गुरुवार, 6 सितंबर 2012

वातायन-सितम्बर,२०१२

वातायन का यह अंक वरिष्ठ कथाकार और अनुवादक सूरजप्रकाश की रचनाओं पर केन्द्रित है.  मेरे स्थायी स्तंभ ’हम और हमारा समय’ के अंतर्गत प्रस्तुत है सूरज प्रकाश की रचना ’अपनी बात’. साथ में प्रस्तुत हैं उनके नवीनतम उपन्यास का प्रथम अंश, कविता और उनसे मधु अरोड़ा की बातचीत. कुछ तकनीकी गड़बड़ियों के कारण यह प्रस्तुति आप तक विलंब से पहुंच रही है. आशा है अंक पसंद आएगा. 

आपकी बेबाक प्रतिक्रिया से मुझे दिशा निर्देश मिलता है. अतः प्रतिक्रिया व्यक्त करने में संकोच नहीं करेंगे.

अपनी बात
सूरज प्रकाश

 बहुत  सारे बिम्ब हैं। स्मृतियां हैं। दंश हैं। बहुत सारी खुशियां हैं।  बहुत कुछ ऐसा है जो अब तक किसी से बांटा नहीं है। न आमने सामने और न लेखन के ज़रिये ही। मुझे नहीं पता कि सब लिखने पढ़ने वालों के साथ ही ऐसा होता है कि लगातार लिखने के बावजूद बहुत कुछ ऐसा रह जाता है जो न कहा जाता है न लिखा ही जाता है।
एक बार वरिष्ठ कथाकार गोविन्द मित्र ने कहा था कि आम आदमी में और लेखक में यही फ़र्क होता है कि दोनों ही भरे हुए बादलों की तरह होते हैं। लेखक बरस कर खुद को हलका कर लेता है और आम आदमी बिना बरसे आगे गुजर जाता है। इसी बात को आगे बढ़ाऊं? तो लेखक भी खुद को पूरी तरह कहां खाली कर पाता है। हर पल कुछ न कुछ तो नया जुड़ता रहता है। अच्‍छा, बुरा, जो कहे जाने लायक होते हुए भी कहे जाने से हमेशा रह जाता है। उसी की टीस हमेशा सालती रहती है। यही टीस बीच बीच में जब ज्यादा घनी हो जाती है तो शब्द रूप में आकार ग्रहण करती है। टीस की यह खजाना न कभी खाली होता है न पूरी तरह से मुक्ति देता है। जिस दिन ये टीस नहीं रहेगी, लिखने - कहने के लिए ही कहां  कुछ रह जायेगा।
मेरे पास भी तो ऐसा बहुत कुछ अनकहा है। पता नहीं कभी कह पाऊंगा या नहीं। कभी सोचा भी नहीं था लेखन से जुड़ूंगा। जिस किस्म के माहौल में रहा और जिस किस्म की परवरिश हिस्से में आयी, उसमें इतने खूबसूरत, अपनेपन से लबरेज और बेहद विस्तृत संसार की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। कभी सोच ही नहीं सकता था, शब्दों का इतना खूबसूरत संसार मेरे हिस्से में भी आयेगा।
यहां मैं बचपन के अभावों, तकलीफों और पढ़ाई को लेकर दूसरी दिक्कतों का बिल्कुल भी ज़िक्र किये बिना बचपन की एक ऐसी  घटना शेयर करना चाहूंगा जिसने मेरे बाद के जीवन की दिशा ही बदल डाली।
तब उम्र तेरह चौदह साल की रही होगी। उन दिनों हम अपने पिता जी के पास गर्मियों की छुट्टियों में मसूरी गये हुए थे। उन दिनों उनकी पोस्टिंग वहीं थी। मैं अपने बड़े भाइयों और दोस्तों के साथ जिंदगी में पहली बार (और आखिरी बार भी) अपने घर के पास वाले मैदान में क्रिकेट खेल रहा था। एक टूटा हुआ सा बैट था और हमारी खुद की बनायी हुई लकड़ी की गेंद थी। अचानक गेंद सीधे मेरे मुंह पर आ कर लगी और सामने को आधा दांत टूट गया। ये मेरे जीवन की पहली और आखिरी गेंद थी जो मैंने खेली थी। मैं रोता हुआ घर आ गया। दांत टूटने की पीड़ा तो दो एक घंटे में चली गयी होगी लेकिन जिस पीड़ा ने मेरा पीछा बहुत देर तक, पच्चीस तीस साल तक की उम्र तक नहीं छोड़ा, वह थी उस टूटे दांत की वज़ह से उस वक्त रख दिये गये नाम से चिढ़ाये जाने की पीड़ा। मेरे भाई और सब दोस्त मुझे दांत टूटा बकरा कह कर चिढ़ाने लगे थे। मेरा चेहरा वैसे भी लम्बोतरा है। मैं रोता, गुस्सा करता तो उन्हें और मज़ा आता। वे और चिढ़ाते। सामने भी और पीठ पीछे भी। मेरे लिए सबके पास अब यही संबोधन था। कोई भी मेरी पीड़ा को समझने को तैयार नहीं था। नतीजा यह हुआ कि मैंने उनके साथ खेलना बंद कर दिया। मैं अकेला होता चला गया और अपने अकेलेपन की एक अलग ही दुनिया में विचरने लगा। इस टूटे दांत की वजह से मैं किसी से बात करने में भी शरमाता। हीनता की ग्रंथि इतनी अधिक घर कर गयी कि मुंह पर हाथ रख कर बात करता। कहीं किसी को मेरा टूटा दांत नज़र न आ जाये। कोई बड़ा आदमी मुझसे बात करता तो मैं बात ही न कर पाता। मैं खुद अपनी तरफ से पहल न कर पाता। लड़कियों से बात करने लायक आत्मविश्वास तो मुझमें बहुत देर बाद तक नहीं आ पाया था। अभी भी शायद नहीं है। मन ही मन घुटता रहता। बेशक थोड़े बहुत दोस्त बाद में बने लेकिन मेरा खोया आत्मविश्वास वापिस नहीं मिला। घर में कभी किसी को सूझा ही नहीं कि सौ पचास रुपये खर्च करके मेरे इस आधे टूटे दांत का कोई इलाज ही करा देते। वहां पहले से ही कई समस्याएं थी। आर्थिक दबाव थे। जानकारी का अभाव था और ये काम प्राथमिकता में नहीं आता था।
शायद ऐसी ही मन:स्थिति में सातवीं आठवीं में पहली बार तुकबंदी की होगी। कविता की कोई समझ तो थी नहीं। बेशक पढ़ने का शौक था और हम भाई लोग देहरादून की इकलौती लाइब्रेरी, खुशी राम पब्लिक लाइब्रेरी में पढ़ने के लिए जाते थे, लेकिन तब यह पढ़ना चंदामामा, राजा भैया और बाल भारती तक ही सीमित था। बहुत हुआ तो प्रेम चंद की बाल कथाओं की कोई किताब ले ली। तो इसी तरह तुकबंदी करके अपने अकेलेपन को बांटता। पढ़ाई में हम पांचों भाई  और हमारी इकलौती बहन औसत ही थे।
बचपन में हमारे एक चाचा नौकरी के सिलसिले में हमारे घर में ही रहने के लिए आये। पिता जी तब 6 महीने मसूरी और 6 महीने टूर पर रहा करते।  डेढ़ कमरे का मकान। आर्थिक दबाव। उसी घर में दादा, दादी, बूआ और दो चाचा तथा हम छः भाई बहनों का बोझ अकेले ढोती मां जो अपनी तकलीफों का किसी से भी न कह पाने की पीड़ा को हम सबको पीट पीट कर गुस्से के रूप में हम पर उतारती। सारा बचपन ही मार और डांट खाते बीता। कुछ भी सहज नहीं, सुलभ नहीं। शायद यही वजह है कि अपने बच्चों पर मैंने आज तक हाथ भी नहीं उठाया है। हमें नियमित जेब खर्च नहीं मिलता था, इसी वजह से हम अपने छोटे छोटे खर्च पूरे करने के लिए घर का सामान लाने में बेईमानी करते, सामान कम तुलवा कर लाते, ज्यादा दाम बताते या दूसरी ओछी हरकतें करके दो चार आने बचा लेते।
घर की यह हालत थी कि उस घर में लैट्रिन का दरवाजा टूट गया तो बरसों तक लगवाया नहीं जा सकता। एक टाट का परदा लटकता रहा।  घर में लाइट नहीं थी। एक ही लैम्प होता और उसी के जरिये सारे काम निपटाये जाते। बाद में स्थानीय चुनावों में वोटों के चक्कर में एक उम्मीदवार ने हमारी गली में बिजली लगवायी तो शायद यह हम पर बहुत बड़ी मेहरबानी थी कि वह खम्बा हमारी ही दीवार पर लगवाया गया और हमारा घर रौशन हुआ। दसवीं और  बारहवीं की पढ़ाई उसी खम्बे के बल्ब तले पूरी की गयी। इससे पहले पड़ोस से एक बल्ब के लायक बिजली लेते और मुंह मांगे दाम देते, उनकी धौंस अलग से सहते।
 उस डेढ़ कमरे के घर का यह आलम था कि बरसात में सारा घर चूता और कोई भी बरतन ऐसा न बचता जो टपकते पानी के नीचे न रखा हो। सारी सारी रात टपकते पानी से बचते बचाते बीतती।
आस पास का माहौल भी बहुत अच्‍छा नहीं था। मच्‍छी बाजार में घर, आस पास कच्ची शराब बिकती, जूआ चलता और सट्टे के लेनदेन होते। आये दिन चाकू चलते। ऐसे माहौल में अच्‍छे संस्कारों की उम्मीद ही कैसे होती। सारे लड़के हरामी और आवारागर्द। गरीब लोगों का इलाका।
ऐसे में पढ़ाने का चाचा का आतंकित करने वाला तरीका। वे आफिस से जल्दी आकर देखते कहीं हम आवारागर्दी तो नहीं कर रहे।  करते भी थे लेकिन डरते डरते। खूब पीटते वे। इसका और शायद आस पास के माहौल का भी नतीजा रहा कि हम में से किसी भाई  को आज तक न पतंग उड़ाना आता है न कंचे खेलना। हर खेल में हम डरते डरते हिस्सा लेते और कभी कोई तीर नहीं मार सके। अक्सर पिट कर आ जाते। इसी वजह से हम सब भाई हमेशा फिसड्डी रहे। सारे के सारे भाई दब्बू निकले। औसत ज़िंदगी जीते रहे। पतंग उड़ानी मैंने कुछ बरस पहले अहमदाबाद में उत्तरायण के मौके पर सीखी। और कोई खेल आज तक आता नहीं। न गाना और न ही नाचना या और तरह की धींगा मस्ती करना।
 जब मैं ग्यारहवीं में था और दोनों बड़े भाई बारहवीं में तो हम सब के सब भाई बहन अपनी अपनी कक्षा में फेल हो गये। हम तीन बड़े भाइयों की पढ़ाई रुक गयी। सबसे बड़े भाई को जैसी भी छोटी मोटी नौकरी मिली, उसी में ठेल दिये गये। मेरी अपनी उम्र थी कुल जमा सत्रह बरस। तभी हर तरह के धंधे करने पर विवश होना पड़ा। कभी लॉटरी के टिकट बेचे तो कभी आवाज लगा कर कच्‍छे बनियान और रूमाल तक बेचे। ट्यूशनें पढ़ायीं, सेल्समैनी की। ये सब टटपूंजिये धंधे किये। शर्म भी आती। आस पास के साथी और परिचित लड़कियां क्या कहेंगी लेकिन कुछ तो करना ही था। हां, ये सब करते समय यह हमेशा दिमाग में रहा कि सिर्फ यही नहीं करते रहना है। और भी कुछ करना है। बेशक पढ़ाई नहीं थी लेकिन भीतर एक उम्मीद सी टिमटिमाती थी कि चीज़ें यूं ही नहीं रहेंगी।
संयोग ऐसा बना कि एक फटीचर नौकरी के साथ साथ प्राइवेट तौर पर इंटर की परीक्षा देने का मौका मिल गया। इंटर के बाद मार्निंग कॉलेज से बीए करना चाहता था लेकिन फीस वगैरह के लिए पांच सौ रुपये नहीं थे, सो एडमिशन नहीं करवा पाया। एक सेमिस्टर बेकार गया। अगले सेमेस्टर में भी यही हाल था। नौकरी करने के बावजूद पैसे नहीं थे। वेतन था शायद 120 रुपये महीना। उन्हीं दिनों पिता जी सरकारी कर्ज से मकान बनवा रहे थे। तय था घर में बहुत तंगी चल रही थी और जितने पैसे उनके हाथ में थे, उससे मकान  पूरा नहीं हो सकता था। वे सारे दोस्तों के कर्जदार हो चुके थे। बेशक अब तक  दोनों बड़े भाई पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करने लगे थे लेकिन वे चाचा के पास दूसरे शहर में थे और ज्यादा मदद नहीं कर पा रहे थे।
आज भी मुझे वह तारीख अच्‍छी तरह याद है। 25 नवम्बर 1971 थी। दूसरे सेमेस्टर में एडमिशन की आखिरी तारीख थी और घर में सिर्फ 400 रुपये थे जिससे उसी दिन सीमेंट लाया जाना था। पिताजी ने मेरा उदास चेहरा देखा और भरे मन से वे सारे रुपये मुझे थमा दिये - जा एडमिशन ले ले। घर बनता रहेगा।
यह मेरे प्रति उनका पहला त्याग था। मैं आज तक उनकी वे नम आंखें नहीं भूल पाया हूं। भूल सकता भी नहीं। भूलना भी नहीं चाहिये।
और इस तरह मेरा बीए पूरा हुआ था। तब तक मेरी भी पक्की नौकरी लग चुकी थी। नक्शा नवीस की। दो एक कविताएं भी स्थानीय अखबारों में छप गयी थीं लेकिन तब तक न किसी लेखक से परिचय था न कुछ ढंग की चीजें ही सिलसिलेवार पढ़ने का अवसर मिल पाया था। सुबह छः बजे से नौ बजे तक कॉलेज, दिन में नौकरी और शाम को एकाध ट्यूशन।
बीए करते ही मुझे घर से तीन हज़ार किमी दूर हैदराबाद में अनुवादक की नौकरी मिली। जिस वेतन मान में पिताजी नौकरी के 25 साल बाद पहुंचे थे, मैं उससे अपने कैरियर की शुरूआत कर रहा था। हैदराबाद में ही एमए के लिए इवनिंग कॉलेज में दाखिला ले लिया। बाइस बरस की उम्र। पहली ही बार में घर से इतनी दूर। रहने खाने की तकलीफें भी। एक बार फिर से व्यस्त दिनचर्या।
एक अच्छी मित्र बनी। वह डे कालेज में थी और मैं इवनिंग में। अक्सर फोन करती। उसे फोन करने के लिए अपनी सहेली के घर जाना पड़ता। वहां से वे एक ऐसे तबेले में जा कर फोन करतीं जहां उस वक्त कोई न होता। इसमें उन्हें दो तीन घंटे और ढेर से रुपये लगते लेकिन उन्हें इसमें सुख मिलता और मुझे अच्छा लगता कि कोई है यहां। लेकिन बाद में उसकी शादी हो गयी, टूटी और वह अपने पैरों पर खड़ी हो कर फिर से जीवन के संघर्षों से दो चार होती रही। ये अलग विषय है।
हैदराबाद में मेरे रूम पार्टनर मेरे ही संस्थान के थे और हद दर्जे के बिगड़े हुए थे। रात रात भर हमारे घर में ताशबाजी चलती। मुझे भी घसीट लिया जाता। मैं कालेज से थका हुआ आता, कुछ पढ़ना चाहता लेकिन घर पर खेल जमा होता। वे मेरा मज़ाक उड़ाते। लेकिन मैं अपने दब्बू स्वभाव के चलते उनसे लड़ भी न पाता। वे दोनों बाहर रंडीबाजी करते, आवारागर्दी करते, लेकिन मैं किसी तरह खुद पर काबू पाये रहता। कई बार अलग रहने की सोची भी, लेकिन नहीं हो पाया।
 एमए फाइनल के पेपर चल रहे थे। अगले  दिन भाषा विज्ञान का पेपर था। दोनों पार्टनर अचानक एक सड़क छाप लड़की को ले कर आ गये। लड़की सुबह से उनके साथ थी और वे सारा दिन उसके साथ आवारागर्दी करते रहे थे। जब तक खाना पीना चलता रहा, मैं उनका साथ देता रहा, लेकिन संकट बाद में शुरू हुआ। मैंने लड़की शेयर करने का उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया। हालांकि मेरा कमरा अलग था और उन दोनों का कमरा अलग, बीच में दरवाजा, वैसे उसे बंद किया जा सकता था, लेकिन उस हाल में सुबह पेपर देने के लिए पढ़ पाना मेरे लिये बहुत मुश्किल काम था। वैसे भी अपनी जिंदगी में सैक्स की शुरुआत इतने बाजारू ढंग से करने के बारे में मैं सोच भी नहीं  सकता था। हालांकि इस वजह से मुझे उन दोनों से नामर्द की गाली खानी पड़ी, जिसे मैं झेल गया।
मैं रात मैं लैम्प की रोशनी में छत पर पढ़ता रहा। रात में ही किसी वक्त लड़की को बाहर निकाल दिया गया था। इस घटना ने मुझे कई बरस तक व्यथित किये रखा। आखिर इस घटना के 16 साल बाद 1992 में मैंने इस पर अपनी विवादास्पद कहानी उर्फ चन्दरकला लिखी और हिन्दी के तमाम लेखकों का नाराजगी मोल ली।
एमए में विश्वविद्यालय में मेरा दूसरा स्थान रहा। मैं स्थानीय होता तो पहला रहता।
उस वक्त तक और बाद में भी 1977 में देहरादून लौटा तब भी, घर लौट कर भी छटपटाहट, बेचैनी और कुछ न कर पाने की जद्दोजहद मेरा पीछा न छोड़ती। अकेलापन फिर साथ में।
            इस बीच दिल्ली में तीन महीने की एक ट्रेनिंग के लिए जाना हुआ और वहां एक लड़की से परिचय हुआ। वह उसी कार्यालय में काम करती थी जहां ट्रेनिंग थी। हम दोनों ने तीन महीने खूब अच्छे से गुजारे और खूब बदनामी मोल ली।
उसी के कहने पर मैंने उस कार्यालय में रिक्तियों के लिए आवदेन किया और चयन हो गया लेकिन जब मैं वहां उसके प्यार के चक्कर में घर बार छोड़ कर दिल्ली आ गया तो वह बात करने को ही राजी न हो। मेरा दिल टूट गया, एक तो मैं एक बार फिर घर छोड़ कर चला आया था और यहां अकेला गया था। न खुदा ही मिला न विसाले सनम।
दरअसल हुआ यह था कि जब मेरा चयन हुआ तो पिता जी को तभी प्रोमोशन मिला और उन्हें शिलांग का स्थानांतरण मिला। हम दोनों में से कोई एक ही जा सकता था। उनकी इच्छा थी कि वे ये प्रोमोशन लें ले और बाद में वापिस आ जायेंगे तब मैं बाहर निकलने के बारे में सोचूं। लेकिन हम तो प्रेम में पागल थे सो एक न सुनी। पिताजी ने एक बार फिर मेरे पक्ष में त्याग किया। उन्हें अपने जीवन का एक महत्त्वपूर्ण पद खोना पड़ा और उनकी पेंशन आदि पर काफी फर्क पड़ा। रुतबे पर तो पड़ा ही।
            और मैं दिल्ली आ गया। दिल्ली जाकर नई नौकरी करने के दौरान बेशक लेखकों के बीच उठना बैठना होता रहा लेकिन कुछ भी  लिखा नहीं जाता था। बहुत घुटन होती थी लेकिन शब्द नहीं सूझते थे। इस बीच देहरादून, हैदराबाद और दिल्ली में हुए दो तीन प्रेम प्रसंग धराशायी हो चुके थे। हर बार की तरह मैं अकेला ही रहा।
