बुधवार, 4 अप्रैल 2012

वातायन-अप्रैल,२०१२





हम और हमारा समय

नि:सन्देह, यह गाँधी का देश है!

रूपसिंह चन्देल

पिछले लंबे समय से देश की हवा गर्म है. यह गर्मी ठिठुरती ठंड के दिनों में भी अनुभव की गई. लेकिन इन दिनों ताप कुछ अधिक ही है. बात चाहे जनरल वी.के.सिंह द्वारा किए गए खुलासों की हो या पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअन्त सिंह की हत्या की साजिश में फाँसी प्राप्त राजोआणा की अचानक राजनीतिक माहौल गर्मा गया. देश हक्का-बक्का है. चौदह करोड़ की रिश्वत की पेशकश ने राजनीतिज्ञों को उतना नहीं हकबकाया जितना जनरल सिंह के १२ मार्च के उस पत्र ने जो माननीय प्रधानमंत्री जी को उन्होंने भेजा. पत्र मीडिया में लीक हो गया. पत्र लीक होना एक गंभीर मामला है. यह देशद्रोहपूर्ण कार्य है, जिसके लिए लीक करने वाले को वह सजा दी जानी चाहिए जिससे दूसरे सबक लें.


जनरल वी.के.सिंह के पत्र के लीक होने से दो बातें उभरकर सामने आयीं. राजनीतिज्ञों ने पत्र लीक होने पर गंभीर चर्चा की, जिसमें कुछ सांसदों ने उनके विषय में बहुत कुछ ऎसा कहा जो यदि कोई आम व्यक्ति किसी राजनीतिज्ञ के विषय में कहता तो उसके विरुद्ध संसद में निंदा प्रस्ताव लाए जाने की बात की जाती या उसे पागल कहकर अपमानित किया जाता. माँग यहाँ तक की गई कि जनरल सिंह को ’सैक’ कर दिया जाए---छुट्टी पर भेज दिया जाए---ऎसे कुंठित जनरल से मुक्ति पा ली जाए---. जहाँ राजनीतिज्ञों के निशाने पर जनरल वी.के.सिंह थे, वहीं जनता कुछ और ही सोच रही थी. उसके सरोकार और चिन्ता देश की सुरक्षा से जुड़े थे. वह सेना में व्याप्त भ्रष्टाचार के विषय में सोच रही थी. चौदह करोड़ की रिश्वत को ठुकराने वाले और सेना के अनेक भ्रष्टाचार और घोटालों को उजागर करने वाले जनरल की ईमानदारी और उन्हें ’सैक’ करने जैसे फतवे जारी करने वाले राजनीतिज्ञों की नीयत के विषय में सोच रही थी.


सेना में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं. कहते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात सेना के कुछ विभागों में भ्रष्टाचार पनपने लगा था. आजादी के बाद वह क्रमशः बढ़ा, लेकिन इतना सर्वव्यापी नहीं था. जब मैं छोटा था सुना करता कि इस देश में पुलिस सर्वाधिक भ्रष्ट और सेना भ्रष्टाचार मुक्त है. लेकिन यह स्थिति अधिक समय तक बनी नहीं रह सकी. नियुक्तियों से लेकर चीजों की खरीद तक वहाँ भ्रष्टाचार पनपने लगा था. यह स्थिति सेना के तीनों अंगों में है. सेना ही नहीं, रक्षा मामलों से जुड़े अन्य विभागों में भी यही स्थिति है. एम.ई.एस. जैसे विभागों में बहुत पहले से यह सब जारी था. इन विभागों में पोस्टिंग्स लेने के लिए लोग वे सब हथकंडे अपनाते हैं जो किसी भी कमाऊ थाने की पोस्टिंग के लिए अपनाए जाते हैं. जहाँ ’ठेकेदार’ नाम के जीव का प्रवेश होगा भ्रष्टाचार वहाँ नहीं होगा, यह सोचना सही नहीं होगा. व्यवस्था में भ्रष्टाचार इस हद तक प्रविष्ट हो चुका है कि शायद ही पूरी तरह उसकी सफाई संभव हो---लेकिन यह सोचकर सफाई के प्रयास ही न किए जाएँ और सफाई के प्रयास करने वाले का मखौल उड़ाया जाए यह उचित नहीं.


राजनीतिक हलकों में राजोआणा की फाँसी ने भी खासा माहौल गर्माया. उसकी फाँसी रुकवाने के लिए जो प्रयास किए गए वे अनेक प्रश्न उत्पन्न करते हैं. आम आदमी यह सोचने को विवश हुआ है कि यह अभियान तुच्छ राजनीतिक लाभ के लिए देश को किसी अंधी खाई में धकेलने का प्रयास था. कहा यहाँ तक गया कि यह गाँधी का देश है---गाँधी अहिंसा के पुजारी थे---अहिंसा के पुजारी के देश में फाँसी की बात नहीं की जानी चाहिए. लेकिन यह कहने वाले यह भूल गए कि यह चन्द्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल, खुदीराम बोस, भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव जैसे उन सैकड़ों क्रान्तिकारियों का देश भी है जिन्होंने देश के लिए हँसते-हँसते अपने को कुर्बान कर दिया था. भगतसिंह की फाँसी से पूर्व गाँधी जी से कहा गया था कि वे ब्रिटिश हुकूमत से भगतसिंह सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी न दिए जाने के लिए बात करें. माना जा रहा था कि यदि गाँधी जी ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनाएँगें तो उनकी फाँसी की सज़ा बदल जाएगी. गाँधी जी ने किंचिंत भी उत्साह नहीं दिखाया. वह भगतसिंह और उनके साथियों को आतंकवादी मानते थे और आतंकवादियों के लिए उपयुक्त सजा फाँसी ही थी. फिर गाँधी के नाम पर राजोआणा को फाँसी न दिए जाने की बात क्यों की जा रही है? क्या वह आतंकवादी नहीं है? इससे यह सिद्ध होता है कि आज के भारतीय राजनीतिज्ञ उचित-अनुचित को अपने पक्ष में करने में सिद्धहस्त हैं. जनता यह भी जानना चाहती है कि प्रतिदिन दो लाख रुपयों के खर्च पर पलने वाले कसाब को फाँसी दी भी जाएगी या नहीं और दी जाएगी तो कब? उसके फैसले पर विलंब क्यों? और अफजल गुरू को क्यों बचाया जा रहा है? जनता चुप है, लेकिन वह समझती है कि यह भ्रम पालना राजनीतिज्ञों के लिए सही सिद्ध नहीं होने वाला.
-0-0-0-

जब मैं देश की राजनीतिक स्थितियों पर विचार करता हूं और आम जन को उस पर चर्चा करता पाता हूं तब एक प्रश्न मन में उठता है कि साहित्यकार के सरोकार क्या हैं? क्या होने चाहिए? अन्ना ने भ्रश्टाचार के विरुद्ध आवाज उठायी---लेकिन अधिकांश साहित्यकार चुप थे. साहित्यकार को अपने समय के प्रश्नों से जूझना चाहिए या नहीं? सुविधाभोगी साहित्यकार ही यह सोचेंगे कि उन्हें केवल लिखना चाहिए शेष बातों से जूझने का काम दूसरों का है. प्रश्न उठता है कि ऎसे लेखक क्यों और किसके लिए लिखते हैं? अपने समय के सवालों से कतराने वाले साहित्यकार को पलायनवादी कहा जाएगा या कलावादी? वह लिखता ही क्यों है? अपने देश, समाज, भाषा, संस्कृति के प्रति जिम्मेदारी से बचने वाले साहित्यकारों की लेखकीय गंभीरता को समझा जाना चाहिए. ऎसे सुविधाभोगी साहित्यकारों के लिए हिन्दी की चर्चित और वरिष्ठ लेखिका सुधा अरोड़ा एक उदाहरण हैं, जिनका संपूर्ण लेखन समय की टकराहट से जन्मा है और समय से टकराकर जन्मा साहित्य ही सार्थक होता है.
-0-0-0-
वातायन का यह अंक वरिष्ठ कथाकार और कवियत्री सुधा अरोड़ा जी की रचनाओं पर केन्द्रित है. साथ में प्रस्तुत है वरिष्ठतम कथाकार मन्नू भंडारी और सुधा अरोड़ा जी के साथ २० मार्च, २०१२ को मेरी और बलराम की मुलाकात के दौरान हुई बातचीत के कुछ अंश. आशा है अंक आपको पसंद आएगा.

-0-0-0-0-

मुलाकात



मन्नू भंडारी और सुधा अरोड़ा से एक मुलाक़ात

रूपसिंह चन्देल


१९ मार्च २०१२, रात लगभग नौ बजे का समय. फोन पर शांत-गंभीर स्वर सुनाई दिया, “चंदेल जी बोल रहे हैं ? ”
जब तक मैं कुछ कह पाता, “ मैं सुधा अरोड़ा बोल रही हूं.”
“मैंने आपकी आवाज पहचान ली थी. लातूर से मुम्बई कब लौटीं ? ” मैंने पूछा.
“मैं दिल्ली से बोल रही हूं. मन्नू जी के यहां ठहरी हूं.”
“आपने दिन में बताया होता ---मै कुछ समय पहले ही गुड़गांव से लौटा हूं---आपसे मिलता हुआ आता.” मुझे लगा कि उस दिन मुलाकात का एक अच्छा अवसर मेरे हाथ से निकल गया था.
“मैं आज शाम ही पहुंची हूं.”
“आपसे कब मुलाकात हो सकती है?”
“कल शाम चार बजे के बाद कभी भी---.”
क्षणभर सोचने के बाद मैंने कहा, “सुधा जी, इस सप्ताह शुक्रवार तक प्रतिदिन शाम मेरी व्यस्तता रहेगी---सुबह दस-ग्यारह बजे किसी भी दिन---“
“बीस-इक्कीस को मन्नू जी और मैं दिन में व्यस्त हैं.”
“राजेन्द्र जी के यहां जाना है ?”


(बांए से - मन्नू भंडारी,सुधा अरोड़ा, रूपसिंह चन्देल और बलराम अग्रवाल)

“उनसे मिलने कल सुबह ग्यारह बजे जाना है.”
लेकिन अगले दिन अर्थात २० की सुबह अकस्मात कार्यक्रम में परिवर्तन हुआ. उस दिन शाम चार बजे मैं मन्नू जी के यहां जा सकने की स्थिति में था. सुधा जी ने मुझे मन्नू जी का मोबाइल और घर का नंबर दे दिए थे और कहा था कि उन पर ही मैं संपर्क करूं. उनसे बात करने से पहले मैंने बलराम अग्रवाल से बात की. बलराम अग्रवाल साहित्य और मित्र जीवी व्यक्ति हैं और ऎसे किसी भी अवसर को छोड़ना नहीं चाहते. बलराम ने अपने दूसरे आवश्यक कार्यक्रम रद्द कर मेरे साथ जाने की सहमति दे दी. यह जानकर कि मैं उसी दिन शाम साढ़े चार बजे मिलने पहुंचना चाहता हूं, सुधा जी ने प्रसन्नता व्यक्त की. जब मैंने बताया कि मेरे साथ बलराम अग्रवाल भी होंगे, उन्होंने सुनते ही कहा, “मिलकर अच्छा लगेगा.”
वह दिन भयानक वस्तताभरा होने वाला था. दोपहर एक बजे कॉफी होम में किसी से मिलना था. उससे पहले आसफअली रोड और कनॉट प्लेस में कुछ आवश्यक कार्य थे. बलराम अग्रवाल को मैंने साढ़े तीन बजे कॉफी होम बुलाया.
जब हम मन्नू भंडारी जी के हौजखास निवास पर पहुंचे चार बजकर चालीस मिनट हुए थे. दरवाजा सुधा जी ने खोला. उनसे यह हमारी पहली मुलाकात थी. मन्नू जी से दूसरी. मन्नू जी से पहली मुलाकात वर्षों पहले एम्स में हुई थी, जब राजेन्द्र जी वहां भर्ती थे. उन दिनों वह प्रसार भारती के सदस्य थे. उनसे मिलने वालों की भीड़ थी. उनसे मिलकर मैं बाहर निकला तो मन्नू जी को कॉरीडार में अकेले टहलते हुए पाया. उस शाम राजेन्द्र जी के स्वास्थ्य को लेकर मन्नू जी के चेहरे पर चिन्ता की स्पष्ट उभरी रेखाएं मैंने देखी थीं. देर तक मैं उनके साथ बातें करता रहा था. वह राजेन्द्र जी के पीने को लेकर दुखी थीं और उनकी बीमारी के लिए उन सबको दोष दे रही थीं जो अपने स्वार्थ के चलते राजेन्द्र जी को इस सबके लिए घेर बैठते थे. उसके बाद कितनी ही बार उनसे मिलने जाने और बातचीत करने का विचार किया, लेकिन जा नहीं पाया. अपने जीवन काल में ही मिथक बन चुकी मन्नू जी के साथ न मिलने जाने के लिए मैं अपने को लानत भेजता रहा. तब से २० मार्च,२०१२ के मध्य सैकड़ों बार अरविन्दों मार्ग से गुजरना हुआ लेकिन जो वर्षों से टलता रहा था उसका सुयोग इतनी सहजता से सुधा अरोड़ा जी के कारण उस दिन मिल गया था.
मन्नू जी और सुधा जी के साथ उस दिन की हमारी वह मुलाकात इतनी यादगार होने वाली थी, यह सोच से बाहर था. औपचारिक मुलाकात सोचकर ही हम गए थे. ड्राइंगरूम में हम सोफे पर बैठने ही वाले थे कि मन्नू जी आती दिखीं. आगे बढ़कर हमने परिचय दिए. मन्नू जी हमारे सामने सोफे पर आ बैठीं. सुधा जी भी चाय की औपचारिकता निभाती हुई हमारे साथ आ जुड़ीं. बातों का सिलसिला राजेन्द्र यादव जी की बीमारी, उन लोगों के उन्हें देखने जाने से प्रारंभ हुआ. मन्नू जी ने विस्तार से बताया कि हालात अधिक बिगड़ने के बाद जब राजेन्द्र जी उनके यहां पहुंचे तब वे इस योग्य बिल्कुल नहीं थे कि स्वयं हिल-डुल भी सकते.

“मैं उन्हें देखकर हत्प्रभ थी. यह क्या हुआ राजेन्द्र को..?” मन्नू जी बता रही थीं, “संतरे की एक फांक भी लेने को तैयार नहीं थे---बिल्कुल शक्तिहीन. पूरे समय खांसते रहते---पाइप-सिगरेट सब छूट गए---.” मन्नू जी आराम की मुद्रा में सोफे पर बैठी बता रही थीं.

(बांए से -मन्नू भंडारी, मनीषा पांडे,बलराम अग्रवाल, रूपसिंह चन्देल और

सुधा अरोड़ा)


“वह खांसी उसी पाइप और सिगरेट की ही देन थी---.” मैं और बलराम ने एक स्वर में कहा, “१२, मार्च को हम दोनों उनसे मिलने गए थे. उन्होंने बताया कि पैंतालीस दिन से उन्होंने पाइप को हाथ नहीं लगाया----अब उन्हें याद ही नहीं आता कि कभी उन्होंने पाइप पिया था---और उस दिन हमने उन्हें खांसते भी नहीं देखा था.”

“अब तो बहुत ठीक हैं---आज मिलकर लगा कि अब वह बीमारी पर विजय पा चुके हैं---“ मन्नू जी के चेहरे पर राजेन्द्र जी के स्वस्थ होने का सुकून स्पष्ट था.

“अब बहुत अच्छे हैं. मुझे वह अलग-अलग नामों से पुकारते हैं. “ सुधा जी मुस्कराती हुई बोलीं, “आज भी देखते ही बोले, “आ गई आफत की परकाला ! ”

हम सभी हंस पड़े. सुधा जी ने पन्द्रह दिन पहले फोन पर भी मुझे इस विषय में बताया था. उन्होंने कुछ दिन पूर्व पाखी के ’राजेन्द्र यादव’ विशेषांक में राजेन्द्र जी के बारे में बहुत ही खुलकर लिखा था. उनके लेखन की यह विशेषता है और यह विशेषता उनकी पहचान बन गई है. मेरा मानना है कि एक ईमानदार लेखक जो साहित्य को सीढ़ियों की भांति इस्तेमाल नहीं करता इस बात की चिन्ता किए बिना कि उसके लिखे से कौन प्रसन्न और कौन अप्रसन्न होता है सदैव वही लिखता है जो सच होता है. उसकी रचनाओं में भी समय के सच की ही अभिव्यक्ति होती है और इस दृष्टि से मन्नू जी और सुधा जी –दोनों ही कथाकार अतुल्य हैं. और राजेन्द्र जी भी ईमानदारी से अपने विषय में लिखे किसी भी शब्द को एजांय करते हैं.

मैं नहीं जानता कि मन्नू जी और सुधा जी की निकटता साहित्य आधारित है या उसमें दोनों के कोलकता से होने की भी कुछ भूमिका है. वैसे तो जड़ें कितने ही साहित्यकारों की एक स्थान से जुड़ी होती हैं लेकिन उनमें नैकट्य स्थापित नहीं हो पाता. शायद साहित्य ही वह सूत्र है जो सुधा जी को मन्नू जी तक खींच लाता है. राजेन्द्र जी के साथ मन्नू जी का जब विवाद हुआ मन्नू जी के कितने ही प्रशंसक उनसे विमुख हो गए थे. उस अनपेक्षित विचित्र स्थिति में कुछ ही लोग मन्नू जी के साथ थे और सुधा अरोड़ा जी उनमें से एक थीं .

कुछ उल्लेख्य और महत्वपूर्ण विषयों (जिनका उल्लेख यहां संभव नहीं) की चर्चा के बाद मन्नू जी ने कहा, “और यह स्त्री विमर्श---महादेवी वर्मा, कृष्णा सोबती, मैंने और बाद की पीढ़ी की लेखिकाओं ने जो लिखा क्या उसमें स्त्री विमर्श नहीं था. हम सभी ने वह जीवन जिया और लिखा -----और अचानक स्त्री विमर्श – दलित विमर्श पैदा हो गए—यह सब है क्या---?” मन्नू जी के स्वर में उत्तेजना थी. सुधा जी ने भी उनकी बात का समर्थन किया.

“मन्नू जी, यह बात मैंने अपने एक आलेख में लिखा है---बिल्कुल यही प्रश्न उठाया है. दोनों विमर्शों का उद्भव कुछ रचनाकारों को स्थापित करने के उद्देश्य से हुआ. उद्देश्य सफल रहा. आपने जगदीश चन्द्र के तीन उपन्यास----.” मेरी बात बीच में ही लपक ली मन्नू जी ने, “हां, ’धरती धन न अपना..” सुधा जी ने भी पढ़ने की बात स्वीकार की, लेकिन मैं रुका नहीं, “एक ही पात्र काली पर केन्द्रित उनके तीन उपन्यास हैं---ट्रिलॉजी---’धरती धन न अपना’, ’नरक कुंड में बास’ और ’यह जमीन तो अपनी थी.’ दलित जीवन पर ये इतने उत्कृष्ट उपन्यास हैं कि मेरा दावा है कि किसी दलित लेखक द्वारा दशकों तक ऎसे उपन्यस लिखे जाने की संभावना नहीं है.”

“क्योंकि इनमें जो आगे बढ़ जाता है वह अपने को सवर्ण मानने लगता है.” मन्नू जी ने कहा.

लेखिकाओं से होती हुई बात बांग्ला साहित्य पर आ टिकी. मन्नू जी बोलीं, “बांग्ला की पुस्तकों का मूल्य इतना कम होता है कि पाठक खरीदते हैं. वहां जिस पुस्तक का मूल्य चालीस रुपए होता है, हिन्दी में उतनी ही बड़ी पुस्तक का मूल्य दो सौ रुपए---कौन खरीदे पुस्तकें---. आम पाठक की पहुंच से बाहर हैं हिन्दी पुस्तकें…”

“यदि हिन्दी में सरकारी खरीद बंद कर दी जाए तो रिश्वखोरी बंद हो जाएगी और तब जो कूड़ा-कचरा छपकर सरकारी गोदामों में जमा हो रहा है वह बंद हो जाएगा. खरीद में बैठे अधिकारियों की स्तरहीन पुस्तकें छपनी बंद हो जाएंगी और खरीद कमीटियों में बैठे साहित्यकार-पत्रकारों की दुकानें भी बंद हो जाएंगी और तब शायद प्रकाशक पाठकों को ध्यान में रखकर पुस्तकें प्रकाशित करने लगें.” बलराम अग्रवाल ने कहा.

