रविवार, 31 जनवरी 2010

वातायन - फरवरी ’२०१०



हम और हमारा समय

उत्सवप्रिय देश की विडबंना

रूपसिंह चन्देल

भारत केवल कृषि प्रधान ही नहीं उत्सव प्रधान देश भी है । अनेक जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के इस देश में उत्सवों के अनगिनत अवसर उपलब्ध हैं। एक प्रकार से पूरे वर्ष ही यहां उत्सव होते रहते हैं। तेंतीस करोड़ देवाताओं वाले इस देश में कितने ही देवताओं की जयंतियां मनाई जाती हैं ..... हनुमान जयंती से लेकर गणेशोत्सव तक…जगन्नाथ रथ-यात्रा निकलती है तो राम रथ-यात्रा क्यों न निकले ! वाल्मीकि जयंती है तो महावीर जयंती भी है। महात्मागांधी जयंतीं है तो आम्बेडकर जयंती भी है। हर धर्म -सम्प्रदाय के त्यौहार हैं तो चार माह तक चलने वाले महाकुंभ भी … जब कुंभ नहीं तब भी पुष्कर से लेकर प्रयाग तक कितने ही घाटों में जनसमुदाय वर्ष में कितनी ही बार दूषित जल में डुबकी लगा पाप-प्रक्षालन की आशा करते हुए परलोक सुधरने का भ्रम पालता है। सूची बहुत लंबी है। दुनिया में भारत ही एक मात्र देश है जहां पूरे वर्ष उत्सव होते रहते हैं। यह सिध्द करता है कि देश की आबादी का बड़ा भाग दीन-दुनिया से बेखबर है। इसके अतिरिक्त आबादी का एक बड़ा भाग तथाकथित महात्माओं और आसारामों जैसे ढोंगी संतों के हवाले है। कुछ को पाखंडी पंडितों ने अपने छद्म जाल में फंसा लिया है और रात्रि जागरण और रामचरित मानस के अखंड पाठ द्वारा उनके लोक-परलोक सुधरने का उन्हें दिवास्वप्न दिखाते रहते हैं।

हकीकत यह है कि यहां सभी अपने लिए जी रहे हैं। रिक्शावाले से लेकर प्रोफेसर तक … चपरासी से लेकर सेक्रेटरी तक और संत्री से लेकर मंत्री तक। देश के लिए कौन जी रहा है यह बता पाना कठिन है। जो देश के लिए जिए उन्हें कृतघ्नतावश हमने भुला दिया। चूंकि सब अपने लिए जी रहे हैं इसलिए राष्ट्रीय भावना छीज चुकी है। जब राष्ट्रीय भावना ही नहीं शेष तब राष्ट्रभाषा की बात कौन करे! जब गुजरात हाईकोर्ट ने देश की राष्ट्रभाषा पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया तब कुछ हलचल हुई लेकिन जहां यह हलचल होनी चाहिए थी वहां सन्नाटा व्याप्त है।

सुरेश कछाड़िया की जनहित याचिका (जिसमें कछाड़िया ने वस्तुओं की पैकिगं पर वस्तु के मूल्य, उत्पादन तिथि आदि के विवरण हिन्दी में भी लिखे जाने की मांग की थी) का निस्तारण करते हुए गुजरात हाई कोर्ट के मुख्य नयायाधीश एस.जे. मुखोपाध्याय और जस्टिस ए.एस. दवे की बेंच ने स्पष्ट कहा कि हिन्दी को सरकारी भाषा के रूप में ही स्वीकार किया हैं, उसके राष्ट्रभाषा होने का नोटीफिकेशन सरकार ने कभी जारी नहीं किया। अत: हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं है। आज तक हममें से अधिकांश… संभव है सभी… इसी मुगालते में थे कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। किसी देश के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि उसकी अपनी कोई राष्ट्रभाषा ही न हो। पूरा विश्व जानता है कि हिन्दी करोड़ों लोगो द्वारा बोली, लिखी-पढ़ी जाने वाली भाषा है… चीनी, अंग्रेजी के बाद हिन्दी भाषियों की संख्या है। उसके जानकार पूरे विश्व में फैले हुए हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ में उसकी स्वीकृति के लिए हमारे राजनीतज्ञों में छटपटाहट है, लेकिन राजनैतिक दबावों के कारण आजादी के बासठ वर्षों बाद भी उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दिए जाने की उदासीनता उनमें व्याप्त है। लेकिन तमाम सरकारी उत्सवों की भांति हिन्दी का उत्सव मनाने की परम्परा में कोई बाधा नहीं है।

प्रतिवर्ष 14 सितम्बर का दिन हिन्दी दिवसोत्सव के लिए सुरक्षित कर दिया गया है। यह भी कितनी बड़ी विडम्बना है कि करोड़ों लोगों की भाषा को कामकाज की भाषा बनाने के प्रयत्न में इन बासठ वर्षों में अरबों रुपए पानी की तरह बहा दिए गए और हिन्दी में कामकाज दो प्रतिशत ही आगे बढ़ा। इसके लिए ब्यूराक्रेट्स जितना दोषी हैं, मंत्री -नेता उससे कम दोषी नहीं हैं। सरकारों में इच्छाशक्ति का अभाव रहा है और आज भी है, क्योंकि उसके मंत्री-नेता अंग्रेजी मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाए। अंग्रजों की शासन प्रणाली उन पर हावी है। जब जनता के नुमाइन्दे बहुजन की भाषा के विषय में नहीं सोचते तब ब्यूरोक्रेट्स, जिन्हें ब्राउन अंग्रेज कहा जाता है, क्यों सोचने लगे ! वे अंग्रेंजो के मानस-पुत्र जो हैं। उनकी हर नीति हिन्दी विरोधी होती है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रभाषा के विषय में कौन सोचे!

बांग्लादेश सरकार ने आजादी के कुछ वर्षों बाद 'बांग्ला भाषा' को राष्ट्रभाषा घोषित करते हुए अपने अफसरों-कर्मचारियों के लिए समय सीमा निश्चित कर दी थी कि यदि अमुक समय-सीमा में वे बांग्ला भाषा में काम करना नहीं सीख पाए तब उन्हें नौकरी से त्याग-पत्र देना होगा। सरकार की राजनैतिक इच्छाशक्ति के समक्ष नोकरशाहों को झुकना पड़ा था। चीन दो हजार भाषाओं का देश है, लेकिन वहां चीनी राष्ट्रभाषा है। अपनी भाषा के रथ पर सवार चीन आज दुनिया की दूसरी आर्थिक महाशक्ति है। परमाणु-शक्ति तो वह है ही और भारत के लिए हर दृष्टि से चुनौती बनता जा रहा है।

इस देश के अधिसंख्य लोगों को पांखंडों, कर्मकांडों, उत्सवों, आदि में व्यस्त रखने का इसलिए षडयंत्र रचा जाता है जिससे एक सीमित वर्ग सत्ता सुख भोगता रह सके। यह सीमित वर्ग राजनेताओं और ब्यूरोक्रेट्स का है।

हिन्दी की परवाह करने वाले कुछ लोग, जिनमें साहित्यकार और पत्रकार भी हैं, आपसी राजनीति और उठा-पटक में इतना निमग्न हैं कि कभी-कभी ही इनमें से कोई सोते से हल्का-सा जाग कुछ बुदबुदा देता है और फिर सो जाता है। इस मुद्दे को संस्थागतरूप से आन्दोलनात्मक ढंग से कभी नहीं उठाया गया। 14 सितम्बर के आसपास कुछेक आलेख छप-छपाकर इतिश्री हो लेती है और राजनीतिज्ञों और ब्यूरोक्रेट्स का नापाक खेल जारी है। यदि हम बात करें विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों की तो उन्हें इस बात के लिए फुर्सत कहां है! उनका ध्यान इस गंभीर मुद्दे से कहीं अधिक इस बात पर केन्द्रित रहता है कि उनकी स्वतंत्रता में कोई बाधा न पड़ने पाए। हाजिरी की बॉयोमेट्रिक व्यवस्था के विरोध में दिल्ली विश्वविद्यालय के आठ हजार शिक्षक लामबध्द हो सकते हैं और कुछ ऐसे ही अन्य मुद्दों पर देश के सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के शिक्षक हड़ताल पर जा सकते हैं और सरकार को घुटने टेकने के लिए विवश कर सकते हैं, लेकिन देश की अस्मिता से जुड़े राष्ट्रभाषा के संवेदनशील प्रश्न पर उनके कान पर जूं तक नहीं रेंगती।

आखिर इस अहम विषय पर दुनिया के समक्ष देश कब तक शर्मसार होता रहेगा ! यह अब हर जागरूक और संवेदनशील नागरिक के सोचने का विषय है।
*****
वातायन के इस अंक में प्रस्तुत हैं चर्चित कथाकार और कवयित्री इला प्रसाद की पांच कविताएं और वरिष्ठ कथाकार कृष्णबिहारी की कहानी ’बाहरी’.
आशा है अंक आपको पसंद आएगा . आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.
****

कविता


इला प्रसाद की पांच कविताएं

(1)

धूप का टुकड़ा

उस उदास शाम को
धूप का एक छोटा टुकड़ा
वृक्षों और दीवारों से होता हुआ
मेरी बगल में आकर बैठ गया था
मुझसे पूछे बिना ।

कुछ देर वहीं ठहरा रहा
शायद स्थिति का जायजा ले रहा था ।
फिर सांत्वना दे वातावरण की बोझिलता को
कम करने के लिए
मेरे आंसू पोंछने के भी विचार से शायद,
मेरे चेहरे पर आ गया ।

लेकिन उस बेचारे को पता भी न चला
कि क्यों और कैसे
मेरे आंसू तो सूख गए

पर मेरा उदास चेहरा
उसकी उपस्थिति से
और पीला पड़ गया था ।

खीझ और झुंझलाहट लेकर
एक दृष्टि
दार्शनिकों सी
मुझ बेवकूफ पर
डालकर
वह आगे बढ़ गया था ।
मेरी उदासी
ग्हनतर हो गयी थी ,
जिसमें, अब, उसके जाने पर,
अकेलेपन का अहसास भी
जुड़ गया था .......

(2)

यात्रा

अंधरे और उदासी की बात करना
मुझे अच्छा नहीं लगता ।

निराशा और पराजय का साथ करना
मुझे अच्छा नहीं लगता ,

इसीलिए यात्रा में हूं ।
अंधेरे में उजाला भरने
और पराजय को जय में बदलने के लिए
चल रही हूं लगातार.....

(3)
रास्ते

अपने पावों से चली
तो जाना
रास्ते कितने लंबे हैं
वरना कब, इस तरह, अकेले,
घर से निकलना हुआ था !

(4)
मौसम

कल रात फिर रोया आसमान
कि क्यों बादलों ने चेहरे पर सियाही पोत दी !
सितारे काजल की कोठरी में बैठे बिलखते रहे
नसीब में इतना अंधेरा बदा था !

हवा शोर मचाती रही
पेड़ सिर धुनते रहे
धरती का दामन भीगता रहा
किसको फ़र्क़ पड़ा......

बादल गरजते रहे
अट्टहास करते रहे
उन्हें मालूम था
मौसम उनका है ।

(5)
यह अमेरिका है

रात भर
रह-रह कर
चमकता रहा जुगनू
किताबों की आलमारी पर ।

हरी रोशनी
जलती रही ,
बुझती रही ।

मैं देखती रही
आंख भर, रात भर
जब भी नींद टूटी ।

सोचती रही
कल सुबह पकड़ूंगी......
रख लूंगी शीशे के जा़र में
जैसे बचपन में रख लेती थी ।

सुबह हुई!
उत्सुक कदम
आलमारी तक गए
‘स्मोक डिटेक्टर’ आलमारी पर पड़ा
मुंह चिढ़ा रहा था !

