गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

वातायन - अप्रैल,२००९




हम और हमारा समय

निकटस्थ लोक सभा चुनाव ने सभी अवसरवादी राजनीतिक दलों को अपने मतभेदों को भुलाकर एक साथ आ खड़े होने के लिए विवश कर दिया है. इससे स्पष्ट होता है कि राजनीति में कोई किसी का दुश्मन नहीं होता. कल तक जो एक दूसरे की ओर देखने से बचते थे, आज उन्हें हंसकर गले मिलते देखा जा सकता है. सभी को सत्ता से सरोकार है. उन्हें कुर्सी चाहिए . कुर्सी के लिए वे किसी भी हद तक गिर सकते हैं. इसे हमारे देश के समृद्ध लोकतंत्र की विशिष्टता ही कहना होगा कि टिकट न मिलने पर लोग अपनी एक नई पार्टी बना लेते हैं और अवसर मिलते ही किसी भी पार्टी में शामिल हो लेते हैं या अपनी ही पार्टी में पुनः वापस लौट लेते हैं. इस देश में कितनी राजनीतिक पार्टियां हैं यह बता पाने में चुनाव आयोग को भी कुछ समय लग सकता है. दरअसल देश में व्याप्त अशिक्षा इन राजनीतिज्ञों को मनमानी करने की पूरी छूट देती है. वे चाहते भी यही हैं --- जनता अशिक्षित बनी रहे. वैसे भी शिक्षित लोगों में वोट के प्रति उत्साह कम होता गया है. जनता के अशिक्षित रहने से वे जवाबदेही से बचे रह सकते हैं.

हमारे लोकतंत्र की एक खूबी यह भी है कि राजनीति में बने रहने की कॊई आयु सीमा निर्धारित नहीं है. शायद अन्य लोकतांत्रिक देशों में भी नहीं है, लेकिन वहां के राजनीतिज्ञ अपनी क्षमता को पहचान लेते हैं और स्वयं ही राजनीति से सन्यास ले लेते हैं. यहां चल सकने में असमर्थ -- ह्वीलचेयर पर चलने के लिए अभिशप्त बीमार नेता भी राजनीति से सन्यास लेने के लिए तैयार नहीं होता. बल्कि वह प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बनने के स्वप्न तक देखता रहता है. राजनीति का पतन यहां तक हो चुका है कि सदैव अवसरवादी राजनीति करनी वाली पार्टियां उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की बात कर रही हैं जिनकी राजनीतिक बुनियाद जातिवाद और अपराधवाद पर टिकी हुई है.

लेकिन सब कुछ अंधकारमय ही नहीं है. उभरते कुछ युवा नेताओं में देश के उज्वल भविष्य की एक क्षीण रेखा दिखाई दे रही है . इन युवाओं की आंखों में देश को लेकर कुछ स्वप्न हैं , जिन्हें कभी नेहरू-गांधी ने देखे थे. उनमें कुछ कर गुजरने का एक ईमानदार जज्बा दिखाई दे रहा है. आज देश को ऎसे ही युवाओं की आवश्यकता है--- उन बूढ़ों की नहीं जो स्विस बैंकों में काला धन जमा करके अपनी भावी पीढि़यों का भविष्य सुरक्षित करते रहे और आगे भी करना चाहते हैं. जो देश के लिए नहीं केवल अपने लिए जीते रहे और चाटुकारों को लाभान्वित करते रहे.

आज स्विस बैंकों में जमा धन को वापस लाने की चर्चा जोर पकड़ती जा रही है. इन बैंकों में राजनीतिज्ञों , ब्यूरोक्रेट्स और सितारों का अकूत धन जमा है. राजनीतिज्ञ और ब्यूरोक्रेट्स मिलकर आजादी के बाद से ही इस देश को लूटते रहे हैं. आज भी लूट रहे हैं और किसी भी समझदार व्यक्ति को यह विश्वास नहीं हो पा रहा है कि इन लोगों का स्विस बैंकों में जमा पैसा वापस आयेगा. कहते हैं यह धन इतना है कि यदि वापस आ जाये तो भारत विदेशी कर्ज से मुक्त हो सकता है.

वातायन के अप्रैल, २००९ अंक में प्रस्तुत है मेरे द्वारा अनूदित और ’संवाद प्रकाशन’ से ही प्रकाश्य पुस्तक ’लियो तोल्स्तोय का अंतरंग संसार’ से एक संस्मरण अंश और वरिष्ठ कथाकार और कवि सुभाष नीरव द्वारा अनूदित पंजाबी के युवा कथाकार तलविन्दर की कहानी ’फासला’.

’फासला’ की भी अपनी एक कहानी है. इस कहानी को वरिष्ठतम कथाकार और ’हंस’ के सम्पादक राजेन्द्र यादव ने हंस के लिए स्वीकृत किया था. लगभग डेढ़ वर्ष बीत जाने के बाद सुभाष ने जब कहानी के प्रकाशन के विषय में पूछा तब राजेन्द्र जी ने जल्दी ही प्रकाशित होने का अश्वासन दिया. लेकिन कहानी प्रकाशित नहीं हुई. सुभाष ने जब भी राजेन्द्र जी को फोन किया वे अश्वासन देते रहे. इसी बीच कहानीकार संजीव हंस से जुड़े. उन्होंने राजेन्द्र जी द्वारा स्वीकृत कहानियों पर अपने निर्णय लिए और राजेन्द्र जी और अपने चहेते कहानीकारों की कहानियों को छोड़कर शेष को दरकिनार कर दिया. ’फासला’ के साथ भी यही हुआ. अब राजेन्द्र जी ने सुभाष नीरव को संजीव जी से बात करने की सलाह दी और संजीव जी क्यों नीरव से बात करते ! क्योंकि तब वह कहानीकार मात्र नहीं थे, हंस के कार्यकारी सम्पादक भी थे. व्यस्तता के अतिरिक्त और भी जो बात उनके आड़े आयी हो उन्होंने सुश्री वीना उनियाल से कहलवा दिया कि ’फासला’ उन्हें पसंद नहीं .