इस बीच एक और नौकरी बदली। हमेशा मन पर दबाव रहता। ज़िंदगी निरर्थक सी लगने लगती। समझ में नहीं आता था कि क्या और कैसे किया जाये। ढेरों अनुभव थे लेकिन उन्हें सिलसिलेवार कह पाना या लिख पाना ही नहीं होता था। तभी अपनी पुरानी कलीग एक और अच्‍छी लड़की से मित्रता हुई। उसका बहुत स्नेह मिला। ज़िदंगी में रस आने लगा। नौकरी अलग अलग जगह होने के कारण हमारा रोजाना मिलना संभव नहीं हो पाता था। तभी एक जगह तमिल भाषा के  तीन महीने के कोर्स का विज्ञापन देखा। हफ्ते में दो बार शाम को। आइडिया अच्‍छा लगा। दोनों ने एडमिशन ले लिया। अगले 3 महीने तक हफ्ते में दो बार पूरी शाम एक साथ गुजारने का सिलसिला बन गया। दिल्ली प्रवास के दौरान का वह वक्त बहुत ही अच्‍छा गुजरा। जिंदगी के नये मायने मिले। तब तक पिता जी भी तबादला लेकर दिल्ली आ गये थे। भाई बहन भी। हालांकि इस बीच दो तीन नौकरियां बदल चुका था और अब तक ठीक ठाक नौकरी कर रहा था लेकिन फिर भी कहीं एक छटपटाहट थी जो हर वक्त बैचैन किये रहती थी। लिखने की शुरूआत अब तक नहीं हो पायी थी। फालतू के दुनियावी धंधों में दिन गुजर रहे थे। घर वालों की तरफ से शादी के दबाव पड़ने शुरू हो गये थे। उम्र 28 की हो चली थी। हम दोनों शादी करना तो चाहते थे लेकिन घर वालों की रज़ामंदी से। उसके घर वाले मुझे जानते ही थे और वह भी हमारे घर कई बार आ चुकी थी। मेरे परिवार को कोई खास एतराज नहीं था। मेरे माता पिता वगैरह जब लड़की वालों से मिलने गये तो लड़की की मां बिदक गयी। जहर खाने की धमकी दे डाली। पूरा मामला ही खटाई में पड़ गया।
इस बीच मुंबई से रिज़र्व बैंक से इस नौकरी का आफर आ चुका था। एक बार फिर मैंने परिवार और पिताजी को धोखा दिया और उनके दिल्ली आने के कुछ ही दिन बाद बंबई की राह पकड़ी। वे लोग मेरे ही कारण दिल्ली आये थे।
बंबई के शुरू के दिन बेहद तकलीफ भरे गुजरे। रहने का जो ठिकाना मिला उन्हीं चाचा के घर जो बीस बरस पहले कई साल तक हमारे डेढ़ कमरे के घर में हमारे साथ रह चुके थे। चाचा के घर रहना बेहद तकलीफ भरा रहा। चाची बिला वजह तनाव में खुद भी रहती और सबको रखती। हालांकि सिर्फ रात का खाना ही खाता था, वह भी भरपेट नसीब न होता। जब वे लोग मेरे भरोसे घर छोड़ कर गर्मियों की छुट्टी में महीने भर के लिए बाहर गये तो चाची टीवी और फ्रिज तक को ताला लगा कर गयी थी। यह बहुत बड़ा अपमान लगा मुझे। बेशक चाचा को भी बुरा लगा लेकिन उनका बस चलता तो ये नौबत ही क्यों आतीं।
उस दिन बार में पहली बार बैठ कर मैंने एक बार में शराब पी और वह शायद मेरी जिंदगी का सबसे उदास दिन था। सारे रिश्ते नातों से मेरा मोह भंग हो गया था। लेकिन ये ही तो जीवन है।
जिस दिन चाचा चाची वापिस लौटे, उनके पंहुचने से आधा घंटा पहले ही उनका घर छोड़ दिया और पूरा दिन सामान लिये लिये ठिकाने की तलाश में भटकता रहा। शाम के वक्त अपने अधिकारी के यहां दो दिन के लिए शरण मांगी।
बड़ी मुश्किल से एक गेस्ट हाउस में रहने का इंतजाम हो पाया था। वहां अकेलापन बहुत काटता। रूम पार्टनर एक दूसरे से बात ही नहीं करते थे। कहीं कोई कुछ मांग न ले। कोई यार दोस्त था नहीं और हर तरह से मैं अकेला था।
घर को ले कर ये सारे के सारे बिम्ब मेरी अलग अलग कहानियों में आये हैं और अभी भी बहुत कुछ ऐसा है जो घर के जरिये मुझे कहना है। हालांकि मेरी पिछली कई रचनाओं और उपन्यास में भी घर बहुत शिद्दत से उभर कर आया है। कई कहानियों के नाम भी घर से जुड़े हुए है और थीम भी घर से मोह ही है। घर बेघर, छूटे हुए घर, खो जाते हैं घर, देस बिराना, मर्द नहीं रोते, सही पते पर, फैसले, छोटे नवाब बड़े नवाब तथा मेरी लम्बी कहानी देश, आजादी की पचासवीं वर्षगांठ तथा एक मामूली सी प्रेम कहानी, इन सब में घर ही है जो बार बार हांट करता है और कुछ नये अर्थ दे जाता है।
खैर, तो बात हो रही थी। बंबई के शुरुआती दिनों की। ऑफिस का माहौल बेहद तनाव भरा था और वहां गुटबाजी थी। नये आदमी को वैसे भी एडजस्ट करने में कुछ समय तो लगता ही है। कई बार सब कुछ छोड़ छाड़ कर वापिस भाग जाने का दिल करता। एकाध बार इस्तीफा भी लिख कर दिया। यह नया शहर जहां सिर्फ अकेलापन और अकेलापन था, मुझे रास नहीं आया था। आखिर आप कितने दिन और कब तक मैरीन ड्राइव की मुंडेर पर बैठ कर वक्त गुजार सकते हैं। वह भी अकेले। बाद में धीरे धीरे शहर के कुछ लिखने पढ़ने वालों से थोड़ा बहुत परिचय हुआ, कुछ यार दोस्त बने तो हम लोग खाली वक्त में मुंबई युनिवर्सिटी के लॉन में बैठने लगे। वहीं मधु से परिचय हुआ, आगे बढ़ा और इस जिंदगी के अकेलेपन का हमेशा के लिए खात्मा हुआ। बंबई आने के ढाई साल बाद विवाह। प्रेम विवाह। हमने 1983 में एरेंज्ड लव मैरिज की। अब तक अच्‍छी तरह से निभ रही है।
शादी के बाद ही जाना कि शादी के दिन से जो आपकी आज़ादी छिनती है, पूरी ज़िंदगी वापिस नहीं मिलती। बेशक आप परिवार से दूर अकेले रह क्‍यों न रह रहे हों, आप कभी अकेले नहीं होते। शादी शुदा ही होते हैं। हमेशा के लिए।
इस बीच कुछ लिखने की कई बार कोशिश की लेकिन बात नहीं बन पाती थी। लिखता और फाड़ देता। कोई गाइड करने वाला था नहीं। एक बार एक रचना लिखी और दिल्ली में धीरेद्र अस्थाना, बलराम और सुरेश उनियाल को सुनाई। ये लोग मुझसे दस पद्रह बरस से परिचित थे और इतने ही अरसे से लिखते चले आ रहे थे। रचना सुन लेने के बाद किसी ने एक शब्द तक नहीं कहा कि रचना है भी  है या नहीं। अपनी पहली रचना पर उनके इस व्यवहार से बहुत तकलीफ हुई थी। तब बहुत मशक्कत करके एक और कहानी लिखी थी और जब सुरेश उनियाल मुंबई आये तो उन्हें सुनायी। फिर वहीं मुंह में दही रखने वाला मौन। मार्गदर्शन का एक शब्द भी नहीं। कहानी दिल्ली में अपने परिचित कथाकार सुरेंद्र अरोड़ा को दिखायी। अगले दिन उन्होंने कहा कि मैंने रात को कहानी पढ़ी तो थी लेकिन याद ही नहीं आ रही है कि क्या कहानी थी। इसके अलावा और कोई शब्द नहीं।
एक बार किसी गोष्ठी में वरिष्ठ कथाकार जगदम्बा प्रसाद दीक्षित से मुलाकात हुई। उन्हें खूब पढ़ चुका था और वे भी मुझे नाम चेहरे से जानते ही थे। उनसे मैंने पूछा था लिखना चाहता हूं, लेकिन बात नहीं बनती, क्या करूं, कैसे लिखूं। उनकी भी प्रतिक्रिया ठंडी ही थी और मैं एक बार फिर खाली हाथ रह गया था।
1987 तक आते आते यानी 35 साल की उम्र तक प्रकाशित रचनाओं के नाम पर मेरी कुल जमापूंजी सारिका में दो तीन लघुकथाएं और एक आध अनुवाद ही था। यहां तक आते आते लिखने की चाह और न लिख न पाने की तकलीफ बहुत सालने लगी थी। तब तक एक बेटे का पिता बन चुका था और घर में भी कोई तकलीफ नहीं थी। बेचैनी थी कि कहीं चैन नहीं लेने देती थी। तभी किसी ने सुझाया 10 दिन के लिए विपश्यना शिविर में हो आओ। चित्त को शांति भी मिलेगी और राह भी सूझेगी। ईगतपुरी मे विपश्यना शिविर किया तो मानसिक द्वंद्व कुछ कम हुआ और चीजों की गहराई से देखने, समझने लायक बल मिला।
1988 में यानी 36 बरस की उम्र में पहली कहानी नवभारत टाइम्स में छपी और दूसरी कहानी वरिष्ठ रचनाकार सोहन शर्मा ने अपने कथा संकलन में शामिल की। इस वक्त तक मेरे सभी दोस्तों की कई कई किताबें आ चुकी थीं। खैर, देर से ही सही, शुरूआत तो हुई। हिम्मत बढ़ी और अपने जीवन की महत्वपूर्ण कहानी अधूरी तस्वीर (1988) लिखी जो धर्मयुग में छपी और बाद में कई भाषाओं में अनूदित हुई। तब तक सिलसिला चल निकला था और धीरे धीरे ही सही लिखना आने लगा था। डेढ़ दो साल की अवधि में तीन चार कहानियों के ड्राफ्ट लिखे। हालांकि कोई भी कहानी मुक्कमल तौर पर अच्‍छी नहीं बन पायी थी लेकिन बात कहने की शऊर आने लगा था। लिखने की मेज पर बैठने का संस्कार मिल रहा था और तनाव कम होने लगे थे।
            1988 के मध्य के आते आते ऑफिस में माहौल फिर से मेरे खिलाफ होने लगा था। पिछले दो तीन बरसों में जो चीजें अपनी तरफ  की थीं फिर से खिलाफ होने लगी थीं। मेरे सभी कामों में नुक्स निकाले जाने लगे और सताया जाने लगा। हालत यहां तक पंहुच गयी कि मुझे सज़ा के तौर पर 1989 में जनवरी में 10 दिन के नोटिस पर मद्रास स्थानांतरित कर दिया गया। पहले से ही तैयार था इसके लिए। लेकिन पूर विभाग को जैसे सांप सूंघ गया हो। सब साथियों ने मुझसे बात तक करना बंद कर दिया कि कहीं उन्हें भी ऐसी ही सज़ा न मिल जाये। मुझसे मेरे विभाग के प्रभारी ने कहा कि अगर माफी मांग लो तो ट्रांसफर रुकवा सकते हैं। मैंने मना कर दिया जब कोई गलती ही नहीं की थी तो माफी किस बात की मांगूं। वैसे भी उनके हाथ में ट्रांसफर से तो बड़ी सज़ा थी ही नहीं। हां, जब मैंने किसी निकट के शहर में स्थानांतरण के लिए अनुरोध किया तो अहमदाबाद कर दिया गया लेकिन पीछा फिर भी नहीं छोड़ा गया। वहीं मेरे कामकाज को लेकर चिट्ठियां जाती रहीं।
 यह बात अलग है कि जो कुछ मुझे सज़ा समझ कर दिया गया था, अंतत: मेरे लिए वरदान ही साबित हुआ। मैं अपने पीछे तीन साल के अपने बेटे और नौकरीशुदा पत्नी को छोड़ कर गया था। वे कभी अकेले नहीं रहे थे और मैं भी नये नये माहौल में खुद को एडजस्ट करने की कोशिश में लगा हुआ था। अहमदाबाद में मेरे पास खूब वक्त था। लोग अच्‍छे मिले। धीरे धीरे लिखने पढ़ने आचठर घूमने फिरने की तरफ ध्यान दिया। अपने वक्त का भरपूर इस्तेमाल किया। पूरा गुजरात घूमा, पहाड़ों की ट्रैकिंग पर तीन चार बार गया और खूब पढ़ा। गुजराती सीखी और गुजराती साहित्यकारों से परिचय होने का लाभ लिया और वहां पांच गुजराती किताबों के अनुवाद किये।
अहमदाबाद चले आने से मेरा बेटा अक्सर बीमार हो जाता जिसे लेकर मेरी पत्नी परेशान हो जाती। कभी उसे लिये लिये अहमदाबाद आती तो कभी मुझे भाग कर मुंबई आना पड़ता। लेकिन मधु ने लगातार हिम्मत बनाये रखी और दोनें मोर्चे संभाले रही। इस बीच कहानियां छपने लगीं थीं और नोटिस भी लिया जाने लगा था। पाठकों, साथी रचनाकारों के पत्र आने लगे थे जिससे हिम्मत और  बढ़ती।
इस बीच जूनागढ़ में कई बरसों से अध्यापन कर रहे शैलेश पंडित से परिचय हो चुका था। वे अक्सर आ जाते और हम दोनों खूब धमाल मचाते। दारू के जुगाड़ में लगे रहते। अहमदाबाद में दारू कैसे मिलती है इस पर मैंने  एक लेख भी हंस में लिखा था। शैलेश पंडित ने लिखना छोड़ दिया है। दूरदर्शन की एक टुच्ची सी अफसरी उनके भीतर के बेहतरीन लेखक को हमेशा के लिए खा गयी और मैंने एक बेहतरीन दोस्त खोया। हालांकि शैलेश की आखिरी कहानी पढ़े हुए मुझे कई बरस हो गये हैं, फिर भी उसके फिर से सक्रिय होने का मुझे हमेशा इंतजार रहेगा।
गोविंद मिश्र भी उन दिनों वहीं थे अक्सर मुलाकात होती। इस बीच श्रीप्रकाश मिश्र भी वहीं आ गये थे। हम खूब हंगामें करते। रात रात भर गोष्ठियां करते। लम्बी ड्राइव पर निकल जाते। अहमदाबाद में जो भी रचनाकार आता, उसको लेकर एक गोष्ठी तो मेरे घर पर होती ही। कई अच्‍छे लेखकों से वहीं परिचय हुआ। राजेद्र यादव, गिरिराज किशोर, गोविन्द मिश्र, राजी सेठ, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मंगलेश डबराल, पंकज बिष्ट , शैलेश मटियानी, निदा फाजलीविभूति नारायण राय सरीखे कई वरिष्ठ रचनाकार घर आये। ऐसी गोष्ठियों में आचमन का जुगाड़ हो जाये तो और क्या कहने। अहमदाबाद रहते हुए ही मेरा पहला कहानी संग्रह अधूरी तस्वीर आया। उन्हीं दिनों गुजरात हिन्दी अकादमी का गठन हुआ था सो मेरी किताब को पहला पुरस्कार दे दिया गया। उस पुरस्कार को लेना ही अपने अपने आप में एक दुखद प्रसंग है। इसलिए उसका जिक्र नहीं।
एक लिहाज से अहमदाबाद ने मुझे बहुत कुछ सिखाया। इसी दौरान खूब पढ़ा, घूमा, लिखा, यारबाशी की, अच्‍दा संगीत सुना, मौन का सही अर्थ समझा और कई कई बार पूरा दिन मौन रह कर गुजारा। खूब दारू पी  लेकिन चारित्रिक आवारागर्दी फिर भी नहीं  की।
अहमदाबाद में 6 साल गुज़ारने के बाद जब 1995 में मुंबई लौटा तो लगभग 20 कहानियों की पूंजी, बीस के करीब ही व्यंग्य रचनाएं, एनिमल फार्म का अनुवाद, एक उपन्यास का ड्राफ्ट और सैकड़ों दोस्त ले कर आया था। ये ही मेरी पूंजी थी जो मेरे गुजरात प्रवास ने मुझे दी थी। मैं पहले की तुलना में मैच्योर और समृद्ध हो कर लौटा था। और वापिस आ कर भी मैं चैन से कहां बैठा हूं। कितना तो काम किया है। दो उपन्यास, एक और कहानी संग्रह, गुजराती तथा अंग्रेजी से अनूदित पुस्तकें और महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का पुरस्कार। 
लगातार काम करता ही रहा हूं और अब भटकन भी इतनी नहीं रही है।
शायद उम्र का तकाजा हो लेकिन एक बात है मन के कई कोने अभी भी खाली हैं। अकेलापन अभी भी है और दोस्तों के नाम पर शायद अभी भी एक आध ही।
मन में संतोष तो होता ही है कि कितना कुछ मिला है। कभी सोच भी नहीं सकता था। कई अच्छी कहानियां और महत्वाकांक्षी उपन्यास देसा बिराना जो पिछले साल छपा। इन दिनों चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद कर रहा हूं। महत्वपूर्ण काम है।
दो उपन्यास अगर ज्यादा नहीं तो कम नहीं हैं। ये कम भी हों  तो उन सैकड़ों हजारों दोस्तों का प्यार तो है ही जो हर कहानी के बाद मुझे और समृद्ध कर जाता है। लेखन का एक मतलब यह भी तो होता है कि हमने कुल मिला कर कितने दोस्त बनाये, जो हमें जानते नहीं, लेकिन फिर भी हमारी अगली कहानी का बेसब्री से इंतजार करते हों।
अलग अलग वक्त पर अलग कहानियां धूम मचाती रही हैं। 1989 में हंस में यह जादू नहीं टूटना चाहिये अब भी 14 बरस बाद भी पढ़ी और पसंद की जाती है। कई पाठक मुझे अभी भी उसी कहानी से जानते हैं, इस कहानी ने हिन्दी और गुजराती में एक तरह से धूम मचा दी थी। फिर 1991 में वर्तमान साहित्य मे छपी चंदरकला ने जो कहर ढाया वह अलग ही किस्सा है। तरह तरह की प्रतिक्रियाएं, वर्तमान साहित्य के अंकों में बरस भर तक प्रतिक्रियाएं  और कई सदस्यों का अपना वार्षिक चंदा वापिस मांग लेना, बिहार से तीखी प्रतिक्रियाएंसंपादकीय और सार्वजनिक संभाएं गोष्ठियां कितना कुछ हुआ उसके साथ।
फिर उसके बाद भी कई कहानियां अलग अलग पाठकों का ध्यान खींचती रही हैं। कहानियां के नाट्य रूपांतरण, मंचन और दूरदर्शन पर प्रदर्शन।
लेखन भी अजीब तरह का गोरख धंधा है। हर कहानी लिख लेने के बाद हम पूरी तरह से खाली हो जाते हैं। लगता है जो कुछ कहना था, इस कहानी के माध्यम से कहा जा चुका है। अब कुछ भी बाकी नहीं रह गया लेकिन जहां नयी कहानी के बीज पड़ने, अंकुरित होने शुरू होते हैं तो एक बार नयी दूनिया सामने झिलमिलाने लगती है, नये इंद्रधनुष बनने लगते हैं और आकार लेने लगती है एक और रचना। पहले से भी खूबसूरत रचना।
रचने से बेहतर सुख और कुछ नहीं है। हम कई कई दिन तक उसी के नशे में होते हैं। उसी को जीते, ओढ़ते बिछाते और जीते हैं। कई बार डर लगता है कि अगर लेखन न होता तो क्या होता या जिन लोगों के पास लिख कर अपने आपको अभिव्यक्त करने का माध्यम नहीं होता तो वे कैसे जीते हैं। खैर, लेखन ने जीने का माध्यम, पहचान, सम्मान और जीने के प्रति एक  नया नजरिया दिया है और भरपूर सुख दिया है।
बेशक लिखते हुए पंद्रह बरस हो गये हैं और काफी काम भी किया है लेकिन अभी भी है जो इन सब लिखे हुए शब्दों से बेहतर होगा। मुझे उसी दिन का इंतजार है और अपने आप पर भरोसा भी है।
चाहता हूं दो तीन और अच्छे उपन्यास हों और लम्बी कहानियां भी। हालांकि इस बरस की चारों कहानियां लम्बी ही हैं। कथादेश में छपी बाबू भाई पंड्या, घर बेघर, मर्द नहीं रोते और ताजा कहानी खो जाते हैं घर।
पिछले कुछ वर्ष मेरे लिए बहुत अच्छे रहे हैं, इस बीच छः तक पांच किताबें  आ चुकी हैं और अभी तो काफी काम करना बाकी है। दो अनुवाद प्रेस में हैं और एक पर काम चल रहा है।
 देखें वक्त की पोटली में मेरे लिए और क्या क्या है।
आमीन।

