्सां, पिछले हफ़्ते इक अजीब जही गल्ल हो गई। ओह इक इंडियन मुण्डे दी डेथ हो गई। उसदा पैसा उसदे घर भेजणा सी। घर वालियां विच लडाई मच गई कि पैसे कौन लवेगा। बड़ी टेन्शन रही। इन्सान दा की हाल हो गया है।"
अपनी बात कह कर नवराज तो दिल्ली में उतर गया। लेकिन मेरे दिल में खलबली मचा गया। मैं उस परिवार के बारे में सोचता रहा जो अपने मृत पुत्र से अधिक उसके पैसों के बारे में चिन्तित है। उन लोगों के चेहरे मेरी आंखों के सामने बनते बिगड़ते रहे। मैने अपने आसपास के लोगों में कुछ चेहरे ढूंढने शुरू किये जो इन चरित्रों में फ़िट होते हों। उनका बोलने का ढंग, हाव-भाव, खान-पान तक समझता रहा। इस कहानी के लिये फ़रीदाबाद के सेक्टर अट्ठारह और सेक्टर पन्द्रह का चयन भी इसी प्रक्रिया में हुआ। मुझे बहुत अच्छा लगा जब सभी चरित्र मुझसे बातें करने लगे; मेरे मित्र बनते गये।
इस कहानी की विशेषता यह रही कि घटना का मैं चश्मदीद गवाह नहीं था। घटना मेरे मित्र की थी और कल्पनाशक्ति एवं उद्देश्य मेरा। यानि कि कहानी की सामग्री मौजूद थी। बस अब उसे काग़ज़ पर उतारना बाकी था। जब मेरी जुगाली पूरी हो गई तो कहानी भी उतर आई पन्नों पर।
एअर इण्डिया में कार्यरत होने के कारण मैं हरदीप जैसे बहुत से चरित्रों से उड़ान में मिला करता था। उनसे की गई बातचीत इस कहानी की बुनावट में बहुत काम आई। हरदीप का नाम भी मैनें अपने एक मित्र से उधार लिया जिसे विदेश जा कर बसने का बहुत शौक था, हालांकि वह अपने इस सपने को पूरा नहीं कर पाया। मैनें अपने चरित्र के बात करने का ढंग हरदीप के तौर तरीके पर गढ़ा। दारजी की शक्ल मुझे अपने ड्राइंगे के अध्यापक में दिखाई दी जो कि एक गुरसिख था और हमेशा कुर्ता-नुमा कमीज़, शलवार और जैकट पहनते थे। इसी तरह अन्य चरित्रों को भी अपने आसपास के लोगों के चेहरे दे दिये। जब कहानी का पहला ड्राफ़्ट पूरा हुआ तो मैंने उसे अपनी दिवंगत पत्नी इन्दु को पढ़ने के लिये दिया। उन्होंने कहानी पढ़ने के बाद कहा, "यह आपकी पहली कहानी है जिसे बेहतर बनाने के लिये मैं कुछ भी सुझा नहीं सकती। यह एक परफ़ेक्ट कहानी है।"
मेरा हौसला दोगुना हो गया। और कहानी को छपने के लिये वर्तमान साहित्य के विशेषांक के लिये भेज दिया। कहानी प्रकाशित हो गई किन्तु कहानी की कहीं चर्चा नहीं हुई। मेरे मित्र वरिष्ठ पत्रकार अजित राय का कहना है, "तेजेन्द्र जी आप अच्छी कहानियां ग़लत जगह छपने के लिये भेज देते हैं। यदि आपकी यह कहानी हंस में प्रकाशित हो जाती तो आप एक स्थापित कहानीकार कबके हो चुके होते।"
इस कहानी पर मुंबई की एक वरिष्ठ प्राध्यापिका ने टिप्पणी की कि यह कहानी उसे प्रेमचन्द की कफ़न की यादि दिलाती है। ख़ुश होने के बाद मैने सोचना शुरू किया कि आख़िर उन्होंने यह क्यों कहा। जहां घीसू और माधव गांव के ग़रीब अनपढ़ चरित्र हैं, वहीं हरदीप के परिवार के लोग खाते पीते घर के लोग हैं। फिर पैसे को लेकर व्यवहार एक सा क्यों? मुझे महसूस हुआ कि हमारे आसपास के समाज में रिश्ते केवल अर्थ से संचालित होते हैं। समाज का इस हद तक पतन हो चुका है कि रिश्तों की कोई अहमियत ही नहीं रह गई है।
