उपलब्धि की सार्थकता दूसरों की सहायता में है –
डॉ. राकेश जैन
(वरिष्ठ
कथाकार नवनीत मिश्र के साथ डॉ.राकेश जैन की बातचीत)
दिव्यांगता किसी की भी तरह की हो,मनुष्य को तोड़ने वाली होती है। भरे-पूरे लोगों और पूरमपूर दुनिया के बीच उसे अपना आप ही असहनीय लगता रहता है। सारे लोग उसे अपनी ही ओर देखते और उसी के बारे में बातें करते जान पड़ते हैं। दया और करूणा प्रकट करने वाली ’च् च् च्’ की आवाजें और धीमी आवाज में बोले गए सहानुभूति जताते वाक्य उसे अपने मन में भर गए दयनीयता के भाव से उबरने ही नहीं देते। ऐसी घिसटती हुई जिन्दगी में ईश्वर और भाग्य को कोसते रहने के अलावा जैसे उसके पास करने को कुछ और रह ही नहीं जाता।
मस्तिष्क पक्षाघात (Cerebral
Palsy) और उससे जुड़ी और कठिनाइयां किसी भी प्रकार की अन्य दिव्यांगताओं में सबसे अधिक दुस्सह और दारूण होती हैं। मस्तिष्क पक्षाघात से ग्रस्त व्यक्ति आंखें खुली होने पर भी कुछ नहीं देखने के लिए विवश रहता है|
उसके लिए कोई भी आवाज कोई अर्थ नहीं रखती,
सामने किसी के भी आकर खड़े हो जाने से उस पर कोई असर नहीं होता क्यों कि उसके शरीर में केवल प्राण तत्व मौजूद है जिसके कारण उसे जीवित कहा जा सकता है,बस। उसको अपनी दशा पर दया तक नहीं आती क्योंकि प्रकृति ने यह काम उसके बेबस तीमारदारों को सौंप दिया होता है। वहीं एक नेत्रहीन उच्च मनोबल की अपनी सफेद छड़ी के सहारे कितने ही दुर्लंघ्य कंचनजंघा सर कर लेता है। दृष्टिबाधित व्यक्ति की दुनिया भले ही आवाजों,गंधों और स्पर्शों तक सीमित होकर रह जाती है लेकिन धीरे-धीरे उनका अपना एक संसार तो बन ही जाता है जिसमें वे विचरण करने लगते हैं। यह जरूर है कि उनके संसार में आवाजें होती हैं पर कोई चेहरा सामने नहीं होता,
गंध होती है लेकिन उसका स्रोत ओझल रहता है और स्पर्श से कोई आकृति नहीं उभरती .
. . उनकी चेतना में सूर्योदय की लालिमा और फूलों के रंगों की कोई अवधारणा नहीं होती। उनका मानस सिर्फ एक ही रंग जानता है और वह होता है काला रंग,
लेकिन वह काला रंग काली घटाओं का,काले बालों का या काली रोशनाई का नहीं होता। वह कालापन होता है उसके सामने फैले दृष्टिपथ में कुछ भी न होने से निचाट रह गए संसार का।
इस अंधेरी दुनिया के निवासी सारा जीवन भटकते और निराशा में डूबकर मृत्यु की प्रतीक्षा ही करते रह जाते अगर संसार के तमाम दृष्टिहीनों ने दृष्टिबाधिता पर विजय प्राप्त करके संसार के अपने जैसे दिव्यांगों के सामने उम्मीद की नयी मशालें प्रज्ज्वलित न की होतीं और दिव्यांगता को शिकस्त देने का हौसला बुलन्द न किया होता।
जरूर ही दिव्यांगों को सामान्य जीवन जीने के लायक बनाने में ऐसे लोगों का योगदान कम नहीं रहा होगा जिन्होंने चाहे किसी भी भाषा में दृष्टिबाधित लोगों को यह कहकर सांन्त्वना दी होगी और उनका हौसला बढ़ाया होगा कि-
तुझमें कोई कमी नहीं पाते
तुझमें कोई कमी नहीं मिलती।
जिनको पता है कि जन्मांध सूरदास को हिंदी साहित्य का सूर्य कहते हुए किसी ने कहा है कि,