मुझे आपकी बेबाक टिप्पणी की प्रतीक्षा रहेगी.

संस्मरण

’संवाद प्रकाशन’
मेरठ से शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक
’लियो तोल्स्तोय का अंतरंग संसार’

से उद्धृत एक संस्मरण

संस्मृतियां

अलेक्जेन्द्रा अन्द्रेयेव्ना तोल्स्तोया
(१८१७-१९०४)
(लेव तोल्स्तोय की ऑण्ट)

अनुवाद : रूपसिंह चन्देल
लियो तोल्स्तोय(१८६३)

मुझे भलीभांत याद है कि जब १८५५ में एक युवा आर्टलरी अफसर के रूप में वह (लेव तोल्स्तोय) सेबस्तोपोल से वापस लौटे तब कैसा दिख रहे थे. मुझे याद है कि उन्होंने हम सब पर कैसा मोहक प्रभाव छोड़ा था.

व्यवहार में वह अत्यंत विनयशील और अकृत्रिम थे और इतना जिन्दादिल कि उन्होंने सभी पर अपने व्यक्तित्व की सजीव छाप छोड़ी थी. वह अपने विषय में कभी ही बात करते थे, नये (परिचित)चेहरे का ध्यानपूर्वक अध्ययन करते और उसके विषय में अपनी राय विनोदशीलता, और प्रायः अतिरंजना में व्यक्त करते . उपनाम ’पतली खाल’ जिसे उनकी पत्नी ने बाद में उन्हें दिया था उन पर सटीक था. हर विचार पर, अनुकूल हो या प्रतिकूल, उनकी प्रतिक्रिया जोरदार होती थी. लोगों को वह अपनी कलापूर्ण छठी इंद्रिय से परखते थे और उनकी राय प्रायः आश्चर्यजनक-रूप से सच होती थी. बुद्दिमान , सौम्य और अर्थपूर्ण आंखोंवाले उनके सरल चेहरे की अभिव्यंजकता सुन्दर चेहरे के अभाव की क्षतिपूर्ति करते थे, और, मैं कहूंगी कि वह खूबसूरत न होते हुए भी खूबसूरत था.

हम सब उन्हें बहुत प्यार करते थे और जब भी वह आते हम उहें देखकर बहुत प्रसन्न होते थे. लेकिन उनसे मित्रता, जिसने हमें आजीवन बांधे रखा था, बहुत विलंब से प्रारंभ हुई थी. वास्तव में वह १८५७ तक, जब हम स्विट्जरलैण्ड में साथ-साथ थे, विकसित नहीं हुई थी.


पूरी सर्दियां हम जेनेवा में रहे थे और हमे बहुत आश्चर्य हुआ था जब अकस्मात लेव मार्च में वहां आ उपस्थित हुए थे (यहां मैं यह भी जोड़ दूं कि उनकी उपस्थिति और अनुपस्थिति सदैव ’कूप दे थियेटर की प्रकृति की थी ).

चूंकि हमारा पत्राचार नहीं था, अतः मुझे उनके पता-ठिकाना की जानकरी नहीं होती थी, और मैं उनके रूस में होने का अनुमान करती थी.

"मैं सीधे यहां पेरिस से आ रहा हूं," उन्होंने कहा था, "पेरिस इतना घृणित है कि मैं लगभग पागल ही हो गया था. मैंने वहां क्या देखा ! वहां एक छोटे-से मकान (गार्नी) में छत्तीस जोड़े (विवाहित ) रहते थे, जहां, मैं ठहरा हुआ था. उनमें से उन्नीस के आपस में अवैध सम्बन्ध थे. यह मुझे क्रोधोन्मत्त करता था. तब मैंने स्वयं के परीक्षण का निर्णय किया और एक गिलोटन देखने गया. उसके बाद मैं सो नहीं सका और नहीं समझ पाया कि अपने साथ क्या करू ! सौभाग्य से, मुझे यह ज्ञात हुआ कि तुम जेनेवा में हो और तत्काल वहां से भाग खड़ा हुआ कि तुम मुझे बचा लोगी.

यह बिल्कुल सच है, कि यह बताने के बाद उन्होंने हल्का अनुभव किया था और पुनः अपनी मानसिक शांति प्राप्त कर ली थी. हम प्रतिदिन एक दूसरे से मिलने, पहाड़ों पर जाने और हर प्रकार से जीवन का आनंद प्राप्त करने लगे थे. मौसम अत्यन्त सुन्दर था, और प्राकृतिक दृश्य------ मैं क्या कहूं ? मैदान के निवासी होने के कारण हमें उसमें परम आनंद मिल रहा था, हालांकि लेव ने हमारे उत्साह को बाधित करते हुए कभी-कभी यह समझाने का प्रयास किया कि काकेशस की तुलना में यह कुछ भी न था. फिर भी, हमारे लिए वही पर्याप्त था. उन्होंने पुराने कपड़ों की भांति अपने अतीत को त्यागकर सदा के लिए पुनः नई जिन्दगी शुरू कर दी थी. तब हम दोनों कितनी सहजता से इस संभावना पर विश्वास करते थे कि एक दिन स्वयं को दूसरे की ओर मोड़ लेगें और चाहने पर स्वयं को बदल लेगें. उस आयु में, हम बेहतर समझ सकते थे, हमने इसप्रकार पूरी तरह अपने को स्व-प्रवंचना को समर्पित कर दिया था, कि आयु की अपेक्षा अपनी अतंरात्मा में हम अधिक युवा थे.