अक्‍तूबर 2004
गतांक से आगे.... अक्‍तूबर 2010

इन सात बरसों में बहुत कुछ घट गया है। चाहा-अनचाहा। जाने-अनजाने। 2004 में  ही मेरी एक कहानी छपी थी। कहानी का शीर्षक था – राइट नम्‍बर, रॉंग नम्‍बर। ये कहानी उसी बरस पुणे में घटी एक सत्‍य घटना पर आधारित थी। बेशक शिल्‍प मैंने वरिष्‍ठ कथाकार मित्र रवीन्‍द्र कालिया के सुझाव पर घटना से इतर अपनाया था। 
मेरे भावी जीवन की एकाधिक दुर्घटनाओं की पोटली वहीं से खुलनी शुरू हुई थी। एक तरह से कहानी लेखक के रूप में वह मेरी अंतिम कहानी थी। उसके बाद से बहुत चाहने, छटपटाने, हाथ-पांव मारने के बावजूद पिछले सात बरस से एक भी कहानी तो दूर, लघुकथा भी नहीं लिखी गयी है। कई बार कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी। हो ही नहीं पाया। लम्‍बा सूखा चल रहा है।
पिछले दिनों एक अजीब हादसा हुआ। एक ऐसा हादसा कि उससे मेरा लेखन फिर से शुरू हो सकता था लेकिन पिछले दो महीने सूखे गुज़र गये हैं और कहानी शुरू नहीं हो पायी है।
हुआ यूं कि 1992 के आसपास मैंने अपने एक वरिष्‍ठ अधिकारी पर एक कहानी लिखी थी - फैसले। वह अधिकारी मुंबई में अपनी नौकरी के पहले दिन से ही अकेला रह रहा था। पहले वाजिब कारण थे कि उसके पास संस्‍थान की ओर से मिलने वाला घर नहीं था। वह खुद इधर-उधर गुज़ारा करके रह रहा था। परिवार कभी-कभार ही ला पाता। इस बीच उसकी पत्‍नी ने टाइम पास के लिए पहले तो एमए ज्‍वाइन कर लिया था, फिर कोई काम चलाऊ नौकरी भी पकड़ ली थी। इस बीच दो बच्‍चे भी हो चुके थे। तो मैडम का आना अलग-अलग कारणों से टलता चला गया था। और जब साहब को पंद्रह बरस के इंतज़ार के बाद सुकूनभरा फ्लैट मिला था तो भी वे उसे घर नहीं बना पाये थे। मैडम ने अब आने से साफ इनकार कर दिया। कभी स्‍थायी होने का बहाना तो कभी हैड बनने का चांस।
मेरा कथानायक उन्‍हें समझा-समझा कर हार जाता है लेकिन वे नहीं आतीं। अंत में वह यही तय करता है कि अब भी वे नहीं मानीं तो वह तलाक ले लेगा।
लेकिन जीवन कहानी की शैली पर नहीं चलता और न ही कहानी जीवन के नक्‍शे-कदम पर चलती है। दोनों ऊपर वाले के इशारे पर चलना ज्‍यादा पसंद करते हैं। वे अधिकारी अपनी नौकरी के चलते अपने वैवाहिक जीवन के पूरे छत्‍तीस बरस अकेले रहते आये। अगर गिनें तो इस पूरे अरसे में उनकी उनकी पत्‍नी और बच्‍चे उनके पास या ये अपनी पत्‍नी बच्‍चों के पास मुश्किल से दो बरस के आसपास यानी पांच सात सौ दिन रहे होंगे। भयंकर अकेलापन और उससे भी ज्‍यादा मुंबई का तोड़ देने वाला खालीपन उनके जीवन में इतने गहरे प्रवेश कर गया कि वे ताउम्र अकेलेपन और खालीपन से मिलीं दूसरी बीमारियां भी झेलते रहे। संयोग से छोटी जाति के होने के कारण एक स्‍थायी डर जीवन भर उनके साथ लगा रहा। बॉस का डर, डॉक्‍टर का डर, कुछ गलत फैसले न हो जायें, इस वजह से नौकरी जाने का डर, ये डर और वे डर, वे विभागाध्‍यक्ष होने के बावजूद महत्‍वपूर्ण बैठकों के दिन छुट्टी ले कर घर बैठने लगे। वे फीयर साइकोसिस के मरीज तो थे ही, स्‍मृति लोप ने भी उनके शरीर को अपना स्‍थायी अड्डा बना लिया। वे मंच पर जा कर अपना भाषण देना भूल जाते, बस से उतरना भूल जाते। कुछ का कुछ कर बैठते, एक ही वक्‍त में चार कामों के लिए हां कर देते। आफिस पहुंच कर याद करने की कोशिश करते कि आते समय गैस बंद की थी या नहीं या कहीं दरवाजा बंद करना तो नहीं भूल गये। ऐसा कितनी बार हुआ कि वे कन्‍फर्म करने के लिए पैंतीस मील दूर घर तक गये।
नतीजा ये हुआ कि रिटायरमेंट के दिन जैसे-जैसे नजदीक आते गये, वे लाचार और बेचारे होते चले गये। सबसे बड़ा संकट ये था कि अब वे जाते कहां? माता-पिता के पास गांव में पिछले पचास साल से रहे नहीं थे, बीवी के पास जाने की हिम्‍मत नहीं थी। रिटायरमेंट के बाद भी इधर-उधर भटकते रहे।
शरीर और तनाव झेलने के लिए तैयार नहीं था। पहले ब्रेन हैमरेज हुआ। उसी के साथ लकवा और अंतिम परिणति कौमा में हुई। अब पिछले चार बरस से अपनी पत्‍नी द्वारा अपनी नौकरी वाले कस्‍बे में उनके खुद के पैसों से बनाये बड़े से घर में एक छोटे-से गोदामनुमा कमरे में पड़े हुए हैं। बेशक कहा जा सकता है कि वे चार बरस से अपने घर में हैं लेकिन उनके लिए वे छत्‍तीस बरस क्‍या और ये चार बरस क्‍या। वे तब भी तन्‍हा थे और आज भी तन्‍हा हैं। अपनों से परे। बीवी अब प्रिंसिपल हैं, 75 किमी दूर किसी और कस्‍बे में। सुबह सात से शाम सात बजे तक बाहर ही रहती हैं। बच्‍चे न कल उनके नज़दीक थे न आज हैं।
      मैं उनसे मिलने गया था। वे अब पहचान की सीमाओं से परे हैं। मन बहुत उदास हो गया। मैंने अपनी कहानी का ऐसा अंत तो नहीं चाहा था। बेशक लिखी जानी चाहिये आगे की कहानी, लिखी भी जायेगी लेकिन शुरू करते ही हाथ कांपने लगते हैं। जीवन से कहानी, और कहानी से जीवन की यात्रा न कथा नायक के लिए आसान होती है और न ही कथा लेखक के लिए। कथा नायक अपनी कहानी जीवन भर कह नहीं पाया और ये कथा लेखक पिछले सात बरस से शब्‍दों के लिए आगे की कहानी सामने होने के बावजूद शब्‍दों के लिए जूझ रहा है।
      बहुत कुछ अच्‍छा-बुरा हुआ इस बीच। पुणे की पचास महीने की पोस्टिंग बेशक नौकरी के लिहाज से अच्‍छी रही, लेखन के रूप में पूरी तरह खाली रही। हां, चार्ली चैप्लिन की आत्‍मकथा का और चार्ल्‍स डार्विन की आत्‍मकथा के अनुवाद किये, ब्‍लाग राइटिंग की। सड़क दुर्घटना का शिकार हुआ और पूरी तरह से शारीरिक और मानसिक रूप से टूट गया। अभी भी नहीं उबर पाया हूं। सारी पीड़ाएं झेल रहा हूं।
मुंबई लौटे दो बरस हो गये हैं, ब्‍लाग पर किये गये लेखन और छिटपुट लेखन पर किताब दाढ़ी में तिनका आयी है, देस बिराना उपन्‍यास का दूसरा संस्करण आया है, तीसरा कहानी संग्रह मर्द नहीं रोते आजकल में ही भारतीय ज्ञानपीठ से आने को है, राजकमल प्रकाशन से महात्‍मा गांधी की आत्‍मकथा का अनुवाद भी आजकल आने को है, लेकिन कहानियां बेशक साल में दो ही लिखता था, अब न लिख पाने का मलाल है। बेशक दो-एक और किताबों के अनुवाद हाथ में हैं, कब पूरे होंगे, पता नहीं। अब तक मूल, अनूदित, संपादित किताबें तीस तो हो ही गयी होंगी, एक और बड़ा उपन्‍यास और कुछ लम्‍बी कहानियां लिखने का मन है। देखें कब तक इंतज़ार कराती हैं।
सच कहूं तो साहित्‍य वाहित्‍य से अब पूरी तरह से मन उचट गया है। कहीं आता- जाता नहीं। मित्रों से भी मिले बरसों हो जाते हैं। रेडियो टीवी कब से छोड़ दिये। अब तो दूसरे शहरों में भी जाने पर एकाध दोस्‍त से मिल लिये, वही बहुत है। पढ़ना भी छूट गया है। फिल्‍में देखना भी। क्‍या हो जाने जाने वाला है कागज काले करके जब हमें पता है कि हमारा पाठक कहीं नहीं रहा है। न मौहल्‍ले में और न आसपास पढ़ लिखों की दुनिया में।
अभी हाल ही की घटना है। बैंक की गृह पत्रिका में मेरा एक संस्‍मरण छपा- बाबा कार्ल मार्क्‍स की मज़ार की यात्रा के बारे में। 30000 प्रतियां छपती हैं। हर कर्मचारी को मिलती है। मेरे विभाग के 30 कर्मचारियों औेर मेरे अधीन मेरे कैडर के 120 कर्मचारियों को भी मिली। मैंने महीने भर बाद भी आमने सामने और ट्रेनिंग कोर्स के दौरान यूं ही पूछा कि मेरी रचना कैसी लगी तो एक या दो ने पढ़ी थी, कुछ ने देखी थी, बाकियों को पता ही नहीं था। तो ये है पढ़ने का आलम। हमारी लाइब्रेरी में 5000 किताबें हैं और विभाग में 30 अधिकारी  हैं जो हिंदी या अंग्रेजी में एमए हैं लेकिन महीने भर में पांच किताबें भी जारी नहीं होतीं। सबसे अच्‍छी बात है कि हालांकि वहां मेरी कुछ ही किताबें हैं लेकिन इनमें से एक भी आज तक जारी नहीं करायी गयी है। खुदा पढ़े लिखे अनपढ़ों की आबादी में और इजाफ़ा करे।
और अब अगस्‍त 2012 में इसी को आगे बढ़ाते हुए बहुत संक्षेप में
o       मार्च 2012 में बैंक से रिटायर हो गया। 31 बरस पुराने आफिस के सब नाते छूट गये।  बहुत खराब अनुभव रहे नौकरी के अंतिम दिनों के। कभी लम्‍बी रचनाएं आयेंगी उन पर। कुछ शुरू की हैं। 
o       ऊपर जिक्र किया है अपने अधिकारी के साथ हुए हादसे का, उस पर कहानी लिखी गयी- डरा हुआ आदमी जो नया ज्ञानोदय में छपी और सराही गयी।
o       भारतीय ज्ञानपीठ से चार बरस के इंतजार के बाद भी कहानी संग्रह नहीं आया है।
o       घर को ले कर जितनी भी कहानियां लिखी हैं, उन पर एक कहानी संग्रह खो जाते हैं घर प्रेस में है।  पता नहीं छप भी गया हो, पूछा नहीं।
o       यौन शोषण पर एक कहानी लिखी है जो और मेहनत मांगती है।
o       तीसरा उपन्‍यास एक थी छवि शुरू किया है।
o       सारा दिन घर पर ही रहता हूं, मिलना जुलना बेहद कम। उदासीनता का शिकार।
 शायद पुराने बेहतर दिन वापिस आयें।
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बकलम खुद - सूरजप्रकाश

मैंने बेशक देर से लिखना शुरू किया लेकिन इतना काम कर लिया है ‍कि अब देरी से लिखने का मलाल नहीं सालता। बेशक चालीस के करीब कहानियां लिखी होंगी अब तक मेरे दो कहानी संग्रह हैं - अधूरी तस्वीर (1992) और छूटे हुए घर – (2002)

तीसरा और चौथा कहानी संग्रह चार बरस से प्रकाशकों  के पास अटका हुआ है।

मेरे दो ही उपन्या्स हैं- हादसों के बीच (1998) और देस बिराना (2002)।

तीसरा उपन्यास एक- थी छवि लिख रहा हूं।  

इनके अलावा मेरा एक व्यंग्य संग्रह है - ज़रा संभल के चलो जो 2002 में छपा था।

दूसरा ललित रचना संग्रह दाढ़ी में तिनका 2010 में आया।

मेरा एक कहानी संग्रह गुजराती में भी है - साचा सर नामे जो 1996 में छपा था।

मूल लेखन के अलावा मैंने गुजराती और अंग्रेज़ी से बहुत अनुवाद किये हैं और इस काम में मुझे संतोष भी बहुत मिला है।

अंग्रेज़ी से जो अनुवाद किये, वे हैं - जॉर्ज आर्वेल का उपन्यास एनिमल फार्म, गैब्रियल गार्सिया मार्खेज के उपन्यास Chronicle of a death foretold का अनुवाद, चार्ली चैप्लिन की आत्म कथा का अनुवाद जो 2006 में आधार प्रकाशन से छपा। चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा का अनुवाद जो NCERT से 2009 में छपा। मिलेना (जीवनी) का अनुवाद 2004 में छपा। ऐन फ्रैंक की डायरी का अनुवाद 2002 में छपा। इनके अलावा कई विश्व प्रसिद्ध कहानियों के अनुवाद प्रकाशित होते रहे।

इन दिनों Helen keller की आत्माकथा का अनुवाद कर रहा हूं।

गुजराती से अनुवादों में व्यंग्यकार विनोद भट की तीन पुस्तकें, गुजराती के महान शिक्षा शास्त्रीत गिजू भाई बधेका की दो पुस्तकें दिवा स्वप्न और मां बाप से का तथा दो सौ बाल कहानियां अनुवाद के जरिये हिंदी पाठकों तक पहुंचीं। दिनकर जोशी के उपन्यास प्रकाशनो पडछायो का अनुवाद किया। ये उपन्याेस गांधी जी के बड़े बेटे हरिलाल के जीवन पर आधारित है। 

महात्मा गांधी की आत्मकथा का अनुवाद किया जो राजकमल प्रकाशन से छपा।

मैंने लगभग 9 पुस्तकों का संपादन किया है। साहित्य के अलावा 6 पुस्तकों का संपादन अपनी नौकरी के सिलसिले में किया। बंबई 1, बंबई पर आधारित कहानियों का संग्रह है, कथा लंदन यूके में लिखी जा रही हिन्दी कहानियों का संग्रह है और कथा दशक कथा यूके से सम्मानित 10 रचनाकारों की कहानियों का संग्रह है। 

रिज़र्व बैंक के लिए जिन 6 पुस्तकों का सम्पादन किया, वे हैं 1. लघु वित्त 2. रिटेल बैंकिंग3. एसएमई 4. कृषि व्यापार एवं निर्यात, 5. नेतृत्व  और 6. ग्राहक सेवा

मेरे लिखे शब्दों को जो सम्मान मिले, वे हैं गुजरात साहित्य अकादमी का सम्मान और महाराष्ट्र अकादमी का सम्मान। इनके अलावा 2009 में मुंबई की संस्था। आशीर्वाद की ओर से सारस्वलत सम्मान। 

रेडियो पर प्रसारण लगभग 30 बरस से अनवरत। कई कहानियों का रेडियो पर प्रसारण

दूरदर्शन के कई केन्द्रों  पर साक्षात्कार आदि का प्रसारण। इनके अलावा छोटे नवाब और बड़े नवाब तथा डर कहानियों का दूरदर्शन पर फिल्म के रूप में प्रदर्शन

ऑडियो के रूप में उपन्या्स देस बिराना का नेशनल इंस्टीट्यूट फार ब्ला‍इंड द्वारा दृष्टिहीनों के लिए रिकार्डिंग तथा प्रसारण और यही उपन्या्स देस बिराना लंदन की एक संस्थार एशियन कम्यूानिटी आर्ट्स द्वारा ऑडियो सीडी के रूप में जारी।

कई शहरों में गोष्ठियों और मित्र मंडलियों में कहानी पाठ

विशेष उपलब्धियों में 
कहानी संग्रह छूटे हुए घर पर रोहतक विश्वविद्यालय की छात्रा द्वारा एम फिल के लिए शोधकार्य

उपन्यास देस बिराना पंजाब विश्वविद्यालय और चेन्नै विश्वविद्यालय की दो छात्राओं द्वारा पीएच डी के लिए शोध कार्य में शामिल। तीसरी पीएचडी के लिए काम हो रहा है।

कहानियां विभिन्न संग्रहों में प्रकाशित

कहानियों के दूसरी भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित

अनुवाद से निकट का नाता

आजकल सिर्फ पढ़ना और लिखना ही असली काम।

मेरे शौक हैं-घूमना, ट्रैकिंग, संगीत सुनना, फिल्मेंव देखना, आत्मअकथाएं और प्रेम कहानियां पढ़ना और अपने अकेलेपन में मस्त, रहना।

परिवार में पत्नीं मधु और दो बेटे अभिजित और अभिज्ञान


सूरजप्रकाश से मधु की बातचीत 
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आपके लिये सृजन क्या है?

दरअसल सवाल इस तरह से होना चाहिये कि सृजन मेरे लिए क्या नहीं है। सृजन सब कुछ है। बेहतर तरीके से, अर्थपूर्ण तरीके से जीवन जीने का सिलसिला, अपने आपको अभिव्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम। अपनी बात कहने का, सामने रखने का और अपने आपको कह कर हलका करने का माध्यम। मैं पहले भी कह चुका हूं कि जब लिखना चाहता था और लिख नहीं पाता था तो मैं बयान नहीं कर सकता कि उस वक्त कितनी छटपटाहट होती थी। मैं कई बार सोचता हूं कि जिनके पास अपने आपको अभिव्यक्त करने का कोई माध्यम या मंच नहीं होता, वे कैसा महसूस करते होंगे। 

हमारे जीवन की तीन स्टेज होती हैं - एक्जिस्टैंस यानी जीने के लिए जीना। इस स्टेज में सारी मारामारी रोजी-रोटी तक ही सीमित होती है। दूसरी स्टे‍ज होती है एक्सप्रेशन यानी अपने आपको अभिव्यक्त- कर पाने की छटपटाहट और इच्छा और तीसरी स्टेज इससे आगे की होती है। वह है रिक्गनीशन। यानी जो कुछ कर रहे हैं, उसे मान्यता भी मिले। यह संतोष परम संतोष होता है। कई बार समाज खुद देता है और कई बार लोग इसके लिए भी छटपटाते हैं। अपने हाथ जगन्नाथ वाला तरीका अपनाते हैं। यानी अपने किये गये काम की खुद मार्केटिंग। साहित्य में इसे पुरस्कार, सम्मान, मंच, अनुवाद, समीक्षा, चर्चा वगैरह-वगैरह की तरह देखा जाता है।

मुझे इस बात का संतोष है कि मैं एक्जिस्टैंस से आगे वाली स्टेज यानी एक्सप्रेशन की श्रेणी में आता हूं और इस बात का भी संतोष है कि मैं अपने किये धरे की बहुत ज्यादा मार्केटिंग करने के गुर नहीं जानता, कर ही नहीं पाता। बेशक इस वज़ह से नुक्साबन भी होते रहे हों। परवाह नहीं। मेरे पास जेनुइन पाठक हैं, वही मेरे काम का सबसे बड़ा रिक्गनीशन है। 

आप अपने शुरूआती लेखन के विषय में कुछ बताएं। 

सातवीं-आठवीं में पहली बार तुकबंदी की होगी। कविता की कोई समझ तो थी नहीं। बेशक पढ़ने का शौक था और हम भाई लोग देहरादून की इकलौती लाइब्रेरी, खुशीराम पब्लिक लाइब्रेरी में पढ़ने के लिए जाते थे, लेकिन तब यह पढ़ना चंदामामा, राजाभैया या बात भारती तक ही सीमित था। बहुत हुआ तो प्रेमचंद की बाल कथाओं की कोई किताब ले ली। तो इसी तरह तुकबंदी शुरू हुई जो बहुत दिनों तक चलती रही। देहरादून के अखबारों में छपती रहीं ये बचकानी कविताएं। हां, तब तक बीए तक आते आते देहरादून के कई साहित्यकारों से परिचय हो चुका था।  

मैं 1978 में दिल्ली आया। दिल्ली आकर नई नौकरी करने के दौरान बेशक लेखकों के बीच उठना-बैठना होता रहा लेकिन कुछ भी लिखा नहीं जाता था। बहुत घुटन होती थी लेकिन शब्द नहीं सूझते थे। न लिख पाने के कारण हमेशा मन पर दबाव रहता। ज़िंदगी निरर्थक-सी लगने लगती। समझ में नहीं आता था कि क्या और कैसे किया जाये। ढेरों अनुभव थे लेकिन उन्हें सिलसिलेवार कह पाना या लिख पाना ही नहीं होता था। 

इस बीच मुंबई से रिज़र्व बैंक से नौकरी का ऑफर आ चुका था। 1981 में मुंबई की राह पकड़ी। बंबई के शुरू के दिन बेहद तकलीफ भरे गुजरे। मार्च 1981 में यहां आया था और जून 1983 के आसपास सिंगल रूम में शिफ्ट किया था। भयंकर अकेलापन, ऑफिस का दमघोंटू माहौल और रहने की दिक्क तें, सारी चीज़ें बुरी तरह से निराश करती थीं।

शायद रहने की इन तकलीफों के कारण ही आपकी कहानियों में घर बार-बार आता है। 

हां, शायद ये बात सही है। अकेलेपन को भी मैंने बहुत भोगा है और घर, यानी रहने की जगह की तकलीफें भी मेरे हिस्से में ज्यादा आयी हैं। इसी वजह से घर को ले कर तरह-तरह के बिम्ब मेरी अलग-अलग कहानियों में आये हैं और अभी भी बहुत कुछ ऐसा है जो घर के जरिये मुझे कहना है। हालांकि मेरी पिछली कई रचनाओं और उपन्यास में भी घर बहुत शिद्दत से उभर कर आया है। कई कहानियों के नाम भी घर से जुड़े हुए है और थीम भी घर से मोह ही है। घर बेघर, छूटे हुए घर, खो जाते हैं घर, देस बिराना, मर्द नहीं रोते, सही पते पर, फैसले, छोटे नवाब बड़े नवाब तथा मेरी लम्बी कहानी देश, आजादी की पचासवीं वर्षगांठ तथा एक मामूली-सी प्रेम कहानी, इन सबमें घर ही है जो बार-बार हांट करता है और कुछ नये अर्थ दे जाता है। 

हां, तो आप लिखना शुरू करने की बात कर रहे थे।

हां, मुंबई के शुरुआती दिनों में ऑफिस का माहौल बेहद तनाव भरा था और वहां गुटबाजी थी। नये आदमी को वैसे भी एडजस्ट करने में कुछ समय तो लगता ही है। कई बार सब कुछ छोड़-छाड़ कर वापिस भाग जाने का दिल करता। एकाध बार इस्तीफा भी लिख कर दिया। यह नया शहर जहां सिर्फ अकेलापन और अकेलापन था, मुझे रास नहीं आया था। आखिर आप कितने दिन और कब तक मैरीन ड्राइव की मुंडेर पर बैठ कर वक्त गुजार सकते हैं। वह भी अकेले। बाद में धीरे-धीरे शहर के कुछ लिखने-पढ़ने वालों से थोड़ा-बहुत परिचय हुआ, कुछ यार-दोस्त बने तो हम लोग खाली वक्त में मुंबई युनिवर्सिटी के लॉन में बैठने लगे। वहीं तो तुमसे परिचय हुआ, आगे बढ़ा और इस जिंदगी के अकेलेपन का हमेशा के लिए खात्मा हुआ।

शादी के बाद भी लिखने की कई बार कोशिश की लेकिन बात नहीं बन पाती थी। लिखता और फाड़ देता। कोई गाइड करने वाला था नहीं। 1987 तक आते-आते यानी 35 साल की उम्र तक प्रकाशित रचनाओं के नाम पर मेरी कुल जमा पूंजी सारिका में दो-तीन लघुकथाएं और एकाध अनुवाद ही था। यहां तक आते-आते लिखने की चाह और न लिख पाने की तकलीफ बहुत सालने लगी थी। तय कर लिया कि अगर कोई नहीं बताता तो खुद सीखना है। कुछ न कुछ लिखता रहा। 1986 में यानी 36 बरस की उम्र में पहली कहानी नवभारत टाइम्स में छपी और दूसरी कहानी 1987 में वरिष्ठ रचनाकार सोहन शर्मा ने अपने कथा संकलन में शामिल की। देर से ही सही, शुरूआत तो हुई। हिम्मत बढ़ी और अपने जीवन की महत्वपूर्ण कहानी अधूरी तस्वीर 1988 में लिखी जो धर्मयुग में छपी। अब तक लिखने की मेज पर बैठने का संस्कार मिल रहा था और तनाव कम होने लगे थे। एक बार शुरू हो गया लिखना तो फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 

आपकी कहानियों में आपका शहर देहरादून बार-बार आता है, स्वयं को दोहराता है, आखि़र क्यों?