यह अमेरिका है !
*****
झारखंड की राजधानी राँची में जन्म। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सी. एस. आई. आर. की रिसर्च फ़ेलॊशिप के अन्तर्गत भौतिकी(माइक्रोइलेक्ट्रानिक्स) में पी.एच. डी एवं आई आई टी मुम्बई में सी एस आई आर की ही शॊध वृत्ति पर कुछ वर्षों तक शोध कार्य । राष्ट्रीय एवं अन्तर-राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित । भौतिकी विषय से जुड़ी राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय कार्यशालाओं/सम्मेलनों में भागीदारी एवं शोध पत्र का प्रकाशन/प्रस्तुतीकरण।कुछ समय अमेरिका के कालेजों में अध्यापन।छात्र जीवन में काव्य लेखन की शुरुआत । प्रारम्भ में कालेज पत्रिका एवं आकाशवाणी तक सीमित।"इस कहानी का अन्त नहीं " कहानी , जो जनसत्ता में २००२ में प्रकाशित हुई , से कहानी लेखन की शुरुआत। अबतक देश-विदेश की विभिन्न पत्रिकाओं यथा, वागर्थ, हंस, कादम्बिनी, आधारशिला , हिन्दीजगत, हिन्दी- चेतना, निकट, पुरवाई , स्पाइल आदि तथा अनुभूति- अभिव्यक्ति , हिन्दी नेस्ट, साहित्य कुंज सहित तमाम वेब पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ प्रकाशित। "वर्तमान -साहित्य" और "रचना- समय" के प्रवासी कथाकार विशेषांक में कहानियाँ/कविताएँ संकलित । डा. अन्जना सन्धीर द्वारा सम्पादित "प्रवासिनी के बोल "में कविताएँ एवं "प्रवासी आवाज" में कहानी संकलित। कुछ रचनाओं का हिन्दी से इतर भाषाओं में अनुवाद भी। विश्व हिन्दी सम्मेलन में भागीदारी एवं सम्मेलन की अमेरिका से प्रकाशित स्मारिका में लेख संकलित। कुछ संस्मरण एवं अन्य लेखकों की किताबों की समीक्षा आदि भी लिखी है । हिन्दी में विज्ञान सम्बन्धी लेखों का अनुवाद और स्वतंत्र लेखन। आरम्भिक दिनों में इला नरेन के नाम से भी लेखन।कृतियाँ : "धूप का टुकड़ा " (कविता संग्रह) एवं "इस कहानी का अंत नहीं" ( कहानी- संग्रह) ।लेखन के अतिरिक्त योग, रेकी, बागवानी, पर्यटन एवं पुस्तकें पढ़ने में रुचि।सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन ।सम्पर्क : 12934, MEADOW RUNHOUSTON, TX-77066USAई मेल ; ila_prasad1@yahoo.com

कहानी

बाहरी
कृष्णबिहारी

धूप तेज थी. जुलाई का उतार था. बारिश के बाद की धूप कुआर के तेज घाम की तरह लग रही थी. ऊपर से मौसम में जो उमस थी वह लिजलिजी चिपचिपाहट से जिस्म को पसीने से लिथाड रही थी. सवेरे नौ बजे ही इतनी तेज धूप और इतनी उमस. पसीने से लथ-पथ देह. सुबह चाय और टोस्ट के साथ ली गईं एलोपैथिक दवाओं की नाकाबिलेबरदाश्त महक उस पसीने में बदबू बनकर अलग से समाई हुई थी. मुगलसराय रेलवे स्टेशन से बाहर निकलकर उसने बनारस जाने वाली बस पकडने के लिए रिक्शा लिया. दोस्त ने चिट्ठी में लिखा था कि बस का रास्ता चालीस मिनट का है. पानी की टंकी मशहूर जगह है. वहीं उतर कर रिक्शा करके ईश्वरगंगी के उसके निवास पर पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं होगी ।
मुगल सराय तक पहुंचने में कोई कठिनाई नहीं हुई थी. रात की ट्रेन में आरक्षण था. सुबह लगभग पौने नौ बजे ट्रेन वहां पहुंची थी.किसी नई जगह के लिए वह ऐसी ही ट्रेन चाहता है जो उसे सुबह या दिन में पहुंचाए ताकि नई जगह से होने वाले अपरिचय के संकट से गुजरना न पडे।
एक सप्ताह बनारस में ठहरने के कार्यक्रम के अनुसार उसने जो बैगेज बनाया था वह उसकी बेवकूफी की वजह से भारी हो गया था. दो पैंट और दो शर्ट में भी सात दिन कट सकते थे. कपडे ग़न्दे होने पर उन्हें धुलना ही तो होता. उसने सोचा कि अगली यात्राओं मे वह कम से कम सामान लेकर ही चलेगा। क़पडे ही ढोना है तो घर में बैठना अच्छा। हालांकि आधी अटैची गिफ्ट आइटम से ही भर गई थी।
रिक्शे पर अटैची और हैण्ड बैग रखने के बाद जो जगह बची उसमें अपने पैरों को टिकाकर बैठते हुए उसने कंधे पर लटकते कैमरे के बैग को सीट पर ही रख लिया।
उसने पूछा, '' क्या लोगे बस अड्डे का? बनारस के लिए बस पकडनी है।''
''बस साहब समझ के दे दिया जाए…”
'' चलो …''
सुबह से दोपहर की ओर बढती धूप के आलम में उसने अपने चारो तरफ एक भरपूर नजर डाली. काला चश्मा आंखों पर होने के बावजूद लगा कि धूप की किरचें आंखों को छील देंगी. लेकिन वो जो उसने सुना था कि शामे अवध और सुबहे बनारस का दृश्य अपने आप में अद्भुत् होता है. वह दूर से ही दिख रहा था. रांड, सांड और सन्यासी के अलावा हवाओं में गेरूआ रंग तैर रहा था. वही गहमागहमी जो हर रेलवे स्टेशन के पास दिखाई देती है, वहां भी थी. कार, मोटर सायकिल, ट्रक और थ्री ह्वीलर के हॉर्न उस भीड भरी सडक़ पर एक विचित्र किस्म की चिल्ल-पों मचाए हुए थे. सायकिल पर चलने वाले भी घंटियां बजाते चल रहे थे. सडक़ पर यातायात बिना नियम चल रहा था. कई दूधिए थे जो एक जगह रूककर अलग दुनिया में खोए हुए थे. उनके पास अनगिनत मक्खियों की भिनभिनाती भींड भी थी. जहां दूधिए खडे थे वहां बरसात का पानी सडक़र बजबजा रहा था. सडक़ की उसी भीड में एक मुर्दे को ले जाते और राम-नाम सत्य है, बोलते लोग भी दिखे. शायद बनारस ले जा रहे थे. मुर्दे ने जिन्दा रहते इच्छा व्यक्त की होगी कि स्थायी मुक्ति दिलवाने के लिए उसे बनारस में ही निपटाया जाए… ग़ंगा मिल जाएगी. क्या पता उसने कुछ भी न कहा हो और उसके परिजनों ने ही सोचा हो कि बार- बार भवसागर के इस आवागमन के चक्कर से उसे हमेशा के लिए मुक्ति दिलवा दी जाए… निर्वाण…क़ैवल्य…
उसने सिगरेट सुलगा ली. राम-नाम सत्य है. होगा सत्य. न होता तो लोग क्यों बोलते ? धुंए का एक गुबार उगलते हुए उसे रमानाथ अवस्थी के मशहूर गीत की पंक्ति याद आई, चाहे हवन का हो या कफन का हो, धुंए का रंग एक है….तभी उसे सडक़ के किनारे एक सायकिल के टायर का टुकडा जलता हुआ दिखा और अचानक ही यह सूझा कि धुंए का रंग भले ही एक हो मगर धुंए की गंध एक-सी नहीं होती. उसे यह भी लगा कि कभी-कभी तो धुंए का रंग भी एक-सा नहीं होता… साला धुंआ…कितनी बडी हकीक़त है धुंआ. सब कुछ धुंआ-धुंआ ही तो होना है. सिर झटकते हुए उसने खुद को दार्शनिक होने से उबारा. उसने रिक्शाचालक से पूछा, '' कितनी दूर है बस अड्डा ?''
''नए हो का… अ …अ …?'' उसने पूछा.
''नहीं तो…, यहीं का हूं… लेकिन कई साल बाद आया हूं …''
''कई साल बाद आने वाला का अपने शहर का बस अड्डा भी भूल जाता है? ''
वह चुप ही रहा. रिक्शेवाले भी कम घाघ नहीं होते. नया आदमी जान लें तो दिल्ली के ऑटो वालों की तरह एक ही जगह चकरघिन्नी की तरह घुमाते हुए अपना मीटर घुमाते रहें. बैठे-बिठाए जेब कट जाती है. कुछ दे बाद ही रिक्शा उस जगह पहुंच गया जहां बनारस जाने के लिए बस खुलने को तैयार खडी थी।
''कितना हुआ?''
''जो उचित समझें दें।'' रिक्शेवाले ने गेंद उसके पाले में डाल दी. उसने उसे पांच का नोट दिया.
''यह का सॉब… पांच रूपये में आज मिलता का है…? दस रूपये हुए.''
''क्यों हुज्जत करते हो… तुम लोगों की यही आदत तो खराब है. पहले तय नहीं करते हो और बाद में लडने को आमादा हो जाते हो ….''
''लड क़हां रहे हम … आप बाहरी हो सॉब … आपको पता ही नहीं कि हालत का है… चार रूपये में तो एक कप चाहो नहीं मिलता … चिन्नी अठारह रूपया किलो है… ज़माने में आगी लगा है…''
महंगाई बहुत बढी हुई थी. भला यही लगा कि रिक्शे वाले को वह दस रूपये देकर बस में बैठ ले. बस भी रेंग रही थी. लगा कि चलने वाली है. लेकिन वह चल नहीं रही थी. रेंग-रेंग कर रूक रही थी और कण्डक्टर चिल्ला-चिल्लाकर यात्रियों को पुकारते हुए इस भ्रम में रख रहा था कि बस अब चली. कण्डक्टर को सवारियां ठूंसना था. जब वह बस में घुसा तो वह लगभग भर चुकी थी और मुसाफिर भुनभुना रहे थे, 'आदत है इनकी,,, क़हेंगे कि बस अब चल रही है…बस अब चलेगी…लेकिन जब तक ठूंस नहीं लेंगे तब तक आदमी पर आदमी ठूंस नही लेंग, चलेंगे नहीं. 'उनकी भुनभुनाहटों को सुनते हुए उसने अपना सामान खिडक़ी से सटी हुई सीट के पास जमाया और ड्रॉइवर से कहा, ''पानी की टंकी के सामने रोकना…मुझे वहीं उतरना है…'' बस में मुसाफिर अब भी आ रहे थे।
ड्रॉइवर हट्टा- कट्टा और मुच्छड था. उसकी आंखें लाल-लाल थीं. एक नजर में लगा कि रात उसने बहुत पी रखी होगी. ड्रॉइवर ने उसे एक नजर ऊपर से नीचे तक घूरा और कहा, ''रोक दूंगा।'' क़ण्डक्टर सींकिया पहलवान-सा था मगर बडी क़डक़ती आवाज में बस के दरवाजे से लटका लहर-लहरकर मुसाफिरों को आवाज लगा रहा था…सुपर फॉस्ट… नान इसटाप…लो चल पडी नान इसटाप…एक्सप्रेस … अरे, उडन तश्तरी में बैठो और फ़र्राटे से चलो… क़ण्डक्टर कुछ नया नहीं कर रहा था. यह उसकी आदत रही होगी. लोग बस में घुसते जरूर मगर बैठने की जगह न पाकर उतर जाते. लेकिन कुछ लोग जो इस बस को छोडना नहीं चाहते थे वे सीटों की जगह के बीच के पैसेज में खडे हो रहे थे. उन्हें शायद कम दूरी की यात्रा करनी थी या अपने गन्तव्य पर जल्दी पहुंचना था. इस बीच झडते बालों को गिरने से रोकने का शर्तिया ईलाज क़े नाम पर तेल की शीशी बेचने वाला अपना रटा -रटाया रिकॉर्ड बजाकर उतर गया था. किसी ने भी एक शीशी नहीं खरीदी।
बस रेंगती हुई चल रही थी. जब चल पडी और कई लोगों ने सामने लिखे नियम को धता बताते हुए सिगरेट सुलगा ली तो उसने भी सुलगाई. बस न उडन तश्तरी थी न नॉन स्टॉप. वह हर सौ –दो सौ मीटर पर रूक रही थी और पूरी भरी होने बाद भी सवारियों को ठूंस रही थी. उसका चलना और रूकना कोई मायने नहीं रखता था ।
बस बमुश्किल दस मिनट ही रूकते -चलते चली होगी कि फिर किसी स्टॉप पर रूकी. एक आदमी जो उसके पास ही अगली सीट पर बैठा था उतरने के लिए खडा हुआ और उससे बोला, “उतरिए, पानी की टंकिए पर न उतरना हय…हम पहुंचा देंगे…पास ही हय…''
''रास्ता तो चालीस मिनट का है…''
''चालीस मिनट का कहां है…उतरिए।'' बोलते हुए वह आदमी दरवाजे तक बढा और बस से उतर गया. बस फिर चली और चार – पांच मिनट चलने के बाद अगले स्टॉप पर रूकी. दो मुसाफिर सवार हुए. उनके बस में घुसने के बाद एक आदमी उतरने के लिए उठ खडा हुआ. उस आदमी ने भी उसे ही देखते हुए कहा , “पानी की टंकिए पर उतरिएगा, एहीं उतरिए … बस पासे में हय टंकी।'' उसे बस से नीचे उतरने के लिए कहते हुए वह आदमी भी दरवाजे तक पहुंचकर यह देखने के लिए पलटा कि उसकी बात का कितना असर हुआ है. उसके लिए यह अजीब स्थिति थी. उसने पिछले स्टॉप पर उतरने वाले या इस जगह उतरने वाले दोनो आदमियों में से किसी से कोई बात तक नहीं की थी. किसी तरह की कोई सहायता भी नहीं मांगी थी इसके बावजूद दोनों ही सहायता करने पर तुले हुए दिखे. उसे अच्छा लगा कि हालात कितने भी बुरे क्यों न हो जाएं. आदमी और आदमी के बीच अविश्वास कितना भी गहरा क्यों न हो जाए फिर भी दुनिया में अच्छे और सहयोगी लोगों की कमी नहीं है. शायद इन लोगों ने उसे ड्रॉइवर से यह कहते सुना होगा कि पानी की टंकी पर रोकना. बस के गेट पर उतरने की कोशिश में लटकते आदमी से जब उसकी आंखें मिलीं तो वह भी आंखों ही आंखों में आश्वासन देते हुए उठ खडा हुआ कि उतर रहा है. अपरिचित आदमी तब तक नीचे उतर गया था. उसने अपना सूटकेस उठाया. कैमरा संभाला और सीट से उठकर उतरने के लिए खडा होकर अभी आगे बढने ही वाला था कि बस ड्रॉइवर के सामने लगे शीशे में उसकी आंखें ड्रॉइवर की घूरती आंखों से टकरा गईं. ड़्रॉइवर ने उसे आंख मारी. वह अचकचाया और फिर ठमककर रूक गया. बस फिर चल पडी ।
बस के चलते ही ड्रॉइवर ने उसे शीशे में देखते हुए कहा, “ आप बेवकूफे हो का ? ई सारे इस्टेशन से ही आपके पीछे लगे हंय अवर आप हो कि लुटने को तय्यार खडे हो… दुबई से आए हो न राजू !”
“नहीं तो।'' वह चौंका, ड्रॉइवर ने कैसे जाना कि वह दुबई से आया है।
''देखो बाबू , इहां रोज हजारों मुसाफिर देखता हूं…ई जो गले में सोने की चेन पहिने हो… बता रही हय कि दुबई का सोना है…हाथ में सी को फाइव की घडी … हर पांच मिनट पर डनहिल फूंक रहे हो… अवर ई केमरा…अ …अ …सब बता रहा हय कि आप बाहरी हो… समझे ! अवर ऊपर से ई बिदेसी अटइची…राजू ई मुगलसराय हय … सुना नाहीं कि सौ चाई पर एक मुगलसराई…अब जो लुटना ही चाहो तो उतर जाओ जहां सारे ई चाई कहें … नहीं तो इन्तजार करो…ज़ब पानी की टंकी पर पहुंचेंगे तो आपको उतार देंगे…अवर उतर के भी खयाल रखना… बसा में अभी कई ठो अवरों हंय…''
वह ड्रॉइवर की बातों से सनसना उठा. ड्रॉइवर ने तो सच ही कहा था. उसकी बेवकूफी सबकुछ उजागर कर रही थी लेकिन इसके बावजूद उसने ड्रॉइवर के सच को एक झूठ से मिटाने की अहमकाना कोशिश की, “ सुनो, मैं अखबार का रिपोर्टर हूं…तुम बस को किसी थाने या पुलिस चौकी के सामने खडा करो … मैं वहां से चला जाऊंगा।''
''राजू ई बनारस हय अवर इहां आदमी पहिचानने में ड्रॉइवर कउनों गलती नहीं करते … बाहरी हो … आप…ज़रा संभल के रहना…आंख से काजल चुरा लेते हैं लोग…अखबार में कभी रहे होगे लेकिन अभी तो दुबईए से ही आए दिखते हो…लो आ गई पुलिस चउकी… अवर सुनो…चउकी वाले भी किसी चाई से कम नहीं हंय…समझे …''
बस के रूकते ही उतरकर सामान संभालता हुआ वह सडक़ पर खडा होकर सोचने लगा कि अपनी मदद के लिए पुलिस चौकी में दाखिल हो या नहीं. उसे लगा कि यह देश ही चाइयों से भरा हुआ है. यह तमगा किसी एक जिले को ही क्यों ? और इन चाइयों के बीच वह एक ऐसा बाहरी आदमी है जो दुबई से न जानें कितनी मुहब्बतें लेकर छुट्टी पर अपनों से मिलने आया है,जिसे एयरपोर्ट से ही लूटा जा रहा है !
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उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जनपद के ग्राम कुंडाभरथ में 29 अगस्त 1954 को जन्म.कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में प्रथम श्रेणी में एम.ए.
सन् 1971 में पहली कहानी प्रका”शत , तब से अब तक लगभग सौ कहानियां देश की प्रायः सभी प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित .
‘मेरे गीत तुम्हारे हैं,’ ‘मेरे मुक्तक मेरे गीत’ , ‘मेरी लम्बी कविताएं’.
‘रेखा उर्फ नौलखिया’ , ‘पथराई आंखों वाला यात्री’ , ‘पारदर्शियां’ उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य .
‘दो औरतें’ , ‘पूरी हकीकत पूरा फसाना’ , ‘नातूर’ और ‘एक सिरे से दूसरे सिरे तक’ कहानी-संग्रह’ प्रकाशित.आत्मकथा - ‘सागर के इस पार से , उस पार से’ .
आठ एकांकी नाटकों का लेखन और बिरेन्दर कौर और सुभाष भार्गव के साथ निर्देशन .चर्चित कृतियों की समीक्षाएं , अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद , लेख , संस्मरण , रिपोर्ताज आदि विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित .
खाड़ी के देशों में पढ़ने वाले भारतीय छात्र-छात्राओं के लिए प्रवेशिका से आठवीं कक्षा तक की पाठ्य-पुस्तक ‘पुष्प-माला’ का लेखन . सहयोगी - डॉ. मोती प्रकाश एवं श्रीमती कांता भाटिया .बहुचर्चित कहानी ‘दो औरतें’ का नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा , नई दिल्ली द्वारा श्री देवेन्द्र राज ‘अंकुर’ के निर्देशन में मंचन .
अखबार से जीवन-यापन की शुरूआत , अध्यापन , आल इण्डिया रेडियो गैंगटोक से फिर अखबार में काम .
संप्रति अध्यापनसंपर्क - PO Box - 46492Abu DhabiUAE