“सरकारी खरीद में इतना अधिक भ्रष्टाचार है कि लेखक रॉयल्टी के लिए तरसता रहता है जबकि अफसर और खरीद समितियों के सदस्य लाखों के वारे-न्यारे करते रहते हैं. कुछ प्रकाशकों को सत्तर से अस्सी प्रतिशत तक खर्च करना पड़ता है…. इस मामले में लेखक उसी प्रकार उदासीन हैं जिस प्रकार अन्ना हजारे के आंदोलन को लेकर थे.” मैंने कहा.

“अन्ना हजारे से मिलने मैं गयी थी.” उत्साहित स्वर में मन्नू जी ने कहा, “निर्मला (जैन) ने कहा कि हमें चलना चाहिए. मैंने कहा कि साथ में और किसी को भी ले लिया जाए ! मैंने राजी (सेठ) से चर्चा की. राजी तैयार हो गयीं. हम तीनों गए थे रामलीला मैदान .”

“हां, मुझे पता है. मैंने इस विषय में अपने ब्लॉग ’वातायन’ में लिखा था. लेकिन आपके साथ राजी जी भी गयी थीं यह जानकारी मुझे नहीं थी इसलिए उसमें उनका उल्लेख नहीं हुआ था.”

“मन्नू दी , बलराम अग्रवाल ने तो बाकायदा अपनी गिरफ्तारी दी थी.” सुधा जी मन्नू जी की ओर उन्मुख होकर बोलीं.

“जो लेखक सक्रिय थे उनमें मेरे अतिरिक्त चन्देल, रामकुमार कृषक और हरेराम समीप थे. कुछ और भी होंगे लेकिन उनकी जानकारी मुझे नहीं है.” बलराम अग्रवाल ने कहा.

“मैंने नामवर जी से इस विषय में पूछा, लेकिन मेरी बात को वे टाल गए थे.” मन्नू जी ने बताया.

“भ्रष्टाचार से सभी त्रस्त हैं. एक व्यक्ति ने उसके विरुद्ध शुरूआत की---आंदोलन सफल होता है या असफल---यह महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण है एक अच्छी शुरूआत----बीज जब पड़ा है तब पेड़ भी उगेगा ही---समय लग सकता है..” बलराम अग्रवाल ने अपना मत व्यक्त किया. सुधा जी और मन्नू जी ने अपनी सहमति दी.

“लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण सत्य यह है कि लेखक बिरादरी अन्ना आंदोलन का मखौल उड़ा रही थी.” मैंने कहा.

“यह दुखद आश्चर्य है कि छोटी-सी बात के लिए लेखक-समूहों द्वारा विरोध-समर्थन पत्र लिखे जाते हैं. अखबारों में छपते हैं. लेखक संगठन हाय-तौबा मचाते हैं---लेकिन इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर सब चुप थे.” सुधा जी ने दुखी स्वर में कहा.

“मुद्रा राक्षस थे “ मैं बोला, “वह मायावती के साथ थे---दलित लेखकों में कुछ लोग भ्रम फैला रहे थे….कह रहे थे कि अन्ना के एजेंडा में दलित कहीं नहीं हैं. क्या यह सच नहीं कि भ्रष्टाचार का सर्वाधिक शिकार दलित लोग ही हैं---- अन्ना हजारे का मुद्दा भ्रष्टाचार है…दलित–गैर दलित था ही कहां…..यह मुद्दे का राजनीतिककरण था…..बांटो और राज करो की नीति. मैंने ऎसा अनुभव किया था कि कुछ सवर्ण लेखकों को ही नहीं दलित चिन्तक और लेखकों को खरीद लिया गया था. अन्ना का विरोध करने वालों में कुछ वे लोग भी होंगे जो स्वयं नौकरियों में आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हुए होंगे या उनके घर-परिवार के लोग होंगे….जन लोकपाल बिल से उनकी मलाई पर पानी फिरने के साथ उनके जेल जाने का खतरा भी होगा----यह भी एक कारण हो सकता है.“. मैंने अपनी बात रखी.

हमारी बात यहीं तक पहुंची थी कि घंटी बजी. सुधा जी ने दरवाजा खोला और आगन्तुका को देखते ही प्रसन्नता में डूबा उनका स्वर सुनाई पड़ा, “अरे, मनीषा----“ और मनीषा पांडे सुधा जी से गले मिल रही थीं.

सुधा जी ने मनीषा का परिचय दिया. वह कभी मुम्बई में रहती थी. कुछ देर वे अपनी पुरानी यादें शेयर करती रहीं. मनीषा दिल्ली में इंडिया टुडे में काम करती हैं. मन्नू जी ने बताया कि इंडिया टुडे के ताजा अंक में राजेन्द्र जी और उनके साक्षात्कार पर आधारित मनीषा का आलेख प्रकाशित हुआ है.

हमारे रुख्सत होने का वक्त हो रहा था. बलराम अग्रवाल ने कैमरा संभाल लिया. एक के बाद एक उन्होंने लगभग अठारह चित्र खींचे---कुछ मनीषा ने भी खींचे.

जब हम मन्नू जी के घर से निकले शाम के ठीक साढ़े छः बजे थे. लगातार दो घण्टे तक मन्नू जी और सुधा जी ने हमारे साथ जो चर्चा की थी उसकी अमिट छाप मन में लिए हम सड़क पर उतर गए थे. सड़क पर लोगों की भीड़ थी और धुंधलका डी.डी.ए. के उन सेल्फ फाइनेसिंग प्लैट्स से नीचे उतरने को उद्यत था.