हर बार तो नहीं, लेकिन दो एक कहानियों में, संस्मरण में और उपन्यास देस बिराना में देहरादून जरूर आया है। दरअसल जिस मोहल्ले में, शहर में और माहौल में आपने जीवन के बीस-बाइस बरस गुजारे हों, सारे अच्छे-बुरे संस्कार जिस शहर ने आपको दिये हों, वह चेतन अवचेतन में तो रहेगा ही और रचनाओं में आयेगा ही। अब ये तो हो नहीं सकता कि जिस शहर को बिल्कुल भी न जानता होऊं, उसे अपने कहानी किस्से के केन्द्र में रखूं। ये बेईमानी होगी। अब इसी बात को लें कि देस‍ बिराना उपन्यास शुरू करने में मुझे बहुत देर लग रही थी क्योंकि कथानायक, जिस पर यह उपन्यास लिखा जाना था, पिथौरागढ़ का रहने वाला था और उसके बचपन के पचास-साठ पेज लिखने के लिए मुझे कोई शहर चाहिये था। पिथौरागढ़ कभी गया नहीं था सो उसे कथानायक का शहर कैसे चुनता। अब यही तरीका बचता था कि अपने देखे-भाले शहर देहरादून को ही कथानायक के बचपन का शहर बनाता। वही किया। इस तरह‍ से मैं ज्यादा ईमानदारी से अपनी बात कह पाया। मेरे देखे दूसरे शहर – हैदराबाद, दिल्ली, अहमदाबाद, पुणे भी मेरी रचनाओं में आये ही हैं। मुंबई तो खैर ज्यादातर रचनाओं में है। 

बीस बरस से ज्यादा के लेखन में आपने उपन्यास, कहानी, व्यंग्य, अनुवाद, संस्मरण, संपादन सभी पर हाथ आजमाया है। अपने आपको किस विधा में ज्यादा सहज महसूस करते हैं।

महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति होती है। विधा नहीं। दरअसल रचना खुद ही तय करती है कि उसे किस विधा में लिखा जाना है। कई छोटे-छोटे बिम्ब होते हैं जिन्हें किसी बड़ी रचना में शामिल किये जाने तक का इंतज़ार नहीं किया जा सकता या कई अनुभव या बिम्ब अपने आप में मुक्कमल होते हैं और तुरंत अभिव्यक्ति चाहते हैं। इन्हें तब लघुकथाओं या दूसरे तरीकों से ही लिखा जाना होता है। बेशक मन तो उपन्यास जैसी रचना में ही रमता है लेकिन उपन्यास एक के बाद एक नहीं लिखे जा सकते। कोई भी बड़ी रचना लेखक को पूरी तरह से खाली कर देती है। दूसरी बड़ी रचना के लिए खुद को तैयार करने में समय तो लगता ही है। तो ऐसे में अनुवाद करना या संस्मरण लिख लेना या कुछ और लिख लेना बहुत बड़ा सहारा होता है। 

आपने आत्मकथाओं के अनुवाद ज्यादा किये हैं। कोई खास वजह ?

आत्मकथाएं पढ़ना मुझे हमेशा अच्छा लगता रहा है। लेखकों, दार्शनिकों, राजनैतिक हस्तियों, अभिनेताओं और इतर विभूतियों की आत्म कथाएं पढ़ते हुए हमेशा मुझे एक दुर्लभ सुख मिलता रहा है। जब तक कोई आत्मकथा पूरी नहीं पढ़ ली जाती, हमेशा ऐसा लगता रहता है, मानो अपने जीवन की संघर्षपूर्ण गाथा लिखने वाले उस दार्शनिक, नेता, अभिनेता या महान आत्मा  ने हमें अपने जीवन के ऐसे दुर्लभ पलों में झांकने की अनुमति दे दी हो, बीच-बीच हमें अपने साथ चाय पीने के लिए बुला लिया हो या शाम की सैर पर अपने साथ चहल-कदमी करने का न्यौता दे दिया हो। लेखक तब पूरी ईमानदारी से, आत्मीयता से और अपनी पूरी आस्था के साथ अपने जीवन के कुछ दुर्लभ, छुए, अनछुए किस्सों और घटनाओं की कहानी हमें खुद सुनाता लगता है। तब हम दोनों के बीच लेखक और पाठक का नाता नहीं रह जाता, बल्कि जैसे दो अंतरंग मित्र अरसे बाद मिल बैठे हों और भूली-बिसरी बातें कर रहे हों। लेखक हमारे साथ अपने अमूल्य जीवन के कई अनमोल पल बांटता चलता है और हमें जाने-अनजाने समृद्ध करता चलता है। हमें पता ही नहीं चलता कि आत्मपकथा के जरिये हम उसके लेखक के घर कई दिन गुज़ार आये हैं। एकाएक हम पहले की तुलना में कई गुना मैच्योयर, अनुभवी और अमीर हो गये हैं। हम दूसरों से अलग हो गये हैं। 

मैं सचमुच अपने आपको खुशकिस्म‍त मानता हूं कि मैं इसी बहाने से विश्व की महान विभूतियों से मिल कर आया हूं और उनके संघर्षों का प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं, उनके साथ मिल बैठने और बतियाने का असीम सुख पाता रहा हूं। 

मुझे ये दुर्लभ सुख भी मिला है कि मैं कुछेक विश्वप्रसिद्ध मनीषियों की आत्मूकथाओं को हिंदी के पाठकों तक ला पाया हूं। मैंने अंग्रेज़ी से हिंदी में मिलेना (जीवनीपरक गाथा), ऐन फ्रैंक की डायरी, चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा और चार्ल्स डार्विन की आत्म कथा के अनुवाद किये हैं और ये हिंदी पाठक वर्ग द्वारा बहुत पसंद किये गये हैं। गांधी जी के बेटे हरिलाल के जीवन पर आधारित दिनकर जोशी के गुजराती उपन्यास प्रकाशनो पडछायो का हिंदी अनुवाद उजाले की परछाईं के नाम से मैंने अरसा पहले किया था। पाठकों ने इसे भी बहुत पसंद किया था और कुछ अरसा पहले इस किताब पर गांधी माय फादर के नाम से एक फिल्म भी बनी थी।

अभी हाल ही में आपने गांधी जी की आत्माकथा का अनुवाद किया है?  

जब राजकमल प्रकाशन के अरुण माहेश्वकरी जी ने मेरे सामने गांधी जी की आत्मकथा के अनुवाद का प्रस्ताव रखा तो मैंने लपक लिया। मैं गांधी जी की आत्मकथा हिंदी, अंग्रेज़ी और गुजराती में पहले भी पढ़ चुका था और मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि महादेव देसाई द्वारा किया गया इस आत्म कथा का अंग्रेज़ी अनुवाद श्रेष्ठतम अनुवाद है और पढ़ने में कई जगह तो गुजराती पाठ से भी अधिक आनंद देता है। एक बात और भी है कि चूंकि गांधी जी की आत्‍मकथा का अंग्रेज़ी अनुवाद मूल गुजराती में प्रकाशन के कई बरस बाद किया गया था, इसलिए महादेव देसाई ने गांधी जी से अपनी निकटता और अपनी आत्मीयता का लाभ उठाते हुए आत्मकथा के अंग्रेज़ी संस्करण में कुछेक संशोधन भी करवा लिये थे। इस कारण से माइ एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ मूल गुजराती सत्यकनो प्रयोगो की तुलना में बेहतर बन पड़ी है।  

लेकिन मैं ये भी कहने की अनुमति चाहूंगा कि गांधी जी की आत्मधकथा का हिंदी अनुवाद जो सन 1957 में श्री काशिनाथ त्रिवेदी ने किया था, हो सकता है, आज से लगभग 50 बरस पूर्व अपने प्रकाशन के समय अपने हिंदी पाठकों के साथ न्याय कर पाया हो, लेकिन तब से अब के बीच हिंदी भाषा ने स्वानभाविक रूप से इतने चोले बदले हैं कि यह अनुवाद आज के हिंदी पाठक को रचना का पूरा पठन सुख देने की स्थिति में नहीं रहा है। आप मानेंगे कि उस वक्त  की हिंदी और आज की हिंदी में हर मायने में बहुत अंतर आये हैं। हर भाषा नित नये तेवर ले कर हमारे सामने आती है और मैं ये बात कहने की अनुमति चाहता हूं कि हर विश्वस्तरीय कृति का समय-समय पर नये सिरे से अनुवाद किया जाना चाहिये। यह वक्त की मांग होती है। हर काल का पाठक किसी भी कृति का अनुवाद अपने वक्तय की भाषा में पढ़ना चाहता है। 

आपने कहानियों का एक लंबा संसार देखा है, उनमें आये परिवर्तनों को देखा है, आप इस पर क्या कहना चाहेंगे?

हमारे वक्त की कहानी यानी बीस बरस पहले की कहानी की जमीन दूसरी तरह की थी। ठीक उसी तरह जैसे हमसे पहले लिख रही पीढ़ी की कहानी की जमीन हमसे अलग थी। जीवन की आपाधापी, समस्याएं, तकलीफें, उन्हें  झेलने और उनसे निपटने के हथियार दूसरे थे। हमारी पीढ़ी को भावुकता उपहार में मिली थी इसलिए कहानियों के ट्रीटमेंट में ये भावुकता कहीं न कहीं आ ही जाती थी। बेशक हमारी पीढ़ी पर ये आरोप पिछली पीढ़ी लगाती ही थी कि हम गंभीर नहीं है, पढ़ते-लिखते नहीं हैं और हड़बडी में हैं। मज़े की बात ये है कि हम भी आज की पीढ़ी पर ठीक यही आरोप लगा कर अपने कर्तव्य पूरे कर लेते हैं। आज की पीढ़ी बिल्कुल भी भावुक नहीं है। वह चीज़ों को ज्यारदा विश्लेषणात्मक तरीके से देखती-परखती है और अपनी कहानियों का ट्रीटमेंट भी उसी हिसाब से करती है। बेशक नयी पीढ़ी पर यह सदाबहार आरोप तो लगाया ही जा सकता है कि वह नाम और नावां कमाने की हड़बड़ी में है। 

मुंबई जैसे व्यास्त शहर में नौकरी और फिर लेखन, इनमें कैसे तालमेल बिठा पाते हैं?

सीधी सी बात है कि सबके दिन के 24 ही घंटे होते हैं। ये तो आप पर है कि आप इन 24 घंटों का कैसे और किन चीज़ों के लिए इस्तेंमाल करते हैं। मैं 59 बरस की उम्र में भी 15 घंटे रोज़ काम करने का माद्दा रखता हूं और कई बार खराब स्वांस्थ्य  के बावजूद इतने घंटे काम करता ही हूं। मेरी कुल जमा 27 या 28 किताबें हैं जिनमें 500 पेज के अनुवाद वाली किताबें भी हैं। इनमें से ज्यादातर किताबें मुंबई के व्यस्त जीवन में से ही निकल कर आयी हैं। 

अभी कुछ दिन पहले मेरे एक 30 वर्षीय जूनियर अधिकारी ने यही सवाल पूछा था तो मैंने यही बताया था कि जिस आदमी के पास कोई काम नहीं होता वही सबसे ज्यादा व्यस्त  होता है और जिसे कोई काम करना होता है वह कैसे भी करके वक्त चुरा ही लेता है। जब मैंने उससे पूछा कि तुम कितने घंटे काम करते हो या कर सकते हो तो उसका जवाब था कि आठ घंटे की नौकरी ही पूरी तरह निचोड़ लेती है। कुछ और करने के लिए ताकत बचती ही कहां है। बात ताकत की उतनी नहीं होती जितनी इच्छा शक्ति की होती है। 

शायद इसमें काम करने के मेरे तरीके ने भी मेरी मदद की हो। मैं हर काम, चाहे ऑफिस का हो, कहानी लिखना हो या अनुवाद करना, एक प्रोजेक्ट की तरह करता हूं और उसमें पूरी तरह डूब कर करता हूं। मैं मल्टीटास्किंग वाला आदमी हूं यानी एक ही समय में कई कामों को पूरी निष्ठा से पूरा कर सकता हूं और करता भी हूं।

गत छह वर्षों से आपकी कोई रचना पाठकों के सामने नहीं आई है इस साहित्यिक चुप्पी  का कोई विशेष कारण?

ये चुप्पी  मेरी ओर से ओढ़ी हुई नहीं है। हर लेखक के जीवन में एक बार नहीं कई बार ऐसे पल आते हैं जब कुछ भी सार्थक लिखना नहीं हो पाता। बेशक मैंने सात बरस से एक भी कहानी न लिखी हो, इन बरसों में मैंने चार्ली चैप्लिन, चार्ल्स  डार्विन और महात्मात गांधी की आत्मीकथाओं के अनुवाद किये ही हैं। कुल अनूदित सामग्री ही तेरह चौदह सौ पेज की रही होगी। इसके अलावा ब्लॉग के बहाने शब्दों से जुड़े रहने की कोशिश करता रहा और संस्मरण और यात्रा वृतांत भी लिखे। इनकी किताब भी आयी। 

जहां तक कहानी या उपन्यास लिखने की बात है, पहले से हल्का़ लिखना नहीं चाहता और पहले से अच्छा लिखा नहीं जा रहा तो यही किया जा सकता है कि सही वक्त का इंतज़ार करूं। कभी तो मेरे मन माफिक लहर आयेगी।

आपने अपने लिए जीवन के कुछ सिद्धांत तो बनाये होंगे। क्या हैं वे?

बी इन्नोवेटिव यानी हर काम को नये नज़रिये से करें, बी क्रियेटिव यानी हर काम को सृजनात्मक तरीके से करें, और बी डिफरेंट यानी हर काम को दूसरों से अलग तरीके से करें। कोई वजह नहीं कि आपको अपनी छाप छोड़ने का मौका न मिले।

 एपीजे अब्दुपल कलाम साहब ने कहा है- 'सपने वो नहीं होते जो हम सोते हुए देखते हैं। सपने               तो वे पूरे होते हैं जो हमें सोने नहीं देते'। ये मेरी प्रिय कोटेशन है। इसके अलावा मुझे शास्त्री य संगीत सुनना, घूमना और सच कहूं तो अकेलापन बहुत अच्छा लगता है। हैदराबाद,  अहमदाबाद, दिल्ली और पुणे में मैंने अकेलेपन के लम्बे -लम्बे  दौर गुज़ारे हैं। गिनूं तो अपनी उम्र के 59 बरसों में से 15 बरस तो नितांत अकेलेपन के ही गुजरे होंगे। अहमदाबाद में रहते हुए कितनी बार ये होता था कि शनिवार की दोपहर में घर आने के बाद अगला संवाद सोमवार सुबह ऑफिस जा कर ही बोलता था। लेकिन ये अकेलापन होता था, खालीपन नहीं। अकेलापन आपको भरता है जबकि खालीपन तोड़ता है। तो अभी भी जब भी मौका मिले, अ केलेपन में ही मस्त रहता अच्छा लगता है। बाकी बच्चों का साथ सुख देता है। अच्छीं किताबें पढ़ना अच्छा लगता है। 
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कुछ लघुकथायें - सूरजप्रकाश 

महानगर की कथाएं

बीच का रास्ता 

-सुन री, अगले हफ्ते से बजाज सेंटर में चाइनीज और ओरिएंटल कुकरी की क्लासेस शुरू हो रही है।  बहुत मन कर रहा है मेरा ओरिएंटल खाना बनाना सीखने का लेकिन जाऊं कैसे?-
-क्यों, क्या परेशानी है?"
- परेशानी सिर्फ इतनी सी है मेरी बिल्लो रानी कि ये क्लासेस पूरे चालीस दिन की हैं और सवेरे दस से तीन बजे तक चलने वाली हैं।  अब इस शौक को पूरा करने के लिए डेढ़ महीने की छुट्टी लेना कोई बहुत बड़ी समझदारी की बात तो नहीं होगी ना।
-हम तेरी मुफ्त की छुट्टी का इंतजाम कर दें तो बता क्या ईनाम देगी।
- सच  . . . तू जो कहे  . . . जहाँ तू कहे शानदार पार्टी मेरी तरफ से।  बता कैसे मिलेगी मुझे छुट्टी?  
-मिलेगी बाबा  . . . . जरा धैर्य से।  पहले मेरे दो तीन सवालों के जवाब दे।  कितने बच्चे हैं तेरे?
-एक ही तो है केतन  . . . . क्यों?
- कोई सवाल नहीं।  अच्छा ये बता ओर बच्चा तो नहीं पैदा करना है तुझे?
-अभी तक तो सोचा नहीं।  हां भी और नहीं भी।
-कोई बात नहीं।  ऐसा कर, कल ही तू जा कर अपना एडमिशन करवा लेना।
-दैट्स ग्रेट।  लेकिन छुट्टी।
-छुट्टी मिलेगी आपको एमटीपी का एक लैटर दे कर।  पूरे पैंतालीस दिन की।  दो बार ली जा सकती है।  मिसकैरिज के लिए कोई सबूत थोड़े ही चाहिये।
-अरे वाह, मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था।  मैं कल ही अपनी गायनॉक से बात करती हूँ।
-सिर्फ अपने लिए नहीं, मेरे लिए भी बात करना।  मैं भी।
-यू टू ब्रूटस।

एक रास्ता और..

एक साथ तीन छुट्टियाँ आ रही है। वे चारों एक साथ काम करते हैं और पिकनिक जाने के मूड में हैं। ये एक खास और सीमित ग्रुप ही की प्राइवेट पिकनिक होगी ताकि पूरी तरह से मौज मस्ती मनायी जा सके। माथेरान या लोनावला जाने की बात है। कम से कम दो रातें वहाँ गुजारनी ही हैं। बहुत दिन हो गये हैं इस तरह से मजा मारे।

किस–किस महिला सहकर्मी को जाने के लिए पटाया जा सकता है, इसके लिए सूचियाँ बन रही हैं और नाम जुड़ और कट रहे हैं।

पूरे ऑफिस में वैसे तो ढेरों ऐसी महिलाएं हैं जो खुशी–खुशी साथ तो चली चलेंगी लेकिन उन्हें फैमिली गैदरिंग नहीं चाहिये। कुछ मौज–मजा करने और कुछ 'छूट' लेने और देने वालियां ही चाहिये।

ऐसी सूची में तीन नाम तो तय हो गये हैं। चौथे नाम पर बात अटक गयी है। उससे कहा कैसे जाये। वही सबसे तेज तर्रार और काम की 'चीज' है। बाकी तीन को भी वही पटाये रख सकती है।

इसकी जिम्मेवारी वासु ने ले ली है।

"लेकिन तुम उसे तैयार कैसे करोगे? हालांकि वहाँ स्टार आइटम वही होगी। चली चले तो बस, मजा आ जाये।" सवाल पूछा गया है।

"वो तुम मुझ पर छोड़ दो।"

"लेकिन सुना है, उसका हसबैंड बहुत ही खडूस है। रोज शाम को ऑफिस के गेट पर आ खड़ा होता है उसे ले जाने के लिए। कहीं आने–जाने नहीं देता।"

"वह खुद संभाल लेगी उसे।"

"वो कैसे?"