बहुत दिनों तक पहाड़ों और उपत्यकाओं में भटकने के बाद हम लूसर्न (Lucerne) गये , और दूसरी बार लेव अनपेक्षित और अकल्पनीय रूप से वहां प्रकट हुए थे. ऎसा प्रतीत हुआ मानो वह धरती फोड़कर निकल पड़े थे. लुसर्न में वह हमसे दो दिन पहले ही पहुंच गये थे और वहां के अनुभव प्राप्त कर चुके थे, जिसका चित्रण उन्होंने बाद में अपनी कहानी ," नोट्स ऑफ प्रिंस नेख्ल्यूदोव’ में किया था. हमने उन्हें रोष से उत्तेजित और आंदोलित पाया था.


उन्होंने बताया, कि वह घटना हमारे पहुंचने की पूर्व संध्या को घटित हुई थी. एक घुमन्तू संगीतकार ने स्वीजरहॉफ बाल्कनी के नीचे लंबे समय तक संगीत वादन किया था, जहां आभिजात्यवर्ग के कुछ लोग एकत्र हो गये थे. सभी ने आनन्दपूर्वक संगीत सुना, लेकिन उसने जब इनाम के लिए अपनी हैट आगे बढ़ाई तब एक भी व्यक्ति ने एक पैसा भी नहीं दिया. निश्चित ही यह बहुत भयानक था, लेकिन लेव ने इसे महापराध माना था.

उस दंभी भीड़ को प्रताड़ित करने के भाव से उन्होंने उस संगीतकार की बांह पकड़ी थी, एक रेस्तरां में उसके साथ एक मेज पर जा बैठे थे , और भोजन और शैम्पेन का आर्डर किया था. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि जिन लोगों को वह प्रताड़ित करना चाहते थे उन्होंने या उस गरीब संगीतकार ने उनके उद्देश्य को समझ प्रशंसा की थी या नहीं.

उनमें एक और विशेषता थी, जिसकी मैं चर्चा करना चाहूंगी. उन्हें झूठ से घृणा थी, चाहे वह कहा गया हो या किया गया. लेकिन कभी कभी इसके उलट भी हो जाता था.

एक बार, एक दिन सुबह के समय, जब वह मेरी बहन के यहां चाय पर आमन्त्रित थे, जहां बहुत से अतिथियों के आने की आशा थी, उन्होंने मुझे लिख भेजा कि वह नहीं आ सकते, क्योंकि उन्हें कुछ समय पहले ही अपने भाई की मृत्यु की सूचना मिली थी. (वह अपने भाइयों को बहुत प्यार करते थे). मैंने उत्तर दिया कि निश्चित ही मैं उनकी स्थिति को ठीक से समझ सकती हूं . और आप क्या कल्पना करते हैं ? वह अचानक चाय पार्टी में आ उपस्थित हुए थे मानों कुछ हुआ ही न था.

उनके आगमन ने मुझे स्तब्ध और व्यथित किया था.

"लेव, तुम क्यों आए?" मैंने उनसे फ्रेंच में पूछा.

"क्यों? क्योंकि इस सुबह मैंने तुम्हें जो लिख भेजा था, वह असत्य था. यदि मैं आया, तो इसका अर्थ है कि मैं आ सकता था."

मानो, इतना ही पर्याप्त न था. कई दिनों बाद उन्होंने मुझसे स्वीकार किया कि वह थियेटर भी गये थे.

"तुम्हें यह बहुत आश्चर्यजनक अनुभव करना चाहिए." बहुत ही व्यथित-भाव से मैंने ध्यान से उनकी देखा.

"नहीं किया, ऎसा नहीं कह सकता. जब मैं थियेटर से लौटा मैं भयानक यातना से होकर गुजरा. यदि मेरे पास रिवाल्वर होता निश्चित ही मैं अपने गोली मार लेता."


"सत्य के मार्ग पर लंबी दूरी तय करने के बाद, तुमने सत्य का उपहास किया." ऎसे अवसरों पर मैं उनसे कहती और वह मुझसे सहमत होते. लेकिन फिर भी अपने पर परीक्षण करने से वह बाज नहीं आते थे.

"मुझे अपने पर कठोरतम परीक्षण करने चाहिए." वह कहते.

उन जाड़ों मे कई बार वह कहानियों की पाण्डुलिपियां पढ़ने के लिए लाते. "ए हैपी मैरीड लाइफ" और "थ्री डेथ्स" पहली बार मेरे घर ही पढ़ी गई थीं. वह बहुत खराब ढंग और शुद्ध अंतःकरण से पढ़ते थे और आलोचना को सकारात्मक भाव से ग्रहण करते थे.

उनके दिमाग में योजनाएं ऎसे उत्पन्न होती थीं जैसे वर्षा के बाद कुकरमुत्ते . हर आगमन के समय वह भविष्य के लिए नयी योजना लेकर आते और धाराप्रवाह सुनाते और प्रसन्न होते कि अंततः कोई समुचित व्यवसाय उनके पास भी था.

१८६२ में उनके विवाह के बाद कभी ही उन्होंने गांव छोड़ा था, और हम प्रायः बह्त कम एक दूसरे से मिल पाये, हालांकि मैं मिलने का हर संभव प्रयास करती थी. एक बार----- वह मेरे यहां इलिन्स्कोये आए थे. यह १८६६ की बात थी.

एक बार मधुमक्खी पालन अभियान, दूसरे ---- पूरे रूस में वनारोपण अभियान , और ऎसे ही अन्य कार्यों में वह अपने को व्यस्त रखते, लेकिन अन्य बातों की अपेक्षा उनकी दिलचस्पी अपने स्कूल में ही अधिक थी.

मुझे उस दिन की याद है, जब उन्होंने मुझे तुर्गनेव के साथ अपने झगड़े के विषय में बताया था, जो लगभग एक द्वन्द्व युद्ध में समाप्त हुआ था. झगड़े का विवरण मुझे याद नहीं (कारण बहुत सामान्य था) लेकिन मैं लेव निकोलायेविच की टिप्पणी नहीं भूली हूं.

"मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं" अपने बालों की जड़ों को स्पर्शकर लज्जारुण होते हुए उन्होंने कहा था, "उस मूर्खतापूर्ण मामले में मेरी भूमिका अनुचित न थी. किसी भी प्रकार मुझे दोष नहीं दिया जा सकता, और हालांकि मैंने निर्दोष अनुभव किया, फिर भी मैंनें तुर्गनेव को मित्रतापूर्ण और समझौताकारी पत्र लिखा था. लेकिन उन्होंने उसका उत्तर इतनी अशिष्टतापूर्वक दिया कि मुझे उनके साथ सम्बन्ध विच्छेद करना पड़ा.

बाद में सब ठीक-ठाक हो गया था, और वह प्रायः एक-दूसरे से मिलते भी रहे , लेकिन वे सच्चे मित्र कभी नही हो सके. बुनियादी तौर पर वे एक दूसरे से बहुत भिन्न थे.

कहानी

पंजाबी कहानी

फासला

तलविंदर सिंह
हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

वह मेरे सामने बैठी थी- शॉल लपेटे, गुमसुम-सी, चुपचाप। या शायद मुझे ही ऐसा लग रहा था। उसका नाम मुझे याद नहीं आ रहा था और यही बात मेरे अन्दर एक तल्खी पैदा कर रही थी। उसकी बगल में दाहिनी ओर सोफे पर गुरुद्वारे के तीन नुमांइदे आये बैठे थे। उनके साथ भी दुआ-सलाम से अधिक कोई बात नहीं हुई थी। थोड़ा-सा संकोच मुझे खुद भी हो रहा था, क्योंकि दिनभर की थकावट को उतारने की नीयत से मैंने अभी-अभी व्हिस्की का एक पैग लगाया था। गुरुद्वारे से आये नुमांइदों की समस्या के बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी थी मुझे। अरबन एस्टेट के साथ वाली लेबर कालोनी के कुछेक पढ़ाकू लड़कों ने गुरुद्वारे में आकर इस बात पर तकरार की थी कि परीक्षाओं के दिन हैं, इसलिये स्पीकर की आवाज कम की जाये या इसका मुँह दूसरी तरफ किया जाये। तभी से, अफसरनुमा कर्ताधर्ता इधर-उधर घूम रहे थे। अब भी वे इसीलिये आये थे।
प्रधान प्रदुमन सिंह ने हल्का-सा खाँसते हुए बात शुरू की, ''सरदार साहिब, आप तो मामला जानते ही हैं। यह तो सरासर गुरु-घर का अपमान है। मसला और ज्यादा बिगड़ जाने का चांसेज है... आप...।''
अजीब फितरत है मेरी भी। दिमाग में कोई गांठ लग गयी तो तब तक चैन नहीं मिलता, जब तक वह खुलती नहीं। बात इतनी अहम नहीं, यह मैं जानता हूँ। इसका नाम अमृत, अमन, अमरजीत... नहीं, नहीं, बात रुक नहीं रही दिमाग में। वैसे मुझे पता है कि इसका नाम 'अ' से ही शुरू होता है और है भी चार अक्षर का। शॉल में लिपटा उसका चेहरा मासूम लग रहा है, या मुझे ही ऐसा प्रतीत हो रहा है।
''आप तो शायद बाद में आये यहाँ। इकहत्तर में बनाया हमने यह गुरुद्वारा। तन, मन, धन से। इस लेबर कालोनी में से किसी ने फूटी कौड़ी नहीं दी। हमने कहा, कोई बात नहीं, वो जानें। आप तो जानते ही हो, गुरुद्वारे की अपनी रवायतें हैं। यहाँ पाठ भी होना है और कीर्तन भी। कोई उठकर कहने लगे कि गुरुद्वारे को झुका लें... लड़के तो हमारे भी मूंछों को ताव देते घूम रहे हैं, पर हमने कहा, नहीं। ऐसी कोई बात नहीं करेंगे जो सिक्ख उसूलों के खिलाफ हो।''
अचानक, मुझे लगा मानो मेरा सिर घूमने लगा हो। यूँ लगा, जैसे अन्दर धुआँ-सा जमा होने लगा हो। क्या फैसला दूँ मैं? क्या भूमिका निभाऊँ ? इधर एक छोटा-सा कांटा फँसा पड़ा था दिमाग में। पता नहीं, मुझे वह इतनी सहज क्यों लग रही थी। गुरुद्वारे के मसले में मेरी रत्ती भर दिलचस्पी नहीं थी। मैं इधर-उधर देखकर बहादुर को खोजने लगा, जो रसोई की चौखट के साथ पीठ टिकाये खड़ा था। मैंने उसे इशारा किया, ''जरा इधर आओ।''
''जी साहिब!'' वह करीब आकर बोला।
''पहले पानी ला, फिर चाय।'' अपने छुटकारे के लिए मानो यही राह मुझे आसान लगी थी।
''नहीं, नहीं, चाय की कोई ज़रूरत नहीं सरदार साहिब...। आप हमें थोड़ा गाइड करो।'' प्रधान साहिब बोले।