-0-0-0-0-

कहानी




कांच के इधर उधर


सुधा अरोड़ा

मैं घर के अंदर दाखिल हुई ही थी कि देखा चिल्की खिल-खिल करती कमरे में चक्कर काट रही है और उसके सिर के ऊपर एक बर्रेनुमा कुछ मंडरा रहा है । पास आई तो देखा , वह बर्रा नहीं , एक बड़ी सी मधुमक्खी थी । सामने बाल्कनी के कांच के दरवाजे़ बंद थे और वह मक्खी कांच के आर- पार दिखती रोशनी से धोखा खाकर , बाहर खुले में निकल भागने की कोशिश में बार बार कांच के दरवाज़े से टकरा जाती ।
‘‘क्या हो रहा है , चिल्की !’’ मेरे मुंह से एकदम निकला , ‘‘ काट लेगी ! हट जा ! ’’ चिल्की ने तो नहीं , मक्खी ने सुन लिया और थक-टूट कर लकड़ी के उस टुकड़े पर जा बैठी जिसे एअर कंडीशनर का खोल बंद करने के लिये लगाया गया था और उस पर करीने से वारली का डिज़ाइन आंका गया था कि वह एअरकंडीशनर का खाली खोल न लगकर चित्रकारी का नमूना दिखे ।
‘‘ दादी , सो क्यूट ना ? ’’ चिल्की उसे निहारती रही , ‘‘ कितनी देर से मेरे साथ खेल रही है ! ’’
मैंने उसके बोलते होंठों पर हथेली रख उसे चुप करवाया और सोफे पर उसे बिठाकर बहुत आहिस्ता बैठक के कोने से सरकते हुए बिना आवाज़ किए आगे बढ़ी कि दरवाजा आहिस्ता से सरका कर खोल दूं कि तभी वह मक्खी फिर उड़ी और मेरे कान के पास से भुन भुन करती हुई गुज़र गई । मैं अपना सिर बचाती झुक कर वापस सोफे पर आ बैठी । चिल्की मज़ा ले रही थी कि दादी कैसी बुद्धू हैं , एक मक्खी से हार जाती हैं । वह होंठ भींचकर फिसफिसाकर हंस रही थी । आवाज़ ज़रा सा बाहर निकलते ही उसने अपनी नन्हीं नन्हीं हथेलियों से अपने होंठों को ढक लिया । मैंने आंखें तरेर कर उसकी ओर देखा तो हंसी को दबाते हुए उसने उड़ती मक्खी की ओर अपनी हथेली को ,नर्तन की मुद्रा में ,घुमाया और बुदबुदा कर बोली -‘हुं हुं ....दादी को इस से डर लगता है !’ और फिक् से हंस दी जैसे कह रही हो - यह भी कोई डरने की चीज़ है !
तब तक मक्खी कमरे के दो तीन चक्कर लगाकर कांच के दरवाज़े से एक बार और टकरा चुकी थी । चिल्की के मुंह से तपाक से निकला - ‘‘ओह शिट! शि विल गेट हर्ट !’’ ( उसे चोट लग जाएगी ! )
एक बार फिर मक्खी दीवार के एक कोने में फड़फड़ाकर बैठ गई ।
मैंने चिल्की को कहा - ‘‘ तू बिल्कुल चुप बैठ जा। मैं दरवाज़ा खोलती हूं । ’’
चिल्की ने मुझे ढाढ़स बंधाया -‘‘ दादी , ‘उसको’ आपसे डर लगता है । आप क्यों डरते हो उससे ? ’’ और शरारती निगाह से मेरी ओर देखने लगी ।
मैंने उसे कहा -‘‘ तू अंदर जा और मैं इसे बाहर करती हूं ।’’
चिल्की ने आश्वस्त भाव से ‘ना’ में सिर हिला दिया । उसे डर थोड़े ही लगता है , क्यों जाये वह , आपको जो करना हो , करो । आखिर दोबारा मैं सिर झुका कर दबे पांव आगे बढ़ी और धीरे से एक दरवाज़ा स्लाइड कर सरकाया , फिर दूसरा और उसके जाने के लिये बाहर के खुले आसमान और दीवारों से घिरे कमरे के बीच की आड़ हटा दी और अपने इस करतब में सफल होने पर चैन की सांस ली । मक्खी तब तक शायद कई बार कांच के दरवाज़े से टकरा टकरा कर थक चुकी थी । वह उस कोने में बैठी ही रही ।
चिल्की के पास आकर जैसे ही मैं सोफे पर जाकर बैठी , वह फुसफुसाकर कहने लगी -‘‘ देखा ! उसके विंग्स कैसे गोल्डन हैं , शी इज़ सो क्यूट ! ’’
मैंने खीझकर कहा - ‘‘ अब ‘शी’ है कि ‘ही’ , क्या मालूम ! मक्खी नहीं , मक्खा है , इतना बड़ा ..... ! ’’
हम दोनों की आंखें उस पर टिकी हुई थीं । इस बार वह जो उड़ी तो कमरे के दो अंधे चक्कर लगाकर कांच के दरवाज़े से टकराने के बजाय सीधा बाहर हवा में जज़्ब हो गई । वह बाड़ हट चुकी थी जिसके धोखे में वह दरवाज़े की किसी अधखुली फांक से कमरे के अंदर घुस आई थी ।
चिल्की ने मुझे कुछ ऐसे उखड़े हुए अंदाज़ में देखा जैसे मैंने उसकी किसी बहुत प्यारी चीज़ को खिड़की से बाहर फेंक दिया हो ।
तब तक कमरे की घंटी बजी और शोभाबाई हाथ में झोला लेकर अंदर घुसी । शोभा जिसने पिछले सात सालों से इस घर को ‘घर’ बना रखा था । नौ वारी लांग वाली धोती पहने शोभा घड़ी की सुई देखकर हर काम वक्त पर निबटा देती । चिल्की उसे बड़े प्यार से ताई बुलाती थी । मैंने शोभा को ज़रा डपटते स्वर में कहा -‘ कहां चली गई थी । मेरे आने तक रुकना था न ! यहां इतनी बड़ी मक्खी घुस आई थी और यह तेरी ‘मैडम’ उसके साथ खेल रही थी । काट लेती तो ?’
‘ ममीजी , जरा टमाटर लेने को अब्बी गई थी निच्चे । बेबी बोली - मी कार्टून भखती ! .... और ये मक्खी तो कब्बी कब्बी आती ई रेती ए। ‘ शोभाबाई मसखरी करने के अंदाज़ में बोली - ‘ अपना खोली का रस्ता भूल जाती , इस वास्ते चली आती । होएंगा खोली आजू बाजू ! काटती बीटती नई। बस , आने का , जाने का । बेबी के साथ मस्ती करने को आती .....’ और वह भी बत्तीीसी दिखाती हंस दी।
चिल्की उसके जवाब से खुश हो गई - ‘‘ और ताई , दादी को न डर लगता था उससे ! .....ऐसे .....ऐसे सिर नीचे कर .....चलती थी !’’ और वह मेरा स्वांग रचती झुक कर दादी बनी चलने लगी । दोनों जोर से हंसी और चिल्की को हंसते हंसते खांसी का दौरा पड़ गया ।
‘‘ इसको सुबह सितोपलादि दिया कि नहीं ?’’ मेरे पूछने पर बाई षिकायत पर उतर आई -‘‘ बेबी कू पुच्छो ! ये खाती किदर ?’’
‘‘ छिः , कड़वी दवाई ! ताई ठीक से शहद नहीं डालती ......’’ चिल्की को फिर खांसी छूट गई ।
‘‘ अरे , दवा खाने का कि खाली ‘मध’ खाने का । इतना मिट्ठा डालेंगा तो औषद फायदा नईं करेंगा !’’ ‘‘ शोभा , डाल दो न शहद ! मुझे दो ! मैं खिलाती हूं । ’’
‘‘ नई नईं , मी देती अब्बी। हे चिल्कू बेबी , चल इकड़े आ ! ’’ और शोभा चिल्की को खींचती हुई अपने साथ रसोई में ले जाने लगी ।
चिल्की तब तक रानी मधुमक्खी के प्रभामण्डल से बाहर आ चुकी थी । अब उसे अपने साथियों की याद आई - ‘‘ दादी , भीमा और रेषमा को क्यों नहीं लाते साथ ? यू प्रामिस्ड मी कि आज उनको लेकर आओगे ! कितने दिन से वो दोनों नहीं आये ! ‘‘
चिल्की का दिमाग़ शुरु से ही बहुत चैकन्ना था । कोई भी बात वह आसानी से भूलती नहीं थी । कल मैंने उसे टाल दिया था पर आज फिर वह उन दोनों बच्चों को याद कर रही थी ।
‘‘ आज गार्डेन में मिलेंगे न उन दोनों से , ठीक ? ’’ मैंने चिल्की को आश्वस्त किया ।
जैसे ही मैं अपने बिस्तर पर लेटी , मेरी आंखों के सामने दोनों बच्चे अपने हाव-भाव और चेहरे-मोहरे सहित उपस्थित हो गये थे ।
0 0
भीमा और रेशमा - हमारे घर के सामने बने मोबाइल क्रेश में सुबह नौ बजे से पांच बजे तक पढ़ते- खेलते-रहते बच्चों के हुजूम में से दो बेहद ज़हीन बच्चे - जिनके मां बाबा दोनों मजदूरी करते थे । इस टावर में आते ही प्रतिमा दी के आदेश पर मैंने यह क्रेश ज्वायन कर लिया था । प्रतिमा दी कलकत्ताा के कालेज में मेरी सीनियर थीं । पति के असमय देहांत के बाद , मजदूरों के बच्चों की देखभाल में , उन्होंने अपने को पूरी तरह झोंक दिया था । यह मोबाइल क्रेश उनकी ही दौड़ धूप का नतीजा था । चिल्की अपने प्ले स्कूल से निकलकर डे स्कूल में जाने लगी तो मेरा दोपहर का खाली समय क्रेश में इन बच्चों के साथ बीतने लगा। कुछेक दिन बाद ही मैंने देखा कि लगभग चालीस बच्चों की उस भीड़ में खूब बड़ी बड़ी चमकती आंखों वाले ये पांच - सात साल के दो बच्चे अलग ही दिखाई दे जाते थे । एक दिन बोर्ड पर देवनागरी के वर्णाक्षर लिखने के बाद मैंने रेशमा को अपने पास बुलाया और कहा - मैं जो जो अक्षर बोलूं , उसे ब्लैक बोर्ड पर लिख कर दिखाओ । मैंने कहा - क । उसने लिखा । कहा - ल । वह भी उसने ठीक लिखा । मैं बोलती गई । वह लिखती गई । उसकी मेधा पर मैं हतप्रभ थी । अब दूसरे बच्चे को बुलाया । वह दो अक्षर लिख कर ही बगलें झांकने लगा । दस बारह अक्षर और लिखवा चुकने के बाद मैंने रेशमा से पूछा - तुम्हें इतने कम दिनों में सब याद कैसे हो गया , इस बच्चे को और पूरी कक्षा को बताओ । उसने मेज पर पड़ा स्केल उठाया और मुंह से कम और हाथों के इंगित से ज़्यादा मशीन की तरह झट झट बोलती चली गई - क मंझे एक डंडा , इधर एक वाटी अणी गाय ची पूंछ । व मंझे एक डंडा अणी फक्कत एक वाटी । हर अक्षर का बाकायदा उसके पास हस्तअभिनय के साथ बताने के लिये एक चित्र था । ..... मैंने उसे अपने बैग से निकालकर एक बिस्किट का पैकेट और किटकैट चॉकलेट दी तो सबकी ओर एक गद्गद् निगाह डालकर वह इतराती हुई बैठ गई । सब बच्चों को मैंने कहा कि आप लोग भी रेशमा की तरह सब अक्षर ठीक लिखेंगे तो सबको चॉकलेट मिलेगी । पढ़ाई के एवज में दोपहर का खाना तो उनको मिलता ही था पर उसमें सिर्फ एक सब्जी ,दाल ,चावल और दही रहता , कभी कभी मिठाई का एक टुकड़ा भी , पर चॉकलेट उनके लिये बेशकीमती चीज़ थी जो अच्छा काम करने या पढ़ाई करने के पुरस्कार स्वरूप ही मिलती थी ।
खाने का ब्रेक होते ही कुछ बच्चे सबकी नज़र बचाकर दूसरे कमरे में मेरी मेज़ के इर्द गिर्द जैसे एक राज़ खोलने की कोशिश में पास आये - ‘‘ टीचर-टीचर , रेशमा का पप्पा न मूका है इसके लिये वो ऐसे-ऐसे हाथ से बात करती है ! ’’ बच्चों के स्वर में ईर्ष्या का पुट तो समझ में आ रहा था पर बात मेरी समझ में नहीं आई - ‘‘ मूका मतलब ?’’
-‘‘ मूका मतलब वो सुनता-बोलता नहीं । वो गूंगा है !’’
- ‘‘ अच्छा ? पर इसके लिये तो तुमलोगों को रेशमा और भीमा से और ज़्यादा मेल से , प्यार से रहना चाहिये , है न ? ..... चलो , जाकर खाना खाओ नहीं तो खाना खत्म हो जाएगा ! ’’
बच्चे अन्यमनस्क से सिर हिलाते चले गये और मैं सोच में पड़ गई । इतने छोटे बच्चों में भी एक सहपाठी की तारीफ से झट से उसे नीचा दिखाने का भाव आ गया जबकि वह सहानुभूति का पात्र था । उस शाम जब बच्चों की मांएं या पिता अपने अपने बच्चे को लेने आये तो मैंने रेशमा और भीमा की मां को ध्यान से देखा । इशारे से मैंने उसे बुलाया । उसके माथे पर एक भी सलवट नहीं और चेहरे पर एक अजब सा संतोष और सुकून का भाव था जो आम तौर पर मजदूरिनों के चेहरे पर कम ही दिखता है । वह घबराती हुई पास आई - ‘‘ रेशमा भीमा ने परेशान किया टीचर तुमको ?’’
‘‘ अरे नहीं , तुम्हारे बच्चे तो सबसे होशियार हैं पढ़ने में । ........ मुझे तुमसे यह पूछना था कि तुम्हारा मरद क्या ......... वह बोलता .... सुनता नहीं ? ’’ मैंने हिचकिचाहट से पूछा ।
‘‘ हां , व्वो ऐसाच है शुरु से ! ’’ उसने बग़ैर किसी हील हुज्जत के , मुस्कुराकर बताया ।
‘‘ पर तुम तो ठीक हो । ऐसे आदमी के साथ शादी कर दी तुम्हारे मां बाप ने ? ’’
‘‘ वो लोग नईं किया । मी स्वतः लगन केली ! ’’ वह उंगली में आंचल का सिरा लपेटते शरमाते हुए बोली - ‘‘ हमारा प्यार का शादी होता , टीचर !’’ और उसकी चमकती आंखें मेरे चेहरे पर टिक गईं ।
‘‘ अच्छा ! बहुत अच्छी बात है ! ’’ मैं शर्मिंदा सी हुई । अपनी झेंप को छिपाते बोली - ‘‘ कभी लेकर आना उसको ! वैसे तुम ..... मतलब ... वो अच्छा है न ..... खुश हो न ? ’’
‘‘ फार चांग्ला आहे ! टीचर ! ’’ वह उमग कर बोली ,‘‘ कब्भी दारू नईं , मार-पीट नईं , बीड़ी -तमाखू नईं , तीन पत्ती नईं ! बच्चे लोग को लेकर बैठने का टी वी के सामने । मेरे कू भोत मानता ! जो भी पका कर देगा , अच्छे से खाने का , कब्भी गुस्सा नई किया मेरे कू ! ’’ ..... और वह दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन की मुद्रा में बोली - ‘‘ मी जाऊं ? ’’ रेशमा और भीमा अपना बस्ता संभाले मां के इर्द गिर्द आकर खड़े हो गये थे ।
0 0
गर्मी की छुट्टियां होने वाली थीं । स्कूल का आखिरी दिन था । बच्चों को लेने उनकी मां नहीं , उनका पप्पा आ गया । समय से पहले ही । वैसी ही बच्चों जैसी बड़ी बड़ी बोलती आंखें । मूका - जिसके कान और ज़बान का काम भी आंखें करती हैं इसलिये आंखें ज़्यादा सक्रिय और उजली दिखती हैं । हथेली से सिर ढकने की क्रिया और फिर माथे पर घने ताप का इशारा कर उसने समझा दिया कि उसकी औरत को तेज़ बुखार है , इसलिये वह इन्हें ले जाने आया है । वैसे तो खोली पास ही है , बच्चे खुद भी कूदते फांदते चले जा सकते हैं लेकिन उसने आज काम से छुट्टी ली । यूं भी दिहाड़ी का काम है । छुट्टी लेना मुश्किल नहीं है । उसकी औरत तो गार्डेन में कायम का काम करती है । उसका कार्ड बना हुआ है । महीने की पगार मिलती है । वैसे तो दस साल से वह भी इसी पुताई के काम में है पर काम पक्का नहीं । सबके कान्ट्रैक्ट के काम है । ठेकेदार को सस्ता पड़ता है । कोई जवाबदेही नहीं । जिम्मेदारी नहीं । दिहाड़ी का काम बीस के लिये , पीछे खड़े मजूर पचास । रोज दिन का तीन सौ । ये जितने टावर दिखाई देते हैं न , सबकी दीवारों पर उसके हाथों से रंग का ब्रश चला है । जो काम दूसरे मजूर आठ घंटे में करते हैं , वह पांच घंटे में कर देता है । जोखिम का काम तो है पर अब इतना हाथ सध गया है उसका , कि बांस पर एक पैर पर खड़ा हो सकता है - बताते हुए वह हंस दिया । इंगित में बात करने का शहंशाह था वह। जैसे किसी स्कूल में उंगलियों और आंखों के जरिये संवाद करने की बाक़ायदा ट्रेनिंग ली हो ! वह लगातार अपनी आंखों और उंगलियों से बोल रहा था और मैं अपनी समझ भर उसकी बात समझ ही रही थी । यह भी समझ पा रही थी कि कैसे इसकी बोलती आंखों ने एक खूबसूरत कोंकणी कन्या का दिल जीत लिया होगा । ऐसा जीवंत मूका कि उसे मूका कहना खलने लगा । लगा कि पांच दिन मेरे पास आकर इसने बात की तो मुझे भी मूक-बधिर संवाद कला में पारंगत बना देगा । वह जाने लगा तो मैंने उसके सिर पर हाथ रखा । गद्गद् होकर अपने दोनों बच्चों की उंगलियां थाम अपनी खास अदा में बतियाता वह चल दिया ।
0 0
छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुला तो मैं तीन दिन देर से पहुंची । चूंकि मैं अवैतनिक स्वैच्छिक काम करती थी इसलिये स्कूल की शिक्षिकाओं पर लागू किये गये कायदे कानून से मैं बाहर थी । स्कूल पहुचते ही सुपरवाइज़र ने हादसे की खबर दी । बीस दिन पहले मूका चालीस मंजिल के नये टावर में काम करते हुए चैंतीसवें माले से गिर गया था और घटनास्थल पर ही उसकी मौत हो गई थी । मेरी धड़कन उस पल थम गई और कानों में बहरेपन की सीटियां सी गूंजने लगीं । मुझे अपने सुने हुए पर भरोसा नहीं हुआ । ऐसा हुआ कैसे ? वह तो अपने काम में पारंगत था , फिर ऐसी चूक ? उसने बताया कि पुताई का काम खत्म हो चुका था , बंधे हुए बांस उतारे जा रहे थे । ऊपर से नीचे तक उतारे जाते बांस में से एक बांस ऊपर वाले मजदूर के हाथ से फिसल कर गिरा । वह चिल्लाया भी पर मूका सुन नहीं सकता था । बांस उसके सिर पर चोट करता हुआ नीचे जा पड़ा और मूका इस अप्रत्याशित चोट से संतुलन खो बैठा । उसके बाद की घटनायें और ज़्यादा परेशान करने वाली थीं । ठेकेदार ने मुआवज़ा देने से मना कर दिया और तैश में आकर कहा - हर मजदूर को सेफ्टी बेल्ट दी जाती है पर वे पहनते नहीं क्योंकि जाहिल हैं , आलसी हैं , पहनने उतारने का झंझट कौन करे ! जान गंवाने पर उनके रिष्तेदार मुआवजे के लिये हमारी गरदन पकड़ लेते हैं , इसलिये हम काम पर लगने से पहले इनसे सुरक्षा फॉर्म पर साइन करवा लेते हैं। उसने अंगूठा लगे हुए कागज़ सामने रख दिये । बात रफा दफा हो गई।
तब तक प्रतिमा दी आकर मुझे अपने केबिन में ले गईं । मुझे परेशान देखकर पहले पानी का गिलास थमाया । बोलीं - ‘‘ यह लड़ाई अब हम सबकी है । उसे अपना हक़ दिलाना हम सब का फ़र्ज़ है । हमलोगों ने किसी तरह मूका की औरत और बच्चों को समझा-बुझा कर यहां रोक रखा है वर्ना वह दोनों बच्चों को लेकर अपने भाई के पास गांव जाना चाहती थी । ठेकेदार झूठ बोलता है । आलस की वजह से ये मजदूर बेल्ट नहीं पहनते , यह सच नहीं है । सेफ्टी बेल्ट ये मजदूर इसलिये नहीं पहनते कि बांसों को उतारते समय हर दो मिनट में तो उनकी पोज़ीशन बदलती है , ऊपर की कतार के बांस उतर गये तो उन्हें नीचे वाली कतार पर जाना पड़ता है । कभी देखा है पुताई के बाद इन्हें बांस उतारते ? कुछ मजदूर रस्सी खोल रहे होते हैं और कुछ एक के बाद एक बांस पकड़ाते जाते हैं , मशीन की तरह बांसों को ऊपर से दायें हाथ से पकड़ने और बायें हाथ से खड़े बांस को घेर कर दोनों हाथों से नीचे खड़े मजदूर के हाथ में थमाते हुए उतारने का सिलसिला जारी रहता है । एक बांस नीचे उतारा नहीं कि दूसरा सिर पे खड़ा । हर पल चैकन्ना रहना पड़ता है । सुस्ताने को एक पल नहीं मिलता इन्हें । और एक दिन में जितना एरिया खाली करना पड़ता है , वह खाली न हो तो दिहाड़ी मजदूर की पगार में कटौती कर ली जाती है । ऐसे में वह क्या करेगा ? काम करेगा या सेफ्टी बेल्ट बांधता खोलता रहेगा जिससे उससे काम की त्वरा में व्यवधान पड़ता है । बेपढ़े लिखे मजदूरों से बारीक बारीक रोमन अक्षरों में लिखे हुए मसविदे पर अंगूठा लगवा लेना कौन सा मुश्किल काम है ! उसे तो दिन भर की मशक्कत के बाद बस , तीन सौ रुपये अंटी में आने भर से मतलब होता है । सरकस के जोकर की तरह ,जान को जोखिम में डालकर ,वे बांसों के साथ कलाबाजी करते रहते हैं । पर सरकस में तो सुरक्षा के लिये नीचे जाल बिछा होता है , यहां तो सीमेंट कंक्रीट की ऐसी लोहे सी ज़मीन है कि पचास किलो का वज़न धुर छत से गिरे तो भी ज़मीन पर एक तरेड़ नहीं पड़ती। ऐसे में एक ज़िन्दगी की कीमत कितनी ? बस , फॉर्म पर लगाया एक अंगूठा । हमने एडवोकेट रुखसाना से बात की है। उन्होंने केस दर्ज़ कर दिया है।
कक्षा में पहुंचते ही माहौल में अजीब सा भारीपन महसूस हुआ । रेषमा और भीमा मुझसे नज़रें चुरा रहे थे और आंखें ज़मीन पर गड़ा कर बैठे थे । मैं उनके पास गई और उन्हें जैसे ही छुआ , वे मुझसे लिपट कर जोर जोर से रोने लगे । उनके रोने का सुर तेज़ होते होते पप्पा और आई की गुहार में बदल गया । मैंने दोनों बच्चों को अपने साथ घर ले आने की इजाज़त मांगी तो प्रतिमा दी ने कहा - ‘‘ज़रूर ले जाओ , इनका मन भी बहल जाएगा।’’
0 0
घर लौटकर मैंने शोभाबाई को मूका के बारे में बताया तो वो कहने लगी -‘‘ ये तो मेरे कू मालूम है , भोत श्याना कारीगर था । पण उसका बच्चा लोक आपका बालवाड़ी में पढ़ता है , ये नईं मालूम था । ’’ रेशमा और भीमा पहले तो घर को अंाखें चैड़ी करके देखते रहे पर जैसे ही षोभाबाई ने उनकी भाशा में उनसे बातचीत की तो वे कुछ सहज हो गये । उनको बड़े प्यार से अपने पास बिठाकर खाना भी खिलाया पर वे ऐसे सकुचाते हुए मुंह में कौर डालते रहे जैसे चुराई हुई चीज़ को छिपा रहे हों । चिल्की खुश हुई कि उसके साथ खेलने के लिये दो बच्चे अब उसके साथ थे । दोनों इतने षांत और डरे सहमे से थे कि उनको सहज करने के लिये वह अपने खिलौनों का पूरा खजा़ना निकाल लाई । उसे मालूम था कि ये चीज़े इन्होंने पहले कभी देखी नहीं हैं । वे अकबकाये से उन्हें पहले दूर से , फिर छू-छू कर देखते रहे ।
0 0
उधर स्कूल में प्रतिमा दी और कई कार्यकर्ताएं मिलकर मुआवज़े की लड़ाई लड़ रही थीं । मैं कभी कभी स्कूल से बच्चों को अपने घर ले आती । चिल्की को रेशमा का साथ मिल गया था जो उसकी उम्र की ही थी पर उससे दुबली थी । एक दिन चिल्की ने अपनी एक फ्रॉक निकालकर रेशमा को पहना दी और मैं जब दोपहर की झपकी लेकर उठी तो देखा रेशमा पीठ कर मेरे सामने खड़ी है और चिल्की हंस रही है - ‘‘ दादी बताओ , ये कौन है ?’’
मैंने कहा -‘‘ वाह , तूने तो रेशमा को चिल्की बना दिया ! ’’
चिल्की ने कहा - ‘‘ मैं इसकी ‘तप्पू हूं और ये मेरी ‘इचकी’! ....पर हम लड़ते नहीं उन लोगों की तरह !’’
वह ‘उतरन’ सीरियल की बात कर रही थी । कभी कभी उसकी मां भी रात को आकर यह धारावाहिक देखती और बच्चों को साथ ले जाती । यह उनकी पसंद का धारावाहिक था ।
0 0
चिल्की को अब अच्छा लगने लगा था । दरअसल मुंबई के बड़े टावर में रहने का निर्णय हमने इसलिये लिया था कि वह अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेलेगी , अपने हमउम्र साथियों में मुतमइन रहेंगी और खाली वक्त उसे परेशान नहीं करेगा । यही सोचकर इस इक्कीस मंजिला इमारत में बेटे ने उन्नीसवें माले पर घर ले लिया था पर चिल्की को हमउम्र बच्चों का साथ यहां भी नहीं मिल पाया था । अधिकांश फ्लैट में अधेड़ दंपति थे जिनके बच्चों ने उन्हें रहने के लिये यह दो तीन बेडरूम वाला राजसी फ्लैट ले दिया था और अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गये थे । कुछेक युवा दंपति ज़रूर थे इस इमारत में , पर उनमें से अधिकांश ने बच्चों को पंचगनी या ऋशि वैली के हॉस्टल में डाल रखा था और वे सिर्फ छुट्टियों के मौसम में इस टावर में दिखाई देते थे । चिल्की को बोर्डिंग में जाना रास नहीं आया था । वहां सब बच्चे उससे ममी के बारे में पूछते और जब वह बताती कि उसकी ममी अमेरिका में नौकरी करती है तो वे झट से कहते - ‘‘ तो तुम्हारे भी ममी पापा साथ नहीं रहते ? दोनों में तलाक हो गया है क्या ? ’’ हॉस्टल में ऐसे बच्चों की तादाद ज़्यादा थी जिनके ममी पापा अलग रहते थे। कच्ची उम्र में ऐसे जुमलों से उसे बचाने के लिये मैंने और मेरे बेटे ने सोचा था कि उसे परेषान करने वाले सवालों से जब तक संभव हो सके , दूर ही रखा जाना चाहिये ।
0 0
एक दिन मैं लौटी तो चिल्की दौड़ती हुई मेरे पास आई - बताओ दादी , मेरे हाथ में क्या है ? उसने दोनों मुट्ठियां कस कर बंधी हुई थीं कि मुट्ठियों में क़ैद चीज़ मुझे दिख न जाये । मैं क्या कयास लगा पाती भला ! मैंने कहा – चॉकलेट ? ऊं हूं ! जेम्स ? ऊं हूं ! मोती ? ऊं हूं ! टॉफीज़ ? ओफ्फोह ! बुद्धू दादी ! देखो ! बेसब्र सी चिल्की ने दोनों मुट्ठियां खोल दीं । उसमें एक हथेली में सुनहरी चमकती गोलियों जैसा कुछ था और दूसरे में रूपहली गोलियां ! मैंने दो तीन दाने उठाये और सूंघने लगी । - ‘‘ ओफ्फोह दादी , ये सूंघने और खाने की नहीं , खेलने की चीज़ है !’’ चिल्की खीझी ।
‘‘ अच्छा ? ’’ मैंने हैरानी ज़ाहिर की -‘‘ कहां से आईं ? ’’
‘‘ ये ना ‘‘मणि’’ हैं , इसको मणि कहते हैं , इसमें छेद करके धागे में डालकर गले में इसकी माला भी पहन सकते हैं ’’ चिल्की मुझे दादी अम्मा की तरह समझा रही थी - ‘‘ और ये ना ..... रेशमा ने बनाईं । कचरे के डिब्बे में कल सारे चॉकलेट्स के रैपर्स पड़े थे न , उनको गोल गोल करके ऐसे ऐसे बना दिया और और देखो ......’’ वह मुझे घसीटती हुई रसोई की ओर ले गई । रसोई के साथ लगे स्टोर रूम की दीवार में खाली डिब्बों को गिफ्ट रैपिंग पेपर्स से लपेट कर एक के ऊपर एक सजा कर उनका घर बना रखा था । एक प्लेट में ये मणियां सजा रखी थीं । एक लंबी सी ट्रे में पानी डालकर स्विमिंग पूल बनाया गया था , उसके किनारे किनारे डॉमिनोज़ पित्ज़ा के डिब्बे में आने वाली प्लास्टिक की छोटी छोटी तिपहिया मेज़ों को सजा रखा था । टूथपिक्स को जोड़कर पेड़ के तने का आकार दिया था । उसके ऊपर छींटदार कपड़ों की कतरनों की भी सजावट कर रखी थी । मैं देखती रह गई । चिल्की मेरे चेहरे पर कौतुक देख तालियां बजाकर हंस रही थी -‘‘ देखा दादी , कितना सुंदर घर बनाया है !’’
- ‘‘पर किसने ? रेशमा ने ?’’
- ‘‘हां दादी , रेशमा ने और मैंने ! अच्छा है न !’’ चिल्की की आवाज़ में खुशी छलकी पड़ रही थी । वह अपने जन्मदिन पर मिले तोहफों को खोलते समय भी इतनी खुश नहीं हुई थी जितना उसके फेंके गये गिफ्ट पेपर और चैकलेट के रैपरों से बने इस अनोखे सजे घर को देखकर हो रही थी ।
- ‘‘ बहुत सुंदर ! शाबाश ! ’’ मैंने रेशमा के गाल पर प्यार से चिकोटी काटी और दोनों लड़कियों की कारीगरी पर निहाल होती रही । लड़कियों की रगों में जन्म से ही यह साज संभाल होती है । टूटी फूटी और कचरे में फेंकने वाली चीज़ों से भी सजाने संवारने का संस्कार अपने आप पैदा हो जाता है । यह ज़रूर रेशमा की कारीगरी थी जो चिल्की को भी लुभा रही थी और इसलिये वह इसे बनाने का श्रेय छोड़ना नहीं चाह रही थी ।
0 0
हमेषा की तरह एक दिन अपने साथ रेशमा और भीमा को लेकर मैं आ रही थी कि वॉचमैन ने सोसायटी के सेक्रेटरी का संदेश दिया कि उन्होंने मुझे सोसायटी ऑफिस में बुलाया है। अर्जेन्ट मीटिंग है । सिर्फ पांच मिनट के लिये आ जायें । मैंने सोचा - हमेशा की तरह लीेकेज का मामला होगा । ऐसे टावरों में - जिस फ्लैट के बाथरूम या किचन में पानी का रिसाव होता है , वह अपने ऊपर के तमाम वाशिंदों को कोसने लगता है । बच्चों को षोभाबाई के पास छोड़कर नीचे गई तो देखा , वहां तीन कमेटी मेम्बर और बैठे हुए थे । मेरे अंदर आते ही सबने एक दूसरे की ओर देखा जैसे तय नहीं कर पा रहे कि किसको बात शुरु करनी है । मैंने उनका असमंजस देख कर पूछा - ‘‘ क्या बात है , कुछ खास ..... ?’’
‘‘ जी ,देखिये मैडम ! ’’ मिस्टर मलकानी बड़े सधे सुर में बोले - ‘‘ आपको तो मालूम है कि हमारा टावर सबसे पहला टावर है ! दूसरे सभी टावरों में तीन तीन लिफ्ट हैं जिनमें से एक सर्विस लिफ्ट है । लेकिन हमारे टावर में अब तक दो ही लिफ्ट हैं । सभी इसी में आते-जाते हैं । ’’
‘‘ हां , तो .....? ’’ बात का सिरा मेरी पकड़ में नहीं आ रहा था ।
‘‘आप मोबाइल क्रेश में काम करती हैं , अच्छी बात है। हमें बहुत अच्छा लगता है कि आप गरीब बच्चों के लिये कुछ कर रही हैं । आप ज़रूर करें । पर ऐसा है कि कामगारों के पढ़ने वाले बच्चे बार बार आपके घर आते-जाते हैं , यह दूसरे लोगों को ठीक नहीं लगता । हम काफी वक्त से तीसरी सर्विस लिफ्ट की प्लैनिंग कर रहे हैं ताकि काम वाली बाइयां , स्टोर से सामान लाने वाले लड़के , कुरियर ब्वॉयज़ और सामान लाने - ले जाने वाले मजदूरों के लिये अलग बंदोबस्त करवाया जा सके । लेकिन जब तक वह लिफ्ट नहीं बनतीं , आप स्कूल तक ही अपना सोशल वर्क रखें , उसे घर पर लेकर न आयें । प्लीज़ बुरा न मानें पर यहां रहने वालों को दिक्कत होती है । आप समझेंगी शायद !’’
‘‘ सॉरी मिस्टर मलकानी ! बच्चे बिल्कुल साफ सुथरे हैं , सलीके से रहते हैं , साफ कपड़े पहनते हैं , किसी से बेअदबी नहीं करते , आप लोगों को उनसे क्या परेशानी है ? ’’ मैं अपना आपा खो रही थी ।
‘‘ मैडम , आप तो बुरा मान गईं । माफ कीजिये , साफ कपड़े देकर आप षक्ल सूरत तो नहीं बदल सकतीं । आप अपनी पोती को बाहर उनके साथ खेलने के लिये ले जाइये , लेकिन बार बार उन्हें यहां लाती हैं , कई लोग हमसे शिकायत कर चुके हैं । हमने सबको प्रॉमिस किया है कि हम आपसे रिक्वेस्ट करेंगे । आप अगर इसे बढ़ाना चाहती हैं तो अगले महीने , ए.जी.एम. में इस मुद्दे पर बात करेंगे । ..... आप जैसा ठीक समझें । ’’
मैं अपमानित महसूस कर रही थी । इसके बावजूद मैंने आश्वासन दिया कि मैं आगे से खयाल रखूंगी । उस दिन के बाद से चिल्की को रेशमा से मिलवाने कभी अपने स्कूल ले जाती , कभी गार्डेन । लगा कि अपनी लिफ्ट में चढ़ते हुए मुझे अपने को ही नहीं , उन बच्चों को अपमानित करने का भी कोई हक नहीं था ।
0 0
रानी मधुमक्खी कमरे से बाहर जा चुकी थी । मैं अपने हाथ का सारा सामान भीतर रखकर , हाथ मुंह धोकर बाहर आई तो सुना , शोभा उसे किस्से कहानी सुना रही थी और चिल्की बड़े ध्यान से दोनों हथेलियों में सिर टिकाये सुन रही थी -‘‘ सच्ची , ये मक्खी कैसे इतना सारा शहद जमा करेगी , इसका मुंह तो इतना छोटा है !’’
शोभा ताई बड़े इत्मीनान से उसे बता रही थी - कैसे यह पूरा इलाका पहले जंगल था और यहां पेड़ ही पेड़ थे , आम के पेड़ों का मीलों तक फैला बागान , किस्म किस्म के पेड़ और उन पेड़ों पर हजारों चिड़ियों तोतों का बसेरा । जहां अब हम रहते हैं न , यहां पहले ये मक्खियां , रंगबिरंगी चिड़ियां , तितलियां , सांप , चीते और सामने दिखते लेक में मगरमच्छ रहते थे । उन्हीं का बसेरा था यह इलाका । रात रात को आराम से घूमते टहलते थे । तब रात को इस रास्ते कोई आता जाता नहीं था । कोई शेर चीता पकड़ के खा जाएगा तो ?
‘‘ यू मीन टाइगर , ताई ? खा जाता है आदमी को ?’’ चिल्की पूछ रही थी ।
‘‘ अब नहीं खाता ! अब तो कोई शेर , चीता भूले भटके आ जाता है तो उसके छिपने के लिये पेड़ और जंगल कहां रहे , अब तो वो मार दिया जाता है ! पेपर में पढ़ते हैं न ! आज शेर को मारा , मगरमच्छ को मारा । पुराना जंगल समझकर ग़लती से बाहर निकल आया था । मर गया ! सांप तो रोज़ ही मारे जाते हैं । ’’ उसे कहानियां सुनाते छोड़ मैं आकर अपने कमरे में लेट गई ।
0 0
शाम को मैं लेटी ही थी कि घंटी बजी । शोभाबाई ने दरवाज़ा खोल दिया होगा । दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ के साथ साथ शोभाबाई मेरे कमरे का दरवाज़ा खटखटा रही थी । अंदर आकर उसने खिड़कियों के पल्ले सरकाकर बंद किये और उन्हें हिलाकर आश्वस्त हो गई कि वे लाॅक हो गये हैं । क्या बात है ? पूछने से पहले ही वह बोली - ‘‘ ऊपर छत्ता तोड़ने वाला घाटी लोग आया , बोला - तोड़ेंगा तो सब मक्खी उडे़गा , इसके लिये दरवाजा जाली सब बंद करने का !’’
‘‘ बिल्डिंग में छत्ताा ? ’’ मैं हैरान थी ।
इंटरकॉम सामने था और पूरी बिल्डिंग के सभी रिहायशियों का सम्पर्क नम्बर भी । मैंने इक्कीसवें फ्लोर पर फोन मिलाया - ‘‘ मिसेज़ रमानी ! क्या आपके घर के बाहर मधुमक्खी का छत्ताा तोड़ा जा रहा है ? ’’ उसने हड़बड़ाकर कहा - ‘‘ हां , सैकड़ों मक्खियां जब देखो तो बैठी रहती हैं , भिन भिन करती हैं । इन लोगों को बुलाया है। सिर मुंह पर कपड़ा बांध रहे हैं अभी ! आप अपनी सारी खिड़कियां बंद कर लो । मैंने सारे लोगों को फोन लगाने को नीचे सिक्योरिटी में कह दिया है । आप उन्नीसवें पर हो , आपको तो खास एहतियात बरतनी पड़ेगी । ’’
‘‘ हां , वो तो बंद कर लिया है पर घर के बाहर की दीवार पर इतना बड़ा छत्ताा बन कैसे गया ? ’’
‘‘ अब क्या बताऊं आंटी ! रोमिल का कमरा है न ! साल हो गया । उसने कभी परदा ही नहीं खोला । जितनी देर घर में रहता है , ए.सी. चलता रहता है । बाहर देखा ही नहीं । वो तो छत्ताा पूरी दीवार जितना बड़ा होने के बाद जब दरवाज़े के कांच पर दिखने लगा , फिर समझ में आया कि क्या आफत आ गई है । खैर जी , आप दरवाज़े बंद कर लेना आंटी ! बाद में कोई कहे ना कि हमें बताया नहीं । ’’
कुछ ही देर बाद बीसवें फ्लोर पर घर्र सी आवाज़ के साथ ड्रिल मशीन जैसे चलनी शुरु हो गई । इस आवाज़ ने फिर वातावरण की
शांति में खलल पैदा किया । रईस औरतों के लिये जैसे कहा जाता है कि उन्हें जब कोई काम धाम नहीं होता तो गहने तुड़वाने , गहने बनवाने लग जाती हैं , वैसे ही इन टावरों के नव धनाढ्य लोगों के लिये भी कहा जा सकता है कि वे फर्श तुड़वाते , फर्श बनवाते रहते हैं । जब काला पैसा छिपाने के लिये जगह कम पड़ जाती है तो वे बाथरूम की टाइलें या बैठक के फ़र्श की पुरानी टाइलें तुड़वाकर नई डिज़ाइनर टाइलें लगवाने पर आमादा हो जाते हैं । इसे झेलना पड़ता है हम जैसे लोगों को , जो बिल्डर की दी हुई दीवारों और फ़र्ष को एक नियामत मानकर उसमें ज़रा सा भी फेरबदल करना गवारा नहीं करते इसलिये दूसरों के घर चलती धूम-धड़ाम ,उठा-पटक , तोड़-फोड़ और उससे पैदा होते षोर के प्रदूषण से हलकान होते रहते हैं । कई बार पड़ोसनें आकर मेरे नुमाइशी फ्लैट के बारे में यह तंजिया ऐलान कर चुकी थीं कि बिल्डर ने कैसी दीवारें और फलोरिंग बनवा कर दी थी , इसे देखना हो तो आंटी का एंटीक हाउस पेशे खिदमत है !
आधे घंटे में फिर शोभा हाज़िर थी -‘‘वो कारीगर लोग आया हय , पूछता हय - ताज़ा ‘मध’ खरीदने का क्या ? सस्ता रेट पर देंगा । बाज़ार में कितना भी किम्मत पर अइसा असल ‘मध’ मिलेंगाच नेई ।
मैं दरवाज़े तक गई तो देखा दो पहलवान नुमा आदमी हाथ में शहद की भरी बाल्टियां लिये खड़े थे - ‘‘ मैडम , जल्दी बोलो , लेने का होएंगा तो ! एकदम शुद्ध मधु । बाहर मिलेंगाच नेई ! ’’
मैंने देखा - शहद से तर ब तर दो बाल्टियां । मैंने कहा -‘‘ जिनके घर में यह छत्ताा तोड़ा , उनको नहीं दिया ? ’’
-‘‘ दिया ना मैडम ! चार किलो लिया वो लोग । आपको लेने का है तो भाव करो !’’
मैंने पूछा - ‘‘ इतना सारा षहद एक छत्ते से निकला ?’’
- ‘‘ एक कायकू । तीन छत्ताा साफ करके आया । बाजू वाला बिल्डिंग में भी होता ! लेना है तो बोलो नहीं तो .....’’
देखूं । मैं कुछ आगे आई । और बाल्टी में देखा तो शहद की ऊपरी तह पर कई मक्खियां दिखीं ।
मैं पीछे हट गई -‘‘ इसमें तो मक्खियां मरी हुई हैं । ’’
-‘‘ मध में से मक्खी नहीं तो क्या तितली जुगनू मिलेगा ? छत्ते से मध निकालेंगा तो सब तो भागता नहीं न ! दस बीस तो पकड़ कर रखता है न मध को । वो ही तो जमा करता है । टाइम खोटी करने का नेई आंटी । तीन सौ रुप्या किलो दिया ! लेने का है तो बोलो ! ’’
शोभाबाई मेरे पीछे खड़ी बोल रही थी - ‘‘ ले लो ममी जी ! चालनी से छान के बाटली में भर के गरम पानी में रखेंगा तो साफ हो जाएगा ।’’
पर बाल्टियों मे भरा शहद और उसके ऊपर अपनी शहादत देती मक्खियां मुझे अजीब सी बेचैनी से भर रही थीं । मैंने जैसे ही ‘‘ना’’ में सिर हिलाया , वो खीझते-बड़बड़ाते हुए निकल गये - ‘‘ आंटी , सोना चांदी च्यवनप्राश खरीदो , इसका किम्मत नईं समझेंगा तुम लोग !’’
वे सीढ़ियां उतर गये तो मैंने राहत की सांस ली ।
0 0
चिल्की की शोभाताई अपनी लाड़ली चिल्की को जूते मोजे पहनाकर तैयार कर रही थी ।
‘‘ चल चिल्की बेटा , आज तुझे मैं गार्डेन में ले जाती हूं । .. .. स्लाइड करेगी न ! ’’
‘‘ वहां रेशमा भीमा आयेंगे न ? ’’ चिल्की की आवाज़ में चहक थी ।
‘‘ हां - हां ! ’’ मैंने चिल्की को आश्वासन देती अपनी आवाज़ को खोखला पाया ।
‘‘ चलो !’’ तब तक चिल्की दरवाज़े के पास आकर प्रस्थान की मुद्रा में आ गई थी ,‘‘बा--य , शोभा ताई , मी आज्जी संग जाती ! ’’ चिल्की ने शोभाताई तक अपनी गुहार पहुंचाई और फुदकते हुए नीचे जाने के लिये लिफ्ट का बटन दबा दिया ।
छोटे दरवाज़े से निकलकर गार्डेन की ओर जाने वाले रास्ते की ओर मैं बढ़ रही थी तो चिल्की ने झट से मेरी उंगलियों को अपनी मुट्ठी में थाम लिया । यह अपने सहारे के लिये नहीं , मुझे सहारा देने के लिये था । एक बार मैं ढलान पर थोड़ा लड़खड़ाई थी , तब से वह छह साल की बच्ची , बाहर सड़क पर आते ही , मुझे संभालना अपनी जिम्मेदारी समझती थी ।
अभी हम पांच कदम चले ही थे कि हमारे कदम यक ब यक थम गये । सामने के पूरे रास्ते पर हज़ारों मक्खियां बिछी पड़ी थीं । मृत । बेजान । निश्चेष्ट । दूर कोने से एक स्वीपर मोटे झाड़ू से उन्हें बुहार रहा था । हवा में अब भी छितरायी गई गैस की गंध थी । तो वह ड्रिल मशीन नहीं थी जो बीसवें फ्लोर पर चल रही थी । वह फ़्यूमिगेटर था , जिसने इक्कीसवें माले पर मधुमक्खी का छत्ताा छेड़ने वाले खास कारीगरों के मक्खियों को हंकालने के बाद आक्रमण से तितर बितर हुई और नीचे-ऊपर की ओर भागती हुई मक्खियों को बीसवें फ्लोर से अपने उपकरण के जरिये जहरीली गैस से खात्मा कर हमेशा के लिये शांत कर दिया था । यह एक सुनियोजित मिशन था जिसके तहत मक्खियां अपने महीनों के बुने हुए छत्ते और जमा किये गये शहद के प्राकृतिक खजाने से बेदखल कर दी गई थीं ।
मेरे पैर थमे और मैं पीछे मुड़ने को हुई । मेरी उंगलियों पर चिल्की की मुट्ठी की पकड़ पहले ढीली होती महसूस हुई , फिर छूटी और वह मूर्तिवत खड़ी रह गई । उसका शरीर जैसे एक कंपकंपी से हिलकने लगा और कुछ सेकेंड बाद ही वह सुबक सुबक कर रो रही थी । मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा तो मेरी ओर उसने ऐसी कातर नज़रों से देखा जैसे कहती हो - दादी , इतनी सुंदर मक्खियों को किसने इतनी बेरहमी से मारा ? दादी , इन्हें मर क्यों जाने दिया ? क्यों ?
चिल्की की मूक आंखों में सवाल था पर उसने कुछ नहीं पूछा । मेरे पास कोई जवाब था भी नहीं । गार्डेन में मूका के दोनों बच्चे रेशमा और भीमा इंतज़ार कर रहे थे । उनके और हमारे बीच रानी मधुमक्खियों की पूरी सेना ध्वस्त पड़ी थी । उनकी दो बारीक काली नोक जैसी मूंछें किसी लोहे की काली तारों की तरह खिंची हुई थीं । उड़ते हुए सुनहरे पारदर्शी पंख अब अंदर की ओर सिकुड़ कर किसी प्लास्टिक की तरह अकड़े हुए थे । कुछ ही मिनटों बाद , कभी आसमान की थाह लेने वाले और अब बेजान बना डाले गये , इन सुनहरे पंखों का ढेर , पार्क के किनारे किनारे बनाये गये ,हरे रंग के खूबसूरत डस्टबिन में बिछे चिकने काले प्लास्टिक के गारबेज बैग में होगा और हम साफ सुथरी सड़क पर बड़े आराम से चल रहे होंगे !
0 0
1702 , सॉलिटेअर , डेल्फी के सामने , हीरानंदानी गार्डेन्स , पवई , मुंबई - 400 076
फोन - 022 4005 7872 / 090043 87272
-0-0-0-