"उसने खुद ही बताया था एक बार कि जब भी इस तरह का कोई प्रोग्राम हो तो उसे एक हफ्ता पहले बता दो। वह अगले दिन ही मायके चली जायेगी और फिर वहीं से चली आयेगी। तब उसकी हसबैंड के प्रति कोई जवाबदेही नहीं होती। इस तरह के सारे काम वह मायके रहते हुए ही करती है।"

विकल्प 

-हाय, करूणा, आज कित्ते दिन बाद दिख रही है तू? मुझे लगा या तो नौकरी बदल ली तूने या ट्रेन?
- कुछ नहीं बदला शुभदा, सब कुछ वही है, बस जरा होम फ्रंट पर जूझ रही थी, इसलिए रोज ही ये ट्रेन मिस हो जाती थी।
- क्यों क्या हुआ? सब ठीक तो है ना?
- वही सास ससुर का पुराना लफड़ा। होम टाउन में अच्छा खासा घर है। पूरी जिंदगी वहीं गुजारने के बाद वहाँ अब मन नहीं लगता सो चले आते हैं यहाँ। हम दोनों की मामूली सी नौकरी, छोटा सा फ्लैट और तीन बच्चे। मैं तो कंटाल जाती हूँ उनके आने से। समझ में नहीं आता क्या करूँ।
- एक बात बता, तेरे ससुर क्या करते थे रिटायरमेंट से पहले?
-सरकारी दफ्तर में स्टोरकीपर थे।
-उनकी सेहत कैसी है?
-ठीक ही है।
-उन दोनों में से कोई बिस्तर पर तो नहीं है?
-नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है। बस, बुढ़ापे की परेशानियाँ है, बाकी तो . . . . ।
-और तेरा सरकारी मकान है। तेरे ही नाम है ना . . . . तेरे हस्बैंड की तो प्राइवेट नौकरी है . . . ?
- हाँ है तो . . . . ।
-और तेरे ससुर की पेंशन तो 1500 से ज्यादा ही होगी?
-हाँ होगी कोई 2300 के करीब।
- बिलकुल ठीक। और तू रोज रोज के यहाँ टिकने से बचना चाहती है?
- चाहती तो हूँ, लेकिन मेरी चलती ही कहाँ है। घर में उनकी तरफदारी करने के लिए बैठा है ना श्रवण कुमार।
-अब तेरी ही चलेगी। एक काम कर। अपने ऑफिस में एक गुमनाम शिकायत डलवा दे कि तेरे नॉन डिपेंडेंट सास ससुर बिना ऑफिस की परमिशन के तेरे घर में रह रहे हैं। तेरे ऑफिस वाले तुझे एक मेमो इश्यू कर देंगे, बस। सास ससुर के सामने रोने धोने का नाटक कर देना . . . .कि किसी पड़ोसी ने शिकायत कर दी है। मैं क्या करूँ? ऐसी हालत में वे जायेंगे ही।
-सच, क्या कोई ऐसा रूल है?
-रूल है भी और नहीं भी। लेकिन इस मेमो से डर तो पैदा किया ही जा सकता है।
- लेकिन शिकायत डालेगा कौन?
-अरे, टाइप करके खुद ही डाल दे। कहे तो मैं ही डाल दूँ। मैंने भी अपने सास–ससुर से ऐसे ही छुटकारा पाया है। 

ग्लोबलाइजेशन

बंबाई का सबसे पॉश और महंगा इलाका, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर जहाँ हमारे पादुका विहीन हुसैन रहते हैं और शोभा डे भी।  धीरूभाई अंबानी का घर भी वहीं और दूसरे बिजनेस टायकून कहे जाने वाले उद्योगपतियों के दफ्तर भी वहीं।  इसी इलाके में देश की अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करनेवाले बैंकों, वित्तीय संस्थानों और दूसरे औद्योगिक घरानों के दफ्तर।  इस इलाके में ऑफिस और घर शायद देश की तुलना में सबसे महंगे हैं। 
तो इसी इलाके में एक बहुत बड़े वित्तीय संस्थान के गेट के पास का नज़ारा।  लंच का समय।  एयर कंडीशंड दफ्तरों की बंद हवा से थोड़ी देर के लिए निजात पाने और लंच के बाद के सिगरेट, पान और तफरीह के लिए वहाँ सैकड़ों लोग चहलकदमी कर रहे हैं।  किसी न किसी काम से इस इलाके में आये सैकड़ों लोग भी हैं जो अब लंच टाइम हो जाने के कारण टाइम किल करने की नीयत से यूं ही टहल रहे हैं ।
तभी वह आता है।  एक बहुत बड़ा सा बैग टैक्सी से निकालता है और वहीं गेट के पास ही अपनी स्टैंडिंग दुकान शुरू कर देता है।  उसने बैग में से दस जोड़ी मोजे निकाले हैं और खड़े–खड़े आवाजें देना शुरू कर दी हैं –– "पीटर इंगलैंड के मोजे सिर्फ बीस रूपये में  . . . सिर्फ बीस रूपये में इंटरनेशनल कम्पनी  के मोजे  . . . ।  सौ रूपये में पांच जोड़ी।  ले जाइये  . . . .ले जाइये सिर्फ बीस रूपये में  . . . ।"
उसने शानदार कपड़े पहने हुए हैं।  गले में बेहतरीन टाई और पैरों में चमकते जूते।  जिस बैग में वह मोजे रखे हैं वह भी अच्छी किस्म का है।  यानी शक की कोई गुंजाइश नहीं।
देखते ही देखते उसके चारों तरफ भीड़ लग गयी है और लोग सब काम भूल कर अपनी पसंद के रंग और डिजाइन के मोजे चुनने लगे हैं।
सिर्फ घंटे भर में उसने तीन सौ जोड़ी मोजे बेच लिये हैं और खाली बैग ले कर चला गया है। जिन लोगों को बाद में पता चला है वे लपक कर आये हैं लेकिन उसे वहाँ न पा कर निराश हो गये हैं।  एक नायाब खरीदारी होते–होते रह गयी। जो लोग पाँच–पाँच जोड़ी ले गये हैं उन्हीं से कहा जा रहा है एकाध जोड़ी दे देने के लिए।
अगले दिन वह फिर आया है। इस बार उसके पास दो बैग हैं।  दोनों बैग उसने फिर घंटे भर में ही खाली कर दिये हैं। आज कोई चूकना नहीं चाहता।
मेरे ऑफिस के भी कई लोग लाये हैं कई–कई जोड़े। महिलाएं अपने पतियों के लिए इतना सस्ता सौदा करके खुश हैं। बीस रूपये में आजकल ब्रैंडेड मोजे मिलते कहाँ हैं।
मेरे बॉस भी लाये हैं। दस जोड़ी। खूब खूश हैं। पूरे घर के लिए साल भर का इंतजाम हो गया।  मैं उनकी मेज से यूं ही एक पैकेट उठा कर देखता हूँ और तुंत ही वापिस भी रख देता हूँ।  मेरी इस तरह की प्रतिक्रिया देख कर वे अचानक पूछते हैं – "क्या हुआ।"
"कुछ नहीं।  बस, ये मोजे नकली हैं।"
"अरे कमाल करते हैं आप।  ये पीटर इंगलैंड के मोजे हैं।  भला नकली कैसे हो सकते हैं?  जरा इनकी क्वालिटी तो देखिये और ये पैकिंग?"  वे अचानक ताव खाने लगे हैं।
मैंने धैर्यपूर्वक जवाब दिया है – "ये मैं नहीं आपके ये मोजे खुद ही बता रहे हैं कि  उल्हास नगर का नकली माल है।
"आप कैसे कह सकते हैं कि ये नकली हैं।"
"जरा ध्यान से देखिये, इंगलैंड की स्पैलिंग क्या लिखी है इस पर।  ई एन जी एल ई एन डी।  वह आदमी तीन दिन से सबको बेवकूफ बना रहा है और न किसी ने ये लेबल देखा और न ही ये सोचा कि पीटर इंगलैंड कम्पनी कहाँ की है और क्या मोजे बनाती भी है या नहीं।"
उन्होंने भी मोजे उलट पलट कर देखे हैं और वापिस रख दिये हैं।
इस वक्त उनका चेहरा देखने लायक है।
वैसे ये बता दूँ कि हमारे ये साहब करोड़ों की वित्तीय धोखाधड़ियों का पता लगाने वाले विभाग के सर्वेसर्वा हैं।

विकल्पहीन 

उस स्कूल की हैडमिस्ट्रेस रोज ही देखती है कि मिसेज मनचन्दा स्कूल का समय खत्म हो जाने के बाद भी स्कूल में ही बैठी रहती हैं और लाइब्रेरी वगैरह में समय गुजारती हैं। वे आती भी सबसे पहले हैं। बाकि अध्यापिकाएं तो जितनी देर से आती हैं उतनी ही जल्दी जाने की हडबडी में होती हैं। अगर मैनेजमेन्ट ने हर अध्यापिका के लिये कम से कम पांच घण्टे स्कूल में रहने की शर्त न लगा रखी होती तो कई अध्यापिकाएं तो अपने दो तीन पीरियड पढा कर ही फूट लेतीं।
मिसेज मनचन्दा ने हाल ही में यह स्कूल जॉइन किया है। वे सुन्दर हैं, जवान हैं और सबसे बडी बात, बाकि अध्यापिकाओं की तुलना में उनके पास डिग्री भी बडी है, बेशक वेतन उनका इतना मामूली है कि महीने भर का ऑटो से आने जाने का ऑटोरिक्शा का भाडा भी न निकले।
आखिर पूछ ही लिया प्रधानाध्यापिका ने उनसे।
मिसेज मनचन्दा ने ठण्डी सांस भर कर जवाब दिया है - आपका पूछना सही है। दरअसल मेरा घर बहुत छोटा है, एक ही कमरे का मकान। उसी में हमारे साथ रिश्ते का हमारा जवान देवर रहता है। मेरे पति शाम सात बजे तक ही आ पाते हैं लेकिन देवर सारा दिन घर पर रहता है। अब मैं कैसे बताऊं कि सारा दिन घर से बाहर रहने के लिये ही ये नौकरी कर रही हूं। बेशक इस नौकरी से मेरे हाथ में एक भी पैसा नहीं आता, फिर भी किसी तरह के दैहिक शोषण की आशंका से बची रहती हूं। न सही दैहिक शोषण का डर, सारा दिन उस निठल्ले की चाकरी तो नहीं बजानी पडती।
घर पर उनकी मौजूदगी में तो मैं घडी भर लेट कर कमर तक सीधी करने की कल्पना नहीं कर पाती।

कुछ और विकल्पहीन 

वे बहुत सारे हैं।  अलग अलग उम्र के लेकिन लगभग सभी रिटायर्ड या अपना सब कुछ बच्चों को सौंप कर दीन दुनिया से, सांसारिक दायित्वों से मुक्त।  सवेरे दस बजते न बजते वे धीरे–धीरे आ जुटते हैं यहाँ और सारा दिन यहीं गुजारते हैं।  मुंबई के एक बहुत ही सम्पन्न उपनगर भयंदर में स्टेशन के बाहर, वेस्ट की तरफ।  रेलवे ट्रैक के किनारे गिट्टी पत्थरों के ढेर पर उनकी महफिल जमती है और दिन भर जमी ही रहती है।  यहाँ अखबार पढ़े जाते हैं, समाचारों पर बहस होती है, सुख दुख सुने सुनाये जाते हैं और मिल जुल कर जितनी भी जुट पाये, दो चार बार चाय पी जाती है, पत्ते खेले जाते हैं और शेयरों के दामों में उतार चढ़ावों पर, अकेले दुकेले बूढ़ों की हत्या पर, बलात्कार के मामलों और राजनैतिक उठापटक पर चिंता व्यक्त की जाती है।  सिर्फ बरसात के दिनों में या तेज गर्मी के दिनों में व्यवधान होता है उन लोगों के बैठने में।
कंकरीट के इस जंगल में कोई पार्क, हरा भरा पेड़ या कुंए की कोई जगत नहीं हैं, नहीं तो यह चौपाल वहीं जमती।  वे दिन भर आती जाती ट्रेनों को देखते रहते हैं और इस तरह से अपना वक्त गुजारते हैं।  शाम ढ़लने पर वे एक–एक करके जाने लगते हैं।  एक बार फिर यहाँ पर लौट कर आने के लिए।
उनके दिन इसी तरह से गुजर रहे हैं।  आगे भी उन्हें यहीं बैठकर इसी तरह से पत्ते खेलते हुए बातें करते हुए और मिल जुल कर कटिंग चाय पीते हुए दिन गुजारने हैं।
ये बूढ़े, सब के सब बूढ़े अच्छे घरों से आते हैं और सबके अपने घर–बार हैं।  बरसों बरस अपने सारे के सारे दिन यहाँ स्टेशन के बाहर, रेलवे की रोड़ी की ढ़ेरी पर आम तौर पर धूप बरसात या खराब मौसम की परवाह न करते हुए बिताने के पीछे एक नहीं कई वजहें हैं।
किसी का घर इतना छोटा है कि अगर वे दिन भर घर पर ही जमे रहें तो बहू बेटियों को नहाने तक ही तकलीफ हो जाये।  मजबूरन उन्हें बाहर आना ही पड़ता है ताकि बहू बेटियों की परदेदारी बनी रहे।  किसी का बेशक घर बड़ा है लेकिन उसमें रहने वालों के दिल बहुत छोटे हैं और उनमें इतनी सी भी जगह नहीं बची है कि घर के ये बुजुर्ग, जिन्होंने अपना सारा जीवन उनके लिए होम कर दिया और आज उनके बच्चे किसी न किसी इज्जतदार काम धंधे से लगे हुए हैं, उनके लिए अब इतनी भी जगह नहीं बची है कि वे आराम से अपने घर पर ही रह कर, पोतों के साथ खेलते हुए, सुख दुख के दिन आराम से गुजार सके।  गुंजाइश ही नहीं बची है, इसलिए रोज रोज की किच किच से बचने के लिए यहाँ चले आते हैं।  यहाँ तो सब उन जैसे ही तो हैं।  किसी से भी कुछ भी छुपा हुआ नहीं है।
बेशक वे आपस में नहीं जानते कि कौन कहाँ रहता है, कइयों के तो पूरे नाम भी नहीं मालूम होते उन्हें, लेकिन फिर भी सब ठीक ठाक चलता रहता है।
बस, संकट एक ही है।  अगर उनमें से कोई अचानक आना बंद कर दे तो बाकी लोगों को सच्चाई का पता भी नहीं चल पाता।
बेशक थोड़े दिन बाद कोई नया बूढ़ा आ कर उस ग्रुप में शामिल हो जाता है।
भयंदर में ही रहने वाले मेरे मार्क्सवादी दोस्त हृदयेश मयंक इसे पूंजीवादी व्यवस्था की देन मानते हैं जहाँ किसी भी अनुत्पादक व्यक्ति या वस्तु का यही हश्र होता है – कूड़े का ढेर।  दोस्त की दोस्त जानें लेकिन सच यही है कि इस देश के हर घर में एक अदद बूढ़ा है जो समाज से, जीवन से, परिवार से और अपने आसपास की दुनिया से पूरी तरह रिटायर कर दिया गया है और वह अपने आखिरी दिन अपने शहर में सड़क या रेल की पटरी के किनारे पत्थर–गिट्टियों पर बैठ कर बिताने को मजबूर है।

एक और बीच का रास्ता

देवदत्त जी का अहमदाबाद तबादला हो गया है। बहुत परेशान हैं बेचारे। कभी अकेले रहे ही नहीं हैं। रहने खाने की तकलीफें हैं सो तो हैं ही, उनका पूरा जीवन अस्तव्यस्त हो गया है।
अब हर शनिवार की रात चलकर रविवार सवेरे पहुंचते हैं और उसी रात गाडी से लौट जाते हैं। नयी तैनाती का मामला है इसलिये छुट्टी भी नहीं ले सकते। पिछले पांच हफ्ते से यही कर रहे हैं।
देवदत्त जी की एक और समस्या है जो उन्हें लगातार पागल बनाये हुए है। वह है दैहिक सुख की। वे तडप रहे हैं। इधर - उधर मुंह मारने की कभी आदत नहीं रही है। इधर ट्रान्सफर ने सब गडबड क़र दिया है।
बेशक चालीस के होने आये, सोलह सत्रह साल का लडक़ा भी है लेकिन शादी के इतने बरसों बाद यह पहली बार हो रहा है कि वे पूरे पांच हफ्ते से हर रविवार घर आने के बावजूद इसके लिये मौका नहीं निकाल पाये हैं।
मौका निकालें भी कैसे? जब वे रविवार के दिन घर पहुंचते हैं, मुन्नु जग चुका होता है। फिर थोडा वक्त मुन्नू की पढाई के लिये देना होता है। अब एक ही कमरे का घर। मुन्नू को जबरदस्ती घर से ठेल भी नहीं सकते। अब मौका मिले तो कैसे मिले? उधर उनकी पत्नी की हालत भी कमोबेश वैसी है।
आखिर देवदत्त जी ने तरकीब भिडा ही ली है। अहमदाबाद से चलने से पहले उन्होंने फोन करके मुन्नू से कहा कि वह स्कूटर लेकर उन्हें बोरिवली स्टेसन पर लेने आ जाये और साउथ गेट की सीढियों के पास एस - 1 का डिब्बा जहां लगता है वहीं उनका इंतजार करे। कुछ सामान भी है उनके पास।
इधर बेचारा मुन्नू सवेरे - सवेरे अपनी नींद खराब करके बोरिवली स्टेशन पर खडा रहा। गाडी आई और चली भी गई लेकिन पापा एस - 1 तो क्या किसी भी डिब्बे से उतरते नजर नहीं आये।
जब तक वह थक हार कर आधा घण्टे बाद, जब घर पहुंचा तब तक देवदत्त जी एस - 10 से फटाफट उतर कर, दूसरे गेट से बाहर निकल कर, ऑटो से घर पहुंच कर किला फतह भी कर चुके थे।
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बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार बरसात और कम्यूनिस्ट कोना

2005 का कथा यूके का इंदु शर्मा कथा सम्मान वरिष्ठ साहित्यकार श्री असगर वजाहत को उनके उपन्यास कैसी आगी लगाई के लिए हाउस हॉफ लॉर्ड्स में दिया गया था। इसी सिलसिले में मैं उनके साथ जून 2006 में बीस दिन के लिए लंदन गया था। सम्मान आयोजन के पहले और बाद में हम दोनों खूब घूमे। बसों में, ट्यूब में, तेजेन्द्र शर्मा और ज़कीया जी की कार में और पैदल भी। हम लगातार कई कई मील पैदल चलते रहते और लंदन के आम जीवन को नजदीक से देखने, समझने और अपने अपने कैमरे में उतारने की कोशिश करते। हम कहीं भी घूमने निकल जाते और किसी ऐसी जगह जा पहुंचते जहां आम तौर पर कोई पैदल चलता नज़र ही न आता। 


एक बार हमने तय किया कि बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार तक चला जाये। असगर भाई का विचार था कि कहीं इंटरनेट कैफे में जा कर पहले लोकेशन, जाने वाली ट्यूब और दूसरी बातों की जानकारी ले लेते हैं तो वहां तक पहुंचने में आसानी रहेगी। उन्हें इतना भर पता था कि हमें हाईगेट ट्यूब स्टेशन तक पहुंचना है और ये वाला कब्रिस्तान वहां से थोड़ी ही दूरी पर है। लेकिन मेरा विचार था कि हाईगेट स्टेशन तक पहुंच कर वहीं से जानकारी ले लेंगे।



हाईगेट पहुंचने में हमें कोई तकलीफ नहीं हुई। अब हमारे सामने एक ही संकट था कि हमारे पास लोकल नक्शा नहीं था और दूसरी बात हाईगेट स्टेशन से बाहर निकलने के तीन रास्ते थे और हमें पता नहीं था कि किस रास्ते से हमारी मंजिल आयेगी। हमारी दुविधा को भांप कर रेलवे का एक अफसर हमारे पास आया और मदद करने की पेशकश की। जब हमने बताया कि हमारी आज की मंजिल कौन-सी है तो उसने हमें लोकल एरिया का नक्शा देते हुए समझाया कि हम वहां तक कैसे पहुंच सकते हैं। 



बाहर निकलने पर हमने पाया कि बेशक हम लंदन के बीचों-बीच थे लेकिन अहसास ऐसे हो रहा था मानो इंगलैंड के दूर-दराज के किसी ग्रामीण इलाके की तरफ जा निकले हों। लंदन की यही खासियत है कि इतनी हरियाली, मीलों लम्बे बगीचे और सदियों पहले बने एक जैसी शैली के मकान देख कर हमेशा यही लगने लगता है कि हम शहर के बाहरी इलाके में चले आये हों। बेशक हाईगेट सिमेटरी तक बस भी जाती थी लेकिन हमने एक बार फिर पैदल चलना तय किया। रास्ते में एक छोटा-सा पार्क देख कर बैठ गये और डिब्बा बंद बीयर का आनंद लिया। 

आगे चलने पर पता नहीं कैसे हुआ कि हम सिमेटरी वाली गली में मुड़ने के बजाये सीधे निकल गये और भटक गये। वहां कोई भी पैदल चलने वाला नहीं था जो हमें गाइड करता। हम नक्शे के हिसाब से चलते ही रहे। तभी हमारी तरह का एक और बंदा मिला जो वहीं जाना चाहता था। 


खैर, अपनी मंजिल का पता मिला हमें और हम आगे बढ़े। ये एक बहुत ही भव्य किस्म की कॉलोनी थी और वहां बने बंगलों को देख कर आसानी से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता था वहां कौन लोग बसते होंगे। एक मजेदार ख्याल आया कि हमारे सुपर स्टार अमिताभ बच्चन अगर अपनी 227 करोड़ की सारी की सारी पूंजी भी ले कर वहां बंगला खरीदने जायें तो शायद खरीद न पायें।



ऐसी जगह के पास थी बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार। मीलों लम्बा कब्रिस्तान। अस्सी बरस की तो रही ही होगी वह बुढ़िया जो हमें कब्रिस्तान के गेट पर रिसेप्शनिस्ट के रूप में मिली। एंट्री फी दो पाउंड। हम भारतीय कहीं भी पाउंड को रुपये में कन्वर्ट करना नहीं भूलते। हिसाब लगा लिया़ 174 रुपये प्रति टिकट। अगर कब्रिस्तान की गाइड बुक चाहिये तो दो पाउंड और। ये इंगलैंड में ही हो सकता है कि कब्रिस्तान की भी गाइड बुक है और पूरे पैसे देने के बाद ही मिलती है। हमने टिकट तो लिये लेकिन बाबा कार्ल मार्क्स तक मुफ्त में जाने का रास्ता पूछ लिया। उस भव्य बुढ़िया ने बताया कि आगे जा कर बायीं तरफ मुड़ जाना। ये भी खूब रही। मार्क्स साहब मरने के बाद भी बायीं तरफ। 



मौसम भीग रहा था और बीच-बीच में फुहार अपने रंग दिखा रही थी। कभी झींसी पड़ती तो कभी बौछारें तेज हो जातीं।



हम खरामा खरामा कब्रिस्तान की हरियाली, विस्तार और एकदम शांत परिवेश का आनंद लेते बाबा कार्ल मार्क्स की मज़ार तक पहुंचे। देखते ही ठिठक कर रह गये। भव्य। अप्रतिम। कई सवाल सिर उठाने लगे। एक पूंजीवादी देश में रहते हुए वहां की नीतियों के खिलाफ जीवन भर लिखने वाले विचारक की भी इतनी शानदार कब्र। कोई आठ फुट उंचे चबूतरे पर बनी है कार्ल मार्क्स की भव्य आवक्ष प्रतिमा। आस पास जितनी कब्रें हैं, उनके बाशिंदे बाबा की तुलना में एकदम दम बौने नजर आते हैं। बाबा की कब्र पर बड़े बड़े हर्फों में खुदा है 'वर्कर्स ऑफ ऑल लैंड्स, युनाइट।' ये कम्यूनिस्ट मैनिफैस्टों की अंतिम पंक्ति है।