किन्तु प्रेमचन्द की कफ़न कहीं एक पॉज़िटिव सन्देश भी देती है कि अभी सब कुछ खोया नहीं है। चाहे घीसू और माधव कितने भी पतित क्यों न हो चुका हो, उनके आसापास का समाज मुर्दे के लिये कफ़न के पैसे जुटा ही देगा। यहां देह की कीमत में भी हरदीप की मां और भाइयों जैसे चरित्रों के रहते भी अभी प्रकाश की रेखा बाकी है। सबकुछ चौपट नहीं हुआ है। दारजी अपनी बहू के साथ अन्याय नहीं होने देंगे। हमारा समाज आज भी पूरी तरह से पतित नहीं हुआ है। यानि कि यह कहानी भी एक पॉज़िटिव नोट पर ही समाप्त होती है।
मैनें इस कहानी का पाठ मुंबई, दिल्ली, शिमला, बरेली, यमुना नगर, और लंदन के भारतीय उच्चायोग में किया तो श्रोताओं की बहुत वाहवाही मिली। इस कहानी पर मुर्दाघर के लेखक प्रों. जगदम्बा प्रसाद दीक्षित की टिप्पणी मेरे लिये बहुत महत्वपूर्ण है, "शर्मा जी यह कहानी आपकी आजतक की सर्वश्रेष्ठ कहानी है।"
मेरी कहानियां वैसे तो उड़िया, मराठी, गुजराती, एवं अंग्रेज़ी में अनूदित हो चुकी हैं. लेकिन पंजाबी (गुरमुखी लिपि), नेपाली एवं उर्दू में तो मेरे पूरे पूरे कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं. यहां ब्रिटेन में कथा यू.के. के माध्यम से कथा-गोष्ठियों का आयोजन करता हूं और स्थानीय लेखकों के साथ कहानी विधा के विषय में बातचीत होती है। दो वर्षों तक पुरवाई पत्रिका का संपादन किया। ब्रिटेन के हिन्दी कहानीकारों का विशेषांक खासा चर्चित हुआ। लंदन में कहानी मंचन का अनुभव भी प्राप्त हुआ। लन्दन की एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स नामक संस्था ने मेरी 16 कहानियों की एक टॉकिंग बुक यानि कि ऑडियो सी.डी. भी बनवाई है। कहानी विधा को समर्पित हूं और कहानियां लिखते रहना चाहता हूं।
(मंच पर राजेन्द्र यादव के साथ कथाकार तेजेन्द्र शर्मा)

जन्म : 21 अक्टूबर 1952 को पंजाब के शहर जगरांवशिक्षा : दिल्ली विश्विद्यालय से बी.ए. (ऑनर्स) अंग्रेज़ी, एवं एम.ए. अंग्रेज़ी, कम्पयूटर कार्य में डिप्लोमा ।प्रकाशित कृतियाँ : काला सागर (1990) ढिबरी टाईट (1994), देह की कीमत (1999) यह क्या हो गया ! (2003), बेघर आंखें (2007) -सभी कहानी संग्रह। ये घर तुम्हारा है... (2007 - कविता एवं ग़ज़ल संग्रह) ढिबरी टाइट नाम से पंजाबी, इँटों का जंगल नाम से उर्दू तथा पासपोर्ट का रंगहरू नाम से नेपाली में भी उनकी अनूदित कहानियों के संग्रह प्रकाशित हुए हैं। अंग्रेज़ी में : 1. Black & White (biography of a banker – 2007), 2. Lord Byron - Don Juan (1976), 3. John Keats - The Two Hyperions (1977)कथा (यू.के.) के माध्यम से लंदन में निरंतर कथा गोष्ठियों, कार्यशालाओं एवं साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन । लंदन में कहानी मंचन की शुरूआत वापसी से की। लंदन एवं बेज़िंगस्टोक में, अहिंदीभाषी कलाकारों को लेकर एक हिंदी नाटक हनीमून का सफल निर्देशन एवं मंचन ।74-A, Palmerston RoadHarrow & WealdstoneMiddlesex UKTelephone: 020-8930-7778 / 020-8861-0923.E-mail: kahanikar@gmail.com , mailto:kathauk@hotmail.comWebsite: http://www.kathauk.connect.to/