सुधा अरोड़ा

जन्म - अविभाजित लाहौर ( अब पश्चिमी पाकिस्तान ) में 4 अक्टूबर 1946 को जन्म हुआ । 1947 में लाहौर से कलकत्ता आना हुआ और फिर स्कूल से लेकर एम.ए. तक की शिक्षा कलकत्ता में ही हुई ।

शिक्षा - 1962 में श्री शिक्षायतन स्कूल से प्रथम श्रेणी में हायर सेकेण्डरी पास की । 1965 में श्री शिक्षायतन कॉलेज से बी.ए.ऑनर्स और 1967 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी साहित्य ) किया। दोनों बार गोल्ड मेडलिस्ट। पहली लिखित कहानी ‘एक सेंटीमेंटल डायरी की मौत‘ सारिका मार्च 1966 में प्रकाशित। पहली प्रकाशित कहानी ‘मरी हुई चीज़’ ज्ञानोदय सितम्बर 1965 में ।
1967 में छात्र जीवन में ही प्रथम कहानी संग्रह ‘ बगैर तराशे हुए ’ का प्रकाशन हुआ।

कार्यक्षेत्र -
1965 -1967 तक कलकत्ता विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘‘प्रक्रिया’’ का संपादन .
1969 से 1971 तक कलकत्ता के दो डिग्री कॉलेजों -- श्री शिक्षायतन और आशुतोश कॉलेज के प्रातःकालीन महिला विभाग जोगमाया देवी कॉलेज में अध्यापन .
1977 - 1978 के दौरान कमलेश्वर के संपादन में कथायात्रा में संपादन सहयोग.
1993 - 1999 तक महिला संगठन ‘‘हेल्प’’ से संबद्ध.

कहानी संग्रह -
*बगैर तराशे हुए (1967)
*यु़द्धविराम (1977) - छह लंबी कहानियां
*महानगर की मैथिली ( 1987 )
*काला शुक्रवार ( 2004 )
*कांसे का गिलास ( 2004 ) - पांच लंबी कहानियां
*मेरी तेरह कहानियां ( 2005 )
*रहोगी तुम वही ( 2007 )
*21 श्रेष्ठ कहानियां ( 2009 )
*एक औरत: तीन बटा चार ( 2011 )

उपन्यास
यहीं कहीं था घर (2010)
स्त्री विमर्श
* आम औरत: ज़िन्दा सवाल ‘ (2008)
* एक औरत की नोटबुक (2010)
* औरत की दुनिया: जंग जारी है .... आत्मसंघर्ष कथाएं ( शीघ्र प्रकाश्य )
* औरत की दुनिया: हमारी विरासत: पिछली पीढ़ी की औरतें ..........

कविता संकलन -
* रचेंगे हम साझा इतिहास ( 2012 )

एकांकी
ऑड मैन आउट उर्फ बिरादरी बाहर (2011)

संपादन -
* औरत की कहानी (2008)
* भारतीय महिला कलाकारों के आत्मकथ्यों के दो संकलन-‘दहलीज़ को लांघते हुए‘ और ’पंखों की उड़ान‘.
* मन्नू भंडारी: सृजन के शिखर ( 2010 )
* मन्नू भंडारी का रचनात्मक अवदान ( 2012 )
अनुवाद -
* कहानियां लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, फ्रेंच, पोलिश, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी तथा ताजिकी भाषाओं में अनूदित और इन भाषाओं के संकलनों में प्रकाशित ।
* रहोगी तुम वही ( 2008 - उर्दू भाषा में )
* उंबरठ्याच्या अल्याड पल्याड ( 2012 -स्त्री विमर्श पर आलेखों का संकलन मराठी भाषा में )

टेलीफिल्म -
‘युद्धविराम’, ‘दहलीज़ पर संवाद’, ‘इतिहास दोहराता है’ तथा ‘जानकीनामा’ पर दूरदर्शन द्वारा लघु फिल्में निर्मित. दूरदर्शन के ‘समांतर’ कार्यक्रम के लिए कुछ लघु फिल्मों का निर्माण. फिल्म पटकथाओं (पटकथा-बवंडर), टी. वी. धारावाहिक और कई रेडियो नाटकों का लेखन।

साक्षात्कार -
उर्दू की प्रख्यात लेखिका इस्मत चुग़ताई, बंाग्ला की सम्मानित लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी (नलिनी सिंह के कार्यक्रम ‘सच की परछाइयां ’ के लिए) हिन्दी की प्रतिष्ठित लेखिका मन्नू भंडारी, लेखक भीष्म साहनी, राजेंद्र यादव, नाटककार लक्ष्मीनारायण लाल आदि रचनाकारों का कोलकाता दूरदर्शन के लिए साक्षात्कार।

स्तंभ लेखन -
* सन् 1977-78 में पाक्षिक ‘सारिका’ में ‘आम आदमी: जिन्दा सवाल’ का नियमित लेखन
* सन् 1996-97 में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर एक वर्ष दैनिक अखबार ’जनसत्ता‘ में साप्ताहिक कॉलम ’वामा ‘ महिलाओं के बीच काफी लोकप्रिय रहा।
* मार्च सन् 2004 से मार्च 2009 तक मासिक पत्रिका ‘कथादेश’ में ‘औरत की दुनिया’ स्तंभ बहुचर्चित।

सम्मान -

उत्तार प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा 1978 में विशेष पुरस्कार से सम्मानित।
सन् 2008 का साहित्य क्षेत्र का भारत निर्माण सम्मान , प्रियदर्शिनी सम्मान तथा अन्य ।

सम्पर्क: 1702 ,सॉलिटेअर, हीरानंदानी गार्डेन्स, पवई, मुंबई - 400 076.