ये भी कैसी विडम्बना है जीवन की। जीओ तो मुफलिसी में और मरो तो ऐसी शानदार जगह पर इतना बढ़िया कोना नसीब में लिखा होता है। 


अगर हम मार्क्स बाबा के जीवन का ग्राफ देखें तो हम पाते हैं कि 1850 वाले दशक में उन्होंने गरीबी में दिन गुज़ारे और लंदन के सोहो इलाके में मामूली घर में रहते रहे। सोहो लंदन के बीचों बीच पिकैडली स्क्वायर के पास एक इलाका है जहां आज कल दुनिया का आधुनिकतम वेश्या बाजार है। हम दोनों उसी शाम वहां भी घूमने गये थे़ लेकिन उस शाम विश्व कप फुटबाल का कोई महत्वपूर्ण मैच होने के कारण सारी रौनकें गेंद की तरफ शिफ्ट हो गयी थीं। 



वहां रहते हुए उनके चार बच्चे पहले से थे और दो बाद में हुए। मार्क्स तब न्यू यार्क डेली ट्रिब्यून में लेख लिख कर कुछ कमा लिया करते थे। बाद में वे बेशक अच्छी जगह शिफ्ट हो गये थे लेकिन अक्सर उन्हें गुजारा करने में मुश्किलें ही होती थीं। कई बार वे घर परिवार के लिए कुछ ऐय्याशियां भी जुटा लेने में सफल हो जाते थे।



1881 में पत्नी जेनी की मृत्यु हो जाने के बाद कार्ल मार्क्स बीमार रहने लगे थे और ज्यादा दिन नहीं जी पाये थे। 14 मार्च 1883 में उनकी मृत्यु स्टेटलेस व्यक्ति यानी बिना देश वाले व्यक्ति के रूप में हुई। उन्हें 17 मार्च 1883 हाईगेट सिमेटरी में दफनाया गया। जब उनका अंतिम संस्कार हुआ तो वहां पर मात्र 11 लोग थे। इनमें से एक थे उनके प्रिय फ्रेड्रिक एंजेल्स। एंजेल्स ने वहां पर अपने शोक संदेश में कहा था, 14 मार्च को दोपहर पौने तीन बजे अब तक का सबसे महान जीवित विचारक चल बसा। उन्हें बस, दो मिनट के लिए ही अकेला छोड़ा गया था और जब हम वापिस आये तो वे अपनी आराम कुर्सी में नींद में ही अपनी अनंत यात्रा पर निकल गये थे। 



उनकी मज़ार पर इस समय जो शिलालेख लगा है़ वह 1954 में ग्रेट ब्रिटेन की कम्यूनिस्ट पार्टी ने लगवाया था और उस स्थल को विनम्रता पूर्वक सजाया गया था। एक और अजीब बात इस मज़ार के साथ जुड़ी हुई है कि 1970 में इसे उड़ा देने का असफल प्रयास किया गया था। 



यहां यह जानना रोचक होगा कि स्टेटलेस व्यक्ति कौन होता है और क्यों होता है। स्टेटलेस व्यक्ति दरअसल वह होता है जिसका कोई देश या राष्ट्रीयता नहीं होती। इसकी वजह यह भी हो सकती है कि जिस देश का वह नागरिक था, वह देश ही अब अस्तित्व में न रहा हो और बाद में उसे किसी और देश ने अपनाया न हो। ऐसा भी हो सकता है कि उसकी राष्ट्रीयता खुद उनके देश ने समाप्त कर दी हो और इस तरह से उसे शरणार्थी बन जाना पड़ा हो। ऐसे लोग भी स्टेटलेस यानी बिना देश वाले हो सकते हैं जो किसी ऐसे अल्पसंख्यक जनजातीय समुदाय से ताल्लुक रखते हों जिसे उस देश की नागरिकता से वंचित कर दिया जाये जिसके इलाके में वे पैदा हुए हैं या वे किसी ऐसे विवादग्रस्त इलाके में पैदा हुए हैं जिसे अपना कहने को कोई आधुनिक देश तैयार ही न हो। ऐसी भी स्थिति हो सकती है कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे देश में रहते हुए अपने पिछले देश की अपनी नागरिकता किसी वजह से त्याग दे। ये बात अलग है कि सारे देश इस तरह से किसी नागरिक द्वारा उसकी नागरिकता को त्यागने को मान्यता नहीं देते। पिछली शताब्दी में ऐसे में बहुत से गणमान्य व्यक्तियों के साथ हुआ कि वे बे घर बार और बे दरो दीवार हो गये और अपना कहने के लिए उनके पास कोई देश या राष्ट्र नहीं था। और ऐसे व्यक्तियों में महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आंइस्टीन, कार्ल मार्क्स, स्पाइक मिलिगन और फ्रेडरिक नित्शे का शुमार है। 



जहां तक कार्ल मार्क्स का सवाल है, वे बेशक ब्रिटिश नागरिक थे लेकिन ब्रिटिश नागरिकता कानून की ऐतिहासिक पेचीदगियों के चलते वे स्टेटलेस नागरिक थे और इसी रूप में वे दफनाये गये थे। इस कानून की धारा के अनुसार वे ब्रिटिश पासपोर्ट के बावजूद युनाइटेड किंगडम में रहने के हकदार नहीं थे। ऐसे लोग जिनके पास किसी और देश की नागरिकता नहीं थी या उन्हें अपने अपने देश में आवास का हक नहीं था़ ब्रिटिश नागरिकता के बावजूद व्यावहारिक रूप से यहां भी स्टेटलेस ही थे। क्या कहा जाये ऐसे बाशिंदों के जो न घर के रहे न घाट के। बलिहारी है ऐसे कानूनों की।    



अभी हम मार्क्स बाबा की तस्वीरें ले ही रहे थे कि हमारी निगाह सामने वाले कोने की तरफ गयी जहां कुछ कब्रों पर ताजे फूल चढ़ाये गये थे। हम देख कर हैरान रहे गये कि ये पूरा का पूरा कोना दुनिया भर के ऐसे कम्यूनिस्ट नेताओं की कब्रों के लिए सुरक्षित था जिन्होंने पिछले दशकों में इंगलैंड में रह कर देश निकाला झेलते हुए यहां से अपने अपने देश की राजनीति का सूत्र संचालन किया था। यहां पर हमने ईराकी, अफ्रीकी, लातिनी देशों के कई प्रसिद्ध नेताओं की कब्रें देखीं। ज्यादातर कब्रों पर इस्लामी नाम खुदे हुए दिखायी दिये। किसी ने लंदन में तीस तो किसी ने बीस बरस बिताये थे और अपने अपने देश की आजादी की लड़ाई लड़ी थी और अंत समय आने पर यहीं, बाबा कार्ल मार्क्स से चंद कदम दूर ही सुपुर्दे खाक किये गये थे। उस कोने में कम से कम पचास कब्रें तो रही ही होंगी। लेकिन यहां भी मामला वही रहा होगा, स्टेटलेस नागरिक होने का। अपने मिशन के कारण मुलुक से बाहर कर दिये गये होंगे और यूके ने उन्हें घर देने के बावजूद घर पर नेमप्लेट लगाने का हक नहीं दिया होगा। 



कब्रिस्तान सौ बरस से भी ज्यादा पुराना होने के बावजूद अभी भी इस्तेमाल में लाया जा रहा था। बरसात बहुत तेज होने के कारण हम ज्यादा भीतर तक नहीं जा पाये थे लेकिन कब्रों पर लगे फलक पढ़ कर लग रहा था कि ये कब्रगाह ऐसे वैसों के लिए तो कतई नहीं है। ये आम रास्ता नहीं है की तर्ज पर परिवेश यही बता रहा था कि ये आम कब्रगाह नहीं है। दफनाये गये लोगों में कोई काउंट था तो कोई काउंटेस। कोई गवर्नर था तो कोई राजदूत। वापसी पर हम जिस रास्ते से हो कर आये़ वह एक बहुत बड़ा़ हरा भरा खूबसूरत बाग था जिसमें सैकड़ों किस्म के फूल और पेड़ लगे हुए थे। वहां से वापिस आने का दिल ही नहीं कर रहा था। 



हम दोनों ही सोच रहे थे, रहने को नहीं, मरने को ही ये जगह मिल जाये तो यही जन्नत है। 

जुलाई 2005

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खो जाते हैं घर [कहानी] – सूरजप्रकाश 

