बुधवार, 4 अप्रैल 2012

मूल्याकंन




सुधा अरोड़ा की पांच कहानियों पर एक टिप्पणी

एकालाप का संवाद हो जाना

मृदुला गर्ग

सुधा अरोड़ा की कहानियों की विलक्षणता यह है कि वे संवाद में संवादहीनता की कथा कहती हैं, बेहद मारक ढंग से । मैं मानती हूँ , पाठक के लिए सबसे सप्रेषणीय लेखन वह होता है, जिसका शिल्प, सहज रूप से , लेखन के दौरान उभरे , ख़ास कर कहानी में । इसी पठनीयता को कहानीपन कहा जाता है, जिसके अभाव में कहानी , आत्मालाप बन कर रह जाती है। मज़े की बात यह है कि सुधा की कहानियों में रहता एकालाप या आत्मालाप ही है ; पर पाठक उसका सप्रेषण , आत्मालाप की तरह नहीं , संवाद की तरह करता है । ऐसा संवाद जो सीधे-सीधे उससे किया जा रहा हो। यानी हर पाठक ख़ुद को एक ख़ास और अहम संवादी मानता है । प्रवक्ता ख़ुद से बोलता है ; कहानी पाठक से बोलती है ।

वैसे प्रवक्ता बोले या सोचे , कथ्य में उससे फ़र्क नहीं पड़ता ; असल चीज़ सोच है । पर शिल्प के लिहाज़ से, स्ट्रीम ऑफ़ कॉनशसनेस में प्रवक्ता को सोचते हुए दिखलाने के बजाय, सुधा का उससे एकालाप करवाना , काफ़ी अर्थवान है । पाठक को वह इस तरह अपनी ज़द में लेता है कि उसे लगता है, सब उसी को सम्बोधित है , कुछ खुसर-पुसर के अंदाज़ में । नतीजतन, वह उसे अधिक पठनीय और मर्मस्पर्शी तरीके से ग्रहण कर पाता है ।

"सात सौ का कोट" में प्रवक्ता दरजी, वाक़ई, पाठकों को सम्बोधित करके एकालाप करता है; पर बाक़ी कहानियों में एकालाप या संवाद पाठक से स्पष्ट तौर पर सम्बोधित न रहने पर भी अन्ततः पाठक को संवादी बना कर छोड़ता है। "रहोगी तुम वही" में पति का एकालाप, ज़ाहिरा तौर पर पत्नी से मुखातिब है। "अन्नपूर्णा मण्डल की आख़िरी चिट्ठी" में अन्नपूर्णा अपनी माँ और बाबा से मुखातिब है, ख़त के ज़रिये पर वह भी अन्ततः पाठक को सम्बोधित हो रहती है।"दहलीज़ पर संवाद" में बूढ़े पति-पत्नी के बीच कानों में एकालाप-सा बजता द्वि-आलाप है, जहाँ ऊपरी तौर पर दोनों करते तो संवाद हैं पर उसकी तह से जो ध्वनि बाहर आती है वह उनके अपने-अपने अकेलापन की है। “ ऑड मैन आउट उर्फ़ बिरादरी बाहर ” में न एकालाप है, न एकालाप-सा बजता द्वि-आलाप, बाक़ायदा कई पात्रों के संवादों से भरपूर कथानक है पर वहाँ भी एक कचोटता अकेलापन पसरा है, जो अन्ततः पाठक को मजबूर करता है कि वह उसे बाँट कर पात्र की क्षति-पूर्ति करे।

(बांए से - मृणाल पांडे,नासिरा शर्मा, मृदुला गर्ग,

सुधा अरोड़ा और चित्रा मुद्गल)


" रहोगी तुम वही " में पति के पास, पत्नी से शिक़ायतों का अन्तहीन भन्डार है , जिन्हें वह मुखर हो कर पत्नी पर ज़ाहिर कर रहा है। रोज़मर्रा की आम बातें हैं। उसे पत्नी के हर रूप से शिक़ायत है; और ये रूप अनेक है। वह उन्हें स्वीकारना नहीं चाहता; इसलिए कहे चले जा रहा है कि रहोगी तुम वही , यानी हर हाल , मेरे अयोग्य । निहितार्थ, न मैं बदल सकता हूँ , न तुम्हारे बदलते स्वरूप को सहन कर सकता हूँ , इसलिए रहोगी तुम वही , मुझ से पृथक । पत्नी के पास कहने को बहुत कुछ है पर लेखक को उससे कुछ कहलाने की ज़रूरत नहीं है ; अनकहा ज़्यादा मारक ढंग से पाठक तक पहुँच रहा है । क्या कोई पाठक इतना संवेदनहीन हो सकता है कि इस विडम्बना को ग्रहण न कर पाये ? शायद हो। मुझे ज़्यादा मुमकिन यह लगता है कि ग्रहण कर लेने के कारण ही , अपने बचाव के लिए वह वही ढोंग करे , जो कहानी का प्रवक्ता पति कर रहा है ।
कहानी का एकालाप करता प्रवक्ता , पति / पुरुष न हो कर , पहली पीढी की स्त्री या पड़ोसिन होती ; समकालीन सहकर्मी होता; चाहे पुरुष या स्त्री, कथ्य वही रहता। यह कहानी पति-पत्नी के असंवाद की कहानी नहीं है; उनके असामंजस्य की कहानी भी नहीं है । यह एक, न बदल सकने को अभिशप्त, ठहरे हुए इंसान की , एक गतिशील इंसान के प्रति ईष्य़ा से उत्पन्न आक्रोश की कहानी है ।