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

वातायन - जनवरी ’२०१०



हम और हमारा समय

आलेख

सत्ता, शक्ति और शोषण

रूपसिंह चन्देल

चार बच्चे खेल रहे थे. वे प्रतिदिन ही खेलते और भिन्न प्रकार के खेल खेलते. एक बच्चा उनमें कुछ अधिक सयाना था. एक दिन उसने साथियों से कहा कि क्यों न हम आज एक नया खेलखेलें -'पुलिस-पुलिस '.
साथयों को उसका विचार पसंद आया .
बात गांव की थी और वे गांव के खलिहान में खेल रहे थे, जो गांव के बाहर एक बाग के निकट था. सयाना बच्चा दरोगा बना, एक सिपाही , एक जमींदार और चौथा जो उनमें सबसे कमजोर था जमींदार का नौकर बना. सयाना बच्चा बाग से बांस का एक मजबूत डंडा उठा आया. खेल प्रारंभ हुआ.
दरोगा बनते ही सयाना बच्चा डंडा फटकारता अकड़कर चलने लगा. उसके पीछे उसका सिपाही भी अकड़ा हुआ चल रहा था. वे खलिहान का यों चक्कर लगाने लगे मानों अपने क्षेत्र का दौरा कर रहे थे. कुछ देर बाद वे जमींदार के पास पहुचे जो खलिहान के एक कोने में बैठा नौकर को डांट रहा था. थानेदार को देख जमींदार उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़ बोला, ''आइए हुजूर..... पधारिए '' और उसने दरोगा को बैठने के लिए कहा, ''लगता है हुजूर थक गए हैं ....''
''हां, बहुत थक गया हूं .... कई गांवों के चक्कर काटकर आ रहा हूं.''
''आप आराम से बैठें हुजूर.....'' जमींदार नौकर की ओर मुड़कर बोला,'' चल बे दरोगा साहब के गोड़ दबा ..''
नौकर बना बच्चा सयाने लड़के यानी दरोगा के पैर चापने लगा.''
''अबे ....पैर दबा रहा है या फूल चुन रहा है.''
नौकर ने कुछ और ताकत लगायी, लेकिन दरोगा साहब प्रसन्न नहीं हुए .
''अबे, मरे हाथों क्यों दबा रहा है ?''
नौकर ने कुछ और ताकत लगायी लेकिन वह दरोगा को प्रसन्न नहीं कर पाया. दरोगा का गुस्सा भडक उठा. उसने डंडा नौकर की पीठ पर दे मारा. कमजोर नौकर चीखा और फैल गया. सिपाही पीछे क्यों रहता. दरोगा को खुश करने के लिए उसने ताबड़तोड़ चार डंडे नौकर के हाथ -पैरों पर जड़ दिए. नौकर बेहोश हो गया तब उन बच्चों को होश आया कि उन्होंने खेल -खेल में साथी को अधमरा कर दिया था.
उपरोक्त दृष्टांत यह सिद्ध करता है कि नकली सत्ता भी व्यक्ति को शक्ति सम्पन्न होने के अहसास से भर देती है. शक्ति से शोषण का जन्म होता है अर्थात शोषण शक्ति का अनुगामी है. कल्पना की जा सकती है कि जिनके पास वास्तविक सत्ता होती है वे उसकी शक्ति का किस प्रकार दुरुपयोग करते होगे. रुचिका गिरहोत्रा छेड़छाड़ मामला उसी सत्ता, शक्ति, और शोषण की एक ऐसी क्रूरतम दास्तान है जो सामन्ती युग की याद ताजा कर देती है. अपनी बेटी की उम्र की चौदह वर्षीया टेनिस खिलाड़ी के साथ एक पुलिस उच्चाधिकारी ने न केवल लंपटतापूर्ण दुर्व्यवहार किया बल्कि उसने अपने पद यानी सत्ता का दुरुपयोग करते हुए उसके परिवार को इस हद तक प्रताड़ित किया कि देश का गौरव बन सकने की क्षमता रखने वाली वह लड़की अर्थात रुचिका गिरहोत्रा को आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ा. यह अधिकारी उसके बाद भी गिरहोत्रा परिवार को प्रताड़ित करने से नहीं रुका. करोड़ों रुपए कीमत का पंचकुला का अपना मकान औने-पौने में बेचकर गिरहोत्रा परिवार को सोलह वर्षों तक भूमिगत रहने के लिए अभिशप्त होना पड़ा. उसके भाई आशु के विरुद्ध कारों की चोरी का आरोप लगाकर उसे गिरफ्तार कर हथकड़ी लगाकर उसके मोहल्ले में घुमाने के बाद उस पुलिस अधिकारी (डी.जी.पी.) एस.पी.एस.राठौर की उपस्थिति में उसे रोगटें खड़ी कर देने वाली यातना दी गई. गिरहोत्रा परिवार का अपराध… रुचिका से राठौर की छेड़छाड़ की शिकायत था. अपने बॉस एस.पी.एस. राठौर के निर्देशों का मुस्तैदी से पालन करते हुए पुलिसवालों ने बहन रुचिका के सामने आशु को नग्न कर जो यातना दी वह खूंखार बदमाशों को ही शायद दी जाती होगी. यह सब केवल इसलिए था कि रुचिका राठौर के खिलाफ केस वापस ले ले.
शोषण और आतंक की यह कहानी शायद चर्चा में न आती यदि अदालत राठौर को दो-चार वर्ष की सजा देता, लेकिन ऊंची राजनैतिक और ब्यूरोक्रेटिक पहुंच और करोड़ों के स्वामी राठौर को मात्र छ: माह की सजा दी गयी जिसने देश के जन-मानस को झकझोर की रख दिया. इस प्रकरण से जुड़े नये-नये तथ्य आज उद्धाटित हो रहे हैं. इस मामले की तहकीकात से जुड़े एक सी.बी.आई संयुक्त निदेशक के अनुसार राठौर ने उन्हें रिश्वत देने की पेशकश की थी. यह तो छानबीन से ही ज्ञात होगा कि उसने और किन-किन को ऐसी पेशकश की थी और रिश्वत दी भी थी. इस मामले में फैसला उन्नीस वर्षों बाद आया ....क्यों, यह भी समझना कठिन नहीं है. जिसे मृत्युदंड दिया जाना चाहिए था उसे मात्र छ: माह की सजा दी गई. अपीलों के बाद मुकदमें को आगे की अदालतों में और घिसटना था और दूसरों की जिन्दगी तबाह करने वाला 67 वर्षीय राठौर सुखचैन की जिन्दगी जीता हुआ जब सतहत्तर वर्ष का हो जाता तब उसे यदि सख्त सजा मिलती भी (जिसकी उम्मीद नहीं थी) तो वृद्धावस्था और बीमारियों के बहाने उसे कम करवाने के लिए एक और अपील दायर की जाती. तब तक गिरहोत्रा परिवार अज्ञातवास के लिए अभिशप्त रहता.
लेकिन छ: महीने की सजा सुनकर मुस्कराते हुए अदालत से निकलते राठौर को मीडिया ने जिसप्रकार प्रस्तुत किया उसने जनता की भावनाओं को उसी प्रकार उद्वेलित किया जिसप्रकार जेसिका लाल और प्रियदर्शनी मट्टू हत्याकांडों में अदालत के फैसलों के बाद किया था. हम कह सकते हैं कि अब हम सोता हुआ लोकतंत्र नहीं रहे. हालांकि कि जब गिरहोत्रा परिवार राठौर की क्रूरताओं का शिकार हो रहा था तब मीडिया यदि आज जितनी सक्रियता दिखाता तो शायद स्थिति कुछ भिन्न होती. लेकिन इसका कारण शायद यह है कि राठौर के आतंक और राजनैतिक ऊंची पहुंच के कारण मीडिया उन तथ्यों तक पहुंच ही नहीं पाया जो आज उसके लिए संभव हो पा रहे हैं.
सत्ता, शक्ति और शोषण के इस खेल में केवल एस.पी.एस. राठौर मात्र अपराधी नहीं हैं. हजारों राजनीतिज्ञ और उच्चाधिकारी लुके-छुपे यह सब कर रहे हैं. कुछेक शोषितों के दुस्साहस से चंद मामले ही प्रकाश में आ पाते हैं. शेष नेताओं-अफसरों के प्रभाव में अपनी मौत स्वत: मर जाते हैं और इन अपराधियों को दूसरे शिकार खोजने-बनाने की छूट दे जाते हैं. आज जब अस्सी पार के किसी उच्च पदस्थ नेता की (जिसकी दोनों टांगे कब्र में लटकी हुई हैं) लंपटता उजागर होती है तब इटली के प्रधानमंत्री की कारगुजारियां छोटी दिखाई देने लगती हैं (उसने अभी 73 वसंत ही देखे हैं) .
ऐसे मामलों में मीडिया के सकारात्मक भूमिका के परिणामस्वरूप हुई जन-जाग्रति ने सरकारों को (केन्द्र और राज्य) रुचिका मामले की पुन: जांच के लिए घोषणा करनी पड़ी. रुचिका की मित्र आराधना गुप्ता और उसके माता-पिता की जितनी प्रशंसा की जाए कम है. राठौर के आतंक के बावजूद इन्होंने असंभव को संभव बनाया. इन लोगों ने यह सिद्ध कर दिया कि इस अवसरवादी और धूर्त समय में भी मानवता जीवित है. आम जनता के अतिरिक्त अनेक संस्थाओं की भूमिका भी श्लाघनीय है, लेकिन आश्चर्यजनक है कि कोई लेखक संगठन इस मामले में आगे नहीं आया. जेसिका लाल और प्रियदर्शनी मट्टू हत्या मामलों में कोई साहित्यिक संगठन आगे आया था, मुझे जानकारी नहीं है.
किसी हिन्दी लेखक द्वारा अपने ममेरे-फुफेरे भाई के नाम से प्रारंभ हुआ पुरस्कार किसी भाजपाई नेता से ले लेने पर हंगामा बरपा करने वाले साहित्यिक संगठन खामोश हैं. वे तब भी खामोश थे जब एक बड़े मार्क्सवादी हिन्दी कवि ने अटल बिहारी बाजपेई से व्यास सम्मान ग्रहण किया था. क्या तब बाजपेई जी भाजपा में नहीं थे ? कश्मीर के सोंपियां कांड पर कश्मीर को आजाद किए जाने की मांग करने वाली अरुंधती राय की चुप्पी भी चौंकानेवाली है.
समाज साहित्य की अनिवार्यता है. साहित्यिक संगठनों का कार्य मात्र क्या साहित्यकारों को स्थापित-विस्थापित, प्रशंसा और भर्त्सना तक ही सीमित होना चाहिए? अधिकांशतया तो यही होता है, लेकिन कुछ ऐसे मामले हैं जहां इन संगठनों से संबद्ध लोगों ने अपने खोल से बाहर निकलकर अपने बयान दिए. बाटला हाउस आतंकवादी घटना में पुलिस कार्यवाई की भर्त्सना करते हुए उन लोगों ने उसे फेक एनकाउण्टर कहा था. लेकिन इन सगंठनों से बाहर एक बृहद लेखक समाज है. मैं भी उसका हिस्सा हूं और उसी हैसियत से एस.पी.एस. राठौर के जघन्य अपराधों के लिए मैं उसे मृत्युदंड और उसका साथ देने वाले नेताओं और अधिकारियों को सख़्त सजाएं दिए जाने की मांग करता हूं और स्वतंत्रचेता लेखक बिरादरी से भी ऐसी ही मांग की अपेक्षा करता हूं.
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वातायन के जनवरी 2010 अंक में प्रस्तुत है - हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार और कवि सुभाष नीरव से उनके पंजाबी से हिन्दी अनुवाद कर्म पर केन्द्रित अजंना बख्शी की बातचीत, सुभाष नीरव द्वारा अनूदित पंजाबी के युवा कथाकार बलविन्दर सिंह बराड़ की कहानी – ‘सन्नाटा’ और साथ ही, हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार-कवि अशोक गुप्ता की कहानी –‘प्रतिध्वनि’.
आशा है अंक आपको पसंद आएगा.
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बातचीत