‘सूर सूर तुलसी ससी उदगन केसवदास’ या जो जानते हैं कि शेक्सपीयर के बाद अंग्रेजी साहित्य के सबसे बड़े माने जाने वाले नेत्रहीन कवि जॉन मिल्टन ने केवल पंद्रह हजार शब्दों में अपनी काव्य-यात्रा पूरी कर ली जबकि शेक्सपीयर ने यह यात्रा पूरी करने में तीस हजार शब्द व्यय किये थे या जिनके दिलों में फ्रांस के उन लुई ब्रेल के प्रति हमेशा कृतज्ञता का भाव रहता है जिन्होंने ब्रेल लिपि का आविष्कार करके नेत्रहीनों को एक ऐसा उपहार दे दिया जिससे वे जीवन में कभी उऋण नहीं हो सकेंगे,ऐसे डा0 राकेश जैन से भेंट करना बहुत दिलचस्प रहा जो अपनी दिव्यांगता पर विजय प्राप्त कर लेने के बाद सफलता के शिखर पर लोगों के लिए ’मन के हारे हार है मन के जीते जीत’ का अप्रतिम उदाहरण और प्रेरणा की मूर्ति बन कर खड़े मिले -
नवनीत मिश्र -
डाक्टर जैन हमें अपने और अपने परिवार के बारे में कुछ बताइये।
राकेश जैन -मेरा जन्म राजकोट में 1963 में हुआ। मेरे पिता जी आकाशवाणी में इंजीनियर थे और मां गृहणी।
न मि - आपके पिताजी का शुभ नाम?
यह सवाल इसलिए भी और एक विशेष लगाव के कारण क्योंकि मैंने भी जीवन का एक बड़ा हिस्सा आकाशवाणी की सेवा में बिताया है।
राकेश जैन -यह जानकर अच्छा लगा। उनका नाम है स्वर्गीय जीवन प्रकाश जैन।
न मि - आपकी जो दृष्टिबाधिता है वह जन्म से है या किसी दुर्घटना के कारण?
राकेश जैन - मैं जब छः महीने का था तब मेरे पिताजी दिल्ली में थे। खामपुर,
जहां आकाशवाणी के ट्रांस्मीटर हैं वहां मेरे पिताजी काम करते थे। उन्हीं दिनों मेरी आंखों से पानी गिरने लगा। चार-पांच वर्षों तक एम्स के डाक्टरों ने इलाज किया। उन्होंने बताया कि ग्लूकोमा की शिकायत है और आप्टिकल नर्वस में खून की आपूर्ति रूक गई है। 27-28 बार आपरेशन हुए लेकिन नजर लगातार कमजोर होती जा रही थी। तभी किसी ने बताया कि संगरूर में कोई बाबा जी हैं जो भभूत देते हैं जिससे ऐसे मरीजों को बहुत फायदा होता है। चूंकि सब लोग निराश हो चुके थे इसलिए अन्तिम उपाय के रूप में मुझे संगरूर के उन बाबाजी के पास ले जाया गया। बाबाजी ने आंखों में लगाने के लिए भभूत जैसा कुछ दिया। उस भभूत को लगाने से दिन भर आंखें जलती रहीं और दस साल की उम्र में मुझे जो थोड़ा-बहुत दिखाई दे रहा था वह भी बन्द हो गया। फिर यही निर्णय लिया गया कि मुझे दृष्टिबाधित विद्यार्थियों के स्कूल में भर्ती करा दिया जाए।
न मि - क्या आज आपको लगता है कि अगर बाबाजी की भभूत का प्रयोग न किया गया होता तो शायद परिणाम कुछ और होता?
राकेश जैन - नहीं। देखिये इतने दिनों के इलाज के बाद यह तो तय हो गया था कि दृष्टि पूरी तरह से वापस नहीं लौटेगी अगर बाबा की भभूत का इस्तेमाल न किया गया होता तो हो सकता था कि कुछ रोशनी कुछ दिनों तक और बची रहती। जब आंखों की रोशनी बिलकुल ही चली गई तब यह निर्णय किया गया कि मेरी आगे की पढ़ाई ब्रेल लिपि से ही होगी।
न मि - तो ब्रेल लिपि से आपने किस क्लास तक की शिक्षा प्राप्त की?