कहानी का अनेक देशों में , अनेक भाषाओं में अनुदित हो कर , मंचित होने का कारण यही है कि वह , गतिहीन व्यक्ति की निष्क्रियता को ललकारती है; संवेदनशील प्राणी को गतिशीलता का सहज बोध करवाती है। संवेदनशीलता या संवेदनहीनता का सम्बन्ध लिंग या जाति से नहीं, मानसिक स्थिति से होता है। पुरुष हो अथवा स्त्री, हिन्दुस्तानी हो या चेक, हर इंसान के लिए संवेदनशीलता कष्टकारी होती है। कायर व्यक्ति उससे पलायन का रास्ता ढ़ूँढ़ता है तो आत्मकेन्द्रित हो जाता है। इस तरह देखें तो यह कहानी हम सब की कहानी है , बशर्ते हम आत्म साक्षातकार को प्रस्तुत हों ।

" अन्नपूर्णा मण्डल की आख़िरी चिट्ठी " और " सात सौ का कोट " सुधा अरोड़ा की अति प्रसिद्ध और आलोचको द्वारा प्रशंसित कहानियाँ हैं। "सात सौ का कोट" एक व्यक्ति के एकालाप के माध्यम से बुनी हुई सामाजिक चेतना की ज़बरदस्त कहानी है। कहानी विलम्बित लय में शुरु होती है। लगता है, औरतों के कपड़े सीने की लाभदायक व्यापारिक मजबूरी को, अपनी इच्छा से झेलता मर्दाना कपड़ों का विशेषज्ञ , दरजी-मास्टर , अपने बदलते परिवेश पर चुटीला व्यंग कर रहा है। उस के माध्यम से , पितृसत्ता द्वारा गढ़ा उसका चेहरा झलकता ज़रूर है पर चूँकि बातें, वह खास ग़लत नहीं कह रहा होता इसलिए वे हमें दिलचस्प और मनोरंजक लगती रहती हैं। पर बात-बात में , बात जहाँ जा पहुँचती है , वह पाठक को हतप्रभ करके , उसी आत्म साक्षात्कार के बिन्दु पर खड़ा कर देती है , जिससे वह कतराने का आ हो चुका है। परदुखकातर सज्जनता का ढ़ोंग करते हुए, स्वार्थी आदमी, अपने सामर्थ्य का किस हद तक दुरुपयोग कर सकता है, कहानी में इतने लयात्मक तरीके से अभिव्यक्त हुआ है कि द्रुत पर आते-आते, वह स्वांग, हमारे रोंगटे खड़े कर देता है। फिर भी , कहानी कहता वही पर-पीड़क प्रवक्ता है , कोई और नहीं । और उसी सज्जनता और सहृदयता का जामा पहन कर । मुख्य द्वार से किसी अन्य पात्र का प्रवेश कहानी में नहीं होता। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी " स्त्रीर पत्र " की तरह , यहाँ कोई अति संवेदनशील स्त्री कथा मंच पर आकर , निरीह पर अत्याचार का विरोध नहीं करती। बल्कि इस अत्याचार में तो पति-पत्नी समेत पूरा मध्यवर्गीय परिवार शामिल है। कोई प्रतिरोध-विरोध नहीं करता , कोई एक शब्द नहीं बोलता , अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करवाता । पर होता यह है कि प्रवक्ता के बखान के माध्यम से ही उस बखान का माध्यम, बन्धुआ बना लिया गया एक निरीह, हास्यास्पद व्यक्ति , सहधर्मिणी पत्नी के साथ, भूत-सा डरावना रूप ले कर, पूरी कहानी पर छा जाता है। अत्याचार करने और सहने दोनों में सहधर्मिता निभाई जाती है न । यह निःशब्द भय इतने सशक्त ढँग से कहानी को अपनी गिरफ़्त में लेता है कि पाठक ही नहीं , उसका ज़िन्दादिल , हँसोड़ , आत्मकेन्द्रित प्रवक्ता भी , अनहोनी की सम्भावना से भय खाये बग़ैर नहीं रह पाता । कहानी का अन्त , उसका एक और सशक्त पक्ष है। सुधा किसी नाटकीय दृश्य या संवाद का उपयोग नहीं करतीं । हँसोड़ , पहले की तरह मुखर और हँसोड़ बना रहता है पर अपनी रौ में , कहानी सुनाते-सुनाते, उस डर का इज़हार कर जाता है , जो अपार्थ के भीतर सुलगती प्रतिशेध की आग से , पाठक का साक्षातकार करवा देता है । इस तरह वह एकालाप, सज्जनता के खोल में छुपी हिंसा और परपीड़न का सार्वभौमिक दस्तावेज़ बन जाता है ।