फोन नं. 022 4005 7872 / 097574 94505

E- mail : sudhaarora@gmail.com / sudhaaroraa@gmail.com

कविताएं









वरिष्ठ कवियत्री और कथाकार सुधा अरोड़ा की

दो कविताएं


दरवाज़ा - दो कवितायेँ

दरवाज़ा - एक

चाहे नक्काशीदार एंटीक दरवाजा हो
या लकड़ी के चिरे हुए फट्टों से बना
उस पर ख़ूबसूरत हैंडल जड़ा हो
या लोहे का कुंडा !

वह दरवाज़ा ऐसे घर का हो
जहाँ माँ बाप की रजामंदी के बगैर
अपने प्रेमी के साथ भागी हुई बेटी से
माता पिता कह सकें --
'' जानते हैं , तुमने गलत फैसला लिया
फिर भी हमारी यही दुआ है
खुश रहो उसके साथ
जिसे तुमने वरा है !
यह मत भूलना
कभी यह फैसला भारी पड़े
और पाँव लौटने को मुड़ें
तो यह दरवाज़ा खुला है तुम्हारे लिए ! ''

बेटियों को जब सारी दिशाएं
बंद नज़र आएं
कम से कम एक दरवाज़ा

हमेशा खुला रहे उनके लिए !
0 0



(बांए से - मन्नू भंडारी,सुधा अरोड़ा और रूपसिंह चन्देल)






दरवाज़ा -- दो

जरी की पट्रटीदार रेशमी साड़ी पर
अपनी उंगलियां फिराते हुए
इतरा रही है !
राखी बांधकर
दिल्ली से लौट रही है बहन
अपने शहर सहारनपुर !

कितना मान सम्मान देते हैं उसे
कह रहे थे रुकने को
नहीं रुकी
इतने बरसों बाद जाने क्यों
पैबंद सा लगता है अपना आप वहां !

इसी आलीशान कोठी में बीता है बचपन
सांप सीढ़ी के खेल में जान बूझ कर हारती थी वह
हर बार जीतता था भाई
और भाई को फुदकते देख
अपनी हार का जश्न मनाती
उसके गालों पर चिकोटियां काटती
रूठने का अभिनय करती !

इसी कोठी की देहरी से
अपने माल असबाब के साथ
विदा हुई एक दिन
भाई बिलख बिलख कर रोया

इसी कोठी के सबसे बड़े कमरे में
पिता को अचानक दिल का दौरा पड़ा
और मां बेचारी सी
अपने लहीम शहीम पति को
जाते देखती रही

पिता नहीं लिख पाये अपनी वसीयत
नहीं देख पाये
कि दामाद भी उसी साल हादसे का शिकार हो गया
और बेटी अकेली रह गयी
इसी भाई ने की दौड़ धूप
दिलायी एक छत
जहां काट सके वह अपने बचे खुचे दिन !
पर छत के नीचे रहने वाले का पेट भी होता है
यह न भाई को याद रहा , न उसे खुद !

मां ने कहा - इस कोठी में एक हिस्सा तेरा भी है
तू उस हिस्से में रह लेना
सुनकर भाई ने आंखें तरेरीं
भाभी ने मुंह सिकोडा
और दोनों ने मुंह फेर लिया !

बस , उस एक साल भाई ने
न अपनी बेटी की शादी पर बुलाया
न राखी पर आने की इजाज़त दी
वकील ने नोटिस के कागज तैयार किये
उसने न मां की सुनीं ,
न वकील की
सांप सीढ़ी का खेल
नहीं खेलना उसे भाई के साथ
और नोटिस के चार टुकड़े कर डाले !
उसने कहा - नहीं चाहिये मुझे खैरात
मैं जहां हूं , वहीं भली
और अपने रोटी पानी के जुगाड़ में
बच्चों के स्कूल में अपने पैर जमा लिये
तब से वहीं है
अपने शहर सहारनपुर !

अब तो अपना एक कमरा भी कोठी सा लगता है ,
बच्चे खिलखिलाते आते - जाते हैं
कॉपी किताबें छोड़ जाते हैं
जिन्हें सहेजने में सारा दिन निकल जाता है
भाई ने अगले साल राखी पर आने का न्यौता दिया
बच्चे याद करते हैं बुआ को
और अब हर साल बड़े चाव से जाती है ,
उसके बच्चों के लिये
अपनी औकात भर उपहार लेकर !

जितना ले जाती है
उससे कहीं ज्यादा भाभी
उसकी झोली में भर देती है !
अब यह सिल्क की साड़ी ही
तीन चार हज़ार से कम तो क्या होगी ,
वह एहतियात से तह लगा देती है ,
अपनी दूसरी भतीजी की शादी में यही पहनेगी !

कितना अच्छा है राखी का त्यौहार
बिछड़े भाई बहनों को मिला देता है ,
कोठी के एक हिस्से पर

हक़ जताकर क्या वह सुख मिलता
जो भाई की कलाई पर राखी बांध कर मिलता है !
मायके का दरवाज़ा खुला रहने का
मतलब क्या होता है

यह बात सिर्फ वह बहन जानती है जो उम्र के इस पड़ाव पर भी इतनी भोली है

कि बहुत बड़ी कीमत चुका कर

अपने को बड़ा मानती है !

-0-0-0-

छोटी कहानियां






वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा की तीन छोटी कहानियां



सुधा अरोड़ा



एक

रहोगी तुम वही


यह कहानी एक पति का एकालाप है जो दो हिस्सों में है । पहला शादी के पांच साल बाद और दूसरा शादी के पंद्रह साल बाद ।

( एक )

‘‘ क्या यह जरुरी है कि तीन बार घण्टी बजने से पहले दरवाजा खोला ही न जाये ? ऐसा भी कौन-सा पहाड़ काट रही होती हो। आदमी थका-मांदा ऑफिस से आये और पांच मिनट दरवाजे पर ही खड़ा रहे...
..........
‘‘ इसे घर कहते हैं ? यहां कपड़ों का ढेर, वहां खिलौनों का ढेर। इस घर में कोई चीज सलीके से रखी नहीं जा सकती ?
...............
‘‘ उफ् ! इस बिस्तर पर तो बैठना मुश्किल है, चादर से पेशाब की गन्ध आ रही है । यहां-वहां पोतड़े सुखाती रहोगी तो गन्ध तो आएगी ही... कभी गद्दे को धूप ही लगवा लिया करो , पर तुम्हारा तो बारह महीने नाक ही बन्द रहता है, तुम्हे कोई गन्ध-दुर्गन्ध नहीं आती ।
...............
‘‘ अच्छा, तुम सारा दिन यही करती रहती हो क्या ? जब देखो तो लिथड़ी बैठी हो बच्चों में। मेरी मां ने सात-सात बच्चे पाले थे, फिर भी घर साफ-सुथरा रहता था । तुमने तो दो बच्चों में ही घर की वह दुर्दशा कर रखी है, जैसे घर में क्रिकेट की पूरी टीम पल रही है ।
...............
‘‘ फिर बही शर्बत ! तुम्हें अच्छी तरह मालूम है - मेरा गला खराब है। पकड़ा दिया हाथ ठण्डा शर्बत। कभी तो अक्ल का काम किया करो। जाओ, चाय लेकर आओ..... और सुनो, आगे से आते ही ठण्डा शर्बत मत ले आया करो। सामने........बीमार पड़ना अफोर्ड नहीं कर सकता मैं। ऑफिस में दम लेने की फुर्सत नहीं रहती मुझे....... पर तुम्हें कुछ समझ में नहीं आएगा.....तुम्हें तो अपनी तरह सारी दुनिया स्लो मोषन में चलती दिखाई देती है.......
...............
‘‘ सारा दिन घर-घुसरी बनी क्यों बैठी रहती हो, खुली हवा में थोड़ा बाहर निकला करो। ढंग के कपड़े पहनो। बाल संवारने का भी वक्त नहीं मिलता तुम्हें, तो बाल छोटे करवा लो, सूरत भी कुछ सुधर जाएगी। पास-पड़ोस की अच्छी समझदार औरतों में उठा-बैठा करो।
...............
‘‘ बाऊजी को खाना दिया ? कितनी बार कहा है, उन्हें देर से खाना हजम नहीं होता, उन्हें वक्त पर खाना दे दिया करो.... दे दिया है ? तो मुहं से बोलो तो सही.....। जब तक बोलोगी नहीं, मुझे कैसे समझ में आएगा ?
.............
‘‘ अच्छा सुनो , वह किताब कहां रखी है तुमने? टेबल के ऊपर-नीचे सारा ढंूढ लिया, शेल्फ भी छान मारा। तुमसे कोई चीज ठिकाने पर रखी नहीं जाती? गलती की जो तुमसे पढ़ने को कह दिया। अब वह किताब इस जिन्दगी में तो मिलने से रही।.... तुम औरतों के साथ यही तो दिक्कत है - शादी हुई नहीं, बाल-बच्चे हुए नहीं कि किताबों की दुनिया को अलविदा कह दिया और लग गये नून-तेल-लकड़ी के खटराग में, पढ़ना-लिखना गया भाड़ में.........
.............
‘‘ यह कोई खाना है! रोज वही दाल-रोटी-बैंगन-भिण्डी और आ....लू। आलू के बिना भी कोई सब्जी होती है इस हिन्दुस्तान में या नहीं? मटर में आलू, गोभी मे आलू, मेथी में आलू, हर चीज में आ....लू। तुमसे ढंग का खाना भी नहीं बनाया जाता। अब और कुछ नहीं करती हो तो कम-से-कम खाना तो सलीके से बनाया करो।.......जाओ, एक महीना अपनी मां के पास लगा जाओ, उनसे कुछ रेसिपीज नोट करके ले आना.....अम्मा तो तुम्हारी इतना बढ़िया खाना बनाती है, तुम्हे कुछ नहीं सिखाया ? कभी चायनीज बनाओ, कॉण्टीनेण्टल बनाओ...खाने में वेरायटी तो हो.....
.................
‘‘ वह किताब जरुर ढूंढ़कर रखना, मुझे वापस देनी है। यह मत कहना -‘भूल गयी’..... तुम्हें आजकल कुछ याद नहीं रहता......
............
‘‘ अब तो दोनों सो गये है, अब तो यहां आ जाओ। बस, मेरे ही लिए तुम्हारे पास वक्त नहीं है। और सुनो...बाऊजी को दवाई देते हुए आना , नहीं तो अभी टेर लगाएंगे........’’
...............
‘‘ आओ, बैठो मेरे पास ! अच्छा, यह बताओ , मैंने इतने ढेर सारे प्रपोजल में से तुम्हें ही शादी के लिए क्यों चुना ? इसलिए कि तुम पढ़ी-लिखी थीं , संगीत - विशारद थीं, गजलों में तुम्हारी दिलचस्पी थी, इतने खूबसूरत लैण्डस्केप तुम्हारे घर की दीवारों पर लगे थे।..... तुमने तुमने आपना यह हाल कैसे बना लिया ? चार किताबें लाकर दीं तुम्हें, एक भी तुमने खोलकर नहीं देखी।.... ऐसी ही बीवियों के शौहर फिर दूसरी खुले दिमागवाली औरतों के चक्कर में पड़ जाते हैं, और तुम्हारे जैसी बीवियां घर में बैठकर टसुए बहाती हैं ?....पर अपने को सुधारने की कोशिश बिल्कुल नहीं करेंगी।
................
‘‘ तुम्हारे तो कपड़ों में से भी बेबी-फूड और तेल-मसालों की गन्ध आ रही है.....सोने से पहले एक बार नहा लिया करो, तुम्हें भी साफ-सुथरा लगे और.......।
...............
‘‘ यह लो , मैं बोल रहा हूं और तुम सो भी गयीं। अभी तो साढ़े दस ही बजे हैं, यह कोई सोने का वक्त है ? सिर्फ घर के काम-काज में ही इतना थक जाती हो कि किसी और काम के लायक ही नहीं रहतीं........’’
.................

( दो )

‘‘ तुम्हारी आदतें कभी सुधरेंगी नहीं। पन्द्रह साल हो गये हमारी शादी को, पर तुमने एक छोटी-सी बात नहीं सीखी कि आदमी थका-मांदा ऑफिस से आये तो एक बार की घण्टी में दरवाजा खोल दिया जाये। तुम उस कोनेवाले कमरे में बैठी ही क्यों रहती हो कि यहां तक आने में इतना वक्त लगे ? मेरे ऑफिस से लौटने के वक्त तुम यहां....इस सोफे पर क्यों नहीं बैठतीं ?
................
‘‘ अब यह घर है ? न मेज पर ऐशट्रे, न बाथरुम में तौलिया...... बस, जहां देखो, किताबें, किताबें, किताबें........मेज पर, शेल्फ पर, बिस्तर पर, कार्पेट पर, रसोई में, बाथरुम में ..... अब किताबें ही ओढ़ें-बिछायें, किताबें ही पहनें, किताबें ही खायें ?......
...............
‘‘ यह कोई वक्त है चाय पीने का ? खाना लगाओ। गर्मी से वैसे ही बेहाल हैं, आते ही चाय थमा दी। कभी ठण्डा नींबू पानी ही ले आया करो।
....................
‘‘ अच्छा, इतने अखबार क्यों दिखाई देते हैं यहां ? षहर में जितने अखबार निकलते हैं, सब तुम्हें ही पढ़ने होते हैं ? खबरें तो एक ही होती हैं सबमें, पढ़ने का भूत सवार हो गया है तुम्हें। कुछ होश ही नहीं कि घर कहां जा रहा है, बच्चे कहां जा रहे हैं......
...........
‘‘ यह क्या खाना है ? बोर हो गये हैं रोज-रोज सूप पी-पीकर और यह फलाना-ढिमकाना बेक्ड और बॉयल्ड वेजीटेबल खा-खाकर। घर में रोज होटलों जैसा खाना नहीं खाया जाता। इतना न्यूट्रीशन कॉन्शस होने की जरुरत नहीं है। कभी सीधी-सादी दाल-रोटी भी बना दिया करो, लगे तो कि घर में खाना खा रहे हैं। आजकल की औरतें विदेशी नकल में हिन्दुस्तानी मसालों का इस्तेमाल भी भूलती जा रही हैं।
...................
‘‘ यह क्या है, मेरे जूते रिपेयर नहीं करवाये तुमने ? और बिजली का बिल भी नहीं भरा ? तुमसे घर में टिककर बैठा जाए, तब न ! स्कूल में पढ़ाती हो, वह क्या काफी नहीं ? ऊपर से यह समाज सेवा का रोग भी पाल लिया अपने सिर पर ! क्यों जाती हो उस फटीचर समाज-सेवा के दफ्तर में? सब हिपोक्रेट औरतें हैं वहां। मिलता क्या है तुम्हें ? न पैसा, न धेला, उल्टा अपनी जेब से आने-जाने का भाड़ा भी फूंकती हो।
..............
‘‘ यह है तुम्हारे लाड़ले का रिपोर्ट कार्ड! फेल नहीं होंगे तो और क्या! मां को तो फुर्सत ही नहीं हैं बेटे के लिए। अब मुझसे उम्मीद मत करो कि मैं थका-मांदा लौटकर दोनों को गणित पढ़ाने बैठूंगा। एम. ए. की गोल्ड मेडलिस्ट हा, तुमसे अपने ही बच्चों को पढ़ाया नहीं जाता? तुम्हें नया गणित नहीं आता तो एक ट्यूटर रख लो। अब तो तुम भी कमाती हो, अपना पैसा समाज-सेवा में उड़ाने से तो बेहतर ही है कि बच्चों को किसी लायक बनाओ। सारा दिन एम. टी. वी. देखते रहते हैं।
.................
‘‘ यह तुमने बाल इतने छोटे क्यों करवा लिये हैं ? मुझसे पूछा तक नहीं। तुम्हें क्या लगता है, छोटे बालों में बहुत खूबसूरत लगती हो ? यू लुक हॉरिबल ! तुम्हारी उम्र में ज्यादा नहीं तो दस साल और जुड़ जाते हैं । चेहरे पर सूट करें या न करें , फैशन जरुर करो ।
..................
‘‘ सोना नहीं है क्या ? बारह बज रहे हैं । बहुत पढ़ाकू बन रही हो आजकल । तुम्हे नहीं सोना है तो दूसरे कमरे में जाकर पढ़ो । मेहरबानी करके इस कमरे की बत्ती बुझा दो और मुझे सोने दो ।
.................
‘‘ अब हाथ से किताब छोड़ो तो सही ! सच कह रहा हूं , मुझे गुस्सा आ गया तो इस कमरे की एक-एक किताब इस खिड़की से नीचे फेंक दूंगा। फिर देखता हूं कैसे.........
................
‘‘ अरे, कमाल है, मैं बोले जा रहा हूं, तुम सुन ही नहीं रही हो। ऐसा भी क्या पढ़ रही हो जिसे पढ़े बिना तुम्हारा जन्म अधूरा रह जाएगा। कितनी भी किताबें पढ़ लो, तुम्हारी बुद्धि में कोई बढ़ोतरी होनेवाली नहीं है । रहोगी तो तुम वही........’’
---------------
-0-0-0-0-

दो


बड़ी हत्या , छोटी हत्या

मां की कोख से बाहर आते ही , जैसे ही नवजात बच्चे के रोने की आवाज आई , सास ने दाई का मुंह देखा और एक ओर को सिर हिलाया जैसे पूछती हो - क्या हुआ ? खबर अच्छी या बुरी ।
दाई ने सिर झुका लिया - छोरी ।
अब दाई ने सिर को हल्का सा झटका दे आंख के इशारे से पूछा - काय करुं ?
सास ने चिलम सरकाई और बंधी मुट्टी के अंगूठे को नीचे झटके से फेंककर मुट्ठी खोलकर हथेली से बुहारने का इषारा कर दिया - दाब दे !
दाई फिर भी खड़ी रही । हिली नहीं ।
सास ने दबी लेकिन तीखी आवाज में कहा - सुण्यो कोनी ? ज्जा इब ।
दाई ने मायूसी दिखाई - भोर से दो को साफ कर आई । ये तीज्जी है , पाप लागसी ।
सास की आंख में अंगारे कौंधे - जैसा बोला , कर । बीस बरस पाल पोस के आधा घर बांधके देवेंगे , फिर भी सासरे दाण दहेज में सौ नुक्स निकालेगे और आधा टिन मिट्टी का तेल डाल के फूंक आएंगे । उस मोठे जंजाल से यो छोटो गुनाह भलो।
दाई बेमन से भीतर चल दी । कुछ पलों के बाद बच्चे के रोने का स्वर बंद हो गया ।
0
बाहर निकल कर दाई जाते जाते बोली - बीनणी णे बोल आई - मरी छोरी जणमी ! बीनणी ने सुण्यो तो गहरी मोठी थकी सांस ले के चद्दर ताण ली ।
सास के हाथ से दाई ने नोट लेकर मुट्ठी में दाबे और टेंट में खोंसते नोटों का हल्का वजन मापते बोली - बस्स ?
सास ने माथे की त्यौरियां सीधी कर कहा - तेरे भाग में आधे दिन में तीन छोरियों को तारने का जोग लिख्यो था तो इसमें मेरा क्या दोश ?
सास ने उंगली आसमान की ओर उठाकर कहा - सिरजनहार णे पूछ । छोरे गढ़ाई का सांचा कहीं रख के भूल गया क्या ? ...... और पानदान खोलकर मुंह में पान की गिलौरी गाल के एक कोने में दबा ली ।

-0-0-0-0-

तीन

डेजर्ट फोबिया उर्फ
समुद्र में रेगिस्तान

दिन , हफ्ते , महीने , साल .... लगभग पैंतीस सालों से वे खड़ी थीं - खिड़की के आयताकार फ्रेम के दो हिस्सों में बंटे समुद्र के निस्सीम विस्तार के सामने - ऐसे , जैसे समुद्र का हिस्सा हों
वे । हहराते - गहराते समुद्र की उफनती पछाड़ खाती फेनिल लहरों की गतिशीलता के बीच एकमात्र
शांत , स्थिर और निश्चल वस्तु की तरह वे मानो कैलेंडर में जड़े एक खूबसूरत लैंडस्केप का अभिन्न हिस्सा बन गयी थीं ।
0 0

‘‘ आंटी , थोड़ी शक्कर चाहिए । ’’ दरवाजे की घंटी के बजने के साथ सात - आठ साल के दो बच्चों में से एक ने हाथ का खाली कटोरा आगे कर दिया ।
बच्चों की आंखो के चुम्बकीय आकर्षण से उन्होंने आगे बढ़कर खाली कटोरा लिया , खुद रसोई में जाकर उसे चीनी से भरा और लाकर उन्हें थमा दिया ।
‘‘ संभालना । ’’ उन्होंने हल्की सी मुस्कान के साथ एक का गाल थपथपाया और जिज्ञासु निगाहों से देखा । पूछा कुछ नहीं ।
‘‘वहां ।’’ बच्चे ने आंटी की मोहक मुस्कान में सवाल पढ़ पड़ोस के फ्लैट की ओर इशारा किया , जो किसी बड़ी कंपनी का गेस्ट हाउस था ,‘‘ वहां अब्भी आये हमलोग ! ‘ दुबाई ’ से .... ’’ विदेशी अन्दाज में ‘ आ ’ को खीचंते हुए बड़ी लड़की ने कहा ।

पीछे से नाम की पुकार सुनकर एक ने दूसरे को टहोका । लौटते बच्चों की खिलखिलाहट को वे एकटक निहारती रहीं । एक खिलखिलाहट पलटी -‘ थैंक्यू आंटी ’ । उन्होंने स्वीकृति में हाथ उठाया और बेमन से मुड़ गयीं खिड़की की ओर । उनके पीछे पीछे हवा में ‘थैक्यू आंटी’ के टुकडे़ तिर रहे थे ।
0 0
तीस साल पहले समुद्र ऐसा मटमैला नहीं था । चढ़ती दुपहरी में वह आसमान के हल्के नीले रंग से कुछ ज्यादा नीलापन लिए दिखता - आसमानी नीले रंग से तीन शेड गहरा । लगता , जैसे चित्रकार ने समुद्र को आंकने के बाद उसी नीले रंग में सफेद मिलाकर ऊपर के आसमान पर रंगों की कूची फेर दी हो । आसमान और समुद्र को अलग करती बस एक गहरी नीली लकीर । डूबता सूरज जब उस नीली लकीर को छूने के लिए धीरे धीरे नीचे उतरता तो लाल गुलाबी रंगो का तूफान सा उमड़ता और वे सारे काम छोड़कर उठतीं और कूची लेकर उस उड़ते अबीर को कैनवस पर उतारती रहतीं - एक दिन , दो दिन , तीन दिन । तस्वीर पूरी होने पर खिड़की के बाहर की तस्वीर का अपनी तस्वीर से मिलान करतीं और अपनी उंगलियों पर रीझ जाती । उन्हे थाम लेते ऑफिस से लौटे साहब के मजबूत हाथ और उनकी उंगलियां पर होते साहब के नम होंठ ।
दस साल बाद एक दिन अचानक ,जब गर्मी की छुट्टियां खत्म होने पर , बच्चे वापस पंचगनी के हॉस्टल लौट गए , उन्हे समुद्र कुछ बदरंग सा नीला लगा जिसमे जगह जगह नीले रंग के धुंधलाए चकत्ते थे । खिड़की के बाहर दिखाई देता समुद्र पहले से भी ज्यादा विस्तारित था । वैसा ही अछोर विस्तार उन्हे अपने भीतर पसरता महसूस हुआ । उनका मन हुआ कि उस सपाट निर्जन असीम विस्तार पर घर लौटते हुए पक्षियों की एक कतार आंक दें जिनके उड़ने का अक्स समुद्र की लहरों पर पड़ता हो । उन्होंने पुराने सामान के जखीरे से कैनवस और कूची निकाली पर कैनवस सख्त और खुरदुरा हो चुका था और कूची के बाल सूखकर अकड़ गए थे । वे बार बार खिड़की के बाहर की तस्वीर को बदलने की कोशिश करतीं पर उस कोशिश को हर बार नाकाम करता हुआ समुद्र फिर समुद्र था - जिद्दी , भयावह और खिलंदड़ा ।

खिलंदड़े समुद्र के किनारे किनारे कुछ औरते प्रैम में बच्चों को घुमा रही थीं । एक युवा लड़की के कमर मे बंधे पट्टे के साथ बच्चे का कैरियर नत्थी था जिसमें बच्चा बंदरिए के बच्चे की तरह मां की छाती से चिपका था ।

‘‘ मुझे अपना बच्चा चाहिए ’’ , साहब की बांहो के घेरे को हथेलियो से कसते हुए उनके मुंह से कराह सा वाक्य फिसल पड़ा ।
साहब के हाथ झटके से अलग हुए और बाएं हाथ की तर्जनी को उठाकर उन्होने बरज दिया , ’’ फिर कभी मत कहना । ये तीनों तुम्हारे अपने नहीं है क्या ? ’’ साहब ने कार्निस पर रखी बच्चों की तस्वीर उठा ली । फ्रेम मे जडी हुई तीनो बच्चो की हंसी के साथ साहब की तर्जनी की हीरे की अंगूठी की चमक इतनी तेज़ थी कि वे कह नही र्पाइं कि उनका बचपन कहां देखा उन्होंने । वे तो जब ब्याह कर इस घर मे आई तो दस , आठ और छः साल के तीनो बेटों ने अपनी छोटी मां का स्वागत किया था और वे दहलीज लांघते ही एकाएक बड़ी हो गयी थी ।

वह अपने दसवें माले के फ्लैट की ऊंचाई से सबको तब तक देखती रहीं , जब तक समुद्र की पछाड़ खाती लहरें उफन उफन कर जमीन से एकाकार नही हो गयीं । सबकुछ गड्डमड्ड होकर धुंआ धुंआ सा धुंधला हो गया ।
0 0
न जाने कब वह खिलंदड़ा समुद्र एकाकी और हताश रेगिस्तान में बदल गया । वे खिड़की पर खड़ी होतीं तो उन्हे लगता - उनकी आंखो के सामने हिलोरें लेता समुद्र नहीं , दूर दूर तक फैला खुश्क रेगिस्तान है । यहां तक कि वे अपनी पनियाई आंखो में रेत की किरकिरी महसूस करतीं वहां से हट जातीं ।
‘ तुम्हें डेज़र्ट फोबिया हो गया है । ’ साहब हंसते हुए कहते ,‘ इसका इलाज होना चाहिए । ’
साहब को अचानक एक दिन दिल का दौरा पड़ा और वह उनका अतीत बन गए । पीछे छोड़ गए - बेशुमार जायदाद और तीन जवान बेटे । उतने ही अचानक उन्होंने अपने को कोर्ट कचहरी के मुकदमों और कानूनी दांवपेचों से घिरा पाया ।

तीनों बेटों के घेरने पर उन्होंने कहा कि उन्हें साहब की जमा पूंजी , फार्म हाउस और बैक बैलेंस नहीं चाहिए , सिर्फ यह घर उनसे न छीना जाए । उन्हें लगा , उनके जीने के लिये यह रेगिस्तान बहुत जरूरी है ।
घर उन्हें मिला पर बच्चे छिन गए । तीनों बेटे अब विदेश में थे और जमीन जायदाद की देख रेख करने साल छमाही आ जाते थे पर आकर छोटी मां के दरवाजे पर दस्तक देना अब उनके लिये जरूरी नहीं रह गया था ।
उन्हें पता ही नहीं चला , कब वह धीरे धीरे खिड़की के चैकोर फ्रेम में जड़े लैंडस्केप का हिस्सा बन गयीं ।
0 0

‘‘ आंटी , हमलोग आज चले जाएंगे - वापस दुबाई ’’ वैसे ही ‘ आ ’ को खींचते हुए बड़ी लड़की ने कहा । ’’ हमारे ग्रैंड पा ’ मतलब नाना हमें लेने आए हैं । चलिए हमारे साथ , उनसे मिलिए । ’’ बच्चों ने दोनो ओर से उनकी उंगलियां थामीं और उनके मना करने के बावजूद उन्हे गेस्ट हाउस की ओर ले चले । इन चार दिनों में बच्चे उनके इर्द गिर्द बने रहे थे ।

सोफे पर एक अधेड़ सज्जन बैठे अखबार पढ़ रहे थे । उन्हे देखते ही हड़बड़ाकर उठे और हाथ जोड़कर बोल पड़े , ‘ बच्चे आपकी बहुत तारीफ करते हैं - आंटी इतनी अच्छी पेन्टिंग बनाती हैं , आंटी की खिड़की से इतना अच्छा व्यू दिखता है . . . . ’’ बोलते बोलते वह रुके , चश्मा नाक पर दबाया और आंखे दो तीन बार झपकाकर बोले ‘‘ अगर मैं गलत नहीं तो .....आर यू ...छवि . . .?

छवि - छवि - छवि ..... जैसे किसी दुर्घटना में इंद्रियां संज्ञाहीन हो जाएं.........वे जहां थीं , वहां खड़ी जैसे सचमुच बुत बन गईं ।
‘‘ हां ... पर आप ... ? ’’ बोलते हुए उन्हें अपनी आवाज़ किसी कुंए के भीतर से उभरती लगी ।
‘‘ नही पहचाना न ? मैं ...महेश । कॉलेज में तुम्हारा मजनू नं. वन ! ’’ कहकर वे ठहाका मारकर हंस पड़े ,‘‘तुम भी अब नानी दादी बन गई होगी - पोते पोतियों वाली ...... अपने साहब से मिलवाओ ..... ’’
उन्होने आंखें झुकायीं और सिर हिला दिया - वे नहीं रहे ।
‘‘सॉरी , मुझे पता नही था ! ’’ उनके स्वर में क्षमायाचना थी ।
‘‘ चलती हूं ...’’ वे रुकी नहीं , घर की ओर मुड़ गयीं ।
पीछे से छोटे बच्चे ने उनका पल्लू थामा - ‘‘ आंटी...... आंटी ... ’’
वे मुड़ीं । बच्चे ने एक पल उनकी सूनी आंखों में झांका , फिर पुचकारता हुआ धीरे से बोला -
‘‘ आंटी , यू आर एन एंजेल ’’ ।
वे मुस्कुर्राईं , पसीजी हथेलियों से गाल थपथपाया , फिर घुटने मोड़कर नीचे बैठ गईं , उसका माथा चूमा - ‘ थैंक्यू ! ’’ और घर की ओर कदम बढ़ाए ।
कांपते हाथों से उन्होंने चाभी घुमायी । दरवाजा खुला । दीवारों पर लगी पेन्टिंग्स के कोनों पर लिखा उनका छोटा सा नाम वहां से निकलकर पूरे कमरे में फैल गया था । कमरे के बीचोबीच वह नाम जैसे उनकी प्रतीक्षा में बैठा था । वे हुलस कर उससे मिलीं और ढह गईं जैसे बरसों पहले बिछडे़ दोस्त से गले मिली हों ।

खिड़की के बाहर रेगिस्तान धीरे धीरे हिलोरें लेने लगा था ।

और फिर ...... न जाने कैसे खिड़की के बाहर हिलोरें लेता रेगिस्तान उमड़ते समुद्र की तरह बेरोकटोक कमरे में चला आया और सारे बांध तोड़कर उफनता हुआ उनकी आंखो के रास्ते बह निकला ।
-0-0-0-0-

मूल्याकंन




सुधा अरोड़ा की पांच कहानियों पर एक टिप्पणी

एकालाप का संवाद हो जाना

मृदुला गर्ग

सुधा अरोड़ा की कहानियों की विलक्षणता यह है कि वे संवाद में संवादहीनता की कथा कहती हैं, बेहद मारक ढंग से । मैं मानती हूँ , पाठक के लिए सबसे सप्रेषणीय लेखन वह होता है, जिसका शिल्प, सहज रूप से , लेखन के दौरान उभरे , ख़ास कर कहानी में । इसी पठनीयता को कहानीपन कहा जाता है, जिसके अभाव में कहानी , आत्मालाप बन कर रह जाती है। मज़े की बात यह है कि सुधा की कहानियों में रहता एकालाप या आत्मालाप ही है ; पर पाठक उसका सप्रेषण , आत्मालाप की तरह नहीं , संवाद की तरह करता है । ऐसा संवाद जो सीधे-सीधे उससे किया जा रहा हो। यानी हर पाठक ख़ुद को एक ख़ास और अहम संवादी मानता है । प्रवक्ता ख़ुद से बोलता है ; कहानी पाठक से बोलती है ।

वैसे प्रवक्ता बोले या सोचे , कथ्य में उससे फ़र्क नहीं पड़ता ; असल चीज़ सोच है । पर शिल्प के लिहाज़ से, स्ट्रीम ऑफ़ कॉनशसनेस में प्रवक्ता को सोचते हुए दिखलाने के बजाय, सुधा का उससे एकालाप करवाना , काफ़ी अर्थवान है । पाठक को वह इस तरह अपनी ज़द में लेता है कि उसे लगता है, सब उसी को सम्बोधित है , कुछ खुसर-पुसर के अंदाज़ में । नतीजतन, वह उसे अधिक पठनीय और मर्मस्पर्शी तरीके से ग्रहण कर पाता है ।

"सात सौ का कोट" में प्रवक्ता दरजी, वाक़ई, पाठकों को सम्बोधित करके एकालाप करता है; पर बाक़ी कहानियों में एकालाप या संवाद पाठक से स्पष्ट तौर पर सम्बोधित न रहने पर भी अन्ततः पाठक को संवादी बना कर छोड़ता है। "रहोगी तुम वही" में पति का एकालाप, ज़ाहिरा तौर पर पत्नी से मुखातिब है। "अन्नपूर्णा मण्डल की आख़िरी चिट्ठी" में अन्नपूर्णा अपनी माँ और बाबा से मुखातिब है, ख़त के ज़रिये पर वह भी अन्ततः पाठक को सम्बोधित हो रहती है।"दहलीज़ पर संवाद" में बूढ़े पति-पत्नी के बीच कानों में एकालाप-सा बजता द्वि-आलाप है, जहाँ ऊपरी तौर पर दोनों करते तो संवाद हैं पर उसकी तह से जो ध्वनि बाहर आती है वह उनके अपने-अपने अकेलापन की है। “ ऑड मैन आउट उर्फ़ बिरादरी बाहर ” में न एकालाप है, न एकालाप-सा बजता द्वि-आलाप, बाक़ायदा कई पात्रों के संवादों से भरपूर कथानक है पर वहाँ भी एक कचोटता अकेलापन पसरा है, जो अन्ततः पाठक को मजबूर करता है कि वह उसे बाँट कर पात्र की क्षति-पूर्ति करे।

(बांए से - मृणाल पांडे,नासिरा शर्मा, मृदुला गर्ग,

सुधा अरोड़ा और चित्रा मुद्गल)


" रहोगी तुम वही " में पति के पास, पत्नी से शिक़ायतों का अन्तहीन भन्डार है , जिन्हें वह मुखर हो कर पत्नी पर ज़ाहिर कर रहा है। रोज़मर्रा की आम बातें हैं। उसे पत्नी के हर रूप से शिक़ायत है; और ये रूप अनेक है। वह उन्हें स्वीकारना नहीं चाहता; इसलिए कहे चले जा रहा है कि रहोगी तुम वही , यानी हर हाल , मेरे अयोग्य । निहितार्थ, न मैं बदल सकता हूँ , न तुम्हारे बदलते स्वरूप को सहन कर सकता हूँ , इसलिए रहोगी तुम वही , मुझ से पृथक । पत्नी के पास कहने को बहुत कुछ है पर लेखक को उससे कुछ कहलाने की ज़रूरत नहीं है ; अनकहा ज़्यादा मारक ढंग से पाठक तक पहुँच रहा है । क्या कोई पाठक इतना संवेदनहीन हो सकता है कि इस विडम्बना को ग्रहण न कर पाये ? शायद हो। मुझे ज़्यादा मुमकिन यह लगता है कि ग्रहण कर लेने के कारण ही , अपने बचाव के लिए वह वही ढोंग करे , जो कहानी का प्रवक्ता पति कर रहा है ।
कहानी का एकालाप करता प्रवक्ता , पति / पुरुष न हो कर , पहली पीढी की स्त्री या पड़ोसिन होती ; समकालीन सहकर्मी होता; चाहे पुरुष या स्त्री, कथ्य वही रहता। यह कहानी पति-पत्नी के असंवाद की कहानी नहीं है; उनके असामंजस्य की कहानी भी नहीं है । यह एक, न बदल सकने को अभिशप्त, ठहरे हुए इंसान की , एक गतिशील इंसान के प्रति ईष्य़ा से उत्पन्न आक्रोश की कहानी है ।

कहानी का अनेक देशों में , अनेक भाषाओं में अनुदित हो कर , मंचित होने का कारण यही है कि वह , गतिहीन व्यक्ति की निष्क्रियता को ललकारती है; संवेदनशील प्राणी को गतिशीलता का सहज बोध करवाती है। संवेदनशीलता या संवेदनहीनता का सम्बन्ध लिंग या जाति से नहीं, मानसिक स्थिति से होता है। पुरुष हो अथवा स्त्री, हिन्दुस्तानी हो या चेक, हर इंसान के लिए संवेदनशीलता कष्टकारी होती है। कायर व्यक्ति उससे पलायन का रास्ता ढ़ूँढ़ता है तो आत्मकेन्द्रित हो जाता है। इस तरह देखें तो यह कहानी हम सब की कहानी है , बशर्ते हम आत्म साक्षातकार को प्रस्तुत हों ।

