हम और हमारा समय
दिल्ली गैंप रेप (१६ दिसम्बर,२०१२) के पश्चात सरकार
और समाज के लिए चुनौती प्रस्तुत करते हुए जिस प्रकार पूरे देश में ऎसी घटनाओं में वृद्धि
हुई है वह अत्यंत सोचनीय है. स्पष्टतया लड़कियां
कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं. भेड़िये शिकार की तलाश में घूमते रहते हैं और पकड़े जाने
पर गंभीर सजा की परवाह न करते हुए हैवानियत का क्रूर खेल खेलते रहते हैं. प्रश्न उठता
है कि ये आंकड़े अकस्मात बढ़े या दिल्ली गैंप रेप के पश्चात लड़कियों और उनके घर वालों
में जाग्रति आयी और पुलिस तक शिकायतें पहुंचने लगीं. यह खोज का विषय है. यदि निर्भया
कांड के पश्चात पहले की अपेक्षा ऎसी घटनाओं में वृद्धि हुई है तो समाज के लिए यह एक
खतरनाक संकेत है जो यह बताता है कि अपराधियों ने ऎण्टी रेप बिल में होने वाली सजा के
प्रावधानों की पहले से परवाह करना छोड़ दिया है, शायद इसका एक कारण यह है कि उन्हें
पता है कि कितने ही फास्ट ट्रैक कोर्ट बनें सजा से बचने के रास्ते वे खोज लेंगे. तीन
माह व्यतीत होने के बाद भी निर्भया मामले में अभी तक अपराधियों को सजा नहीं सुनाई गयी.
अपवाद स्वरूप ही कुछ फास्ट ट्रैक कोर्ट्स ने रिकार्ड समय में सजाएं सुनायीं. जब तक
अपराधियों के दिलों में खौप पैदा नहीं होगा तब तक ऎसे अपराधों पर अंकुश लगने की संभावना
क्षीण ही दिख रही है.
युद्ध और साम्प्रदायिक दंगों में सर्वाधिक दरिन्दगी
का शिकार महिलाएं ही होती हैं. वातायन के इस अंक में माधव नागदा की एक ऎसी ही मार्मिक
और यथार्थपरक कहानी प्रकाशित है. माधव नागदा हमारी पीढ़ी के समर्थ कथाकार हैं. हाल ही
में उनका कहानी संग्रह ’परिणति तथा अन्य कहानियां’ प्रकाशित हुआ है. उक्त कहानी उसी
संग्रह से उद्धृत है. नागदा ने संग्रह मुझे पढ़ने के लिए मुझे भेजा. कहानियों की भाषा,
कथानक और शिल्प ने मुझे यह सोचने के लिए विवश किया कि नागदा अपने समय के अनेक चर्चित
कथाकारों से कहीं आगे हैं. हिन्दी में रचनाकारों पर लेबल लगा दिए जाने की दुरभिसंधि
होती रहती है. प्रायः उल्लेखनीय रचनाकारों
की चर्चा सोची –समझी राजनीति के तहत नहीं की जाती. नागदा इसका शिकार नहीं रहे यह कहना
उचित नहीं होगा. हिन्दी के ईमानदार लेखकों (आलोचकों से नहीं कह रहा क्योंकि उनकी ईमानदारी
पर मुझे सदैव आशंका रही है) का दायित्व है कि वे अपने बीच के ऎसे समर्थ कथाकारों की
रचनाओं पर चर्चा करें—बहस करें जो ऎन-केन प्रकारेण चर्चित कथाकारों से कम उल्लेखनीय
नहीं हैं.
कहानी के अतिरिक्त माधव नागदा की लघुकथाएं और कविताएं
भी प्रकाशित हैं. रचनाओं पर आपकी बेबाक प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.
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कहानी
आत्मवत् सर्वभूतेषु
माधव नागदा
दूकान का साईनबोर्ड अपनी जगह से लटक गया
था। बोर्ड पर चार भाषाओं में ’सुलेमान एन्टरप्राइजेज’ लिखा था- हिन्दी, अंगे्रजी, गुजराती
और उर्दू में। इसका अर्थ था कि या तो इसका मालिक चार भाषाओं का जानकार है या फिर चार
भाषाओं के जानकार ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करना चाहता है। जो भी हो, अपने स्थान
से डिग कर काफी टेढ़ा हो गया साइनबोर्ड उस सद्यः विधवा की याद दिला रहा था जिसके सुहाग
का सिन्दूर समाज के बेरहम ठेकेदारों ने निर्दयता से पौंछ दिया हो।
इस लुटी-पिटी दूकान के भीतर संभवतः वैसी
ही लुटी-पिटी स्त्री ने शरण ले रखी थी। रात का समय था। शहर बन्द था, कर्फ्यू के डर
से। भीतर अन्धेरा था। बाहर सड़कें सुनसान उदास
रोशनी में नहायी हुई-सी। यह आष्चर्य की बात थी कि प्रकाश उगलते कई लेम्प-पोस्ट होने
के बावजूद शहर अन्धकार में डूबा हुआ लग रहा था।
इसी समय एक शख्स दीवार के सहारे-सहारे
चलता, दुबकता-बचता आहिस्ता-आहिस्ता बार बार गरदन इधर-उधर मोड़कर चैकस निगाहों से देखता
हुआ ’सुलेमान एन्टरप्राइजेज’ के ठीक सामने जरा-सा अंधेरा पाकर खड़ा हो गया। उसकी सांस
धौंकनी की तरह चल रही थी और उसका दिमाग फिरकनी की मानिन्द घूम रहा था।
दूर किसी खाकी मूर्ति ने व्हिसल बजायी।
वह शख्स एकदम से लेट गया। सौभाग्य से शटर
के ताले टूटे हुए थे। (हांलाकि दूकानदार के लिए यह दुर्भाग्य की बात थी।) उसने शटर
को थोड़ा ऊंचा किया और लुढ़क कर अन्दर दाखिल हो गया।
’कौन है ? कौन है ?’ स्त्री कुरलायी। वह
कांप उठा। यह नयी मुसीबत क्या है ?