मैं असमंजस में था कि क्या बोलूँ ? लेबर कालोनी के बच्चों की पढ़ाई ज़रूरी है या 'शबद-कीर्तन' का कानफोड़ू शोर। प्रधान प्रदुमन सिंह की दर्शनीय दाढ़ी उनके कंधे पर पड़ी सफेद लोई के साथ खूब मैच कर रही है। सचिव सुखदयाल सिंह की मूंछों के कुंडल उनकी ऊँची शख्सीयत का दम भर रहे हैं। ये तीसरे शख्स गुरुद्वारे के खजांची हैं। उनसे मेरा ज्यादा परिचय नहीं। ये जाने-माने व्यक्ति हैं। गुरुद्वारे का मामला वाकई संगीन है। मुझे बोलने के लिए कोई राह नहीं सूझ रही थी। नशे के हल्के-से सुरूर के कारण मेरी नज़र भी डोल रही थी। दिमाग का एक हिस्सा लड़की के नाम की तलाश में मुझे लगातार बेचैन कर रहा है। अजीब स्थिति है। गुरुद्वारे वाला मसला तो अब किसी भी सूरत में हल होने वाला नहीं। वैसे भी मन के किसी कोने में से आवाज आ रही है कि यह मसला मेरे स्तर पर हल होने वाला है ही नहीं। इस बात को शायद ये लोग भी समझते हैं। मेरी सलाह लेना इनकी कोई मजबूरी भी हो सकती है। एक दिन तड़के पौ फटे सैर करते समय अपने से आगे जा रहे दो व्यक्तियों की बातचीत मैंने सुनी थी- 'यह शडयूल्ड कास्ट अफसर हमारे हक में नहीं खड़ा होगा।' मैंने तभी चाल धीमी कर ली थी। बातें करने वाले वो व्यक्ति ये थे या कोई और, पता नहीं, पर थे वे इन जैसे ही। अपने स्वभाव के अनुसार मुझे इनके मसले में बिलकुल भी दिलचस्पी नहीं। अच्छा हुआ, बहादुर पानी के गिलासों वाली ट्रे लेकर आ गया। उससे पानी का गिलास लेकर मैंने खुद भी पिया। फिर, उन सज्जनों की ओर मुखातिब हुआ, ''मेरे विचार में जल्दबाजी ठीक नहीं। एक मीटिंग रख लो। मुझे खबर कर देना, मैं आ जाऊँगा, इस वक्त तो ज़रा...।''
वे भी शायद मेरी स्थिति से परिचित हो चुके थे। उन्होंने एक-दूसरे की ओर देखकर उठने का मन बना लिया।
मैंने कहा, ''बैठो, चाय पीकर जाना।''
''नहीं, नहीं, चाय नहीं सरदार साहब, फिर कभी सही।'' सचिव साहिब बोले, ''पर आप इस मसले का हल निकालें।''
प्रधान साहिब भी उठ खड़े हुए, ''गुरुद्वारे के लिए तो सिंहों ने जानें अर्पण कर दीं।''
अर्णण! खुल गयी गांठ ! उसने भी एक बार सिर उठाकर उनकी ओर देखा। एकदम मैंने स्वयं को सुर्खरू महसूस किया। अर्पण था नाम उसका।
''हम इसका गंभीरता के साथ हल निकालेंगे। आप बस अमन-चैन बनाये रखो।'' मैं भी उठकर उनके साथ चल दिया। वह वहीं बैठी रही। ड्राइंग-रूम में से निकलकर उन्होंने हाथ जोड़ फतह बुलायी और चल गये। मैं दरवाजा भेड़ कर फिर से अपनी पहली वाली जगह पर आ बैठा। बहादुर ने पास आकर पूछा, ''चाय साहब?''
उसे उत्तर देने के बदले मैंने अर्पण से पूछा, ''आप चाय लोगे न?''
''नहीं, नहीं, कोई ज़रूरत नहीं इस वक्त।'' वह बोली।
''देखो संकोच करने की कोई बात नहीं। कोई फारमैल्टी नहीं। आपका अपना घर है...।'' मुझे लगा, बात मैं थोड़ा बड़ी कर गया था। एकदम इतनी छूट ठीक नहीं। आखिर, मेरा भी कोई स्टेट्स है। पूरी तहसील का मालिक हूँ।
''मुझे लगता है, आपने मुझे पहचाना नहीं सर।'' मेरी बात पर शायद उसने राहत महसूस की।
बदन पर लपेटे शॉल को उसने ढीला किया और थोड़ा और सहज हो गयी। नशे की हल्की-सी तार मेरी आँखों में लरजी। उसका चेहरा पहले से कमजोर था। नयन-नक्श मिच्योर हो गये थे। ढीले हुए शॉल में से मैंने उसकी छातियों का जायजा लेने की कोशिश की, पर सफल न हो सका। पहले वाली बात तो अब मेरी भी नहीं रही थी। रसूलपुर की ठठ्ठी के सीलन भरे कोठे में से निकलकर, निचली जात का लड़का तेजू अर्बन एस्टेट की इस शानदार कोठी में रह रहा था, आलीशान घराने की कालेज-लेक्चरर पत्नी और कान्वेंट स्कूल में पढ़ते दो होनहार बच्चों के साथ।
मैंने तेजू के मुँह पर से पर्दा खिसकाया। छठी कक्षा में दाखिला लेने के लिए जब हाई-स्कूल में गया था, तो मास्टर दर्शन सिंह ने टिप्पणी की थी, ''आ रे सुरैणे मज्हबी के पढ़ाकू ! बता अफसर बनना है कि लफटैण?'' मैं नज़रें झुकाये खड़ा रहा था। वे शब्द मेरे लिए बेअसर थे। मैं चुपचाप क्लास में बैठ गया था। फिर, वह दूसरे मास्टरों के साथ अपना दु:ख साझा कर रहा था, ''देखो तो दुहाई रब की। फीसें माफ, किताबें मुफ्त। तुम देखना, जट्टों के लड़के भेड़ें चराया करेंगे और अफसर बनेंगे ये लोग। कोटे, रिजर्वेशन्स...दुर लाहनत।''
''क्यों कुढ़ रहे हो, मास्टर जी ? गुरु साहिब का खंडे-बाटे का अमृत क्यों भूलते हो ?'' मास्टर संतोख सिंह ने कहा था। ''मानस की जात बराबर समझने के लिए कहा है गुरुओं ने। फिर आप तो अमृतधारी...।''
''कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली।'' उसकी बात का उत्तर देने के बजाय वह बुदबुदाया था। बाद में, मास्टर संतोख सिंह ने मुझे राज की एक बात बतायी, ''पढ़ाई से अधिक कोई शॉर्ट कट नहीं। इन बातों की परवाह न कर और डटकर पढ़। मैं जानता हूँ, तेरे अन्दर पढ़ने की लगन है। तू देखना, ये सारे तेरा पानी भरेंगे।''