वरिष्ठ कथाकार-कवि सुभाष नीरव हिंदी में अपने मौलिक लेखन – कहानी, लघुकथा और कविता के लिए जितने जाने जाते है, उतनी ही इन्हें एक सफल अनुवादक रूप में भी प्रतिष्ठा हासिल है। गत तीसेक वर्षों से वह पंजाबी से अनुवाद कार्य से सम्बद्ध रहे हैं और अब तक तीन सौ से अधिक पंजाबी कहानियों, कई उपन्यासों, आत्मकथा, लघुकथा की पुस्तकें हिंदी में अनुवाद कर चुके हैं। हिंदी की प्रमुख कथा पत्रिका “कथादेश” के पंजाबी कहानी विशेषांक में भी इनके महती योगदान की देशभर में प्रशंसा और सराहना हुई। अपने मौलिक लेखन के साथ साथ वह आज भी अनुवाद कर्म में पूरे उत्साह और ऊर्जा से सक्रिय और श्रमरत हैं। इनके अनुवादक पक्ष को लेकर युवा कवयित्री सुश्री अंजना बख्शी ने एक बातचीत अपने पी एचडी के सन्दर्भ में की थी। यहाँ प्रस्तुत है उसी बातचीत का प्रमुख अंश…

“मैं अनुवाद को भी मौलिक सृजनात्मकता का एक हिस्सा मानता हूँ…”-सुभाष नीरव
अंजना बख्शी : आपने अनुवाद के क्षेत्र में पहला कदम कब रखा ? किस कृति अथवा कहानी का अनुवाद आपने सर्वप्रथम किया ?
सुभाष नीरव : जून 1976 में मुझे भारत सरकार के एक मंत्रालय में नौकरी मिली थी। मैं मुरादनगर रहता था और नौकरी के लिए ट्रेन द्वारा दिल्ली आता-जाता था। सुबह-शाम के रेल के सफर में लगभग चार घंटे का समय लगता था। मैं इस समय को पुस्तकें पढ़ कर व्यतीत करता। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने वाली दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी का मैं सदस्य बन गया था जहां हिन्दी- पंजाबी का प्रचुर साहित्य उपलब्ध है . पंजाबी साहित्य से मेरा वास्ता इन्हीं दिनों पड़ा। कहानी, कविता, उपन्यास मैं ढूंढ़-ढूंढ़ कर पढ़ता। जो रचना मुझे अच्छी लगती उसे मैं हिन्दी में अनुवाद भी करता। इन्हीं दिनों मैंने महिन्दर सिंह सरना की एक कहानी(मटर पुलाव) का अनुवाद किया जो एक रिटायर्ड जज को लेकर लिखी गई खूबसूरत कहानी थी। मैंने उसे उस समय की हिन्दी की चर्चित कथा पत्रिका ''सारिका'' में प्रकाशन के लिए भेजा। कुछ ही दिनों बाद रमेश बत्तरा जी का पत्र मिला। पत्र में मुझे तुरन्त मिलने की बात कही गई थी। मैं बेहद उत्साहित सा उनसे मिलने दरियागंज स्थित ''सारिका'' के कार्यालय में अगले शनिवार को पहुंच गया। किसी भी पत्रिका के कार्यालय में जाने का यह मेरा पहला अवसर था। रमेश बत्तरा हिन्दी के चर्चित और प्रतिभाशाली कथाकार थे। पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद भी करते थे। वह बड़ी सहजता और प्यार से मुझसे मिले। उन्होंने मेरे अनुवाद की प्रशंसा की लेकिन साथ ही सरना जी की उस कहानी को प्रकाशित करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। उन्होंने मुझे निरुत्साहित न होने के लिए कहा और पंजाबी कथाकार भीखी की एक कहानी मुझे ''सारिका'' के लिए अनुवाद करने को दी। उस कहानी को हिन्दी में अनुवाद करने में मुझे काफी दिक्कत पेश आई क्योंकि उसमें बहुत से आंचलिक शब्द थे जिनसे मैं नावाकिफ़ था। पर मैंने हिम्मत नहीं हारी और मैंने शब्दों को लेकर अपने माता-पिता से, पंजाबी के कुछ मित्रों से और शब्दकोषों से सहायता ली और कहानी अनुवाद करके बत्तरा जी को थमा दी। बत्तरा जी ने उसमें थोड़ा-बहुत संशोधन किया और उसे ''सारिका'' में प्रकाशित किया। कहीं भी प्रकाशित होने वाला यह मेरा पहला अनुवाद था।
अंजना बख्शी: आपके अनुवाद करने के क्या मापदंड हैं ? अनुवाद करते समय आप कौन-कौन सी बातों का ध्यान रखते हैं ? एक अनुवादक को किन बातों का ध्यान खासकर रखना चाहिए ?
सुभाष नीरव : आरंभ में मैंने कोई मापदंड नहीं बनाए थे। जैसे-जैसे अनुवाद की ओर मेरा रुझान बढ़ने लगा, मैं अनुवाद को लेकर गंभीर होने लगा। मैंने अपना पहला मापदंड यह सुनिश्चित किया कि पंजाबी की केवल उसी कहानी का मैं अनुवाद करुंगा जो मुझे बेहतरीन लगेगी। चाहे वह किसी बड़े लेखक की कहानी हो या बिलकुल नए लेखक की। मुझे किसी लेखक के नाम से प्रभावित नहीं होना है, उसकी रचना से प्रभावित होना है। जब तक वह रचना मुझे प्रभावित नहीं करेगी मैं उसका अनुवाद नहीं करुंगा। अनुवाद करते समय मेरी यह हर संभव कोशिश रहती है कि रचना के मूल कटेंट को ज़रा भी क्षति न पहुंचे और अनूदित रचना में मूल भाषा की सोंधी महक भी बनी रहे। एक अनुवादक से मैं ऐसी ही अपेक्षा रखता हूँ।
अंजना बख्शी: आपने विभाजन पर आधारित कौन-कौन सी कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया है और इन कहानियों का अनुवाद करते समय आपको किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ा ?
सुभाष नीरव : भारत-पाक विभाजन पर आधारित जिन कहानियों ने मुझे बेहद प्रभावित किया और जिनका मैंने हिन्दी में अनुवाद किया, वे इस प्रकार हैं :- महिन्दर सिंह सरना की कहानी ''छवियाँ दी रुत'', कुलवंत सिंह विर्क की कहानी ''खब्बल'', गुरदेव सिंह रुपाणा की कहानी ''शीशा'', मोहन भंडारी की कहानी ''पाड़''। विभाजन की त्रासदी पर लिखी गई ये कहानियाँ कभी न भुलाई जाने वाली बेहद गंभीर कहानियाँ हैं। इन कहानियों के लेखकों ने इस त्रासदी पर चलताऊ और कामचलाऊ ढंग से नहीं लिखा है बल्कि समस्या की तह तक जाकर बहुत ही कलात्मक और सृजनात्मक ढंग से अपनी बात कही है और ये कहानियां न केवल अपने विषय, वरन अपनी प्रस्तुति, अपनी भाषा-शैली और सरंचना में कालजयी कहानियां हैं जो विश्वस्तर की किसी भी बेजोड़ कहानी की टक्कर लेने में सक्षम हैं। ऐसी क्लासिक कहानियों का अनुवाद करते समय मुझ जैसे अनुवादक को यह भय हमेशा बना रहा कि क्या मैं इनके साथ न्याय कर पाऊँगा। ज़रा सी भी छेड़छाड़ अथवा छूट की गुंजाइश इन कहानियों में नहीं है। मुझे उतनी ही जीवन्त भाषा और मुहावरे में मूल कहानी को हिन्दी में प्रस्तुत करना था जितनी के लिए वे हकदार थीं। छवियों की रुत, खब्बल और पाड़ कहानियों ने मुझसे बहुत मेहनत करवाई। एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति की आत्मा में मुझे उतरना पड़ा।
अंजना बख्शी : क्या आपने इन कहानियों का अनुवाद करते समय कुछ जोड़ा-तोड़ा भी है। यदि हाँ तो कहाँ-कहाँ ? कृपया बताएं।
सुभाष नीरव : जी नहीं। मैंने विभाजन से जुड़ी उक्त कहानियों के अनुवाद में जोड़ने-तोड़ने की छूट बिलकुल नहीं ली क्योंकि जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, ये कहानियाँ अपनी मूल संरचना में इतनी क्लासिक हैं कि ज़रा सी छेड़छाड़ पूरी कहानी की आत्मा को क्षति पहुंचा सकती है। हाँ, विभाजन विषय से हटकर मैंने जो अब तक लगभग 300 कहानियों का हिन्दी में अनुवाद समय समय पर किया है, उनमें मैं ऐसी छूट लेता रहा हूँ लेकिन जोड़ना-तोड़ना सिर्फ उस सीमा तक ही कि मूल कहानी की आत्मा और उसकी खुशबू क्षतिग्रस्त न होने पाए।
अंजना बख्शी : आपने पंजाबी से हिंदी में अनुवाद करते समय कुछ शब्दों को 'ज्यों का त्यों' रहने दिया है, इस संबंध में कुछ बताएं। क्या समतुल्य शब्दों को भी रखा जा सकता था ? मुहावरेदार भाषा के अनुवाद में आप कैसे ताल-मेल बैठाते हैं ?
सुभाष नीरव : जी हाँ। अगर कुछ शब्दों को मैंने ज्यो का त्यों रहने दिया है तो उसके कुछ कारण रहे हैं। पंजाबी के अनेक शब्द हिन्दी भाषी बखूबी समझते-जानते हैं और बोलते भी हैं। ऐसे शब्दों का अनुवाद करना मैं उचित नहीं समझता और उनको हू-ब-हू हिन्दी में ले लेता हूँ। ये शब्द जब हिन्दी में हू ब-हू आते हैं तो वे अपनी भाषा की महक के साथ आते हैं और दूसरी भाषा को और अधिक समृद्ध बनाते हैं। पंजाबी की ग्रामीण अंचल से सम्बद्ध अनेकों कहानियों में एक शब्द 'फिरनी' आता है, शुरुआती दौर में मैं इस शब्द को हू-ब-हू प्रस्तुत करते समय फुटनोट दिया करता था, परन्तु बाद में मैंने ऐसा करना बन्द कर दिया। ऐसा ही एक शब्द 'पग वट' है। 'सांझ', 'खाल', 'खब्बल' शब्द भी हैं। इनके समतुल्य शब्दों को रखा जा सकता है पर उनके प्रयोग से वह खूबसूरती नहीं आती जो मूल शब्दों को ज्यों का त्यों रख देने में रचना में आती है। आंचलिक शब्दों और मुहावरों का अनुवाद करना सबसे कठिन और दुष्कर कार्य है। ऐसे समय में मैं इस बात पर अधिक ध्यान देता हूँ कि मूल भाषा में कही गई बात अगर मुझे स्वयं हिंदी में कहनी हो और वह भी मुहावरे में कहनी हो तो किस प्रकार कहूँगा। प्रयत्न करने पर रास्ता निकल आता है।
