हम और हमारा समय
आलेख
सत्ता, शक्ति और शोषण
रूपसिंह चन्देल
चार बच्चे खेल रहे थे. वे प्रतिदिन ही खेलते और भिन्न प्रकार के खेल खेलते. एक बच्चा उनमें कुछ अधिक सयाना था. एक दिन उसने साथियों से कहा कि क्यों न हम आज एक नया खेलखेलें -'पुलिस-पुलिस '.
साथयों को उसका विचार पसंद आया .
बात गांव की थी और वे गांव के खलिहान में खेल रहे थे, जो गांव के बाहर एक बाग के निकट था. सयाना बच्चा दरोगा बना, एक सिपाही , एक जमींदार और चौथा जो उनमें सबसे कमजोर था जमींदार का नौकर बना. सयाना बच्चा बाग से बांस का एक मजबूत डंडा उठा आया. खेल प्रारंभ हुआ.
दरोगा बनते ही सयाना बच्चा डंडा फटकारता अकड़कर चलने लगा. उसके पीछे उसका सिपाही भी अकड़ा हुआ चल रहा था. वे खलिहान का यों चक्कर लगाने लगे मानों अपने क्षेत्र का दौरा कर रहे थे. कुछ देर बाद वे जमींदार के पास पहुचे जो खलिहान के एक कोने में बैठा नौकर को डांट रहा था. थानेदार को देख जमींदार उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़ बोला, ''आइए हुजूर..... पधारिए '' और उसने दरोगा को बैठने के लिए कहा, ''लगता है हुजूर थक गए हैं ....''
''हां, बहुत थक गया हूं .... कई गांवों के चक्कर काटकर आ रहा हूं.''
''आप आराम से बैठें हुजूर.....'' जमींदार नौकर की ओर मुड़कर बोला,'' चल बे दरोगा साहब के गोड़ दबा ..''
नौकर बना बच्चा सयाने लड़के यानी दरोगा के पैर चापने लगा.''
''अबे ....पैर दबा रहा है या फूल चुन रहा है.''
नौकर ने कुछ और ताकत लगायी, लेकिन दरोगा साहब प्रसन्न नहीं हुए .
''अबे, मरे हाथों क्यों दबा रहा है ?''
नौकर ने कुछ और ताकत लगायी लेकिन वह दरोगा को प्रसन्न नहीं कर पाया. दरोगा का गुस्सा भडक उठा. उसने डंडा नौकर की पीठ पर दे मारा. कमजोर नौकर चीखा और फैल गया. सिपाही पीछे क्यों रहता. दरोगा को खुश करने के लिए उसने ताबड़तोड़ चार डंडे नौकर के हाथ -पैरों पर जड़ दिए. नौकर बेहोश हो गया तब उन बच्चों को होश आया कि उन्होंने खेल -खेल में साथी को अधमरा कर दिया था.
उपरोक्त दृष्टांत यह सिद्ध करता है कि नकली सत्ता भी व्यक्ति को शक्ति सम्पन्न होने के अहसास से भर देती है. शक्ति से शोषण का जन्म होता है अर्थात शोषण शक्ति का अनुगामी है. कल्पना की जा सकती है कि जिनके पास वास्तविक सत्ता होती है वे उसकी शक्ति का किस प्रकार दुरुपयोग करते होगे. रुचिका गिरहोत्रा छेड़छाड़ मामला उसी सत्ता, शक्ति, और शोषण की एक ऐसी क्रूरतम दास्तान है जो सामन्ती युग की याद ताजा कर देती है. अपनी बेटी की उम्र की चौदह वर्षीया टेनिस खिलाड़ी के साथ एक पुलिस उच्चाधिकारी ने न केवल लंपटतापूर्ण दुर्व्यवहार किया बल्कि उसने अपने पद यानी सत्ता का दुरुपयोग करते हुए उसके परिवार को इस हद तक प्रताड़ित किया कि देश का गौरव बन सकने की क्षमता रखने वाली वह लड़की अर्थात रुचिका गिरहोत्रा को आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ा. यह अधिकारी उसके बाद भी गिरहोत्रा परिवार को प्रताड़ित करने से नहीं रुका. करोड़ों रुपए कीमत का पंचकुला का अपना मकान औने-पौने में बेचकर गिरहोत्रा परिवार को सोलह वर्षों तक भूमिगत रहने के लिए अभिशप्त होना पड़ा. उसके भाई आशु के विरुद्ध कारों की चोरी का आरोप लगाकर उसे गिरफ्तार कर हथकड़ी लगाकर उसके मोहल्ले में घुमाने के बाद उस पुलिस अधिकारी (डी.जी.पी.) एस.पी.एस.राठौर की उपस्थिति में उसे रोगटें खड़ी कर देने वाली यातना दी गई. गिरहोत्रा परिवार का अपराध… रुचिका से राठौर की छेड़छाड़ की शिकायत था. अपने बॉस एस.पी.एस. राठौर के निर्देशों का मुस्तैदी से पालन करते हुए पुलिसवालों ने बहन रुचिका के सामने आशु को नग्न कर जो यातना दी वह खूंखार बदमाशों को ही शायद दी जाती होगी. यह सब केवल इसलिए था कि रुचिका राठौर के खिलाफ केस वापस ले ले.
शोषण और आतंक की यह कहानी शायद चर्चा में न आती यदि अदालत राठौर को दो-चार वर्ष की सजा देता, लेकिन ऊंची राजनैतिक और ब्यूरोक्रेटिक पहुंच और करोड़ों के स्वामी राठौर को मात्र छ: माह की सजा दी गयी जिसने देश के जन-मानस को झकझोर की रख दिया. इस प्रकरण से जुड़े नये-नये तथ्य आज उद्धाटित हो रहे हैं. इस मामले की तहकीकात से जुड़े एक सी.बी.आई संयुक्त निदेशक के अनुसार राठौर ने उन्हें रिश्वत देने की पेशकश की थी. यह तो छानबीन से ही ज्ञात होगा कि उसने और किन-किन को ऐसी पेशकश की थी और रिश्वत दी भी थी. इस मामले में फैसला उन्नीस वर्षों बाद आया ....क्यों, यह भी समझना कठिन नहीं है. जिसे मृत्युदंड दिया जाना चाहिए था उसे मात्र छ: माह की सजा दी गई. अपीलों के बाद मुकदमें को आगे की अदालतों में और घिसटना था और दूसरों की जिन्दगी तबाह करने वाला 67 वर्षीय राठौर सुखचैन की जिन्दगी जीता हुआ जब सतहत्तर वर्ष का हो जाता तब उसे यदि सख्त सजा मिलती भी (जिसकी उम्मीद नहीं थी) तो वृद्धावस्था और बीमारियों के बहाने उसे कम करवाने के लिए एक और अपील दायर की जाती. तब तक गिरहोत्रा परिवार अज्ञातवास के लिए अभिशप्त रहता.
लेकिन छ: महीने की सजा सुनकर मुस्कराते हुए अदालत से निकलते राठौर को मीडिया ने जिसप्रकार प्रस्तुत किया उसने जनता की भावनाओं को उसी प्रकार उद्वेलित किया जिसप्रकार जेसिका लाल और प्रियदर्शनी मट्टू हत्याकांडों में अदालत के फैसलों के बाद किया था. हम कह सकते हैं कि अब हम सोता हुआ लोकतंत्र नहीं रहे. हालांकि कि जब गिरहोत्रा परिवार राठौर की क्रूरताओं का शिकार हो रहा था तब मीडिया यदि आज जितनी सक्रियता दिखाता तो शायद स्थिति कुछ भिन्न होती. लेकिन इसका कारण शायद यह है कि राठौर के आतंक और राजनैतिक ऊंची पहुंच के कारण मीडिया उन तथ्यों तक पहुंच ही नहीं पाया जो आज उसके लिए संभव हो पा रहे हैं.
सत्ता, शक्ति और शोषण के इस खेल में केवल एस.पी.एस. राठौर मात्र अपराधी नहीं हैं. हजारों राजनीतिज्ञ और उच्चाधिकारी लुके-छुपे यह सब कर रहे हैं. कुछेक शोषितों के दुस्साहस से चंद मामले ही प्रकाश में आ पाते हैं. शेष नेताओं-अफसरों के प्रभाव में अपनी मौत स्वत: मर जाते हैं और इन अपराधियों को दूसरे शिकार खोजने-बनाने की छूट दे जाते हैं. आज जब अस्सी पार के किसी उच्च पदस्थ नेता की (जिसकी दोनों टांगे कब्र में लटकी हुई हैं) लंपटता उजागर होती है तब इटली के प्रधानमंत्री की कारगुजारियां छोटी दिखाई देने लगती हैं (उसने अभी 73 वसंत ही देखे हैं) .
ऐसे मामलों में मीडिया के सकारात्मक भूमिका के परिणामस्वरूप हुई जन-जाग्रति ने सरकारों को (केन्द्र और राज्य) रुचिका मामले की पुन: जांच के लिए घोषणा करनी पड़ी. रुचिका की मित्र आराधना गुप्ता और उसके माता-पिता की जितनी प्रशंसा की जाए कम है. राठौर के आतंक के बावजूद इन्होंने असंभव को संभव बनाया. इन लोगों ने यह सिद्ध कर दिया कि इस अवसरवादी और धूर्त समय में भी मानवता जीवित है. आम जनता के अतिरिक्त अनेक संस्थाओं की भूमिका भी श्लाघनीय है, लेकिन आश्चर्यजनक है कि कोई लेखक संगठन इस मामले में आगे नहीं आया. जेसिका लाल और प्रियदर्शनी मट्टू हत्या मामलों में कोई साहित्यिक संगठन आगे आया था, मुझे जानकारी नहीं है.
किसी हिन्दी लेखक द्वारा अपने ममेरे-फुफेरे भाई के नाम से प्रारंभ हुआ पुरस्कार किसी भाजपाई नेता से ले लेने पर हंगामा बरपा करने वाले साहित्यिक संगठन खामोश हैं. वे तब भी खामोश थे जब एक बड़े मार्क्सवादी हिन्दी कवि ने अटल बिहारी बाजपेई से व्यास सम्मान ग्रहण किया था. क्या तब बाजपेई जी भाजपा में नहीं थे ? कश्मीर के सोंपियां कांड पर कश्मीर को आजाद किए जाने की मांग करने वाली अरुंधती राय की चुप्पी भी चौंकानेवाली है.
समाज साहित्य की अनिवार्यता है. साहित्यिक संगठनों का कार्य मात्र क्या साहित्यकारों को स्थापित-विस्थापित, प्रशंसा और भर्त्सना तक ही सीमित होना चाहिए? अधिकांशतया तो यही होता है, लेकिन कुछ ऐसे मामले हैं जहां इन संगठनों से संबद्ध लोगों ने अपने खोल से बाहर निकलकर अपने बयान दिए. बाटला हाउस आतंकवादी घटना में पुलिस कार्यवाई की भर्त्सना करते हुए उन लोगों ने उसे फेक एनकाउण्टर कहा था. लेकिन इन सगंठनों से बाहर एक बृहद लेखक समाज है. मैं भी उसका हिस्सा हूं और उसी हैसियत से एस.पी.एस. राठौर के जघन्य अपराधों के लिए मैं उसे मृत्युदंड और उसका साथ देने वाले नेताओं और अधिकारियों को सख़्त सजाएं दिए जाने की मांग करता हूं और स्वतंत्रचेता लेखक बिरादरी से भी ऐसी ही मांग की अपेक्षा करता हूं.
**
वातायन के जनवरी 2010 अंक में प्रस्तुत है - हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार और कवि सुभाष नीरव से उनके पंजाबी से हिन्दी अनुवाद कर्म पर केन्द्रित अजंना बख्शी की बातचीत, सुभाष नीरव द्वारा अनूदित पंजाबी के युवा कथाकार बलविन्दर सिंह बराड़ की कहानी – ‘सन्नाटा’ और साथ ही, हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार-कवि अशोक गुप्ता की कहानी –‘प्रतिध्वनि’.
आशा है अंक आपको पसंद आएगा.
*****
साथयों को उसका विचार पसंद आया .
बात गांव की थी और वे गांव के खलिहान में खेल रहे थे, जो गांव के बाहर एक बाग के निकट था. सयाना बच्चा दरोगा बना, एक सिपाही , एक जमींदार और चौथा जो उनमें सबसे कमजोर था जमींदार का नौकर बना. सयाना बच्चा बाग से बांस का एक मजबूत डंडा उठा आया. खेल प्रारंभ हुआ.
दरोगा बनते ही सयाना बच्चा डंडा फटकारता अकड़कर चलने लगा. उसके पीछे उसका सिपाही भी अकड़ा हुआ चल रहा था. वे खलिहान का यों चक्कर लगाने लगे मानों अपने क्षेत्र का दौरा कर रहे थे. कुछ देर बाद वे जमींदार के पास पहुचे जो खलिहान के एक कोने में बैठा नौकर को डांट रहा था. थानेदार को देख जमींदार उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़ बोला, ''आइए हुजूर..... पधारिए '' और उसने दरोगा को बैठने के लिए कहा, ''लगता है हुजूर थक गए हैं ....''
''हां, बहुत थक गया हूं .... कई गांवों के चक्कर काटकर आ रहा हूं.''
''आप आराम से बैठें हुजूर.....'' जमींदार नौकर की ओर मुड़कर बोला,'' चल बे दरोगा साहब के गोड़ दबा ..''
नौकर बना बच्चा सयाने लड़के यानी दरोगा के पैर चापने लगा.''
''अबे ....पैर दबा रहा है या फूल चुन रहा है.''
नौकर ने कुछ और ताकत लगायी, लेकिन दरोगा साहब प्रसन्न नहीं हुए .
''अबे, मरे हाथों क्यों दबा रहा है ?''
नौकर ने कुछ और ताकत लगायी लेकिन वह दरोगा को प्रसन्न नहीं कर पाया. दरोगा का गुस्सा भडक उठा. उसने डंडा नौकर की पीठ पर दे मारा. कमजोर नौकर चीखा और फैल गया. सिपाही पीछे क्यों रहता. दरोगा को खुश करने के लिए उसने ताबड़तोड़ चार डंडे नौकर के हाथ -पैरों पर जड़ दिए. नौकर बेहोश हो गया तब उन बच्चों को होश आया कि उन्होंने खेल -खेल में साथी को अधमरा कर दिया था.
उपरोक्त दृष्टांत यह सिद्ध करता है कि नकली सत्ता भी व्यक्ति को शक्ति सम्पन्न होने के अहसास से भर देती है. शक्ति से शोषण का जन्म होता है अर्थात शोषण शक्ति का अनुगामी है. कल्पना की जा सकती है कि जिनके पास वास्तविक सत्ता होती है वे उसकी शक्ति का किस प्रकार दुरुपयोग करते होगे. रुचिका गिरहोत्रा छेड़छाड़ मामला उसी सत्ता, शक्ति, और शोषण की एक ऐसी क्रूरतम दास्तान है जो सामन्ती युग की याद ताजा कर देती है. अपनी बेटी की उम्र की चौदह वर्षीया टेनिस खिलाड़ी के साथ एक पुलिस उच्चाधिकारी ने न केवल लंपटतापूर्ण दुर्व्यवहार किया बल्कि उसने अपने पद यानी सत्ता का दुरुपयोग करते हुए उसके परिवार को इस हद तक प्रताड़ित किया कि देश का गौरव बन सकने की क्षमता रखने वाली वह लड़की अर्थात रुचिका गिरहोत्रा को आत्महत्या के लिए विवश होना पड़ा. यह अधिकारी उसके बाद भी गिरहोत्रा परिवार को प्रताड़ित करने से नहीं रुका. करोड़ों रुपए कीमत का पंचकुला का अपना मकान औने-पौने में बेचकर गिरहोत्रा परिवार को सोलह वर्षों तक भूमिगत रहने के लिए अभिशप्त होना पड़ा. उसके भाई आशु के विरुद्ध कारों की चोरी का आरोप लगाकर उसे गिरफ्तार कर हथकड़ी लगाकर उसके मोहल्ले में घुमाने के बाद उस पुलिस अधिकारी (डी.जी.पी.) एस.पी.एस.राठौर की उपस्थिति में उसे रोगटें खड़ी कर देने वाली यातना दी गई. गिरहोत्रा परिवार का अपराध… रुचिका से राठौर की छेड़छाड़ की शिकायत था. अपने बॉस एस.पी.एस. राठौर के निर्देशों का मुस्तैदी से पालन करते हुए पुलिसवालों ने बहन रुचिका के सामने आशु को नग्न कर जो यातना दी वह खूंखार बदमाशों को ही शायद दी जाती होगी. यह सब केवल इसलिए था कि रुचिका राठौर के खिलाफ केस वापस ले ले.
शोषण और आतंक की यह कहानी शायद चर्चा में न आती यदि अदालत राठौर को दो-चार वर्ष की सजा देता, लेकिन ऊंची राजनैतिक और ब्यूरोक्रेटिक पहुंच और करोड़ों के स्वामी राठौर को मात्र छ: माह की सजा दी गयी जिसने देश के जन-मानस को झकझोर की रख दिया. इस प्रकरण से जुड़े नये-नये तथ्य आज उद्धाटित हो रहे हैं. इस मामले की तहकीकात से जुड़े एक सी.बी.आई संयुक्त निदेशक के अनुसार राठौर ने उन्हें रिश्वत देने की पेशकश की थी. यह तो छानबीन से ही ज्ञात होगा कि उसने और किन-किन को ऐसी पेशकश की थी और रिश्वत दी भी थी. इस मामले में फैसला उन्नीस वर्षों बाद आया ....क्यों, यह भी समझना कठिन नहीं है. जिसे मृत्युदंड दिया जाना चाहिए था उसे मात्र छ: माह की सजा दी गई. अपीलों के बाद मुकदमें को आगे की अदालतों में और घिसटना था और दूसरों की जिन्दगी तबाह करने वाला 67 वर्षीय राठौर सुखचैन की जिन्दगी जीता हुआ जब सतहत्तर वर्ष का हो जाता तब उसे यदि सख्त सजा मिलती भी (जिसकी उम्मीद नहीं थी) तो वृद्धावस्था और बीमारियों के बहाने उसे कम करवाने के लिए एक और अपील दायर की जाती. तब तक गिरहोत्रा परिवार अज्ञातवास के लिए अभिशप्त रहता.
लेकिन छ: महीने की सजा सुनकर मुस्कराते हुए अदालत से निकलते राठौर को मीडिया ने जिसप्रकार प्रस्तुत किया उसने जनता की भावनाओं को उसी प्रकार उद्वेलित किया जिसप्रकार जेसिका लाल और प्रियदर्शनी मट्टू हत्याकांडों में अदालत के फैसलों के बाद किया था. हम कह सकते हैं कि अब हम सोता हुआ लोकतंत्र नहीं रहे. हालांकि कि जब गिरहोत्रा परिवार राठौर की क्रूरताओं का शिकार हो रहा था तब मीडिया यदि आज जितनी सक्रियता दिखाता तो शायद स्थिति कुछ भिन्न होती. लेकिन इसका कारण शायद यह है कि राठौर के आतंक और राजनैतिक ऊंची पहुंच के कारण मीडिया उन तथ्यों तक पहुंच ही नहीं पाया जो आज उसके लिए संभव हो पा रहे हैं.
सत्ता, शक्ति और शोषण के इस खेल में केवल एस.पी.एस. राठौर मात्र अपराधी नहीं हैं. हजारों राजनीतिज्ञ और उच्चाधिकारी लुके-छुपे यह सब कर रहे हैं. कुछेक शोषितों के दुस्साहस से चंद मामले ही प्रकाश में आ पाते हैं. शेष नेताओं-अफसरों के प्रभाव में अपनी मौत स्वत: मर जाते हैं और इन अपराधियों को दूसरे शिकार खोजने-बनाने की छूट दे जाते हैं. आज जब अस्सी पार के किसी उच्च पदस्थ नेता की (जिसकी दोनों टांगे कब्र में लटकी हुई हैं) लंपटता उजागर होती है तब इटली के प्रधानमंत्री की कारगुजारियां छोटी दिखाई देने लगती हैं (उसने अभी 73 वसंत ही देखे हैं) .
ऐसे मामलों में मीडिया के सकारात्मक भूमिका के परिणामस्वरूप हुई जन-जाग्रति ने सरकारों को (केन्द्र और राज्य) रुचिका मामले की पुन: जांच के लिए घोषणा करनी पड़ी. रुचिका की मित्र आराधना गुप्ता और उसके माता-पिता की जितनी प्रशंसा की जाए कम है. राठौर के आतंक के बावजूद इन्होंने असंभव को संभव बनाया. इन लोगों ने यह सिद्ध कर दिया कि इस अवसरवादी और धूर्त समय में भी मानवता जीवित है. आम जनता के अतिरिक्त अनेक संस्थाओं की भूमिका भी श्लाघनीय है, लेकिन आश्चर्यजनक है कि कोई लेखक संगठन इस मामले में आगे नहीं आया. जेसिका लाल और प्रियदर्शनी मट्टू हत्या मामलों में कोई साहित्यिक संगठन आगे आया था, मुझे जानकारी नहीं है.
किसी हिन्दी लेखक द्वारा अपने ममेरे-फुफेरे भाई के नाम से प्रारंभ हुआ पुरस्कार किसी भाजपाई नेता से ले लेने पर हंगामा बरपा करने वाले साहित्यिक संगठन खामोश हैं. वे तब भी खामोश थे जब एक बड़े मार्क्सवादी हिन्दी कवि ने अटल बिहारी बाजपेई से व्यास सम्मान ग्रहण किया था. क्या तब बाजपेई जी भाजपा में नहीं थे ? कश्मीर के सोंपियां कांड पर कश्मीर को आजाद किए जाने की मांग करने वाली अरुंधती राय की चुप्पी भी चौंकानेवाली है.
समाज साहित्य की अनिवार्यता है. साहित्यिक संगठनों का कार्य मात्र क्या साहित्यकारों को स्थापित-विस्थापित, प्रशंसा और भर्त्सना तक ही सीमित होना चाहिए? अधिकांशतया तो यही होता है, लेकिन कुछ ऐसे मामले हैं जहां इन संगठनों से संबद्ध लोगों ने अपने खोल से बाहर निकलकर अपने बयान दिए. बाटला हाउस आतंकवादी घटना में पुलिस कार्यवाई की भर्त्सना करते हुए उन लोगों ने उसे फेक एनकाउण्टर कहा था. लेकिन इन सगंठनों से बाहर एक बृहद लेखक समाज है. मैं भी उसका हिस्सा हूं और उसी हैसियत से एस.पी.एस. राठौर के जघन्य अपराधों के लिए मैं उसे मृत्युदंड और उसका साथ देने वाले नेताओं और अधिकारियों को सख़्त सजाएं दिए जाने की मांग करता हूं और स्वतंत्रचेता लेखक बिरादरी से भी ऐसी ही मांग की अपेक्षा करता हूं.
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वातायन के जनवरी 2010 अंक में प्रस्तुत है - हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार और कवि सुभाष नीरव से उनके पंजाबी से हिन्दी अनुवाद कर्म पर केन्द्रित अजंना बख्शी की बातचीत, सुभाष नीरव द्वारा अनूदित पंजाबी के युवा कथाकार बलविन्दर सिंह बराड़ की कहानी – ‘सन्नाटा’ और साथ ही, हिन्दी के वरिष्ठ कथाकार-कवि अशोक गुप्ता की कहानी –‘प्रतिध्वनि’.
आशा है अंक आपको पसंद आएगा.
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13 टिप्पणियां:
भाई चन्देल, तुम्हारा यह सम्पादकीय - "सत्ता, शक्ति और शोषण" बहुत ज़ोरदार है। अपनी बात को तुम बहुत जोरदार ढंग से उठाने में सफल रहे हो। तुम्हारे भीतर एक जागरूक लेखक, अनुवादक ही नही, एक जागरूक पत्रकार भी बैठा है। तुमने लेखक संगठनों की ऐसे मामलो में बरती जाने वाली उदासीनता और चुप्पी पर अच्छा वार किया है। ये संगठन व्यर्थ के मसलों पर तो बहुत हो-हल्ला मचाते नज़र आएंगे, पर जहाँ इनकी भागीदारी की जरूरत होती है- वहाँ ये चुप्पी साध जाते हैं। ऐसे ही दोगले चरित्रों पर मैंने अभी कुछ दिन पहले ही एक कविता लिखी थी- छोटी -सी। यहाँ शेयर करना चाहता हूँ-
क्या कहें
तुम्हारी फितरत को
हम सरकार !
तुम्हें जहाँ होना था
वहाँ तुम नहीं थे
नहीं होना था जहाँ तुम्हें
दिखे तुम वहाँ
बार-बार !
बोलना नहीं था जहाँ
बोले वहाँ तुम धुआँधार
जहाँ जिस वक्त ज़रूरत थी
तुम्हारे बयान की
वहाँ तुम्हारी जीभ को
लकवा गया मार
क्यों मेरी सरकार ?
तुम्हारी फितरत के बारे में
हम क्या कहें
सरकार !
सुभाष नीरव
' नकली सत्ता भी व्यक्ति को शक्ति सम्पन्न होने के अहसास से भर देती है. शक्ति से शोषण का जन्म होता है अर्थात शोषण शक्ति का अनुगामी है'-आपका यह कथन पूरी तरह सही है । युग बदल गया है,शोषण के तरीके वही हैं ।
प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं--तुलसीदासजी की इस उक्ति कम से कम ब्यूरिक्रेट्स और राजनेता तो सौ प्रतिशत खरे उतरते हैं। आपने हमेशा की तरह तटस्थ भाव से समस्या को उठाया है। आपकी इस बात में भी दम है कि समस्याओं को अलग-अलग संस्थाएँ अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार ही उठाती हैं। इस संबंध में एक छोटा-सा उदाहरण--ऑफिस में एकाउंटेन्ट की लापरवाही की वजह से एक चपरासी की 10 दिनों की तनख्वाह रोक ली गई। मुझे बहुत गुस्सा आया और इस लापरवाही की रिपोर्ट मैंने यूनियन के एक नेता को कर दी। उस रिपोर्ट को लेकर अगले दिन वह महाशय सदेह मेरी सीट पर आ उपस्थित हुए और बोले--'माफ करना अग्रवालजी, एकाउंटेंट भी हमारी यूनियन को चंदा देता है। आप कुछ दिन सब्र करो, चपरासी की तनख्वाह बनवा दी जायगी।'
'वह तो बिना कुछ किए भी बन ही जानी थी।' मैंने उनसे कहा।
'तब शायद कुछ ज्यादा देर लग जाती,' वह बेहयाई के साथ बोले,'मैंने कह दिया है, अब जल्दी बन जायगी।'
'आप उससे मना कर दीजिए' मैंने उनसे कहा,'मैं देखता हूँ कि वह आज ही क्यों नहीं उसका पे-रोल तैयार करता है।'
वाकया लम्बा है, लेकिन इतनेभर से समझा जा सकता है कि यूनियन-लीडर भी किस हद तक अपने लोगों का हित साधते हैं और कमजोर की सुनवाई नहीं करते हैं।
प्रिय भाई रूप,
वातायन का हार्दिक स्वागत है. कहानी के लिए धन्यवाद देना चाहूँगा.
कुछ इतर बातें..
बहुत अच्छा लगा कि तुमने कहानी के पहले वह टिप्पणी दी जो मैंने लगाई थी. बढ़िया होता अगर वह इतालिक्स में जाती. उस से वह कहानी के टेक्स्ट से अलग नज़र आती... दूसरी बात, परिचय में कहानी संग्रहों की संख्या बढ़ा कर तीन कर लो भाई.. कम से कम मेरे लिए यह बढ़ोतरी मुश्किल से होती है.
वातायन पढ़ कर विस्तृत प्रतिक्रिया दूंगा.
परिवार को मेरा अभिवादन.
अशोक गुप्ता
प्रिय अशोक
कुछ हर बार छूट जाता है. जब परिचय copy कर पोस्ट किया तब पोस्ट करने से पहले उसमें तुम्हारे निर्देशानुसार राजकमल प्रकाशन से तुम्हारे सम्बद्ध होने को जोड़ना भूल गया. बाद में जोड़ना कठिन होता है. आइन्दा खयाल रखूंगा. आशा है कि भविष्य में भी सहयोग मिलता रहेगा.
चन्देल
VATAYAN KO PADHKAR MUJHE HAMESHA
KHUSHEE HOTEE HAI,VISHESHKAR AAPKA
LEKH ,REKHACHITRA YAA SANSMARAN .
IS BAAR BHEE AAPNE KHOOB BADHIYA
LIKHAA HAI.BADHAAEE.
Roop Singh ji,
Aapke shabad humesha ki tarah bahut asardaar hain...!!!
Priya
रूप जी,
आप के उपन्यासों में कई जगह मैं आप के भीतर के पत्रकार को मिल चुकी हूँ, पर पिछले कुछ दिनों से तो वह खुल कर सामने आ रहा है, बेबाक , निर्भीक, तेज धार की कलम पकड़े, रूप को इस रूप की बधाई..सम्पादकीय बहुत कुछ
कह गया है अगर हम सब साहित्यकार इसे स्वीकार करें....
मौसम की पकड़ -जकड़ में हूँ , शीघ्र ही बाकी वातायन पढ़ कर लिखूंगी....
आपके इस आलेख से पूरी तरह सहमत हूँ सही मे मीडिया की भूमिका नकारात्मक रही है। साँप निकल जाने के बाद लकीर पीटते हैं। कल आपकी एक कहानी पढ रही थी बीच मे कोई आ गया उठ्क़ना पडा देर हो गयी आज मुझे मिल नहीं रही है दोबारा देखती हूँ । आफरणीय प्राण भाई साहिब के कैअपा से आपको पढने का सुअवस्र मिला है। बहुत बहुत धन्यवाद और शुभकामनायें
aapki bhasha, samay kee pakad adbhut hai
आम भारतीयों की यह्ही आदत है के अगर किसी को तकलीफ में देखा तो पतली गली से सरक लो
और यही कहना के, ' हमें क्या समय है रोजाना की ऐसी फ़िज़ूल बातों में उलझ ने को ? '
पर याद रहे, आज किसी की बेटी पर जो बीती है, वो , दुसरे के घर भी हो सकता है -
आपके साहसिक आलेख से ही अगर कुछ अच्छे और सच्चे लोग सामने आयें तब
ऐसे रावण राठोड़ों को आजीवन कारावास मिल जाए -- जो प्रताड़ित है उसकी मदद करना
यही सच्ची मानवता है - कब तलक बर्बरता का राज , गुंडा राज चलेगा ?
लिखिए ...हम सब आपके साथ है -
- लावण्या
Takk fyrir ahugaverd blog
मैंने यह खबर पढ़ी थी | भारत में | इसके बाद इस विषय पर कुछ अखबारों के विशिष्ट संस्करण पढ़े | किन्तु मूल कहानी आपके ब्लॉग से जानी| जो काम मीडिया कर रहा है वो आप भी कर रहे हैं| ब्लॉग के माध्यम से| इसमें हर विचार शील व्यक्ति की साझेदारी तो होगी ही|
बहुत समय बाद इस ब्लॉग पर आई हूँ| बहुत कुक पढ़ना बाकी है|
इला
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