बब्बू क्लिनिक से रिलीव हो गया है और मिसेज राय उसे अपने साथ ले जा रही हैं। उन्होंने क्लिनिक का पूरा पेमेंट कर दिया है। 
- ओ के डाक्टर, तो फिर मै इसे ले जा रही हूं। कोई भी बात होगी तो मैं आपको फोन पर बता दूंगी। वे चलते समय डॉक्टर की अनुमति लेती हैं।
डॉक्टर ने उन्हें निश्चिंत किया है  - ठीक है मैडम, आप इसे दवाएं देती रहें। कुछ ही दिनों में बिलकुल ठीक हो जायेगा। ओ के बब्बू , बाय। आंटी को परेशान नहीं करना।
बब्बू ने कमज़ोर आवाज़ में कहा है - नहीं करूंगा।
डॉक्टर ने बब्बू के गाल सहला कर उसे गुड बाय कहा है।
वे एक बार फिर डॉक्टर को याद दिला रही हैं  - अगर वो आदमी आये इस बच्चे के बारे में पूछने तो मुझे तुंत खबर करें। प्लीज़।
डॉक्टर ने उन्हें आश्वस्त किया है - श्योर, श्योर, हालांकि अब इतने दिन बीत जाने के बाद उसके आने की बाद उम्मीद कम ही है, लेकिन जैसे ही वो आया, मैं आपको तुंत खबर कर दूंगा। मुझे अभी भी यही लग रहा है कि उसने इस बच्चे को कहीं बुखार में तड़पते देख लिया होगा और खुद इसका इलाज कराने की हैसियत नहीं रही होगी इसलिए इसे यहां छोड़ गया। 
- मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है। उसका अपना बच्चा होता कि कैसे भी करके एक बार तो ज़रूर ही मिलने आता ही। लेकिन बीच बीच में ये दूसरे बच्चों की कहानियां सुनाता रहा है, उससे मामला और उलझ गया है। मिसेज राय ने अपनी आशंका व्यक्त की है।
-मेरे ख्याल से बच्चे के पूरी तरह से ठीक हो जाने के बाद ही सारी बातों के बारे में बेहतर ढंग से पता चल सकेगा।
- हां मेरा भी यही ख्याल है कि बच्चा अभी भी सारी बातें सिलसिलेवार नहीं बता पा रहा है। कुछ दिन तो इंतजार करना ही पड़ेगा। 
मिसेज राय ने ड्राइवर से सारा सामान उठाने के लिए कहा है और वार्ड बॉय को इशारा किया है बच्चे को कार में बिठा देने के लिए।
बब्बू को कार में आराम से बिठा देने के बाद वे खुद कार में आयी हैं।
बब्बू जिंदगी में पहली बार किसी कार में बैठा है और हेरानी से सारी चीजें देख रहा है। बहुत ज्यादा आरामदायक सीटें, ठंडी ठंडी हवा, बहुत हौल हौले बजता संगीत और पानी पर चलती सी कार। वह शीशे से आंखें सटा कर बाहर का नजारा देखना चाहता है। 
मिसेज राय उसे आराम से बिठा कर खिड़की के नजदीक सरका देती हैं। 
वह अचानक कार में से अनुपस्थित हो गया है और बाहर भागती दौड़ती दुनिया में शामिल हो गया है। मिसेज राय उसके सिर पर हौले हौले उंगलियां फिरा रही हैं। वे अपनी तरफ से कुछ कह कर या पूछ कर बच्चे और उसकी दुनिया में बाधक नहीं बनना चाहतीं। उन्हें कोई जल्दी नहीं है। 
बब्बू थोड़ी ही देर में कार के भीतर की दुनिया में लौटता है और उनसे आंखें मिलाता है। 
वे मुस्कुराती हैं। 
बब्बू भी उनकी मुस्कुराहट के बदले अपने चेहरे पर कीमती मुस्कुराहट लाने की कोशिश करता है।  
उसका गाल सहलाते हुए पूछती हैं वे - बेटे, अब कैसा लग रहा है?
वह हौले से कहता है - ठीक।
बदले में वह उनसे पूछता है - हम कहां जा रहे हैं?
-घर, क्यों?
-किसके घर?
- अपने घर और किसके घर?
-आपका घर कहां है?
-लोखंड वाला में।
बब्बू चुप हो गया है। उसे सूझ नहीं रहा कि बात को आगे कैसे बढ़ाये। कभी किसी से उसने इतनी और इस तरह की बातें की ही नहीं हैं।
वह कुछ सोच कर अपने आप ही कहने लगता है - मेरा घर तो बहुत दूर है।
- कहां है तुम्हारा घर मेरे बच्चे? उन्हें उम्मीद की कुछ किरणें नज़र आयी हैं।
-पता नहीं। बच्चे ने एक बार फिर उन्हें मझधार में छोड़ दिया है।
- अच्छा वो आदमी कौन था जो तुम्हें अस्पताल में छोड़ गया था?
- मुझे नहीं पता।
- अच्छा इतना तो पता होगा कि तुम कहां रहते थे और किसके साथ रहते थे?
- दोस्तों के साथ।
- कहां ?
- पुल के नीचे।
-जगह याद है?
- नहीं।
- कोई खास बात याद है उस पुल के बारे मे?
- उधर मच्छर बहुत थे। रात भर काटते रहते थे।
- बंबई आये कितने दिन हुए होंगे तुम्हें?
- पता नहीं।
- खाना कहां खाते थे?
- कहीं भी खा लेते थे।
- सारा दिन क्या करते रहते थे?
- कुछ भी नहीं ।
- तुम्हारे वो दोस्त कहां मिल गये थे  जिन्हें तुम्हें  रोज याद करते थे?
- वहीं पुल के नीचे।
- क्या करते थे वो लोग?
- सब अलग अलग काम करते थे।
- तो तुम्हारा ख्याल कौन रखता था?
- सब रखते थे।
- खाना पीना?
- सब मिल कर खाते थे।
- तो तुम क्या करते थे?
- कुछ नहीं, मैं तो बहुत छोटा हूं ना.. ..।
-लेकिन हो उस्ताद। छोटू उस्ताद।
- मैं उस्ताद थोड़ी हूं।
-अच्छा, अपने घर की याद है तुम्हें?  
-हां।
- कौन कौन हैं तुम्हारे घर में ?
-बाबू, अम्मा,  दीदी.. भाई..।
- तुम बंबई में कैसे आ गये ?
- ट्रेन में।
- कब की बात है ?
- पता नहीं ।
- तुम लोग बंबई क्या करने आ रहे थे?
- शादी में।
- और कौन थे साथ में?
- सब थे।
- तो तुम उनसे अलग कैसे हो गये?
- पता नहीं।
- तुम्हारे मां बाप तुम्हें ट्रेन में छोड़ गये थे क्या?
- मुझे क्या पता।
- तुम कितने भाई -बहन हो?
- चार।
- अच्छा .. ..। तो तुम्हें बिलकुल याद नहीं है कि कहां पर है तुम्हारा घर ?
- बहुत दूर।
- लेकिन कहां?
- गांव में।
- गांव का नाम याद है?
- ज्वालापुर।
- और स्कूल का ?
- आदर्श स्कूल।
- और पिता जी का नाम?
- बाबू ।
- और मां का ?
- पता नहीं ।
- बाबू क्या करते हैं?
- दुकान है।
- तुम्हें तो बेटे कुछ भी अच्छी तरह याद नहीं या पता नहीं। ऐसे में अपने घर कैसे जाओटगे? 
- पता नहीं।
- अपने बाबू अम्मा से कैसे मिलोगे?
- पता नहीं। 
बब्बू  इतने सारे सवालों से थक गया है। और फिर उसे अपने घर की भी याद आने लगी है। उसने अपनी अंाखें मूंद ली हैं। मिसेज राय भी समझ रही है कि उससे इतने सारे सवाल एक साथ नहीं पूछने चाहिये थे। 
वे उसे चुप ही रहने देती हैं।
अचानक बब्बू  ने आंखें खोली हैं -  आंटी आप क्या करती हैं?
- क्यों बेटे?
- वैसे ही पूछा, आपकी गाड़ी बहुत अच्छी है। ठंडी ठंडी।
- तुम्हें अच्छी लगी?
- हां, आप भी।
- अरे बाप रे, हम भी तुम्हें अच्छे लगे, भला क्यूं ?
- आप रोज आती थी हमसे मिलने। इत्ती सारी चीजें लाती थीं और मारती भी नहीं थी।
- मैं क्यूं मारने लगी तुम्हें मेरे बच्चे ? तुम तो इतने प्यारे, इतने अच्छे बच्चे हे, भला कोई तुम्हें क्यों मारने लगा ?
- बाबू नहीं मारते थे। अम्मा मारती थी, दीदी, भइया मारते थे।
- बहुत खराब थे वो लोग। तुम्हें तो कोई मार ही नहीं सकता।
तभी उन्होंने ड्राइवर से कहा है - ड्राइवर, जरा सामने रेडीमेड कपड़ों की दुकान के आगे गाड़ी तो रोकना। अपने राजा बाबू के लिए कुछ कपड़े तो ले लें।
- मैं क्या करूंगा कपड़े? बब्बू ने अपना जिक्र सुन कर पूछा है।
- क्यों कपड़ों का क्या करते हैं?
- पहनते हैं। मैंने भी तो पहने हुए हैं।
- तुम इतने दिन से अस्पताल में थे ना, अब घर जा रहे हो इसलिए अच्छे कपड़े तो चाहिये ही ना। और खिलौने भी। बोलो कौन सा खिलौना पसंद है?
- हम घर पर खिलौनें से थोड़े ही खेलते थे।
- तो किस चीज से खेलते थे मेरे बच्चे ?
- वैसे ही खेलते रहते थे। 
- बहुत भोले हो तुम बेटे, बच्चें के तो खिलौनों से खेलना ही चाहिये।  है ना ? 
गाड़ी एक स्टोर के सामने रुकी है। मिसेज राय बच्चे को ड्राइवर के साथ वहीं कार में ही छोड़ कर भीतर जा कर बच्चे के लिए ढेर सारे कपड़े और खिलौने ले कर आयी हैं।
कार में आते ही उन्होंने ड्राइवर से कहा है - अब सीधे घर चलें। हमारे बेटे को भी आराम करना चाहिये। है ना मुन्ना? वे उसकी तरफ देख कर पूछती हैं।
वह  सिर हिलाता है।
गाड़ी लोखंड वाला कॉम्पलैक्स में एक बहुत ही बड़ी और भव्य इमारत के आगे रुकी है। वे बच्चे को आराम से नीचे उतारती हैं। दोनें लिफ्ट तक आते हैं। बच्चा हैरानी से सारी भव्यता देख रहा है। उसके लिए ये दुनिया बिलकुल अनजानी और अनदेखी है। 
लिफ्ट आने पर दोनों भीतर आये हैं।
बच्चा लिफ्ट में पहली बार आ रहा है और हैरानी से पूछता है - आंटी, ये कमरा क्या है ? 
वे हंस कर बताती हैं - बच्चे ये कमरा नहीं है। ये लिफ्ट है। इससे ऊपर जाते हैं।
- अच्छा ये लिफ्ट है। टीवी पर एक बार पिक्चर में देखी थी।
वे अपनी मंजिल पर पहुंच गये हैं। 
वे एक दरवाजे की घंटी बजाती हैं। दरवाजा बाइ ने खोला है। वे उसे ले कर भीतर गयी हैं।
नौकरानी ने उनके हाथ से सामान ले लिया है और बच्चे को देख कर कहती है - हाय, किती छान मुलगा आहे। किसका है मेमसाहब?
वे गर्व से बताती हैं - हमारा मेहमान है। अभी हमारे साथ ही रहेगा और सुनो, ये बाबा बीमार है। इसके लिए हलका खाना बनाना। पूरा ख्याल रखना इसका। ठीक ..।
- ठीक है मेमसाहब। उसके हाथ बच्चे के गाल सहलाने के लिए मचलते हैं लेकिन वह खुद पर कंट्रोल करती है। बहुत मौके आयेंगे इसके। वह चुपचाप भीतर सामान रखने चली गयी है।
अपने कमरे में जाते ही उन्होंने बच्चे को भींच कर अपने सीने से लगा लिया है। वे ज़ोर ज़ोर से रोने जा रही हैं। वे उसे भींचे भींचे - मेरे लाल, मेरे लाल कहे जा रही हैं।  उन्हें रोते देख बच्चा घबरा गया है और वह भी रोने लगा है।
- आंटी आप रो क्यों रही हो?
- अरे पागल, मैं रो कहां रही हूं, ये तो .. ये तो.. खुशी के  आंसू हैं।
- आंटी, खुशी के आंसू कैसे होते हैं। 
- बहुत सवाल करता है रे। आदमी जब बहुत खुश होता है ना, तब भी रोता है।
- मैं तो जब भी रोता हूं तो खुशी के आंसू थोड़े ही आते हैं। जब गिर जाता हूं या भूख लगती है तो मैं तो सचमुच रोता हूं। आंटी, आपको चोट लगती है तो आप रोती हैं क्या?
- पगले, बड़ों को जब चोट लगती है ना.. तो वो चोट नजर नहीं आती। बस, पता चल जाता है कि चोट लग गयी है। समझे बुद्धू राम ..।
- नहीं।
- तू नहीं समझेगा मेरे लाल। आ मैं तुझे समझाती हूं।
उसे ले कर एक तस्वीर के सामने ले कर आती हैं, लगभग पांच साल के एक गदबदे बच्चे की तस्वीर है। मुस्कुराते हुए बच्चे की तस्वीर।
- आंटी, ये किसकी तस्वीर है?
- बेटे, ये मेरे पोते की तस्वीर है।
- पोता क्या होता है? 
- अरे बाप रे, कैसे बताऊं कि पोता क्या होता है। अच्छा देख। तू बेटा तो समझता है ना। जैसे तू अपने बाबू का बेटा है।
- हां।
- तो जो तेरा बेटा होगा ना वो तेरे बाबू का पोता होगा।
- मेरा बेटा कैसे होगा? मैं तो इतना छोटा सा हूं।
- अरे जब तेरी शादी होगी तब तेरा बेटा होगा ना वो तेरे बाबू का पोता होगा। समझे?
- नहीं समझा।
- कोई बात नहीं। ये मेरे पोते की तस्वीर है। 
- क्या नाम है आपके पोते का?
- मेरे पोते का नाम है रिक।
- आंटी ये कैसा नाम है रिक?
- बेटे, जहां वह रहता है वहां ऐसे ही नाम होते हैं।
- कहां रहता है वह?
- फ्लोरिडा में।
- ये कहां है?
- बहुत दूर। सात समंदर पार।
- आंटी समंदर क्या होता है?
- समंदर माने, समंदर माने.. चलो, एक काम करते हैं, तुझे शाम को समंदर दिखाने ले चलेंगे। अपने आप देख लेना।  
- आप उसे अपने पास क्यों नहीं रखतीं आंटी?
वे फिर से रोने लगी हैं - पगले मैंने उसे आज तक देखा ही नहीं है। कितनी अभागी हूं। मेरा पोता पांच साल का हो गया और आज तक मैंने उसे देखा ही नहीं। पास रखने का बात तो दूर है। कभी कभी फोन पर उसकी आवाज सुन लेती हूं तो मेरे कलेजे में ठंडक आ जाती है। 
- आपने उसे देखा क्यों नहीं है आंटी?
- मेरा बेटा कभी उसे यहां ले कर आया ही नहीं।
- क्यों ?
- उसके पस टाइम ही नहीं है। वह खुद भी अब यहां नहीं आता।
- क्यों नहीं आता?
- इन सारे सवालों का जवाब मेरे पास नहीं है बेटे। होता तो क्या तुझे अपने सीने से लगा कर रोती पगले।
बच्चा समझ नहीं पाता इतनी सारी बातें और उनके बंधन से अपने आप को मुक्त कर लेता है। अब अलग होने के बाद उसका ध्यान घर पर, वहां रखे इतने सारे सामान पर और शानो शौकत पर गया है।  उसने पूरे घर का एक चक्कर लगाया है और लौट कर उनके पास वापिस आया है। 
- आंटी इतने बड़े घर में आप अकेली रहती हैं?
सिर हिला कर बताती हैं - हां।
- आपको डर नहीं लगता?
- लगता है।
- किससे ?
- बेटे, एक डर हो तो बताऊं। कभी अपने आपसे डर लगता है तो कभी अपने अकेलेपन से डर लगता है। कभी अपने बुढ़ापे से डर लगने लगता है। बोल तू मेरे साथ यहां रहेगा मेरा डर दूर करने के लिए?
- मेरे रहने से आपका डर दूर हो जायेगा आंटी?
- तू नहीं जानता मेरे बेटे तू कितना प्यारा है तेरे यहां रहने से इस घर का सारा अंधेरा दूर हे जायेगा।
- आंटी आप जोक मारती हैं। घर में अंधेरा कहां है। इतनी रोशनी है।
- हां बेटे, बाहर से ही तो रोशनी नजर आती है। भीतर का अंधेरा ऐसे ही थोड़ी नजर आता है। बोल ना रहेगा मेरे पास। मैं तुझे खूब पढ़ाऊंगी। अच्छे स्कूल में तेरा एडमिशन कराऊंगी। तू खूब पढ़ लिख  कर फिर मेरी मदद करना। मेरा डर दूर करना। करेगा? 
- लेकिन मेरे दोस्त ?
- दोस्त तो ठीक हैं बेटे लेकिन हम उन्हें ढूंढें कहां ? तुम्हें सिर्फ पुल के अलावा कुछ भी तो याद नहीं? कितना अच्छा होता तुम्हारे मां बाप भी मिल जाते।
- लेकिन मैं दोस्तों के पास ही जाऊंगा।
- अच्छा एक काम करते हैं। तुम जरा ठीक हो जाओ तो बंबई में जितने भी पुल है हम सब जगह जायेंगे और तुम्हारे दोस्तों का पता लगायेंगे। चलोगे न हमारे साथ?
- चलूंगा। आंटी कबीरा मेरा बहुत ख्याल रखता है। और फिर मोती भी तो है। मैं आपको सबसे मिलवाउंगा।
-ये मोती कौन है? 
- आंटी मोती हमारा कुत्ता है। बहुत सयाना है। झट से बता  देता है कि दोस्त कौन है और दुश्मन कौन।
- अरे वाह कैसे बता देता है भाई ?
- आंटी, वे जब किसी को देख कर सिर हिलाये तो इसका मतलब है कि वो दोस्त है और जब किसी को देख कर भौंकना शुरू कर दे तो इसका मतलब है कि सामने वाला दुश्मन है।
- अरे वाह, ये तो बहुत मजेदार बात है। हमें मिलवायेगा तू मोती से?
- हां आंटी और एक गप्पूक भी है हमारे साथ। हर समय उसकी निकर नीचे उतरती रहती है। खूब मजा आता है।
- अरे वाह, चल बेटे अब तू आराम कर ले जरा। मैं भी कुछ काम धाम निपटा लूं। जब भूख लगे तो मुझ्टा या माया आंटी को बता  देना। ठीक है। लो इस कमरे में आराम करो, ठीक है। बाद में बात करेंगे। 
- अच्छा आंटी।
- अब से तुम इसी कमरे में रहोगे।
- ये इत्ता बड़ा कमरा मेरे अकेले के लिए?
- क्यों? डर लगता है क्या?
- नहीं। ठीक है आंटी।
मुन्ना लेट तो गया है लेकिन उसे नींद नहीं आ रही। ये सारी चीजें, यहां का माहौल और तामझाम उसकी कल्पना से परे हैं। वह उठ बैठा है। वह पूरे घर में घूम घूम कर देख रहा है। सारी चीजें उसके लिए नई हैं और उसने पहले कभी नहीं देखी हैं। वह कभी स्टीरियो देखता है तो कभी रंगीन टैलिफोन। कभी कभी तस्वीरें देखता है और मूर्तियां। जब चारों तरफ की चीजें देख चुका तो वह आंटी के दिये खिलौने अकेले खेलने लगा। वह देर तक अकेले बैठे उन सारे खिलौनों को उलटता पलटता रहा। उसकी दिक्कत ये है कि ज्यादातर खिलौने या तो बैटरी वाले हैं या उन्हें चलाना उसके बस में नहीं। थक हार कर उसने सारी चीजें एक तरफ सरका दी हैं।
**
मिसेज राय बच्चे को जुहू घुमा कर लायी हैं। उसने अपनी ज़िंदगी में पहली बार समुद्र देखा है। बेशक वह तीन महीने से मुंबई में भटक रहा था लेकिन पता नहीं कैसे वह समुद्र तक पहुंच नहीं पाया। उसे कोई भी उस तरफ नहीं ले कर गया। वह समुद्र से मिल कर बहुत खुश हुआ और पानी में खूब अठखेलियां की उसने। बेशक मिसेज राय डर रहीं थी कि बच्चा अभी ही तो बीमारी से उठा है, कहीं समुद्र की ठंडी हवा उस पर कोई असर न कर दे, लेकिन बच्चा मस्त हो कर पानी से खूब खेलता रहा। वह कभी लहरों से दूर भागता तो कभी पानी के एकदम पास जाना चाहता। मिसेज राय ने खुद भी उसके साथ झूले में बैठीं, घोड़ा गाड़ी की सवारी की और गुब्बारे ले कर उसे साथ साथ गीली रेत पर दौड़ती रहीं। उन्होंने अरसे बाद अपने आप को पूरी तरह से भूल कर, बच्चे के साथ बच्चा बन कर एक नया अनुभव लिया। 
घर पहुंच कर बच्चा बिफर गया है। उसे अपने दोस्तों की याद आ गयी है। वह रुआंसा हो गया है - आंटी, मुझे कबीरा के पास जाना है।
मिसेज राय की परेशानी बढ़ गयी है - देखो बेटे, अभी तुम्हारी तबीयत पूरी तरह से ठीक नहीं हुई है। अभी तो कुछ दिन तुम्हें दवा खानी है। हम तुम्हें इस तरह से बाहर नहीं भेज सकते। एक काम करते हैं हम। कल हम गाड़ी में जा कर पूरे शहर में कबीरा को खोज निकालेंगे। तब हम उसे कहेंगे कि तुमसे रोज मिलने आया करे या हम ड्राइवर से कह देंगे वह कबीरा को ले आया करेगा।
बच्चे को आशा की किरण दिखी है - मोती को भी लायेगा?
बच्चे को इतनी आसानी से मान जाते देख मिसेज राय सहज हो गयी हैं। लपक कर आश्वस्त किया है उसे - ठीक है मोती को भी लायेंगे। बस, अब तुम आराम करो बेटे। इतनी देर पानी में खेले तुम।  
लेकिन बच्चे की लिस्ट अभी पूरी नहीं हुई है - गप्पू को भी ?
मिसेज राय को यह शर्त भी महंगी नहीं लगी- ठीक है गप्पू को भी, हम भी देखें कि उसकी नेकर कैसे नीचे उतरती है। चलो अब आप आराम करो। आपकी दवा का भी टाइम हो रहा है।
अब बच्च अपने सवालों की दुनिया में वापिस आ गया है। पूरी शाम जुहू पर जो सवाल पूछता रहा, फिर से उसके ध्यान में आ गये हैं - आंटी, समुद्र में इतना पानी कहां से आता है?
मिसेज राय ने उसे समझाने की कोशिश कर रही हैं - अरे बेटा, तुम अभी भी वहीं अटके हो। देखो ऐसा है कि समुद्र  में पहले से ही इत्ता सारा पानी है।
- आंटी, समुद्र सब जगह क्यों नहीं होता?
- अगर समुद्र सब जगह होगा मेरे भोले बेटे तो हम रहेंगे कहां?
- सब जगह पानी रहेगा तो कित्ता मजा आयेगा, पानी में खेलते रहेंगे हम।
- तो स्कूल कब जायेंगे, काम कब करेंगे और दवा कब खायेंगे नटखट राम जी?
- हम दवा नहीं खायेंगे, कड़वी लगती है।
- दवा नहीं खाओगे तो ठीक कैसे होवोगे, बोलो, तब कबीरा और गप्पू के साथ कैसे खेलोगे। उन्होंने उसे ब्लैकमेल किया है।
- ठीक है खाऊंगा। वह अपने ही फंदे में फंस गया है। 
**
सवेरे का समय है। वह  सो रहा है। मिसेज राय ऑफिस जाने की तैयारी कर रही हैं। उसके पास आ कर प्यार से वे उसे चूमती हैं। 
नौकरानी को आवाज देती हैं - माया, सुनो, हमें शाम को वापिस आने में देर हो जायेगी। बच्चे का पूरा ख्याल रखना। मैं बीच बीच में फोन करती रहूंगी। 
- ठीक है मेम साहब
- जब बच्चा जग जाये तो उसे गरम पानी से नहला देना। उसे अपने आप खेलने देना। खाना वक्त पर खिला देना। 
- अच्छा मेम साहब
- बच्चे को टाइम पर दवा दे देना। मालूम है ना कौन सी गोली देनी है।
- मालूम। 
मिसेज राय एक बार फिर बच्चे के गाल चूम कर जाती हैं।
**
बच्चे ने जागने के बाद सबसे पहले पूरे घर में आंटी को ढूंढा है।
कहीं नहीं मिलीं उसे। रुआंसा हो गया है वह। उसे रसोई में माया नजर आयी हैं। अब वह उसे भी पहचानने लगा है – आंटी कहां है?
- काम पे गयी मेम साब।
- कहां ?
- आपिस।
- आपिस क्या होता है?
- आपिस माने कचेरी।
- कचेरी क्या होता है?
- वो सब हमको मालूम नईं। मेमसाब रोज जाता आपिस। शाम कू आता। बाबा, तुम दूध पीयेंगा अब्भी। फिर तुम नहा कर खेलना।
- आज कबीरा आयेगा?
- हां, मेमसाहब बेला कि ड्राइवर जा के कबीरा को खोजेंगा और फिर मुन्ना बाबा और कबीरा एक साथ खेलेंगा।
बच्चा खुश हो गया है। अब उसे आंटी नहीं चाहिये - मोती भी आयेगा ना?
- हां मोती भी आयेगा।
लेकिन माया के आश्वासन के बावजूद कबीरा नहीं आया है। वह कई बार बाल्कनी में, बड़े वाले कमरे में और पूरे घर में टहलते हुए अपने दोस्तों का इंतजार कर रहा है। ड्राइवर भी अब तक वापिस नहीं आया है। उसे बेशक स्नान कर लिया है, दूध पी पी लिया है, दवा भी खा ली है लेकिन उसका ध्याल लगातार दरवाजे पर ही लगा रहा है और एक पल के लिए भी वह आराम नहीं कर पाया है। माया के बार बार कहने के बावजूद वह सोने के लिए तैयार नहीं हुआ है। कहीं ऐसा न हो कि कबीरा वगैरह आयें और उसे सोया पा कर लौट जायें।
वह अकेले बोर हो रहा है। सारे कमरे में खिलौने बिखरे पड़े हैं। वह कभी बालकनी में जा रहा है और कभी भीतर आ रहा है। उसका मूड बुरी तरह से उखड़ा हुआ है। वह इस बीच कई बार रो चुका है। उसे समझ में ही नहीं आ रहा कि क्या करे।
तभी फोन की घंटी बजी है। उसे समझ नहीं आता कि फोन की आवाज सुन कर क्या करे। उसे फोन उठाना नहीं आता। तभी लपकती हुई माया आयी है और उसने फोन उठाया है। वह फोन सुनते हुए लगातार हा हा कर रही है। फिर उसने उसे बुलाया है - बाबा मेमसाहब का फोन है। आप से बात करेंगा। 
बच्चा फोन लेता है लेकिन समझ में नहीं आता उसे कि कैसे पकड़ना है। माया उसे बताती है और कहती है - हैलो बोलने का।
- हैलो, आंटी आप जल्दी आओ। कबीरा नहीं आया। 
मिसेज राय उसे बताती हैं - हम जल्दी आयेंगे बेटा। तुम आराम करो। ठीक है। 
- ठीक है। फोन माया को लौटा देता है।
**
बच्चे का मूड बुरी तरह बिगड़ा हुआ है। वह ज़ोर ज़ोर से रोये जा रहा है। माया उसे कभी गोद में उठा कर चुप कराने की कोशिश करती है तो कभी खिलौने दे कर बहलाना चाहती है लेकिन बच्चा है कि एकदम बिफर गया है और किसी भी तरह से काबू में नहीं आ रहा है। माया इस बीच कई बार कोशिश कर चुकी है कि मेमसाहब को फोन पर बताये कि बच्चा किसी भी तरह से काबू में नहीं आ रहा है, वह करे तो क्या करे लेकिन वे किसी मीटिंग में हैं और उन तक वह कैसे भी करके संदेश नहीं दे पा रही। आज तक उसके सामने ऐसी स्थिति नहीं आयी थी। उसने कभी अपनी तरफ से मेम साहब को फोन ही नहीं किया है।
 माया उसे बहलाने की कोशिशें कर रही है लेकिन उसे समझ में नहीं आता कि क्या करें। तभी माया ने उसे पैंसिल और कागज ला कर दिया है। बच्चा उस पर आड़ी तिरछी रेखायें खींचने लगा है। कुछ देर के लिए वह बहल गया है। ये देख कर माया की जान में जान आयी है। वह रेखाएं खींच रहा है। कभी गोल, कभी सीधी। उसका मन बहल गया है और वह अब उसी में मस्त है। कागज रंगते रंगते उसे नींद नींद आ गयी है और वह वहीं सो गया है। 
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वह  बालकनी में खड़ा है। नीचे पार्क में बच्चे खेल रहे हैं। वह थोड़ी देर उन्हें खेलते देखता रहता है। फिर माया से पूछता है - मैं नीचे खेलने जाऊं।
- जाओ बाबा, लेकिन जल्दी आ जाना।
माया उसके कपड़े बदलती है और जूते पहनाती है और उसके लिए दरवाजा खोल देती है।
माया को नहीं मालूम कि यह बच्चा इस दुनिया का नहीं है। वह जहां से आया है, वहां लिफ्ट, बहुमंजिला इमारतें, चिल्डर्न पार्क और ये सारे ताम झाम नहीं होते। वह बच्चा इस दुनिया में खुद नहीं आया, बल्कि लाया गया है और उसे कई सारी चीजों के बारे में बिलकुल भी नहीं पता। 
माया ने तो ये देखा कि बच्चा घर में बैठे बैठे बोर हो रहा है तो थोड़ी देर नीचे खेल कर लौट आयेगा। माया को ये बात सूझ ही नहीं सकती कि बच्चे को खुद नीचे ले जाये और अपने सामने थोड़ी देर तक खिला कर वापिस ले आये।
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वह थोड़ी देर तक लिफ्ट के आगे खड़ा रहता है लेकिन उसे समझ में नहीं आता कि इसे कैसे खोले। इधर माया ने भी दरवाजा बंद कर दिया है। उसे डोर बैल के बारे में पता है लेकिन उस तक उसका हाथ नहीं पहुंचता। वह तीन चार बार हौल हौले से दरवाजा थपकाता है लेकिन भीतर काम कर रही माया तक आवाज नहीं पहुंचती।
वह धीरे धीरे सीढ़ियां उतरने लगता है। 
वह बच्चों के पार्क में पहुंच गया है और उन्हें खेलता हुआ टुकुर टुकुर देख रहा है। वैसे भी वह उन बच्चों के सामने अपने आपको बौना महसूस कर रहा है। धीरे धीरे वह सामने आता है लेकिन तय नहीं कर पाता कि कौन सा खेल खेले या किस खेल में शामिल हो जाये। अचानक एक गेंद लुढ़कती हुई उसके पैरों के पास आती है और वह उसे उठा कर एक लड़के को दे देता है। पता नहीं कैसे होता है कि वह भी उनके खेल में शामिल हो जाता है। उसे अपना लिया गया है और उसे अच्छा लगने लगता है। वह सब कुछ भूल कर खूब मस्ती से खेल रहा है।
काफी देर तक वह उनके साथ खेलता रहता है। 
इस बीच अंधेरा घिरने लगा है और सारे बच्चे अकेले वापिस जा रहे हैं या अपनी अपनी आयाओं, बहनों, माताओं के साथ लौट रहे हैं। 
वह भी खेल कर थक गया है और वापिस लौटना चाहता है।  
वह कदम बढ़ाता है, लेकिन उसे याद ही नहीं आता कि वह किस बिल्डिंग में से निकल कर आया था।  कभी एक बिल्डिंग की तरफ जाता है और कभी दूसरी की तरफ। वह लड़खड़ा रहा है, और घबरा कर रोने लगा है। वह अपना घर भूल गया है। वह रोते रोते भटक रहा है और अपनी इमारत से काफी दूर आ गया है। 
अंधेरा पूरी तरह घिर चुका है।
सड़क पर रोता हुआ अकेला बच्चा चला जा रहा है।
बच्चा वापिस सड़क पर आ गया है।

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उम्र की गुल्लक [कविता]- सूरजप्रकाश 

भरते रहते हैं हम
उम्र की गुल्लक
अल्लम गल्लम चीजों से
कोई सिलसिला नहीं रहता
भरने का
तारीखें
पाठ
सिर फुट्टौवल
गलबहियां
न जाने क्या क्या भरता रहता है
उम्र की गुल्लक में

हमें याद ही नहीं रहता
कब उसमें डाली थी
दोस्ती की इक्कनी
मास्टर जी की मार का छेद वाला पैसा
या किसी काका के दुलार की अट्ठनी

सब कुछ भरता रहता है
उम्र की गुल्लक में
चाहे अनचाहे
जाने अनजाने

अच्छा लगता है
गुल्लक की फांक में  झांकना
उसे हिलाना
सलाई से टटोलना
क्या पता
कोई खोया कलगीदार सिक्का
खुशियों भरा
छपाक से हमारी गोद में आ गिरे
उम्र की गुल्लक से



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एक  थी  छवि [उपन्यास अंश] - सूरज प्रकाश

आज मेरी नौकरी का आखिरी दिन है। ये कहना शायद ज्या-दा सही होगा कि आज नौकरी का आखिरी दिन था। बीत गया दिन तो। 31 जनवरी 2012। आज ही के दिन मेरा साठवां जनम दिन भी है। तीनों काम एक साथ हो गये। जनमदिन, सठियाने की शुरुआत और लगभग 33 बरस के कैरियर पर फुल स्टायप। सबने ढेर सारी शुभकामनाओं, फूलों, गुलदस्तोंा, उपहारों और आंसुंओं के साथ विदा कर दिया। कॉलेज से भी और कुछ हद तक अपने-अपने जीवन से भी। जितनी तारीफें की गयीं, मेरे गुणगान किये गये और मेरे लिए टेसुए बहाये गये, उनके पीछे की सच्चा ई तो मैं ही जानती हूं। मैं भी मुक्त  हुई। बहुत सारे चाहे-अनचाहे रिश्तोंक से।

सबके अपने-अपने कारण होते हैं विदाई के ऐसे मौकों पर खुश या उदास होने के। और इस तरह की उदासी या खुशी के पीछे निश्चित ही हाल ही का कोई अनुभव काम कर रहा होता है या कोई बहुत पुराना अनुभव या नासूर। अपने बारे में सारे सच जानती हूं। कहीं पढ़ा था – मेक यूअर प्रेजेंस एंड एबसेंस फेल्ट।। अपने आप को ऐसा बनायें कि आप जहां हों, वहां आपकी मौजूदगी महसूस की जाये और जब आप किसी सीन से गैर-हाजिर हों तो वहां आपकी गैर-मौजूदगी महसूस की जाये। लेकिन हम जान बूझ कर सच्चानई से मुंह मोड़े रहते हैं। हम अच्छीद तरह से जाते हैं कि लोग कई बार हमारी मौजूदगी में कितने असहज होते हैं और हमारी गैर मौजूदगी में कितने सहज रहते हैं। बल्कि हमें गैर-हाजि़र पा कर खिल उठते हैं। कम से कम नौकरी के मामले में तो यही होता है। 