अंजना बख्शी : विभाजन पर आधारित कहानियाँ आपने मूल पंजाबी में पढ़ी हैं अथवा हिन्दी में अनूदित ? दोनों में आपको क्या फर्क नज़र आया?
सुभाष नीरव : मैंने विभाजन से जुड़ी जिन कहानियों का आरंभ में जिक्र किया है, उन्हें मैंने मूल पंजाबी में ही पढ़ा है।
अंजना बख्शी : 'विभाजन का अर्थ संस्कृति का विभाजन नहीं है' इस बात से आप कहाँ तक सहमत हैं ?
सुभाष नीरव : पूर्णत: सहमत हूँ। किसी देश या प्रान्त का विभाजन सीमाओं से जुड़ा भौगोलिक विभाजन होता है। नि:संदेह धरती पर खींची गई लकीरें जनमानस के दिलों पर भी गहरी खरोंचे पैदा करती हैं और उनका दर्द बरसों नहीं जाता। परन्तु, किसी देश की संस्कृति को विभाजित करना इतना सरल कार्य नहीं है।
अंजना बख्शी : अनुवाद के महत्व के बारे में आपके विचार।
सुभाष नीरव : कोई भी व्यक्ति अधिक से अधिक दो या तीन भाषाओं की जानकारी रख सकता है। ऐसी स्थिति में अन्य भारतीय भाषाओं अथवा विश्व की भाषाओं में लिखे जा रहे साहित्य से वह पूर्णत: वंचित रह जाएगा यदि अनुवाद की सुविधा मुहैया न हो। दो भाषाओं के बीच अनुवाद एक महत्वपूर्ण सेतु का कार्य करता है। इसी सेतु से होकर भाषाओं का आदान-प्रदान होता है और वे और अधिक समृद्धवान और शक्तिशाली बनती है और उनके साहित्य के प्रचार-प्रसार में वृध्दि होती है। इस लिहाज से अनुवाद कार्य एक बेहद महत्वपूर्ण कार्य है। कुछ लोग इसे दोयम दर्जे का सृजन मानते हैं किन्तु मैं इसे अपनी मौलिक सृजनात्मकता का ही एक प्रमुख हिस्सा मानता हूँ। शब्द की शक्ति और उसकी उपयोगिता की सही जानकारी आपको अनुवाद करते समय ही ज्ञात होती है। इससे आपका अपना मौलिक लेखन और भी अधिक प्रभावकारी बनता है, ऐसा मेरा मानना है।
अंजना बख्शी : क्या वर्तमान में विभाजन पर जो कहानियाँ लिखी जा रही है, वे उसकी प्रामाणिकता व उसके गहरे दर्द को शिद्दत से उकेरने में सफल हुई हैं ?
सुभाष नीरव : विभाजन विषय पर हाल फिहलाल में लिखी कोई कहानी मेरी नज़र से नहीं गुजरी है, न हिन्दी में और न ही पंजाबी में जो विभाजन की त्रासदी को सम्पूर्णता में रेखांकित करती हों। हाँ, इस त्रासदी का जिक्र कुछ कहानियों में टुकड़ों में मिलता है। अपने समय और समाज से जुड़ा कोई भी लेखक अपने आप को पूरी तरह अतीत से काट कर अलग नहीं रख सकता। अतीत की घटनाएं जो इतिहास में दर्ज हो जाती हैं, वे भी उसे समय समय पर अपनी ओर खींचती हैं और वह अपने ढंग से उन्हें अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति देने का प्रयास भी करता है। 'विभाजन' 'पंजाब संकट' हमारे अतीत से जुड़े ऐसे ही विषय हैं जो समय समय पर अभी भी हमें कुरेदते और लहुलूहान करते रहते हैं। चूंकि हमारी वर्तमान स्थितियों के तार हमारे अतीत से भी जुड़े होते हैं, अत: ये विषय किसी न किसी रूप में हमारे वर्तमान लेखन में भी आ ही जाते हैं।
अंजना बख्शी : बंटवारे का आप पर क्या साहित्यिक प्रभाव पड़ा ?
सुभाष नीरव : देखिए, मेरा जन्म भारत-पाक विभाजन के छह बरस बाद का जन्म है। इस त्रासदी को मैंने न देखा और न ही झेला है। लेकिन मैं उस परिवार में जन्मा हूँ जिसने इस त्रासदी को अपने तन और मन पर बहुत गहरे तक झेला था। मेरे माता-पिता, दादा, नानी, चाचा आदि पाकिस्तान में अपनी जमीन जायदाद, कारोबार आदि छोड़ कर पूरी तरह लुट-पिट कर अपनी देहों पर गहरे जख्मों के निशान लेकर हिन्दुस्तान पहुंचे थे और दर-दर की ठोकरें खाने के बाद उत्तर प्रदेश के एक बेहद छोटे से नगर - मुराद नगर में आ बसे थे क्योंकि यहाँ स्थित एक सरकारी फैक्टरी (आर्डिनेंस फैक्टरी) में उन दिनों मजूदरों की भर्ती हो रही थी। यहाँ जब मेरे पिता और मेरे चाचा को लेबर के रूप में नौकरी मिल गई और रहने को सर्वेन्ट क्वार्टर तो वे उसी में संतुष्ट हो गए। उन्होंने सरकार से कोई क्लेम नहीं किया। मेरे पिता प्राय: 80 वर्ष की उम्र में भी सोये-सोये डर जाते थे और 'न मारो, न मारो' 'बचाओ-बचाओ' की आवाजें लगाने लगते थे। टी. वी. पर भीष्म साहनी के उपन्यास पर आधारित ''तमस'' सीरियल को देखकर वे रो पड़ते थे। दादा के शरीर पर कोई ऐसा हिस्सा नहीं था, जहां कट न लगा हो। कुल्हाड़ियों-बर्छियों के घावों से दादा, चाचा और पिता का शरीर बिंधा पड़ा था पर किस्मत थी कि वे जिन्दा बच गए थे। जब मैं छोटा था, अपनी बहन के संग दादा, नानी, चाचा और पिता से रात को सोते समय विभाजन के किस्से सुना करता था। हमारी सांसें रुक जाती थीं और रोंगटे खड़े हो जाते थे उन किस्सों को सुनकर। ये किस्से आज भी मुझे उद्वेलित करते हैं। बहुत कुछ है जो इस विषय पर मुझे लिखने के लिए निरन्तर उकसाता रहता है। देखें, इसमें कब सफलता मिलती है।
अंजना बख्शी : इन दिनों आप क्या कर रहे हैं ? अभी तक आपने कितनी कृतियों का हिंदी में अनुवाद किया है ? ऐसी कोई कृति जिसका अनुवाद करते समय आपको दिक्कतें-परेशानियाँ आई हों ?
सुभाष नीरव : इन दिनों अपने मौलिक लेखन के साथ-साथ पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद कार्य नेट पर अपने ब्लॉगों के लिए कर रहा हूँ। अनुवाद से जुड़े मेरे दो ब्लॉग्स है- “सेतु साहित्य” और “कथा पंजाब”। “सेतु साहित्य” में जहाँ पंजाबी साहित्य के साथ देश और विश्व की अन्य भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य का अनुवाद प्रस्तुत होता है जिसमें पंजाबी रचनाओं का अधिकांश अनुवाद मैं स्वय करता हूँ। “कथा पंजाब” विशुद्ध रूप से पंजाबी कथा साहित्य के हिंदी अनुवाद से जुड़ा ब्लॉग है जिसकी परिकल्पना कुछ बड़े पैमाने पर की गई है। इसमें “पंजाबी कहानी : आज तक”, “पंजाबी लघुकथा : आज तक” “स्त्री कथा लेखन : चुनिंदा कहानियाँ” “उपन्यास” “आत्मकथा” “रेखा चित्र” और “लेखक से बातचीत” लम्बे समय तक चलने वाले स्तम्भ हैं जिनके लिए रचनाओं के चयन से लेकर उसके हिंदी अनुवाद तक का सारा कार्य मैं स्वयं करता हूँ। इन दिनों तीन उपन्यासों, एक आत्मकथा के साथ साथ युवा कथाकारों की कहानियों के अनुवाद में संलग्न हूँ।
जहाँ तक पंजाबी से हिंदी में अब तक किए अनुवाद की बात है, सूची लम्बी है। फिर भी, संक्षेप में इतना कि मैं पंजाबी से हिंदी में एक दर्जन से अधिक पुस्तकों का अनुवाद कर चुका हूँ जिनमें से प्रमुख कृतियाँ हैं - पंजाब आतंक पर पंजाबी की चुनिंदा कहानियों का संग्रह ''काला दौर'', नेशनल बुक ट्रस्ट की दो पुस्तकें - ''कथा पंजाथ-2'' और '' कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियां'', पंजाबी लघुकथा की चार पीढ़ियों की लघुकथाओं की पुस्तक ''पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं'' जिन्दर का कहानी संग्रह ''तुम नहीं समझ सकते'', जतिन्दर सिंह हांस का कहानी संग्रह ''पाये से बंधा हुआ काल'', हरजीत अटवाल का बहुचर्चित उपन्यास ''रेत'' तथा बलबीर माधोपुरी द्वारा लिखित पंजाबी की पहली दलित आत्मकथा ''छांग्या रुक्ख'' आदि।
अनुवाद में सबसे अधिक दिक्कत बलबीर माधोपुरी की आत्मकथा ''छांग्या रुक्ख'' में आई। यह मेरे लिए एक चुनौती भरा काम था। पंजाब की ग्रामीण आंचलिक भाषा के चलते मुझे अनुवाद के कई ड्राफ्ट बनाने पड़े, लेखक को पास बिठा कर घंटों बहस करनी पड़ी, पंजाबी के कई विद्वानों-मित्रों से विचार-विमर्श करना पड़ा तब कहीं दो-ढाई वर्ष की मेहनत के बाद इस पुस्तक के अनुवाद को अन्तिम रूप दे सका। इस पुस्तक के अनुवाद में जिस सुख और आत्मतुष्टि का अहसास हुआ है, वैसा अहसास अभी तक किसी अन्य पुस्तक के अनुवाद में नहीं हुआ।
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अंजना बख्शी
जन्म : 5 जुलाई 1974, दमोह(मध्य प्रदेश)
शिक्षा : एम. फिल. (हिन्दी अनुवाद), एम.सी.जे. (जनसंचार एवं पत्रकारिता)
प्रकाशन : कादम्बिनी, कथादेश, अक्षरा, जनसत्ता, राष्ट्रीय-सहारा तथा अनेक राष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। नेपाली, तेलेगू, उर्दू, उड़िया और पंजाबी में कविताएं अनूदित। “गुलाबी रंगोंवाली वो देह” पहला कविता संग्रह वर्ष 2008 में प्रकाशित।
सम्मान : ‘कादम्बिनी युवा कविता’ पुरस्कार, डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप सम्मान।
सम्प्रति : जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोधरत।
संपर्क : 207, साबरमती हॉस्टल,जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी,नई दिल्ली–110067
दूरभाष : 09868615422
ईमेल :
anjanajnu5@yahoo.co.in

पंजाबी कहानी


सन्नाटा
बलविंदर सिंह बराड़
अनुवाद : सुभाष नीरव
जैसे ही गाड़ी स्टेशन पर आकर रुकी, प्लेटफार्म पर खड़ी भीड़ के संमदर में लहरों ने जोर मारा। रंग-बिरंगी पगड़ियों वाले सिर गाड़ी की ओर लपके। लोग डिब्बों के दरवाजों से चिपट गये। एक-दूसरे से पहले चढ़ने के लिए धक्का-मुक्की करने लगे। उतरने वाले यात्री जबकि बार-बार कह रहे थे, ''पहले हमें तो उतर जाने दो।''
लेकिन, इस शोर-शराबे में उनकी कोई नहीं सुन रहा था। दूसरे दर्जे के स्लीपर डिब्बों में भी लोग अपने झंडों और डंडों के साथ जबरन घुसे जा रहे थे। अंदर वाले कई यात्री कह रहे थे, ''यह रिजर्वेशन वाला डिब्बा है...इधर कहाँ घुसे जा रहे हो।''
एक व्यक्ति ने तीन-चार बार दोहराया, ''यह डिब्बा रिजर्व है।'' तो उसके साथी ने उसे सलाह दी, ''तू चुप कर। तेरी कौन सुनता है यहाँ...यहाँ तो अंधेरगर्दी मर्ची है।''
इन लोगों के हुलिये और हाथों में पकड़े हुए झंडों से साफ पता चलता था कि यह भीड़ किसी किसान-रैली से आई है। रात के करीब दस बजे का समय था। कई यात्री सो चुके थे और कई सोने की तैयारी कर रहे थे। लेकिन, यह जो भीड़ अंदर घुस आई थी, इससे सोये हुए लोगों की नींद भी खराब हो गई थी। भीड़ में से कई लोग नीचे की बर्थों पर सोये लोगों की टांगों के पास जा बैठे। कई लोग चीखने-चिल्लाने लगे, ''यह मेरी रिजर्व सीट है, उठो यहाँ से।'' कइयों ने कोई हील-हुज्जत नहीं की, बैठे रहने दिया उन्हें। अंदर घुसी भीड़ में से बहुत सारे लोग सीटों के बीच वाली खाली जगह पर नीचे कपड़ा बिछाकर बैठने लगे। भीड़ इतनी थी कि दरवाजों के पास भी लोग एक-दूजे में फँसे खड़े थे।
डिब्बे में बंद हुई बत्तियाँ फिर से जल उठीं। डिब्बे में खूब भीड़-भड़क्का और शोर-शराबा था। ऐसा प्रतीत होता था मानो किसी बाड़े में हद से ज्यादा भेड़ें घुसा दी गई हों या दड़बे में एक साथ बहुत सारे मुर्गे ठूँस दिए गये हों। कोई आवाजें लगाकर अपने साथी को बुला रहा था और कोई धक्के मारता हुआ भीड़ में से अपने लिए रास्ता बना रहा था।
डिब्बे के अंदर गर्मी थी, उमस भी।
दस-पंद्रह मिनट रुकने के बाद ट्रेन चल पड़ी। ट्रेन अभी चली ही थी कि एक अधेड़-सा बाबू हाथ में सूटकेश थामे, भीड़ को चीर कर रास्ता बनाता हुआ आगे बढ़ता हुआ दिखाई दिया। ऐनक को ठीक करता, आसपास की सीटों पर निगाहें दौड़ाता वह अपनी सीट ढूँढ़ रहा था, ''सैंतालीस नंबर कहाँ है?''
''आगे है, आगे।'' किसी ने भारी आवाज में जवाब दिया।
बड़ी मुश्किल से वह सैंतालीस नंबर सीट के पास पहुँचा, जिस पर पहले से ही चार-पाँच आदमी बैठे हुए थे।
''चलो, उठो भाई... यह सीट मेरी है।'' उसने बैठे हुए आदमियों को उठने का इशारा करते हुए कहा।
''तेरी सीट है! ये सीट रोकी हमने है, तेरी कैसे हो गई? तेरी मोहर लगी है इस पर ?'' बैठे हुए लोगों में से लाल पगड़ी वाला आदमी अपने खुरदरी दाढ़ी पर हाथ फेरता हुए बोला।
''हाँ जी। मेरी मोहर ही लगी हुई है सीट पर...यह सीट मैंने रिजर्व करवाई हुई है।'' बाबू उन्हें समझाने के लहजे में बोला।
''अगर तूने रिजरब कराई है तो जा कहीं और बैठ जा। हम तो नहीं उठते।'' लाल पगड़ी वाले की दायीं तरफ बैठा सफेद दाढ़ी वाला बोला। उसकी नासमझी वाली बात सुनकर कई हँस पड़े और कई मुस्कराने लगे।
''कमाल है यार, कमाल! मैं जिसके नाम पर सीट रिर्जव है, कहीं और बैठ जाऊँ और तुम जो लगता है, बिना टिकट चढ़े हो, ठाठ के साथ मेरी सीट पर बैठो। वाह! यह क्या बात हुई भला ?'' बाबू थोड़ा तल्खी से बोला।
''मैं तुझे बताऊँ अभी कि बात क्या हुई ?...न, तू हमारी टिकट की बात करता है, तू टी.टी. लगा है ?... मैं तेरी ये जुल्फें सी उखाड़कर तेरे हाथ में पकड़ा दूँगा... कहीं बनता फिरता हो... दो मारूँगा तेरे मुँह पर खींचकर।'' लाल पगड़ी वाला गुस्से में भड़क उठा।
''ऐसे कैसे मारेगा तू मुँह पर ?''
''बताऊँ तुझे अभी...'' लाल पगड़ी वाले ने खड़ा होकर बाबू को गर्दन से पकड़ लिया। एकदम हो-हल्ला मच गया। दो-तीन लोग बाबू को छुड़ाने लगे। उन्हें शांत कराने लगे। आसपास की सीटों वाले लोग भी उठकर खड़े हो गये। रैली वाले आदमी भी एक-दूजे को धकियाते झगड़े वाली जगह की ओर बढ़े।
भीड़ में से कोई कह रहा था, ''छोड़ो भई, छोड़ो... लड़ो न। लड़ाई में कोई फायदा नहीं।''
''तुझे नहीं पता, हम पहले ही बहुत सताये हुए हैं... एक तो सरकार हमें फसलों के अच्छे दाम नहीं देती... ऊपर से हम सारा दिन रैली में धक्के खाकर आये हैं, भूखे-प्यासे... और अब तू हमें टिक कर बैठने ही नहीं देता।'' लाल पगड़ी वाले के साथ बैठा घसमैली-सी पगड़ी वाला एक आदमी बोल रहा था। वह अभी भी सीट पर बैठा हुआ था जबकि बाकी सब झगड़े के कारण उठकर खड़े हो गये थे।
''पकड़ लो इसको... लगा दो ठिकाने।'' दूर से ही भीड़ में एक निहंग 'सिंह' ऊँचे स्वर में बोला।
''देखना बाबा, अपना बरछा संभाल के। तुम तो मेरी आँख ही निकाल देते।'' ऊपर वाली सीट पर बैठा एक व्यक्ति निहंग सिंह के खड़े किये हुए बरछे को हाथ से दूर हटाते हुए कह रहा था।
लाल पगड़ी वाला और उसके साथी फिर सीट पर बैठ गये थे। बाबू के पक्ष में ऊपर की सीट पर बैठा सिर्फ एक मोटा-सा बंदा बोल रहा था, ''यह बात गलत है। जिस बंदे ने रिजर्वेशन करवा रखी है, उसे तुम बैठने ही नहीं देते। इस तरह तो तुम लोग थोड़ी देर में हमें भी सीटों पर से उठा दोगे।''
दूसरे दल के लोगों की संख्या अधिक होने के कारण डर का मारा दूसरा कोई उन्हें कुछ नहीं कह रहा था।
उनमें से ही एक नरम स्वभाव वाला लम्बा-सा आदमी बोला, ''वैसे ये बैठने को कब रोकते हैं। बिठा लो जी बेचारे को अपने साथ। खिसको भई थोड़ा-सा।''
''साथ बैठने से हमने कब रोका ?...यह तो उल्टा कहता है- तुम उठो। हमें कैसे उठा देगा ये ?'' सफेद दाढ़ी वाला ढीला पड़ते हुए बोला।
दूसरों के कहने पर उन्होंने थोड़ा-सा खिसक कर जगह बनाते हुए बाबू को अपने साथ बिठा लिया।
डिब्बे में थोड़ी शांति-सी हो गई। जो लोग इकट्ठा हो गये थे, अपनी-अपनी जगह पर जाने लगे। शोर-शराबा घटते-घटते गाड़ी के पहियों की आवाज में दबकर रह गया। कभी-कभी किसी के मोबाइल फोन की रिंग बजती और 'हैलो-हैलो' की आवाज उभरती। एक-एक करके कई बत्तियाँ बन्द होती चली गईं। डिब्बे के अंदर रोशनी कम होती चली गई।
बहुत से लोग सीटों के बीच वाली जगह पर नीचे ही लेट गये थे। किसी को टाँगे फैलाकर लेटने की जगह मिल गई थी। कई जगह न मिलने के कारण टाँगें सिकोडे हुए ही लेटे थे। कइयों को देखकर यह कहना कठिन था कि ये बैठे हैं या लेटे हुए हैं।
गाड़ी की रफ्तार कम होने लगी। गाड़ी अगले स्टेशन पर रुक गई। बाबू को प्लेटफार्म पर खड़ा टी.टी. दिखाई दिया तो उसने खिड़की में से टी.टी. को पुकारा, ''टी.टी. साहब, सर मेरी यह सीट खाली करवाओ। कुछ लोग मेरी रिजर्व सीट पर कब्जा किये बैठे हैं।''
''मैं बस इसी डिब्बे में आ रहा हूँ।'' टी.टी. की आवाज आई।
लाल पगड़ी वाला फिर भड़क उठा, ''जा, बुला ले अपने जिस टी.टी. बाप को बुलाना है। हम नहीं छोड़ते सीट... तेरे टी.टी. को और तुझे चलती गाड़ी से नीचे फेंक देंगे।''
''ऐसे कैसे फेंक दोगे बाहर ?...तुम्हारे बाप का राज है ?'' बाबू बोला।