’’छोड़ दो मुझे। मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती
हूं।’’
किसे कह रही है ? कौन किसे पकड़े हुए है
? इस शख्स ने जेब से माचिस निकाली और खर्र से तीली जला दी। बन्द दूकान की नीरवता मे
तीली की रगड़ भी ऐसे लगी जैसे किसी ने म्यान में से तलवार खींची हो। यद्यपि उसका पीछा
कर रही भीड़ के पास तलवारें तो थीं मगर म्यानें नही।
उस दस बाई नौ की अस्त-व्यस्त दूकान में उसके अलावा सिर्फ एक स्त्री थी। लगभग सत्ताईस-अठाईस
वर्षीय। दुकान से भी ज्यादा अस्त-व्यस्त। उसके चेहरे पर डर शहर में कर्फ्यू की तरह
मानो स्थायी रूप से चस्पा हो गया था। चुन्नी गायब। कमीज के बटन उखड़े हुए और सलवार का
बांया पांयचा उधड़ा हुआ। आंखंे विस्फारित। वह एक टूटे और धराशायी हो गये शो-केस के पीछे
छिपने की कोशिश कर रही थी। इस शो-केस में शायद स्त्रियों के सुहाग चिह्न रखे रहते थे
क्योंकि पास ही एक-दो बिन्दियों के पैकेट, एसीटोन की गंध फैलाती नेल-पॉलिश की टूटी-फूटी
शीशियां और इमीटेशन के मंगलसूत्र पड़े हुए थे।
’’नहीं, नहीं। मुझे मत जलाओ। चाहे मेरा
सब कुछ ले लो।’’
खत्म हो रही तीली से उसकी उंगलियां जलीं।
उसने झटक कर तीली नीचे फेंक दी।
सब कुछ ! क्या इस स्त्री का अभी भी ’सब कुछ’ बचा
हुआ है ? अगर ऐसा है तो इसे कितना संघर्ष करना पड़ा होगा, कितना जूझी होगी।
’’डरो मत। मैं तुम्हे हाथ नहीं लगाऊंगा।’’
’’अब मुझे किसी पर विश्वास नहीं होता।’’
वह बोली मानो दुकान का अंधेरा कोना बुदबुदाया हो ’’सभी मर्द एक जैसे होते हैं।’’
’’मैं भी तुम्हारी तरह जान बचाने आया हूं।’’
इसके बाद काफी देर तक खामोषी रही।
बाहर से आती व्हिसल की लम्बी आवाज कभी-कभी
इस खामोशी को दो फांक कर देती। या पदचाप, जैसे कोई दिल को रौंद कर चला जा रहा हो। शटर
थोड़ा-सा ऊंचा रह गया था। यहां से घुसपैठ करती रोशनी के जरिये दीवार पर बनते-बिगड़ते
भूतहा साये रूह को कंपा देते।
स्त्री ऊहापोह में थी कि आगन्तुक अजनबी
पर विश्वास किया जाय या नहीं।
’’मगर वे तुम्हें क्यों मार रहे थे ?’
अन्ततः स्त्री ने भोलेपन से पूछा। यह बात दीगर है कि आज की तारीख में यह प्रश्न ही
बेमानी था। ’क्यों’’ वहां होता है जहां कोई ’कारण’’ हो। यहां तो सब कुछ अकारण था। जैसे
सैंकड़ों हजारों कम्प्यूटर एक ही सॉफ्टवेयर से जोड़ दिये गये थे और कोई मास्टरमाइन्ड
किसी आलीशान भवन में ’माऊस’ हाथ में लिये चूहे-बिल्ली का खेल खेल रहा था। प्रश्न होना
चाहिये था कि वे तुम्हें ’कैसे’ मार रहे थे ? क्योंकि इधर उन्होने मारने के नये-नये तरीके ईजाद कर लिये थे।
सवाल असुविधानजक होते हुए भी इस मायने
में आश्वस्तिकारक था कि एक बेसहारा, घबरायी हुई अकेली औरत धीरे-धीरे उस पर विश्वास
करने जा रही है। उस व्यक्ति पर जिसका चन्द लम्हे पहले तक हथियारबन्द भीड़ यों पीछा कर
रही थी गोया वह इस शहर का सबसे खतरनाक गुण्डा या बलात्कारी या कातिल या चोर-लुटेरा
हो। उसने मन ही मन उस औरत का धन्यवाद ज्ञापित किया साथ ही तीली जलाकर देखना चाहा कि
ऐसे मारू समय में किसी के चेहरे पर झलकता विश्वास कैसा लगता है। कितना ओजपूर्ण और दिमाग
को रोशन कर देने वाला ! परन्तु उसने तीली नहीं जलायी, इस डर से कि कहीं औरत फिर से
डर न जाये।
ऐसी छोटी-छोटी बातें ही जिन्दगी का बहुत
बड़ा सहारा होती हैं, जीने की लालसा जगाती हैं। वह बुदबुदाया।
अभी-अभी उसने अपने आपको हत्यारों के हवाले
कर ही दिया था। लो मारो। किश्त-दर-किश्त मरने से तो एक झटके में मरना अच्छा। परन्तु
एक अविश्वसनिय घटनाक्रम ने न केवल उसे बचा लिया, बल्कि जिजीविषा से सराबोर भी कर दिया।
विनोद को गाइड करते करते रात के दस बज
गये थे। कल उसके अंग्रेजी का पेपर था। प्रान्त जगह-जगह उबल रहा था, इसके बावजूद माध्यमिक
शिक्षा बोर्ड के नियामक ठण्डे टीप थे। परीक्षाएं प्रारम्भ हो गयी थी। विनोद यों तो
जहीन था मगर अंग्रेजी से बहुत डरता था। शाम को सात बजे उसका फोन आया, ’’सर, ढेर सारी
डिफिकल्टीज हैं, आप आ जाइये।’’
मना तो वह अपने किसी शिष्य को कर ही नहीं
सकता है। चाहे आधी रात क्यों न हो जाय। अपनी इस प्रकृति के कारण ही वह छात्र समुदाय
में इतना लोकप्रिय है। वह अंग्रेजी के अलावा हिन्दी, संस्कृत, गुजराती और उर्दू भी
पढ़ा सकता है। उसे नयी-नयी भाषाएं सीखने का और इस सीखे हुए को दूसरों के साथ शेयर करने
का अजीब-सा शौक है। इसी की बदौलत वह गर्वनमेंट