मुझे अपने बारे में कभी कोई गलतफहमी नहीं रही। अपनी मौजूदगी के मायने भी मैं जानती थी और अपनी गैर-मौजूदगी के भी। आज विदाई समारोह में खचाखच भरे हुए हॉल में मेरी मौजूदगी में बारी-बारी से सब लोगों ने जब मेरी तारीफों के पुल बांधे, बहुत मेहनत से लड़कियों ने खूबसूरत फ्रेम में मढ़वा कर मेरे लिए जो भावुक और सीधे दिल से निकले मनभावन कसीदे पढ़े, मैं निर्विकार भाव से हवा में टंगते जाते खोखले शब्दल सुन रही थी। जानती थी, वे शब्दो थोड़ी देर हवा में गूंजेंगे, तालियों की गड़गड़ाहट में बदलेंगे और धीरे-धीरे हॉल की गर्द के साथ नीचे बैठ जायेंगे। कौन नहीं जानता उनकी सच्चांई। व्यबक्ति बदलने पर तारीफ के इन गुलदस्तोंक में हर बार सिर्फ पाने वाले का नाम बदल जाता है। पिछली प्रधानाचार्य के लिए भी तो यही शब्द  थे, यही भावनाएं थीं, इतने ही आंसू थे और करुणा पूरित भाव थे। वही सब कुछ मेरे लिए दोहराया गया।

याद करती हूं पिछली प्रधानाचार्य को रिटायर होने के दिन की घटना। तब मैं हैड थी अपने विभाग की और मेरे सामने ही उनकी विदाई हुई थी। उनके रिटायरमेंट पर ही तो मैं प्रधानाचार्या बनी थी। उनका मानपत्र भी तो मुझसे फाइनल कराया गया था। उस मानपत्र में और मेरे मानपत्र में नाम बदलने के अलावा क्याे बदला। कुछ भी तो नहीं। अब आज मुझे दिये गये मानपत्र की एक फोटोकॉपी सहेज कर रख ली जायेगी जो अगली प्रधानाचार्य की विदाई के समय सिर्फ नाम बदल कर काम में लायी जायेगी। मेरा मानपत्र बनाने के लिए भी तो पिछले मानपत्र की कॉपी ढूंढी गयी होगी।

सोच-सोच कर अब हँसी आ रही है कि मुझसे पहले वाली प्रधानाचार्या बेहद लद्धड़ किस्मे की औरत थी। उसका हर काम करने का तरीका बाबा आदम के ज़माने का हुआ करता था और उसी के समय के दौरान के पैंडिंग कामों को पटरी पर लाने में ही मुझे दो बरस लग गये थे। लेकिन उसके लिए पढ़ा गया मानपत्र और मेरे लिए पढ़ा गया मानपत्र नाम भर बदलने के अलावा जस का तस था। पता नहीं कितनी पीढि़यों पहले तैयार किया गया होगा और आगे कितनी पीढि़यों तक काम में लाया जाता रहेगा।

रिटायरमेंट एक तरह का मुक्ति पर्व है। एक तरह से अच्छाो ही लग रहा है ये मुक्तिपर्व।  बेशक नौकरी की आपाधापी से मुक्ति‍ पाये अभी पांच घंटे भी नहीं हुए हैं लेकिन खुलेपन और कल से अपने समय का मास्टसर होने का जो सुखद अहसास है, वह रोमांचित कर रहा है। जीवन में कितना कुछ तो है जो पैंडिंग चलता रहता है। रिटायरमेंट के दिन का इंतज़ार करता रहता है। कई बार हम पूरी जिंदगी कई कामों को टालते रहते हैं। जब उन्हेंे करने का समय मिलता है तो इतनी देर हो चुकी होती है कि चीजें कोई मायने ही नहीं रखतीं। अब बेशक कितनी भी सूचियां बनाऊं बकाया कामों की, उनकी प्राथमिकताएं तय करूं या हर दिन के लिए बेशक टाइम टेबल बनाने में माथापच्चीी करूं, होगा कुछ और ही। कई काम अभी भी पेंडिंग चलते ही रहेंगे। कई सूचियां बनेंगी, कई टाइम टेबल बनेंगे और कई शेड्यूल बनेंगे लेकिन गाड़ी को नयी पटरी पर आने में समय तो लगेगा ही। रिटायरमेंट ब्लूेज़ शायद इसी को कहते हैं। आने वाले नये जीवन के लिए एक छोटे बच्चे  की तरह अपने आपको ढालना। वक्तस तो लगेगा। 

ऑफिस से आया अपना पर्सनल सामान देखती हूं। पिछले दिनों अपने चैम्बहर की अलमारियों में से अपना पर्सनल सामान निकालते समय दूसरी ढेर सारी चीज़ों के साथ मुझे ये डायरी और पैन भी मिले थे। सुमित की ओर से दिये गये गिफ्ट। पता नहीं कब से वहीं रखे रह गये थे। याद ही नहीं रहा था घर लाना। एक बार अलमारी के हवाले हुए तो बंद ही रह गये उसमें। उस समय तो दोनों चीज़ें बैग में ठूंस दी थीं। अब देर रात इन्हेंर निकाल कर देख रही हूं। लेदर के कवर वाली बेहद खूबसरत डायरी जो किसी बेल्जियम कंपनी का प्राडक्टे है और उस पर सुनहरी अक्षरों में मेरा नाम एम्बॉ स किया हुआ है - डॉक्टेर छवि मेहता। पैन क्रॉस कंपनी का है। 

डायरी खोलते ही पहले पन्ने पर लिखा पढ़ती हूं -

अपनी छवि को
अपनी कहानी लिखने के लिए
सुमित।

याद करने की कोशिश करती हूं सुमित ने ये उपहार मुझे कब दिये थे। शायद तब जब वह पहली बार मेरे कॉलेज में बिन बताये ही मिलने चला आया था। कुछ-कुछ याद आ रहा है। याद ही नहीं आ रहा कितने बरस हो गये होंगे इस बात को। शायद सोलह या ज्याादा। बाप रे, तब के दिये उपहार मैं आज खोल कर देख रही हूं। पैन की रिफिल तो कब की सूख चुकी होगी। अगर रिटायर न हो रही होती तो पता नहीं कब तक अलमारी में बंद पड़े रह जाते। 

याद करती हूं, तब हमारी कोर्टशिप को ज्याीदा अरसा नहीं हुआ था। उस दिन के बारे में कुछ-कुछ याद आ रहा है। उस वक्तो मैं एक बेहद ज़रूरी स्टा।फ मीटिंग में व्य स्त  थी और वह पूरे डेढ़ घंटे तक मेरे चैम्बार में मेरी राह देखते बैठा रहा था। बाद में उसी ने बताया था। उसके इस तरह से कॉलेज चले आने से हम दोनों के बीच बहुत कहा-सुनी हो गयी थी। मेरे मना करने के बावजूद वह कॉलेज चला आया था। बिन बताये। जब उसे पता चला था कि मैं मीटिंग में हूं तो उसे वापिस चले जाना चाहिये था लेकिन वह वहीं पसर कर बैठ गया था। उसने वहां पर बैठे ज़रा-सा भी नहीं सोचा था कि उसका इस तरह से आना, बैठना, मेरी चपरासिन से चाय मंगाना, उससे गप्पेंल मारना मेरे लिए कितने असुविधाजनक रहे होंगे। इतने बरस में मेरे चैम्ब र में आने वाला और वहां पसर कर बैठ जाने वाला वह पहला और शायद आखिरी भी बाहरी शख्सम था, वरना क्याह मज़ाल किसी की कि प्रिंसिपल मै'म के चैम्बेर में बिना पूछे या बिना काम के बैठने की जुर्रत कर सके। कोई सोच भी नहीं सकता था कि मै'म के चैम्बहर में कोई ऊंची आवाज़ में बात भी कर सके। हँसना-खिलखिलाना तो दूर की बात है। जब मैं मीटिंग से लौटी थी तो वह खिलखिला कर चपरासिन से बात‍ कर रहा था।

मुझे याद आ रहा है उस दिन स्टाहफ मीटिंग में किसी मुद्दे को ले कर कुछ टीचर्स से नोंक-झोंक हो गयी थी और मैं बहुत खराब मूड में अपने चैम्ब।र में आयी थी। मूड वैसे ही खराब था। आते ही सुमित को सोफे पर पसरे हुए देखा था तो मेरा दिमाग भन्नाे गया था। कहां तो उसे इतने दिन बाद देख कर मुझे खुश होना चाहिये था, मैं कब से उससे मिलने के लिए बेचैन हुई जा रही थी और कहां उसे देखते ही मैं फट पड़ने को हो आयी थी। 

ये तो सुमित की किस्मेत अच्छीड थी कि मीटिंग से मेरे साथ वाइस प्रिंसिपल और दो-एक टीचर्स भी चली आयी थीं, सो सुमित मेरी किसी भी तरह की नाराज़गी से बच गया था। मैंने भरसक अपनी आवाज़ को धीमे रखते हुए पूछा था - कब आये, पानी वगैरह पीया या नहीं। सुमित ने शायद भांप लिया था – उसे दे‍खते ही खिल उठने वाला मेरा मूड कम से कम उस समय तो बिल्कुाल नहीं था। धीरे से बताया था उसने – हां, चाय पी ली है। इससे पहले कि वीपी और दूसरी टीचर्स से उसका परिचय कराने की जहमत से मैं अपने आपको बचाने के बारे में सोच पाती, राह खुद सुमित ने ही निकाल दी थी - चलता हूं छवि जी, आपको ये पैकेट देना था, सोचा मुलाकात भी हो जायेगी। अब चलता हूं। मिलते हैं, और बिना एक भी पल गंवाये सुमित चेम्बमर से बाहर हो गया था। 

मैंने ठंडी सांस ली थी। बहुत अच्छाथ हुआ था कि सुमित मुझे असमंजस में डालने वाली किसी भी तरह की स्थिति के आने से पहले ही पहले ही चला गया था। मैंने कनखियों से देखा था, केबिन में उपस्थित सबके चेहरों पर प्रश्न  चिह्न टंगे हुए थे। मैं किसी तरह की सफाई देने या सबसे सुमित का परिचय कराने की औपचारिकता से बच गयी थी।

सुमित ने डायरी पर लिखा है-

अपनी छवि को
अपनी कहानी लिखने के लिए
सुमित।

क्यात है मेरी कहानी! क्याा लिखी जा सकेगी कहानी मेरी। क्यास कहानी है भी मेरी कोई। अगर है तो क्याा इस लायक है कि उसे दर्ज करूं इस डायरी में। किसी को क्याक दिलचस्पीा हो सकती है मेरी कहानी पढ़ने में। फिर ये बात तो सुमित ने इतने बरस पहले लिखी थी। कहानी लिखने वाली बात। तब से अब तक तो मेरी जिंदगी में कितने तूफान आ चुके हैं। सुमित खुद भी मेरी जिंदगी में आ कर लौट चुका। इस बात को भी कितना अरसा हो चला।

तब हमें मिले हुए ज्याुदा अरसा नहीं हुआ था। लेकिन हम जितना भी मिले थे, जितना एक दूजे को जान पाये थे, हम दोनों को ही लगा था कि जीवन तो अब शुरू हुआ है। अब तक हम जी ही कहां रहे थे। एक दूसरे को पा कर हम दोनों ही जैसे निहाल हो गये थे। कितना कुछ जो था जो बाहर आने को कब से राह देख रहा था। हम दोनों ही तब बरसाती सोतों की तरह बह निकले थे। मैं बोलती रहती थी और वह सुनता रहता था और वह बोलता रहता था, मैं पलकें झपकाये बिना उसकी बातें सुनती रहती थी।

मेरी अंतहीन बातें सुन कर ही सुमित को डायरी देने और अपनी कहानी कहने के लिए प्रेरित करने की सूझी होगी। तब बेशक न रही हो मेरी कहानी सबसे शेयर करने लायक, अब तो कितना कुछ जुड़ गया है। कहानी नहीं, ग्रंथ लिखे जा सकते हैं अब तो। कितना कुछ तो है अनकहा मेरी जिंदगी में, जो किसी से कहा जाना है। कब से किसी से मन की बात ही नहीं की है। हँसी आती है - मिला ही कहां कोई जिससे अपने मन की बात कहती।  

कितने बरसों के बाद आज ये पहली बार हो रहा है कि मैं अकेली बैठी हूं और इस तरह के सवाल अपने आप से पूछ रही हूं। किसकी कहानी, कैसी कहानी, कहां से शुरू होगी और कहां खत्म  होगी, खत्मह तो क्याै ही होगी। अगर सब कुछ लिखना शुरू कर दूं तो पता नहीं ऐसी कितनी डायरियों की ज़रूरत पड़ेगी। हँसती हूं अपने आप पर। एक डायरी के भर जाने पर आखिरी पन्नेय पर लिखना होगा - टू बी कंटीन्यूीड। कहानी जारी रहेगी, और तब सुमित से मजबूरन कहना पड़ेगा, ऐसी दस-बीच डायरियां और ला दे। कहानी अभी बाकी है। सुमित से यही कहना ही तो नहीं हो पायेगा। ऐसे संबंध बचे ही कहां हैं। बचे होते तो ...। 

हमारी जि़ंदगी में कितने ऐसे तो... आते हैं जिनका कोई जवाब नहीं होता। इस तो.. का भी नहीं है।

फिर भी लिखूंगी अपनी कहानी। सुमित ने यही तो चाहा था कभी कि अपनी कहानी लिखूं इस डायरी में। लिखना शुरू तो करूं। आगे की आगे देखी जायेगी। पता नहीं कहानी पहले पूरी होगी या डायरी। वैसे भी कल से मेरी दिनचर्या पूरी तरह से बदल जाने वाली है। यही किया जाये सबसे पहले। अजीब स्थिति है। डायरी में कहानी लिखने के लिए कहा था सुमित ने। कहानी डायरी के रूप में लिखी जाये या डायरी कहानी के रूप में भरी जाये। लेकिन डायरी तो तारीख के हिसाब से लिखी जाती है ना। सिलसिलेवार। यहां तो कोई तरतीब ही नहीं है। न जीवन की, न दु:खों की, न हादसों की। पता ही नहीं चला क्याै-क्यान कब और कैसे होता चला गया। बेतरतीब-सा। कभी मुड़ कर पीछे देखने की फुर्सत ही नहीं मिली। अब पीछे मुड़ कर देखना भी चाहूं तो तकलीफ ही हिस्से  में आने वाली है। अपनी राह खुद बना कर चलने वालों के साथ यही तो होता है। एक भी तो मंज़र नज़र नहीं आता जहां घड़ी भर सुकून से बैठे हों और उन पलों को याद करके खुश हो लें।

कहां से शुरू करूं अपनी कहानी? पीछे से शुरू करते हुए आगे बढ़ते हुए या आगे से शुरू करते हुए पीछे लौटते हुए। शुरू कहीं से भी करूं, तकलीफों के अंतहीन रेगिस्ता न मुझे पार करने ही होंगे। बीच-बीच में बेशक सुख के कुछ नखलिस्तातन ति‍तलियों की तरह पर हिलाते नज़र आ कर तुरंत लोप हो गये हों। 

तो बात फिर वहीं अटक गयी। कहां से शुरू करूं अपनी कहानी? सुमित से, शिशिर से, भरतन से, अशोक से, देव और फिर कॉलेज से होते हुए बचपन की तरफ लौटूं या बचपन से शुरू करते हुए कॉलेज का रूट अपनाते हुए सुमित से जुड़ने और उससे अलग होने की कहानी कहूं? बात फिर वहीं आ जाती है। यहां से वहां जाऊं या वहां से चल कर यहां तक पहुंचूं, बात तो एक ही है। रास्ता  तो वही ही है। पार तो मुझे ही करना होगा। 

या ये भी हो सकता है, एक कोलाज की तरह अपनी कहानी लिखती चलूं। जैसी कहानी खुद चले। मैं उसके साथ-साथ चलती चलूं।


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अब दीवाली…[कविता] – सूरजप्रकाश


अब नहीं बनाती मां मिठाई दीवाली पर
हम सब भाई बहन खूब रगड़ रगड़ कर पूरा घर आंगन नहीं चमकाते
अब बड़े भाई दिन रात लग कर नहीं बनाते 
बांस की खपचियों और पन्नीदार कागजों से रंग बिरंगा कंदील 
और हम भाग भाग कर घर के हर कोने अंतरे में 
पानी में अच्छी तरह से भिगो कर रखे गए दीप नहीं जलाते
पूरा घर नहीं सजाते अपने अपने तरीके से।

अब बच्चे नहीं रोते पटाखों और फुलझड़ियों के लिए
ज़िद नहीं करते नए कपड़े दिलाने के लिए और न ही
दीवाली की छुट्टियों का बेसब्री से इंतजार करते हैं।

हम देर रात तक बाज़ार की रौनक देखने अब नहीं निकलते और न ही 
मिट्टी की रंग बिरंगी लक्ष्मी, ऐर दूसरी चीजें लाते हैं 
दीवाली पर लगने वाले बाजार से

अब हम नहीं लाते खील बताशे, देवी देवताओं के चमकीले कैलेंडर 
और आले में रखने के लिए बड़े पेट वाला मिट़टी का कोई माधो। 
अब हम दीवाली पर ढेर सारे कार्ड नहीं भेजते
आते भी नहीं कहीं से
कार्ड या मिलने जुलने वाले।

सब कुछ बदल गया है इस बीच
मां बेहद बूढ़ी हो गई है।
उससे मेहनत के काम नहीं हो पाते
वह तो बेचारी अपने गठिया की वजह से 
पालथी मार कर बैठ भी नहीं पाती
कई बरस से वह जमीन पर पसर कर नहीं बैठी है।
नहीं गाए हैं उसने त्यौहारों के गीत। 

और फिर वहां है ही कौन
किसके लिए बनाए 
ये सब खाने के लिए
अकेले बुड्ढे बुढ़िया के पाव भर मिठाई काफी।
कोइ भी दे जाता है।
वैसे भी अब कहां पचती है इतनी सी भी मिठाई
जब खुशी और बच्चे साथ न हों . . .

बड़े भाई भी अब बूढ़े होने की दहलीज पर हैं।
कौन करे ये सब झंझट
बच्चे ले आते हैं चाइनीज लड़ियां सस्ते में 
और पूरा घर जग जग करने लगता है।

अब कोई भी मिट्टी के खिलौने नहीं खेलता
मिलते भी नहीं है शायद कहीं
देवी देवता भी अब चांदी और सोने के हो गए हैं।
या बहुत हुआ तो कागज की लुगदी के।

अब घर की दीवारों पर कैलेंडर लगाने की जगह नहीं बची है
वहां हुसैन, सूजा और सतीश गुजराल आ गए हैं
या फिर शाहरूख खान या ऐश्वर्या राय और ब्रिटनी स्पीयर्स
पापा . . .छी आप भी . . .
आज कल ये कैलेंडर घरों में कौन लगाता है
हम झोपड़पट्टी वाले थोड़े हैं 
ये सब कबाड़ अब यहां नहीं चलेगा। 

अब खील बताशे सिर्फ बाजार में देख लिए जाते हैं
लाए नहीं जाते
गिफ्ट पैक ड्राइ फ्रूट्स के चलते भला
और क्या लेना देना।

नहीं बनाई जाती घर में अब दस तरह की मिठाइयां 
बहुत हुआ तो ब्रजवासी के यहां से कुछ मिठाइयां मंगा लेंगे
होम डिलीवरी है उनकी।

कागजी सजावट के दिन लद गए
चलो चलते हैं सब किसी मॉल में,
नया खुला है अमेरिकन डॉलर स्टोर
ले आते हैं कुछ चाइनीज आइटम 

वहीं वापसी में मैकडोनाल्ड में कुछ खा लेंगे।
कौन बनाए इतनी शॉपिंग के बाद घर में खाना।

मैं देखता हूं
मेरे बच्चे अजीब तरह से दीवाली मनाते हैं।
एसएमएस भेज कर विश करते हैं
हर त्यौहार के लिए पहले से बने बनाए
वही ईमेल कार्ड 
पूरी दुनिया में सबके बीच
फारवर्ड होते रहते हैं।

अब नहीं आते नाते रिश्तेदार दीपावली की बधाई देने
अलबत्ता डाकिया, कूरियरवाला, माली, वाचमैन और दूसरे सब
जरूर आते हैं विश करने . . .नहीं . . .दीवाली की बख्शीश के लिए 
और काम वाली बाई बोनस के लिए।

एक अजीब बात हो गई है
हमें पूजा की आरती याद ही नहीं आती।
कैसेट रखा है एक
हर पूजा के लिए उसमें ढेर सारी आरतियां हैं।

अब कोई उमंग नहीं उठती दीवाली के लिए
रंग बिरंगी जलती बुझती रौशनियां आंखों में चुभती हैं
पटाखों का कानफोड़ू शोर देर तक सोने नहीं देता
आंखों में जलन सी मची रहती है।
कहीं जाने का मन नहीं होता, ट्रैफिक इतना कि बस . . .

अब तो यही मन करता है
दीवाली हो या नए साल का आगमन
इस बार भी छुट्टियों पर कहीं दूर निकल जाएं
अंडमान या पाटनी कोट की तरफ
इस सब गहमागहमी से दूर।

कई बार सोचते भी हैं 
चलो मां पिता की तरफ ही हो आएं
लेकिन ट्रेनों की हालत देख कर रूह कांप उठती है
और हर बार टल जाता है घर की तरफ 
इस दीपावली पर भी जाना।

फोन पर ही हाल चाल पूछ लिए जाते हैं और
शुरू हो जाती है पैकिंग 
गोवा की ऑल इन्क्लूसिव 
ट्रिप के लिए।