"अन्नपूर्णा मण्डल की आख़िरी चिट्ठी" मैंने पढ़ी भी है और कई बार सुधा के मुख से उसका पाठ भी सुना है । सुनते-पढ़ते, कुछ समय बाद संवेदनशील पाठक-श्रोता ख़ुद को केंचुए में तब्दील होता महसूस करने लगता है । भाई की देखा-देखी , मैके में छोटी लड़की केंचुएं मारने का दुःसाहस कर सकती है। पर ससुराल पहुँच पूरी तौर पर औरत यानी बहू-बीवी-माँ बनते ही, वह हर केंचुए में अपनी ही नहीं, हर औरत की छवि देखने पर मजबूर हो जाती है । बेटे की जगह दो मरियल बेटियों को इकट्ठा जन्म दे कर वह ऐसा बेमुआफ़ गुनाह कर बैठती है कि कुचले जाने के सिवा रास्ता नहीं बचता। उसकी ख़ुदकुशी, ख़ुदकुशी नहीं, एक सामूहिक नारी-संहार है । अजब है न, हम नरसंहार की ख़ूब बातें करते हैं पर नारी का नाम आते ही मुद्दा सामूहिक बलात्कार बन जाता है , संहार नहीं। जैसे उसकी मृत्यु का कोई अर्थ न हो । यह कहानी हमारे भावात्मक संसार का संहार करती है । पाठक या श्रोता माँ-बाबा बन, अन्नपूर्णा की चिट्ठी पढ़ता-सुनता है और भीतर-भीतर मरता है क्योंकि जाने रहता है कि वह कुछ करने वाला है नहीं। आख़िर वह भी तो केंचुए से बेहतर नहीं है ; उसे भी तो एक दिन कुचला जाना है ।

" दहलीज़ पर संवाद " के बूढ़े पति-पत्नी बोलते हैं तो लगता है , अकेलापन बँट नहीं रहा, बढ़ रहा है। पाठक फिर श्रोता बनने पर मजबूर हो जाता है। सोचता है , क्या वह किन्हीं और लोगों की बातें सुन रहा है या सब उसके अपने दिमाग़ में उपजी ख़ुराफ़ात है। सच्ची , कड़ुवी और लाइलाज ।

" ऑड मैन आउट उर्फ़ बिरादरी बाहर " कहानी के शीर्षक का द्विभाषी होना संयोग नहीं , सप्रयोजन है क्योंकि उसमें कहानी का कथ्य अन्तर्निहित है । मंचस्थ नाटक की तर्ज़ में कहानी के मंच पर कमउम्र बच्चे हैं , नेपथ्य में उनके माँ-बाप या कहें , तरेड़ खाया आज का शहरी मध्यवर्गीय समाज । पात्र एक-दो नहीं , अनेक हैं पर मानीखेज़ किरदार सिर्फ़ एक है। उसे विषमता कह सकते हैं या बिरादरी के भीतर या बाहर होना। पर उसकी हक़ीकत "ऑड मैन आऊट " पद से ही उजागर हो सकती थी क्योंकि इस बिरादरी के भीतरी जन हिन्दी का मुहावरा समझने में असमर्थ हैं ।
इन पाँच कहानियों में यह एक अकेली सकारात्मक कहानी है, जहाँ प्रमुख प्रवक्ता, बिरादरी बाहर बने रहने का निर्णय ख़ुद लेती है, अपनी खुशी से। नकारात्मक कविता के व्यंग्य को पात्र ही नहीं पाठक भी हृदयंगम करके आशवस्त महसूस करता है।
" कुछ सीखो गिरगिट से
जैसी शाख वैसा रंग
जीने का यही है सही ढंग!
अपना रंग दूसरों से अलग पड़ता है तो
उसे रगड़-धो लो
जैसी है दुनिया
उसके साथ हो लो
व्यंग्य मत बोलो ! "

यह पाँच कहानियाँ सुधा के दो कहानी संग्रहों , " काला शुक्रवार " और " रहोगी तुम वही " से ली गई हैं। आप चाहें इसे मेरा खब्त मानें पर मैं मानती हूँ कि समीक्षा, किसी एक कहानी संग्रह की नहीं , एक लय में बँधी चुनिंदा कहानियों की होनी चाहिए।

मृदुला गर्ग
ई 421(भूतल)
ग्रेटर कैलाश 2, नई दिल्ली 110048 .
-0-0-0-0-0-

कोई टिप्पणी नहीं: