बुधवार, 8 जनवरी 2014

वातायन-जनवरी,२०१४

हम और हमारा समय

स्त्री विमर्श के इस दौर में

रूपसिंह चन्देल

अपनी बात कहने से पहले मैं ’अकार’ (सम्पा. प्रियंवद) में ऊगो चावेस पर राजकुमार राकेश के आलेख ’ऊगो चावेस और बोलीवारियन क्रान्ति’ के प्रारंभिक अंश उद्धृत करना चाहता हूं. 

’फ्रन्टलाइन’ के ९ अगस्त,२०१३ के अंक में तारिक अली का एक इंटरव्य़ू छपा है. विश्व परिदृश्य पर ’अमेरिकन हेजिमनी’ के अनेक पक्षों को सामने रखने वाले प्रश्नों के बीच एक प्रश्न शावेज को लेकर भी है, कि ऎसी छुटपुट सूचनाएं मिल रही हैं कि शावेज को जहर दिया गया था. तारिक के पास क्या कुछ सूचनाएं हैं और वह इसे बांटना चाहेंगे? तारिक अली का उत्तर है:

“शावेज के मामले में ईमानदार सच्चाई यह है कि हम नहीं जानते. इस बारे में कतई कोई संदेह नहीं है कि शावेज स्वयं सोचते थे कि एक अमेरिकन के साथ सहवास करने के बाद वह इस तेज और उग्र रूप के कैंसर से संक्रमित हुए. मेरा मतलब है कि शावेज कोई अविवाहित व्यक्ति नहीं थे और औरतों के साथ सोते थे. मृत्यु से पहले उन्होंने अपने नजदीक के लोगों से कहा था कि वह उसके (उस औरत) बारे में सदैव असहज रहे. अब हम अभी तक नहीं जानते कि यह सच है या नहीं, या क्या यह तकनीकी रूप से संभव है कि इस खास तरह के कैंसर से किसी को संक्रमित किया जा सके. मैंने एक वरिष्ठ पश्च्मिमी डॉक्टर से, जो किसी भी तरह इस राजनीति में शामिल नहीं था, पूछा कि क्या तकनीकी रूप से यह संभव है? और उसने कहा कि इन दिनों तकनीकी रूप से कुछ भी संभव है….”

शावेज, पर राजकुमार राकेश ने  बहुत ही महत्वपूर्ण और श्रमसाद्ध्य आलेख लिखा है. 

तारिक अली के साक्षात्कार से यह स्पष्ट है कि शावेज के कितने ही विवाहेतर संबन्ध थे और उनमें से एक उनकी मौत का कारण बना. स्वयं शावेज ने मित्रों से उसे स्वीकार किया. अर्थात शावेज उन लोगों में नहीं थे जो अवैध संबन्ध तो रखना चाहते हैं लेकिन खुलासे से बचते हैं---छुपाते हैं.  महापुरुषों के जीवन में विवाहेतर औरतों की उपस्थिति मन में प्रश्न उत्पन्न करती है कि ऎसा क्यों होता है! माओ, फिदेल कास्त्रो, पिकासो, दॉस्तोएव्स्की,पूश्किन----पिछले दिनों मेरे एक मित्र ने आम्बेदकर पर बहुत कुछ खोज निकाला, लेकिन अपनी खोज को उन्हें अपने तक ही सीमित रखना पड़ा क्योंकि लोग उनकी जान को पड़ गए थे. कास्त्रो के विषय में अमेरिका के एक समाचार पत्र ने लिखा था कि प्रतिदिन उनके मनोरंजन के लिए तीन औरतें चाहिए होती थीं. इसे अमेरिका का कुप्रचार माना गया. निश्चित ही यह अतिशयोक्तिपूर्ण था, लेकिन कास्त्रो में विचलन नहीं रहा होगा, यह कहना भी सही नहीं होगा. मर्निल मनरो और कनेडी बन्धुओं के विषय में सभी जानते हैं और यह भी कि जॉन एफ.कनेडी केवल मनरो तक ही सीमित न थे. सत्त्ता हाथ आते ही मन में  दबी इच्छाएं उभर आती हैं और बड़ा से बड़ा क्रान्तिकारी भी लंपटता की राह पर क्यों चल पड़ता है,  यह अध्ययन का विषय है. 

सत्ता व्यक्ति को शक्तिशाली होने का अहसास देती है. यह अहसास व्यक्ति को संतुलित नहीं रहने देता. कल की नैतिकता अतीत का विषय बन जाती है. वे लोग भी जो  ऎक्टिविस्ट हैं---आन्दोलनों से जुड़े होते हैं-- शोषण के खिलाफ लड़ते दिखाई देते हैं, स्त्री के प्रति उनका दृष्टिकोण उनसे कतई भिन्न नहीं होता जिनकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है.  

स्त्री को बराबरी का हक देने-दिलाने की कोशिशों और नारों का अर्थ यह नहीं कि पुरुषों ने अपनी सोच बदल ली. बराबरी के नाम पर उसने शोषण के नए तरीके खोज लिए और उसमें वह कामयाब भी रहा. स्त्रियां जब तक उसके छद्म को समझती हैं छली जा चुकी होती हैं. लोग स्त्रियों को आजादी के नाम पर छलते रहे---छल रहे हैं…. और जब बेनकाब हुए तो उन जैसे उनके संगी साथी उनके बचाव के लिए कलम की कुल्हाड़ी लेकर छली गयी स्त्री के खिलाफ लामबद्ध हो उठे. उसे दुश्चरित्र सिद्ध करने लगे.  यदि कोई व्यक्ति किसी संगठन से जुड़ा हुआ है तो वह कुछ भी कर सकने की छूट ले लेता है क्योंकि उसे बचाने के लिए उसका संगठन आगे आ जाता.  स्त्री अपने को अकेली पाती है. स्त्री विमर्श के इस दौर में यह गंभीर विचार का विषय है कि यह विमर्श उन्हें कितनी ताकत दे रहा है और कितना कमजोर कर रहा है. 

आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि पुरुषों की दुश्चरित्रता को ढकने के लिए स्त्रियां भी मैदान में कूद जाती हैं… दुश्चरित्र पतियों को बचाने के लिए ढाल बनती हैं….उनकी पत्नियां ही क्यों उनके मित्रों की पत्नियां भी आगे आ जाती हैं. आखिर क्यों नारी ही नारी की शत्रु बन जाती है.  समाजशास्त्रियों के लिए यह भी अध्ययन का विषय है.    
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वातायन के इस पोस्ट में आप पढ़ वरिष्ठ कवि और गज़लकार लक्ष्मीशंकर बाजपेई की गज़लें और वरिष्ठ कवयित्री ममता किरन की कविताएं.

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लक्ष्मीशंकर वाजपेयी की पाँच ग़ज़लें
 


(1)

फूल काग़ज़ के हो गए जब से,
ख़ुबुएँ दर-ब-दर हुईं तब से

कुछ किसी से भी मांगना न पड़े,
हम ने मांगा है बस यही रब से ।

जब से पानी नदी में आया है,
हम भी प्यासे खड़े हैं बस तब से ।

बेटियाँ फ़िक्रमंद रहती हैं,
बेटे रखते हैं, काम मतलब से ।

ज़िन्दगी को मयार कैसे मिले,
हमने सीखा है ग़म के मक़तब से ।

लाख धोखा है उसकी बाज़ीगरी,
लोग तो ख़ु हैं उसके करतब से ।

मयार = श्रेष्ठता, मक़तब = विद्यालय

(2)

अमन का नया सिलसिला चाहता हूँ
जो सबका हो ऐसा ख़ुदा चाहता हूँ ।

जो हर दिल में इंसानियत को जगा दे,
मैं जादू का ऐसा दिया चाहता हूँ ।

कहा उसने धत इस निराली अदा से
मैं दोहराना फिर वो ख़ता चाहता हूँ ।

तू सचमुच ख़ुदा है तो फिर क्या बताना
तुझे सब पता है मैं क्या चाहता हूँ ।

अंधेरों से लड़ लूँगा बेशक़ अकेले
बस इक हौसले की सदा चाहता हूँ ।

बहुत हो चुका डर के, छुप छुप के जीना
सितमगर से अब सामना चाहता हूँ ।

किसी को भंवर में न ले जाने पाए
मैं दरिया का रुख़ मोड़ना चाहता हूँ ।

मुझे ग़म ही बांटे मुक़द्दर ने लेकिन
मैं सबको ख़ुशी बाँटना चाहता हूँ

ये कल एक नदिया से बोला समंदर
मैं तेरा ही होकर रहा चाहता हूँ ।

(3)
    
पूरा परिवार एक कमरे में
कितने संसार एक कमरे में

हो नहीं पाया बड़े सपनो का
छोटा आकार एक कमरे में

शोरगुल नींद पढ़ाई टी वी
रोज़ तकरार एक कमरे में

ज़िक्र दादा की उस हवेली का
सैकड़ों बार एक कमरे में

एक घर हर किसी की आँखों में
जिसका विस्तार एक कमरे में
 
(4)

खूब हसरत से कोई प्यारा-सा सपना देखे
फिर भला कैसे उसी सपने को मरता देखे

अपने कट जाने से बढ़कर ये फ़िक्र पेड़ को है
घर परिंदों का भला कैसे उजड़ता देखे

मुश्किलें अपनी बढ़ा लेता है इन्सां यूँ भी
अपनी गर्दन पे किसी और का चेहरा देखे

 बस ये ख्वाहिश है, सियासत की, कि इंसानों को
 ज़ात या नस्ल या मज़हब में ही बंटता देखे 

जुर्म ख़ुद आके मिटाऊंगा कहा था, लेकिन
तू तो आकाश पे बैठा ही तमाशा देखे

छू के देखे तो कोई मेरे वतन की सरहद
और फिर अपनी वो जुर्रत का नतीजा देखे
 
 (5)

दर्द जब बेजुबान होता है 
कोई शोला जवान होता है 

आग बस्ती में सुलगती हो कहीं 
खौफ में हर मकान होता है 

बाज आओ कि जोखिमों से भरा 
सब्र का इम्तिहान होता है 

ज्वार-भाटे में कौन बचता है  
हर लहर पाकर उफान होता है 

जुगनुओं की चमक से लोगों को 
रोशनी का गुमान होता है 

वायदे  उनके  खूबसूरत हैं 
दिल को कम इत्मीनान होता है     

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लक्ष्मी शंकर वाजपेयी
 
शिक्षा : एम.एस.सी(भौतिक विज्ञान)
संप्रति : अपर महानिदेशक, आकाशवाणी, दिल्ली।
प्रकाशित संग्रह : बेजुबान दर्द, ख़ुशबू तो बचा ली जाए(ग़ज़ल संग्रह)
मच्छर मामा समझ गया हूँ (बाल कविताएं), खंडित प्रतिमाएं (प्रकाशनाधीन)
सम्पर्क : 304, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली–110023

दूरभाष : 011-24676963
9899844933(मोबाइल)
ई मेल : poetlsbajpai@gmail.com

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ममता किरण की पांच कविताएँ



(1) स्त्री



स्त्री झाँकती है नदी में
निहारती है अपना चेहरा
सँवारती है अपनी टिकुली, माँग का सिन्दूर
होठों की लाली, हाथों की चूड़ियाँ
भर जाती है रौब से
माँगती है आशीष नदी से
सदा बनी रहे सुहागिन
अपने अन्तिम समय
अपने सागर के हाथों ही
विलीन हो उसका समूचा अस्तित्व इस नदी में

स्त्री माँगती है नदी से
अनवरत चलने का गुण
पार करना चाहती है
तमाम बाधाओं को
पहुँचना चाहती है अपने गन्तव्य तक।

स्त्री माँगती है नदी से सभ्यता के गुण
वो सभ्यता जो उसके किनारे
जन्मी, पली, बढ़ी और जीवित रही।

स्त्री बसा लेना चाहती है
समूचा का समूचा संसार नदी का
अपने गहरे भीतर
जलाती है दीप आस्था के
नदी में प्रवाहित कर
करती है मंगल कामना सबके लिए
और...
अपने लिए माँगती है
सिर्फ नदी होना।

(2) स्मृतियाँ

मेरी माँ की स्मृतियों में कैद है
आँगन और छत वाला घर
आँगन में पली गाय
गाय का चारा सानी करती दादी
पूरे आसमान तले छत पर
साथ सोता पूरा परिवार
चाँद तारों की बातें
पड़ोस का मोहन
बादलों का उमड़ना-घुमड़ना
दरवाजे पर बाबा का बैठना।

जबकि मेरी स्मृतियों में
दो कमरों का सींखचों वाला घर
आँगन न छत
न चाँद न तारे
न दादी न बाबा
न आस न पड़ोस
हर समय कैद
और हाँ...
वो क्रेच वाली आंटी
जो हम बच्चों को अक्सर डपटती।

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(3) जन्म लूँ

जन्म लूँ यदि मैं पक्षी बन
चिड़ियाँ बन चहकूँ तुम्हारी शाख पर
आँगन-आँगन जाऊँ, कूदूँ, फुदकूँ
वो जो एक वृद्ध जोड़ा कमरे से निहारे मुझे
तो उनको रिझाऊँ, पास बुलाऊँ
वो मुझे दाना चुगायें, मैं उनकी दोस्त बन जाऊँ।