राकेश जैन -वैसे तो मैंने कक्षा दो तक सामान्य विद्यार्थियों की तरह पढ़ाई कर ली थी लेकिन फिर जब मुझे ब्रेल लिपि के स्कूल में दाखिल किया गया तो मैंने नये सिरे से नर्सरी से पढ़ाई शुरू की।
न मि - आपने कहां तक शिक्षा प्राप्त की?
राकेश जैन - मैंने अंग्रेजी में एम ए किया,
पी एचडी की -
न मि - सब बे्रल से?
राकेश जैन -देखिये ब्रेल से तो बहुत लिमिटेड मैटीरियल उपलब्ध होता है। जब हम स्कूल में थे तब पूरी क्लास में एक किताब हुआ करती थी जो सबको बारी-बारी से मिलती थी कभी एक घंटे के लिए या कभी कुछ ज्यादा समय के लिए। उसके बाद जब हम यूनीवर्सिटी में आए तो किताबें सुनकर या लोगों से रिकार्ड कराकर,
या मुख्य रूप से सुनकर और सुने हुए को याद रखकर ही काम करना पड़ता था क्योंकि ब्रेल लिपि में एक तो किताबें बहुत ही सीमित संख्या में होती थीं और जो होती थीं वह बहुत महंगी हुआ करती थीं।
न मि - तो परीक्षा में लिखने का काम कैसे होता था?
राकेश जैन -उसके लिए हम जैसे दिव्यांगों को राइटर मिलता है जो हमसे एक दो क्लास जूनियर होता है उसको हम लोग बोल-बोलकर लिखवाते हैं। हाई स्कूल,
इण्टरमीडिएट और बीए एम ए तक इसी प्रकार डिक्टेटशन देकर काम चला,
कॉपी लिखने के लिए नियमानुसार हम जैसे लोगों को आधा घंटा समय अधिक दिया जाता है।
न मि - फिर आपने पी एच डी कैसे पूरी की?
राकेश जैन - पीएचडी के समय तक कम्प्यूटर आ चुका था। कम्प्यूटर पर टाइप करके थीसिस तैयार की।
न मि - आपकी पीएचडी का विषय क्या था ?
राकेश जैन - मेरी पीएचडी आयरिश ड्रामा पर थी।
न मि- जिस समय आप क्लास में जाते थे आपके सहपाठियों का आपके प्रति व्यवहार कैसा होता था?
राकेश जैन - बहुत अच्छा होता था। वास्तविकता तो यह है कि मेरे सहपाठियों ने कभी मुझे एक दिव्यांग के रूप में देखा ही नहीं। मैं पढ़ने-लिखने में थोड़ा अच्छा था तो मैं सबकी सहायता करता था। मैं जितनी मदद अपने सहपाठियों से लेता था उससे ज्यादा उनकी मदद करता था। मेरी अभिरूचि हर विषय में रहती थी। तकनीकी विषयों,
देश दुनिया में क्या हो रहा है और आसपास की चीजों को जानने की उत्सुकता मुझमें रहती थी और आज मैं कह सकता हूं कि जानकारी रखने के मामले में और सामान्य आई क्यू सब लोगों से ज्यादा ही रहता था कम नहीं होता था।
न मि - ये बातें तो तब की हैं जब आप अपनी दिव्यांगता से तालमेल बैठा चुके थे लेकिन जब ये स्थिति शुरू हुई होगी तब तो बड़ा शॉकिंग रहा होगा?
राकेश जैन - होता यह है कि कोई ऐसी स्थिति अगर अचानक पैदा हो जाए तो शॉकिंग होता है लेकिन जब स्थितियां धीरे-धीरे सामने आती हैं तो आदमी मानसिक रूप से उसके लिए तैयार होता जाता है और -
न मि - लेकिन छः बरस के बच्चे के लिए तो -
राकेश जैन - जब बाबाजी वाली घटना हुई तो मैंने मान लिया कि नहीं दिखाई देता है तो नहीं दिखाई देता -
एक हिसाब से कहें तो नयी स्थिति का सामना करने के लिए मैंने अपने आप को तैयार कर लिया था।
न मि - इस समय लखनऊ के जिस नेशनल पीजी डिग्री कालेज में बैठकर मैं आपसे बात कर रहा हूं वहां आप प्रोफेसर हैं। शुरू-शुरू में आपको नौकरी के लिए किस तरह का संघर्ष करना पड़ा ?