" अन्नपूर्णा मण्डल की आख़िरी चिट्ठी " और " सात सौ का कोट " सुधा अरोड़ा की अति प्रसिद्ध और आलोचको द्वारा प्रशंसित कहानियाँ हैं। "सात सौ का कोट" एक व्यक्ति के एकालाप के माध्यम से बुनी हुई सामाजिक चेतना की ज़बरदस्त कहानी है। कहानी विलम्बित लय में शुरु होती है। लगता है, औरतों के कपड़े सीने की लाभदायक व्यापारिक मजबूरी को, अपनी इच्छा से झेलता मर्दाना कपड़ों का विशेषज्ञ , दरजी-मास्टर , अपने बदलते परिवेश पर चुटीला व्यंग कर रहा है। उस के माध्यम से , पितृसत्ता द्वारा गढ़ा उसका चेहरा झलकता ज़रूर है पर चूँकि बातें, वह खास ग़लत नहीं कह रहा होता इसलिए वे हमें दिलचस्प और मनोरंजक लगती रहती हैं। पर बात-बात में , बात जहाँ जा पहुँचती है , वह पाठक को हतप्रभ करके , उसी आत्म साक्षात्कार के बिन्दु पर खड़ा कर देती है , जिससे वह कतराने का आ हो चुका है। परदुखकातर सज्जनता का ढ़ोंग करते हुए, स्वार्थी आदमी, अपने सामर्थ्य का किस हद तक दुरुपयोग कर सकता है, कहानी में इतने लयात्मक तरीके से अभिव्यक्त हुआ है कि द्रुत पर आते-आते, वह स्वांग, हमारे रोंगटे खड़े कर देता है। फिर भी , कहानी कहता वही पर-पीड़क प्रवक्ता है , कोई और नहीं । और उसी सज्जनता और सहृदयता का जामा पहन कर । मुख्य द्वार से किसी अन्य पात्र का प्रवेश कहानी में नहीं होता। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी " स्त्रीर पत्र " की तरह , यहाँ कोई अति संवेदनशील स्त्री कथा मंच पर आकर , निरीह पर अत्याचार का विरोध नहीं करती। बल्कि इस अत्याचार में तो पति-पत्नी समेत पूरा मध्यवर्गीय परिवार शामिल है। कोई प्रतिरोध-विरोध नहीं करता , कोई एक शब्द नहीं बोलता , अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करवाता । पर होता यह है कि प्रवक्ता के बखान के माध्यम से ही उस बखान का माध्यम, बन्धुआ बना लिया गया एक निरीह, हास्यास्पद व्यक्ति , सहधर्मिणी पत्नी के साथ, भूत-सा डरावना रूप ले कर, पूरी कहानी पर छा जाता है। अत्याचार करने और सहने दोनों में सहधर्मिता निभाई जाती है न । यह निःशब्द भय इतने सशक्त ढँग से कहानी को अपनी गिरफ़्त में लेता है कि पाठक ही नहीं , उसका ज़िन्दादिल , हँसोड़ , आत्मकेन्द्रित प्रवक्ता भी , अनहोनी की सम्भावना से भय खाये बग़ैर नहीं रह पाता । कहानी का अन्त , उसका एक और सशक्त पक्ष है। सुधा किसी नाटकीय दृश्य या संवाद का उपयोग नहीं करतीं । हँसोड़ , पहले की तरह मुखर और हँसोड़ बना रहता है पर अपनी रौ में , कहानी सुनाते-सुनाते, उस डर का इज़हार कर जाता है , जो अपार्थ के भीतर सुलगती प्रतिशेध की आग से , पाठक का साक्षातकार करवा देता है । इस तरह वह एकालाप, सज्जनता के खोल में छुपी हिंसा और परपीड़न का सार्वभौमिक दस्तावेज़ बन जाता है ।

"अन्नपूर्णा मण्डल की आख़िरी चिट्ठी" मैंने पढ़ी भी है और कई बार सुधा के मुख से उसका पाठ भी सुना है । सुनते-पढ़ते, कुछ समय बाद संवेदनशील पाठक-श्रोता ख़ुद को केंचुए में तब्दील होता महसूस करने लगता है । भाई की देखा-देखी , मैके में छोटी लड़की केंचुएं मारने का दुःसाहस कर सकती है। पर ससुराल पहुँच पूरी तौर पर औरत यानी बहू-बीवी-माँ बनते ही, वह हर केंचुए में अपनी ही नहीं, हर औरत की छवि देखने पर मजबूर हो जाती है । बेटे की जगह दो मरियल बेटियों को इकट्ठा जन्म दे कर वह ऐसा बेमुआफ़ गुनाह कर बैठती है कि कुचले जाने के सिवा रास्ता नहीं बचता। उसकी ख़ुदकुशी, ख़ुदकुशी नहीं, एक सामूहिक नारी-संहार है । अजब है न, हम नरसंहार की ख़ूब बातें करते हैं पर नारी का नाम आते ही मुद्दा सामूहिक बलात्कार बन जाता है , संहार नहीं। जैसे उसकी मृत्यु का कोई अर्थ न हो । यह कहानी हमारे भावात्मक संसार का संहार करती है । पाठक या श्रोता माँ-बाबा बन, अन्नपूर्णा की चिट्ठी पढ़ता-सुनता है और भीतर-भीतर मरता है क्योंकि जाने रहता है कि वह कुछ करने वाला है नहीं। आख़िर वह भी तो केंचुए से बेहतर नहीं है ; उसे भी तो एक दिन कुचला जाना है ।

" दहलीज़ पर संवाद " के बूढ़े पति-पत्नी बोलते हैं तो लगता है , अकेलापन बँट नहीं रहा, बढ़ रहा है। पाठक फिर श्रोता बनने पर मजबूर हो जाता है। सोचता है , क्या वह किन्हीं और लोगों की बातें सुन रहा है या सब उसके अपने दिमाग़ में उपजी ख़ुराफ़ात है। सच्ची , कड़ुवी और लाइलाज ।

" ऑड मैन आउट उर्फ़ बिरादरी बाहर " कहानी के शीर्षक का द्विभाषी होना संयोग नहीं , सप्रयोजन है क्योंकि उसमें कहानी का कथ्य अन्तर्निहित है । मंचस्थ नाटक की तर्ज़ में कहानी के मंच पर कमउम्र बच्चे हैं , नेपथ्य में उनके माँ-बाप या कहें , तरेड़ खाया आज का शहरी मध्यवर्गीय समाज । पात्र एक-दो नहीं , अनेक हैं पर मानीखेज़ किरदार सिर्फ़ एक है। उसे विषमता कह सकते हैं या बिरादरी के भीतर या बाहर होना। पर उसकी हक़ीकत "ऑड मैन आऊट " पद से ही उजागर हो सकती थी क्योंकि इस बिरादरी के भीतरी जन हिन्दी का मुहावरा समझने में असमर्थ हैं ।
इन पाँच कहानियों में यह एक अकेली सकारात्मक कहानी है, जहाँ प्रमुख प्रवक्ता, बिरादरी बाहर बने रहने का निर्णय ख़ुद लेती है, अपनी खुशी से। नकारात्मक कविता के व्यंग्य को पात्र ही नहीं पाठक भी हृदयंगम करके आशवस्त महसूस करता है।
" कुछ सीखो गिरगिट से
जैसी शाख वैसा रंग
जीने का यही है सही ढंग!
अपना रंग दूसरों से अलग पड़ता है तो
उसे रगड़-धो लो
जैसी है दुनिया
उसके साथ हो लो
व्यंग्य मत बोलो ! "

यह पाँच कहानियाँ सुधा के दो कहानी संग्रहों , " काला शुक्रवार " और " रहोगी तुम वही " से ली गई हैं। आप चाहें इसे मेरा खब्त मानें पर मैं मानती हूँ कि समीक्षा, किसी एक कहानी संग्रह की नहीं , एक लय में बँधी चुनिंदा कहानियों की होनी चाहिए।

मृदुला गर्ग
ई 421(भूतल)
ग्रेटर कैलाश 2, नई दिल्ली 110048 .
-0-0-0-0-0-

समीक्षा




आधी आबादी की पूरी कहानी -”एक औरत: तीन बटा चार‘‘
0 शालिनी माथुर

हिन्दी साहित्य में किताबों की बढ़ती कीमतें और पाठकों की सिमटती संख्या का हमेशा रोना रोया जाता है पर किसी प्रकाशक ने इस दिशा में कभी पहल नहीं की । इस दृष्टि से जयपुर के बोधि प्रकाशन की चर्चित रचनाकारों की स्तरीय किताबें पाठकों तक कम कीमत में पहुंचाने का स्वागत हर ओर से किया जा रहा है । सन् 2010 में कुछ लेखकों की 80 से 96 पष्ठों की पेपरबैक किताबें दस दस रुपये में प्रकाशित की गई थीं। इस साल जून 2011 में दस महिला रचनाकारों की कृतियों का एक सेट पाठकों को सौ रुपये में ( यानी एक पुस्तक दस रुपये में ) उपलब्ध करवाने का बोधि पुस्तक पर्व का अनुष्ठान स्वागत योग्य है । इसमें मन्नू भंडारी की चार लंबी कहानियों का संकलन - करतूते मरदां है , ममता कालिया का विविध टिप्पणियों का संग्रह - पढ़ते लिखते रचते है और चित्रा मुद्गल का पाटी और सुधा अरोड़ा की चैदह चर्चित छोटी कहानियों का संकलन - एक औरत: तीन बटा चार है ।

हमारे समय की बहुचर्चित और प्रतिष्ठित कथाकार सुधा अरोड़ा एक लम्बी लेखकीय यात्रा करने वाली लेखिका हैं । उनकी चैदह छोटी कहानियों का नया संग्रह मेरे सामने है -” एक औरत: तीन बटा चार।‘‘

बेहतरीन कहानियां लिखने के लिए जानी जाने वाली इस कथाकार ने सामाजिक परिघटनाओं और उनमें चोट खा कर गिरती और छटपटा कर फिर उठती हुई स्त्रियों के संघर्षों के आधार पर , कहानियां लिखीं हैं। पुस्तक की कहानियां आकार में छोटी , कलात्मक और प्रतीकात्मक होते हुए भी सरल सहज और बोधगम्य हैं। इन कहानियों का रचना काल 1994 से 2009 तक विस्तृत है। ये किसी क्षणिक आवेग या आवेश में की गई रचनाएं नही है। यूं भी पिछले पैंतालिस वर्षां से निरन्तर लिखने वाली जिस लेखिका की कलम की धार समय के साथ-साथ पैनी होती गई हो, और कहानियां लिखने के अतिरिक्त जिसकी सामाजिक चेतना और सामाजिक समझ ने उसे जमीनी सामाजिक कार्यों से जोड़ रखा हो, उसकी हर नई किताब अपना परिचय खुद होती है।

”एक औरत: तीन बटा चार ” में सुधा जी की चैदह कहानियां है । अक्सर कहानियां जीवन की हकीकत से कुछ ज्यादा सच्ची होती है। हकीकत से सच्ची इन कहानियों के कथानक पाठक की जिज्ञासा शान्त नहीं करते बल्कि पाठक को और प्रश्नाकुल बनाते है, और कुछ कहानियां स्त्री की अकथनीय व्यथा को कुछ इस तरह बयान करती है कि पाठक मजबूर हो कर कहता है बहुत हो गया अब और कुछ न कह¨, अब और नहीं सुना जाता । सुधा अरोड़ा की कहानियां सिर्फ दोपहर की फु़र्सत में महिलाओं को अच्छी नींद सुलाने के लिए नहीं लिखी गई हैं।

पहली कहानी ‘‘एक औरत तीन बटा चार’’ छोटी है - कलात्मक और प्रतीकात्मक। कहानी की शुरूआत ऐसी है मानो ओ. हेनरी ने कोई किस्सा सुनाना शरू किया हो - ”एक तीस बरस पुराना घर था। वहाँ पचास बरस पुरानी एक औरत थी। उसके चेहरे पर घर जितनी ही पुरानी लकीरें थीं।” वह ”एक खूबसूरत औरत थी - आखिरी उंगली पर डस्टर लपेटे - हर कोने कोने की धूलसाफ करती हुई। इसी दिनचर्या में से समय निकाल कर वह बाहर भी जाती बच्चों की किताबें लेने - साहब की पसंद की सब्जियां लेने” ” हर महीने की एक निश्चित तारीख को सखी सहेलियों के साथ चाय पार्टी में भी हिस्सा लेती” पर हर बार घर से बाहर निकलते समय वह अपना एक हिस्सा घर में ही छोड़ आती।” इस प्रतीकात्मक कहानी का अंत वहां होता है जहां पर आत्मकेन्द्रित पति पक्षाघात की बीमारी से उठकर छड़ी ले कर चलने योग्य हुआ और उसका घर संसार चलाने में अपना सर्वस्व लगा देने वाली उसकी खूबसूरत पत्नी उसकी ‘‘ छड़ी बन गई” जो साहब के बाएं हिस्से के अनुरूप अपने को हर माप के सांचे में ढाल ले। यह एक पूरी औरत के तीन बटा चार ‘‘मांस का लोथ” बनने की कहानी है।

उधर ‘‘ताराबाई चाल- कमरा नम्बर एक सौ पैंतीस’’ में रहने वाली गरीब श्रमजीवी महिला अपने पति के परपीड़न सुख और नृशंस बेरहमी को झेलने के बाद गालियों की बौछार कर लेती है , जिसे अनसुना करके मर्द करवट बदल कर खर्राटे भरने लगता है।‘‘उस बांझ औरत के अड़तीस वर्षीय मरद को मरे आज चैदहवां दिन था।’’ यातना देने वाले पति को याद करने के लिए स्त्री स्वयं को यातना देती है स्वयं को सिगरेट से जलाती हुई। कमरे में दम्पत्ति का भीड़ की तरह एक दूसरे से टकराना कतराना, रात के समय छत पर टंगे और दीवारों पर बैठे ख़र्राटों का आस-पास पसर जाना, और मरे हुए पति के धुंधलाए अक्स का खाट पर पैर हिलाते हुए बैठना, सारे बिम्ब पति के परपीड़न सुख और पत्नी के आत्मपीड़क आनन्द को दिखाते है।

बड़े घर की ‘‘तीन बटा चार औरत’’ घर से निकलते समय केवल ‘‘एक बटा चार साथ’’ ले जाती है और छोटे घर में रहने वाली गरीब औरत पति के मरने के चैदह दिन बाद पहली बार अपने आपको आईने में देखती है -” सारे बिखरे हुए टुकड़ों को मिलाकर उसने अपना चेहरा पहली बार एक साथ देखा - गले से नीचे उसने अपने आप को आईने में देखा ही नहीं था।”

उच्च और निम्न वर्ग के दम्पत्तियों के ये चेहरे हिंसा के सूत्र में बंधे है - स्त्री के त्याग पर पति का पनपना और त्याग का अनादर ,उपेक्षा और अवहेलना करते हुए हिंसक ही बने रहना।

‘‘रहोगी तुम वही” कहानी, जो लेखिका ने अपने बारह वर्ष के मौन के बाद 1993 में लिखी, एकालाप शैली में लिखी छोटी कहानी है जो अत्यंत लोकप्रिय हुई। ”सारा दिन घर घुसरी बनी क्यों बैठी रहती हो। खुली हवा में थोड़ा बाहर निकला करो - बाल छोटे करवा लो, सूरत भी कुछ सुधर जाएगी।” और फिर पन्द्रह साल बाद ”यह तुमने बाल क्यों इतने छोटे करवा लिए है। तुम्हें क्या लगता है, छोटे बालो में बहुत खूबसूरत लगती हो? यू लुक हारिबल।

यह कहानी पुरुष के लगातार बोलने और औरत के चुप रहने की कहानी नहीं है। यह कहानी स्त्री के बदलने और पुरुष के स्वभाव के न बदल पाने की कहानी है । यहां दृष्टव्य है कि स्त्री बदल तो रही है पर अपनी मर्जी से नहीं - पति की प्रताड़ना से और पति के उकसाने पर परन्तु फिर भी पति को संतोष नहीं। बदली हुई स्त्री के बदलाव को पति चिन्हित तो करता है - कटे बालों को , रोज़ दाल रोटी बैगन भिंडी और आलू की जगह बायल्ड वेजेटेबल्स को, समाज सेवा को और किताबों को, पर उसे न सम्मान दे पाता है न स्वीकृति।”कितनी भी किताबें पढ लो तुम्हारी बुद्धि में बढ़ोत्तरी होने वाली नहीं है। रहोगी तुम वही” वाक्य में कितना तिरस्कार भरा है और कितनी हिकारत।

स्त्री शिक्षा , स्त्री सशक्तीकरण का स्रोत बनेगी , यह उम्मीद कैसे पूरी होगी ? पुरुषवादी मानसिकता और पूर्वाग्रह तो स्थिति को बदलने ही नहीं देते। मुझे लगता है सशक्तीकरण एक मानसिक अवस्था है, उस व्यक्ति की, जिसे सशक्त होना है और सशक्त महसूस करना है। स्त्री को अपनी अवस्था बदलनी है - वह तब बदलेगी जब वह स्वयं को अपनी दृष्टि से देखेगी - सामाजिक दृष्टि की परवाह किए बगै़र।

”समुद्र में रेगिस्तान” कहानी इस संकलन की एक बहुत ख़ास कहानी है - केवल अपने षिल्प की बारीक बयानी और अमूत्र्तन के कारण ही नहीं बल्कि अपने कथ्य में छिपी गहन और प्रच्छन्न करुणा के कारण भी । संकलन की अन्य कहानियों की तरह इस कहानी की मुख्य पात्र भी एक औरत ही है। इस औरत ने अपनी रचनात्मकता को पीछे छोड़ कर एक अधेड़ , तीन बच्चों वाले पुरुष का घर बसाया पर स्वयं अधेड़ होने तक पीछे छूट गई - अकेली। हमारे देश में विवाह औरत को नई पहचान नहीं दे पाता, बल्कि उससे उसकी निजी पहचान भी छीन लेता है। नायिका छवि भी कहानी के अन्त में अपना नाम याद करती है , और पहचान पा लेती है - खुद अपने आप से परिचित होती है। अपर्णा सेन की फिल्म परमा के अन्तिम दृश्य में भी घर से बहिष्कृत नायिका को अपनी पहचान याद आती है और तभी एक पौधे का भूला हुआ नाम याद आ जाता है - कृष्णपल्लवी।

‘‘समुद्र में रेगिस्तान’’ कहानी उन कहानियों में से है जो ‘‘अपना शिल्प अपने आप गढ़ती है।’’ कहानी यूँ शरु होती है मानो कविता हो - ” दिन ,हफ्ते, महीने, साल - लगभग पैंतीस सालों से वे खड़ी थीं - खिड़की के आयताकार फ्रेम के दो हिस्सों में बँटे समुद्र के निस्सीम विस्तार के सामने - ऐसे जैसे समुद्र का हिस्सा हों वे। वे मानो कैलेंडर में जड़े एक खूबसूरत लैंडस्केप का हिस्सा बन गई थी।” व्यक्ति की मनःस्थिति जैसी होती है वाह्य जगत् भी उसे वैसा ही दिखाई देता है।

”तीस साल पहले समुद्र ऐसा मटमैला नहीं था। चढ़ती दुपहरी में वह आसमान के हल्के नीले रंग से कुछ ज़्यादा नीलापन लिए दिखता। आसमानी नीले रंग से तीन शेड गहरा।” दस साल बाद एक दिन अचानक जब गर्मी की छुट्टियां खत्म होने पर, बच्चे वापस पंचगनी के हाॅस्टल लौट गए, उन्हें समुद्र बदरंग सा नीला लगा।” समय गुज़रता गया। ”न जाने कब वह खिलंदड़ा समुद्र एकाकी और हताष रेगिस्तान में बदल गया।” कहानी के अंत में ”न जाने कैसे खिड़की के बाहर हिलोरें लेता रेगिस्तान उमड़ते समुद्र की तरह बेरोकटोक कमरे में चला आया और सारे बांध तोड़ कर उफनता हुआ उनकी आंखों के रास्ते वह निकला। नायिका का जीवन और समुद्र मानो एक ही गति से बहते हैं।