मुझे लगता था, जैसे मैं इन बातों के बारे में पहले से ही जानता था। पता था कि मेरी जाति के खिलाफ एक बहुत बड़ी साजिश है। कुछ टीचरों की आँख में मैं सबसे अधिक चुभता था। कुछ लड़के मुझसे तीखी खार खाते थे। उन्होंने मेरा एक बिगड़ा हुआ नाम रखा हुआ था। इन सब विरोधों के बीच मैं अपने आप को बचाकर चलता रहा।
अब गेट पर नेमप्लेट लगी है- तेजवंत सिंह, सब डिवीजन मैजिस्ट्रेट। बाहर नई चमचमाती सरकारी जिप्सी खड़ी है। तत्पर, ड्राइवर सहित।
अर्पण कुछ बोली थी शायद। उसने 'सर' कहकर सम्बोधित किया था। शायद, कह रही थी, ''आपने मुझे पहचाना नहीं ?''
मेरी नज़र सहज ही उसके ढीले हुए शॉल के अन्दर चली गयी। उसने मेरी इस हरकत को ताड़ लिया। वह हल्के-से फुसफुसाई, ''गरमी महसूस हो रही है।'' और शॉल उतार कर तह करने लगी। मुझे लगा, मेरी सुविधा के लिए ही उसने ऐसा किया है। मुझे अपनी जल्दबाजी पर अफसोस हुआ।
मैंने बहादुर को पुकारा, ''बहादुर !''
रसोई में से निकल बहादुर मेरे पास आ खड़ा हुआ, ''जी साहिब।''
''क्या कर रहे हो ?'' मैंने पूछा।
''चाय ला रहा हूँ।'' वह बोला।
''चाय सिर्फ इनके लिए लाओ एक कप, मेरे लिए नहीं। ठीक।''
''जी साहिब।'' कहकर वह चला गया।
अर्पण ने शॉल तह लगाकर सोफे की बाजू पर रख लिया। कह रही थी, मुझे पहचाना नहीं ? अपने गाँव के नम्बरदार सरदार तारा सिंह की अंहकारी बेटी अर्पण को कैसे नहीं पहचानता ? उसका नाम भूल जाने वाली बात तो अचानक हो गयी, उसकी आवाज तो मैंने फट पहचान ली थी। मेरा बाप तो इनकी बेगारी करते-करते कुबड़ा हो गया था। शिखर दोपहरी में मैं इनकी गेहूं काटा करता था और जान निकाल लेने वाले चौमासों में धान की पौध लगाया करता था। मुझे वे सिल्वर के टेढ़े-मेढ़े बर्तन कैसे भूल सकते हैं, जो मेरे और मेरे बापू के लिए एक आले में अलग ही पड़े होते थे। उन बर्तनों में जब मैं दाल-रोटी डलवाने के लिए चौके की तरफ जाता था, तो अर्पण मेरी ओर कभी देखती तक नहीं थी। वैसे, मेरी क्लास-मेट थी वह, लेकिन कभी कोई बात मैंने उसके साथ साझी नहीं की थी। ना ही कभी ऐसी कोई इच्छा जागी थी। किसी भी लड़की में मेरी कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही थी। बस्ती की एक दो लड़कियाँ, जो मेरे से निचली कक्षा में पढ़ती थीं, कभी-कभार सवाल पूछने आ जाती थीं। उनके साथ भी मेरी बात सवाल समझाने तक ही सीमित रहती। अर्पण तो खड़ी ही दूसरे छोर पर थी। बल्ब की मरियल-सी रोशनी में देर रात तक पढ़ते रहना मेरा नियम था। आठवीं कक्षा में मैरिट में आया तो मेरा स्कॉलरशिप लग गया। उस वक्त बापू ने मुझे दिहाड़ी पर जाने से बिलकुल रोक दिया था। काम का सारा बोझ बापू के सिर पर पड़ता देख मैं उस वक्त अन्दर-ही-अन्दर दुखी हुआ था। घर की डावांडोल हालत को सुधारने का सामर्थ्य मुझमें नहीं था। लेकिन, पढ़ाई का शॉर्ट कट मुझे हौसला देता, अपनी मंजिल मुझे करीब दिखाई देती।
अर्पण नये लेडी साइकिल पर स्कूल आती थी। मेरा यह सफ़र पैदल ही तय होता। वह लड़कियों के संग करीब से गुजरती तो कोई ताना मार जाती। मैं अनसुनी करके चुपचाप अपनी राह चलता रहता। मैंने हॉकी की टीम में शामिल होने की कोशिश की, पर मास्टर दर्शन सिंह ने बड़ी चुस्ती के साथ मुझे टीम के पास नहीं फटकने दिया। सबकुछ जानते-समझते मैंने बात को मन पर नहीं लगाया था। मास्टर संतोख सिंह ने मेरी पीठ थपथपाई थी। मुझे पता था, अकेले वही मेरी ओर है, बाकी सब दूसरी ओर।
अर्पण दूसरे धड़े का आखिरी सिरा थी। मुझे देखकर नफ़रत में थूकती थी। मुझे इस बात का कभी रंज नहीं हुआ था। वह लड़कियों को उत्साहित होकर बताती थी, तेजू हमारा कामगार है, नौकर है। वह मेरी बड़ी बहन सीतो के बारे में भी ऊल-जुलूल बोलती थी। मैंने अर्पण को साइंस-रूम में मास्टर सेवा सिंह के साथ देखा था, अकेले और बिलकुल साथ सटे हुए। उस वक्त अर्पण ने शर्मिन्दगी महसूस करने के बदले मुझे धमकी दी थी, ''खबरदार, अगर किसी से कुछ कहा तो। बहुत बुरा करुँगी।''