राकेश जैन - देखिये जॉब के मामले में आम तौर पर लोगों के लिए यह एक्सेप्ट करना आसान नहीं होता कि एक दिव्यांग व्यक्ति जो देख नहीं पा रहा है वो किसी पद पर काम कर सकेगा। मैंने विश्वविद्यालय में अप्लाई किया लेकिन मेरी वहां नियुक्ति नहीं हुई पूरी क्वालिफिकेशन होने के बावजूद। फिर उत्तर प्रदेश में हायर एजुकेशन सर्विस कमीशन है वहां पर पोस्ट निकली थी प्रदेश के डिग्री कालेजों में नियुक्तियों के लिए। मैंने उसमें आवेदन किया। मैं फर्स्ट डिवीजन एम ए था पीएचडी भी था। मुझे पीएचडी स्कॉलर के रूप में यूजीसी से जूनियर रिसर्च फेलोशिप फिर सीनियर रिसर्च फेलोशिप भी मिली। फिर मुझे डी लिट करने के लिए रिसर्च एसोसिएटशिप भी मिली लेकिन उस बीच में मुझे यहां जॉब मिल गई तो पूरा नहीं हो पाया वह प्रोजेक्ट। तो कमीशन में जब मैंने इन्टरव्यू दिया तो वहां मेरा सेलेक्शन हो गया। पूरे उत्तर प्रदेश की मेरिट लिस्ट में मेरा तेरहवां नंबर था और इसलिए जो कालेज मैंने चुना,
जहां मैं काम करना चाहता था मुझे मेरी मेरिट के आधार पर वही कालेज मिल गया। यह कालेज मेरे घर के नजदीक है और मेरे लिए जरा सुविधाजनक है।
न मि तो विश्वविद्यालय में नियुक्ति न होने का कोई अफसोस ?
राकेश जैन - अफसोस,
बिलकुल नहीं। मैं आज जहां तक पहुंच गया हूं वहां पहुंचकर मुझे लगता है कि विश्वविद्यालय में मेरा नहीं हुआ तो बहुत अच्छा हुआ। जो पहचान मुझे मिली और काम करने का जो अवसर मुझे नेशनल पीजी कालेज में मिला वह मुझे विश्वविद्यालय में नहीं मिलता। वहां में एक टीचर के सिवा और कुछ नहीं होता जबकि यहां मैं एक टीचर होने के साथ कालेज के पचासों काम देखता हूं। पॉलिसी लेवल से लेकर इम्लीमेंटेशन तक। यहां पर अपने अंग्रेजी विभाग के साथ’साथ तीन पाठ्यक्रम और हैं जिनका मैं काआर्डिनेटर हूं। बैंकिंग इन फाइनेंस का हमारे यहां पीजी प्रोग्राम चलता है,एक साफ्टवेयर डेवलप का कार्यक्रम चलता है इसके अलावा जर्नलिज्म इन मास कम्युनिकेशन का भी प्रोग्राम चलता है मैं इन तीनों का कॉआर्डिनेटर हूं।
न मि- इतने सारे विभागों का काम संभालने के लिए
आपको कितना समय कालेज को देना पड़ता है ?
राकेश जैन- मैं काम के घंटे नहीं देखता। हमारा कालेज ऑटोनॉमस है तो ऐसे में यहां काम करने वालों की जिम्मेदारी अन्य कालेजों की अपेक्षा कुछ बढ़ जाती है। कालेज में कम्प्यूटर से संबन्धित जितना भी काम होता है वह सब मैं ही देखता हूं। रिजल्ट निकालना,
परीक्षाएं करवाना,
कालेज में प्रवेश परीक्षाएं करवाना,
कालेज में जो भी खरीद आदि होती है वह मैं देखता हूं,एकेडमिक काउंसिल का मैं कन्वीनर हूं,फाइनेंस कमेटी का मैं मेम्बर हूं,
कालेज के जितने लीगल मामले होते हैं सब मैं ही देखता हूं। टीचिंग के साथ-साथ मेरे पास और इतने सारे काम हैं कि पिछले बीस वर्षों से मैंने न तो गर्मी की छुट्टियां ली हैं और न सर्दियों की।
न मि - आपने इतने सारे काम गिना दिए जिनको सुनकर ही सांस फूलने लगी। इतने सारे काम निबटाने में दृष्टिहीनता कहीं इसमें बाधा नहीं बनती ?