एक दिन अचानक एक पुराने सहपाठी ने उन्हें नाम से बुलाया और ”दीवारों पर लगी पेंटिंग्स के कोनों पर लिखा उनका छोटा सा नाम वहां से निकल कर पूरे कमरे में फैल गया। कमरे के बीचोंबीच वह नाम जैसे उनकी प्रतीक्षा में बैठा था।” अपने नाम का भूलना और उसका याद आ जाना हमारी खु़द से मुलाक़ात का प्रतीक है। नाम खोया नहीं था, वहीं बैठा था कमरे में , लिखा था तस्वीर पर , याद था हमारे सहपाठियों को , ज़िन्दा था उनकी स्मृतियों में , भुलाया तो सिर्फ हमने था - उस सुख की चाहत में जो सुख हमें इस पितृसत्तात्मक समाज की परिवार नामक इकाई का हिस्सा बनकर , विवाह नामक संस्था में प्रवेश करके , पति नामक प्राणी के माध्यम से प्राप्त होने वाला था - पर हो न सका। मिला क्या , और छूटा क्या? कहानी में मातृत्व की चाहत के संकेत हैं, छह आठ और दस साल के बालकों को पालने के लिए किए गए दूसरे विवाह के संकेत भी हैं। परन्तु सच बात तो यह है कि मातृत्व की चाहत भी समाज में द्वारा निर्मित ही होती है, तभी तो विश्व के हर समाज में यह भावनाएं तथा चाहतें अलग अलग रूप में दिखलाई पड़ती है। इस प्रकार की कथाओं में पति के देहान्त और वयस्क पुत्रों के जाने के बाद खाली घोंसले में अकेली छूटी नायिकायें हमें मन्नू भंडारी, मालती जोशी, उषा प्रियंवदा की रचनाओं में भी मिलती हैं परन्तु यह कहानी ख़ास है। क्योंकि यह कहानी समाज द्वारा छोड़ी हुई औरत की नहीं बल्कि स्वयं अपने आप से बिछुड़ी हुई औरत की दास्तान है, जिनका नाम उनकी प्रतीक्षा कर रहा था , ‘‘जिससे वे हुलस कर मिलीं और ढह गईं।”

कहानी ’’ नमक ’’ में स्त्री अपने ’’आफ़्टर शेव की महक से गमकते पति’’ को साहब कहती है जो नाश्ते में कटे हुए फल खाते हैं, ताजा रस पीते हैं, अंडों की सफेदी की भुर्जी खाते है और उसमें नमक कम होने पर प्लेट फेंक देते हैं। वह अपनी पत्नी को स्कूल में नौकरी नहीं करने देतेप पत्नी का काम है भरपूर नाश्ता देना -’’ कुल्ले फूटे साबुत मूंग , कटा हुआ पपीता ,सेब के कुछ टुकडे़, अनार के दानों के साथ पत्ता गोभी खीरा टमाटर हरे प्याज के पत्ते का बारीक कटा सलाद और उस पर डालने के लिए धनिया पुदीने की हरी चटनी और खट्टी मीठी इमली की चटनी, ज़र्दी के बगै़र दो अंडों की भुर्जी , छाछ का गिलास, संदेश ,गाजर चुक़न्दर का रस ,टिकोज़ी ढंकी हरी चाय।’’

शादी से पहले नौकरी करने वाली लड़की शादी के बाद पति की नौकरानी बनती है। उसके मायके वाले भी उसे पति सेवा का ही उपदेश देते हैं कि शादी के बाद उसके लिए मायके का कपाट भी बंद है । तीस साल तक वह मेज़ पर नमक रखना नहीं भूली ,और न ही पति नमक पर बवाल करना भूले। नमक कहानी का अन्त अनपेक्षित है। ’’सुना नहीं, नमक कम है लगता है भूल गई ’’ ,पति के शोर का जवाब पत्नी धीमी आवाज में देती है- ’’नहीं, भूली नहीं ,डाक्टर ने कम नमक खाने को कहा है। याद नही? आपका बीपी हाई है। फिर भी लेना हो तो आपके सामने ही पड़ा है।’’

पत्नी के पति के स्वास्थ्य के प्रति सजग है , प्रताड़ित होकर भी पति का ध्यान रखना नहीं भूली पर कहानी के अन्त तक इतना बड़ा साहस जुटा सकी कि कह सके कि नमक खुद उठा लो। यह बड़े घरों के घमंडी लड़कों से ब्याही गई सामान्य घरों की लड़कियों की कहानी है , जिसे भारतीय समाज की कोई भी लड़की आसानी से समझ सकती है।

‘‘सुरक्षा का पाठ ” और ‘‘दहलीज़ पर संवाद ” वयोवृद्ध दम्पत्तियों की दास्ताने हैं ,जिन्होनें अपना पूरा जीवन लगा कर अपने बच्चों को बड़ा किया है और जिनके बच्चे अब अपने पांव पर खड़े हैं। सुरक्षा का पाठ में मां का बेटा अमरीका में प्रवासी भारतीय है, उसकी पत्नी अमरीकी है, मां उनकी प्रतीक्षा करती है, बच्चों के बच्चे में अपने बच्चे के बचपन को ढूंढ़ती है। भारतवर्ष मां को याद है कि नियाग्रा फ्राल्स देख कर लौटते समय उसका बेटा बेबी सीट पर अकेले बैठ कर फुक्का फाड़ कर रो पड़ा था और वह विदेशी नियम कायदों के कारण उसे गोद में नहीं उठा सकी थी। वह आज भी अपराध बोध से ग्रस्त है और नियाग्रा फाल्स के आंखें को बेइंतहा ठंडक पहुंचाने वाले पानी के तेज़ तेज़ गिरने के शोर से भी उसे पाल के मुंह फाड़ कर रोने का स्वर ही सुनाई देता रहा। आज भी नियाग्रा फाल्स की स्मृतियों में दोनों शोर गड्ड मड्ड हो जाते है। ’’ आज मां के बेटा बहू अपनी बेटी को दूसरे कमरे में अकेली रोती छोड़ कर चैन से सोते हैं ,मां सो नहीं पाती और अपने बेटा बहू से फटकार खाती है कि वह पोती के फेफडे़ मजबूत क्यों नहीं होने देती। यह कहानी पीढ़ियों के अन्तर की नहीं संस्कृतियों के अन्तर को रेखांकित करती मार्मिक कहानी है।

भारतवर्ष में माता-पिता चाहे समृद्ध हों चाहे मध्य या निम्नवर्गीय वे अपना जीवन अपने लिये नहीं जीते। उनकी आंखों में अपने बच्चों के जीवन के लिए सपने होते हैं। यह ऐसी ही समृद्ध मां के -एम्पटी नेस्ट-वीरान घोंसले की कहानी है।

दहलीज पर संवाद के दम्पत्ति उतने समृद्ध नहीं। वे निम्नमध्यवित्त वर्ग के हैं, वे बीमार हैं और वृद्ध। उनका अफसर पुत्र और पुत्रवधू उनके साथ नहीं रहना चाहते। मध्यवर्गीय दोहरेपन के तहत साफ़ साफ़ कहते भी नहीं पर अपनी उदासीनता से उनका दिल दुखा देते हैं। उनके बच्चों को उनकी ज़रूरत नहीं ,और उन्होंने अपने जीवन को बच्चों की नजर के अलावा किसी नजर से देखा नहीं। वे स्वयं को बेज़रूरत समझते हैं। उनकी शारीरिक कमजोरी, ज़िन्दगी से उनकी निराशा ,उनकी उदासी ,निरूपायता और अकेलापन छोटे छोटे संवादों से स्पष्ट होता जाता है। मुझे तो लगता है ’’ कि न हम इधर है न उधर ’’’’तुम्हें ऐसा नहीं लगता’’ ’’कैसा ’’ ’’कि हमें अब’’ ’’हाय रब्बा मनहूस बातें ही निकालोगे मुंह से ’’ भारत के निम्न मध्यवर्गीय दम्पत्ति की जीवन भर की आमदनी बेटों पर खर्च हो जाती है और बेटे अपनी आमदनी अपने बच्चों पर खर्च करते हैं न कि अपने माता-पिता पर। बेटों की समृद्धि माता पिता के लिए समृद्धि नहीं लाती। वे अकेले छूट जाते हैं ’’ ऊपर छत पर धूलसना ,मैला पंखा धुंधला होता जाता है। दूर कीं दो घंटा बजता है तो अंधेरेदार सन्नाटा यूं कांपता है जैसे कोई अधमरी चीज हवा में उल्टी लटक रही हो.......।’’ । यह कहानी निम्न मध्यवर्गीय दम्पत्ति के एम्पटी नेस्ट की कहानी है । लेखिका छत, पंखे ,घंटे , अंधेरे और सन्नाटे के बिम्बों से अकेले छूटे माता पिता की वीरानी रचती हंै।

वीरानी तो संग्रह की अन्तिम कहानी पीले पत्ते में भी व्याप्त है। यह एक ऐसी स्त्री की कहानी है जिसके ’’गोरे चिट्टे संभ्रांत और भव्य से दिखते पति’’ ने उसे उसकी बेटी के साथ भारत में छोड़ कर जर्मनी में रहना शुरू कर दिया, किसी अन्य स्त्री के साथ। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें पति के पास पत्नी को छोड़ने का कोई विशेष कारण नहीं है, और न ही कोई ग्लानि या पश्चाताप। पत्नी को छोड़ देने के बाद भी पति हर साल एक बार उसके घर आता था क्योंकि ’’ पापा को मां के हाथ का खाना बहुत पसंद है। मां खूब बढ़िया खाना बनाती थी तब। अपने हाथों से पापा के लिए। ’’ वह बेटी के लिए डेªसेज लाता है। पत्नी अपने पति की दूसरी पत्नी को देख कर चुप हो गई और ’’ दो साल से ऐसे ही चुप है ’’ और बेटी का ’’फिर किसी से भी शादी करने का मन नहीं हुआ।’’ कहानी एक पड़ोस में रहने वाली स्त्री की ज़बानी बयान हुई है और स्त्री भाषा में ,स्त्री मन की परतें खोलती है।

”अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी” का ज़िक्र किए बिना इस पुस्तक पर चर्चा पूरी नहीं हो सकती। पूरब में कलकत्ते के पास बांकुड़ा से लेकर पश्चिम में बम्बई तक फैला वितान, बरसात का मौसम, भीगी सड़क, तालाब, पोखर, नाली, कीचड़, केंचुए, बारिष में भाई-बहनों का एक साथ खेलना, ”मौसम की पहली बरसात देखकर हम कैसे उछलते कूदते, माँ का बारिश आने की खबर देते, जैसे पानी की बूँदे सिर्फ हमें ही दिखाई देती है, और किसी को नहीं” (पृ-32) और निर्धन माँ बाप का बेटी ब्याहने का सपना, बेटी का ब्याह कर पराए दश जाना, उसकी गृहस्थी और जुड़वां बेटियों का जन्म। अपने जीवन से त्रस्त क्षुब्ध, निराश और व्यथित औरतें कितना डरती है बेटियों को जन्म देते ! उन्हें ज्ञात है - लड़की होना होता क्या है। पूरी कहानी बाहर से एक भौगोलिक विस्तार रचती है बंगाल के एक छोटे से गांव से बम्बई तक और भीतर ही भीतर रचती है एक अवचेतन का संसार जिसके भीतर रहते हुए एक सूत्र से गुंथे है - पराए देश ब्याही गई बेटी और उसके माँ बाप। क्या वे उसकी पीड़ा जानते नहीं, फिर भी यही सुनना चाहते है कि बेटी सुखी है -” तुम्हें मेरे ख़त कभी मिले ही नहीं।” बेटी ने माँ बाप को लिखा तो था उन्होंने पढ़ा ही नहीं-पढ़ना चाहा नहीं । इस कहानी पर विस्तार से लिखने की इच्छा है। पर वह टिप्पणी फिर कभी ।
‘‘डर’’ और ‘‘करवा चैथी औरत’’ मध्य तथा उच्च मध्य वर्ग की पढ़ी लिखी औरत की दयनीय स्थिति की कहानियां है। लेखिका ने इन्हें करुण कथा की तरह नहीं ,रुचिकर क़िस्से की तरह बयान किया है - अपने ही घर में गृहिणी का डर कर रहना (डर) और अपने ही घर में धीरे धीरे महत्वहीन होते चले जाना (करवाचैथी औरत) मध्यवर्गीय स्त्री की वास्तविकता है। ‘‘सत्ता संवाद’’ कहानी एक स्त्री का एकालाप है जो पैसा कमाने और घर की सारी जिम्मेदारी उठाने के लिए मजबूर स्त्री द्वारा गैर ज़िम्मेदार लेखक टाइप पति को झेलते रहने से उपजा क्रोध है जो खीझयुक्त बड़बड़ाहट के रूप में उभरता है। स्वयं को लेखक मानने वाले पाठक पाठिकाएं कदाचित् इस कहानी से सरलता से तादात्म्य स्थापित कर पाएंगे, जब कि यह कहानी किसी और प्रकार के दम्पत्ति की भी हो सकती है।

‘‘ तीसरी बेटी के नामः ये ठंडे सूखे बेजान शब्द ’’कहानी उस लड़की के विषय में है जिसने प्रेम किया, प्रेम विवाह किया, पढाई भी की और नौकरी भी, परन्तु वह अपने महत्वाकांक्षी ईष्यालु पति के द्वारा मारी गई। लेखिका ने इस कहानी को नयना साहनी और अंजू इल्यासी जैसी महिलाओं की हत्या के आलोक में लिखा बताया है जो अपने पुरूष साथियों द्वारा मारी गई।

सार्वजनिक स्मृति की आयु बहुत छोटी होती है। इस तरह की घटनाएं हत्याकांडों के रुप में हिन्दी अखबारों के मुखपृष्ठ पर कुछ दिन स्थान पाती हैं, फिर लुप्त हो जाती हैं। लोग कहते हैं, ये औरतें सबकुछ जानते हुए भी सार्वजनिक जीवन में आई ही क्यों थीं ? पुरुष तो बदमाश होते ही हैं । कहानी के रुप में प्रस्तुत हो कर यही विचार भावनाओं में अनुस्यूत हो जाते हैं और हृदय के भीतर घर कर जाते हंै।

‘‘बड़ी हत्या, छोटी हत्या’’ कहानी संवाद शैली में लिखी गई कहानी है जिसमें घर की बुज़ुर्ग महिला, दाई द्वारा नवजात कन्या की हत्या करवाती है। बीस बरस तक पालपोस कर बड़ी की गई बेटी को दहेज कम मिलने के कारण आधा टिन मिट्टी के तेल में फूंक दिया जाएगा , दादी यह जानती है, इसलिए नवजात पोती की हत्या करवा देती है -उस दाई से, जो सबेरे से दो हत्याएं और कर चुकी है। ससुराल में जलने से बेहतर है जन्मते ही मरना।

सुधा अरोड़ा की कई कहानियां यहां एक दूसरे के बरक्स खड़ी हैं - ‘‘रहोगी तुम वही’’ के सामने ‘‘सत्ता संवाद’’ , ‘‘एक औरत-तीन बटा चार’’ के सामने ‘‘ताराबाई चाल’’ ,‘‘सुरक्षा का पाठ ” के सामने ‘‘दहलीज़ पर संवाद, ” पीले पत्ते ’’ के सामने ‘‘नमक ’’ ‘‘अन्नपूर्णा मंडल’’ के सामने ‘‘समुद्र में रेगिस्तान’’, ‘‘तीसरी बेटी’’ के सामने ‘‘बड़ी हत्या,छोटी हत्या’’और डर के सामने करवाचैथी औरत । बाहर से बहुत दूर और कितने अलग अलग दिखने वाले विश्व, भीतर से बिल्कुल एक से हैं। सम्पन्न दम्पत्ति और विपन्न दम्पत्ति के घरों में सत्ता समीकरण एक जैसे हैं। कहानियां दर्शाती हैं कि सुविधाएं सुख का पर्याय नहीं होतीं, संभ्रान्तता से क्रूरता कम नहीं होती । कोई आवश्यक नहीं कि शिक्षा और उच्च पद किसी व्यक्ति को मानवीय रिश्तों को बेहतर बनाने की सलाहियत दे सके।

लोग माक्र्सवादी वर्ग की धारणा को जानते है, जहाँ मिल मालिक मजदूर का शोषण करता है , वह पूँजी और श्रम की लड़ाई है, और अमीर और ग़रीब की। परन्तु घरों के भीतर एक और तरह की लड़ाई जारी है जिसमें गरीब गरीब को ही सताता है और अमीर अमीर को ही। यह लिंगाधारित भूमिका विभाजन का प्रतिफल है जिसमें अधिकतर पुरुष ही शोषक की भूमिका में रहता है, अपने ही वर्ग की स्त्री को सताता हुआ।

सुधा अरोड़ा ने कहानियांे में परामर्श केन्द्र से जुड़े अनुभवों को भी आधार बनाया है। मैंने देखा है कि आमतौर पर परामर्श केन्द्र मध्यवर्ग की शिक्षित महिलाओं की पहल पर स्थापित हुए हैं तथा उन्हीं के द्वारा संचालित हैं। पर इनमें मामले निम्न आय वर्ग की महिलाओं के होते हैं जिनमें से अधिकांश को मध्यवर्गीय महिलाओं ने भेजा होता है। कामकाजी, श्रमजीवी, घरों में चैका बर्तन करने वाली, कपड़े धोने वाली, सब्जी वाली - महिलाओं का एक बड़ा वर्ग इनका लाभार्थी है।

पच्चीस वर्ष से ऐसे ही परामर्श केन्द्रों के साथ काम करते हुए मैंने भी यही पाया है कि उच्च तथा मध्य वर्ग की महिलाएं गरीब स्त्रियों के केस लाती हैं, उन्हीं का सरेआम बयान करती हैं , परन्तु वे यह नहीं बतातीं कि उनके अपने घर के भीतर पारिवारिक रिश्तों के टूटने बिखरने की स्थिति क्या है। अपनी आया-बाई, महरी-मिसरानी की व्यथा कहकर और उनके पतियों को उनके किए की सज़ा दिलवा कर मानो वे अपने सुशिक्षित, समृद्ध, सम्भ्रान्त दिखने वाले पतियों से उनकी क्रूरता तथा हिंसा का बदला ले रही होती हैं। जब कोई महिला हमारे परामर्श केन्द्र में चार ऐसे केस भेज चुकी होती है , मंै समझ लेती हूँ कि पांचवा केस उसका खुद का होगा। सुधा अरोड़ा ने संभ्रान्त मुखौटे वाले क्रूर पुरुषों द्वारा की जाने वाली हिंसा का अनेक कहानियांे में निरूपण किया है जहां हिंसा - जूतों डंडो, लाठी और गालियों से नहीं होती बल्कि होती है - उदासीनता और उपेक्षा से ।

हिन्दी जगत में अक्सर इस बात की चर्चा होती है कि यह समाज अपने बारे में नहीं लिखता। मध्यवर्ग के लेखक जिनमें से कई ऊंचे सरकारी पदों पर बैठे हंै, ऊंची तनख्वाह पा रहे हैं और शराबख़ोरी तथा रिश्वतख़ोरी जैसी अनेक आदतों में लिप्त हैं, वे भी स्वयं को माक्र्सवादी ,गरीबों के रहनुमा ,दलितों के हितैषी सिद्ध करने की होड़ में ग्रामीण अंचलों पर आधारित अतिरंजित ,अतिशयोक्ति पूर्ण कहानियां लिख रहे हैं। उनकी कहानियों में न उनका अपना परिवार दिखाई दे रहा है न उनके अपने घर की स्त्रियां न उनके अपने बच्चे और न मां बाप। वे वर्ग संघर्ष ,जाति संघर्ष को रेखांकित करती नक़ली कहानियां गढ़ रहे है। उनका नकलीपन पाठकों को स्पष्ट दिखाई दे जाता है। इनके बीच प्रतिष्ठित लेखिका सुधा अरोड़ा की यह कहानियां बेहद ईमानदारी से ,जीवन से उठाई गई कहानियां है, इतनी आत्मीयता से लिखी गई, कि पाठक सहज ही इनके पात्रों से तादात्मय स्थापित कर लें। अपने वर्ग पर तटस्थ हो कर दृष्टि डालना ,और अपने समाज , परिवार , परिवेश को सहजता से निरूपित करना इतना सरल नहीं होता। इस जटिल और कठिन काम को ,लेखिका ने सहजता से किया है। शहर में रहने वाले मध्यवर्गीय पाठक इसमें अपना चित्र देखेंगें,और उनका चित्र भी जो उनके आसपास झोपड़ियों में रह कर अभावों और अपमान का जीवन बिता रहे हैं।

-0-0-0-0-

शालिनी माथुर, ए-5/6 कारपोरेशन फ्लैट्स, निराला नगर ,लखनऊ - 226020 फोन-09839014660 समीक्षित पुस्तक - एक औरत: तीन बटा चार मूल्य: प्रथम संस्करण रुपए 10 / बोधि प्रकाशन ,जयपुर