स्कूल के साथ-साथ एक प्राइवेट रात्रि काॅलेज में भी पढ़ाने का काम करता है।
उसने क्षण भर आज के हालात पर गौर किया
और सर झटका कर निकल पड़ा, ’’जो होगा, देखा जायगा।’’
आते वक्त भीड़ ने उसे घेर लिया। त्रिशूल,
तलवारें और छुरे अपनी शान दिखा रहे थे।
’’बोलो जय श्रीराम।’’
राम से उसे कोई परहेज नहीं है। वह अपने
छात्रों को तुलसीदास पढ़ाता आ रहा है। चतुष्पदियों में बंधे राम वनवास के दृष्य जब वह
पढ़ कर सुनाता है तो कक्षा का वातावरण कितना कारूणिक हो उठता है। छात्रों की आंखें छलछला
आती हैं। लक्ष्मण-परशुराम संवाद के समय तो दृष्य ही अलग होता है। प्रभावी शिक्षण के
लिए वह कभी-कभी मंचन भी करवाता है। वह महसूस करता है कि तुलसी के राम और आज के जय श्रीराम
में जमीन आसमान का अन्तर है। तुलसी के राम जहां प्रेम, करूणा, भ्रातृत्व, क्षमा, त्याग
परदुःखकातरता जैसे मानवीय मूल्यों के प्रतीक हैं तो ’जयश्रीराम’ आधिपत्य की भावना,
अक्खड़पन और अलगाव के। यहां तक कि हिंसा के भी।
वह चुप रहा था।
’’नहीं बोलता है ? बोलेगा कैसे, यह तो
’वो’ है। मारो साले को।’’
क्रोध, आक्रोश, आवेश और निराशा के मारे
उसकी टांगें कांपने लगी। इन भावनाओं की तीव्रता के आगे मृत्युभय दिमाग के किसी अज्ञात
न्यूरॉन में छिप कर बैठ गया। मौत सामने खड़ी
थी। धरम का भेस और हथियारों से लैस। जिन्दगी भर की निःस्वार्थ सेवा, निष्ठा और स्नेह
का यही सिला मिलना था।
तीर-तलवार, खंजर, त्रिशूल, पेट्रोल-केन
हवा में ऊपर उठ चुके थे।
उसे क्षण भर के लिये लगा कि वहीद की बात
न मानकर उसने भंयकर भूल की है।
’तू भी मेरी तरह आ जा किसी अरब कन्ट्री
में। यहां रहेगा तो कुत्ते की मौत मारा जायेगा।’ उसके दोस्त वहीद ने कहा था एक बार,
जब वह दो महीने के लिए हिन्दुस्तान आया था। उस दौरान भी जगह-जगह दंगे भड़के हुए थे।
वह कैसे जा सकता था ? एक झटके मे सब कुछ
छोड़कर, सारे रिशते-नातों को तोड़कर ! वह इस वतन से और वतन के इस खूबसूरत शहर से और यहां
के लोगों से बेइन्तहा प्यार करता था। वह यहीं जन्मा, यहां की मिट्टी में खेला और मुट्ठियां
भर-भर इसके स्वाद को चखा, दोस्तों के साथ गली-गली कुदड़कियां लगायीं, लड़ा-झगड़ा, रूठा
और मनाया भी गया। स्कूल-दॉलेज की हर गतिविधि में अव्वल रहा। पढ़ाई में, तकरीरों में,
शरो-शायरी में, यहां तक कि दॉलेज क्रिक्रेट टीम का कप्तान भी बना। कदम-कदम पर सराहा
गया। सर आंखों पर बैठाया गया। और.... और यहीं की एक प्यारी-सी मासूम लड़की ने उससे छिप-छिप
कर मोहब्बत भी की।
उसका दिमाग फिरकनी की तरह घूमने लगा था।
फिरकनी में कई सारी पंखुड़ियां थीं। हर पंखुड़ी पर कोई याद, कोई नजी़र कोई उदाहरण।
’’मुझे कुत्ते की मौत मरना गवारा है।’’
उसने वहीद को जवाब दिया था। एक और पंखुड़ी सामने आती है। छब्बीस जनवरी दो हजार एक। पूरे
देश में गीत गाये जा रहे हैं, ’’सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा’’ और इसी वक्त
भयंकर जलजला आता है। तबाही का हैरतनाक मंजर। मलबे के ढेर। नीचे दबे हुए हजारों जिन्दा
और मुर्दा जिस्म। मानो कोई धरती की कोख फाड़ कर कह रहा हो, ’ऐ ! खुदा के बन्दे अपने
पर ज्यादा गुमान मत कर। जिन्दगी दो दिन की है। सबसे हिलमिल कर रहना सीख।’ फिर हजारों-लाखों
हेल्पिंग हेन्ड्स। कोई यह नहीं देख रहा है कि यह फलां कौम का है इसलिए दबा रहने दो।
बिना किसी भेदभाव के लोग लग जाते हैं। पूरा देश एकजुट हो जाता है। कैसा नायाब जज़्बा।
इन्सानियत का दिलकश उदाहरण। वह भी अपने विद्यार्थियों की पांच-सात टीमें बनाता है और
जुट जाता है। न दिन का पता न रात का। कितनी जिन्दगियां बचायीं गिनने की फुरसत नहीं।
इस सब से प्रभावित होकर प्रशासन ने पन्द्रह अगस्त पर उसे भी अवार्ड के लिय चुना। परन्तु
उसने मना कर दिया, नम्रतापूर्वक। अपने लोगों की जान बचाने का भी भला कोई इनाम होता
है! तो फिर फर्ज किसे कहेगें ?
प्रकाश से भी कई गुना तेज रफ्तार से ये
तमाम बातें उसके दिमाग से गुजर गयी। आइन्सटीन की यह बात सही है कि जब किसी चीज का वेग
प्रकाश से आगे निकल जाता है तो घड़ी की सुइयां उल्टी घूमने लगती हैं।
उसे आइन्सटीन याद आया, यह बात अलग है कि
लोगों की जबान पर इन दिनों न्यूटन नाच रहा था।
’’फिर क्या हुआ ?’’ स्त्री सुबक रही थी।
तो वह आत्मलीन नहीं था बल्कि बोल रहा था।
उसे हल्का सा आष्चर्य हुआ और उतनी ही खुशी भी कि वह गौर से सुन रही थी।
’’तुम रो क्यों रही हो ?’’