राकेश जैन - देखिए एक लेवल पर आकर जब आप काम करने की स्थिति में होते हैं तो आप गाइड करते हैं अपने स्टाफ को और अपने साथ के लोगों को। आपको तो पहले समझना है और फिर समझाना है। आज एक तो टेक्नॉलॉजी इतनी विकसित हो चुकी है कि अगर कोई भी नहीं है तो कम्प्यूटर या मोबाइल के माध्यम से सबकुछ संभव है मेरे लिए। ऐसे साफ्टवेयर आ गए हैं जो बोल-बोलकर सब कुछ बता देते हैं। मैं सबकुछ पढ़ लेता हूं,समझ लेता हूं,
लिख लेता हूं,
ब्रेल का डिजिटल यंत्र है मेरे पास जिसके द्वारा मैं खुद ड्राफ्टिंग कर लेता हूं। जब आप खुद कोई काम करते हैं तब आपको किसी को गाइड करना या उससे काम लेना कठिन नहीं रह जाता।
न मि - आपका जीवन संघर्षों से भरा रहा। उन संघषों से जूझने के लिए आपका प्रेरणा स्रोत कौन रहा ?
राकेश जैन - मुझको लगता है मेरा परिवार मेरा प्रेरणा स्रोत रहा। देखिये इसमें दो चीजें होती हैं। आपको कान्फीडेंस लेवल कौन देता है?
जब तक दूसरा व्यक्ति आपमें कांफीडेंस नहीं रखेगा तब तक आप कुछ नहीं कर पाएंगे। तो सबसे पहले मेरे परिवार ने मुझमें इतना भरोसा रखा कि दृष्टिबाधित होने के बावजूद मेरे माता-पिता सोच सके कि यह तो दिव्यांग है और सन्तानें होनी चाहिए लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं सोचा। मैं और मेरा छोटा भाई एक साथ पले-बढ़े। मेरे पिता ने मेरे अध्ययन में पूरी सहायता ही नहीं की पूरा प्रोत्साहन भी दिया। स्कूली शिक्षा के बाद वह चाहते तो स्नातक और स्नातकोत्तर पढ़ाई के लिए वो मुझे किसी हॉस्टल में भी रख सकते थे या कहीं और छोड़ सकते थे लेकिन उन्होंने मुझे घर में परिवार के बीच अपने साथ ही रखा और पढ़ने-लिखने में मेरी हर तरह से मदद की।
न मि - यहां इस कालेज में आने के बाद शुरू-शुरू का आपका अनुभव कैसा रहा?
राकेश जैन - जब मैं इस कालेज में आया तो यहां के प्रिंसिपल थे प्रो0 एस.पी.सिंह। उन्होंने मुझे देखा,
मेरी योग्यता को परखा कि मैं किस तरह से काम कर रहा हूं,
किस तरह से मैं हर व्यक्ति की समस्या को अपने स्तर पर अपनी सामर्थ्य भर सुलझााने की कोशिश करता हूं तो उनमें कांफीडेंस आया मुझे लेकर। उन्होंने मुझे काम दिया तो मेरे लिए वो भी प्रेरणा के एक स्रोत रहे। जब कोई आपमें भरोसा दिखाता है तो आपको अच्छा से अच्छा करके दिखाना होता है। जहां तक संघर्ष की बात है जो आपने कही,
तो संघर्ष तो सभी के जीवन में होता है। अपने बारे में मैं कह सकता हूं कि मैंने अपने काम को जिया है,
काम करने में आनन्द अनुभव किया है। लोग मुझसे कहते है कि आप इतने सारे काम लेकर बैठे हुए हैं,छोड़ क्यों नहीं देते तो मैं उनसे कहता हूं कि काम करना मुझे अच्छा लगता है।
न मि- आपका जीवन दर्शन क्या है ?
राकेश जैन - मेरा जीवन दर्शन यह है कि आपकी सफलता आपकी अपनी उपलब्धियों में नहीं है। आपकी उपलब्धियों की कीमत तभी तक है जब आप अपनी उपलब्धियों का उपयोग दूसरों की सहायता करने में करते हैं। जैसे धन को ही ले लें तो आपके पास जितनी भी धनराशि हो उसका तब तक कोई मूल्य नहीं है जब तक आप जरूरतमंद के लिए उस धनराशि का उपयोग न कर सकें। थोड़े शब्दों में कहूं तो आपकी उपलब्धि की सार्थकता दूसरों की सहायता करने में है।
न मि- कालेज में अध्यापन के अलावा आप और क्या करते हैं ?