जन्म लूँ यदि मैं फूल बन
खुशबू बन महकूँ
प्रार्थना बन करबद्ध हो जाऊँ
अर्चना बन अर्पित हो जाऊँ
शान्ति बन निवेदित हो जाऊँ
बदल दूँ गोलियों का रास्ता
सीमा पर खिल-खिल जाऊँ।

जन्म लूँ यदि मैं अन्न बन
फसल बन लहलहाऊँ खेतों में
खुशी से भर भर जाए किसान
भूख से न मरे कोई
सब का भर दूँ पेट।

जन्म लूँ यदि मैं मेघ बन
सूखी धरती पर बरस जाऊँ
अपने अस्तित्व से भर दूँ
नदियों, पोखरों, झीलों को
न भटकना पड़े रेगिस्तान में
औरतों और पशुओं को
तृप्त कर जाऊँ उसकी प्यास को
बरसूँ तो खूब बरसूँ
दु:ख से व्याकुल अखियों से बरस जाऊँ
हर्षित कर उदास मनों को।

जन्म लूँ यदि मैं अग्नि बन
तो हे ईश्वर सिर्फ़ इतना करना
न भटकाना मेरा रास्ता
हवन की वेदी पर प्रज्जवलित हो जाऊँ
भटके लोगों की राह बन जाऊँ
अँधेरे को भेद रोशनी बन फैलूँ
नफ़रत को छोड़ प्यार का पैगाम बनूँ
बुझे चूल्हों की आँच बन जाऊँ।
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(4) वृक्ष था हरा भरा

वृक्ष था हरा-भरा
फैली थी उसकी बाँहें
न बाहों में उगे थे
रेशमी मुलायम नरम नाजुक नन्हें से फूल
उसके कोटर में रहते थे
रूई जैसे प्यारे प्यारे फाहे
उसकी गोद में खेलते थे
छोटे छोटे बच्चे
उसकी छांव में सुस्ताते थे पंथी
उसकी चौखट पर विसर्जित करते थे लोग
अपने अपने देवी देवता
पति की मंगल कामना करती
सुहागिनों को आशीषता था
कितना कुछ करता था सबके लिए
वृक्ष था हरा भरा।

पर कभी-कभी
कहता था वृक्ष धीरे से
फाहे पर लगते उड़ जाते हैं
बच्चे बड़े होकर नापते हैं
अपनी अपनी सड़कें
पंथी सुस्ता कर चले जाते हैं
बहुएँ आशीष लेकर
मगन हो जाती हैं अपनी अपनी गृहस्थी में
मेरी सुध कोई नहीं लेता
मैं बूढ़ा हो गया हूँ
कमज़ोर हो गया हूँ
कब भरभरा कर टूट जाएँ
ये बूढ़ी हड्डियाँ
पता नहीं
तुम सबसे करता हूँ एक निवेदन
एक बार उसी तरह
इकट्ठा हो जाओ
मेरे आँगन में
जी भरकर देख तो लूँ।

(5) चांद

तारों भरे आसमान के साथ
चांद का साथ-साथ चलना
सफ़र में
अच्छा लगता है
कितना अच्छा होता
इस सफ़र में
चांद की जगह
तुम साथ होते।

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ममता किरन

समकालीन हिंदी कविता में एक सुपरिचित कवयित्री। ‘किताब घर प्रकाशन’ से वर्ष 2012 में प्रकाशित पहला कविता संग्रह ‘वृक्ष था हरा-भरा’ इन दिनों काफ़ी चर्चा में है। इसके अतिरिक्त, अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, लेख, साक्षात्कार, पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित। रेडियो, दूरदर्शन तथा निजी टी वी चैनलों पर कविताओं का प्रसार। अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों एवं मुशायरों में शिरकत। अंतर्जाल पर हिंदी की अनेक वेब पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।  इसके अतिरिक्त रेडियो-दूरदर्शन के लिए डाक्यूमेंटरी लेखन। दूरदर्शन की एक डाक्यूमेटरी के लिए अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित। आकाशवाणी के समाचार सेवा प्रभाग में समाचार वाचिका तथा विदेश प्रसारण सेवा में उदघोषिका, आकाशवाणी की राष्ट्रीय प्रसारण सेवा में कार्यक्रम प्रस्तोता। ''मसि कागद'' पत्रिका के युवा विशेषांक का संपादन।
संपर्क : 304, टाइप-4, लक्ष्मीबाई नगर, नई दिल्ली-110023
दूरभाष : 09891384919(मोबाइल)
ई मेल : mamtakiran9@gmail.com

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