’’क्योंकि यह हंसने का मौसम नहीं है। आगे
सुनाओ।’’
मौत कुछ ही इंच दूर थी कि इसी वक्त भीड़
में से एक किशोर चिल्लाया, ठहरो, इन्हे मत मारो। ये हमारे इब्राहीम सर हैं। हिन्दी
पढ़ाते हैं बहुत मस्ती, बहुत प्रेम से।
भीड़ का ध्यान भटका और वह दायरे से बाहर
निकल छूटा। अपने को बचाने की एकदम स्वाभाविक प्रक्रिया। जैसे अंगारा छू जाने पर तपाक
से हाथ पीछे हट जाता है।
’’सर है तो क्या सर पर बैठायें ? है तो
वही न ? पकड़ो जल्दी।’’
भीड़ शिकारी कुत्ते की तरह उसके पीछे लग
गयी।
भागने के मामले में वह भीड़ पर भारी पड़
रहा था। लड़के की आवाज में न जाने क्या था कि इब्राहीम सर के पैरों में कई हॉर्स पॉवर
जुड़ गये। इसी समय कोई नुकीली चीज दनदनाती हुई आयी और उसके कुर्ते को छेदती और बांहे
को छीलती हुई निकल गयी। हॉर्स पॉवर में कमी आयी। लगा कि फिर से उन्मादी उसे घेर लेगें।
’’आऽऽऽ! आऽऽ! मार डाला।’’ वही किशोर कराहा। भीड़ रूकी, पलटी और किशोर को संभालने
उल्टे पांव भागी।
वह ठिठका। उसके रहनुमा पर न जाने क्या
मुसीबत आयी है। ऐसे में जान बचाकर भागना ठीक होगा ? वह दुविधा में थम गया।
’’भागो सर, मुझे कुछ नहीं हुआ है।’’
’’ओह ! तो वह मुझे बचाने की चाल थी।’’ वाह ! तो इस शहर में अभी भी जान बाकी है। उसका सम्पूर्ण
शरीर कई-कई अश्व शक्तियों से भर गया।
युवावस्था की दहलीज पर दस्तक दे रहे ऐसे
किशोरों के लिए उसे जिन्दा रहना होगा। वह भागा और संयोगवश सुलेमान एन्टरप्राइजेज की
शरण में आ गया।
’’मैं कायर नहीं हूं मगर यह भी सच है कि
जीना चाहता हूं।’’
इस सफाई पर वह मन की मन झेंपा। उबरने के
लिये बोला, ’’तुम अपनी सुनाओ।’’
औरत चुप। कमरे में सन्नाटा ऐसा कि अंधेरे
को भी मात कर दे। बाहर भारी कदम जैसे कोई चैपाया चल रहा हो। कोई मस्त मरखना, देवता
के नाम छुट्टा छोड़ा गया सांड। ’रूको ना, बहुत थक गयी हूं। वजन कित्ता है !’’ नारी स्वर
था। हांपता हुआ सा। ’’जरा और हिम्मत रखो। अब तो घर आने ही वाला है। यह भी तो सोचो इस
वाशिंग मशीन से सबसे ज्यादा आराम तुम्हें ही मिलेगा।’’ यह पुरूष साथी था।
पहले से ही धीमी आवाजें शटर की झिर्री
को भेदने के बाद और भी धीमी हो गयी थी। किन्तु संकट के समय मनुष्य के कान श्वान, नाक
वराह और आंखें चील हो जाती हैं। इब्राहीम को सुनने और सब कुछ समझने में दिक्कत न हुई।
परन्तु ऐसा हो ही क्यों कि आदमी को जानवर
बनना पड़े; कोई सांड कुत्ता या सूअर। वह मुकम्मल इन्सान क्यों नहीं बना रह सकता ? इब्राहीम
सोच में डूब गया।
काफी देर तक उधेड़बुन चलती रही।
कोई उत्तर न सूझता देख उसे याद आया कि
वह दूकान में अकेला नहीं है और कि उसने स्त्री से कुछ कहने की गुजारिश की थी। क्या
उसने सुना नहीं ? या कि सब कुछ इतना भयावह है कि बताना नहीं चाहती ?
उसने टटोल कर स्त्री का हाथ थामने की कोशिश
की । स्त्री अप्रत्याशित रूप से चीखी, ’’नहीं, नहीं।’’ और हाथ झड़ाक से खींच लिया।
’’धीरे बोलो, बाहर किसी ने सुन लिया तो
खैर नहीं है। जो तुम समझी हो वैसी मेरी मंशा कतई नहीं है।’’
’’मेरे भीतर इतनी दहशत घर कर गयी है कि पूछो मत।’’ स्त्री ने अब स्वेच्छा से अपना हाथ फैला
कर उसकी हथेली पर रख दिया। स्त्री का हाथ कांप रहा था, सम्भंवतः उसका सम्पूर्ण शरीर
भी।
’’मैं मरना चाहती हूं। लेकिन अभी नहीं
और न इन वहशियों के हाथों।’’
’’हताश होना ठीक नहीं है। तुमने महसूस
नहीं किया ? बाहर सड़कों पर अबला बला बन गयी है। तुम कम से कम सबला तो बनी रहो।’’
’’वे बला इसलिए बन सकी हैं क्योंकि बलात्कारी
पति उनके संग है। मेरा कौन है इस जहां में सिवाय उस जीव के जो चन्द महीनों बाद इस दुनिया
में आने वाला है। जिसे बड़ी जद्दोजहद के बाद अपना स्वीकारा, वह भी जुनूनियों के हाथों..........।
यहां तक कि मेरा चार साला बेटा भी ............।’’ इस बार आवाज खुरखुरी और दर्द से
लिपटी हुई थी। उसकी हिचकियां बंध गयीं। कुछ रूक कर उसने सवाल दागा, ’’ये दंगे अक्सर
औरतों के खिलाफ ही क्यों होते हैं ?’’ इसका जवाब इब्राहीम के पास नहीं था।
धीरे-धीरे वह खुलने लगी। जंग लगे किंवाड़
की तरह।
पिछले दंगों के सीजन मे उसे वन्दना से
वहीदा बनना पड़ा था।
घर से उड़ायी गयी ’चीजों’ में वह भी शामिल
थी। फर्क यह था कि बेजान वस्तुएं सिर्फ लूटी गयी थीं; वह लूटने के पहले वापरी भी गयी।
और..... और.......।
’’और क्या ?’’
’’वह भी घर वालों के सामने।’’
सब कुछ कितना कष्टप्रद था। वह बोल नहीं
रही थी बल्कि शब्दों को उगल रही थी। रूक-रूक कर। जैसे कोई जादूगर लोहे के तपते गोले
उगलता है।
इस देश में औरत के लिए अस्मिता से जीना
जादूगरी ही तो है।
किसी मोहल्ले की बन्द गली के आखिरी सुनसान
मकान मे उसे डाल दिया गया। बाहर से ताला।
रात को ताला खुलता। वह आता। चिरौरियां
करता। वन्दना नफरत से मुंह फेर लेती। एक ही रट कि मुझे मेरे मां-बाप के पास भेज दो।
’’मां-बाप को भूल जाओ। वे भी तुम्हें भूल
चुके है।’’
’’नहीं।’’
’’तुम्हें मैं अपनी बीवी बनाऊंगा।’’
’’नहीं।’’
’’तुम्हें इज्जत बख्शूंगा। मेरी आधी दौलत
तुम्हारी’’
’’नहीं।’’
’’मैं तुमसे मोहब्बत करता हूं।’’
’’लेकिन मैं घृणा करती हूं।’’
’’मैं उन लोगों में से नहीं हूं। उनसे
छुड़ा कर लाया हूं।’’
’’मुझे हर लुटेरे की शक्ल एक जैसी लगती
है।’’
’’मेरी अगर कोई खता हो तो माफ कर दो।’’
’’नहीं।’’
’’नहीं, नहीं, नहीं। ये ले। लातों के भूत
बातों से नहीं मानते हैं।’’ हर ’नहीं’ के साथ उसके चेहरे पर वहशीपन गहराने लगता। वह
पीटता और ताले में बन्द करके चला जाता।
’’मां-बाप के पास जाना चाहती है ? चल तुझे
छोड़ दूं।’’ एक दिन उसे न जाने क्या सूझी कि टेक्सी में बैठाकर वन्दना को उसके घर के
बाहर छोड़ दिया।
शहर उफन कर शान्त हो चुका था।
’’मै यहां एक घण्टा तुम्हारा इन्तजार करूंगा।’’
उसे लौटने मे आधा घंटा भी नहीं लगा।
छोटी बहन सुनन्दा फर्श पर पोंछा लगा रही
थी। जाते ही लिपट गयी। दोनों बहनों ने बड़ी देर तक आंसुओं की भाषा में अपनी भावनाओं
का इजहार किया।
फिर उसने घर के एक-एक कोने को हसरत से
देखा। मां किचन में थी। जाकर गले लगी। मां ने उसके चेहरे को हथेलियों से भरा। ललाट
चूमा। प्यार के अतिरेक में यहां भी शब्द नदारद थे। फिर जैसे मां को होश आया, ’’चल बेटी,
उधर बैठते हैं।’’ वन्दना हुमकी ’’मैं तो यहीं बैठूंगी। तुम्हारे हाथ से कुछ खाऊंगी
तब हटूंगी।’’
’’यहां नहीं बेटी। तेरे बाबूजी आने वाले
हैं। चल उधर बैठते हैं।’’
’’बाबूजी मना करेगें ?’’ वन्दना की आंखे
आश्चर्य से फट गयीं।’’
‘‘तू नहीं समझेगी। आ जा बैठक में जी भर
कर बातें करेंगे।’’ मां लगभग धकियाते हुए उसे किचन से बाहर ले आयी थी। उसे लगा मां
की आवाज घुन खायी हुई है। खुशी मुरझायी हुई। क्या इतने ही दिनों में वह इस घर के लिए
पराई हो गयी ? मगर क्यों ?