''तू बैठता है आराम से कि नहीं... तेरे दो मारूँगा गर्दन पर।'' लाल पगड़ी वाला दांत पीसता हुआ बोला।
लड़ाई फिर छिड़ गई। कई लोग कच्ची नींद में उठकर बैठ गये। डिब्बे की आधी बत्तियाँ जो बन्द हो गई थीं, फिर से जल उठीं।
''मैंने तुझे पहले ही कहा है कि हम बड़े सताये हुए हैं। सरकार हमें फसलों के ठीक से दाम नहीं देती। हम गले-गले तक कर्जे में डूबे हुए हैं।... हम मरने-मारने पर आये पड़े हैं।...ऊपर से तू हमें परेशान न कर।'' घसमैली पगड़ी वाला फिर बोला।
''परेशान मैं कर रहा हूँ कि तुम कर रहो हो... एक तो तुम लोग जबरदस्ती रिजर्वेशन वाले डिब्बे में घुस आये हो। दूसरा, मेरी सीट पर कब्जा किए बैठे हो। मैं रेलवे पुलिस से शिकायत करुँगा।'' बाबू बोला।
''ठहर, तेरी तो... तू तो जब शिकैत करेगा, तब करेगा... मैं तुझे अभी बताता हूँ शिकैत कैसे की जाती है।'' लाल पगड़ी वाले ने फिर बाबू की गर्दन में हाथ डाल दिया।
''छोड़ दो, छोड़ दो। लड़ो मत, लड़ो मत।'' एक साथ कई आवाजें आईं। सैंतालीस नंबर सीट के पास फिर लोगों की भीड़ लग गई। अधिकतर लोग लाल पगड़ी वाले के साथी थे। बाबू के पक्ष में कोई नहीं बोल रहा था।
''तुझे हो क्या रहा है ? तू आराम से बैठ नहीं सकता ? '' उनमें से कोई एक अपने सिर पर लिए डिब्बीदार अंगोछे को ठीक करते हुए बाबू को घूर रहा था।
कुछ देर में उन्हें फिर से चुप करवाकर साथ-साथ बिठा दिया गया। लोग फिर अपनी-अपनी जगहों पर जाकर बैठने लगे। सोये हुए लोग जो उठकर बैठ गये थे, फिर से सोने की कोशिश करने लगे। डिब्बे में बत्तियों का प्रकाश फिर मद्धम होने लगा।
गाड़ी पूरी रफ्तार पकड़ चुकी थी।
डिब्बे में कोई टी.टी. नहीं आया।
बमुश्किल अभी घंटा भर ही बीता था कि फिर शोर होने लगा। सोये हुए लोग हड़बड़ाकर उठ खड़े हुए। बत्तियाँ जल उठीं। डिब्बा फिर प्रकाश और शोर-शराबे से भर उठा।
''यह सीट मैंने अपने सोने के लिए रिजर्व करवाई है। पैसे दिए है रिजर्वेशन के।... तुमने मुझे सोने तो क्या देना था, बैठे हुए को भी साथ नहीं लगने देते। क्या हुआ जो तेरे कंधे से मेरा सिर लग गया तो ?'' बाबू बोल रहा था।
''फिर तू सीधा होकर बैठ...अगर पैसे दिए है तो हमारे ऊपर बैठकर तो नहीं जाना।'' लाल पगड़ी वाला कह रहा था।
''अब क्या बात हो गई यार ?'' ऊपर 43 नंबर वाली सीट वाला चिड़चिड़ा-सा मुँह बनाकर पूछ रहा था।
''बात क्या होनी थी। मुझे बैठे-बैठे को ज़रा नींद आ गई और मेरा सिर इसके कंधे से लग गया। इसने तो मुझे धक्का देकर नीचे ही गिरा दिया।'' बाबू बता रहा था, '' और यह जो नीचे लेटा है, ये मेरे गले पड़ गया कि हमारे ऊपर क्यों गिरता है?...कहाँ से वास्ता पड़ गया अनपढ़-बेवकूफों से...।''
''ठहर तो ज़रा... तू हमें अनपढ़ बताता है... ओए, पूरी चार जमातें पढ़ी हैं। तुझ बी.ए.पास की माँ को तो.... ऊपर से बेवकूफ बताता है हमें... बताता हूँ तुझे तो मैं...।'' लाल पगड़ी वाले ने उठकर तीन-चार थप्पड़ बाबू के मुँह पर जड़ दिए। बाबू की ऐनक नीचे गिर पड़ी। बाबू भी अब हाथ चला रहा था।
''मैंने तुझे पहले ही कहा था। भाई, हम बड़े ही सताये हुए हैं। गोरमिंट हमें फसलों के दाम नहीं देती ठीक से... मंहगी खाद, मंहगे सपरे(स्प्रे), मंहगे बीज-डीजल ने हमारी कमर पहले ही तोड़ रखी है। कर्जों ने हमारा बुरा हाल किया हुआ है... हम मरने-मारने पर आये हुए हैं।'' घसमैली पगड़ी वाला भर्रायी आवाज़ में बोला।
''चलो साले को फेंकें, चलती गाड़ी से बाहर।'' यह कहते हुए लाल पगड़ी वाले ने बाबू को बांहों में कस लिया और धकेलने लगा।
''ओ रहने दे... रहने दे...।''
''ओ छोड़ दे.... छोड़ दे...।''
फिर भीड़ में से कई आवाजें उभरीं।
बाबू को लोगों ने छुड़वा दिया।
ऊपर 38 नंबर वाला ऐनक खोजते बाबू को बोला, ''बाबू जी, छोड़ो आप। आप ऊपर आ जाओ मेरे पास। हम दोनों सो जाएँगे पतले-पतले। यों ही लोगों की नींद खराब किये जाते हो। सब परेशान हो रहे हैं। आधी रात हो गई है। बेकार का स्यापा डाल रखा है... आ जाओ ऊपर।''
एक-दो अन्य व्यक्तियों ने कह-सुनकर बाबू को ऊपर 38 नंबर वाले के साथ लिटा दिया।
घसमैली पगड़ी वाला भीड़ में से पखाने की ओर चल पड़ा। वह बड़बड़ा रहा था, ''कहते हैं, हम किसानों को कैडट कारड देंगे। कर्जा लेना आसान हो जाएगा... बात कर्जा लेने की नहीं, कर्जा उतारने की है। कर्जे ने तो पहले ही मार रखा है...फसलों के भाव तुम्हारा बाप देगा।''
लोग फिर अपनी-अपनी जगह पर लौटने लगे। कइयों ने नींद खराब होने के कारण बुरा और चिड़चिड़ा-सा मुँह बना रखा था। कई तमाशबीन लड़के मुस्करा रहे थे। एक लड़का जिसकी मूंछें फूट रही थीं, अपनी पगड़ी पर हाथ फेरता हुआ कुटिल-सी हँसी हँसता हुआ लाल पगड़ी वाले की नकल उतारता बोला, ''हम अनपढ़ नहीं हैं... यूं तो मैं भी सात जमातें पास हूँ...आठवीं से हटा हूँ।''
उसका साथी बोला, ''पड़ा रह, पड़ा रह चुप होकर अगर तू आठवीं से हटा है। तुझे पता है, बी.ए. पास ने चार थप्पड़ खाये हैं। इसका मतलब है, दो थप्पड़ खाने का तेरा भी हक है।''
उसकी बात सुनकर आसपास के सभी लोग हँस पड़े।
एकाएक, दरवाजे के पास शोर मचा। एक साथ कई आवाजें उभरीं।
''अरे! यह क्या ?''
''पकड़ो, पकड़ो।''
''बस, गया वो तो...।''
''क्या हुआ ?... छलांग लगा दी ?''
''हाँ, छलांग लगा दी...''
''किसने ?''
''कौन था ?''
''किसने छलांग लगा दी ?''
लोग दरवाजे की ओर भागे।
''मैं पकड़ने लगा... बस, पगड़ी का किनारा ही मेरे हाथ में आया। पगड़ी रह गई मेरे हाथ में।'' एक आदमी खुली हुई घसमैली पगड़ी को इकट्ठा करते हुए बता रहा था। उसके चेहरे का रंग मारे घबराहट के उड़ा हुआ था।
''वही... जो कहता था- हम बड़े सताये हुए हैं। मरने-मारने पर आये हुए हैं।''
''हैं !''
''चेन खींचो!''
''ओए जंजीर खींचो!''
किसी ने गाड़ी की चेन खींच दी। कई झटके लगे। इमरजेंसी ब्रेकों की 'चीं-चीं' की आवाज आई। गाड़ी की गति तेज होने के कारण गाड़ी रुकते-रुकते काफी आगे निकल गई थी।
गाड़ी अब रुक चुकी थी।
लोग खिड़कियों और दरवाजों के बीच से बाहर झांक रहे थे। कुछ लोग नीचे उतर गये थे।
बाहर, खेत घुप्प अंधकार में डूबे हुए थे। कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।
बाहर भयानक सन्नाटा था।
एक सन्नाटा अब डिब्बे के अंदर भी छा गया था।
00
बलविंदर सिंह बराड़
जन्म : 5 अगस्त 1966
शिक्षा : एम ए, बी एड, पीजी डिप्लोमा इन जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन
प्रकाशन : कहानी लेखन क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों से सक्रिय। अब तक एक दर्जन कहानियाँ। कई कहानियाँ पंजाबी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कुछ कहानियों का हिंदी अनुवाद प्रकाशित। आकाशवाणी में प्रसारण के लिए लेखन।
एक कहानी संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
संप्रति : ट्रांसमिशन एक्जूक्यूटिव(स्क्रिप्ट), पंजाबी अनुभाग, आकाशवाणी, संसद मार्ग, नई दिल्ली-110001
सम्पर्क : फ्लैट नंबर -77, पोकेट नंबर- 7, सैक्टर- 12, द्वारका, नई दिल्ली-110078
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कहानी