राकेश जैन- जैसा कि पहले बताया कि कालेज का काफी काम मेरे पास होता है जिसमें मेरी बहुत व्यस्तता रहती है लेकिन मुझे किताबें पढ़ने का,किताबें सुनने का बहुत शौक है।
न मि- किताबे सुनने से आपका क्या मतलब है ?
राकेश जैन -~ऑडियो बुक्स। हम लोगों के लिए पढ़ना तो संभव हो नहीं सकता लेकिन ऑडियो बुक्स हम दृष्टिबाधित लोगों का बहुत बड़ा सहारा हैं। ऑडियो बुक्स की एक बहुत बड़ी दुनिया है जिसमें बहुत सारी किताबें मिल जाती हैं। इसके अलावा हम लोगों के लिए स्पेशल लाइब्रेरीज हैं जैसे ऑडीबल डॉट कॉम एमेजान का है,
स्टोरी टेल के नाम से है इसके अलावा बुक शेयर करके एक अमरीकी लाइब्रेरी है जिसमें लाखों की संख्या में किताबें उपलब्ध हैं दिव्यांग जनों के लिए। आपको बताना चाहूंगा कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कई समझौते हुए हैं जिसके तहत एक देश दृष्टिबाधितों के लिए जो किताबें तैयार करता है वे किताबें दूसरे देशों को उपलब्ध कराई जाती हैं।
न मि- यह बड़े सन्तोष की बात है कि दृष्टिबाधितों के लिए कई स्तर पर निरन्तर प्रयास जारी हैं।
राकेश जैन - आजकल एक नया ट्रेण्ड चला है। नया क्या,
है तो पुराना लेकिन अब धीरे-धीरे पापुलर हो रहा है,
वह है आडियो डिस्क्राइब्ड मूवीज।
न मि -
इसके बारे में कभी सुना नहीं।
राकेश जैन - पिक्चर में क्या होता है?
डायलॉग्स होते है लेकिन बहुत से सीन ऐसे होते हैं जिनमें कोई संवाद नहीं होता है खाली एक्शन होता है तो जब एक्शन हो रहा होता है तो हमें नहीं पता चल पाता कि क्या हो रहा है तो उसके लिए आडियो डिस्क्रिप्शन होता है। जहां पर खाली सीन है कोई डायलॉग नहीं है तो उस ट्रैक के लिए ऑडियो रिकार्ड किया जाता है कि इस समय स्क्रीन पर क्या हो रहा है। तो हिंदी में ऐसी कई फिल्में आईं जैसे धोबी घाट,तारे जमीं पर और शोले जैसी कई फिल्में हैं। ये फिल्में हमारे एन जी ओ द्वारा तैयार की जाती हैं। नेटफ्लिक्स पर आप जितनी सीरीज देखेंगे उनमें आडियो डिस्क्रिप्शन होता ही होता है,
यह एक इन्टरनेशनल रूल है।
न मि - इस क्षेत्र में आपने भी कुछ काम किया है ?
राकेश जैन - हमने ऑडियो बुक्स तैयार करने का काम किया है। हमारी एक एन जी ओ है जिसका नाम है रिहैबिलिटेशन सोसायटी आफ दि विजुअली एम्पेयर्ड। उसमें हमारे पास एक स्टूडियो है जिसमें हम आडियो बुक्स तैयार करते हैं। छात्रों के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए किताबें,
कोर्स की किताबें और पाठ्य पुस्तकों को रिकार्ड करने पर हमारा खासतौर पर जोर रहता है। इसके अलावा हमने बहुत सारे उपन्यास,कहानियां आदि रिकार्ड किए हैं
पिछले पंद्रह वर्षों में। इंडिया में हमें बेस्ट रिकार्डिंग का नेशनल अवार्ड भी मिला है।
न मि - क्या कभी आपने आत्म कथा लिखने पर विचार किया?
राकेश जैन - नहीं।
न मि- क्यों ?
राकेश जैन - क्योंकि मुझे नहीं लगता कि मैंने जीवन में ऐसा कुछ विशेष किया है जो और लोग नहीं कर सकते।
न मि- अब एक आखिरी सवाल। आपका विवाह