इस ’क्यों’ का उत्तर पाने की कोशिश रिश्तों
की मासूमियत को कहीं गहरे तक छील गयी।
बाबूजी भी आ गये थे। ललाट पर चन्दन का
टीका। शायद मन्दिर गये थे। उन्होने एक नजर वन्दना को देखा और पलकें झुका ली।
वन्दना खड़ी रही। हृदय बल्ल्यिों उछल रहा था। पिताजी घर भर में सबसे ज्यादा प्यार उसी से
करते थे। खूब मान भी देते थे। कितना दुःखी रहे होगें। कितना तड़पे होगें उसे खोकर। आज
उनकी खुशी का पारावार नहीं रहेगा, अपनी दुलारी बेटी को पाकर।
बाबूजी वहीं ठिठक गये।
वह अपने आपको रोक नहीं पायी। आगे बढ़ी,
’’बाबूजी......।’’ ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ती गयी पिताजी पीछे हटते गये, ’’जीती रह बेटी,
जीती रह।’’
उसे सुनाई दिया मानो पिताजी कर रहे हैं,
’दूर रह बेटी, दूर रह।’
उसने मां पर एक कातर दृष्टि डाली।
मां ने उसके सिर पर हाथ फेरा, फिर पीठ
सहलाती हुई बोली,’’ वन्दना बेटी। अब मैं क्या समझाऊं, तू खुद समझदार है। अपनी छोटी
बहन सुनन्दा की तरफ देख। इसकी शादी होने तक....
बाद में भले ही आती जाती रहना। साल-छः महीने की ही तो बात है। वरना लोग कहेंगे,
बड़़ी के कारण छोटी भी रह गयी।’’
वन्दना के कानों में मानों बिच्छू डंक
मार रहे थे। उसने आक्रोश पूर्वक पूछा, ’’क्या मैं स्वेच्छा से गयी थी ?’’
’’दुनियां यह नहीं देखती बेटा। हम कौन
हैं यह भी सोच। नीची जाति के ऐसी घटना होती तो कोई ध्यान ही नहीं देता। हम ठहरे उच्च,
कुलीन। हम लोग जिन्दगी नहीं जीती, अंगारों पर चलती हैं।’’
’’तब तक मैं कहां रहूं, तुम्ही बताओ
?’’ वन्दना ने आखिरी सवाल पूछा। उस चाकू की तरह जो रस्सी के अन्तिम तन्तु को भी काट देने वाला हो।
’’अब तक जहां रही। या तुम चाहो तो हैदराबाद
चली जाओ। विनोद मामा के यहां।’’ क्या विनोद मामा के बेटी नहीं है ? उसने पूछना चाहा
मगर पूछ नहीं पायी। अब यहां रूकना बेमानी था।
अपनों के बीच अपमान की जिन्दगी बिताने से अच्छा है कि लौट जाये। उसी के पास जो उसे
सम्मान देने के लिए गिड़गिड़ा रहा है, आत्मीयता बांटने को बेचैन है।
’’मैं कंवारी रह लूंगी, कोई दीदी को रोक
लो।’’ सुनन्दा चिल्लायी। किन्तु सब बेअसर। मां अडोल। पिताजी पहले ही अन्दर कमरे में
जा चुके थे।
वह बड़ी मुश्किल से टैक्सी तक पहुंची। जैसे
बहुत चढ़ाई चढ़कर आयी हो या सर्वस्व खोकर।
रिश्ते कितनी सीमित जगह तक सिमटे होते
हैं। छोटे से दायरे में कैद। उसे दुःख से ज्यादा क्रोध था। वह पलटी थी। ग्रेजुएशन की
डिग्री और अन्यान्य सर्टिफिकेट तो ले आये। जब नयी जिन्दगी की शुरूआत करनी ही है तो
फिर ये यहां क्यों ?
वह वापस गयी जहां मां ने आने के लिए स्पष्ट
रूप से मना कर दिया था। पिताजी ने अपने व्यवहार से परोक्षतः।
अन्दर बाबूजी मां से किचन धुलवा रहे थे।
उसे अब किसी सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं
रह गयी थी।
यों उसके भीतर की वन्दना कत्ल हो गयी।
उसे मजबूरन वहीदा बनना पड़ा।
फिर एक बेटे की मां भी बनी।
धीरे-धीरे जब वह केवल नाम की ही नहीं वजूद
से भी वहीदा बन चुकी तो शहर के आसमान पर फिर से दंगे के बादल उमड़-घुमड़ कर छा गये।
किसने किया था यह वरूण यज्ञ ?
रक्त बरसने लगा। शहर की नालियों मे लोगों
के अरमान बहने लगे।
उसी मोहल्ले की बन्द गली के आखिरी मकान
मे हथियारों से लैस कुछ पागल घुस गये। वह मकान जो अब सुनसान नहीं रह गया था बल्कि जहां
एक चार साला बच्चे की खिलखिलाहटें आबाद थी और जहां वन्दना उर्फ वहीदा के दम तोड़ चुके
सपने पुनः धीरे- धीरे अंगड़ाई लेने लगे थे।
सपनों की जगह वहां चीखें थी। घुटी-घुटी।
धुंआ था और आग भी। जब पागल बाहर निकले तो दो की तलवारें खून से सनी थी। तीन एक स्त्री
का पीछा कर रहे थे। स्त्री बेतहाशा, बदहवास भाग रही थी। चुन्नी का पता नहीं। सलवार
का एक पायंचा फटा हुआ। बाल बेतरतीब। सांस धौंकनी।
यह वही वहीदा थी जो बेटे और पति की जीवन
लीला समाप्त हो जाने के बाद स्वयं भी मरना चाहती थी मगर ऐसे वहशियों के हाथों नहीं।
इसीलिये बचती और उन्हें चकमा देती न जाने
कैसे, किस जोश में यहां ’सुलेमान एन्टरप्राइजेज’ में आकर छिप गयी, उसे भी पूरा होश
नहीं।
दुकान में सन्नाटा इतना गहरा था कि औरत
की सांसें साफ सुनायी देती थी। जैसे कुकर में व्हिसल आती है। पहले धीमे-धीमे, रूक-रूक
कर, धचके खाती हुई और फिर दीर्घ, एक कराहट की मानिंद। औरत के भीतर गहन पीड़ा खदबदा रही
थी। ऐसे मे उसे कैसे ढाढ़स बंधाया जाय ? इब्राहीम
को कुछ समझ में नहीं आ रहा था।
औरत ने अभी भी उसका हाथ थाम रखा था। और
उस पर न जाने कब अपना गाल रख दिया था। भाप द्रवित होकर गाल से लुढ़कती हुई न जाने कब
बूंद-बूंद उसकी अंजुरी में इकट्ठा हो गयी थी। गंगाजल की तरह पवित्र। आबेहयात की तरह
पाक साफ।
’’तुम मरने की ख्वाहिश छोड़ दो। कोई भी
लम्हा आखिरी लम्हा नहीं होता। हर पल जिन्दगी की नई शुरूआत होता है। समझी।’’ इब्राहीम
के ऊपर उसका अध्यापक हावी होने लगा।
इसी समय बाहर सड़क पर फिर से चैपाये दौड़ते-से
लगे। उनकी पदचाप सुलेमान एन्टरप्राइजेज के सम्मुख आकर अविचल हो गयी।
वहीदा ने इब्राहीम का हाथ कस कर पकड़ लिया।
छोटी सी खुसर-फुसर के पश्चात् एकाएक शटर
उठा। कुछ लोग अन्दर दाखिल हुए और शटर गिर गया।
इब्राहीम का दिल जोर से धड़कने लगा। सहसा
कमरा टार्च की पीली रोशनी मे नहा उठा।
’’गुरू, यहां तो पहले से ही पाटिया साफ
है।’’ एक बोला।
’’ध्यान से देख, शायद कोई काम की चीज मिल
जाय।’’
टार्च की रोशनी ने कमरे में दौड़ लगायी
और एक जगह ठहर गयी।
औरत दुबकी। दुबक कर और भी सिमट गयी। उसने
सिकुड़कर चींटी में तब्दील हो जाना चाहा या फिर मक्खी मे। इब्राहीम सांस रोके पड़ा रहा।
’’गुरू, मिल गयी। इधर आओ।’’
वे छः थे।
दो उसके साथ जूझने लगे। एक ने लाईट ऑन
कर दी। गोया औरत को जलील करने के लिये अन्धेरा नाकाफी था।
’’ उसे हाथ मत लगाना’’ इब्राहीम तड़पा।
उसने पकड़कर दोनों को दूर घसीट दिया। उसकी बाहों में गजब की ताकत आ गयी थी।
शेष चार ने उसे पकड़ लिया। कस कर। दो ने
टांगें। दो ने हाथ। पीछे मोड़कर।
’’मत छुओ उसे। यह धर्म के खिलाफ है। भगवान
तुम्हें कभी माफ नहीं करेगा।’’
उसने जान बूझकर ’भगवान’ शब्द का प्रयोग
किया।
’’मूढ़ ! भगवान ऐसे समय पहले ही खिसक जाता
है।’’ एक बोला।
वह दोनों से जूझ रही थी। योद्धा की तरह।
लातें, मुक्के, नाखून और दांत उसके बेशकीमती हथियार थे। वह चिल्ला नहीं रही थी। जानती
थी कि इसका कोई फायदा नहीं है। न गिड़गिड़ा रही थी। हां, दूकान मे इखरी-बिखरी चीजों में
से जो भी हाथ में आती, उन्हे वह मिसाइल की तरह जरूर इस्तेमाल कर लेती। मगर वे दोनों
उस पर भारी पड़ रहे थे। वे उसे नोचने लगे, भूखे भेड़ियों की तरह।
वह जल्दी ही थक कर हांफने लगी।
’’यह वन्दना है, तुम्हारी ही कौम की।’’
उसने एक और कोशिश की , इस बात की परवाह किये बगैर कि इससे जान खतरे मे पड़ सकती है।
’’वन्दना हो या
फातिमा, है तो औरत ना। हमारी कौम की है, तो तू इतनी देर इसके साथ क्या कर रहा था
?, ठहर, तुझसे भी निबटते हैं पहले....।’’
वे बारी बारी से अपनी भूमिकाएं बदलने लगे।
औरत निढाल हो चुकी थी।
’’या खुदा!’’ उसके मुंह से एक बेबस अरदास
निकली। फिर जाने क्या हुआ कि वह ठहाका मार कर हंसा और जोर-जोर से बोलने लगा,
मातृवत् परदारेषु
परद्रव्येषु लोष्ठवत्
आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति
सः पण्डितः
परायी स्त्री
को मां के समान, पराये धन को ढेले के समान और सभी प्राणियों को स्वयं के समान देखने
वाला ही सच्चा देखने वाला है।
वे उधर जुटे हुए थे। और वह बोलता जा रहा
था, बोलता जा रहा था, मातृवत् परदारेषु ..........।’’
’’चुप साले। पण्डित बन रहा है।’’ चार में
से एक ने उसका मुंह दबा दिया, कसकर। उसने फिर भी बोलने की कोशिश की, मातृवत् परदारेषु
..... आत्मवत्........ सर्वभूतेषु .......। मगर उसकी आवाज अन्तस में ही घुट कर रह गयी।
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माधव नागदा की तीन लघुकथाएं
मेरी बारी
जब आमंत्रित वक्ता वैश्वीकरण तथा
खुली अर्थव्यवस्था के फायदे गिना चुके और छात्रगण इस बात पर पुलकित होते हुए
कक्षाओं में रवाना हो गये कि हमारे पास एक अरब डालर का विदेशी मुद्रा भण्डार है
तभी एक लड़का सहमता-सकुचाता विस्मयबोधक चिह्न की भाँति विद्यालय के मुख्य द्वार
में प्रविष्ट हुआ| उसे इस तरह दबे पाँव विद्यार्थियों की भीड़ में शामिल होने की
कोशिश करते देख कुन्दनजी ने धर दबोचा|
“अच्छा,अच्छा! लेट, वो भी विदाऊट
युनिफॉर्म और ऊपर से चोरी-चोरी| चल इधर आ|”
दो-चार पड़नी तो थी ही|
“ऐसा काबर-तीतरा शर्ट क्यों पहनकर
आया?”
लड़का चुप| इस चुप्पी को ‘तड़ाक्’ की
आवाज ने तोड़ा|
“जा वापस| स्कूल का शर्ट पहनकर आ|”
“कल पहनूंगा सर| आज नहीं पहन सकता|”
‘सामने बोलता है| क्यों नहीं पहन
सकता बता?’ कहकर कुन्दनजी ने एक बार फिर लड़के का खैरमक्दम फरमाया|
“आज मेरा भाई पहनकर गया है| पास की
मिडल स्कूल में पढ़ता है|”
“तो क्या तुम दोनों के बीच एक ही...|”
कुन्दनजी के गले में मानो कोई फांस अटक गई|
“जी,सर| हम दोनों भाई बारी-बारी से
मार खाते हैं| आज मेरी बारी है|” लड़के के चेहरे पर बीजगणित का कोई मुश्किल सा
सवाल चस्पा हो गया| वह नजरें झुकाकर धरती पर पैर के अंगूठे से लकीरें माँडने लगा|
..............
वोटर
नगर परिषद के चुनाव थे| वार्ड नम्बर
दस की गली के मुहाने पर एक जीप आकर रुकी| कुल पांच लोग उतरे| एक रौबीले व्यक्ति ने
दूसरे कम रौबीले व्यक्ति को आंखों ही आंखों में इशारा किया, अर्थात् चुनाव प्रचार
का श्रीगणेश कहां से करें| तीसरे ने सामने संकेत किया, “यहीं से ठीक रहेगा नेताजी|
शर्माजी रहते हैं, बड़े भले आदमी हैं| मुहूर्त अच्छा रहेगा|”
“तो चलो देर किस बात की| एक पैकेट भी
ले लो| क्या नाम बताया तुमने | शर्माजी?” नेताजी बहुत जल्दी में थे मानो चुनाव से
पहले ही जीत को गले लगा लेना चाहते थे|
शर्माजी दालान में बैठे अखबार पढ़
रहे थे| नेताजी ने खंखारकर गला साफ किया,फिर झपटते हुए आगे बढ़े और दुबले-पतले
शर्माजी को उठाकर बांहों में भर लिया, “ओह हो| शर्मा साहब| वाह भाई वाह| कितने
बरसों बाद मिल रहे हैं| कॉलेज में जब हम साथ पढ़ते थे तब की बात ही और थी| आह, वो
भी क्या जमाना था| ओह हो हो|”
शर्माजी आत्मीयता के इस अप्रत्याशित
आक्रमण से अचंभित रह गये| कॉलेज के दिनों की यादों में इस अजनबी का चेहरा कहीं फिट
नहीं हो रहा था| फिर भी शिष्टाचारवश वे चुप रहे| अन्दर से कुर्सियां मंगवायी| सबको
चाय के लिए पूछा| यह जानकर कि नेताजी इस वार्ड से खड़े हो रहे हैं प्रसन्नता जाहिर
की| वोट देने का वायदा भी किया|
“वाह शर्मा साहब! तबीयत प्रसन्न हो
गई| ये लीजिये बच्चों के लिए फूल की जगह पांखुरी| जीतने पर आप जो भी हुकुम
करेंगे...|” उन्होंने मिठाई का पैकेट शर्माजी के हाथों में ठूंस दिया|
“अरे रे! यह क्या कर रहे हैं? बच्चे
तो बड़े हैं| मिठाई की उम्र के नहीं रहे अब|”
“तो वोट की उम्र के होंगे|” नेताजी
ने कान फोड़ ठहाका लगाया और पूछा, “कितने हैं?”
“तीन|”
“क्या तीनों ही...?”
“जी हां, अठारह से ऊपर|” शर्माजी
उनके प्रश्न का मर्म समझ गये|
नेताजी ने फिर से वाह वा वाह वा करते
हुए शर्माजी को भींच लिया|
“अरे भाई मंगलजी, पर्चियां काटकर दे
दो ताकि पोलिंग के दिन शर्मा परिवार को कोई दिक्कत न हो|” नेताजी खुशी से फूले
नहीं समा रहे थे|
मंगलजी ने वोटर लिस्ट को कई बार
उलट-पुलट लिया, किन्तु हरिप्रसाद शर्मा सपरिवार नदारद थे|
“सर, इनका तो लिस्ट में नाम ही नहीं
है|”
“क्या कह रहे हो? जरा ध्यान से देखो
यार| पांच वोट का सवाल है|” नेताजी तनिक खीजे|
“नहीं है सर, चार बार टटोल लिया|”
नेताजी के चेहरे की रंगत उड़ गई, “सुबै,सुबै
कहां लाकर भिड़ा दिया| इतनी देर दस घर संभालते| शर्मा, तुम नहीं बोल सकते थे?
कितना टाइम बरबाद कर दिया हमारा| चलो..चलो| रुकने से कोई फायदा नहीं|” नेताजी चिढ़
रहे थे|
सब चलने लगे तो नेताजी ने मिठाई के
पैकेट पर तिरछी नजर डालते हुए मंगल को धीमे से कहा, “ले लो वापस| किसी वोटर को
देंगे|”
मंगल ने बड़ी मुस्तैदी से पैकेट लगभग
छीनते हुए अपने झोले में रख लिया|
लुटे-लुटे से शर्माजी लोकतंत्र के
पहरुओं को जाते हुए देखते रहे, चुपचाप|
.............
बिग बॉस
रामबाबू को बॉस दो बार अपने कमरे में
बुला चुके हैं| वही सुहालका एण्ड सुहालका के टेण्डर वाला मामला| बीस कम हैं तो
क्या| प्रताप एण्ड सन्स को किसी तरह रिजेक्ट कर दो| बहुत से दांव-पेंच हैं| आप से
पहले वाले एकाउंटेंट श्यामबाबू करते ही थे| कोई बाल तक बांका नहीं कर सका| और
सुनो| जब दुबारा बुलावा आया तो साहब ने संकेत कर ही दिया| सुर को जरा धीमा करके
बोले,पहुँची हुई पार्टी है| करोड़पति| एक पेटी का ऑफर दिया है| आधी तुम्हारी| बस!
खुश! फिर ठहाका लगाते हुए कहा, ‘रामजी,सब कर रहे हैं आजकल| सरकार कानून बनाने वाली
है कि रिश्वत देना अपराध नहीं होगा| देना अपराध नहीं तो लेना कैसे हो गया? समझ गये
न? इसलिए बेधड़क रहो और अभी का अभी फाइनल कर दो|’
रामबाबू चुपचाप अपनी सीट पर आकर बैठ
गये| बैठे रहे| अपने आप में डूबे हुऐ से| एकाएक उन्होंने सुहालका वाली फाइल एक तरफ
पटक दी और प्रताप एण्ड सन्स को पास कर ठप्पे लगाने लगे| जोर-जोर से| इतने में
रोड़ीलाल ने आकर कहा, “रामबाबूजी, बॉस ने पुछवाया है कि उन्होंने जो काम कहा वह हो
गया क्या?”
“नहीं हुआ रोड़ीलाल| बॉस को कहना कि
बिग बॉस ने मना कर दिया है|”
रोड़ीलाल नासमझ की तरह खड़ा रहा| फिर हिम्मत
बटोरकर सवाल किया, “रामबाबूजी, ये बिग बॉस कौन है? कहां है इसका ऒफिस?”
“बिग बॉस हम सबके भीतर रहता है
रोड़ीलाल| हरदम चिल्लाता रहता है कि यह ठीक है, यह गलत है| मगर आजकल उसकी सुनता
कौन है|” रामबाबू ने दार्शनिक अंदाज में कहा, “खैर तुम नहीं समझोगे| यह फाइल लेते
जाओ| साहब की टेबल पर पटक देना|”
रोड़ीलाल जाते-जाते ठिठक गया| कहने
लगा, “मैं सब समझ गया| मेरा बिग बॉस कहता है कि आप सच्चे आदमी हो|”
माधव नागदा की तीन
कविताएं
प्रतिरोध
चिड़िया
पहचानती है अपना दुश्मन
चाहे वह
बिल्ली हो या काला भुजंग
वह
जिस चोंच से
बच्चों को चुग्गा चुगाती है
और
किसी लुभावने मौसम में
चिड़े की पीठ गुदगुदाती है
उसी चोंच को
हथियार बनाना बनाना जानती है
आभास होते हुए भी
कि
घोंसले में दुबके बच्चे
पंख उगते ही
उड़ जायेंगे फुर्र से
अनजानी दिशाओं में,
आता देख
भयंकर विषधर
चिड़िया टूट पड़ती है उस पर,
जान जोखिम में डाल
करती है दर्ज
अंतिम दम तक
अपना प्रतिरोध|
भविष्य में नहीं
वर्तमान में जीती है चिड़िया
इसीलिए हारका भी
हर बार जीतती है चिड़िया
…………………
कक्षा की सबसे होशियार लड़की
सुगना को नहीं मालूम
‘सुगना’ किरदार’
किस धारावाहिक में है|
सुगना टीवी नहीं देखती
सुगना की टापरी में टीवी नहीं है
सुगना की टापरी में बिजली नहीं है
सुगना की ढाणी
रात को
अंधेरे में डूबी रहती है
जब सब सो जाते हैं
सुगना
चिमनी के मद्धम प्रकाश में
गणित के सवालों से उलझती है
रसायन के समीकरण संतुलित करती है
मन की सलाइयों से
जिंदगी के सपने बुनती है|
सुगना सहपाठियों को समझाती है;
ऐरोमेटिक पदार्थ ऐसे जलते हैं
जैसे चिमनी से उठता धुंआ
कक्षा की सबसे होशियार लड़की है सुगना
मेडम कहती है
सुगना कुछ बनकर दिखायेगी|
क्या बनोगी सुगना तुम
कलक्टर,एसपी या प्रोफेसर
खूब कुरेदो
तब जाकर
सपनों की गठरी खोलती है सुगना-
बिजली इंजीनियर बनेगी
टापरियों में उजास भरेगी
रोशन करेगी ढाणी-ढाणी को,
फिर
होशियार बच्चों को
नहीं पढ़ना पड़ेगा
चिमनी का धुंआ पीकर
नहीं होना पड़ेगा
झुककर दोहरा
किताबों कापियों पर,
शहरियों की तरह
ढाणी के बच्चे भी
कमर सीधी रखकर पढ़ेंगे
नमकर नहीं
तनकर चलेंगे|
------------
बचा रहे आपस का प्रेम
एक विचार
अमूर्त सा
कौंधता
है भीतर
कसमसाता
है बीज की तरह
हौले हौले
अपना सिर
उठाती है कविता
जैसे
फूट रहा
हो कोई अंखुआ
धरती को
भेद कर;
तना बनेगा
शाखें निकलेंगी
पत्तियां
प्रकटेंगी
एक दिन
भरा-पूरा
हरा-भरा
पेड.बनेगी
कविता ।
कविता पेड.
ही तो है
इस झुलसाने
वाले समय में
कविता सें
इतर
छांव कहां
सुकून कहां
यहीं तो
मिल बैठ सकते हैं
सब साथ-साथ
चल पडने
को फिर से
तरो ताजा
हो कर ।
लकडहारों
को
नहीं सुहाती
है कविता
नहीं सुहाता
है उन्हें
लोगों का
मिलना जुलना
प्रेम से
बोलना बतियाना
भयभीत करती
है उन्हें
कविता के
पत्तों की
खडखडाहट
इसीलिये
तो वे घूम रहे हैं
हाथ में
कुठारी लिये
अहिंसक
शब्दों के हत्थे वाली ।
हमें
बचाना है
कविता को
क्रूर लकडहारों
से
ताकि लोग
बैठ सकें
बेधडक
इसकी छांव
में
ताकि बचा
रहे
आपस में प्रेम
-0-0-0-
माधव नागदा
जन्मः 20 दिसम्बर 1951, नाथद्वारा(राजस्थान)
शिक्षाः एम.एससी. रसायन विज्ञान, बी.एड.
लेखन विधाएं:
कहानी, लघुकथा, कविता, डायरी| हिंदी,राजस्थानी दोनों भाषाओं में
समान रूप से लेखन|
प्रकाशनः सारिका, धर्मयुग, हंस, वर्तमान साहित्य, मधुमती, जनसत्ता सबरंग, सम्बोधन, समकालीन भारतीय साहित्य, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, नवभारत टाईम्स, चर्चा, प्रेरणा, वीणा, माणक,जागती जोत आदि पत्र--पत्रिकाओं तथा सौ से अधिक संकलनों मे कहानियां, लघुकथाएं व अन्य
रचनाएं प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तकें:
कहानियाँ:- 1.उसका दर्द, 2.शापमुक्ति, 3.
अकाल और खुशबू, 4. परिणति तथा अन्य
कहानियाँ(हिंदी कहानी संग्रह) 5. फिर कभी बतलायेंगे(हिंदी
डायरी) 6.उजास(राजस्थानी कहानी संग्रह),7.सोनेरी पांखां वाळी तितळियाँ(राजस्थानी डायरी)|
लघुकथाएं:
१
आग, 2. पहचान (सम्पादित)
विशेषः-- ‘उसका दर्द’ राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा सुमनेश जोशी
पुरस्कार से पुरस्कृत।
-राजस्थान पत्रिका सृजनात्मक पुरस्कार (कविता- ठहरा हुआ वक्त के लिये)
-‘सोनेरी पांखां वाळी तितळियाँ ‘राजस्थानी भाषा,साहित्य एवं संस्कृति अकादमी द्वारा
शिवचंद्र भरतिया सम्मान से सम्मानित-साकेत-साहित्य सम्मान|
-कहानियां कई भारतीय भाषाओं मे अनूदित एवं मंचित|
-संस्थापक सदस्य राजस्थान साहित्यकार
परिषद,कांकरोली|
-सदस्य,राजस्थान साहित्य अकादमी|
सम्प्रतिः स्वतंत्र लेखन
स्थायी पता:गां.पो.-लालमादड़ी,वाया-नाथद्वारा,जि.राजसमंद(राज.)-313301
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