प्रतिध्वनि
अशोक गुप्ता
'प्रतिध्वनि' सिर्फ इस कहानी का शीर्षक ही नहीं है, इसकी उपज का सच भी है. प्रतिध्वनि को ध्वनि का आभारी होना चाहिए. इस नाते मैं बेबाक रूप सिंह चंदेल की जनसत्ता में छपी कहानी ' अलग ' का आभार प्रकट करता हूँ. मेरी यह कहानी ' अलग ' की विस्तार कथा है. आदर्श सिर्फ एक किताबी अलंकरण नहीं है, यह एक कारगर व्यवहार नीति है, यह बात 'अलग' के जरिये सामने आई थी. मेरी कहानी यह बताने का प्रयास कि यह व्यवहार नीति किस तरह हमारे पक्ष में अपनी भूमिका अदा कर सकती है.
रीब चालीस मिनट बीतने को आये थे. वह घायल लड़का अस्पताल के बराम्दे में एक नंगे बेड पर लिटा छोड़ा गया था. अमित उस लड़के को अपनी गाडी में उस सरकारी अस्पताल में लगभग ढो कर लाया था. वह लड़का खासा घायल था, कम से कम उसकी चिट्टी स्नोव्हाईट कमीज़ पर सिर और गर्दन से बहे खून के दागों से यही आभास होता था. उसके आने के साथ ही एक खडूस से दिखने वाले आला लटकाए सफ़ेद कोट वाले आदमी ने उसे अलट पलट कर देखा था. वह घायल लड़का बेहोश था. उस डाक्टर की अलट पलट की कार्यवाही इतनी लापरवाही भरी थी कि अमित घबरा कर उसके पास आ कर खड़ा हो गया. उस डाक्टर वेशधारी आदमी ने उस घायल लड़के के गाल दो बार थपथपाए और फिर उस पर एक चांटा जोरदार जमा दिया. उस युवक की बेहोशी इस से जरा सी टूटी. उसने आँख खोल कर अमित को देखा.. " तुम ..?" यही निकला उस के मुहं से और वह फिर बेहोश हो गया. "जिन्दा है" कह कर वह बेहूदा सा दिखने वाला डाक्टर पलट कर चल दिया.. उसके बाद करीब आधा घंटा और बीत गया. उस घायल के पास कोई लौट कर नहीं आया.उसकी गर्दन और सिर के पास लगे घाव से खून अभी भी रिस रहा था. ' तुम ' कह कर के उस युवक के फिर अचेत हो जाने के कई कारण हो सकते हैं. अमित को देख कर भय, संशय, अचरज या भर्त्सना, कुछ भी उपज कर उसे फिर अचेत कर सकते हैं. एक्सीडेंट के करीब आधा घंटा पहले उस लड़के ने अकारण ही अमित को उसकी कर से बाहर खींच कर धुन दिया था.तब भी उस लड़के की बाईक निरंकुश बेतरतीब दौड़ते कूदते चल रही थी और अमित की सचेत ड्राइविंग के चलते ही वह लड़का अमितकी कार से टकराते टकराते बचा था. लेकिन इस लड़के ने अमित को ही उसकी कार से खींच कर मारपीट शुरू कर दी थी. तब भी हेलमेट उस लड़के के सिर पर न होकर बाईक पर ही टंगा था.. और उसके आधे घटे बाद ही इस लड़के की तेज़ दौड़ती लहराती बाईक बस से टकरा गई थी. लहूलुहान होकर वह लड़का, बेहोश वहीँ सड़क पर आधा घंटा पड़ा रहा और पीछे से अमित ने ही उसे अकस्मात् दुर्घटनाग्रस्त देख कर इस अस्पताल ला पहुँचाया. अमित ऐसा ही है. ऐसा उसने पहेली बार नहीं किया है. ऐसे ही बदतमीज़ लोगों की लपेट में वह पहले भी कई बार आ चुका है, लेकिन अमित बदल जाने वाला आदमी कहाँ है भला.. अभी भी अमित इस इंतजार में रुका हुआ है कि शायद इस लड़के को खून देने की ज़रूरत पड़े..या यहाँ से उठा कर कहीं और ले जाने की.. यहाँ का हाल तो उसके सामने साफ़ ही है. तभी एक वार्ड बॉय टाइप छोकरा आ कर उस लड़के को उठा कर एक ट्राली पर डालता है और खींच कर भीतर ले जाता है. दस मिनट..गिनती के सिर्फ दस मिनट बाद ही एक फुर्तीली से हरकत माहौल में दिखने लगती है. एक सीनियर सा डाक्टर और दो नर्सें भाग कर अन्दर जाते हैं और अफरा तफरी सी नज़र आती है. अमित चिंतित हो जाता है, शायद मामला कुछ गंभीर है. तभी एक आदमी आ कर आवाज लगता है, ' पवन मनचंदा के साथ कौन है..?' जल्दी जल्दी दो बार पुकार कर वह आदमी सीधे अमित के पास आ कर पूछता है, ' पवन मनचंदा के साथ तुम हो..?' 'कौन पवन मनचंदा..?' अमित पूछता है. ' अरे वही, एक्सीडेंट वाला..' ' हाँ, हाँ, मैं ही..' अमित घबरा कर कह पड़ता है. 'तो बोलते क्यों नहीं, चलो..' अमित कहता है कि वह भला उस घायल आदमी का नाम कैसे जाने, लेकिन वह आदमी सिर्फ हड़बड़ी मैं है, और अमित को भीतर ले जाने को उतावला है . भीतर उस लड़के के चारों ओर डाक्टरों नर्सों का घेरा बना हुआ है. इस बीच उस लड़के की जेब तलाशी से उसकी पहचान ज़ाहिर हो चुकी है. अमित के भीतर आते ही एक सीनियर से दिखने वाले डाक्टर आ कर अमित के पास खड़े हो जाते हैं. 'इन्हें आप लाये थे.. कैसे..?' अमित एक सांस में दुर्घटना का जितना व्योरा उसे पता चला था, बता देता है. वह डाक्टर उतावलेपन में कहता है, ' यह लड़का इनकम टैक्स कमिश्नर मिस्टर मनचंदा का बेटा है, आपको नहीं पता..?' अमित हँसता है, ' डाक्टर, मैं इनकम टैक्स देता ज़रूर हूँ, लेकिन किसी कमिश्नर वगैरह को नहीं जानता..' साथ ही अमित जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर डाक्टर को थमा देता है. पर्यावरण मंत्रालय में उसका वज़न भी कम नहीं है. डाक्टर कार्ड देख कर जरा चौंकता है, ' ओह, मिस्टर अमित सारस्वत..आप..' ' वह छोडिये, यह बताइये इसका क्या हाल है..? खून तो काफी बह गया लगता है..' ' नहीं, कुछ सीरियस बात नहीं है. हाँ, घाव भरने में टाइम लगेगा.इंजेक्शन दे दिया है, जल्दी ही होश आ जाना चाहिए.' अमित चुप रहा. करीब पंद्रह मिनट बाद उस घायल लड़के ने आँख खोल दी. दर्द कम करने वाली दवाओं ने काम किया तो उसमे चेतना का संचार हुआ. करीब तीन मिनट बाद उसके शब्द बाहर आये, ' मेरी बाईक..? ' ' है..फिक्र मत करो..अब कैसे हो..?' डाक्टर ने पूछा., लड़का चुप रहा. अपने चारों ओर ऐसे ताकता रहा जैसे स्थितियों को समझने की कोशिश कर रहा हो..बीच बीच में उसकी नज़र अचानक घूम कर अमित पर ठहर जाती. डाक्टर ने लड़के का हाव भाव समझ कर उस लड़के को बताया, ' यह मिस्टर अमित सारस्वत हैं..यही तुम्हें एक्सीडेंट के बाद अपनी कार में अस्पताल लेकर आये..' ' हलो ' अमित ने मुस्कुरा कर कहा. तभी तेज़ी से आते क़दमों की आहट ने किसी के आने का संकेत दिया. पवन के पिता मिस्टर मनचंदा आ पहुंचे. उनके साथ शहर के डी. आई. जी. भी थे, वर्दी में. मिस्टर मनचंदा ने आते ही डाक्टर से सवालों की झड़ी लगा दी. बीच में डी. आई. जी. ने फुसफुसा कर डाक्टर से किसी के आने के बारे में पूछा और डाक्टर ने उसी तरह से जवाब दिया.बात उस इलाके के ट्रैफिक आफिसर को तलब करने की थी. इस बीच डाक्टर ने मनचंदा को अमित के बारे में बताया. अमित सारस्वत सुन कर डी. आई. जी. थोड़ा मुस्काया. यह नाम उसका खूब सुना हुआ था. ' ओह गुड लक, तभी ये हज़रत यहाँ तक पहुँच पाए..' पवन लगातार अमित का चेहरा ताक़ रहा था. अमित के चेहरे पर न खौफ था न कोई दबाव.. दवा के असर से पवन कुछ और सहज हुआ. डाक्टर ने उसे एक कमरे में शिफ्ट कर दिया, जहाँ अब कॉफी का दौर चल रहा था. इस बीच ट्रैफिक ऑफिसर आ गया.उसने पूरा व्योरा डी. आई. जी. और मनचंदा साहब को दिया.. कैसे लापरवाह तेज़ चलती मोटर साईकिल बेकाबू हो कर बस से जा भिड़ी थी..सिर पर हेलमेट नहीं था..यह साहब करीब बीस मिनट बाद अचानक उधर से गुजर रहे थे. भीड़ देख कर रुके और फिर घायल को ले कर अपनी कार में चल दिए. ' कहाँ ले जाओगे ? मैंने पूछा था सर..पता चला अस्पताल, तो मैंने कहा ठीक है.. इनकी गाड़ी का नंबर मैंने नोट किया है सर..' अपनी बात पूरी कर के ट्रैफिक अफसर चुप हो गया. तभी नर्स ने आकर घायल को एक इंजेक्शन और दिया. ' एंटी टिटनेस है..' डाक्टर ने जानकारी दी. सब के चेहरों से दबाव अब कम होता जा रहा था... एक अजीब सा भाव केवल पवन के चेहरे को घेरे हुए था.. तभी एक नया दृश्य सामने आया. डी. आई. जी. ने जेब से सिगरेट का पैकेट निकला और उसे खोलने लगे, तभी अमित आवेश में बोल उठा.. ' नो..नो सर. यहाँ वार्ड में नहीं..' डी. आई. जी. ने हाथ रोक लिया और अपने मनोभाव को मुस्काहट से छिपाने लगे. मिस्टर मनचंदा इस स्थिति से जरा परेशान हुए. 'क्यों..?' उन्होंने पूछा ' ये अस्पताल है..हर जगह नो स्मोकिंग के बोर्ड लगे हैं.. दूसरे, पवन के लिए.. सिर में चोट है. उसके लिए जरा भी खांसना तकलीफदेह हो सकता है. उसे चक्कर आ सकता है.. क्यों डाक्टर..? ' डाक्टर ने सिर हिला कर अमित की बात की पुष्टि की. ' ओ के, ओ के सारस्वत..मान लिया. चलिए मनचंदा साहब, हम बाहर चलते हैं. ' उन दोनों के साथ डाक्टर भी पीछे पीछे चल दिया. कमरे में अब केवल अमित और पवन रह गये. पवन अब काफी सचेत हो चला था. दर्द का असर हुआ था और डाक्टर की बात नें भी उसे राहत पहुंचाई थी. पवन लगातार अमित को देखे जा रहा था. उसकी कार्यवाही ने तो पवन को हैरत में डाला ही था, इस बेखौफ हस्तक्षेप नें उसे एकदम भौचक कर दिया था.. डी. आई. जी. को सिगरेट जलाने से रोक दिया और वह मान भी गये... पवन जानता है कि डी. आई. जी. अंकल अपने तेवर में किसी ड्रैगन से कम नहीं हैं. अमित भी देर से पवन का चेहरा पढ़ रहा थाकि कोई इबारत वहां उभर रही है. ' अब बोलो पवन, कुछ आराम है..? ' पवन ने तत्काल कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन कुछ पल ठहर कर यकायक बोल उठा, ' इतने निडर कैसे हैं आप..? आपने पुलिस चीफ़ को टोक दिया ' ' डर.. डर किस बात का..? ' ' यही कि वह पावरफुल हैं..बदला ले सकते हैं..उनका जवाब भारी पड़ सकता है.` ' पवन, मैं न बदला लेता हूँ, न बदले की कार्यवाही से डरता हूँ. अगर दूसरे की तरफ से ऎसी कोई कार्यवाही होती है, तो मैं उसे एक हादसा मानता हूँ, दूसरे की बीमारी का लक्षण... बीमार से तो हमेशा हमदर्दी ही की जाती है न.. उस से बच कर कैसे निकला जा सकता है. यह इंसानियत तो नहीं हुई न.. ' पवन अवाक अमित का चेहरा देखता रह गया, तो अमित नें ही आगे कहा, '..क्यों, क्या कुछ गलत कहा मैनें.. हम सब लोग इंसानियत के ख़त्म होते जाने का रोना रोते रहते हैं, लेकिन जब खुद हमारे सामने मौका आता है तो हम भी इंसानियत के खिलाफ़ हरकत कर बैठते हैं. ..हैं न..?' ' मजबूरी होती है सर, खुद पर काबू नहीं रहता.. बहुत सी बातें अपना दबाव बना कर रखती हैं..' ' हाँ, मुझे पता है. तुम्हारे पापा भी सी बी आई की गिरफ्त मैं आ गये हैं...' ' हाँ सर, उन्होंने कई मामले लगा दिए हैं पापा के खिलाफ़. डी. आई. जी. अंकल पापा के बहुत पुराने दोस्त हैं और लगातार उनके साथ इसलिए रहते हैं कि पापा कहीं परेशानी मैं कोई उल्टा सीधा कदम न उठा लें. बरसों से बहुत तनाव है घर में. मम्मी को एक अटैक पिछले साल आ चुका है. मेरा कालेज का दूसरा साल है. पढ़ाई में मन नहीं लगता.. पता नहीं क्या होगा फैमिली में..? रिश्तेदारी में सब पढ़े लिखे लोग हैं, पता नहीं मेरा क्या होगा..?' अमित को इस स्थिति का अंदाज़ हो गया था... तनाव. उसने उठ कर पवन की पीठ पर हाथ फेरा. ' चिंता मत करो, अपने सोच को बदलो. मेरी ओर देखो, मैंने तुम्हारे तनाव को दोषी माना, तुम्हें नहीं.' ' आप तो गांधी हैं सर..' ' तो तुम भी गांधी बन जाओ न.. मुश्किल नहीं है. आस पास होने वाली घटनाओं की तह में जाओ. तुम्हारी बदहवासी का कारण तुम्हारा तनाव है. तुम्हारे तनाव का कारण फैमिली में सुरक्षा का संकट है.. तो उस असुरक्षा से बचाव का रास्ता खोजो न. वह खतरा तुम्हारे पापा के परिवार तथा करिअर तक आ गया है, उसे अपने आने वाले परिवार तथा करिअर तक आने से तो रोको..' ' वह कैसे होगा..? ' ' बस, तय कर लो. पहचानो कि तुम्हारे भीतर भय किस से पैदा होता है.. और उस भय को जीतने का पक्का रास्ता अपना लो. अगर इन्टेलीजेन्स ड्रैगन है तो कैसा भी लालच उस से बड़ा ड्रैगन है. अगर बड़ा ड्रैगन मार दोगे, तो छोटा ड्रैगन तुमसे डरेगा. दरअसल हर ड्रैगन भीतर से डरा हुआ होता है और उसी पर हमला करता है, जो उस से डर जाता है. असलियत में ड्रैगन को भी इंसानियत की जबरदस्त तलब होती है. अगर तुम में इंसानियत है तो ड्रैगन खुद ब खुद तुम्हारे सामने देर सबेर झुक जाएगा.' ' ठीक कहते हैं आप..मैं बदलूँगा अपने आप को. पापा को चैलेन्ज किये बगैर उनसे अलग अपनी राह खुद चुनुँगा. इस तनाव से खुद को दूर रखने का जतन करूँगा, नहीं तो यह मेरी लाइफ़, मेरे कैरिअर को खा जाएगा.' ' गुड..फिर देखना तुम खुद को कितना निडर महसूस करने लगोगे.सच कहूँ तो तुम्हारा गांधी बनना जितना सोसाइटी से हित में है उस से कहीं ज्यादा वह तुम्हारे अपने लिए सुकून भरा है.' पवन ने सिर उठा कर अमित को देखा, एक पल, दो पल .. और फिर मुस्कुरा उठा. ' अब एक और बात कहूँ ..? ' ' कहो..' ' आई एम् सौरी अंकल..' अमित ने इसका प्रतिवाद नहीं किया. यह परिवर्तन की प्रतिध्वनि थी, जैसे इंसानियत वापस लौटने की तैयारी में हो...
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29 जनवरी 1947 को देहरादून में जन्म। इंजीनियरिंग और मैनेजमेण्ट की पढ़ाई। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान ही साहित्य से जुड़ाव ।अब तक सौ से अधिक कहानियां, अनेकों कविताएं, दर्जन भर के लगभग समीक्षाएं, दो कहानी संग्रह, एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। एक उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य। बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा Daughter of the East का हिन्दी में अनुवाद।
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