यह कैसे हो सकता है कि मैं अर्पण को पहचान न सका होऊँ ? यह तो यूँ ही सोच का बहाव बहाकर ले गया मुझे। जीवन के रास्ते कहाँ इतने लम्बे होते हैं कि आदमी बेपहचान हो जाये। यह तो सहज ही जख्म छिल गया। अर्पण भी उस जख्म की जिम्मेदार है। अब वह मेरे सम्मुख सहज और सीधी बनी बैठी है। वह किधर से आयी थी, यह मैं अभी तक नहीं जान सका था।
मेरी मनचली नज़र अर्पण के खुले गले में झांकने का प्रयास कर रही है। अर्पण के बैठने का अंदाज ऐसा है मानो वह मूक स्वीकृति दे रही हो। दिनभर की थकावट के बावजूद, मैं किसी संभावी मुकाबले के लिए खुद को तैयार करने लगा। उस ज़ख्म पर कोई फाहा रखने की खातिर।
बहादुर उसके सामने चाय का कप रख गया। मेरे चेहरे पर तनी कशमकश को देख वह बोली, ''शायद मेरा आना आपको अच्छा नहीं लगा।''
''नहीं नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।'' मैंने कहा।
''फिर आप इतना चुप...।'' वह बोली।
''आपको पता ही है शुरू से मेरी आदत। अभी भी वैसा ही हूँ। आप रीलेक्स होकर बैठो। असल में, व्यस्तता बहुत है। आपने देखा न, वो लोग आये थे, उनका भी कोई मसला था। उनके साथ भी संक्षेप में बातचीत हुई। आप चाय लो, ठंडी हो रही है।''
इस गुरुद्वारे वाले मसले ने भी अन्दर का ज़ख्म छील कर रख दिया था। मैंने स्वयं एक बार गुरुद्वारे में जाकर ऐसी ही विनती की थी, परीक्षा का हवाला देते हुए स्पीकर की आवाज कम रखने का अनुरोध किया था। लेकिन, प्रबंधकों ने दुत्कार दिया था, ''तेरी पढ़ाई ऊँची है कि गुरबाणी?'' प्रबंधकों में सबसे आगे अर्पण का बाप ही था। धर्म की इतनी बड़ी दीवार से टक्कर लेना मेरे वश में नहीं था। मैं चुप हो गया था। मुझे लेबर कालोनी के लड़कों पर तरस आया। पर सही धड़े के साथ खड़ा होना इस समय मेरे लिए दुविधा वाला मसला बना हुआ था।
दूसरे धड़े के साथ खड़ी होने वाली अर्पण आज इतनी सहज क्यों है? क्यों इतनी नरम है? कौन-सी ज़रूरत इसे मेरे पास ले आयी है? बाहर अंधेरा पसर रहा है, रात उतर रही है। क्यों आयी है वह?
''आपने मन मारकर पढ़ लिया। इतनी मेहनत आप ही कर सकते थे। मेरी ओर देखो, न आगे, न पीछे।'' चाय में से उठती भाप पर दृष्टि टिकाये वह बोली।
''ऐसी क्या बात हो गयी ?'' मैंने उत्सुकता जाहिर की।
''शायद आपको नहीं मालूम, पिछले कुछ समय से मैं गाँव में ही रह रही हूँ। मैं और मेरी बेटी दोनों।''
''आपके हसबैंड ?''
''उसके साथ अब मेरा कोई रिश्ता नहीं। यह मेरी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी हार है।'' उसके चेहरे पर उदासी तन गयी।
''कोई केस वगैरह ?'' मुझे उसके साथ हमदर्दी जाग गयी।
''केस तक की तो कोई नौबत ही नहीं पड़ी। वह तो मामला ही ठप्प हो गया।'' उसने कहा। फिर, चेहरे पर से उदासी के प्रभाव को हटाकर थोड़ा मुस्कराते हुए बोली, ''आपके पास एक छोटे से काम से आयी हूँ और वह काम आपके हाथ में है।''
''बताओ, बताओ।'' मैंने कहा।
''पिछले साल मेरी बेटी ने दसवीं पास की है। मैंने उसे आपके विभाग में असिसटेंट की पोस्ट के लिए अप्लाई करवाया है। यह काम आपने करना है।'' कहकर उसने चाय का घूंट भरा।
''बस, इतनी सी बात। उसके पर्टीकुलर्स मुझे दे दो। यह कोई बड़ी बात नहीं।'' मैंने उसे सिर से पांव तक निहारा। उसने मुस्करा कर स्वागत किया।
''थैंक्यू सर।'' उसने हाथ जोड़े।
''कम से कम आप तो सर न कहो। हम क्लास-फैलो रहे हैं, और फिर एक गाँव के। एक मुद्दत के बाद मिले हैं। शायद पन्द्रह साल बाद।''
''पन्द्रह नहीं, कम से कम बीस साल बाद। अट्ठारह साल की तो मेरी बेटी हो गयी। आपके बच्चे ?''
''मेरे दो बच्चे हैं। बेटी आठवीं में है और बेटा छठी कक्षा में। दो छुट्टियाँ थीं, अपनी मम्मी से कहने लगे- रॉक गार्डन दिखा लाओ। आज ही दिन में गये हैं।'' मैंने उसके चेहरे पर नज़र गड़ाई तो वह मुस्करा दी। मेरे अन्दर अजीब-सी हलचल मच गयी। आहिस्ता से उठकर मैं बैड रूम में गया और अल्मारी में रखी बोतल में से एक पैग बनाकर पी गया। नशे की मद्धिम पड़ रही तार फिर से तीखी हो उठी।
वापस आया तो वह बोली, ''बाथरूम किधर है ?''
बहादुर से मैंने कहा, ''मैडम को अन्दर वाला बाथरूम दिखा दे बहादुर।''
वह बहादुर के पीछे-पीछे चली गयी। उसकी कमर देखकर मेरे अन्दर गुदगुदी होने लगी। बाथरूम से लौटकर वह रसोई में जा घुसी और बहादुर से कुछ पूछती रही। रसोई में से बाहर आयी तो उसके चेहरे पर से संकोच-झिझक के भाव गायब हो चुके थे। मैंने बैडरूम में जाकर एक पैग और बना लिया। उसे बुलाने की खातिर पूछा, ''बुरा तो नहीं मानते ?''
''नहीं नहीं, कोई बात नहीं।'' वह बोली।
फिर, थोड़ा-सा और खुलकर मैंने कहा, ''आपने स्टे तो अब यहीं करना है, चाहो तो चेंज वगैरह कर लो। मेरी पत्नी का कोई सूट पहन लो। फिर बैठते हैं रीलेक्स होकर।''
''कोई बात नहीं, सोते समय कर लूँगी।'' उसने अपना इरादा स्पष्ट कर दिया।
दो पैग और पीने के बाद मेरी नज़र डोलने लगी थी। वह मैगजीन होल्डर में से पत्रिकायें निकाल कर उलटती-पलटती रही। नज़र मिलती तो मुस्करा देती। डायनिंग टेबल पर खाना खाते समय छोटी-मोटी बातें हुईं। रसोई संभाल कर बहादुर अपने कमरे में चला गया। ड्राइवर को मैंने यह कहकर भेज दिया कि सवेरे जल्दी आ जाए। अर्पण ने मेरी पत्नी की मैक्सी पहन ली। मैंने देखा, उसके शरीर में कशिश बरकरार थी। बेकाबू होती सोच का कांटा बदल कर मैंने कहा, ''बेटी के फार्म वगैरह मुझे दे दो आप।''
वह टेबल के नीचे से फाइल उठा लाई। एक बार उसकी छातियों को नज़र से टटोलते हुए मैंने फाइल ले ली।
''अनुरीत कौर...'' मैंने उसके चेहरे की ओर देखा, ''मेरी बेटी का नाम भी अनुरीत ही है। इधर देखो...।'' मैंने सामने लगी अपनी बेटी की तस्वीर की ओर इशारा किया। स्कूल में कविता-पाठ के लिए प्रथम पुरस्कार प्राप्त कर रही थी वह। अर्पण ने तस्वीर के करीब जाकर देखा और बोली, ''बहुत प्यारी है आपकी बेटी। आपके जैसी इंटेलीजेंट होगी।'' वह मुस्कराई। पता नहीं कैसी मुस्कराहट थी यह ? बिलकुल उसी तरह जिस तरह मेरे दफ्तर का स्टाफ 'जी हुजूर, ठीक है साहब, आपने ठीक फरमाया सर' कहकर मुस्कराता है। मेरी गलत बात का भी समर्थन कर देता है। दूसरे धड़े के अन्तिम सिरे पर खड़ी अर्पण कुछ इसी तरह ही मेरे इतना करीब आ खड़ी हुई है। मेरी बीवी की मैक्सी पहने, मेरे से इतनी दूर जिसे हम फासला नहीं कहते। मैं अर्पण के चेहरे की ओर देख रहा था। नशे के स्थान पर पीड़ा का एक तीखा अहसास मेरे अन्दर जाग रहा था। अर्पण मेरी बड़ी बहन मीतो का नाम अपने चाचा के साथ जोड़कर मजा लिया करती थी और मुझे ग्लानि के गहरे खड्ड में धकेल दिया करती थी। उस वक्त, कई बार मन करता था कि कोई ऐसा हथियार हो, जिससे मैं चीर कर रख दूँ ऐसे लोगों को।
दूसरी दीवार पर मेरे बेटे विकासबीर की तस्वीर थी। कंधे पर बैट रखे, खिलाड़ियों वाली टोपी पहने। मुझसे कहता है, 'पापा, मुझे क्रिकटर बनना है।' मेरे जेहन में मास्टर दर्शन सिंह का चेहरा घूम जाता है। मैं बेटे को उत्साहित करता हूँ, यह जानते हुए भी कि मास्टर दर्शन सिंह जैसे लोग हर जगह मौजूद हैं।
दारू का असर कम होने लगा है। मैंने फाइल बन्द करके अल्मारी में रख दी। सामने दारू की आधी बोतल पड़ी थी। मन हुआ, नीट ही पी जाऊँ और दिल पर पड़ रहे अनचाहे बोझ से मुक्त हो जाऊँ। मैंने हुक्म की प्रतीक्षा में खड़ी अर्पण की ओर देखा। मेरे एक इशारे पर बिलकुल तैयार थी वह। वह जो दूसरे धड़े का आखिरी सिरा था, अचानक टूट कर सामने आ गिरा था।
मैंने उसे कहा, ''आओ, आपको बैडरूम दिखा दूँ।''
सामने वाले कमरे तक छोड़कर मैं वापस आ गया और आते ही बैड पर ढह गया। और दारू पीने का ख्याल छोड़, मैंने स्वयं को पल-पल फैलती जाती सोच के हवाले कर दिया।
अकेलापन, बेगानी औरत, ज़ख्म का अहसास और कई घंटों तक फैली रात...
मेरे से अर्पण तक सिर्फ तीन कदमों का फासला था, बस... दोनों बैडरूम के दरवाजे चौपट खुले थे। मेरी चेतना में फंसा कोई कांटा मुझे बेचैन कर रहा था। तीन कदमों का फासला एकाएक फैलने लगा था। मुझे लग रहा था, यह फासला मुझसे तय नहीं हो सकेगा। और यह रात... यह रात इसी तरह गुजर जाने वाली थी।
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तलविंदर सिंह
जन्म : 14 फरवरी 1955
शिक्षा : एम.ए.
पुस्तकें : दो उपन्यास -'लौ होण तक' तथा 'यौद्धे'
तीन कहानी संग्रह-'रात चानणी', 'नायक दी मौत' और 'विचली औरत' ।
संप्रति : सरकारी नौकरी ।
सम्पर्क : 61, फ्रेण्ड्स कालोनी, मजीठा रोड, अमृतसर, पंजाब।
फोन : 09872178035